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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। इसका समाधान यदि भ्रमविध्वंसनकार यह देवें कि जिस पुरुषका संयमके साथ अहिंसा और तपमें सदा मन लगा रहता है उसीको यह गाथा देववन्दनीय बतलाती है इसलिये संयमी पुरुषकी ही वन्दना वीतरागकी आज्ञामें हैं तो फिर संयमी पुरुषकी ही अहिंसा और तपको इस गाथामें कहा जाना भी मानना चाहिए और संयमके साथ जो अहिंसा और तप होते हैं उन्हींको वीतरागकी आज्ञामें भी कहना चाहिए। अतः दशवैकालिक सूत्रके पहले अध्ययनकी पहली गाथाका नाम लेकर मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको आज्ञामें कायम करना और धर्मका दो भेद संवर तथा निर्जरा बतलाना मिथ्या समझना चाहिए। पाठकोंके ज्ञानार्थ देशवैकालिक सूत्र की वह गाथा लिख कर उसका मूलायें कर दिया जाता है।
"धम्मो मंगल मुफिट अहिंसा संजमो तवो देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो।"
(दशवकालिक सूत्र अ० १ गाथा १) अर्थ-धर्म, मंगल अर्थात् कल्याणका दाता और उत्कृष्ट यानी सब बस्तुओंमें प्रधान है। वह धम अहिंसा, संयम, तथा तप स्वरूप है। धर्ममें जिसका सदा मन लगा रहता है देवता भी उसे नमस्कार करते हैं। यह उक्त गाथाका अर्थ है।
इस गाथामें मंगल देने वाला सबसे श्रेष्ठ देववन्दनीय धर्मका कथन है। ऐसा धर्म, श्रुत और चारित्र ही हो सकता है लौकिक धर्म नहीं। क्योंकि लौकिक धर्म न तो देववंदनीय है और न मोक्ष रूप मंगल देनेवाला सबसे प्रधान ही है इसलिये उसका कथन न होकर इस गाथामें मोक्ष रूप मंगलको देनेवाला सबसे प्रधान और देववन्दनीय श्रुत
और चारित्र धर्मका ही कथन है। वह श्रुत और चारित्र ही इस गाथामें अहिंसा संयम तथा तप कह कर बतलाये हैं। इसलिये गाथोक्त अहिंसा संयम और तप मिथ्यादृष्टि अज्ञानीमें नहीं होते क्योंकि वह श्रुत तथा चारित्र धर्मसे रहित होता है। अतः इस गाथा का नाम लेकर मिथ्यादृष्टि अज्ञानीमें अहिंसा और तप धर्मका सद्भाव बतलाना और उसे मोक्ष मार्गका देशाराधक कहना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये ।
बोल चौथा (प्रेरक)
आपने मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्षमार्गका किंचित् भी आराधक न होना बतलाया पर भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४ पर लिखते हैं कि
"तिवारे कोई कहे ते मिथ्यादृष्टि बालतपस्वीरे संवर व्रत तो किञ्चिन्मात्र नहीं तो प्रत विना देशाराधक किम हुवे इमि पूछ तेहनो उत्तर-बतीनेतो सर्वआराधक कहीजे
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