Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३२ गंधविषये रागस्यानर्थत्वनिरूपणम् ५१५ पुष्पाद्यर्थं च वनस्पतीन् इति भावः । कांश्चित्तु तान् चित्रः, परितापयति, तथा कांश्चिच्च पीडयति । शेष व्याख्या प्राग्वत् ॥ ५३ ॥ मूलम्-गंधाणुवाएंण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे यं कहं सुहं से, संभोगकोले य अतित्तिलाभे ॥५४ छाया-गन्धानुपाते खलु परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे ।
व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य, सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभे॥५४॥ टीका-'गंधाणुवाएण' इत्यादि
गन्धानुपाते सति, परिग्रहेण हेतुना, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे, व्यये, तथावियोगे च तस्य क्व मुखं, सम्भोग काले च अतृप्तलाभे :क्व सुखम् इत्यन्वयः । व्याख्या पूर्ववत् ।। ५४ ॥
'गंधाणु' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(किलिडे-क्लिष्टः) गंधके अनुरागसे पीडित हुआ जीव (अत्तद्वगुरु-आत्मार्थगुरुः) समस्त संपादनीय कार्यों में अपने प्रयोजनको सिद्ध करना ही सबसे बड़ा काम समझता है । यही कारण है कि (बालेबालः)वह अज्ञानि इस स्थितिमें पडकर हित और अहितके.विवेकसे विकल बन जाता है । (गंधोणुगासाणुगए-गन्धानुगाशानुगतः) इसी कारण वह मनोज्ञगन्धकी आशामें पड़कर (अणेगरूवे-अनेकरूपान् ) अनेक प्रकार (चराचरे-चराचरान ) त्रस एवं स्थावर जीवोंको (चित्तेहिं-चित्रः) विविध उपायों द्वारा (परितावेइ-परितापयति) दुःखित करता है तथा (पीलेइपीडयति) उनको पीडा पहुंचाता है ॥५३॥
"गंधाणु" त्याहि.
मन्वयार्थ -किलिट्टे-क्लिष्टः गधना मनु२।थी पीड़ित ने 4 अत्तद्गुरु-आत्मार्थगुरुः सबा साहनीय आर्याभा पाताना प्रयोशनने सिद्ध १२वसका सथी माटुम सम छे. से।४।२९५ छ है, बाले-बालः ते मानि આ સ્થિતિમાં પડીને હિત અને અહિતના વિવેકથી વિકળ બની જાય છે. गंघाणुगासाणुगए-गन्धानुगाशानुगतः २मा०४ ४२ ते भनाश धनी मामा ५डीने अनेगरूवे-अनेकरूपान् भने प्राथी चराचरे-चराचरान् स भने स्थावर
वाने चित्तेहि-चित्रैः विविध पाय द्वारा परितावेइ-परितापयति हुमित रे छ तथा पीलेइ-पीडयति तेमने पीडा पाया छे. ॥५॥
उत्तराध्ययन सूत्र:४