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सद्भर्ममण्डनम् ।
विपुल अशनपान खाद्य और स्वाद्य दूंगा । देते समय भी उसे हर्ष हो रहा था और देनेके अनन्तर भी उसे हर्ष हुआ था इस प्रकार शुद्ध भाव शुद्ध मन वचन और कायसे जो सुमुख गाथापतिने सुपात्र के लिए शुद्ध द्रव्यका प्रदान किया था उससे उसने अपना संसार परिमित करके मनुष्यकी आयु बांधी। यह इस मूल पाठका अर्थ है ।
इसमें कहा है कि “सुमुख गाथापतिने सुदत्त अनगारको आते हुए देख कर अपना आसन छोड़ दिया और पादपीठसे उतर कर एक शाटिक वस्त्रका उत्तरासंग करके मुनिके सम्मुख सात आठ पैरतक गया, और मुनिको दाहिनी ओरसे तीन वार प्रदक्षिणादी " इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि सुमुख गाथापति सम्यग्दृष्टि था मिथ्यात्वी नही । क्योंकि मिथ्यादृष्टि पुरुष साधुको साधु नहीं समझता किन्तु असाधु समझता है इसलिये वह इस प्रकारका आदर सत्कार मुनिका नहीं कर सकता। जैसे हरिकेशी मुनिको देख कर ब्राह्मण कुमारोंने आदर सत्कार नहीं किया था किन्तु उनका अनादर करने लगे थे उसी तरह सुमुख गाथापति भी मिथ्यादृष्टि होता तो मानका आदर सत्कार नहीं करता किन्तु अनादर करता परन्तु उसने मुनिका सत्कार सम्मान किया था इससे उसका सम्यग्दृष्टि होना सिद्ध होता है । कदाचित् मिथ्यादृष्टि भी कारणवश मुनिका आदर सत्कार करे तो उसका हार्दिक भाव शुद्ध नहीं होता किन्तु उसके हृदयमें मुनिके प्रति अश्रद्धा बनी रहती है परन्तु सुमुख गाथापतिका हार्दिक भाव शुद्ध था इसीलिये मूलपाठमें "हट्टतुट्ठे " यह पद आया है इसका अर्थ यह है कि सुमुख गाथापति मुनिका सत्कार सम्मान करते समय हृदयमें बहुत प्रसन्न था । यदि वह मिथ्यादृष्टि होता तो साधुके प्रति हृष्ट तुष्ट नहीं होता अतः सुमुख गाथापति उस समय सम्यग्दृष्टि ही था मिथ्यादृष्टि नहीं । तथा सुमुख गाथापति जो मुनिको दान दिया था उसका वर्णन करते हुए उक्त मूलपाठमें कहा है कि " सुमुख गाथापतिका दान, दातृ शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, और पात्र शुद्धि इन तीनों शुद्धियोंसे युक्त था । ये तीनों शुद्धियां सम्यग्दृष्टिके दानमें ही होती हैं मिथ्यादृष्टिके दानमें नहीं होतीं क्योंकि मिथ्यादृष्टिकी साधुके प्रति अश्रद्धा होनेसे उसका हृदय शुद्ध नहीं होता और हृदय शुद्ध न होनेसे उसके दानमें दाताकी शुद्धि नहीं होती अतः मिथ्यादृष्टियोंके दानमें त्रिविध शुद्धियां नहीं होतीं परन्तु सुमुख गाथापतिका दान तीनों प्रकारकी शुद्धियोंसे युक्त था इसलिए सुमुखगाथापतिका सम्यग्दृष्टि होना स्पष्ट प्रमाणित होता है ।
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इसी तरह इस मूलपाठ में सुमुख गाथापतिके दानको मानसिक शुद्धिसे युक्त होना कहा है यह भी सुमुख गाथापतिके सम्यग्दृष्टि होनेका साधक है। सम्यग्दृष्टिका ही साधु के प्रति मन शुद्ध होता है मिध्यादृष्टिका नहीं । सुमुख गाथापतिका साधुके प्रति मन शुद्ध था इस लिये वह सम्यग्दृष्टि ही था मिथ्यादृष्टि नहीं । एवं सुमुख गाथापतिने मुनिको
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