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सद्धममण्डनम्।
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चारित्र ही विद्या, तथा चरण कहकर बतलाये हैं। अत: इस पाठसे भी यही सिद्ध होता है कि श्रुत और चारित्र धर्म ही मोक्ष प्राप्तिके कारण हैं इनसे भिन्न कोई दूसरा नहीं है।
यहां कोई यह शङ्का करे कि विद्या शब्द तो केवल ज्ञान अर्थमें ही प्रसिद्ध है उससे ज्ञान और दर्शन इन दोनों का ग्रहण क्यों होगा ? तो इसका उत्तर यह है कि इस पाठ की टीका में विद्या शब्दसे ज्ञान और दर्शन दोनों ही का ग्रहण होना लिखा है। वह टीका यह है-"ननु सम्यगज्ञान दर्शन चारित्राणि मोक्ष मार्ग इति श्रूयते इह तु ज्ञान क्रियाभ्यामसावुक्त इति कथं न तद्विरोधः अथ द्विस्थानकानुरोधादेवं निर्देशेऽपि न विरोधो नैवमवधारणगर्भत्वान्निर्देशस्येति । अत्रोच्यते विद्यापहणेण दर्शनमप्यविरुद्ध द्रष्टव्यं ज्ञानभेदत्वात्सम्यग्दर्शनस्य । यथाहि अवोधात्मकत्वे सति मतेरनाकारत्वादवप्रहे दर्शनं साकारत्वाच्चापायधारणे ज्ञानमुक्तमेवं व्यवसायात्मकत्वे सत्यवायस्य रुचिरुपोंऽशो ऽवाय एवे ति न विरोधः। अवधारगंतु ज्ञानादिव्यतिरेकेण नान्यउपायो भव व्यवच्छेदस्येति दर्शनार्थ मिति”
___ अर्थ-सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र मोक्षके मार्ग सुने जाते हैं परन्तु यहां ज्ञान और क्रियासे मोक्ष कहा गया है इस कारण उससे विरोध क्यों नहीं ? यदि कहो कि ठाणाङ्ग सूत्रका यह दूसरा ठाणा है इसमें तीनका समावेश नहीं है इसलिये यहां ज्ञान और क्रियासे मोक्ष कहा, किन्तु दर्शनसे नहीं। तो यह अयुक्त है। क्योंकि इस मूल पाठमें "विज्जाए चेव चरणेण चेव" इन पदोंमें विद्या और चरण से ही मोक्ष जाने का नियम करके दूसरे से मोक्ष प्राप्तिका निषेध किया है। इसका उत्तर यह है कि विद्या शब्द से यहां दर्शन का भी ग्रहण समझना चाहिये । क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञानका ही भेद है। जैसे कि अववोध स्वरूप और अनाकार स्वरूप होने से मतिज्ञान के अवाह और ईहारूप भेद दर्शन स्वरूप हैं और साकार होने के कारण अवाय और धारणा रूप मतिज्ञान के भेद, ज्ञान के अन्दर कहे हैं इसी तरह व्यवसाय स्वरूप अवाय का रुचि रूप अंश सम्यग्दर्शन है और अवगमरूप अंश अवाय, ज्ञान स्वरूप ही है इसलिये कोई विरोध नहीं है। इस पाठ में जो “एवकार" आया है वह सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र से भिन्न कोई मोक्ष प्राप्ति का उपाय नहीं हैं यह दर्शाने के लिये समझना चाहिये । यह उक्त टीका का अर्थ है। .
यहां टीकाकार ने विद्या शब्द से ज्ञान और दर्शन दोनों ही का ग्रहग बतलाया है और सम्यग्ज्ञान दर्शन ही श्रुत कहलाते हैं इसलिये उक्त मूलपाठ में श्रुत और चारित्रधर्म ही विद्या और चरण शब्द से कहे गये हैं। मूलपाठ में 'एवकार' देकर इनसे भिन्न पदार्थ को मोक्ष प्राप्ति में निषेध किया है अत: श्रुत और चारित्रधर्म ही मोक्ष के मार्ग तथा वीतराग की आज्ञा के धर्म सिद्ध होते हैं। श्रुत तथा चारित्र अथवा विद्या या चारित्रधर्म
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