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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। श्रुताज्ञान क्रिया और विभङ्गाज्ञान क्रिया कहा है। ये सभी क्रियायं उपरोक्त मूल पाठमें अज्ञान क्रिया के मेद कही हैं। अज्ञान, वीतराग की आज्ञा से बाहर है इसलिये अज्ञानसे की जाने वाली मिथ्यादृष्टियों की ये क्रिया भी आज्ञा से बाहर ही हैं।
आवश्यक सूत्र में अज्ञान को त्यागने योग्य और ज्ञानको आदरने योग्य कहा है।
वह पाठ-"अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपवज्जामि मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपवज्जामि" (आवश्यक सूत्र)
__ अर्थ-साधु प्रतिज्ञा करता है कि मैं अज्ञान को छोड़ता हूं और ज्ञान को प्राप्त करता हूं। तथा मिथ्यात्व को छोड़ता हूं और सम्यक्त्व को प्राप्त करता हूं। यह इस पाठका अर्थ है।
___इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अज्ञान और मिथ्यात्व वीतराग की आज्ञा से बाहर है इसलिये अज्ञान तथा मिथ्यात्व से जो क्रिया कीजाती है वह भी आज्ञा से बाहर ही सिद्ध होती है।
भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा २ में जिसको जीव, अजीव, त्रस और स्थावरका ज्ञान नहीं है उसके प्रत्याख्यानको दुष्प्रत्याख्यान कहा है इसलिये अज्ञानी मिथ्यादृष्टि की क्रिया आज्ञा बाहर सिद्ध होती है क्योंकि मिथ्यादृष्टि को जीव, अजीव, बस और स्थावरका सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
उवाई सूत्रमें कहा है कि जो पुरुष, अकामनिर्जराकी क्रिया करके दश हजार. वर्षकी आयुके देवता होते हैं जो हाडी बन्धनादिक दुःख सह कर बारह हजार वर्षको आयुके देवता होते हैं जो माता पिता आदिकी सेवासे चौदह हजार वर्षकी आयुके देवता होते हैं जो स्त्री अकाम ब्रह्मचर्य पालन करके चौसठ हजार वर्षकी आयुकी देवता होती है जो अन्न जल आदिका नियम रखकर चौरासी हजार वर्षकी आयुके देवता होते हैं जो कन्द मूलादि खाकर एक पल्योपम और एक लाख वर्षकी आयु के देवता होते हैं जो परिव्राजकधर्मका पालन करके दश सागरकी आयुके देवता होते हैं तथा गोशालक मतानुयायी जो बाईस सागरकी आयुके देवता होते हैं ये सभी लोग मोक्षमार्ग के आराधक नहीं हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अज्ञान तथा मिथ्यात्वसे की जाने वाली क्रिया वीतराग की आज्ञासे बाहर है और उन क्रियाओंका आचरण करनेवाले मिथ्या दृष्टि पुरुष मोक्ष मार्गके आराधक नहीं है किन्तु जो ज्ञानवान और सम्यग्दृष्टि हैं वे ही भगवान् की आज्ञाके आराधक हैं।
साता।
(दूसरा बोल समाप्त।)
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