Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ० ३३ कर्मप्रकृतिवर्णनम् मूलम् -अट्ट कम्माई वोच्छामि, आणपुट्विं जहामं ।
जेहिं बद्धो अयं जीवी, संसौरे परियई ॥१॥ छाया-अष्ट कर्माणि वक्ष्यामि, आनुपूर्व्या यथाक्रमम् ।
यै बद्धोऽयं जीवः, संसारे पर्यटति ॥ १ ॥ टीका-'अट्ठकम्माइं' इत्यादि
अष्ट अष्ट संख्यकानि कर्माणि-जीवेन मिथ्यात्वविरति प्रमादकषाययोग हेतुभिः क्रियन्त इति कर्माणि, आनुपूर्व्या पूर्वानुपूर्वीमनुसृत्य, यथाक्रम-क्रमानतिक्रमेण, न तु पश्चानुपूर्व्यति भावः । वक्ष्यामि प्रतिबोधयिष्यामि, तानि कीदृशानीस्याह-यैः कर्मभिर्बद्धः-दिलष्टः, अयंत्रसस्थावररूपो जीवः संसारे पर्यटति= अपरापरपर्यायान् नरकतिर्यगादीन् अनुभवन् भ्राम्यतीत्यर्थः ॥ १॥
अन्वयार्थ-जीव मिथ्यात्व अविरति प्रमाद, कषाय, एवं योगों द्वारा जिन्हें करता है उनका नाम कर्म है । (कम्माइं-कर्माणि ) ये कर्म (अट्ठअष्ट) आठ हैं। ( आणुपुचि जहक्कम वोच्छामि-आनुपूाः यथाक्रम वक्ष्यामि ) में इन कर्मों को पूर्वानुपूर्वी के अनुसार यथाक्रम से कहूंगा। पश्चानुपूर्वी के अनुसार नहीं। (जे हिं बद्धो अयं जीयो संसारे परियट्टईयैः बद्धः अयंजीवः संसारे पर्यटति) इन कर्मों से बद्ध हुआ यह जीव त्रस एवं स्थावर प्राणी-नरक निगोद आदिरूप इस संसार में भ्रमण करता रहता है। ___भावार्थ-मिथ्यात्व आदि से युक्त जीव इन कर्मों को करता है। और उनके उदय आने पर नरक निगोद आदि गतियों के दुःखों का भोग करता है। ये कमें मूलरूप में आठ प्रकार के हैं ॥१॥
અન્વયાર્થ–જીવ મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને યોગો દ્વારા ने ४२ छ मेनु नाम में छे. कम्माइं-कर्माणि 2 में अट्ठ-अष्ट 48 छे. आणुपुव्वं जहक्कम वोच्छामि-आनुपूर्व्याः यथाक्रमं वक्ष्यामि मा नि पूर्वानुपूवी अनुसार यथामथी हुँ ४ीश. पश्चानुपूवी -मनुसार नही, जेहि बद्धो अयं जीवो संसोरे परियई-यैः बद्धो अयं जीवः संसारे पर्यटति २॥ था બંધાયેલ એ જીવ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણું નરક નિગોદ આદિ રૂપથી આ સંસારમાં ભ્રમણ કર્યા કરે છે.
ભાવાર્થ-મિથ્યાત્વ આદિથી યુક્ત જીવ આવા કર્મો કરે છે, અને એવા એ કર્મોને ઉદય આવવાથી નરક નિગોદ આદિ ગતિના દુઃખને ભગવ્યા કરે છે. એ કમ મૂળ રૂપમાં આઠ પ્રકારનાં છે. | ૧ |
उत्त२॥ध्ययन सूत्र:४