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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। यहां गाथामें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तप ये चार मोक्ष के मार्ग कहे हैं। ये चारों ही श्रुत और चारित्र धर्म के भेद हैं ज्ञान और दर्शन तो श्रुत के अन्दर और चारित्र तथा तप चारित्र के अन्दर माने जाते हैं। अतः गाथा में कहे हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, श्रुत तथा चारित्रके अन्तर्गत हैं। अतएव इस गाथाकी पाई टीका में तप के विषय में लिखा है कि
“तपो वाह्याभ्यन्तर भेद भिन्नं यदर्हद्वचनानुसारि तदेवो पादीयते "
अर्थात् वाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे भिन्न अहंद्वचनानुसारी जो तप है उसी का इस गाथा में ग्रहण है।
__ यहां टीकाकारने वीतराग भाषित तप को ही मुक्तिका मार्ग बतला कर गाथामें उसीका ग्रहण होना बतलाया है पर मिथ्यादर्शनानुसारी तपको मुक्ति का मार्ग नहीं कहा है। अतः वीतरागकी आज्ञामें होने वाला यह तप चारित्र का ही भेद है। अतएव इस गाथा की टीकामें चारित्रसे पृथक् तपको लिखनेका प्रयोजन बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि-"इहच चारित्र भेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादान मस्यैव क्षपणं प्रत्यसाधारण हेतुत्वमुपदर्शयितुम् ।' अर्थात् तप, चारित्रका ही भेद है तथापि कर्मक्षय करनेमें यह सबसे प्रधान है यह बतलानेके लिए इस गाथामें चारित्रसे अलग तप कहा गया है।
यहां टीकाकारने स्पष्ट लिखा है कि तप चारित्र का ही भेद है अतः सिद्ध हुआ कि ऊपर लिखी हुई गाथामें श्रुत और चारित्र धर्म ही ज्ञान, दशन, चारित्र तथा तप कह कर बतलाये गये हैं इस न्यायसे श्रुत और चारित्रसे भिन्न कोई तीसरा वीतरागकी आज्ञाका धर्म नहीं है यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है।
ठाणाङ्ग सूत्रमें विद्या और चारित्रके द्वारा संसार-सागरसे पार जाना कहा है, वह विद्या और चारित्र भी श्रुत तथा चारित्र धर्म ही हैं इनसे पृथक् नहीं। वह पाठ
"दोहिं ठाणेहिं अणगारे सम्पन्ने अगादियं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतर संसारकतारं वीतिवरोजा । तंजहा विजाएचेव चरणेणचेव" (ठणाङ्ग ठाणा २ उद्देशा ३)
___ इस पाठमें विद्या और चारित्रके द्वारा संसार सागर से पार जाना कहा है और मूलपाठ में विद्या और चरण शब्द के साथ “एव कार" लगाकर भवसागर को पार करने के लिये अन्य उपाय का निषेध किया है। इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिये विद्या और चरण ये दो ही कारण सिद्ध होते हैं इनसे भिन्न कोई तीसरा कारण नहीं। यहां विद्या शब्द से ज्ञान दर्शन का और चरण शब्द से चारित्र का ग्रहण है इसलिये इस पाठ में श्रुत और
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