Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ० २७ शठतास्वरूपवर्णनम्
___ इत्थं कुशिष्यस्वरूपं विचिन्त्य तैरसमाधि क्लेशं च प्रापितो गर्गाचार्यों यत्कृतवांस्तदुच्यतेमूलम्--अहं सारही विचिंतेई, खलंकेहिं समागओ।
किं मज्झै दुईसीसेहि, अप्पा में अवसीयई ॥१५॥ छाया-अथ सारथिर्विचिन्तयति, खलुकैः समागतः ।
किं मम दुष्टशिष्यैः, आत्मा मे अवसीदति ॥१५॥ टोका--' अह' इत्यादि।
अथ पूर्वोक्तचिन्तनानन्तरं खलकै गलिषभतुल्यैः कुशिष्यैः समागतः= संयुक्तः सारथिः-सारथिरिव सारथिः-धर्मयानस्य नियन्ता स गर्गाचार्यों मनस्येवं विचिन्तयति-एभिः दुष्टशिष्यैः मम किं प्रयोजनं सिध्यति ? न किमपीत्यर्थः । प्रत्युत जाते हैं उसी तरह कुशिष्य भी गुरुमहाराज द्वारा हर तरह योग्य बना देने पर भी गुरु को छोड कर अन्यत्र चले जाते हैं ॥१४॥
इस प्रकार कुशिष्य का स्वरूप विचार कर उन अपने कुशिष्यों द्वारा असमाधि एवं क्लेश को प्राप्त हुए गर्गाचार्य ने क्या किया वह सूत्रकार कहते हैं- 'अह' इत्यादि ! ___ अन्वयार्थ-(अह-अथ) इस प्रकार कुशिष्यों का स्वरूप विचार करने के बाद (खलंकेहि-खलङ्कः ) दुष्ट वृषभ के तुल्य कुशिष्यों से (समागओ-समागतः) युक्त (सारही-सारथीः) सारथि के समान धर्मयान के नियन्ता उन गर्गाचार्य ने मन में ऐसा विचार किया कि (दुइसीसेहिं मज्ज्ञ किं-दुष्टशिष्यैः मम किम् ) इन दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या प्रयोजन है-इनके द्वारा हमारा कौन सा कार्य सिद्ध होता हैતરફથી દરેક રીતે એગ્ય બનાવાઈ જતાં ગુરુને છોડીને બીજે ચાલ્યા જાય છે. ૧૪
આ પ્રમાણે કુશિષ્યના સ્વરૂપને વિચાર કરી પિતાના એવા કુશિષ્યથી અસમાધિક અને કલેશને પ્રાપ્ત બનેલા ગર્ગાચાર્યે શું કર્યું તે સૂત્રકાર કહે છે –
" अह" छत्याह!
म-क्या-अह-अथ ॥ प्रमाणे मुशिष्यन। २१३पना लिया ४ मा खल केहिं-खलङ्कः दृष्ट सहना वा सुशिष्याथी समागओ-समागतः यात सारही-सारथिः सारथीनी रे धर्मयानना नियन्ता सा गायाय भनमा मेवा दिया२ ४यो है, दुदुसीसेहि मज्झ किं-दुष्टशिष्यैः मम किम् या शिष्याथी भारे शुप्रयोगन छे. यामनाथी भाई यु ४ार्य सिद्ध थाय छे. मे अपा
उत्तराध्ययन सूत्र:४