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मिथ्यात्वक्रियाधिकारः ।
सूत्रोक्त चतुर्भङ्गीके चतुर्थ भङ्गका स्वामी होता है इस प्रकार सभी मिथ्यादृष्टि चतुर्थभङ्ग ही स्वामी हैं क्योंकि उनमें श्रुत ओर शील ( चारित्र ) इनमें से एक भी नहीं होता । अतः मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्षमार्गका देशाराधक कहना और इसके लिये भगवतीकी साक्षी: देना अज्ञानमूलक समझना चाहिये ।
संबर रहित निर्जराकी करनीको मोक्ष मार्गके आराधन में कायम करके मिथ्या दृष्टिको देशाराधक माननेसे भ्रमविध्वंसनकारकी प्ररूपणा भी यहां पूर्वापर विरुद्ध हो गई है । जैसे कि भगवतीके इस पाठका अर्थ करते हुए जीतमलजीने लिखा है कि “म्हें ते पुरुष देश आराधक प्ररूप्यो एष बाल तपस्वी" "म्हैं ते पुरुष सर्वविराधक को अती बाल तपस्वी" ( भ्रम० पृ० ३ ) यह लिख कर भ्रमविध्वंसनकारने पहला और चौथा इन दोनों ही भंगोंमें बालतपस्वीका होना बतलाया हैं परन्तु यह परस्पर विरुद्ध है । जा बाल तपस्वी देशले मोक्ष मार्गका आराधक होकर प्रथम भङ्गका स्वामी है वह चतुर्थ भङ्गका स्वामी नहीं हो सकता है क्योंकि चतुर्थ भङ्गवाला मोक्ष मार्गका किंचित् भी आराधक नहीं है । यदि कहो कि चतुर्थ भङ्गवाला व्यब्रती बाल तपस्वी है और प्रथम भङ्गवाला पुरुष बाल तपस्वी है इसलिये जीतमलजी ने पूर्वापर विरुद्ध प्ररूपणा नहीं की है तो यहां यह प्रश्न होता है कि प्रथम भङ्गवाला बालतपस्वी अब्रती है या नहीं ? यदि अम्रती है तो फिर चतुर्थभङ्ग वाले अब्रती बालतपस्वीसे इसका कुछ भी भेद नहीं है क्योंकि यह . भी अती बालतपस्वी है और चतुर्थभङ्ग वाला भी अती बाल तपस्वी है इस प्रकार जीतमलजीके लेखानुसार प्रथम भङ्ग और चतुर्थ भङ्गके स्वामियोंमें कुछ भी भेद नहीं रहता । ये दोनों ही भङ्गके स्वामी एक ही हो जाते हैं परन्तु यह बात एकान्त विरुद्ध है. प्रथम भङ्गका स्वामी देशाराधक है और चौथा भङ्गका स्वामी सर्व विराधक है अतः ये दोनों एक नहीं हैं । यदि कहो कि प्रथम भङ्ग वाला बालतपस्वी अग्रती नहीं किन्तु व्रती है इसलिये यह चतुर्थ भङ्ग वाले बालतपस्वीसे भिन्न है तो फिर यह मिथ्यादृष्टि कैसे ? मिथ्यादृष्टिमें व्रत नहीं होता और यह व्रती है इसलिये सम्यग्दृष्टि ही ठहरता है मिथ्यादृष्टि नहीं अतः मिथ्यादृष्टिको देशाराधक बतलाना जीतमलजीका अज्ञान है ।
यदि कोई कहे कि भगवतीके मूल पाठमें देशाराधक शीलवान् पुरुषको “अविण्णा यधम्मे" कह कर धर्मका ज्ञाता न होना कहा है इसलिये यह सम्यग्दृष्टि नहीं है तो यह भी मिथ्या है क्योंकि "अविण्णाय धम्मे" इस पदका अर्थ अज्ञानी या धर्मको बिलकुल नहीं जाने वाला नहीं है । व्याकरणानुसार इसका अर्थ यह है कि - " न विशेषेण ज्ञात: धर्मोयेन स” अविज्ञात धर्मा” अर्थात् जिसने विशेष रूपसे धर्मको नहीं जाना है वह अविज्ञात धर्मा पुरुष कहलाता है । तात्पर्य यह है कि पहला देशाराधक पुरुष वह है जो चात्रिकी
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