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मिथ्वात्विक्रियाधिकारः।
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खीरदहिणवणीतसप्पितेलगुललोणमहुमज्जमंसपरिचत्तकयाहारोअप्पिच्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमार भेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ अकामवंभचेरवासेणं तमेव पइसेज्जं गाइकमइ ताओणं इथिआओ एयारवेणंविहारेणं विहरमाणीओ वहुई वासाई सेसं तंचेव जाव चउसहि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता"
(उवाई सूत्र ) अर्थ_
.... ___ ग्रामसे लेकर यावत् संन्निवेशों में रहने वाली जिस स्त्रीका पति कहीं चला गया है या, मर गया है तथा जो वाल्य काल में विधवा हो गई है, जो पति से छोड़ दी गई है, जो अपने माता पिता या भाई से पाली जाती है, जो पिता या श्वसुर के घर में पाली जाती है, जो अपने शरीरका संस्कार नहीं करती, जिसके नख, केश, और कांख के बाल बढ़ गये हैं, जो फूल की माला गन्ध और फूल नहीं धारण करती, जो स्नान नहीं करती और पसीना धूलि तथा कीचडका कष्ट सहन करती है, जो दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, नमक, मधु, मद्य और मांस से रहित भोजन करती है, जो अल्पइच्छा अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह करती है, जो अल्प आरम्भ और अल्प समारम्भ से जीविका करती है, जो अकाम ब्रह्मचर्य पालन करती हुई पतिकी शय्याका उल्लङ्घन नहीं करती है, वह भी इस प्रकार अपने जीवन को व्यतीत करती हुई काल आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर वाण व्यन्तर संज्ञक देवलोक में उत्पन्न होती है। शेष पूर्व पाठ की तरह समझना चाहिये विशेष बात यह है कि यह स्त्री चौसठ हजार वर्ष तक देवलोक में रहती है। यह स्त्री भी मोक्ष मार्गका आराधक नहीं है। यह इस पाठ का अर्थ है। .
___ यहां मूलपाठ में अकाम ब्रह्मचर्य पाल कर चौसठ हजार वर्ष की आयु से देवता होने वाली स्त्री को श्रीतीर्थङ्कर देवने मोक्षमार्ग का आराधक न होना बतलाया है। इससे भी पूर्ववत् यही बात सिद्ध होती है कि संवर रहित निर्जरा की करनी मोक्षमार्ग के आराधन में नहीं है। क्योंकि इस पाठ में कही हुई स्त्री संवर रहित निर्जरा की करनी भली भांति करती है तो भी वह मोक्षमार्ग की आराधिका नहीं मानी गई है। अतः संवर रहित निर्जरा को मोक्ष मार्ग में कायम करना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये ।
(बोल ९ वां समाप्त) ( प्ररूपक )
जो मनुष्य अन्न जल आदिका नियम रख कर चौरासी हजार वर्ष की आयु के देवता होते हैं उन्हें भी भगवान् ने मोक्षमार्गका आराधक न होना बतलाया है। वह पाठ
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