Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनीटीका अ. २९ सकलकर्मक्षयफलवर्णनम् ७३
३६५ अविग्रहेण वक्रगतिरूपविग्रहाभावेन, ‘उज्जुसेढिपत्ते' इत्यनेन प्राक्मतिबोधितार्थस्यैव पुनः कथनमिहान्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः स्पष्टतरो भवतीति लोकन्यायमनुसृत्येति बोध्यम् । तत्र-सिद्धिपदे गत्वा, साकारोपयुक्तः-ज्ञानोपयोगवान् , सिध्यति, बुध्यते, यावदन्तं करोति । इह यावच्छन्देन-'मुच्यते, परिनिवाति, सर्वदुःखानाम् ' इति पाठो बोध्यते, सिध्यतीत्यादिपदानां व्याख्याऽष्टाविंशतितमे भेदे कृतेति तत्र द्रष्टव्या । सू० ७३ ।। राल प्रदेशोंका नहीं स्पर्श करते हुए (उडूं-ऊर्ध्वम्) ऊर्ध्वदिशामें (एगसमएणं-एक समये) एक समयमें (अविग्गहेणं तत्थ गंता-अविग्रहेण तत्र गत्वा) विना वक्रताकी गतिसे अर्थात् सरल गतिसे सिद्धिपदमें जाकर (सागारोव उत्ते-साकारोपयुक्तः) ज्ञानोपयोगविशिष्ट होकर (सिज्झइ बुज्झइ जाव अंतं करेइ-सिध्यति, बुध्यते यावदन्तं करोति) सिद्ध हो जाते हैं, बुद्ध हो जाते हैं यावत्समस्त दुःखोंका अन्त कर देते हैं।
भावार्थ-केवली भगवान् वेदनीय आदि चार अघातिका कर्मों के क्षय हो जाने के बाद औदारिक तैजस एवं कार्मण इन तीन शरीरोंका सर्वथा क्षय कर सरल अनुश्रेणि गतिसे एक ही समयमें ज्ञानोपयोग विशिष्ट बनकर सिद्धगति में विराजमान हो जाते हैं। सूत्रमें "अस्पृशद्गति" ऐसा जो कहा है उसका तात्पर्य यह है कि अन्तराल के प्रदेशों का स्पर्श न करनेसे द्वितीयादिक समयों के सद्भावकी संभा वना हो जाती है। इस तरह एक समय में सिद्धगति जो प्राप्त होती है वह उस एक समय में प्राप्त न होकर द्वितीयादिक समयों में ही प्राप्त होनी मानी जावेगी-परन्तु ऐसा सिद्धान्त नहीं है। सिद्धान्त तो एक मर्यात १२७ गतिथी, सिद्धि ५४मा ने सागारोवउत्ते-साकारोपयुक्तः ज्ञानपयोगयी विशिष्४ सिज्जइ-बुज्झइ-जावअंतं करेइ-सिध्यति बुध्यते यावदन्तं करोति सिद्ध थ य छ, मुद्ध य य छे. यावत्समस्त मोनो मत ४0 छे.
ભાવાર્થ કેવળી ભગવાન વેદનિય આદિ ચાર અઘાતિયા કર્મોને ક્ષય થઈ જવા પછી ઔદારિક, તેજસ અને કાર્માણ આ ત્રણ શરીરને સર્વથા ક્ષય કરી સરળ અનુશ્રેણી ગતિથી એકજ સમયમાં જ્ઞાનપગ વિશિષ્ટ બનીને સિદ્ધ ગતિમાં બિરાજમાન થઈ જાય છે. સૂત્રમાં “અસ્પૃશદુગતિ એવું છે કહેલ છે તેનું એ તાત્પર્ય છે કે, અંતરાળના પ્રદેશને સ્પર્શ કરવાથી દ્વિતિયાદિક સમયેના સભાવની સંભાવના થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે એક સમયમાં સિદ્ધિગતિ જે પ્રાપ્ત થાય છે તે એક સમયમાં પ્રાપ્ત ન થતાં દ્વિતિયાદિક સમયમાં જ પ્રાપ્ત થાય એવું માનવામાં આવે. પરંતુ એવો સિદ્ધાંત
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૪