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सद्धर्ममण्डनम् । अर्थात् जिसको सम्यक् अर्थका बोध नहीं है और सद्बोधसे उत्पन्न होनेवाली विरति भी नहीं है वह जीव "बाल' कहलाता है अर्थात् मिथ्यादृष्टिको बाल कहते हैं। उसकी वीर्यता बाल वीर्यता कहलाती है। यह टीकाका अर्थ है।।
यहां मूलपाठ और टीकामें मिथ्यात्वमोहनीय कर्मके उदयसे जो परलोककी क्रिया की जाती है उसे बालवीय॑के द्वारा होना कहा है और वालवीर्य ( मिथ्यात्वीका वीर्य ) वीतरागकी आज्ञासे बाहर है इसलिए उस वीर्यके द्वारा जो परलोककी क्रिया की जाती है वह भी आज्ञासे बाहर सिद्ध होती है। अतः अज्ञानी और मिथ्यादृष्टियोंकी परलोकके लिए की जानेवाली तपोदानादिरूपा क्रिया वीतरागकी आज्ञासे बाहर समझनी चाहिए।
ठाणाङ्ग सूत्रके तीसरे ठाणेमें मिथ्यादृष्टियोंकी क्रिया अज्ञान क्रिया कही हैं और अज्ञान भगवान्की आज्ञासे बाहर है अतः मिथ्यादृष्टिकी क्रिया भी आज्ञा बाहर सिद्ध होती है वह पाठ
“अण्णाणकिरिया तिविहा पण्णत्ता तंजहा-मतिअण्णाण किरिया सुय अण्णाण किरिया विभंगण्णाण किरिया"
(ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ३ उद्देशा ३) (टीका) "मइ अण्णाण किरिए” त्ति । "अविसेसिया मइच्चिय सम्मदिट्ठिस्स सा मइण्णाणं मइअण्णाणं मिच्छदिठुिस्स सुयं वि एवमेव त्ति मत्यज्ञानात् क्रियाऽनुष्ठानं मत्यज्ञानक्रिया एवमितरेऽपि नवरं विभंगो मिथ्यादृष्टेरवधिः स एवाज्ञानं विभंगा ज्ञानमिति ।"
__ अर्थात्-जो क्रिया, अज्ञानसे की जाती है उसे “अज्ञान क्रिया" कहते हैं। उसके तीन भेद हैं मत्यज्ञानक्रिया, श्रुताज्ञानक्रिया और विभंगाज्ञानक्रिया।।
यह मूलपाठका अर्थ है। इसमें अज्ञानक्रियाके जो मत्यज्ञानादिक तीन भेद बतलाए हैं इनका अर्थ जो उपरोक्त टीकामें किया है उसका भाव यह है
सम्यग्दृष्टि पुरुषकी मतिको “मतिज्ञान" कहते हैं। और मिथ्यादृष्टिकी मतिको "मतिअज्ञान" कहते हैं। इसी तरह श्रुतके विषयमें भी जानना चाहिये। जो क्रिया मत्यज्ञानसे की जाती है वह मत्यज्ञानक्रिया कहलाती है। इसी तरह श्रुताज्ञानक्रिया और विभङ्गाज्ञान क्रिया समझनी चाहिये । “विभङ्ग' नाम मिथ्यादृष्टि के अवधि ज्ञान का है वह ज्ञान भी अज्ञान है इसलिये इसे “विभङ्गाज्ञान" कहते हैं। यह टीका का अर्थ है । यहां टीकाकार ने मिथ्यादृष्टि अज्ञानी की मति, श्रुत, और अवधि को मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, और विभङ्गाज्ञान कहा है और इनसे की जाने वाली उसकी क्रियाओं को मत्यज्ञान क्रिया
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