Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 980
________________ उत्तराध्ययनसूत्रे स्वदेहोपरि खड्गादिशस्त्रव्यापारणमित्यथः, तथा-विषभक्षणं, च-पुनः, ज्वलनं स्वदेहस्याग्नौ निपातनमित्यर्थः, जलप्रवेशः-स्ववधार्थ नदी समुद्रादौ स्वदेहस्य पातनम् , अनाचारभाण्डसेवा च आचारः-शास्त्रविहितो व्यवहारस्तदनुष्ठानार्थ भाण्डम्-उपकरणम् , आचारभाडं, यन्न तथा, तदनाचारभाण्डं, तस्य सेवाहास्य मोहादिभिः परिभोगः, एतानि शस्त्रग्रहणादीनि जन्ममरणानि बध्नन्ति, उपचाराज्जन्ममरणनिमित्तकर्माणि स्वात्मनाश्लेषयन्ति संक्लेशजनकत्वेन शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवहेतुत्वादिति भावः। ननु पूर्व तादृश देवदुर्गतिगामित्वं भावनानां फलमुक्तम् , इह तु अनन्तशरीर पर तलवार आदि शस्त्रका प्रयोग करना (विसभक्खणं-विषभक्षणम् विषका भक्षण करना (जलणं-ज्वलनम् ) अग्निमें प्रवेश करना (जलप्पवेसो-जलप्रवेशः) पानीमें डूब जाना (अणायारभंडसेवा-अनाचार भाण्डसेवा) तथा अनाचार भाण्ड सेवा-शास्त्र विहित व्यवहारको अनुठित करने के लिये उपकरण रखना यह आचार भाण्डसेवा है इससे विपरीत अनाचार भाण्डसेवा है ये सब बातें (जम्मण मरणाणि बंधंति-जन्म मरणानि बध्नंति) जन्म जरा और मरणके निमित्तभूत कर्मों का संबंध आत्मासे कराती हैं इससे आत्मा संसारसे पार नही होता है। यह शस्त्र ग्रहण आदि संक्लेशजनक होनेसे आत्माके लिये अनंतभवका हेतुभूत होता है। __ शंका-यहां पहिले इन कंदर्प आदि भावनाओं के देवदुर्गति दाता कहा है अर्थात् देव दुर्गतिको प्राप्ति होना यह फल इन भावनाओंका शरीर ५२ तरवार AIE शोना त्याग ४२, विसभक्खणं-विषभक्षणम् विषनु सक्षण ४२, जलणं-ज्वलनम् अनिमा प्रवेश ४२वी, जलप्पवेसा-जलप्रवेशः पाथीमा मी org, तथा अणाचारभंडसेवा-अनाचारभाण्डसेवा मनायार ભાંડ સેવા–શાસ્ત્રથી વિરૂદ્ધ વ્યવહારનું અનુકરણ કરવાના માટે ઉપકરણ રાખવા આ આચાર ભાંડ સેવા છે.–આથી વિપરીત અનાચાર ભાંડ સેવા છે.–આ सधजीवात जम्मणमरणाणि बंधति-जन्ममरणानि बध्नाति सन्म, १२, मने મરણના નિમિત્ત ભૂત કર્મોને આત્માનિ સાથે સંબંધ કરાવે છે. આના કારણે આત્મા સંસારથી પાર થઈ શકતું નથી. આ શસ્ત્ર આદિ સંકલેશજનક હોવાથી આત્માના માટે અનંતભવના હેતુભૂત થાય છે. શંકા-અહીં પહેલાં એ કંદર્પ આદિ ભાવનાઓને દેવ દુર્ગતિની દાતા બતાવેલ છે. અર્થાત્ દેવ દુર્ગતિની પ્રાપ્તિ થવી આ ફળ એ ભાવનાઓનું उत्तराध्ययन सूत्र:४

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