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सद्धर्ममण्डनम् । पुरुष वीतरागकी आज्ञाराधनाके किसी भी भेदका आराधक है वह दो तीन भवोंमें अथवा असंख्य भवोंमें अवश्य ही मोक्ष जाता है पर जो पूर्वोक्त आराधनाओंके किसी भी भेदका आराधक नहीं है वह कभी भी मोक्ष नहीं जाता किन्तु वह अनन्त कालतक संसारमें ही पड़ा रहता है। अतः मिथ्यादृष्टि पुरुष वीतरागकी आज्ञाका किञ्चित् भी आराधक नहीं है क्योंकि आज्ञाराधक पुरुष पूर्वोक्त पाठ और टीकानुसार दो तीन भवमें अथवा उत्कृष्ट असंख्य भवमें अवश्य ही मोक्ष जाता है पर मिथ्या दृष्टि नहीं जाता। इसलिये वह वीतराग की आज्ञाराधनाके किसी भी अंशका आराधक नहीं है यह उक्त मूल पाठसे सिद्ध होता है। जो लोग मिथ्यादृष्टिको देशसे मोक्ष मार्गका आराधक मानते हैं उन्हें उक्त मूल पाठ और उस की टीकानुसार मिथ्यादृष्टि को उत्कृष्ट असंख्यभव में मोक्ष जाना भी मानना चाहिये। यदि मिथ्यादृष्टिको असंख्य भव में वे मोक्ष जाना नहीं मानते, तो फिर उसे वीतरागकी आज्ञाका देशसे आराधक भी नहीं मान सकते जो आज्ञाका आराधक तो हो और असंख्य भव में भी मोक्ष न जाय यह बात उक्त मूल पाठ और उस की टीका से विरुद्ध है।
पूर्वोक्त त्रिविध आराधनाए श्रुत और चारित्रके ही अन्तर्गत हैं। ज्ञानके बिना दर्शन और दर्शनके बिना ज्ञान नहीं होता इसलिए ज्ञान और दर्शन ये दोनों श्रुत धर्ममें माने जाते हैं और चारित्राराधना चारित्रस्वरूप है इसलिए धर्मके मूलभेद श्रुत और चारित्र ये दो ही हैं। दशवकालिक सूत्र में “अहिंसा संजमो तवो" यह कह कर अहिंसा संयम, और तपको जो धर्म कहा है वह श्रुत और चारित्रको ही अहिंसा संयम और तप कह कर बतलाया है। पर श्रुत और चारित्र से अतिरिक्त अहिंसा संयम तप धर्म नहीं कहे हैं । अतएव इस गाथा की नियुक्ति में धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "दुविहो लोगुत्तरियो सुयधम्मो खलु चरित्त धम्मोय " अर्थात् लोकोत्तर धर्म दो प्रकारका होता है एक श्रुत और दूसरा चारित्र । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रुत और चारित्र रूप लोकोत्तर धर्मको ही उक्त गाथा में अहिंसा, संयम और तप कह कर बतलाया है परन्तु किसी लौकिक धर्मको नहीं।
इसी तरह उत्तराध्ययन सुत्रके २८ वें अध्ययनमें मोक्षका मार्ग बतलानेके लिए यह गाथा कही है किः
"नाणश्च दंसणंचैव चरितंच तवो तहा। एसमग्गुत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदं सिहिं" ( उत्तरा० अ० २८ गाथा २)
अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र और तपको तत्त्वदर्शी जिनवरोंने मोक्षका मार्ग बतलाया है।
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