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सद्धर्ममण्डनम् ।
इड्ढीवा जुईवा जसेतिवा वलेतिवा वीरिएवा पुरिसकार परिकमेइवा ? हन्ता ! अस्थि । तेणं भन्ते ! देवा परलोगरस आराहगा ? णोइणठे समठे"
(उवाई सूत्र) अर्थ
(प्रश्न ) हे भगवान् ! जो, संयम और विरतिसे रहित है तथा जिसने भूत काल के पापों का हनन और भविष्यत् के पापों का प्रत्याख्यान नहीं किया है वह इस लोक से मर कर क्या देवता हो सकता है ?
( उत्तर ) कोई कोई देवता होता भी है और कोई नहीं भी होता है। ( प्रश्न ) इसका वजह क्या है ?
(उत्तर ) ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेड़, कब्बड़, मडंव, द्रोणमुख, पट्टणासम, संवाह और सन्निवेशों में रहनेवाले जो जीव निर्जरा की इच्छा के बिना अकाम तृष्णा, अकाम क्षुधा, अकाम ब्रह्मचर्य पालन, अकाम स्नानका न करना तथा अकाम से शर्दी, गर्मी, दंश, मसक, स्वेद, धूलि, पङ्क, और मलका सहन करते हैं वे थोड़े या बहुत दिनों तक क्लेश सहन करके मरण काल आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर वाण व्यन्तर संज्ञक देवलोक में उत्पन्न होते हैं। वहीं उनकी गति स्थिति और देवभव की प्राप्ति होती है। ...... ( प्रश्न ) वे जीव देवता होकर देवलोक में कितने काल तक रहते हैं ?
( उत्तर ) दश हजार वर्ष तक वे देवलोक में रहते हैं।
( प्रश्न ) उन देवताओं की वहां पारिवारिक सम्पत्ति, शरीर तथा भूषणोंकी दीप्ति, यश, बल, वीर्य्य पुरुषाभिमान और पराक्रम होते हैं ? - ( उत्तर ) होते हैं।
( प्रश्न ) वे देवता परलोक यानी मोक्षमार्गके आराधक हैं ?
( उत्तर ) नहीं। वे परलोक (मोक्षमार्ग ) के आराधक नहीं हैं। यह उवाई सूत्र के ऊपर लिखे हुए मूलपाठ का अर्थ है। - इस मूलपाठ में अकाम क्षुधा तृष्णा अकाम ब्रह्मचर्यपालन अकाम शर्दी, गर्मी, दंश मशक आदिका कष्ट सहन करके दश हजार वर्षकी आयुसे देवता होनेवाले जीव को श्री तीर्थकर देवने मोक्ष मार्ग का आराधक न होना बतलाया है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संवर रहित निर्जरा की करनी मोक्ष मार्ग के आराधन में नहीं है। अन्यथा इस मूलपाठ में कहे हुए पुरुष को भगवान् मोक्ष मार्ग का आराधक न होना कैसे बतलाते ? अतः संवर रहित निर्जरा की करनी को मोक्ष का मार्ग कह कर उस करनी के करने से मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्ष मार्ग का देशाराधक बतलाना प्रत्यक्ष इस पाठसे विरुद्ध समझना चाहिये।
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(६ छहा बोल समाप्त)
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