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उत्तराध्ययनसूत्रे
नवोदितः, आदित्यः = सूर्यस्तत्संनिभा तथा शुकतुण्डप्रदीपनिभा= शुकः = पक्षिविशेषः, तस्य तुण्डं मुखं, शुकतुण्डं तच्च प्रदीपश्च, तनिभा - तत्सदृशी, रक्तवर्णा भवतीत्यर्थः ॥ ७॥ पद्मावर्णमाह
मूलम् - हरियालभेयसंकासा, हलिहा भेयसन्निभा । सणसणकुसुमनिभा, पद्मलेसा उ वणओ ॥८॥
छाया -- हरितालभेदसंकाशा, हरिद्राभेदसन्निभा । सणासनकुसुमनिभा, पद्मलेश्या तु वर्णतः ॥८॥ टीका--' हरियाल ' इत्यादि --
पद्मलेश्या तु वर्णतः = वर्णमाश्रित्य, हरितालभेद संकाशा हरिताल:- धातुविशेषः, तस्य भेदः - द्विधाभावः तत्संकाशा - तत्सदृशी, हरितालस्य भेदनेन खंडकरणे तदर्ण प्रकर्षो भवतीति भेदग्रहणम्, तथा - हरिद्राभेदसंनिभा - हरिद्रा - पिण्डरूपा अचूर्णिता, तस्या यो भेदस्तत्संनिभा, तथा - सणासनकुसुमनिमा = सणः - वनस्पतिविशेषः, असनः - बीजकवृक्षस्तयोः कुसुमं, पुष्पं तन्निभा - तत्सदृशी पीतवर्णा भवतीत्यर्थः ॥ ८ ॥
अभिनवतत्काल उगेहुवे उदित सूर्य के समान है। (सुयतुंड पईवनियाशुक भीण्डप्रदीपनिभा) शुक की चोंच के समान तथा प्रदीप के समान रक्तवर्ण वाली है ॥ ७ ॥
अब पद्मलेश्या का वर्ण कहते हैं-- 'हरियाल०' इत्यादि ।
अन्वयार्थ -- ( पद्मलेसा - पद्मलेश्या) पद्मलेश्या (वण्णओ-वर्णतः ) वर्ण की अपेक्षा (हलिहाभेय सन्निभा - हरिद्राभेदसंनिभा) हल्दी के खंड टूकडे के वर्ण के समान है। (हरियाल भेयसंकासा- हरितालभेदसंकाशा) हरिताल के खंड करने पर जो वर्ण विशेष होता है उसके समान है । ( सणासण कुसुमनिभा - सणास नकुसुमनिभा ) सन और बीजक वृक्ष के पुष्प के समान है ॥ ८ ॥
छे. सुयतु डपईवनिभा - शुक्रतुण्डप्रदीपनिभा पोयटनी ચાંચના જેવો તથા हिवानी ज्योतिना सभात स्तवर्षावाणी छे. ॥ ७ ॥
हवे पद्मवेश्याना वाशु उडे छे - " हरियाल " त्याहि ।
मन्वयार्थ—पद्मलेसा-पद्मलेश्या पद्मलेश्या वण्णओ-वर्णतः वर्षानी अपेक्षा इलिद्दाभेयसन्निभा - हरिद्राभेदसंनिभा जहरना टुडाना रंग नेवी छे. हरियालभेय संकासा - हरितालभेदसंकाशा डेजहणना उटा स्वाथी अंडरथी ने रंग देणाय छे तेवा रंग समान छे. सणासण कुसुम निभा - सणासनकुसुमनिभा साथ तेभन श्रीवठ वृक्षना पुण्यना देवी छे. ॥ ८ ॥
उत्तराध्ययन सूत्र : ४