Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 952
________________ ९३४ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया - अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । त्यक्ते स्वके काये, देवानां भवति अन्तरम् || २४५ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गंधतो रसस्पर्शतः । संस्थानदेशतो वाऽपि, विधानानि सहस्रशः || २४६ ॥ टीका- 'अनंतकामुकोसं' इत्यादि एतद् गाथाद्वयं प्राग्व्याख्यातं सुगमं चेति || २४५ ॥ २४६ ॥ इत्थं जीवानजीवांश्च सविस्तरं प्रदर्श्य, संप्रति निगमनमाह - मूलम् - संसारत्था यॅ सिद्धी ये, इथं जीवा वियाहिया । विणो चैवं वी यँ, अजीवा दुविहीं विय ॥२४७॥ छाया - संसारस्थाश्च सिद्धाश्र, इति जीवा व्याख्याताः । रूपिणश्चैव अरूपिणच, अजीवा द्विविधा अपि च ॥ २४७ || अब देवोंका अनन्तकाल कहते है -- 'अणंतकाल० ' इत्यादि । अन्वयार्थ - देव लोकसे च्यवकर फिर देवपने उत्पन होनेका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालका है, यह अनन्तकाल निगोदकी अपेक्षासे जानना चाहिये । तथा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तका है । तात्पर्य यह है कि कोई देव यदि देव शरीरका परित्याग कर अन्य अन्य योनियोंमें जन्म लेता हुवा फिर वहांसे मरकर वह पुनः उसी देवयोनिमें जन्म लेवे तो उसको उत्कृष्ट अधिक से अधिक अन्तर अनन्तकालका और कम से कम अन्तर एक अन्तर्मुहूर्तका पडेगा ॥ १४५ ॥ इन देवों के (विहाणाई - विधानानि ) मेद वर्ण, गन्ध रस स्पर्श एवं संस्थानरूप देशकी अपेक्षा (सहस्स सो-सहस्रशः) हजारों होते हैं ॥२४६॥ હવે દેવાના આંતર માળને કહે છે. " अनंतकाल " त्याहि ! દેવલાકમાંથી ચવીને ફરીથી દેવપણામાં ઉત્પન્ન થવાના ઉત્કૃષ્ટ અંતર અનત કાળના છે. આ અનંતકાળ નિગેદની અપેક્ષાથી જાણવા જોઈ એ. તથા જઘન્ય અંતર અનતમુહૂર્તનું છે. તાત્પર્ય એ છે કે, કેાઈ દેવ જો દેવશરીરને ત્યાગ કરીને જુદી જુદી ચૈાનીમાં જન્મ લઈને ફરીથી ત્યાંથી મરીને તે ફરીથી તે દેવ ચૈાનીમાં જન્મ લે તે તેને ઉત્કૃષ્ટ-અધિકથી અધિક અંતર અન’તકાળના અને ઓછામાં એક અંતર એક અંતરમુહૂર્તનું પડશે. ॥ ૨૪૫ ૫ अन्वयार्थ — मा हेवाना विहाणाई - विधानानि लेह, वर्ण, गंध, रस अने संस्थानइय देशनी अपेक्षा सहस्वसो - सहस्रशः डुमरो होय . ॥ २४६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्र : ४

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