Book Title: Shatkhandagama Pustak 15
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला टीका - समन्वितः षट्खंडागमः संतकम्म खंड ५ पुस्तक १५ भाग ७, ८, ९, १० प्रकाशक 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर. ain Education International Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक सिद्धान्त ग्रंथमाला द्वारा अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमाला (धवला-पुष्प १५) श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणोतः षट्खंडागमः श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः तस्य पंचमखंडे वर्गणानामधेये सत्कर्मान्तर्गत-शेषअष्टादश अनुयोगद्वारेषु हिन्दी भाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेक-परिशिष्ट: सम्पादितानि निबन्धन-प्रक्रम-उपक्रम-उदयाभि पुस्तक-१५ - ग्रन्थ सम्पादकः - स्व. डॉ. हीरालालो जैनः . - सहसम्पादकौ - स्व. पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री स्व. पं. बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री - प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर. वीर निर्वाण संवत्-२५२१ इ. सन १९९५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकसेठ अरविंद रावजी अध्यक्ष- जैन संस्कृति संरक्षक संघ फलटण गल्ली, सोलापुर-२ संशोधित द्वितीय आवृत्ति- १९९५- प्रतियाँ ११०० संशोधन सहाय्यकस्व. डॉ. आ. ने. उपाध्ये स्व. पं. ब्र. रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर पं. जवाहरलालजी शास्त्री, भिण्डर ग्रंथमाला संपादकपं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री, सोलापुर. ( न्यायतीर्थ महामहिमोपाध्याय ) डॉ. पं. देवेंद्रकुमार शास्त्री, नीमच मुद्रक कल्याण प्रेस, होटगी रोड, सोलापुर-३ मूल्य- १२० रुपये (सर्वाधिकार सुरक्षित) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rights to Publish Received From Shrimant Seth Sitabrai Lakshmichandra Jain Sahityoddhrak Siddhanta Granthamala Jivaraj Jain Granthamala Dhavala Section-- 15 THE SHATKHANDAGAMA OF PUSHPADANTA AND BHOOTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VEERASENA Nibandhana-Prakrama-Upakrama-Udayanuyogadwaras Edited With introduction, translation, notes and indexes By Late Pt. Hiralal Jain Assisted by Late Pt. Phoolachandra Siddhanta Shastri Late Pt. Balachandra Siddhanta Shastri Vol.-5 Book-15 Published by Jaina Samskriti Samrakshaka Sangha SOLAPUR. Veera Samvat-2521 A. D. 1995 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published bySeth Aravind Raoji PresidentJaina Samskriti Samrakshaka Sangha Phaltan Galli SOLAPUR-2 Revised Second Edition- 1995 (1100 Copies ) Research AssistantsLate Dr. A. N. Upadhye Late Pt. Ratanchandji Mukhtar Pt. Jawaharlalji Shastri, Bhindar Editors Of GranthamalaPt. Narendrakumar Bhisikar Shastri, Solapur. ( Nyayateertha Mahamahimopadhyaya ) Dr. Pt. Devendrakumar Shastri, Neemach Printed byKalyan Press, SOLAPUR. Price Rs. 120/ ( Copyright Reserved ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्दिक अभिनंदन ! धवला षट्खंडागमके भाग १० से १६ तक के पुनर्मुद्रणके लिए 'धर्मानुरागी' धवला परम संरक्षक श्री. डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील और उनकी धर्मपत्नी सौ. डॉ. त्रिशलादेवी अप्पासाहेब नाडगौडा पाटील रबकवी (कर्नाटक) इन्होंने आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीकी सेवाका जो महान् आदर्श उपस्थित किया है उसके लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके प्रति अनेकशः धन्यवाद प्रकट करते हैं। विश्वस्त मंडल-- जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रकाशकीय निवेदन -- षट्खण्डागम धवला सिद्धांत ग्रंथके पंचम खण्डके पंद्रहवें पुस्तकमें वर्गणाओंका सविस्तर वर्णन किया गया है। इस ग्रंथका पूर्व प्रकाशन श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक फंड विदिशा द्वारा हुआ है। उसका मूल ताडपत्र ग्रंथसे मिलाकर संशोधित पाठसहित द्वितीयावृत्तिका प्रकाशन अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापुर द्वारा प्रकाशित करनेमें हम अपना सौभाग्य समझते हैं । स्व. ब्र. रतनचंदजी मुख्तार ( सहारनपुर ) तथा पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री ( भिंडर ) इनके द्वारा भेजे हुए संशोधनका भी इस संशोधनकार्यमें हमें सहयोग मिला जिसके लिए हम सभी सज्जनोंके अतीव आभारी हैं । इस ग्रंथका प्रूफ संशोधन कार्य जीवराज जैन ग्रंथमालाके संपादक श्री. पं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री तथा श्री. धन्यकुमार जैनी द्वारा संपन्न हुआ है । तथा मुद्रणकार्य कल्याण प्रेस, सोलापुर इनके द्वारा संपन्न हुआ है। हम इनके भी आभार प्रदर्शित करते हैं। धर्मानुरागी श्रीमान् डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील तथा उनकी धर्मपत्नी डॉ. सौ. त्रिशलादेवी नाडगौडा पाटील इन महानुभावोंने षट्खण्डागम धवला पुस्तक १० से १६ तकके पुनर्मुद्रणके लिए आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीकी सेवाका महान आदर्श उपस्थित किया। इसलिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके सहयोग के लिए अनेकशः धन्यवाद प्रकट करते हैं। -रतनचंद सखाराम शहा मंत्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxxxcooooooooooooooooooooooooc xxxcoooooooooooooc जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्य में अपनी वृत्ति लगाते रहे । सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म और समाजकी उन्नति के कार्य करें । तदनुसार उन्होंने समस्त भारतका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे इस बातकी साक्षात् और लिखित संमतियाँ संग्रह की, कि कौनसे कार्य में संपत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन १९४१ के ग्रीष्म काल में ब्रह्मचारीजीने श्री सिद्धक्षेत्र गजपंथ की पवित्र भूमिपर विद्वानोंका समाज एकत्रित किया और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया । विद्वत्संमेलन के फलस्वरूप ब्रह्मचारीजोने जैन संस्कृति तथा साहित्य के समस्त अंगों के संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की और उसके लिए ३०,००० ( तीस हजार ) रुपयों के दानकी घोषणा कर दी। उनकी परिग्रहनिवृत्ति बढती गई । सन १९४४ में उन्होंने लगभग २,००,००० [ दो लाख ] की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अर्पण की । इसी संघ के अंतर्गत ' जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचलन हो रहा है । द्धारक माला प्रस्तुत ग्रंथ, श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्यो - सिद्धान्त ग्रंथमालाके द्वारा अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथधवला विभागका पंद्रहवाँ पुष्प है । xxxcoooooooooooooooooooooooo Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रस्तावना १ विषयपरिचय २ विषयसूची विषय-सूची २ मूल अनुवाद और टिप्पण १ निबन्धन अनुयोगद्वार २ प्रक्रम अनुयोगद्वार ३ उपक्रम अनुयोगद्वार ४ उदयानुयोगद्वार परिशिष्ट संतकम्मपंजिया पृष्ठ १ १८ १-३३६ १-१४ १४-४० ४१-२८४ २८५-३३६ १-११४ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000 स्व. ब. जीवराज गौतमचंद दोशी संस्थापक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर 80000000000000000000000000000008 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक कथन यह षटखण्डागमका पन्द्रहवाँ भाग प्रस्तुत है। इसके पश्चात् शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाले सोलहवें भागमें इस ग्रन्थराजकी परिसमाप्ति हो जावेगी। इन दोनों भागों की रचना ध्यान देने योग्य है। अग्रायणीय पूर्वके चयनलब्धि अधिकारके अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में से प्रथम छहपर ही भूतबलि स्वामी कृत सूत्र पाये जाते हैं। शेष अठारह अधिकारोंपर सूत्र-र वना नहीं पाई जाती। इसकी पूर्ति धवलाकार श्री वीरसेन स्वामीने की है। इन शेष अठारह अनुयोगद्वारोंमें से प्रथम चार अर्थात् निबन्धन, प्रक्रम उपक्रम और उदय की प्ररूपणा प्रस्तुत भागमें की गई है। शेष मोक्ष, संक्रम आदि चौदह अनुयोगद्वारोंका प्ररूपण अन्तिम भागमें प्रकाशित होगा। ___ इन चौबीस अनुयोगद्वारोंके मूल स्रोतका जो उल्लेख धवलाकारने किया है उससे हमें महावीर भगवान्के गणधरों द्वारा रचित द्वादशांगके भीतर पूर्वोके विषय व विस्तारका कुछ सुस्पष्ट विचार प्राप्त होता है । चौदह पूर्वो में द्वितीय पूर्वका नाम था आग्रायणीय, जिसके पूर्वान्त, अपरान्त आदि १४ अधिकारों में से पाँचवें अधिकारका नाम था चयनलब्धि। इसके बीस पाहुड थे जिनमें चतुर्थ पाहुडका नाम था कर्मप्रकृति । इसी प्रकृतिके कृति, वेदना आदि अल्पबहुत्व पर्यन्त वे चौबीस अनुयोगद्वार थे जिनकी संक्षेप प्ररूपणा षट्खण्डागमके वेदना, वर्गणा, खुद्दाबंध और महाबंध इन चार खंडोंमें पाई जाती है ( देखिये प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० ७२ )। इन अनुयोगद्वारोंके मूल पाठका ज्ञान परम्परानुसार तो अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् नष्ट हो गया था। तथापि उसके कुछ खंडोंका ज्ञान तो धरसेन स्वामीको भी था जिसका उपदेश उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों को दिया था। किन्तु धवला टीकाके रचयिता स्वामी वीरसेनने कहीं कहीं ऐसे उल्लेख किये हैं जिनसे प्रतीत होता है कि उनके समय तक भी पूर्वोके मूल पाठ सर्वथा नष्ट नहीं हुए थे । उदाहरणार्थ, प्रस्तुत भागमें ही अकरणोपशामनाकी प्ररूपणा करते हुए उन्होंने कहा है कि " कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्व में सब कर्मोकी मूल व उत्तर प्रकृतियोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार विपाक और अविपाक पर्यायोंका वर्णन खूब विस्तारसे किया गया है, वहाँ उसे देख लेना चाहिये" (पृ० २७५ ) । यदि आचार्यके समयमें उक्त मूल रचना उपलब्ध न होती तो इस प्रकरणको वहाँ देख लेना चाहिये ' यह कहनेका कोई अर्थ नहीं रहता। दूसरे, भूतबलि आचार्य के सूत्र न रहनेपर भी उन्होंने शेष अठारह अधिकारोंकी प्ररूपणा की है उसका कुछ आधार तो उनके सन्मुख रहा ही होगा। जिस विषयपर उन्हें कोई आधार नहीं मिला वहाँ उन्होंने स्पष्ट कह दिया है कि इसका कोई उपदेश प्राप्त नहीं है ( देखिये पृ० ८१, २१६ आदि ) । इस भागके साथ प्रस्तुत चार अनुयोगद्वारोंपर जो ‘पंजिका' नामक टीका प्राप्त हुई है वह भी प्रकाशित की जा रही है। उसकी उत्थानिकासे ऐसा प्रतीत होता है कि वह समस्त शेष अठारह अनुयोगद्वारों Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पर लिखी गई है। किन्तु जो प्रति मूडबिद्रीसे महाबंधकी प्रतिके साथ प्राप्त हुई है वह केवल इन्हीं चार अनुयोगद्वारोंपर है । शेषकी खोज करना आवश्यक प्रतीत होता है। ग्रंथ सम्पादन व प्रकाशनमें श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी, उनके सुपुत्र राजेंद्रकुमारजी, पं० नाथूरामजी प्रेमी, श्री रतनचंदजी, नेमचंदजी तथा मेरे सहयोगियोंका साहाय्य पूर्ववत् चला आ रहा है जिसके लिए मैं उनका अनुगृहीत हूँ। प्राकृत जैन विद्यापीठ मुजप्फरपुर, बिहार, १८-४-५७ हीरालाल जैन ( डायरेक्टर, प्राकृत जैन विद्यापीठ, वैशाली) .... Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयपरिचय अग्रायणीय पूर्वके १४ अधिकारोंमें पांचवा चयनलब्धि नामका अधिकार है । उसमें २० प्राभृत हैं । इनमें चतुर्थ प्राभूत कर्मप्रकृतिप्राभृत है । उसमें निम्न २४ अधिकार हैं - १ कृति, २ वेदना, ३ स्पर्श, ४ कर्म, ५ प्रकृति, ६ बन्धन, ७ निबन्धन, ८ प्रक्रम, ९ उपक्रम, १० उदय, ११ मोक्ष, १२ संक्रम, १३ लेश्या, १४ लेश्याकर्म, १५ लेश्यापरिणाम, १६ सातासात, १७ दीर्घ--हस्व, १८ भवधारणीय १९ पुद्गलात्त (पुद्गलात्म), २० निधित्त-अनिधत्त, २१ निकाचित-अनिकाचित, २२ कर्म स्थिति, २३ पश्चिमस्कंध और अल्पबहुत्व । इन २४ अधिकारों से प्रस्तुत षट्खंडागम (मूलसूत्र) के वेदना नामक चतुर्थ खण्डमें कृति (पु. ९) और वेदनाकी (पु. १०-१२) तथा वर्गणा नामक पांचवे खंड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति ( पु. १३ ) अधिकारोंकी प्ररूपणा की गयी है। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान इन ४ अवान्तर अनुयोगद्वारोंमें विभक्त है। इनमें से बन्ध और बन्धनीय अधिकारोंकी भी प्ररूपणा वर्गणाखण्ड ( पु. १४) में की गयी है । बन्धक अधिकारकी प्ररूपणा खुद्दाबन्ध नामक द्वितीय खण्डमें तथा बन्धविधान नामक अवान्तर अधिकारकी प्ररूपणा महाबन्धन नामक छठे खण्डमें की गयी है । इस प्रकार मूल षट्खंडागममें पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारोंमेंसे प्रथम ६ अनुयोगद्वारोंके ही विषयका विवरण किया गया है। शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंको प्ररूपणा यद्यपि मूल षट्खंडागममें नहीं की गयी है फिर भी वर्गणाखण्डके अन्तिम सूत्रको देशामर्शक मानकर उनकी प्ररूपणा अपनी धवला टीका ( पु. १५-१६) में वीरसेनाचार्य ने प्राप्त उपदेशके अनुसार संक्षेपमें कर दी है। इसका नाम सत्कर्म प्रतीत होता है । उन शेष १८ अनुयोगद्वारों में से निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय ये ४ (७-१०) अनुयोगद्वार पुस्तक १५ में प्रकाशित हो रहे हैं। तथा शेष १४ (११-२४) अनुयोगद्वार पुस्तक १६ में प्रकाशित किये जायेंगे। इनका विषयपरिचय संक्षेप में इस प्रकार है। ७ निबंधन- 'निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम् ' इस निरुक्तिके अनुसार जो द्रव्य जिसमें निबद्ध है उसे निबन्धन कहा जाता है । निक्षेपयोजनामें इसके ये ६ भेद किये गये हैं- नामनिबन्धन, 0 इसके ५ भाग भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं और शेष २ भाग भी उक्त संस्थाके द्वारा शीघ्र प्रकाशित होनेवाले हैं। भदबलिभडारएण जेणेदं सुतं देसामासिय मावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसअट्ठारसअणियोगद्दाराणं किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो। पु. १५, पृ. १. * महाकम्मपय डि ........ सब्वाणि परूविदाणि । संतकम्मपंजियाकी उत्थानिका (पु. १५, परिशिष्ट पृ. १. ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) स्थापना निबन्धन, द्रव्यनिबन्धन, क्षेत्रनिबन्धन, कालनिबन्धन और भावनिबन्धन । इन सबके स्वरूपका विवरण करते हुए यहाँ नाम और स्थापना निबन्धनोंको छोडकर शेष ४ निबन्धनोंको प्रकृत बतलाया है । साथ में यहाँ यह भी निर्देश किया गया है कि यद्यपि इस निबन्धन अनुयोगद्वार में छहों द्रव्योंके निबन्धनको प्ररूपणा की जाती है फिर भी अध्यात्मविद्याका अधिकार होनेसे यहाँ उन सबको छोड़कर केवल कर्म - निबन्धन की ही प्ररूपणा यहाँ की गयी है । सर्वप्रथम यहाँ निबन्धन अनुयोगद्वारकी आवश्यकता प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा कर्मों और उनके मिथ्यात्वप्रभृति प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की जा चुकी है। साथ ही कर्मरूप होने की योग्यता रखनेवाले पुद्गलोंका भी विवेचन किया ही जा चुका है । किन्तु उन कर्मोंकी प्रकृति कहाँ किस प्रकार होती है, यह नहीं बतलाया गया है । इसीलिये कर्मोंके इस व्यापारको प्ररूपणा के लिये प्रकृत निबन्धन अनुयोगद्वारका अवतार हुआ है । नोआगमकर्मनिबन्धन के दो भेद हैं- मूलकमंनिबन्धन और उत्तरकर्मनिबन्धन । इनमें से मूलकर्मनिबन्धनमें ज्ञानावरणादि ८ मूल प्रकृतियोंके तथा उत्तरकर्मप्रकृतिनिबन्धनमें इन्हीं के उत्तर भेदोंके निबन्धनकी प्ररूपणा की गयी है । ८ प्रक्रम- यहाँ निक्षेपयोजना करते हुए प्रक्रमके ये ६ भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- नामप्रक्रम, स्थापनाप्रक्रम, द्रव्यप्रक्रम, क्षेत्रत्रक्रम, कालप्रक्रम और भावप्रक्रम । इनके कुछ और उत्तर भेदोंका उल्लेख करते हुए यहाँ कर्मप्रक्रमको अधिकार प्राप्त बतलाया है तथा ' प्रक्रामतीति प्रक्रमः इस निरुfare अनुसार प्रक्रमसे कार्मण पुद्गलप्रचयका अभिप्राय बतलाया है । ' यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि जिस प्रकार कुंभार एक मिट्टी के पिण्डसे अनेक घटादिकों को उत्पन्न करता है उसी प्रकार यह संसारी प्राणी एक प्रकारके कर्मको बांधकर फिर उससे आठ प्रकारके कर्मोको उत्पन्न करता है, क्योंकि, अन्यथा अकर्म पर्याय से कर्मपर्यायका उत्पन्न होना सम्भव नहीं है । इसके उत्तमें कहा गया है कि जब अकर्म से कर्मकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है तब जिस एक कर्मसे आठ प्रकार के कर्मों की उत्पत्ति स्वीकार की जाती है वह एक कर्म भी कैसे उत्पन्न हो सकेगा? यदि उसे भी कर्म से ही उत्पन्न माना जावेगा तो ऐसी अवस्था में अनवस्थाजनित अव्यवस्था दुर्निवार होगी । इसलिये उसे अकर्म से ही उत्पन्न मानना पडेगा । दूसरे कार्य सर्वथा कारणके ही अनुरूप होना चाहिये, ऐसा एकान्त नियम नहीं बन सकता; अन्यथा मृत्तिकापिण्डसे घट-घटी आदि उत्पन्न न होकर मृत्तिकापिण्डके ही उत्पन्न होने का प्रसंग अनिवार्य होगा । परन्तु चूंकि ऐसा होता नहीं है, अत एव कार्य कथंचित् ( द्रव्यकी अपेक्षा ) कारणके अनुरूप और कथंचित् ( पर्यायकी अपेक्षा ) उससे भिन्न ही उत्पन्न होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । प्रसंग पाकर यहाँ सांख्याभिमत सत्कार्यवादका उल्लेख करके उसका निराकरण करते हुए 'नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि ' इत्यादि आप्तमीमांसाकी अनेक कारिकाओं को उद्धृत करके तदनुसार नित्यत्वैकान्त और सर्वथा सत्कार्यवादका भी खण्डन किया गया है। इसके अतिरिक्त परस्पर निरपेक्ष अवस्थामें उभय ( सत्-असत् ) रूपता भी उत्पद्यमान कार्य में नहीं बनती, इसका उल्लेख करते हुए स्याद्वादसम्मत सप्तभंगी की भी योजना की गयी है । इसी सिलसिले में बौद्धाभिमत क्षणक्षयित्वका उल्लेख कर उसका निराकरण करते हुए द्रव्यकी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यस्वरूपताको सिद्ध किया गया है । पूर्वोक्त कारिकाओंके अभिप्रायानुसार पदार्थोंको सर्वथा सत् स्वीकार करनेवाले सांख्यों के यहाँ प्रागभावादिके असम्भव हो जानेसे जिस प्रकार अनादिता, अनन्तता, सर्वात्मकता और नि.स्वरूपताका XX इसकी प्ररूपणा संतकम्मपंजिया ( परिशिष्ट पृ. १-३ ) में देखिये । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) प्रसंग दुर्निवार है उसी प्रकार सर्वथा अभाव ( शून्यैकान्त) को स्वीकार करनेवाले माध्यमिकों के यहाँ अनुमानादि प्रमाणके असम्भव होनेसे स्वपक्षकी सिद्धि और परपक्षको दूषित न कर सकने का भी प्रसंग अनिवार्य होगा । परस्पर निरपेक्ष उभयस्वरूपता (सदसदात्मकता) को स्वीकार करनेवाले भाट्टों के समान साँख्यों के यहाँ भी परस्परपरिहारस्थि तलक्षण विरोधको सम्भावना है ही । कारण कि वह (उभयस्वरूपता ) स्याद्वाद सिद्धान्तको स्वीकार किये बिना बन नहीं सकती । पूर्वोक्त दोषोंके परिहारकी इच्छासे बौद्ध जो सर्वथा अनिर्वचनीयताको स्वीकार करते हैं वे भी भला ' तत्त्व अनिर्वचनीय है' इस प्रकारके वचनके बिना अपनी अभीष्ट तत्त्वव्यवस्थाका बोध दूसरोंको किस प्रकारसे करा सकेंगे? इस प्रकार सर्वथा सदसदादि एकान्त पक्षोंकी समीक्षा करते हुए यहां इन सात भंगोंकी योजना की गयी है । यथा १ स्वद्रव्य; क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वस्तु कथंचित् सत् ही है । २ वही परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा कथंचित् असत् ही है । ३ क्रमसे स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादिकी विवक्षा होनेपर वह कथंचित् सदसत् (उभय स्वरूप ) ही है । ४ युगपत् स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि दोनोंकी विवक्षा में वस्तु कथंचित् अवाच्य ही है । इन चार मुख्य भंगों का निर्देश तो ' कथंचित्ते सदेवेष्टं ' इत्यादि कारिकामें ही कर दिया गया है। शेष तीन भंग 'च' शब्दसे सूचित कर दिये गये हैं । वे इस प्रकार हैं- ५ कथंचित् वस्तु सत् और अवक्तव्य ही है । ६ कथंचित् वह असत् और अवक्तव्य ही है । ७ कथंचित् वह सत्-असत् और अवक्तव्य ही है । इन तीन भंगोंमें यथाक्रमसे स्वद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादि, परद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादि और क्रमसे स्व-परद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादिकी विवक्षा की गयी है । यहाँ जो आप्तमीमांसाकी ' कथंचित् ते सदेवेष्टं ' आदि कारिका उद्धृत की गयी है ठीक उसी प्रकारकी प्राकृत गाथा पंचास्तिकाय में पायी जाती है । यथा- सिय अस्थि णत्थि उभयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि || प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रमके भेदसे प्रक्रम तीन प्रकारका बतलाया गया है । इनमें प्रकृतिप्रक्रमको भी मूलप्रकृतिप्रक्रम और उत्तरप्रकृतिप्रक्रम इन दो भेदोंमें विभक्त कर यथाक्रम से उनके अल्पबहुत्वकी यहाँ प्ररूपणा की गयी है । अन्तमें स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रमको भी संक्षेप में प्ररूपणा करके इस अनुयोगद्वारको समाप्त किया गया है । ९ उपक्रम - प्रक्रमके समान ही उपक्रमके भी ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-- नामउपक्रम, स्थापनाउपक्रम, द्रव्यउपक्रम, क्षेत्रउपक्रम, कालउपक्रम और भावउपक्रम । यहाँ कर्मउपक्रमको अधिकारप्राप्त बतलाकर उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-- बन्धनोपक्रम, उदीरणोपक्रम, उपशामनोपक्रम और विपरिणामोपक्रम | यहाँ प्रक्रम और उपक्रममें विशेषताका उल्लेख करते हुए यह बतलाया है कि प्रक्रम प्रकृति, स्थिति और अनुभाग में आनेवाले प्रदेशाग्रकी प्ररूपणा करता है जब कि उपक्रम बन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर सत्त्व स्वरूपसे स्थित कर्मपुद्गलोंके व्यापारकी प्ररूपणा करता है । बन्धनोपक्रम भी यहाँ प्रकृति व स्थिति आदिके भेदसे चार भेद बतलाकर उनकी प्ररूपणा सत्कर्मप्रकृतिप्राभृतके समान करना चाहिये, ऐसा उल्लेखमात्र किया है । यहाँ यह आशंका उठायी गयी है कि इनकी प्ररूपणा जैसे महाबन्धमें की गयी है तदनुसार ही वह यहाँ क्यों न की जाय ? इसके समाधान में बतलाया है कि महाबन्ध में चूंकि प्रथम समय सम्बन्धी बन्धका आश्रय लेकर वह प्ररूपणा की गयी है। अतएव तदनुसार यहाँ उनकी प्ररूपणा करना इष्ट नहीं है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) उदीरणा - उदयावलीबाह्य स्थितिको आदि लेकर आगेकी स्थितियोंके बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशपिण्डका पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रतिभागसे या असंख्यात लोक प्रतिभागसे अपकर्षण करके उसको उदयावली में देना, इसे उदीरणा कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि उदयावलिको छोड़कर आगेकी स्थितियोंमेंसे प्रदेशपिण्डको खींचकर उसे उदयावली में प्रक्षिप्त करनेको उदीरणा कहते हैं । वह दो प्रकारकी है- एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा । एक-एक प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा में प्रथमतः उसके स्वामियों का विवेचन किया गया है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों की उदीरणा स्वामीका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इन कर्मोंकी उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होती है । विशेषता इतनी है कि क्षीणकषायके कालमें एक समय अधिक आवलीमात्र शेष रहनेपर उनकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है । तत्पश्चात् एक-एकप्रकृतिउदीरणाविषयक एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । नाना जीवोंकी अपेक्षा उसके अन्तर की सम्भावना ही नहीं है । एक एक प्रकृतिका अधिकार होने से यहां भुजा - कार पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणाकी भी सम्भावना नहीं है । प्रकृतिस्थान उदीरणाकी प्ररूपणा में स्थानसमुत्कीर्तना करते हुए मूल प्रकृतियों के आधार से ये पांच प्रकृतिस्थान बतलाये गये हैं- आठों प्रकृतियोंकी उरदीणारूप पहिला आयुके विना शेष सात प्रकृतियोंरूप दूसरा; आयु और वेदनीयके विना शेष छह प्रकृतियोंरूप तीसरा मोहनीय आयु और वेदनीयके विना शेष प्रकृतियोंरूप चौथा; तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय. मोहनीय, आयु और अन्तरायके विना शेष दो प्रकृतियोंरूप पांचवां | स्वामित्वप्ररूपणामें उक्त स्थानोंके स्वामियोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इनमेंसे प्रथम स्थान, जिसका आयु कर्म उदयावली में प्रविष्ट नहीं है ऐसे प्रमत्त ( मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त संयत तक प्रमाद युक्त) जीवके होता है। द्वितीय स्थान भी उक्त जीवके ही होता है । विशेषता केवल इतनी है कि उसका आयु कर्म उदयावलीमें प्रविष्ट होना चाहिये । तीसरा स्थान सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक होता है । चौथे स्थानका स्वामी छद्मस्थ वीतराग ( उपशान्तकषाय और क्षीणमोह ) जीव होता है । विशेष इतना हैं कि वह क्षीणमोहके काल में आवलीमात्र काल शेष रह जानेके पहिले पहिले ही हो होता है, उसके पश्चात् नहीं । पाँचवे [नाम व गोत्र प्रकृतिरूप ] स्थानके स्वामी चरम आवली कालवर्ती क्षीणकषाय तथा सयोगकेवली हैं | तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान उदीरणाकी ही प्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । भुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणामें अर्थपदका कथन करते हुए बतलाया है कि अनन्तर अतिक्रान्त समय में थोडी प्रकृतियोंकी उदीरणा करके इस समय उनसे अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करना इसे भुजाकार ( भूयस्कार ) उदीरणा कहते हैं । अनन्तर अतिक्रान्त समय में अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करके इस समय उनसे कम प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेका नाम अल्पतरउदीरणा है । अनन्तर अतिक्रान्त समयमें जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा कर रहा था इस समय भी उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणा करनाउनसे होन या अधिककी उदीरणा न करना- इसे अवस्थितउदीरणा कहा जाता है। अनन्तर अतिक्रान्त समयमें अनुदीरक होकर इस समय में की जानेवाली उदीरणाका नाम अवक्तव्य उदीरणा है । स्वामित्वरूपण में यह बतलाया गया है कि भुजाकारउदीरणा, अल्पतरउदीरणा और अवस्थित . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) उदीरणाका स्वामी कोई भी मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव हो सकता है। अवक्तव्यउदीरणाका स्वामी सम्भव नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणामें भुजाकार उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र बतलाया है जो इस प्रकारसे सम्भव है- कोई उपशान्तकषाय जीव वहाँसे च्युत होकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती हुआ। वहाँ वह पाँचसे छह प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेके कारण भुजाकारउदीरक हो गया । इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। पुनः वही द्वितीय समयमें मृत्यको प्राप्त होकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें वह छह प्रकृतियोंसे आठका उदीरक होकर भुजाकार उदीरक ही रहा । यहाँ भुजाकार उदीरणाका द्वितीय समय प्राप्त हुआ। इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय मात्र प्राप्त होता है। अल्पतर उदीरणाका भी काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र है। वह इस मत्तसंयतके अन्तिम समयमें आयकर्मके उदयावलीमें प्रविष्ट हो जानेपर वह आठसे सात प्रकृतियोंकी उदीरणा करता हुआ अल्पतर उदीरक हो गया। इस प्रकार अल्पतर उदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् द्वितीय समयमें अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होनेपर वह वेदनीय कर्मके विना छह प्रकृतियोंकी उदीरणा करता हुआ अल्पतर उदीरक ही रहा। इस प्रकार अल्पतर उदीरणाका काल भी उत्कर्षसे दो समय मात्र ही पाया जाता है। अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय अधिक एक आवलीसे हीन तेतीस सागरोपमप्रमाण है। देवोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें पाँच, छह या सातसे आठका उदीरक होकर भुजाकार उदीरक हुआ। पुनः द्वितीय समयसे लेकर मरणावली प्राप्त होने तक अवस्थितरूपसे आठका ही उदीरक रहा। इस प्रकार अवस्थित उदीरणाका उत्कृष्ट काल प्रथम समय और अन्तिम आवलीको छोडकर पूर्ण देव पर्यायप्रमाण तेतीस सागरोपम मात्र प्राप्त हो जाता है । अन्तरप्ररूपणामें भुजाकार उदीरणाके अन्तरपर विचार करते हुए उसका जघन्य अन्तर एक या दो समय मात्र बतलाया है । यथा-- पांच प्रकृतियोंका उदीरक कोई उपशान्तकषाय नीचे गिरता हुआ सूक्ष्मसाम्परायिक होकर छहका उदीरक हुआ। तत्पश्चात् द्वितीय समयमें भी वह छहका ही उदीरक रहा । इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका अवस्थित उदीरणासे अन्तर हुआ। पुनः तृतीय समयमें मरकर वह देवोंमें उत्पन्न हो आठका उदीरक होकर भुजाकार उदीरणा करने लगा। इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका एक समय मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त हो जाता है। उसका उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। वह इस प्रकारसे- कोई जीव तेतीस सागरोपम आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर उत्पन्न होने के प्रथम समयमें भुजाकार उदीरक हुआ और द्वितीय समयसे लेकर मरणावली प्राप्त होने के पूर्व समय तक वह अवस्थित उदीरक रहा। इस प्रकार उसका इतना अन्तर अवस्थित उदीरणासे हुआ। तत्पश्चात् मरणावलीके प्रथम समयमें वह आयुके विना सात प्रकृतियोंकी उदीरणा करता हुआ अल्पतर उदीरक हो मरणावली कालके अन्तिम समय तक अवस्थित उदीरक रहा। तत्पश्चात मरणको प्राप्त होकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें पुन: भुजाकार उदीरक हुआ। इस प्रकार भुजाकार उदीरणा का अवस्थित और अल्पतर उदीरणाओंसे एक समय कम पूरे तेतीस सागरोपम काल तक अन्तर रहा । आगे चलकर इसी भुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणामें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयकी अतिसंक्षेपमें प्ररूपणा करते हुए भागाभग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और भाव; इन सबकी जानकर प्ररूपणा करनेका निर्देशमात्र किया गया है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८) पदनिक्षेपप्ररूपणामें भुजाकार उदीरणाकी उत्कृष्ट वृद्धि आदि किसके होती है, इसका कुछ विवेचन करते हुए प्रकृत हानि-वृद्धि आदिके अल्पबहुत्वका निर्देश मात्र किया गया है। वृद्धिउदीरणाप्ररूपणामें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित उदीरणा इन चार पदोंके अस्तित्वका उल्लेखमात्र करके शेष प्ररूपणा जानकर करना चाहिये ( सेस जाणिऊण वत्तव्वं ) इतना मात्र निर्देश करते हुए मूलप्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा समाप्त की गयी है। मूलप्रकृतिउदीरणाके समान उत्तर प्रकृति उदीरणा भी दो प्रकारकी है-- एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा। इनमें प्रथमतः एक-एक प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर इन अधिकारों के द्वारा की गयी है। आठ कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंमेंसे किस-किस प्रकृतिके कौन-कौनसे जीव उदीरक होते हैं, इसका विवेचन स्वामित्वमें किया गया है। एक जीवकी अपेक्षा कालके कथन में यह बतलाया है कि अमुक अमुक प्रकृतिकी उदीरणा एक जीवके आश्रयसे निरन्तर जघन्यत इतने काल और उत्कर्षत: इतने काल तक होती है। एक जीवकी अपेक्षा विवक्षित प्रकृतिकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे कितना और उत्कर्षसे कितना होता है, इसका विचार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरके निरूपणमें किया गया है। मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियोंकी उदीरणामें नाना जीवोंकी अपेक्षा कितने भंग सम्भव हो सकते हैं, इसका विचार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयमें किया गया है। उदाहरणके रूपमें पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंके उदीरक कदाचित् सब जीव हो सकते हैं, कदाचित् बहुत उदीरक और एक अनुदीरक होता है तथा कदाचित् बहुत जीव उदीरक और बहुत जीव अनुदीरक भी होते हैं। इस प्रकार यहाँ तीन भंग संभव हैं। नाना जीव यदि विवक्षित प्रकृतिकी उदीरणा करें तो कमसे कम कितने काल और अधिकसे अधिक कितने काल करेंगे, इसका विचार 'नाना जीवोंकी अपेक्षा काल' में किया गया है। इसी प्रकार नाना जीव विवक्षित प्रकृतिको छोडकर अन्य प्रकृतिकी उदी रणा करते हुए यदि फिरसे उक्त प्रकृतिकी उदीरणा प्रारम्भ करते हैं तो कमसे कम कितने काल में और अधिकसे अधिक कितने कालमें करते हैं, इसका विवेचन नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरमें किया गया है। संनिकर्ष- एक-एक प्रकृति उदीरणाकी ही प्ररूपणाको चालू रखते हुए संनिकर्षका भी यहाँ कथन किया गया है। यह संनिकर्ष स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका निर्दिष्ट किया गया है। स्वस्थान संनिकर्षके विवेचनमें ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में किसी एक कर्मकी उत्तर प्रकृतियों में से विवक्षित प्रकृतिको उदीरणा करनेवाला जीव उसकी ही अन्य शेष प्रकृतियोंका उदीरक होता है या अनुदीरक, इसका विचार किया गया है। जैसे- मतिज्ञानावरणकी उदीरणा करनेवाला शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियोंका भी नियमसे उदीरक होता है। चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा करनेवाला अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन तीन दर्शनावरण प्रकृतियोंका नियमसे उदीरक तथा शेष पाँच दर्शनावरण प्रकृतियोंका वह कदाचित् उदीरक होता है । परस्थानसंनिकर्षमें आठों कर्मोकी समस्त उत्तर प्रकृतियोंमेंसे किसी एककी विवक्षा कर शेष सभी प्रकृतियों की उदीरणा अनुदीरणाका विचार किया जाना चाहिये था। परन्तु सम्भवतः उपदेशके अभाव में वह यहाँ नहीं किया जा सका है, उसके सम्बन्धमें यहाँ केवल इतनी मात्र सूचना की गयी है कि 'परत्थागसगियासो जाणियूण वत्तव्यो' अर्थात् परस्थान संनिकर्षका कथन जानकर करना चाहिये । अल्पबहुत्व- यह अल्पबहुत्व भी स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है। इनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वमें ज्ञानावरणादि एक-एक कर्मकी पृथक्-पृथक् उत्तर प्रकृतियोंके उदीरकोंकी हीनाधिताका Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार किया गया है। परस्थान अल्पबहुत्वको प्ररूपणामें समस्त कर्मप्रकृतियों के उदीरकोंकी हीनाधिकताका विचार सामान्य स्वरूपसे किया जाना चाहिये था। परन्तु उसका भी विवेचन यहाँ सम्भवतः उपदेश के अभावसे ही नहीं किया जा सका है। इतना ही नहीं, बल्कि स्वस्थान अल्पबहत्वकी प्ररूपणामें भी केवलज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय इन तीन ही कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे उपर्युक्त अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जा सकी है, शेष मोहनीय आदि कर्मोंके आश्रयसे वह भी नहीं की गयी है। यहाँ उसके सम्बन्धमें इतनी मात्र सूचना की गयी है 'उपरि उपदेसं लहिय वत्तव्वं । परत्थाणप्पाबहुगं जाणिय वत्तव्यं ' अर्थात् आगे मोहनीय आदि शेष कर्मों के सम्बन्धमें प्रकृत स्वस्थान अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा उपदेश पाकर करना चाहिये । परस्थान अल्पबहुत्वका कथन जानकर करना चाहिये । यहाँ एक-एक प्रकृतिकी विवक्षा होनेसे भुजाकर, पदनिक्षेप और वृद्धि प्ररूपणाओंकी असम्भावना प्रगट की गयी है। प्रकृतिस्थान उदीरणा- यहाँ ज्ञानावरण आदि एक-एक कर्मकी अलग-अलग उत्तर प्रकृतियोंका आश्रय करके जितने उदीरणास्थान सम्भव हों उनके आधार से स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर तथा अल्पबहुत्व का विचार किया गया है । उदाहरण स्वरूप मोहनीय कर्मकी स्थान उदीरणामें एक, दो, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और दस प्रकृति रूप नौ स्थानोंकी सम्भावना है। उनमें एक प्रकृति रूप उदीरणास्थानके चार भंग है- संज्वलन क्रोधके उदयसे प्रथम भंग, मानसंज्वलनके उदयसे दूसरा भंग, मायासंज्वलनके उदयसे तीसरा भंग, और लोभसंज्वलनके उदयसे चौथा भंग। इन भंगोंका कारण यह है कि इन चारों प्रकृतियों में से विवक्षित समय में किसी एककी ही उदीरणा हो सकती है। दो प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकके बारह भंग होते हैं-- इसका कारण यह है कि विवक्षित समयमें तीन वेदोंमें से किसी एक ही वेदकी उदीरणा हो सकेगी तथा उसके साथ उक्त चार संज्वलन कषायोंमें से किसी एक संज्वलन कषायकी भी उदीरणा होगी। इस प्रकार दो प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणामें बारह ( ४४३ = १२ ) भंग प्राप्त होते हैं। चार प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणामें चौबीस भंग होते हैं। वे इस प्रकारसे- तीन वेदोंमें से कोई एक वेद प्रकृति, चार संज्वलन कषायोंमें से कोई एक, तथा इनके साथ हास्य-रति या अरति-शोक इन दो युगलों में से कोई एक युगल रहेगा। इस प्रकार चार प्रकृतिरूप स्थानके चौबीस ( ३४४४२ = २४ ) प्राप्त होते हैं। इस चार प्रकृति स्थानमें भय, जगप्सा, सम्यक्त्व' प्रकृति अथवा प्रत्याख्यानावरणादि चारमें से किसी एक प्रत्याख्यानावरण कषायके सम्मिलित होने पर पाँच प्रकृतिरूप स्थानके चार चौबीस ( २४४४ = ९६ ) भंग होते हैं । इसी प्रकारसे आगे भी छह प्रकृतिरूप स्थानके सात चौबीस ( २४४७ = १६८ ), सात प्रकृतिरूप स्थानके दस चौबीस ( २४४१० - २४० ), आठ प्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह चौबीस ( २४४११ = २६४ ), नौ प्रकृतिरूप स्थानके छह चौबीस ( २४४६ = १४४ ), तथा दस प्रकृतिरूप स्थानके एक चौबीस ( २४४१ = २४ ) भंग होते हैं। इस प्रकार मोहनीय कर्मकी स्थान उदीरणामें प्रथमतः स्थान समुत्कीर्तना करके तत्पश्चात् स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारोंके द्वारा उसकी ही प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकारसे ज्ञानावरणादि अन्य कर्मोके भी विषयमें पूर्वोक्त स्वामित्व आदि अधिकारोंके Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) द्वारा यथासम्भव स्थान उदीरणाकी प्ररूपणा की गयी है । वेदनीय और आयु कर्मोके स्थान उदीरणाकी सम्भावना नही है। भुजाकार उदीरणा- यहाँ प्रथमतः दर्शनावरणके सम्बन्धमें भुजाकार अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य इन चारों ही उदीरणाओंके अस्तित्वकी सम्भावना बतलाकर तत्पश्चात् उनके स्वामी, एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल व अन्तरका तथा अल्पबहुत्वका संक्षेपमें विवेचन किया गया है । आगे चलकर इसी क्रमसे मोहनीयके सम्बन्धमें भी भुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणा करके उसे यहीं समाप्त कर दिया है । नामकर्म आदि अन्य कर्मोंके सम्बन्धमें उक्त प्ररूपणा नहीं की गयी है। इसके पश्चात् अति संक्षेप में पदनिक्षेप और वृद्धिप्ररूपणा करके प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा समाप्त की गयी है। स्थितिउदीरणा- यह भी मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिस्थिति उदीरणाके भेदसे दो प्रकारकी है। मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणामें मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण बतलाया गया हैं । जैसे- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोंको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे कम तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है । यहाँ उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाम दो आवली कम बतलानेका कारण यह है कि बन्धावली और उदयावलीगत स्थिति उदीरणाके अयोग्य होती है । जघन्य स्थितिउदीरणा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी एक स्थिति मात्र है जो कि ऐसे क्षीणकषाय जीवके पायी जाता है जिसे अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय होने में एक समय अधिक एक आवली काल शेष है। मोहनीयकी जघन्य स्थिति उदीरणा भी एक स्थितिमात्र है जो कि ऐसे सूक्ष्मसांपरायिक क्षपकके पायी जाती है जिसके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक होने में एक समय अधिक आवलि मात्र स्थिति शेष रही है । वेदनीयके जघन्य स्थितिउदीरणा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन तीन बटे सात (1) सागरोपमप्रमाण है। जिस प्रकार मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणामें मूलप्रकृतियोंके आश्रयसे यह प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकारसे उत्तर प्रकृति स्थिति उदीरणामें उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे उक्त प्ररूपणा की गयी है। स्वामित्व- पांच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिके उदीरक कौन और किस अवस्थामें होते हैं, इसका विचार स्वामित्वप्ररूपणामें किया गया है। एक जीवकी अपेक्षा काल- उक्त पांच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणा जघन्यसे कितने काल और उत्कर्षसे कितने काल होती है, इसका विचार यहाँ कालप्ररूपणामें किया गया है। उदाहरणके रूप में जैसे पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनरूप अनन्त काल है । उन्हीकी जघन्य स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे भी एक समय मात्र है और उत्कर्षसे भी एक समय मात्र ही है । इनकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका काल अभव्य जीवोंकी अपेक्षा अनादि-अपर्यवसित और भव्य जीवोंकी अनादि-सपर्यवसित है। ___एक जीवकी अपेक्षा अन्तर- जिस प्रकार काल प्ररूपणामें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणाओंके कालका कथन किया गया है उसी प्रकार अन्तर प्ररूपणामें उनके अन्तरका विचार किया गया है। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- यहां अर्थपदके कथनमें यह बतलाया है कि जो जीव उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक होते हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिके अनुदीरक होते हैं और जो अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक होते हैं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११) वे उत्कृष्ट स्थितिके अनुदीरक होते हैं। इसी प्रकारसे जो जघन्य स्थितिके उदीरक होते हैं वे अजघन्य स्थितिके नियमसे अनुदीरक होते हैं तथा जो अजघन्य स्थिति के उदीरक होते हैं वे जघन्य स्थितिके नियमसे अनुदीरक होते हैं। इस प्रकार अर्थपदका उल्लेख करके तत्पश्चात् किन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा आदिमें कितने भंग होते हैं, इसका विचार किया गया है । जैसे- पाँच ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके कदाचित् सब जीव अनुदीरक होते हैं, कदाचित् बहुत अनुदीरक और एक उदीरक होता है तथा कदाचित् बहुत अनुदीरक और बहुत ही उदीरक होते हैं। इस प्रकार उनकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंमें तीन भंग पाये जाते हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंमें भी तीन ही भंग पाये जाते हैं। किन्तु वे विपरीत क्रमसे पाये जाते हैं। यथा अनुत्कृष्ट स्थितिके कदाचित् सब जीव उदीरक, कदाचित् बहुत उदीरक एक अनुदीरक तथा कदाचित् बहुत उदीरक व बहुत अनुदीरक होते हैं। ____ नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अन्तरकी प्ररूपणा न करके यहाँ केवल इतना उल्लेख भर किया गया है कि उनकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा की गयी पूर्वोक्त भंगविचयप्ररूपणासे ही सिद्ध करके करना चाहिये। संनिकर्ष- मतिज्ञानावरण प्रकृतिको प्रधान करके उसकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला जीव अन्य सब प्रकृतियोंमें किस-किस प्रकृतिकी स्थितिका उदीरक या अनुदीरक होता है, तथा यदि उदीरक होता है तो क्या उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है या अनुत्कृष्ट स्थितिका; इसका विचार यहाँ किया गया है। उदाहरणार्थ- मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला श्रुतज्ञानावरणकी स्थितिका नियमसे उदीरक होता है। उदीरक होकर भी वह उसकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों ही स्थितियोंका उदीरक होता है। अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता हुआ उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कम, दो समय कम, तीन समय कम, इत्यादि कमसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्रसे हीन व उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे अवधिज्ञानावरणादि शेष तीन ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, तथा साता व असातावेदनीय आदि सभी प्रकृतियोंकी स्थिति उदीरणाका तुलनात्मक विचार यहाँ संनिकर्षप्ररूपणामें किया गया है । इस प्रकार मतिज्ञानावरणकी प्रधानतासे पूर्वोक्त प्ररूपणा कर चुकनेके बाद यहाँ यह उल्लेख मात्र किया गया है कि शेष ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंमेंसे एक एकको प्रधान कर उनके संनिकर्षकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके ही समान करना चाहिये। तत्पश्चात् यहाँ कुछ प्रकृतियोंके संनिकर्षके कहनेकी प्रतिज्ञा करके सम्भवतः सातावेदनीयको प्रधान करके ( प्रतियोंमें यह उल्लेख पाया नहीं जाता, सम्भवतः वह स्खलित हो गया है ) भी पूर्वोक्त प्रकारसे संनिकर्षकी प्ररूपणा की गयी है। यह उत्कृष्ट पद विषयक संनिकर्षकी प्ररूपणा की गयी है। जघन्य पद विषयक संनिकर्षकी प्ररूपणाके सम्बन्धमें इतना मात्र उल्लेख किया गया है कि उसकी प्ररूपणा विचारकर करना चाहिये। __ अल्पबहुत्व- यहाँ प्रथमत: सामान्य ( ओघ ) स्वरूपसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विषयक अल्पबहुत्वका विवेचन करते हुए तदनुसार आदेशकी अपेक्षा इत्यादि मार्गणाओंमें भी पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके कथन करने का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् ओघ और फिर आदेश रूपसे जघन्य स्थितिउदीरणा विषयक अल्पबहुत्वकी भी प्ररूपणा की है। भुजाकार स्थितिउदीरणा- यहाँ पहिले अर्थपदका विवेचन करते हुए यह बतलाया है कि अल्पतर स्थितियोंकी उदीरणा करके आगेके अनन्तर समयमें बहुतर स्थितियोंकी उदीरणा करनेपर भुजाकार स्थिति उदीरणा होती है। बहुतर स्थितियोंकी उदीरणा करके आगेके अनन्तर समयमें अल्प स्थितियोंकी उदीरणा करनेपर यह अल्पतर स्थितिउदीरणा कही जाती है। जितनी स्थितियोंकी उदीरणा इस समय की गयी है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) आगेके अनन्तर समयमें भी उतनी ही स्थितियों की उदीरणा की जानेपर यह अवस्थित उदीर गा कहलाती है। जिसने पहिले स्थितिउदीरणा नहीं की है किन्तु अब कर रहा है उसकी यह उदीरणा अवक्तव्य उदीरणा कही जाती है। इस प्रकारसे अर्थपदका कथन करके तत्पश्चात् यहाँ भजाकार स्थिति उदीरणाकी प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर और अल्पबहुत्व इन अधिकारोंके द्वारा यथासम्भव की गयी है। तत्पश्चात् पदनिक्षेपका संक्षिप्त विवेचन करते हुए वृद्धि उदीरणाकी प्ररूपणाके इन अधिकारोंके द्वारा जानकर करनेका संकेतमात्र किया है- स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर। इसके बाद फिर इसी वृद्धिप्ररूपणाके आश्रयसे अल्पबहुत्वका विचार विस्तारसे किया गया है। अनुभागउदीरणा-- अनुभागउदी रणाकी मूलप्रकृति उदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदी रणा इन दो भेदोंमें विभक्त करके उनमें मूलप्रकृति उदीरणाका कथन जानकर करनेका उल्लेख मात्र किया गया है। उत्तरप्रकृतिअनभाग उदीरणाकी प्ररूपणामें इन २४ अनयोगद्वारोंका निर्देश करके यह कहा गया है कि इन अनुयोगद्वारोंका कथन करके तत्पश्चात् भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थानका भी कथन करना चाहिये। वे अनुयोगद्वार ये हैं-- १ संज्ञा, २ सर्वउदीरणा, ३ नोसर्व उदीरणा, ४ उत्कृष्ट उदीरणा, ५ अनुत्कृष्ट उदीरणा, ६ जघन्य उदीरणा, ७ अजघन्य उदीरणा, ८ सादिउदीरणा, ९ अनादि उदीरणा, १० ध्रुवउदीरणा, ११ अध्रुवउदीरणा, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ एक जीवकी अपेक्षा काल' १४ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, १५ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, १६ भागाभागानुगम, १७ परिमाण, १८ क्षेत्र, १९ स्पर्शन, २० नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, २१ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, २२ भाव, २३ अल्पबहुत्व और २४ संनिकर्ष । इनमें संज्ञाके घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा इन दो भेदोंका निर्देश करके फिर घातिसंज्ञाकी प्ररूपणा करते हुये यह बतलाया है कि आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण इन चारकी उत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती एवं देसघाती भी होती है। केवलज्ञानावरणकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती ही होती है। इसी प्रकारसे दर्शनावरण आदि अन्य अन्य प्रकृतिभेदोंके सम्बन्धमें भी इस धातिसंज्ञाकी प्ररूपणा की गयी है। स्वामित्व-- यहाँ ये चार अनुयोगद्वार निर्दिष्ट किये गये हैं-- प्रत्ययप्ररूपणा, विपाकप्ररूपणा, स्थानपरूपणा और शुभाशुभप्ररूपणा । प्रत्ययप्ररूपणामें यह बतलाया है कि पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, तीन दर्शनमोहनीय और सोलह कषायकी उदीरणा परिणामप्रत्ययिक है। नौ नोकषायोंकी पूर्वानु - पूर्वीसे असंख्यातवें भाग प्रमाण परिणामप्रत्ययिक तथा पश्चादानुपूर्वीसे असंख्यात बहुभाग प्रमाण भवप्रत्ययिक है। साता व असाता वेदनीय, चार आयु कर्म, चार गति और पाँच जातिकी उदीरणा भवप्रत्ययिक है। औदारिकशरीरकी उदीरणा तिर्यञ्च और मनुष्योंके भवप्रत्यायिक है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा देवनारकियोंके भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंच-मनुष्योंके परिणामप्रत्ययिक है। इसी क्रमसे आगे भी यह प्ररूपणा की गयी है। विपाकप्ररूपणामें बतलाया है कि जैसे पहले निबन्धनकी प्ररूपणा की गयी है [देखिये पृ. १७४ ] उसी प्रकार यहाँ विपाककी भी प्ररूपणा करना चाहिये । स्थानप्ररूपणामें मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियोंकी उदीरणाके उत्कृष्ट आदि भेदोंमें एकस्थानिक और द्विस्थानिक आदि अनुभागस्थानोंकी सम्भावना बतलायी गयी है। शुभाशुभप्ररूपणामें पुण्य-पापरूप प्रकृतियोंका नामोल्लेख मात्र किया गया है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) इसके पश्चात् मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट आदि उदीरणा भेदोंके स्वामियोंकी प्ररूपणा यथाक्रमसे की गयी है । आगे इसी क्रमसे पूर्वोक्त उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य एवं अजघन्य उदीरणा भेदोंकी एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा स्वस्थान व परस्थान संनिकर्षकी भी प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारों में इतने अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करके शेष अनुयोगद्वारोंके सम्बन्धमें यह कह दिया है कि उनकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । अन्तमें अल्पबहुत्व ( २३वें ) अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा विस्तारसे की गयी है। ___ भुजाकार अनुभागउदीरणा - यहाँ अर्थपदकी प्ररूपणा करते हुए यह बतलाया है कि अनन्तर अतिक्रान्त समयमें अल्पतर स्पर्धकोंकी उदीरणा करके यदि इस समयमें बहुतर स्पर्धकोंकी उदीरणा करता है तो वह भुजाकार अनुभाग उदीरणा कही जायगी । यदि अनन्तर अतिक्रांत समयमें बहुतर स्पर्धकोंकी उदीरणा करके इस समय स्तोक स्पर्धकोंकी उदीरणा करता है तो उसे अल्पतर उदीरणा कहना चाहिये । अनन्तर अतिक्रांत समयमें जितने स्पर्धकोंकी उदीरणा की गयी है आगे भी यदि उतने उतने ही स्पर्वकोंकी उदीरणा करता है तो इसका नाम अवस्थित उदीरणा होगा । पूर्वमें अनुदीरक होकर आगे उदीरणा करनेपर यह अवक्तव्य उदीरणा कही जायगी। इस प्रकारसे अर्थपदका कथन करते हुए यहां यह संकेत किया है कि पूर्वोक्त भुजाकारादि उदीरणाओंके स्वामित्वकी प्ररूपणा इसी अर्थपदके अनुसार करना चाहिये। ___ तत्पश्चात् यहाँ इन्ही उदीरणाओंसे सम्बन्धित एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवोंको अपेक्षा भंगविचय, काल व अन्तर; तथा अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । पश्चात् पदनिक्षेपकी प्ररूपणा करते हुए उसमें उत्कृष्ट एवं जघन्य भेदोंकी अपेक्षा स्वामित्व और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है। वृद्धि उदीरणामें समुत्कीर्तनका कथन करके तत्पश्चात् यह संकेत किया है कि अल्पबहुत्व पर्यंत स्वामित्व आदि अधिकारोंकी प्ररूपणा जिस प्रकार अनुभागवद्धिबन्ध में की गयी है उसी प्रकारसे उनकी प्ररूपणा यहाँ भी करना चाहिये। प्रदेशउदी रणा- मूलप्रकृतिप्रदेश उदीरणा और उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणाके भेदसे प्रदेशउदीरणा दो प्रकारकी है। इनमें मूलप्रकृतिप्रदेशउदीरणाकी विशेष प्ररूपणा यहाँ न कर केवल इतना मात्र संकेत किया गया है कि मलप्रकतिप्रदेश उदीरणाकी समत्कीर्तना आदि चौबीस अनयोगद्वारोंके द्वारा अन्वेषण करके भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा कर चुकनेपर मूल प्रकृतिप्रदेशउदीरणा समाप्त होती है। ऐसा ही निर्देश कषायप्राभृतमें चूणिसूत्रके कर्ता द्वारा भी किया गया है ( देखिये क. पा. सूत्र पृ. ५१९)। उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणाकी प्ररूपणा में स्वामित्वका विवेचन करते हुए पहिले मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाके स्वामियोंका और तत्पश्चात् उन्हींकी जघन्य प्रदेशउदीरणाके स्वामियोंका कथन किया गया है। इसके बाद एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर इन अनुयोगद्वारोंका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये; इतना उल्लेख मात्र करके स्वस्थान और परस्थान संनिकर्षकी संक्षेप में प्ररूपणा की गयी है। प्रदेशभुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणामें पहिले प्रदेशभुजाकारउदीरणा, प्रदेशअल्पतरउदीरणा, प्रदेशअवस्थितउदीरणा और प्रदेशअवक्तव्य उदीरणा इन चारोंके स्वरूपका निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवकी अपेक्षा भंगविचय, नाना Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) जीवोंकी अपेक्षा काल तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर इनकी प्ररूपणा अनुभागभुजाकारउदीरणाके समान करने का उल्लेख करके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है। पदनिक्षेपप्ररूपणा में पहले उत्कृष्ट स्वामित्वका विवेचन करके तत्पश्चात् जघन्य स्वामित्वका भी विवेचन करते हुए उत्कृष्ट और जघन्य अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । वृद्धिउदीरणामें प्रथमतः स्थानसमुत्कीर्तनाका कथन करके तत्पश्चात् स्वामित्व आदि शेष अनुयोगद्वारोंका कथन भी अति संक्षेपमें किया गया है । इस प्रकारसे प्रदेशउदीरणाकी प्ररूपणा हो चुकनेपर यहां उदीरणा उपक्रम समाप्त हो जाता है। उपशामना उपक्रम - यहां उपशामनाके सम्बन्धमें निक्षेपयोजना करते हुए कर्मद्रव्य उपशामनाके दो भेद बतलाये है - करणोपशामना और अकरणोपशामना । इनमें अकरणोपशामनाका अनुदीर्णोपशामना यह दूसरा भी नाम है । इसकी सविस्तर प्ररूपणा कर्मप्रवादमें की गयी है । करणोपशामना भी दो प्रकारकी है- देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । सर्वकरणोपशामनाके और भी दो नाम हैंगुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना । इस सर्वकरणोपशामनाकी प्ररूपणा कसायपाहुडमें की जायगी, ऐसा निर्देश करके यहां उसकी प्ररूपणा नहीं की गयी है। इसी प्रकार देश करणोपशामनाके भी दूसरे दो नाम हैं- अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । इसी अप्रशस्तोपशामनाको यहां अधिकारप्राप्त बतलाया है । उपशामनाके पूर्वोक्त भेदोंके लिये तालिका देखिये उपशामना नामउपशामना स्थापनाउपशामना द्रव्यउपशामना भावउपशामना आगमद्रव्य उपशामना नोआगमद्रव्यउपशामना आगमभावउपशामना नोआगमभाव उपशामना कर्मद्रव्यउपशामना नोकर्मद्रव्य उपशामना करणोपशामना अकरणोपशामना ( अनुदीर्णोपशामना इसका ही नामान्तर है ) देशकरणोपशामना (अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना इसीके नामान्तर हैं) सर्वकरणोपशामना (गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना इसीके नामान्तर हैं) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) आचार्य यतिवृषभ द्वारा विरचित कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंमें भी इन उपशामना भेदोंके सम्बन्धमें प्राय: इसी प्रकार और इन्हीं शब्दों में कथन किया गया है। कसायपाहुडसे इतनी ही विशेषता है कि यहाँ सर्वकरणोपशामनाका 'गुणोपशामना' और देशकरणोपशामनाका अगुणोपशामना' इन नामान्तरोंका उल्लेख अधिक किया गया है । कसायपाहुडकी जयधवला टीकामें उपशामनाके पूर्वोक्त भेदोंमेंसे कुछका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है- 2 अकरणोपशामना -- कर्मप्रवाद नामका जो आठवाँ पूर्वाधिकार है वहाँ सब कर्मों सम्बन्धी मूल और उत्तर प्रकृतियों की विपाक पर्याय और अविपाक पर्यायका कथन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार बहुत विस्तार किया गया है । वहाँ इस अकरणोपशामनाकी प्ररूपणा देखना चाहिये । देशकरणोपशामना-- दर्शनमोहनीयका उपशम कर चुकनेपर उदयादि करणों में से कुछ तो उपशान्त और कुछ अनुपशान्त रहते हैं । इसलिये यह देशकरणोपशामना कही जाती है । xxx द्वितीय पूर्वकी पाँचवी 'वस्तु' से प्रतिबद्ध कर्मप्रकृति नामका चौथा प्राभृत अधिकार प्राप्त है । वहाँ इस देशकरणोपशामनाकी प्ररूपणा देखना चाहिये, क्योंकि, वहाँ इसकी प्ररूपणा विस्तार पूर्वक की गयी है । सर्वकरणोपशामना -- -- सब करणोंकी उपशामनाका नाम सर्वकरणोपशामना है । अप्रशस्तोपशामना -- संसारपरिभ्रमणके योग्य अप्रशस्त परिणामोंके निमित्तसे होनेके कारण यह अप्रशस्तोपशामना कही जाती है । इन उपशामना भेदों का उल्लेख प्रायः इसी प्रकारसे श्वेताम्बर कर्मप्रकृति ग्रन्थ में पाया जाता है । इस कारणकी प्ररूपणा प्रारम्भ करते हुए वहाँ सर्व प्रथम यह गाथा प्राप्त होती है- करणकयाकरणावि य दुविहा उवसामणत्थ बिइयाए । अकरण-अणुइन्नाए अणुओगधरे पणिवयामि ॥ १ ॥ इसमें उपशामनाके करणकृता और अकरणकृता ये वे ही दो भेद बतलाये गये हैं । इनमें द्वितीय अकरणकृता उपशामनाके वे दो ही नाम यहाँ भी निर्दिष्ट किये गये हैं- अकरणकृता और अनुदीर्णा । यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य ' अणुओगधरे पणिवयामि' वाक्यांश है । इसकी संस्कृत टीकामें श्रीमलयगिरि सूरिने लिखा है- इस अकरणकृतोपशामना के दो नाम हैं-- अकरणोपशामना और अनुदीरणोपशामना । उसका अनुयोग इस समय नष्ट हो चुका है । इसीलिये आचार्य ( शिवशर्मसूरि ) स्वयं उसके अनुयोगको न जानते हुए उसके जानकार विशिष्ट प्रतिभासे सम्पन्न चतुर्दश पूर्ववेदियों को नमस्कार करते हुए कहते हैं-fasure इत्यादि । यहाँ द्वितीय गाथा में सर्वोपशामना और देशोपशामना के भी वे ही दो दो नाम निर्दिष्ट किये गये एतो सुतविहासा । जहा । उसमा कदिविधा ति ? उरसामणा दुविहा करणोवसामणा अकरणोवसामणा च । जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि-- अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामगा सिवि । एसा कम्मपवादे ! जा सा करणोवसामणा सा दुविहा-- देसकरणोवसामणा ति वि सव्वकरणोवसामणा त्तिवि । देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसक रणोवसामणा त्ति वि अप्पसत्थउवसामणा त्तिवि । एसा कम्मपयडीसु । जा सा सव्वकरणोवसामना तिस्से विदुवे णामाणि -- सव्वकरणोवसामणा त्तिवि पसत्यकरणोवसामणा त्तिवि । एदाए तत्थापयदं । क. पा. सुत्त पृ. ७०७-८. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) हैं जो कि यहाँ प्रकृत धवलामें बतलाये गये हैं। यथा- सर्वकरणोपशामनाके गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना तथा देशकरणोपशामनाके उनसे विपरीत अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । यहाँ अप्रशस्तोपशामनाको अधिकार प्राप्त बतलाते हुए श्री वीरसेनाचार्यने उसके अर्थपदका कथन करते हए बतलाया है कि जो प्रदेश पिण्ड अप्रशस्तोपशामनाके द्वारा उपशान्त किया गया है उसका अपकर्षण किया जा सकता है, उत्कर्षण किया जा सकता है, अन्य प्रकृतिमें संक्रम कराया जा सकता है परन्तु उदयावलीमें प्रवेश नहीं कराया जा सकता है। इस अर्थपदके अनसार यहाँ पहिले स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर तथा अल्पबहुत्व, ( भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि प्ररूपणाओंकी यहाँ सम्भावना नही है )। इन अधिकारों के द्वारा मूलप्रकृति उपशामनाकी प्ररूपणा अतिसंक्षेप में की गयी है। उत्तरप्रकृतिउपशामनाको प्ररूपणा भी इन्हीं अधिकारों के द्वारा संक्षेपमें की गयी है । प्रकृतिस्थानोपशामनाकी प्ररूपणामें ज्ञानावरणादि कर्मोके सम्भव स्थानोंका उल्लेख मात्र करके उनकी प्ररूपणा स्वामित्व आदि अधिकारोंके द्वारा करना करना चाहिये, ऐसा उल्लेख मात्र किया गया है । यहाँ भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि उपशामनाओंकी भी सम्भावना है। स्थिति उपशामना- यहाँ पहिले मूल प्रकृकियोंके आश्रयसे क्रमश: उत्कृष्ट और जघन्य अद्धाछेदको प्ररूपणा करके तत्पश्चात् स्वामित्व आदि शेष अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा स्थिति उदीरणाके समान करना चाहिये, ऐसा संकेत किया गया है। अनुभाग उपशामना- यहाँ मूलप्रकृतिअनुभागउपशामनाको सुगम बतलाकर उत्तरप्रकृतिअनुभाग उपशामनामें उत्कृष्ट व जघन्य प्रमाणानुगम, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगवचिय, काल, अन्तर और संनिकर्ष; इन अनुयोगद्वारोंको प्ररूपणा यथासम्भव अनुभागसत्कर्मके समान करना चाहिये ऐसा निर्देश किया गया है । यहाँ तीव्रता और मदन्ताके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाको जैसे अनुभागबन्ध में चौसठ पदों द्वारा तद्विषयक अल्पबहुत्वकी की गयी है वैसे करने योग्य बतलाया है । प्रदेश उपशामना- यहाँ 'प्रदेश उपशामनाकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये' इतना मात्र संकेत किया गया है। विपरिणामोपक्रम- प्रकृतिविपरिणमना आदिके भेदसे विपरिणामोपक्रम चार प्रकारका है। इनमें प्रकृतिविपरिणमनाके दो भेद हैं- मूलप्रकृतिविपरिणमना और उत्तरप्रकृतिविपरिणमना। मूलप्रकृतिविपरिणमनाके भी दो भेद हैं- देशविपरिणमना और सर्वविपरिणमना । देशविपरिणमना- जिन प्रकृतियों का अधःस्थितिगलनाके द्वारा एकदेश निर्जीण होता है उसका नाम देशविपरिणमना है। सर्वविपरिणमना- जो प्रकृति सर्वनिर्जराके द्वारा निर्जीर्ण होती है वह सर्वविपरिणमना कहलाती है। उत्तरप्रकतिविपरिणमना- देश निर्जरा या सर्वनिर्जराके द्वारा निजीर्ण प्रकृति तथा जो अन्य प्रकतिमें देशसंक्रमण अथवा सर्वसंक्रमणके द्वारा संक्रान्त होती है इसका नाम उत्तरप्रकृतिविपरिणमना है । इस स्वरूपकथनके अनुसार यहाँ मूल और उत्तर प्रकृतिविपरिणमनाकी प्ररूपणा स्वामित्व आदि अधिकारोंके द्वारा करना चाहिये, ऐसा उल्लेख भर किया गया है । इसका कारण तद्विषयक उपदेशका अभाव ही प्रतीत होता है । यहाँ भुजाकर, पदनिक्षेप और वृद्धिकी सम्भावना नहीं है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमको प्राप्त कराई जानेवाली स्थितिका नाम विपरिणामना स्थिति है । अपकर्षित, उत्कर्षित अथवा अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराया गया अनुभाग विपरिणामित अनुभाग कहलाता है । जो प्रदेशपिंड निर्जराको प्राप्त हुआ है अथवा अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराया गया है वह प्रदेशपरिणामना कही जाती है । इनमें स्थितिविपरिणामनाकी प्ररूपणा स्थितिसंक्रम, अनुभाग विपरिणामनाकी प्ररूपणा अनुभागसंक्रम और प्रदेशविपरिणामनाकी प्ररूपणा प्रदेशसंक्रमके समान करने योग्य बतलायी गयी है । १० उदयानुयोगद्वार - यहाँ नोआगमकर्मद्रव्य उदयको प्रकृत बतलाकर उसके प्रकृतिउदय आदि के भेदसे चार भेद बतलाये हैं । उत्तर प्रकृति उदयकी प्ररूपणा में स्वामित्वका कथन करते हुए किन प्रकृतियों के कौन-कौनसे जीव वेदक हैं, इसका विवेचन किया गया है । अन्य काल आदि अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा स्वामित्व सिद्ध करके करना चाहिये । ऐसा उल्लेख करते हुए यहां अल्पबहुत्व के विवेचनमें जो प्रकृति उदीरणाअल्पबहुत्वसे कुछ विशेषता है उसका उपदेशभेदके अनुसार निर्देशमात्र किया गया है । स्थितिउदय स्थितिउदय की प्ररूपणा में पहिले स्थितिउदय प्रमाणानुगम, स्वमित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संनिकष और अल्पबहुत्व इन अधिकारों के अनुसार मूलप्रकृतिस्थितिउदयकी प्ररूपणा की गयी है । यह उदयकी प्ररूपणा प्रायः उदीरणाप्ररूपणा के ही समान निर्दिष्ट की गयी है । उत्तरप्रकृतिस्थितिउदय - यहाँ एवं उत्कृष्ट स्थिति उदयके प्रमाणानुगमकी प्ररूपणा उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा प्रमाणानुगमके समान बतलाते हुए उसे उदयस्थितिसे अधिक बतलाया गया है । जघन्य स्थिति उदयकी प्ररूपणा में नामनिर्देशपूर्वक कुछ कर्मोंका जघन्य प्रमाणानुगम बतलाकर शेष कर्मोंके प्रमा गम, सभी कर्मो स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारोंकी भी प्ररूपणा स्थिति उदीरणाके समान निर्दिष्ट भी गयी है। अनुभाग उदय - यहाँ मूलप्रकृतिअनुभागउदय और उत्तरप्रकृतिअनुभागउदयकी प्ररूपणा चौबीस अनुयोगद्वारोंके द्वारा करणीय बतलाकर जघन्य स्वामित्वके विषय में कुछ थोडीसी विशेषताका भी उल्लेख किया गया है । प्रदेशउदय - यहाँ मूलप्रकृति प्रदेश उदयकी प्ररूपणा में सब अनुयोगद्वारों के द्वारा जानकर करने योग्य बतलाकर उत्तरप्रकृतिप्रदेश उदयकी प्ररूपणा में स्वामित्वके परिज्ञानार्थ ' सम्मत्तप्पत्तीए ' आदि २ गाथाओंके द्वारा १० गुणश्रेणियों का निर्देश करके उक्त गुणश्रेणियों में कौनसी गुणश्रेणियाँ भवान्तरमें संक्रान्त होती है, इसका उल्लेख करते हुए उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेश उदयविषयक स्वामित्वका विवेचन किया गया है । एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व आदि अन्य अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा पूर्वोक्त स्वामित्व प्ररूपणा से ही सिद्ध करने योग्य बतलाकर तत्पश्चात् उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशउदयविषयक अल्पबहुत्वका विवेचन किया गया है। भुजाकार प्रदेशउदयकी प्ररूपणा में प्रथमतः अर्थपदका निर्देश करके तत्पश्चात् स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा की गयी है । एक जीवकी अपेक्षा काल प्ररूपणा प्रथमतः नागहस्ती क्षमाश्रमणके उपदेशानुसार और तत्पश्चात् अन्य उपदेशके अनुसार की गयी है । पदनिक्षेपप्ररूपणा में स्वामित्वका विवेचन करते हुए तत्पश्चात् अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) संतकम्मपंजिया निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय इन पूर्वोक्त चार अनुयोगद्वारोंके ऊपर एक पंजिका भी उपलब्ध है जो इसी पुस्तकके 'परिशिष्ट' में दी गयी है। यह पंजिका किसके द्वारा रची गयी है, इसका कुछ संकेत यहाँ प्राप्त नहीं है। उसकी उत्थानिकामें यह बतलाया गया है कि ' महाकर्मप्रकृति प्राभूत' के जो कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वार हैं उनमेंसे कृति और वेदना गामक २ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदनाखण्ड ( पु० ९-१२ ) में की गयी है। स्पर्श, कर्म, प्रकृति ( पु० १३ ) और बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत बन्ध एवं बन्धनीय ( बन्धन अनुयोग द्वार चार प्रकारका है- बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान ) अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वर्गणाखण्डमें की गयी है। बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत बन्धविधान नामक अवान्तर अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा महाबन्धमें विस्तारपूर्वक की गयी है। तथा उक्त बन्धन अनुयोगद्वारके अवान्तर अनुयोगद्वारभूत बन्धक अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा क्षुद्रकबन्ध (पृ० ७) में विस्तार से की गयी है। शेष १८ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा सत्कर्म में की गयी है। तथापि उसके अतिशय गम्भीर होनेसे यहाँ अर्थविषमपदोंके अर्थकी प्ररूपणा पंजिका स्वरूपसे की जाती है। इससे यह निश्चित होता है कि प्रस्तुत मूलभूत षट्खंडागममें कृति-वेदनादि पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारोंमेंसे प्रथम ६ अनुयोगद्वारोंकी ही प्ररूपणा की गयी है। शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा श्री वीरसेन स्वामीने स्वयं ही की है, जैसे कि उन्होंने उसके प्रारम्भमें इस वाक्यके द्वारा सूचित भी कर दिया है-- ___ भूदबलिभडारएण जेणेदं देसामासियभावेग लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसअट्ठारसअणुयोगद्दाराणं किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो । तं जहा-- उक्त 'संतकम्मपंजिया' की उत्थानिकामें की गयी सूचनाके अनुसार तो वह शेष सभी १८ अनुयोगद्वारोंके ऊपर लिखी जानी चाहिये थी। परन्तु उपलब्ध वह उदयानुयोगद्वार तक ही है । इसकी जो हस्तलिखित प्रति हमारे सामने रही है वह श्री पं० लोकनाथ जी शास्त्रीके अन्यतम शिष्य श्री देवकुमार जी के द्वारा मूडबिद्रीस्थ श्री वीरवाणीविलास जैन सिद्धान्त भवनकी प्रतिपरसे लिखी गयी है। वह प्राय: अशुद्ध बहुत है। इसमें लेखकने पूर्णविराम, अर्धविराम और प्रश्नसूचक आदि चिन्होंका भी उपयोग किया है जो यत्र तत्र भ्रान्तिजनक भी हो गया है। पंजिकामें जहां भी अल्पबहुत्वका प्रकरण प्राप्त हुआ है उसीके ऊपर प्रायः विशेष लिखा गया है, अन्य विषयोंका स्पष्टीकरण प्रायः कहीं भी विशेषरूपसे नहीं किया गया है। यहां पंजिकाकारने जो संख्याओंका उपयोग अल्पबहुत्वके स्पष्टीकरणार्थ किया है वह किस आधारसे किया है, यह समझमें नहीं आ सका है। इसमें प्रायः सर्वत्र अस्पष्ट स्वरूपसे एक विशेष चिन्ह आया है जो प्रायः संख्यातका प्रतीक दिखता है । उसके स्थान में हमने अंग्रेजीके (2) के अंक का उपयोग किया है। 8 महाबन्धके ५ भाग ‘भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित किये जा चुके हैं। शेष भागोंके भी शीघ्र प्रकाशित हो जानेकी सम्भावना है। * महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदि-वेदणाओ (इ) चउवीसमणयोगद्दारेसु तत्थ कदि-वेदणा ति जाणि अणुयोगदाराणि वेदणाखंडम्मि, पुणो प ( पस्स-कम्म-पयडि-बंधग त्ति ) चतारिअगुओगद्दारेसु तत्य बंध-बंधणिज्जणामाणु योगेहि सह बग्गणाखंडम्मि, पुणो बंधविधागणामाणुयोगद्दारो महाबंधम्मि, पुणी बंधगाणुयोगो खुद्दाबंधम्मि च सप्पवंचेण परूविदाणि । पुणो तेहिंतो सेसद्वारसाणुयोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुच्चयेण पंजियसरूवेण भण्णिस्सामो। परिशिष्ट पृष्ठ १ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ ७ निबन्धन अनुयोगद्वार १-१४ ८ प्रक्रम अनुयोगद्वार १४-४० वीरसेन स्वामीकृत मंगलाचरण १ नामादि निक्षेपों द्वारा प्रक्रमकी प्ररूपणा भगवन्त भूतबली भट्टारक द्वारा विरचित प्रकृत एक प्रकारके कर्मको बांधकर फिर उसे आठ सूत्रको देशामर्शक मानकर उसके द्वारा सूचित प्रकारके करने विषयक आशंका और उसका शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंके रचनेकी समाधान वीरसेनाचार्य की सूचना सांख्योंके द्वारा माने गये सत्कार्यवादका निबन्धन अनुयोगद्वारका निरुक्त्यर्थ बतला कर निरूपण उसकी नामादि निक्षेपोंके द्वारा प्ररूपणा नैयायिक आदिके द्वारा माने गये असत्कार्यवाद निबन्धन अनुयोगद्वार यद्यपि छहों द्रव्योंके निब का निराकरण न्धनकी प्ररूपणा करता है फिर भी उसे छोड सत्-असत् एवं अनुभय स्वरूप कार्यकी उत्पत्तिका कर यहाँ केवल कर्मनिबन्धनके ही ग्रहण निराकरण करके ' स्यात् सत् कार्य ' उत्पन्न करनेकी सूचना होता है, इत्यादि सात भंगोंका उल्लेख और ज्ञानावरण और दर्शनावरणके निबन्धनकी उनका पृथक् विवरण क्षणिक एकान्त पक्षमें परलोक आदिकी असप्ररूपणा म्भावना प्रगट कर द्रव्यकी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवेदनीयके निबन्धनकी प्ररूपणा स्वरूपताकी सिद्धि मोहनीयके भावैकान्तमें दोषापादन आयके , " अभावैकान्तमें दोषापादन नामकर्मके नयविवक्षासे कथंचित सत, असत व उभय गोत्रकर्मके आदि स्वरूपताकी सिद्धि अन्तरायके मूर्त कर्मोका अमूर्त जीवके साथ बन्धविषयक ज्ञानावरणकी ५ उत्तर प्रकृतियोंके निबन्धन शंका और उसका समाधान की प्ररूपणा " | प्रक्रमके ३ भेदोंका निर्देश करके मूलप्रकृति दर्शनावरणकी ९ उत्तर प्रकृतियोंके निबन्धन प्रक्रमका विवरण की प्ररूपणा | उत्कृष्ट उत्तर प्रकृतिप्रक्रमका विवरण साता और असाता वेदनीयके निबन्धनको जघन्य प्रकृतिप्रक्रमका विवरण प्ररूपणा ११ स्थिति और अनुभाग प्रक्रमका निरूपण दर्शन और चारित्रमोहनीयके निबन्धनकी ९ उपक्रम अनुयोगद्वार ४१-२८४ प्ररूपणा ११ | उपक्रमके भेद-प्रभेद और उनका लक्षण आयुचतुष्कके निबन्धनकी प्ररूपणा १२ | एक-एकप्रकृति उदीरणा विषयक स्वामित्व ४४ नामप्रकृतियोंके निबन्धनकी प्ररूपणा १२ एक जीवकी अपेक्षा काल नीच व ऊंच गोत्र तथा ५ अन्तराय प्रकृतियों अन्तर के निबन्धनकी प्ररूपणा १४ | नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय आदि mm MY MY Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रकृतिस्थानसमुत्कीर्तना और तद्विषयक स्वामित्व आदि भुजाकार आदि चार प्रकारकी उदीरणाओंका निरूपण पदनिक्षेप उत्तरप्रकृतिउदीरणा में एक-एकप्रकृतिउदीरणाविषयक स्वामित्वकी प्ररूपणा एक-एक प्रकृतिउदीरणा विषयक एक जीवकी अपेक्षा कालप्ररूपणा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नाना जीवोंकी अपेक्षा काल नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा संनिकर्ष कर्म की स्थान उदीरणाविषयक असम्भावना नरकगति के आश्रयसे नामकर्मकी स्थान उदीरणा तिर्यञ्च गतिके आश्रयसे नामकर्मकी स्थान उदीरणा मनुष्यों के आश्रयसे नामकर्मकी स्थान उदीरणा देवगतिके आश्रयसे एक-एक प्रकृति उदीरणा विषयक अल्पबहुत्व उदीरणास्थान प्ररूपणा में ज्ञानावरण दर्शनावरण एवं वेदनीयकी उदीरणास्थान प्ररूपणा मोहनी की उदीरणास्थानप्ररूपणामें स्थान समुत्कीर्तना मोहनी की उदीरणास्थानप्ररूपणा में स्वामित्व मोहनी की उदीरणास्थानप्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा काल मोहनी की उदीरणास्थानप्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा अन्तर मोहनी की उदीरणास्थानप्ररूपणा में नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ( २० ) पृष्ठ विषय " " भुजाकारउदीरणाप्ररूपणा में दर्शनावरण ४८ | विषयक प्ररूपणा, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरकी प्ररूपणा ५० ५३ ५४ ६१ ६८ ७२ ७३ ७४ " ८० ८१ 11 ८२ ८३ ८४ भुजाकारउदीरणा में मोहनीय विषयक प्ररूपणा स्थितिउदीरणा में मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा स्थितिउदीरणाके आश्रित उत्कृष्ट उत्तर प्रकृतिस्थितिउदीरणाविषयक अद्धाच्छेद जघन्य उत्तरप्रकृतिस्थितिउदीरणाविषयक अद्धाच्छेद ܐܙ उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाविषयक स्वामित्व जघन्य स्थितिउदीरणाविषयक स्वामित्व उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाविषयक एक जीवकी अपेक्षा कालप्ररूपणा जघन्य स्थितिउदीरणाविषयक एक जीवकी अपेक्षा काल प्ररूपणा उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाविषयक एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्य स्थितिउदीरणाविषयक एक जीवको अपेक्षा अन्तर स्थितिउदीरणा में नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय स्थितिउदीरणामें नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अन्तरका उल्लेख करके संनिकर्ष की प्ररूपणा स्थितिउदीरणा में अल्पबहुत्व ८४ भुजाकार स्थितिउदीरणाप्ररूपणा में स्वामित्व ८६ | का उल्लेख करके एक जीवकी अपेक्षा काल पष्ठ प्ररूपणा भुजाकार स्थितिउदीरणामें एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका उल्लेख करके नाना जीवोंकी अपेक्षा ८८ भंगविचयकी प्ररूपणा " " ९७ ९८ १०० १०१ १०३ १०४ ११० ११९ १२५ १३० १३७ १३९ १४१ १४७ १६१ ९३ | भुजाकार स्थितिउदीरणामें अल्पबहुत्व प्ररूपणा १६२ पदनिक्षेप ९६ १५७ १६४ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय भुजाकार स्थितिउदीरणामें वृद्धिउदीरणा विषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा अनुभाग उदीरणा में संज्ञा एवं सर्व उदीरणा आदि २४ अनुयोगद्वारों का नामनिर्देश अनुभाग उदीरणा में घातिसंज्ञा और स्थान संज्ञाका विवेचन प्रत्ययप्ररूपणा में कर्मप्रकृतियोंका परिणाम - प्रत्ययिक एवं भवप्रत्ययिक आदिमें विभाजन विपाकप्ररूपणा स्थानप्ररूपणा शुभाशुभप्ररूपणा अनुभागउदीरणामें उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाविषयक स्वामित्वकी प्ररूपणा जघन्य अनुभागउदीरणाविषयक स्वामित्वकी प्ररूपणा अनुभाग उदीरणामें एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट कालप्ररूपणा अनुभागउदीरणामें एक जीवकी अपेक्षा जघन्य कालप्ररूपणा अनुभाग उदीरणा में एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरप्ररूपणा अनुभागउदीरणामें नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरप्ररूपणा अनुभाग उदीरणामें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुभाग उदीरणा में नाना जीवोंकी अपेक्षा कालप्ररूपणा अनुभाग उदीरणासे सम्बद्ध स्वामित्व के विवेचनमें प्रत्ययप्ररूपणा, विपाकप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा और शुभाशुभप्ररूपणा इन ४ अनुयोगद्वारोंका उल्लेख अनुभागउदीरणा में नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरप्ररूपणा अनुभाग उदीरणा में संनिकर्ष प्ररूपणा ( २१ ) पृष्ठ १७० अनुभाग उदीरणा में उत्कृष्ट अल्पबहुत्व १६४ अनुभाग उदीरणा में जघन्य अल्पबहुत्व अनुभाग भुजाकार उदीरणामें अर्थपद एक जीवकी अपेक्षा काल १७१ १७२ 13 १७४ " १८२ विषय " १९४ " २०१ " "1 " 27 " प्रदेश उदीरणा में उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाविषयक स्वामित्व प्रदेश उदीरणा में जघन्य प्रदेशउदीरणाविषयक स्वामित्व २५७ १७५ प्रदेश उदीरणा में एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर और नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका उल्लेख १७६ करके संनिकर्षका निरूपण | प्रदेश भुजाकार उदीरणामें अर्थपद "1 " अनुभाग उदीरणा में पदनिक्षेपप्ररूपणा वृद्धिप्ररूपणा " " १९० | प्रदेश उदीरणामें पदनिक्षेपप्ररूपणा वृद्धिउदीरणा " 17 अन्तर 23 नाना जीवों की अपेक्षा भं. वि. काल २३५. अन्तर २३६ उपशामना उपक्रमप्ररूपणा में नामादिनिक्षेपयोजना १९९ अप्रशस्त उपशामनामें अर्थपद इस अर्थपदके अनुसार स्वामित्व प्ररूपणा कालप्ररूपणा आदि उत्तरप्रकृति उपशामनाप्ररूपणा में स्वामित्व २०३ आदि स्वामित्व आदि अल्पबहुत्व अल्पबहुत्व,” पृष्ठ प्रकृतिस्थानउपशामनाप्ररूपणा २०५ स्थिति उपशामनाप्ररूपणा में अद्धाच्छेद २१६ २२६ २३१ स्वामित्व आदि २०८ | अनुभाग उपशामना और प्रदेउपशामनाका २१० विवेचन २३२ २३३ २३४ २३७ २५२ २५३ २५९ २६० २६१ 11 २६४ २७३ २७५ २७६ २७७ २७८ २८० २८१ २८२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) विषय विपरिणाम उपक्रम प्रकृतिविपरिणामना आदि चार भेदों का निर्देश करके उनमें मूलप्रकृतिविपरिणामनाकी प्ररूपणा विषय मूलप्रकृति स्थितिउदयप्ररूपणा में संनिकर्ष मूलप्रकृति स्थितिउदयप्ररूपणामें अल्पबहुत्व स्थितिउदयप्ररूपणा में भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणाके स्थितिउदीरणाके समान करनेका उल्लेख उत्तरप्रकृतिस्थितिउदयप्ररूपणा में उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिउदयप्रमाणानुगम यहाँ उत्कृष्ट स्थिति उदयविषयक स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणाको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके समान करनेका निर्देश अनुभाग उदयकी प्ररूपणा २८५ प्रदेश उदयप्ररूपणा में १० गुणश्रेणियों का निर्देश करके अन्य भवमें संक्रान्त होनेवाली गुणश्रेणियों का उल्लेख उत्कृष्ट प्रदेश उदय में स्वामित्व प्ररूपणा जघन्य प्रदेश उदय में स्वामित्व प्ररूपणा पृष्ठ उत्तरप्रकृतिविपरिणामनाकी प्ररूपणा स्थितिविपरिणामनाकी प्ररूपणा अनुभागविपरिणामना और प्रदेशविपरिणाम नाकी प्ररूपणा १० उदयानुयोगद्वार २८५-३३६ नामादिरूप उदयभेदोंमेंसे यहाँ नोआगमकर्मद्रव्यउदयको प्रकृत बतलाकर उसके भेदप्रभेदोंका निर्देश २८२ २८३ प्रमाणानुगम मूलप्रकृति स्थितिउदयप्ररूपणा में स्थितिउदयस्वामित्व मूलप्रकृति स्थितिउदयप्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर मूलप्रकृति स्थितिउदयप्ररूपणा में नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय आदि " उत्तरप्रकृतिउदयकी प्ररूपणा में स्वामित्व उत्तरप्रकृतिउदयकी प्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल व अन्तर तथा संनिकर्ष अनुयोगद्वारोंका निर्देश मात्र करके अल्पबहुत्व प्ररूपणा में प्रकृतिउदयसे कुछ विशेषताओंका दिग्दर्शन यहां भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी असम्भावनाका निर्देश करके प्रकृतिस्थानउदयप्ररूपणा की प्रकृतिस्थान उदीरणासे समानताका उल्लेख मूलप्रकृति स्थितिउदयप्ररूपणा में स्थितिउदय २८४ 17 २८८ २८९ २८९ २९० २९१ २९२ यहाँ काल आदि शेष अनुयोगद्वारों का उल्लेख मात्र करके उत्कृष्ट प्रदेशोदय संबंधी प्ररूपणा पदनिक्षेप प्रदेशोदय- स्वामित्व पदनिक्षेप प्रदेशोदय अल्पबहुत्व ¤¤ पृष्ठ २९३ २९४ 11 77 २९५ अल्पबहुत्व की प्ररूपणा ३०९ जघन्य प्रदेशोदय सम्बन्धी अल्पबहुत्व की प्ररूपणा ३१८ भुजाकार प्रदेशोदयकी प्ररूपणा में अर्थपदनिर्देशपूर्वक स्वामित्व भुजाकार प्रदेशोदयकी प्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा कालप्ररूपणा भुजाकार प्रदेशोदयकी प्ररूपणा में अन्तर प्ररूपणा भुजाकार प्रदेशोदयकी प्ररूपणा में अल्पबहुत्व 19 २९६ २९७ ३०२ ३२५ " ३२९ " ३३२ ३३५ . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिबंधणादि सेस अणुयोगद्दाराणि Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भगवंत पुष्कवंत भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेनाइरिथ - विरइय-धवला - टीकासमणिदो तत्थ संतक मगभिएस सेस - अठ्ठारह - अणुयोगद्दारेसु ७ णिबंधणाणुयोगद्दारं fugaragकम्मं केवलणाणेण दिट्ठपरमट्ठे । मिरिम वोच्छामि णिबंधणणुयोगं ॥ भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्तं देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेस अट्ठारस अणुयोगद्दाराणं किंचि संखेवेग परूवणं कस्सामो । तं जहा - निबध्यते तदस्मिन्निति निबंधनम्, जं दव्वं जम्हि णिवद्धं तं णिबंधणं त्ति भणिदं होदि । णिबंधणे त्ति अनुयोगद्दारे निबंधगं ताव अपयदणिबंध णणिराकरणट्ठ णिक्खिवियव्वं तं जहा जिन्होंने आठ कर्मोंका अन्त करके प्रगट हुए केवलज्ञानके द्वारा पदार्थ के यथार्थ स्वरूपको देख लिया है ऐसे अरिष्टनेमि जिनेन्द्र ( बाईसवें तीर्थंकर ) को नमस्कार करके निबन्धन अनुयोगद्वारा कथन करते हैं । भूतबलि भट्टारकने चूंकि यह सूत्र देशामर्शक रूपसे लिखा है, अत एव इस सूत्र के द्वारा सूचित शेष अठारह अनुयोगद्वारोंकी कुछ संक्षेपसे प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-' निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो द्रव्य जिसमें सम्बद्ध है. उसे निबन्धन कहा जाता है । 'निबन्धन' इस अनुयोगद्वार में पहिले अपकृत निबन्धनके निराकरणार्थ निबन्धका निक्षेप करते हैं । वह इस प्रकार है- नामनिबन्धन, स्थापनानिबन्धन, द्रव्यनिबन्धन, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म णामणिबंधणं ठवणणिबंधणं दव्वणिबंधणं खेत्तणिबंधणं कालणिबंधणं भावणिबंधणं चेदि छव्विहं णिबंधणं होदि। जस्स णामस्स वाचगभावेण पवुत्तीए जो अत्यो आलंबणं होदि सो णामणिबंधणं णाम, तेण विणा णामपवुत्तीए अभावादो। तं च णामणिबंधणमत्थाहिहाण-पच्चयभेएण तिविहं । तत्थ अत्थो अट्टविहो एग-बहुजीवाजीवजणिदपादेवक-संजोगभंगभेएण। एदेसु अटुसु अत्थेसुप्पण्णणाणं पच्चयणिबंधणं । जो णामसद्दो पवुत्तो संतो अप्पाणं चेव जाणावेदि तमभिहाणणिबंधणं णाम। अधवा, एदं सव्वं पि दव्वादिणिबंधणेसु पविसदि त्ति मोत्तूण णिबंधणसद्दो चेव णामणिबंधणं ति घेत्तव्वं, एवं संते पुणरुत्त. दोसाभावादो। ठवणणिबंधणं दुविहं सब्भावासब्भावढवणणिबंधणभेएण। जं जहा अणुयरइ अप्पिददव्वं तं जहा ठविदं सब्भावट्ठवणणिबंधणं। तन्विरीयमसब्भावट्ठवणणिबंधणं। जं दव्वं जाणि दवाणि अस्सिदूण परिणमदि जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो तं दव्वणिबंधणं । खेत्तणिबंधणं णाम गाम-णयरादीणि पडिणियदखेते तेसि पडिबद्धत्तुवलंभादो। जो जम्हि काले पडिबद्धो अत्थो तक्कालणिबंधणं । तं जहा- चूअ.. फुल्लाणि चेत्तमासणिबद्धाणि, अंबिलियाहुल्लाणि आसाढमासणिबद्धाणि, वियइल्ल क्षेत्रनिबन्धन, कालनिबन्धन और भावनिबन्धन इस प्रकार निबन्धन छह प्रकारका है। जिस नामकी वाचक रूपसे प्रवृत्तिमें जो अर्थ आलम्बन होता है वह नाम निबन्धन है, क्योंकि, उसके विना नामकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। वह नामनिबन्धन अर्थ, अभिधान और प्रत्ययके भेदसे तीन प्रकारका है, उनमें एक व बहत जीव तथा अजीवसे उत्पन्न प्रत्येक व संयोगी भंगोंके भेदसे अर्थ आठ प्रकारका है, इन आठ अर्थों में उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रत्ययनिबन्धन कहलाता है। जो संज्ञा शब्द प्रवृत्त होकर अपने आपको जतलाता है वह अभिधाननिबन्धन कहा जाता है । अथवा, यह भी चूंकि द्रव्यनिबन्धन आदिक निबन्धनोंमें प्रविष्ट है, अत एव उसे छोडकर ' निबन्धन' शब्दको ही नामनिबन्धन रूपसे ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा होनेपर पुनरुक्त दोष नहीं आता। स्थापनानिबन्धन सद्भावस्थापनानिबन्धन और असद्भावस्थापनानिबन्धनके भेदसे दो प्रकारका है। जो जिस प्रकारसे विवक्षित द्रव्यका अनुसरण करता है उसीको उसी प्रकारसे स्थापित करना सद्भावस्थापनानिबन्धन है। उससे विपरीत असद्भावस्थापनानिबन्धन है । जो द्रव्य जिन द्रव्योंका आश्रय करके परिणमन करता है, अथवा जिस द्रव्यका स्वभाव द्रव्यान्तरसे प्रतिबद्ध है वह द्रव्य निबन्प्रन कहलाता है। ग्राम व नगर आदि क्षेत्रनिबन्धन हैं, क्योंकि, प्रतिनियत क्षेत्रम उनका सम्बन्ध पाया जाता है। जो अर्थ जिस काल में प्रतिबद्ध है वह कालनिबन्धन कहा जाता है। यथा-- आम्र वृक्षके फूल चैत्र माससे सम्बद्ध हैं, अम्लिकाके फूल आषाढ माससे काप्रतो 'अत्थेसुप्पण्णण्णाणं ' इति पाठः। * मपतिपाठोऽयम् । कापतो 'सद्दो ण वुत्तो ताप्रती 'सद्दो (ण) वृत्तो इति पाठ मप्रतिपाठोऽयम्। का-ताप्रत्यो: 'तं जहा' इति पाठ। प्रत्योरुभयोरेव 'सहस्स' इति पाठः। ताप्रती 'गामणयरादीहि ' इति पाठः। .प्रत्योरुभयोरेव 'भअ' इति पाठः। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fragrant मूलक मणिबंधणपरूवणा ( ३ हुल्लाणि वइसाह - जेट्ठमासणिबद्धाणि; तत्थेव तेसिमुवलंभादो । एवमण्णसि पि कालणिबंधणं जाणिऊण वत्तव्वं । पंचरत्तियाओ णिबंधो त्ति वा । जं दव्वं भावस्स आलंबणमाहारो होदि तं भावणिबंधणं । जहा लोहस्स हिरण्ण-सुवण्णादीणि णिबंधणं ताणि अस्सिऊण तदुत्पत्तिदंसणादो, उप्पण्णस्स वि लोहस्स तदावलंबणदंसणादो | कोहुत्पत्तिनिमित्तदव्वं कोहणिबंधणं उप्पण्णको हावलंबणदव्वं वा । एत्थ एदेसु frबंधणे hr frबंधणेण पयदं ? णाम ट्ठवणणिबंधणाणि मोत्तूण सेससव्वणिबंधणेसु पयदं । एदं णिबंधणाणुओगद्दारं जदि वि छष्णं दव्वाणं णिबंधणं परूवेदि तो वितमेत्थ मोत्तूण कम्मणिबंधणं चैव घेत्तव्वं, अज्झष्पविज्जाए अहियारादो । किमट्ठ णिबंधणाणुओगद्दार मागयं ? दव्व-खेत्त-काल- भावेहि कम्माणि परूविदाणि, मिच्छ - तासंजम कसाय - जोगपच्चया वि तेसिं परूविदा, तेसि कम्माणं पाओग्गपोग्गलाणं पि पिपरूवणा कदा | संपहि तेसि कम्माणं लद्धप्पसरूवाणं वावारपदुप्पायणट्ठ निबंधणाणुयोगद्दार मागयं । तत्थ जं तं णोआगमदोकम्मदव्वणिबंधणं तं दुविहं- मूलकम्मगिबंधणं उत्तरकम्मणिबंधणं चेदि । तत्थ अट्ठ मूलकम्माणि, तेसि णिबंधणं वत्तस्सामो तं जहा सम्बद्ध हैं, विचकिल नामक वृक्षविशेष के फूल वैशाख व ज्येष्ठ माससे सम्बद्ध हैं; क्योंकि, वे इन्हीं मासों में पाये जाते हैं । इसी प्रकार दूसरोंके भी कालनिबन्धनका जानकर कथन करना चाहिये । अथवा पंचरात्रिक निबन्धन कालनिबन्धन है ( ? ) । जो द्रव्य भावका आलम्बन अर्थात् आधार होता है वह भावनिबन्धन है । जैसे- लोभके चांदी-सोना आदिक निबन्धन हैं, क्योंकि, उनका आश्रय करके लोभकी उत्पत्ति देखी जाती हैं, तथा उत्पन्न हुआ लोभ भी उनका आलम्बन देखा जाता है । क्रोधकी उत्पत्तिका निमित्तभूत द्रव्य अथवा उत्पन्न हुआ क्रोध जिसका आलम्बन होता है वह क्रोधनिबन्धन कहा जाता है । शंका -- यहां इन निबन्धनोंमेंसे कौनसा निबन्धन प्रकृत है ? समाधान -- नामनिबन्धन और स्थापनानिबन्धनको छोडकर शेष सब निबन्धन यहां प्रकृत हैं । यह निबन्धनानुयोगद्वार यद्यपि छह द्रव्योंके निबंधनकी प्ररूपणा करता है तो भी यहां उसे छोड़कर कर्मनिबन्धनको ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, यहां आध्यात्मविद्याका अधिकार है । शंका -- निबन्धनानुयोगद्वार किसलिये आया है ? समाधान -- द्रव्य, क्षेत्र, काल और योग रूप प्रत्ययोंकी भी प्ररूपणा की जा चुकी है; उनके मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग रूप प्रत्ययोंकी भी प्ररूपणा की जा चुकी तथा उन कर्मोंके योग्य पुद्गलोंकी भी प्ररूपणा की जा चुकी है। अब आत्मलाभको प्राप्त हुए उन कर्मोंके व्यापारका कथन करनेके लिये निबन्धनानुयोगद्वार आया है । उनमें जो नोआगमद्रव्यनिबन्धन है वह दो प्रकारका है-- मूलकर्मनिबन्धन और उत्तरकर्मनिबन्धन । उनमें मूल कर्म आठ हैं, उनके निबन्धनका कथन करते हैं । यथा- तातो' तदुववत्तिदंसणादो' इति पाठः । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवखंडागमे संतकम्म तत्व णाणावरणं सव्ववन्वेसु णिबद्धं गोसवपज्जाएस । १। सव्वदव्वेसु णिबद्धं ति केवलणाणावरणमस्सिदूण भणिदं । कूदो? तिकालविसयअणंतपज्जायभरिदछदव्वविसयकेवलणाणविरोहित्तादो। णोसव्वपज्जाएसु ति वयण सेसणाणावरणाणि पडुच्च भणिदं, सेसणाणाणं सव्वदव्वग्गहणसत्तीए अभावादो। मदिसुदणाणाणं सव्वदव्व विसयत्तं किण्ण वुच्चदे, तासि मुत्तामुत्तासेसदव्वेसु वावारुवलंभादो ? ण एस दोसो, तेसि दवाणमणंतेसु पज्जाएसु तिकालविसएसु तेहि सामण्णेणावगएसु विसेसरूवेण वावाराभावादो। भावे वा केवलणाणेण समाणतं तेसि पावेज्ज । ण च एवं, पंचणाणुवदेसस्स अभावप्पसंगादो। णोसद्दो सव्वपडिसेहओ* त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण, णाणावरणस्साभावस्स पसंगादो, सुवक्यणविरोहादो च । तम्हा णोसद्दो देसपडिसेहओ त्ति घेत्तव्वं । एवं दसणावरणीयं ॥ २ ॥ उनमें ज्ञानावरण सब द्रव्योंमें निबद्ध है और नो सर्व पर्यायोंमें अर्थात् असर्व पर्यायोंमें ( कुछ पर्यायोंमें ) वह निबद्ध है ॥१॥ 'सब द्रव्योंमें निबद्ध है' यह केवलज्ञानावरणका आश्रय करके कहा गया है, क्योंकि, वह तीनों कालोंको विषय करनेवाली अनन्त पर्यायोंसे परिपूर्ण ऐसे छह द्रव्योंको विषय करनेवाले केवलज्ञानका विरोध करनेवाली प्रकृति है । ' असर्व ( कुछ ) पर्यायोंमें निबद्ध है ' यह वचन शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी अपेक्षासे कहा गया है, क्योंकि, शेष चार ज्ञानोंमें सब द्रव्योंको ग्रहण करनेकी शक्ति नहीं पाई जाती । शंका-- मतिज्ञान व श्रुतज्ञान सब द्रव्योंको विषय करनेवाले हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते; क्योंकि, उनका मूर्त व अमूर्त सब द्रव्यों में व्यापार पाया जाता है ? समाधान--- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उन द्रव्योंकी त्रिकालविषयक अनन्त पर्यायोंमें उन ज्ञानोंकी सामान्य रूपसे प्रवृत्ति है, विशेष रूपसे नहीं है। अथवा यदि उनमें उनकी विशेष रूपसे भी प्रवृत्ति स्वीकार की जाय तो वे दोनों ज्ञान केवलज्ञानकी समानताको प्राप्त हो जायेंगे। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर पांच ज्ञानोंका जो उपदेश प्राप्त है उसके अभावका प्रसंग आता है । शंका-- 'नो' शब्दको सबसे प्रतिषेधक रूपसे क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर एक तो ज्ञानावरणके अभावका प्रसंग आता है, दूसरे स्ववचनका विरोध भी होता है। इसलिये 'नो' शब्दको देशप्रतिषेधक ही ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार दर्शनावरण भी सब द्रव्योंमें निबद्ध है और नोसर्वपर्यायोंमें अर्थात् असर्व पर्यायोंमें ( कुछ पर्यायोंमें ) वह निबद्ध है ॥२॥ ४ काप्रती •णिबंधणं ', तापतो । णिबंधणं (णिबद्ध ) ' इति पाठः । . *काप्रती । सद्दपडिसेहओ, ' तापतो ' सद्द ( ब ) पडिसेहओ' इति पाठः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिबंधणाणुयोगहारे दंगणावरणणिबंधणं दंसणावरणीयं णाम अप्पाणम्मि चेव णिबद्धं, अण्णहा णाण-दसणाणमेयत्तप्पसंगादो। ण च विसय-विसयिसण्णिवादाणंतरसमए सामण्णग्गहणं दंसणं, विषय-विषयिसन्निपातानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रह इति लक्षणात् ज्ञानत्वं प्राप्तस्यावग्रहस्य दर्शनत्वविरोधात्। कि च-ण विसेसेण विणा सामण्णं चेव घेप्पदि, दव्व-खेत्त-काल-भावेहि अविसे सिदस्स गहणत्ताणुववत्तीदो। किं च-णाणेण किमवत्युपरिच्छेदो आहो वत्थुपरिच्छेदो कीरदि? ण पढमपक्खो, घड-पडादिवत्थूणं परिच्छेदयाभावेण सयललोगसंववहाराभावप्पसंगादो। ण बिदियपक्खो वि, सणस्स णिव्विसयत्तप्पसंगादो। एवं दसणं पि ण वत्तदोसे अइक्कमइ । ण च णाण-दसणेहि अक्कमेण वत्थुपरिच्छेदो कीरदि, दोण्णमक्कमेण पवुत्तिविरोहादो। एदं कुदो णव्वदे ? " हंदि दुवे णत्थि उवजोगा"* इदि वयणादो। ण च कमेण वत्थुपरिच्छित्ति कुणंति, केवलणाण-दंसणाणं पि कमपत्तिप्पसंगादो। दोण्णमेकदरस्स अभावो वि होज्ज, अगहिदगहणाभावादो। तम्हा एवं सणावरणस्से ति वयणं शंका-- दर्शनावरणीय कर्म आत्मामें ही निबद्ध है, क्योंकि, ऐसा नहीं माननेपर ज्ञान और दर्शनके एक होने का प्रसंग आता है । यदि कहा जाय कि विषय और विषयीके संनिपातके अनन्तर समयमें जो सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शन है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, विषय और विषयीके संनिपातके अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है वह अवग्रह कहा जाता है। इस प्रकारके लक्षणसे ज्ञानस्वरूपको प्राप्त हुए अवग्रहके दर्शन होने का विरोध आता है। दूसरे। विशेषके विना केवल सामान्यका ग्रहण करना शक्य भी नहीं है, क्योंकि, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी विशेषतासे रहित केवल सामान्यका ग्रहण बन नहीं सकता। तीसरे, ज्ञान क्या अवस्तुको ग्रहण करता है अथवा वस्तुको? प्रथम पक्ष तो सम्भव नहीं है, क्योंकि, ज्ञानके घट पट आदि वस्तुओंका परिच्छेदक न रहनेसे समस्त लोकव्यवहारके अभाव हो जानेका प्रसंग आता है। द्वितीय पक्ष भी नहीं बनता है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर दर्शनके निविषय हो जाने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार दर्शन में भी उक्त दोनों दोषोंका प्रसंग आता है । ज्ञान व दर्शन युयुगपत् वस्तुका परिच्छेदन करते हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, दोनोंकी यगपत प्रवत्ति होने में विरोध आता है। प्रतिशंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? प्रतिशंका समाधान-- यह “ खेद है कि दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं" इस आगमवचनसे जाना जाता है। यदि कहा जाय कि वे क्रमसे वस्तुका परिच्छेदन करते हैं तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, एसा माननेपर केवलज्ञान और केवलदर्शनके भी क्रमप्रवृत्तिका प्रसंग आता है । तथा दोनोंमेंसे किसी एकका अभाव भी हो जाना चाहिये, क्योंकि, वैसा होनेपर दूसरेके अगृहीतग्रहण सम्भव नहीं है। इस कारण “ ज्ञानावरणके समान दर्शनावरण भी है " ऐसा जो वचन कहा गया है वह घटित नहीं होता है ? ४ काप्रती परिच्छदि ' इति पाठः । * सण-णाणावरणक्खए समाणमि कस्स पुव्वअरं । होज्ज ___ समं उप्पाओ हंदि दुए णत्थि उवओगा ।। सम्मइ० २-९. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ) ण घडदे । ण, एस दोसो, सरुवस्स बज्झत्यपडिबद्धस्स संवेयणं * दंसणं णाम । ण च बज्झत्थेण असंबद्धं सरूवमत्थि, णाण- सुह- दुक्खाणं सव्वेसि पि बज्झत्थावट्ठेभबलेणेव तेसि पवृत्तिदंसणादो । तदो एवं दंसणावरणीयस्से त्ति वयणं घडदिति सिद्धं । सेसं जाणिऊण वत्तव्वं । छक्खंडागमे संतकम्मं वेयणीयं सुह- बुक्खम्हि निबद्धं ॥ ३ ॥ सिरोवेयणादी दुक्खं णाम । तस्स उवसमो तदगुप्पत्ती वा दुवखुवसम हे उदव्यादिसंपत्ती वा सुहं णाम । तत्थ वेयणीयं णिबद्धं, तदुप्पत्तिकारणत्तादो । मोहणीयमप्पाणम्मि निबद्धं ॥ ४ ॥ कुदो ? सम्मत्त चरित्ताणं जीवगुणाणं घायणसहावादो । सम्मत चारिताणि जाणदंसणाणीव बज्झत्थसंबद्धाणि चेव, तदो मोहणीयं सव्वदव्वेसु जिबद्धमिदि किण्ण वुच्चदे ? ग एस दोसो, चत्तारि वि घाइकम्माणि जीवम्हि चेव निबद्धाणित्ति जाणावणट्ठ बज्झत्थाणवलंबणादो . । आउअं भवम्मि निबद्धं ॥ ५ ॥ कुदो ? भवधारणलक्खणत्तादो । को भवो णाम ? उप्पण्णपढमसमयप्पहूडि जाव समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बाह्य अर्थसे सम्बद्ध आत्मस्वरूप के जाननेका नाम दर्शन है । यदि कहा जाय कि आत्मस्वरूप बाह्य अर्थ से सम्बन्ध नहीं रखता सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ज्ञान, सुख व दुःखरूप उन सभी की प्रवृत्ति बाह्य अर्थके आलम्बलनसे ही देखी जाती है । अत एव ज्ञानावरण के समान दर्शनावरण भी है " यह वचन संगत ही है, यह सिद्ध है । शेष कथन जानकर करना चाहिये । वेदनीय सुख दुःखमें निबद्ध है ॥ ३ ॥ 66 सिरकी वेदना आदिका नाम दुःख है । उक्त वेदनाका उपशान्त हो जाना, अथवा उसका उत्पन्न ही न होना, अथवा दुःखोपशान्ति के कारणभूत द्रव्यादिककी प्राप्ति होना; इसे सुख कहा जाता है । उनमें वेदनीय कर्म निबद्ध है, क्योंकि, वह उनकी उत्पत्तिका कारण है मोहनीय कर्म आत्मामें निबद्ध है ॥ ४ ॥ 1 कारण कि उसका स्वभाव सम्यक्त्व व चारित्र रूप जीवगुणोंके घातनेका है । शंका -- ज्ञान व दर्शन के समान सम्यक्त्व एवं चारित्र भी चूंकि बाह्य अर्थसे ही सम्बन्ध रखते हैं, अत एव ' मोहनीय कर्म सब द्रव्यों में निबद्ध है; ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चारों ही घातिया कर्म जीव द्रव्यमें ही निबद्ध हैं, यह जतलानेके लिये यहां बाह्य अर्थका अवलम्बन नहीं लिया है । आयु कर्म भवके विषय में निबद्ध है ॥ ५ ॥ कारण कि भव धारण करना यह उसका लक्षण है । शंका-- भव किसे कहते हैं ? काप्रती पडिबद्धस्स तंवेयणं इति पाठ: । कारतो बज्झत्थाणावलंवणादो' इति पाठ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिबंधणाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिणिबंधणं चरिमसमओ त्ति जो अवत्थाविसेसो सो भवो णाम । णामं तिधा निबद्धं, पोग्गलविवागणिबद्धं जीवविवागणिबद्ध खेत्तविवागणिबद्धं ॥ ६ ॥ वण्ण-गंध-रस- फास-संघादणादीणं विवागो पोग्गलणिबद्धो, तेसिमुदएण वण्णादीणमुपपत्तिदंसणादो । तित्थयरादीणि कम्माणि जीवणिबद्धाणि, तेसि विवागस्स जीवे चेवुवलंभादो | आणुपुत्री खेत्तणिबद्धा, पडिणियदखेत्ते चेव तिस्से विवागुवलंभादो । तेण णामं तिधा णिबद्धं ति सिद्धं । गोवमप्पाणम्हि णिबद्धं ॥ ७ ॥ कुदो ? उच्च - णीचगोदाणं जीवपच्जायत्तणेण दंसणादो । अंतराइयं दाणादिणिबद्धं ॥ ८ ॥ ૭ कुदो ? दाणादीणं विग्धकरणे तव्वावास्वभादो | एवं मूलपयडिणिबंधणपरूवणं समत्तं । संपहि उत्तरपयडिणिबंधणं वुच्चदे । तं जहा -- चत्तारि णाणावरणीयाणि दव्वपज्जायाणं देसनिबद्धाणि ॥ ९ ॥ ओहिणाणं दव्वदो मुत्तिदव्वाणि चेव जाणदि णामुत्तधम्माधम्म - कालागास- सिद्ध ममाधान -- उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक जो विशेष अवस्था रहती है उसे भव कहते हैं । नामकर्म तीन प्रकारसे निबद्ध है- पुद्गलविपाकनिबद्ध, जीवविपाकनिबद्ध और क्षेत्रविपाकनिबद्ध ॥ ६ ॥ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श शौर संघात आदि नामप्रकृतियोंका विपाक पुद्गलमें निबद्ध है, क्योंकि, उनके उदयसे वर्णादिककी उत्पत्ति देखी आती है । तीर्थंकर आदिक कर्म जीवमें निबद्ध हैं, क्योंकि, उनका विपाक जीवमें ही पाया जाता है । आनुपूर्वी कर्म क्षेत्रमें निबद्ध है, क्योंकि, उसका विपाक प्रतिनियत क्षेत्र में ही पाया जाता है । इस कारण नामकर्म तीन प्रकारसे निबद्ध है, यह सिद्ध होता है । गोत्र कर्म आत्मामें निबद्ध है ॥ ७ ॥ कारण कि उच्च व नीच गोत्र जीवकी पर्यायस्वरूपसे देखे जाते हैं । अन्तराय कर्म दानादिकमें निबद्ध है ॥ ८ ॥ कारण कि दानादिकोंके विषय में विघ्न करनेमें उसका व्यापार पाया जाता है । इस प्रकार मूलप्रकृतिनिबन्धनप्ररूपणा समाप्त हुई । अब उत्तर प्रकृतियोंके निबन्धनकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- चार ज्ञानावरणीय प्रकृतियां द्रव्योंकी पर्यायोंके एकदेशमें निबद्ध है ॥ ९ ॥ अवधिज्ञान द्रव्यकी अपेक्षा मूर्त द्रव्योंकों ही जानता है; धर्म, अधर्म, काल, आकाश और Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८) छक्खंडागमे संतकम्म जीवदवाणि, “ रूपिष्ववधेः" इति वचनात् । खेत्तदो घणलोगभंतरदिदाणि. चेव जाणदि, णो बहित्थाणि । कालदो असंखेज्जेसु वासेसु जमदीदमणागयं तं चेव जाणदि, णो बहित्थं। भावदो असंखेज्जलोगमेत्तदव्वपज्जाए तीदाणागद-वट्टमाणकालविसए जाणदि । तेणोहिणाणं सव्वदव्वपज्जयविसयं ण होदि । तदो ओहिणाणावरणं सव्वदव्वाणं देसणिबद्धं ति भणिदं । मणपज्जवणाणं पि जेण दव्व-खेत्त-कालभावाणं विसईकदेगदेसं तेण मणपज्जवणाणावरणीयं पि देसणिबद्धं । एवं मदि-सुदणाणावरणीयं पि* देसणिबद्धत्तं परूवेयव्वं । केवलणाणावरणीयं सववव्वेसु णिबद्धं ॥ १० ॥ कुदो? विसईकदासेसदव्व केवलणाणपडिबंधयत्तादो। खेत्त-काल-भावग्गहणं. सुत्ते ण कदं, तेण तमेत्थ वत्तव्वं? ण, दवेहितो पुधभूदक्खेत्त-काल-भावाणमभावादो। श्रीणगिद्धितिय णिद्धा पयला य अचक्खुदंसणावरणीयं अप्पाणम्मि णिबद्धं ॥ ११ ॥ सिद्ध जीव इन अमूर्त द्रव्योंको वह नहीं जानता; क्योंकि, 'अवधिज्ञानका निबन्धरूपी द्रव्योंमें है, ' ऐसा सूत्रवचन है। क्षेत्रकी अपेक्षा वह घनलोकके भीतर स्थित द्रव्योंको ही जानता है। उसके बाहर स्थित द्रव्योंको नहीं जानता। कालकी अपेक्षा वह असंख्यात वष के भीतर जो अतीत व अनागत वस्तु है उसे ही जानता है, उनके बाहर स्थित वस्तुको नहीं जानता । भावकी अपेक्षा वह अतीत, अनागत एवं वर्तमान कालको विषय करनेवाली असंख्यात लोक मात्र द्रव्यपर्यायोंको जानता है। इसलिये अवधिज्ञान द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको विषय करनेवाला नहीं है । इसी कारण अवधिज्ञानावरण सब द्रव्योंके एकदेशमें निबद्ध है, ऐसा कहा है । मन पर्ययज्ञान भी चूंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा एक देशको ही विषय करनेवाला है; अत एव मनःपर्ययज्ञानावरणीय भी देशनिबद्ध है। इसी प्रकार मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीयकी भी देशनिबद्धताका कथन करना चाहिये ।। केवलज्ञानावरणीय सब द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ १० ॥ कारण कि वह समस्त द्रव्योंको विषय करनेवाले केवलज्ञानका प्रतिबन्धक है। शंका-- यहां सूत्र में क्षेत्र, काल और भावका ग्रहण नहीं किया गया है, इसलिये उनका यहां कथन करना समाधान-- नहीं, क्योंकि, द्रव्योंसे पृथग्भूत क्षेत्र, काल और भावका अभाव है । स्त्यानगृद्धित्रय, निद्रा, प्रचला और अचक्षुदर्शनावरणीय आत्मामें निबद्ध है ।११॥ ४ त. सू. १-२७.२ काप्रती 'वरणीयं पदेसाणिबद्धं ' इति पाउ:। प्रत्योरुभयोरेव 'दिदाणं' इति पाठा प्रत्योरुभयोरेव बहिद्धाणि ' इति पाठ। प्रत्योरुभयोरेव 'बहिद्ध इति पाठः। काप्रती 'प देसणिवद्ध' ताप्रती ' पि देसणिबद्धं' इति पाठः। प्रत्योहमयोरेव विसमईकदासेसदव्वं इति पाठः। *कापतो 'कालभवग्गहणं', तापतो'कालणिबद्धग्गहणं' इति पाठ। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंणाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिणिबंधणं जीवस्स सगसंवेयणघाइत्तादो । रस- फास-गंध-सद्द - दिट्ठ- सुवाणुभूदत्थविसयसगसत्तिवियजीवोवजोगो अचक्खुदंसणं णाम । तम्हा अचक्खुदंसणेण बज्झत्थणिबंधणे * होदव्वमिदि ? सच्चमेदं, किंतु तमेत्थ बज्झत्यणिबंध णत्तं ण विवक्खिदं । किमट्ठे विवक्खा ण कीरदे ? सव्वं पि दंसणं णाणं व बज्झत्थविसयं ण होदिति जागावणट्ठ ण कीरदे । चक्खुदंसणावरणीयं * गरुअलहुअणंतपदेसिएस बब्वेसु निबद्धं । १२ । संखेज्जासंखेज्जपदेसियपोग्गलदव्वं चक्खुदंसणस्स विसओ ण होदि, किंतु अणंतपदेसियपोग्गलदव्वं चेव विसओ होदित्ति जाणावणटुमणंतपदेसिएस दव्वेि भणिदं । एदं वयणं सामासियं, तेण सव्वेसि दंसणाणमचक्खुसण्णिदाणमेसा परूवणा कायव्वा । गरुअलहुअ विसेसणं अणतपदेसियक्खंधस्स होदि, गरुआणं लोहदंडादीणं हलुआण मक्कतूलादीणं च चक्खि दिएण गहणुवलंभादो । अगुरुअलअविसेसणं णि कीरदे ? ण चक्खिदियविसए परमाणुआदीणमसंभवादो । पुव्वं सव्वं पि दंसणमज्झत्थविसयमिदि परूविदं संपहि चक्खुदंसणस्स बज्झत्थविसयत्तं कारण कि उक्त प्रकृतियां जीवके स्वसंवेदनको घातनेवाली हैं । शंका -- रस, स्पर्श, गन्ध, शब्द, दृष्ट, श्रुत व अनुभूत अर्थको विषय करनेवाली अपनी शक्तिविषयक जीवके उपयोगको अचक्षुदर्शन कहा जाता है । इसीलिये अचक्षुदर्शनका निबन्धन बाह्य अर्थ होना चाहिये ? समाधान- यह कहना सत्य है, किन्तु उक्त बाह्यार्थ निबन्धनताकी यहां विवक्षा नहीं की गई है । शंका- उसकी विवक्षा क्यों नहीं की गई है ? समाधान - सभी दर्शन ज्ञानके समान बाह्य अर्थको विषय करनेवाला नहीं है, इस बात के ज्ञापनार्थ यहां उसकी विवक्षा नहीं की गई है । चक्षुदर्शनावरणीय कर्म गुरु व लघु ऐसे अनन्त प्रदेशवाले द्रव्यों में निबद्ध है । १२ । संख्यात व असंख्यात प्रदेशवाला पुद्गल द्रव्य चक्षुदर्शनका विषय नहीं होता, किन्तु अनन्त प्रदेशवाला पुद्गल द्रव्य ही उसका विषय होता है; इस बातको जतलानेके लिये 'अनन्त प्रदेशवाले द्रव्योंमें' यह कहा है। यह वचन देशामर्शक है, इसलिये उससे अचक्षु संज्ञावाले सब. दर्शनोंकी यह प्ररूपणा करनी चाहिये । 'गुरु व लघु' यह अनन्त प्रदेशवाले स्कन्धका विशेषण है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रियके द्वारा लोहदण्डादिरूप गुरु और अर्कतूल ( आक के पेडका रुंआ ) आदिरूप लघु पदार्थों का ग्रहण पाया जाता है । शंका -- ' अगुरुअलघु' यह विशेषण क्यों नहीं करते ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, परमाणु आदि चक्षु इन्द्रियके विषय नहीं होते । शंका -- सभी दर्शन अध्यात्म अर्थको विषय करनेवाला है, ऐसी प्ररूपणा पहले की जा चुकी है । किन्तु इस समय बाह्यार्थको चक्षुदर्शनका विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत काप्रती 'विवंधणेण' इति पाठ: ] ताप्रती 'चक्खुदंसणीयं इति पाठः । + काप्रतो/ हलुहाण, ताप्रती 'हलुहाण ( लहुआण)' इति पाठ 1 मप्रतिपाठोऽयम् काप्रती - 'मक्कचुलादीर्ण, तातो- 'मक्कतुलादीण इति पाठः । ताम्रतौ चक्खिदिएय (ण) ' इति पाठः । काप्रती 'तं' जहा इति पाठ: काप्रती 'चक्खिदिएया , Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवखंडागमे संतकम्म परूविदं ति णेदं घडदे, पुवावरविरोहादो ? ण एस दोसो, एवंविहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धत्तसगसत्तिसंवेयणं चक्खुदंसणं ति जाणावणह्र बज्झत्थविसयपरूवणाकरणादो। पंचण्णं दंसणाणमचक्खुदंसणमिदि एगणिद्देसो किमळं कदो ? तेसि पच्चासत्ती अस्थि त्ति जाणावणळं कदो। कधं तेसि पच्चासत्ती ? विसईदो पुधभूदस्स अक्कमेण सग-परपच्चक्खस्स चक्खुदंसण विसथस्सेव तेसि विसयस्स परेसि जाणावणोवायाभावं पडि समाणत्तादो। ओहिवंसणावरणीयं रूविवव्वेसु णिबद्धं ॥ १३ ॥ रूविदव्वविसयसगसत्तिसंवेयणविघादकरणादो एत्थ वि पुत्वं व बज्झत्थविसय परूवणाए कारणं वत्तव्वं । नहीं है ; क्योंकि,, इसमें पूर्वापरविरोध है ? __समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारके बाह्य पदार्थों में प्रतिबद्ध शक्तिका संवेदन करने को चक्षुदर्शन कहा जाता है; यह बतलानेके लिये उपर्युक्त बाह्यार्थविषयताकी प्ररूपणा की गई है। शंका-- पांच दर्शनों के लिये 'अचक्षुदर्शन' ऐसा एक निर्देश किसलिये किया है ? समाधान- उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति है, इस बातके जतलानेके लिए वैसा निर्देश किया गया है। शंका-- उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति कैसे है ? समाधान--विषयीसे पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और परको प्रत्यक्ष होनेवाले ऐसे चक्षुदर्शनके विषयके समान उन पांचों दर्शनों के विषयका दूसरोंके लिये ज्ञान कराने का कोई उपाय नहीं है। इसकी समानता पांचों ही दर्शनों में हैं, यही उनमें प्रत्यासत्ति है । विशेषार्थ-- यहां शंकाकारका कहना है कि जिस प्रकार चादर्शनको स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है इसी प्रकारसे त्वगिन्द्रियादिसे उत्पन्न होनेवाले शेष पांच दर्शनोंकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार न कर उन्हें एक अचक्षुदर्शनके ही अन्तर्गत क्यों कहा गया है। इसके उत्तरम यहां यह कहा गया है कि जिस प्रकार चक्षुदर्शनकी विषयभूत वस्तु विषयी (अप्राप्यकारी चक्षु) से पृथक् होनेके कारण एक साथ स्व और पर दोनों के लिये प्रत्यक्ष होती है और इसीलिए दूसरोंको उसका ज्ञान भी कराया जा सकता है, इस प्रकार उक्त पांचों दर्शनोंकी विषयभूत वस्तु विषयी ( प्राप्यकारी त्वगिन्द्रियादि ) से पृथक् न रहनेके कारण एक साथ स्त्र और पर दोनोंके लिये प्रत्यक्ष नहीं हो सकती, और इसीलिये उसका दूसरोंको एक साथ ज्ञान भी नहीं कराया जा सकता है । यही इन पांचों दर्शनोंमें प्रत्यासत्ति है जो सबमें समान है । अवधिदर्शनावरणीय रूपी द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ १३ ॥ रूपी द्रव्यविषयक आत्मशक्तिके संवेदनका विघात करनेके कारण पहिलेके ही समान इसकी भी बाह्यार्थविषयक प्ररूपणाका कारण कहना चाहिये। ४कापतो 'सत्तित्तवेयणं ' इति पाठः।* कापतो 'कुदो' इति पाठ । काप्रती 'पच्चासत्तिविसइदो इति पाठः। मप्रतिपाठोऽयम् 1 का-ताप्रत्यो: 'अचक्ख दंसण इति पाठ।। ॐ काप्रती 'वायाभावा' इति पाठः। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंधणाणुयोगद्वारे उत्तरपयडिणिबंधणं केवलदंसणावरणीयं सव्वदव्वे णिबद्धं ॥ १४ ॥ अनंतसम्मत्त - णाण-चरण- सुहादिसत्तीणं केवलदंसणविसयाणं बज्झत्थं चेव अणि अट्ठावलंभादो । केवलदंसणादीणं बज्झत्थणिबंधोQ किमठ्ठे वुच्चदे ? दंसणविसयजाणावणट्ठे, अण्णहा दंसणविसयस्स अज्झत्थस्स परेसिमपच्चक्खस्स जागवणोवायाभावादो । सादासादाणमप्पाणम्हि णिबंधो ।। १५ ।। कुदो? सादासादविवागफलाणं सुह- दुक्खाणं जीवे समुवलंभादो । मोहणीयं बुविहं- दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेदि । तस्थ दंसणमोहणीयं सव्वदव्वेसु निबद्धं, णोसव्वपज्जासु ॥ १६ ॥ मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं च सव्वदव्वेसु णिबद्धं, सव्वदव्व सद्दहणगुणविघादकरणादो । सम्मत्तं णोसव्वपज्जा एसु णिबद्धं । कुदो ? तत्तो सम्मत्तस्स एगदेसधादुवलंभादो | दंसणमोहणीयं जेण घादिकम्मं तेण अप्पाणम्मि णिबद्धमिदि किष्ण परूविदं ? ण. एस ( ११ केवलदर्शनावरणीय सब द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ १४ ॥ कारण कि केवलदर्शनकी विषयभूत अनन्त सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र एवं सुख आदि रूप शक्तियों का अवस्थात बाह्य अर्थका ही आश्रय करके पाया जाता है । शंका -- केवलदर्शनादिकोकी बाह्यार्थनिबद्धताका कथन किसलिये किया जाता है ? समाधान -- दर्शनका विषय बतलाने के लिये उसका कथन किया गया है। कारण कि दर्शनका विषयभूत अर्थ अध्यात्मरूप होनेसे दूसरोंको प्रत्यक्ष नहीं है, अतएव इसके विना उसका ज्ञान करानेके लिये और कोई दूसरा उपाय ही नहीं था । सातावेदनीय और असातावेदनीय आत्मामें निबद्ध हैं ॥ १५ ॥ कारण कि साता व असाता सम्बन्धी विपाकके फलरूप सुख व दुःख जीव में ही पाये जाते है । मोहनीय कर्म दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीयके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें दर्शनमोहनीय सब द्रव्योंमें निबद्ध है, सब पर्यायोंमें नहीं ॥ १६ ॥ मिथ्यात्व व सम्माग्मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय सब द्रव्योंमें निबद्ध हैं, क्योंकि, वे समस्त द्रव्यों सम्बन्धी श्रद्वान गुणका विघात करनेवाली प्रकृतियां हैं । सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय प्रकृति कुछ पर्यायोंमें निबद्ध है, क्योंकि, उसके द्वारा सम्यक्त्वके एकदेशका घात पाया जाता है । शंका-- दर्शन मोहनीय चूंकि घातिया कर्म है, अत एव ' वह आत्मामें निबद्ध है'; ऐसी प्ररूपणा यहां क्यों नहीं की गई है ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, छह द्रव्य और नौ पदार्थ विषयक श्रद्धानका तातो' णाणावरणसुहादि ' इति पाठः । उभयोरेव प्रत्यो णिबद्धो ' इति पाठ । काप्रती 'विवाकगलाणं', तारतः 'विवाकगलाणं (सादासादविवागाणं), मप्रतो 'विवाकफलाणं ' इति पाठः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ) छवखंडागमे संतकम्म दोसो, छदव्व-णवपयत्थविसयसद्दहणं सम्मइसणं ति घाइज्जमाणजीवंस पदुप्पायणह्र बज्झत्थणिबंधणपरूवणाकरणादो। चारित्तमोहणीयमप्पाणम्मि णिबद्धं ॥ १७ ।। राग-दोसा बज्झत्थालंबणा, तेसिं च गिरोहो चारित्तं । तदो चारित्तमोहणीयं सव्वदव्वेसु णिबद्धं ति वत्तत्वं । सच्चमेदं, किंतु तमेत्य णावेविखदं । कुदो ? बहुसो पदुप्पायणेण उवएसेण विणा एत्थ तदवगमादो। णिरयाउअं णिरयभवम्मि णिबद्ध ।। १८ ॥ कुदो ? तत्थ णिरयभवधारणसत्तिदंसणादो। सेसाउआणि वि अप्पप्पणो भवेसु* णिबद्धागि ।। १९ ।। तत्तो तेसि भवाणमवट्ठाणुवलंभादो। णामं तिधा णिबद्धं- जीवणिबद्धं पोग्गलणिबद्धं खेतणिबद्धं च ।२०। एवं णामणिबंधणं तिविहं चेव होदि, अण्णस्स अणुवलंभादो। पोग्गलविवागणिबद्धपयडिपरूवणळं गाहासुत्तं भणदि-- नाम सम्यग्दर्शन है, अत एव घाते जानेवाले जीवगुणों की प्ररूपणा करने के लिए बाह्यार्थनिबन्धनकी प्ररूपणा की गई है। चारित्रमोहनीयकर्म आत्मामें निबद्ध है ॥ १७ ॥ शंका-- राग और द्वेष बाह्य अर्थ का आलम्बन करने वाले हैं, और चूंकि उन्हीं के निरोध करनेका नाम चारित्र है अत एव चारित्रमोहनीय कर्म सब द्रव्योंमें निबद्ध है; ऐसा यहां कहना चाहिये ? समाधान-- यह सत्य है, किन्तु उसकी यहां अपेक्षा नहीं की गई है। कारण कि वहत वार प्ररूपणा को जानेसे उपदेश के विना भी यहां उसका ज्ञान हो जाता है। नारकायु नारक भवमें निबद्ध है ॥ १८ ॥ कारण कि उसमें नारक भव धारण करानेकी शक्ति देखी जाती है। शेष तीन आयु कर्म भी अपने अपने भवोंमें निबद्ध हैं ॥ १९॥ __ क्योंकि, उनसे उन भवोंका अवस्थान पाया जाता है । नाम कर्म तीन प्रकारसे निबद्ध है-- जीव द्रव्यमें निबद्ध है, पुद्गलमें निबद्ध है, और क्षेत्रमें निबद्ध है ॥ २० ॥ इस प्रकार नामका निबन्धन तीन प्रकारका ही है, क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य कोई निबन्धन पाया नहीं जाता। पुद्गलविपाकनिबद्ध प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करने के लिये गाथासूत्र कहते हैं-- * कारतो । निबद्ध ति त्ति घेत्तव्वं ' इति पाठः। कारतो । जीवस्स ' इति पाठः । * ताप्रती 'भवे वा ' इति पाठः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंणाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिणिबंधणं पंच यछत्तिय छपंच दोणि पंच य हवंति अट्ठेव । सरीरादीप संता पयडीओ आणुपुव्वीए ॥ १ ॥ अगुरुलहु-परूवघादा आदाउज्जोव णिमिणणामं च । पत्तेय-थिर-सुहेदरणामाणि य पोग्गलविवागा ॥ २ ॥ ( १३ पंच सरोराणि, छ संठाणाणि, तिण्ण अंगोवंगाणि, छ संघडणाणि, पंच वण्णा, दो गंधा, पंच रसा, अट्ठ फासा, अगुरुअलहुअ - उवघाद - परघाद- आदाउज्जोव-पत्तेयसाहारणसरीर-थिराथिर - सुहासुह- णिमिणणामाणि च पोग्गलणिबद्धाणि । कुदो ? एदेसि विवागेण सरीरादीणं निष्पत्तिदंसणादो । एवं बावण्णणामपयडीओ पोग्गलबिद्धाओ । संपहि जीवगिबद्धणाम पडिपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि -- गदिजादी उस्सासो दोणि विहाया तसादितियजुगलं । सुभगादीचदुजुगलं जीवविवागा यतित्थयरं ॥ ३ ॥ चत्तारिगदि-पंचजादि उस्सास -पसत्थापसत्थविहायगदि-तस - थावर - बादर - सुहुम-पज्जतापज्जत्त-सुभग- दूभग- सुस्सर दुस्सर - आदेज्ज - अणादेज्ज-जस - अजसकित्ति - तित्थयरपडीओ अप्पाणम्मि णिबद्धाओ । कुदो ? एदासि विवागस्स जीवे चेवुवलंभादो । एवमेदाओ सत्तावीस णामपडीओ जीवविवागियाओ । संपहि खेत्तणिबद्धपग्रडिपरूवणट्ठ गाहासुतं शरीरसे लेकर स्पर्श पर्यन्त अर्थात् शरीर संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये अनुक्रमसे पांच, छह, तीन, छह, पांच, दो, पांच और आठ प्रकृतियां अगुरुलघु, परघात, उपघात, आतप, उद्योत निर्माण, प्रत्येक व साधारण, स्थिर व अस्थिर तथा शुभ व अशुभ ; ये नामप्रकृतियां पुद्गलविपाकी हैं ।। १-२ ।। पांच शरीर, छह संस्थान, तीन आंगोपांग, छह संहनन, पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येक, व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण ये नामकर्मकी प्रकृतियां पुद्गलनिबद्ध हैं, क्योंकि, इनके विपाकसे शरीरादिकों की उत्पत्ति देखी जाती है । इस प्रकार ये बावन नामप्रकृतियां पुद्गलनिनिबद्ध हैं । अब जीवनिबद्ध नामप्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं । गति, जाति, उच्छ्वास, दो विहायोगतियां, त्रस आदिक तीन युगल, सुभग आदिक चार युगल और तीर्थंकर, ये प्रकृतियां जीवविपाकी हैं ।। ३ ।। चार गति, पांच जाति, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशः कीर्ति, और तीर्थंकर, ये प्रकृतियां आत्मामें निबद्ध हैं, क्योंकि, इनका विपाक जीवमें ही पाया जाता है । इस प्रकार ये सत्ताईस नामप्रकृतियां जीवविपाकी हैं। अब क्षेत्रनिबद्ध प्रकृतियोंकी देहादी फासता पण्णासा णिमिण-तावजुगलं च । थिर-सुह-पतेयदुगं अगुरुतियं पोग्गल ववाई | गो. क. ४७. * काप्रतो' णिबद्धाणाम' इति पाठः । तित्थयर उस्सा बादर- पज्जत्त-सुस्सरादेज्जं । जस-तस - विहाय - सुभगदु चउगइ-पणजाइ सगवीसं गदिजादी उस्सारसं विहायगदि तसतियाण जुगल च । सुभगादिचउज्जुगलं तित्थयरं चेदि सगवीसं । गो. क. ५०-५१. „ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म १४ ) भणदि चत्तारि आणुपुवी खेत्तविवागा त्ति जिणवरुद्दिठ्ठा । णीचुच्चागोदाणं होदि णिबंधो दु अप्पाणे ।। ४ ।। चत्तारि आणुपुव्वीओ खेत्तणिबद्धाओ। कुदो ? पडिणियदखेत्तम्हि चेव तासि फलोवलंभादो । णीचुच्चागोदाणं पुण णिबंधो अप्पाणम्मि चेव, तेसिं फलस्स जीवे चेवुवलंभादो। दाणंतराइ दाणे लाभे भोगे तहेव उवभोगे । गहणे होंति णिबद्धा विरियं जह केवलावरणं ।। ५ ।। एदाओ पंच वि पयडीओ जीवणिबद्धाओ चेव, घाइकम्मत्तादो। किंतु घाइज्जमाणजीवगुणजाणावणट्टमेसा गाहा परूविदा । दाणंतराइयं दाणविग्घयरं, लाहविग्घयरं, लाहंतराइयं, भोगविग्घयरं भोगंतराइयं, उपभोगविग्घयरं उवभोगंतराइयं । गहणसद्दो उवभीगग्गहणे भोगग्गहणे त्ति पादेक्कं संबंधेयव्वो । जहा केवलगागावरणीयं परूविदं अणंतदव्वेसु णिबद्धमिदि तहा विरियंतराइयं पि परूवेयव्वं, जीवादो पुधभूददव्वं अस्सिऊण विरियस्त पवुत्तिदंसणादो । एवमेत्य अणुयोगद्दारे एत्तियं चेव परूविदं, सेसअणंतत्थविसयउवदेसाभावादो। एवं णिबंधणे त्ति समत्तमणुओगद्दारं प्ररूपणा करने के लिये गाथासूत्र कहते हैं-- चार आनुपूर्वी प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी हैं, ऐसा जिनेन्द्र देवके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। नीच व ऊंच गोत्रोंका निबन्ध आत्मामें है ।। ४ ।। चार आनुपूर्वी प्रकृतियां क्षेत्रनिबद्ध हैं, क्योंकि, प्रतिनियत क्षेत्रमें ही उनका फल पाया जाता है। परंतु नीच व ऊंच गोत्रका निबन्ध आत्मामें ही है, क्योंकि, उनका फल जीवमें ही पाया जाता है। दानान्तराय दानके ग्रहण में, लाभान्तराय लाभके ग्रहणमें, भोगान्त राय भोगके ग्रहणमें, तथा उपभोगान्तराय उपभोगके ग्रहणमें निबद्ध हैं। वीर्यान्तराय केवलनाज्ञावरणके समान अनन्त द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ ५ ॥ ये पांचों ही प्रकृतियां जीवनिबद्ध ही हैं, क्योंकि, वे घातिया कर्म हैं। किन्तु उनके द्वारा घाते जानेवाले जीवगुणोंका ज्ञापन कराने के लिये इस गाथाकी प्ररूपणा की गई है । दान में विघ्न करनेवाला दानान्तराय, लाभमें विघ्न करनेवाला लाभान्त राय, भोगमें विघ्न करनेवाला भोगान्तराय, और उपभोगमें विघ्न करनेवाला उपभोगान्तराय है। ग्रहण शब्दका अर्थ उपभोगग्रहण है, इस कारण इसका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करना चाहिये। जिस प्रकार केवलज्ञानावरणीयकी अनन्त द्रव्योंमें निबद्धताकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार वीर्यान्तरायकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, जीवसे भिन्न द्रव्यका आश्रय करके वीर्यकी प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें इतनी ही प्ररूपणा की गई है, क्योंकि, शेष अनन्त पदार्थविषयक निबन्धनके उपदेशका अभाव है। इस प्रकार निबन्धन अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ पक्क माणुयोगद्दार जयउ भुवणेक्कतिलओ तिहुवणकलिकलुस धुवणवावारो । संतियरो संतिजिणो पक्कमअणुयोगकत्तारो ॥ १ ॥ तत्थ पक्कमेत अणुयोगद्दारस्स थोवत्थपरूवणे कीरमाणे अपयदत्थणिराकरणदुवारेण पयदत्यपरूवणट्ठ णिक्खेवो कीरदे । तं जहा - णामपक्कमो, ठवणपक्कमो, Goatraमो, खेत्तपक्कमो, कालपक्कमो, भावपक्कमो चेदि छव्विहो पक्कमो । णाम-ठवणं गदं । दव्वपक्कमो दुविहो आगम-णोआगमदव्वपक्कमभेएण । आगमव्वपक्कम पक्कमाणुओगद्दारजाणगो अणुवजुत्तो । णोआगमदव्वपक्कमो तिविहो जाणुगसरीर भविय तव्वदिरित्तभेदेण । जाणुगसरीर-भवियं गदं । तव्वदिरिपक्कमो दुविहो - कम्मपक्कमो णोकम्मपक्कमो चेदि । तत्थ कम्मपक्कमो अट्ठविहो । uttarraat तिविहो- सचित्त-अचित्त - मिस्सभेएन । अस्साणं हत्थीणं पक्कमो सचित्तपक्कमो णाम । हिरण्ण-सुवण्णादीणं पक्कमो अचित्तपक्कमो णाम । साभाराणं हत्थी अस्साणं वा पक्कमो मिस्तपक्कमो णाम । खेत्तपक्कमो तिविहो - उड्ढलोगearer अधोलोगपक्कमो तिरियलोगपक्कमो चेदि । एत्थ आधेये आधारोवयारेण तत्थट्टियजीवाणं उड्ढाधोतिरियलोगो त्ति सण्णा, अण्णहा तिष्णं लोगाणं शान्तिके लोकके एक मात्र तिलक स्वरूप, तीन लोकके शत्रुभूत पाप- मैलके धोने में व्यापृत, करनेवाले और प्रक्रम अनुयोग के कर्ता ऐसे शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें ॥ १ ॥ प्रक्रम इस अनुयोगद्वारके स्तोक अर्थोंकी प्ररूपणा करते समय अप्रकृत अर्थके निराकरण द्वारा प्रकृत अर्थकी प्ररूपणा करनेके लिये निक्षेप किया जाता है । वह इस प्रकार है- नामप्रक्रम, स्थापनाप्रक्रम, द्रव्यप्रक्रम, क्षेत्रप्रक्रम, कालप्रक्रम और भावप्रक्रम; इस प्रकार प्रक्रम छह प्रकारका है । इनमें नामप्रक्रम और स्थापनाप्रक्रम अवगत हैं । द्रव्यप्रक्रम आगमद्रव्यप्रक्रम और नोआगमद्रव्यप्रक्रमके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें प्रक्रम अनुयोगद्वारका ज्ञायक उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यप्रक्रम हैं । नोआगमद्रव्यप्रक्रम ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकारका है । इनमें से ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यप्रक्रम अवगत हैं । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यप्रक्रम कर्मप्रक्रम और नोकर्मप्रक्रमके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें कर्मप्रक्रम आठ प्रकारका है । नोकर्मप्रक्रम सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है । अश्वों और हाथियोंका प्रक्रम सचित्तप्रक्रम, हिरण्य और सुवर्ण आदिकोंका प्रक्रम अचित्तप्रक्रम, तथा आभरण सहित हाथियों व अश्वोंका प्रक्रम मिश्रप्रक्रम कहलाता है । क्षेत्रप्रक्रम ऊर्ध्वलोकप्रक्रम, अधोलोकप्रक्रम और तिर्यग्लोकप्रक्रमके भेदसे तीन प्रकारका है । यहां आधेय में आधारका उपचार करनेसे उन लोकोंमें स्थित जीवोंकी ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और ताप्रती ' थोवत्त ( त्थ ) यपरूवणे' इति पाठः । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म थावराणं पक्कमाणुववत्तीदो । समयावलिया-खण-लव-मुहुत्तादी कालपक्कमो।। भावपक्कमो दुविहो- आगमदो णोआगमदो च। तत्थ आगमदो पक्कमाणुओगद्दारजाणओ उवजुत्तो । णोआगमदो भावपक्कमो ओदइयादिपंचभावा । एत्थ कम्मपक्कमे पयदं । प्रक्रामतीति प्रक्रमः कार्मणपुद्गलप्रचयः । आदाणिओ एत्थ भणदि- जहा कुंभारो एयादो मट्टियपिंडादो अणेयाणि घडादीणि उप्पादेदि तहा इत्थी पुरिसो णवंसओ थावरो तसो वा जो वा सो वा एयविहं कम्मं बंधिदूण अट्ठविहं करेदि, अकम्मादो कम्मस्स उप्पत्तिविरोहादो ? एत्तो णिग्गहो कीरदे- जदि अकम्पादो कम्मुप्पत्ती ण होदि तो अकम्मादो तुब्भेहि संकप्पिदएगकम्मुप्पत्ती वि ण होदि, कम्मत्तं पडि विसेसाभावादो । अह कम्मइयवग्गणादो जमेगमुप्पण्णं तं जइ कम्मं ण होदि तो तत्तो ण अट्ठकम्मागमुप्पती, अकम्मादो कम्मुप्पत्तिविरोहादो। ण च एयंतेण कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वं, मट्टियपिंडादो मट्टिापडं मोत्तूण घटघटी-सरावालिंजरुट्टियादीणमणुप्पत्तिप्पसंगादो । सुवण्णादो सुवण्णस्स घटस्सेव उप्पत्तिदसणादो कारणाणुसारि चेव कज्जं ति ण वोत्तुं जुत्तं कढिणादो* सुवण्णादो जलणादिसंजोगेण सुवण्णजलुप्पत्तिदसणादो। किं च- कारणं व ण कज्जमुप्पज्जदि, तिर्यग्लोक संज्ञा है, क्योंकि, इसके विना स्थिरशील तीन लोकों का प्रक्रम बन नहीं सकता। समय, आवली, क्षण, लव और मुहुर्त आदिकको कालप्रक्रम कहा जाता है। भावप्रक्रम दो प्रकारका है-- आगमभावप्रक्रम और नोआगमभावप्रक्रम। उनमें प्रक्रम अनयोगद्वारका ज्ञायक उपयोग युक्त जीव आगमभावप्रक्रम है। औदयिक आदिक पांच भावोंको नोआगमभावप्रक्रम कहा जाता है। यहां कर्मप्रक्रम प्रकृत है। 'प्रक्रामतीति प्रक्रमः' इस निरुक्तिके अनुसार कार्मण पुद्गलप्रचयको प्रक्रम कहा गया है। शंका-- यहां शंकाकार कहता है कि जिस प्रकार कुम्हार मिट्टीके एक पिण्डसे अनेक घटादिकोंको उत्पन्न करता है उसी प्रकार स्त्री, पुरुष, नपुंसक, स्थावर, त्रस अथवा जो कोई भी जीव एक प्रकारके कर्मको बांधकर उसे आठ भेद रूप करता है; क्योंकि, अकर्मसे कर्मकी उत्पत्तिका विरोध है ? समाधान-- इस शंकाका निग्रह करते हैं। यदि अकर्मसे कर्मकी उत्पत्ति नहीं होती है तो फिर तुम्हारे द्वारा संकल्पित एक कर्मकी उत्पत्ति भी अकर्मसे नहीं हो सकतो, क्योंकि, कर्मत्वके ति कोई विशेषता नहीं है। यदि कहा जाय कि कार्मण वर्गणासे जो एक उत्पन्न हआ है वह पदि कर्म नहीं है तो फिर उससे आठ कर्मोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती; क्योंकि, अकर्मसे कर्मकी उत्पत्तिका विरोध है । दूसरे कारणानुसारी ही कार्य होना चाहिये, यह एकान्त नियम भी नहीं है; क्योंकि, मिटीके पिण्डसे मिट्रीके पिण्डको छोडकर घट, घटी, शराब अलिंजर और उष्टिका आदिक पर्याय विशेषों की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग अनिवार्य होगा। यदि कहो कि सुवर्णसे सुवर्णके घटकी ही उत्पत्ति देखी जानेसे कार्य कारणानुसारी ही होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, कठोर सुवर्णसे अग्नि आदिका संयोग होनेपर सुवर्णजलकी उत्पत्ति देखी 0 तापतौ 'मुहुतादिकालपक्क मो , इति पाठः। काप्रतौ ' आगमणोआगमदो' इति पाठः । 8 काप्रती ' अक्कमादो 'इति पाठः । * का-ता-मप्रतिषु ' कडिणादो , इति पाठ । ' | Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पफमाणुयोगद्दारे संतकज्जवादो सव्वप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो । जदि एयंतेण ण कारणाणुसारि चेव कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदव्वादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेयणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ती पावेज्ज । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हाळ कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि । एत्थ परिहारो वुच्चदे-- होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारितं, ण सव्वप्पणा; उप्पाद-वय-ट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्वाणं सगवइसेसियगुणाविणाभाविसयलगुणाणमपरिच्चाएण पज्जायंतरगमणदसणादो। ण च कम्मइयवग्गणादो कम्माणि एयंतेण पुधभूदाणि, णिच्चेयणत्तेण मुत्तभावेण पोग्गलत्तेण च ताणमेयत्तुवलंभादो। ण च एयंतेण अपुधभूदाणि चेव, णाणावरणादिपयडिभेदेण दिदिभेदेण अणुभागभेदेण च जीवपदेसेहि अण्णोण्णाणुगयत्तेण च भेदुवलंभादो। तदो सिया कज्जं कारणाणुसारि सिया णाणुसारि त्ति सिद्धं । असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शवतस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।। १ ॥ जाती है। इसके अतिरिक्त, जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि, कार्य सर्वात्मना कारण रूप ही रहेगा इसलिए उसकी उत्पत्तिका विरोध है । शंका-- यदि सर्वथा कारणका अनुसरण करनेवाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्यसे अमूर्त आकाशकी उत्पत्ति हो जानी चाहिये, इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्यसे सचेतन जीव द्रव्यकी भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिये । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। इसीलिये कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिये ? समाधान-- यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूपसे कार्य कारणानुसारी भले ही हो, परन्तु वह सर्वात्म स्वरूपसे वैसा सम्भव नहीं है; क्योंकि, उत्पाद व्यय व ध्रौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गणोंके अविनाभावी समस्त गुणोंका परित्याग न करके अन्य पर्यायको प्राप्त होते हुए देख जाते हैं। दूसरे, कर्म कार्मण बर्गणासे सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि, उनमें अचेतनत्व, मूर्तत्व और पौद्गलिकत्व स्वरूपसे कार्मण वर्गणाके साथ समानता पायी जाती है। इसी प्रकार वे उससे सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि, ज्ञानावरणादि रूप प्रकृतिभेद, स्थितिभेद व अनुभागभेदसे तथा जीवप्रदेशोंके साथ परस्पर अनुगत स्वरूपसे उनमें कार्मण वर्गणासे भेद पाया जाता है। इसलिये कार्य कथंचित् कारणानुसारी है और कथंचित् वह तदनुसारी नहीं भी है, यह सिद्ध है। शंका-- चूंकि असत् कार्य किया नहीं जा सकता है, उपादानोंके साथ कार्यका सम्बन्ध रहता है, किसी एक कारणसे सभी कार्योंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, समर्थ कारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, तथा कार्य कारणस्वरूप ही है-- उससे भिन्न सम्भव नहीं है; अतएव इन हेतुओंके द्वारा कारणव्यापारसे पूर्व भी कार्य सत् ही है, यह सिद्ध है ॥ १ ॥ ४ काप्रतो 'तं जहा ' इति पाठ।। * सांख्यकारिका ९. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ) छवखंडागमे संतकम्मं इदि के विभति । एदं पि ण जुज्जदे । कुदो ? एयंतेण संते कत्तारवावारस्स विहलत्तप्पसंगादो, उवायाणग्गहणाणुववत्तीदो, सव्वहा संतस्स संभवविरोहादो, सव्वहा विशेषार्थ -- सांख्यमतमें प्रधानकी सिद्धिमें उपयोगी होनेसे सत्कार्यवादको स्वीकार किया गया है | कार्यको सत् सिद्ध करनेके लिये उपर्युक्त कारिकामें निम्न हेतु दिये गये हैं-( १ यदि कारणव्यापारके पूर्व में कार्यको सत् ही स्वीकार किया जाय तो उसका उत्पन्न होना शक्य नहीं है, जैसे खरविषाण । अत एव कारणव्यापारके पूर्व में भी कार्यको सत् ही स्वीकार करना चाहिये । कारणके द्वारा केवल उसकी अभिव्यक्ति की जाती है जो उचित ही है । जैसे तिलोंमें तैल जब पहिले से ही सत् है तभी वह कोल्हू आदिके द्वारा निकाला जा सकता है, वालुकामेंसे तैलका निकाला जाना किसी प्रकार भी शक्य नहीं है । ( दूसरा हेतु 'उपादानग्रहण' दिया गया है -- उपादानग्रहणका अर्थ है कारणोंसे कार्यका सम्बन्ध | अर्थात् कारण कार्य से सम्बद्ध हो करके ही उसका उत्पादक हो सकता है, न कि असम्बद्ध रह कर | और वह सम्बद्ध चूंकि असत् कार्यके साथ सम्भव नहीं है, अतएव कारणव्यापारसे पूर्व में भी कार्यको सत् ही स्वीकार करना चाहिये । ( ३ ) यदि कहा जाय कि कारण असम्बद्ध ही कार्यको उत्पन्न कर सकते हैं, अतः इसके लिये कार्यको सत् मानना आवश्यक नहीं है; सो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर जिस प्रकार मिट्टी के द्वारा अपनेसे असम्बद्ध घट कार्य किया जाता है उसी प्रकार असम्बद्धत्वकी समानता होनेसे घटके समान पट आदिक कार्य भी उसके द्वारा उत्पन्न किये जा सकते हैं । इस प्रकार एक ही किसी कारणसे सब कार्यों के उत्पन्न होने का प्रसंग अनिवार्य होगा । परन्तु ऐसा चूंकि सम्भव नहीं है, अतएव यह स्वीकार करना चाहिये कि सम्बद्ध कारण सम्बद्ध कार्यको ही उत्पन्न करता है, न कि असम्बद्धको । इस प्रकार यह तीसरा हेतु देकर सत्कार्य सिद्ध किया गया है। ) यहां शंका की जा सकती है कि असम्बद्ध रहकर भी वही कार्य उत्पन्न किया जा सकता है जिसके उत्पन्न करने में कारण समर्थ है । इसीलिये सर्वसम्भवका प्रसंग देना उचित नहीं है । इसके उत्तर में 'शक्तस्य शक्यकरणात्' यह चतुर्थ हेतु दिया गया है । उसका अभिप्राय है कि शक्त कारण शक्य कार्यको ही करता है। यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि कारणमें रहनेवाली वह कार्योत्पादनरूप शक्ति क्या समस्त कार्यविषयक है या शक्य कार्यविषयक ही है ? यदि उक्त शक्ति समस्त कार्यविषयक स्वीकार की जाती है तो सबसे सभीके उत्पन्न होनेका जो प्रसंग दिया गया है वह तदवस्थ ही रहेगा । इसलिये यदि उक्त शक्तिको शक्य कार्यविषयक ही स्वीकार किया जाय तो फिर स्वयमेव सत् कार्य सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, अविद्यमान शक्य कार्य में तद्विषयक शक्तिकी सम्भावना ही नहीं रहती । अतएव कार्य सत् ही है । ( ५ ) सत् कार्यको सिद्ध करनेके लिये अन्तिम हेतु 'कारणभाव दिया गया है । उसका अभिप्राय यह है कि. कार्य चूंकि कारणात्मक है, अतएव जब कारण सत् है तो उससे अभिन्न कार्य कैसे असत् हो सकता है ? नहीं हो सकता । अतः कार्य कारणव्यापारके पूर्व भी सत् ही रहता है । यह सांख्योंका अभिमत है । आगे वीरसेन स्वामी स्वयं इस अभिप्रायका निरास करनेवाले हैं । " समाधान -- इस प्रकार किन्ही कपिल आदिका कहना है जो योग्य नहीं है। कारण कि कार्यको सर्वथा सत् माननेपर कर्ताके व्यापारके निष्फल होनेका प्रसंग आता है । इसी प्रकार सर्वथा कार्यके सत् होनेपर उपादानका ग्रहण भी नहीं बनता, सर्वथा सत् कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है, Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्कमाणुयोगद्दारे संतकज्जवादणिरासो ( १९ संते कज्ज-कारणभावाणुववत्तीदो। किं च-- विप्पडिसेहादो ण संतस्स उप्पत्ती। जदि अत्थि, कधं तस्सुप्पत्ती? अह उप्पज्जइ, कधं तस्स अत्थित्तमिदि । कि च- णिच्चपक्खे ण कारणं कज्जं वा अत्थि, णिव्विगप्पभावेण पागभावपद्धसाभावविरहिए तदणुववत्तीदो। आविब्भावो उप्पादो, तिरोभावो विणासो त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, णिच्चस्स अत्थस्स दोण्णं मज्झे एगम्हि चेव भावे अवट्टियस्स अणाहेआदिसयत्तेण अवत्थंतरसंकंतिवज्जियस्स दुब्भावविरोहादो। वुत्तं च-- नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलं 0 ।। २ ।। कार्यके सर्वथा सत् होनेपर कार्य-कारणभाव ही घटित नहीं होता। इसके अतिरिक्त असंगत होनेसे सत् कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है; क्योंकि, यदि कार्य कारणव्यापारके पूर्व में भी विद्यमान है तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? और यदि वह कारणव्यापारसे उत्पन्न होता है तो फिर उसका पूर्वमें विद्यमान रहना कैसे संगत कहा जावेगा ? और भी- नित्य पक्षमें कारण और कार्यका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, क्योंकि, उस अवस्थामें निर्विकल्प होनेके कारण प्रागभाव और प्रध्वंसाभावसे रहित अर्थमें कार्य-कारणभाव बन नहीं सकता। यदि कहा जाय कि आविर्भावका नाम उत्पाद और तिरोभावका नाम विनाश है, तो यह भी कहना योग्य नहीं है; क्योंकि, इन दोनोंमें से किसी एक ही अवस्था में रहनेवाले नित्य पदार्थका अनाधेयातिशय ( विशेषता रहित ) होनेसे चूंकि अवस्थान्तरमें संक्रमण सम्भव नहीं है, अतएव उसमें आविर्भाव एवं तिरोभाव रूप दो अवस्थाओंके रहनेका विरोध है, अर्थात् कूटस्थ नित्य होनेसे यदि वह तिरोभूत है तो तिरोभूत ही सदा रहेगा, और यदि आविर्भूत है तो सदा आविर्भूत ही रहेगा। कहा भी है-- नित्य एकान्त पक्षमें भी पूर्व अवस्था ( मृत्पिण्डादि ) के परित्यागरूप और उत्तर अवस्था ( घटादि ) के ग्रहण रूप विक्रिया घटित नहीं होती, अत: कार्योत्पत्तिके पूर्व में ही कर्ता आदि कारकोंका अभाव रहेगा। और जब कारक ही न रहेंगे तब भला फिर प्रमाण ( प्रमृति क्रियाका अतिशय साधक ) और उसके फल ( अज्ञाननिवृत्ति ) की सम्भावना कैसे की जा सकती है ? अर्थात् उनका भी अभाव रहेगा ॥२॥ विशेषार्थ-- सांख्य मतमें चेतन पुरुषको कूटस्थ नित्य स्वीकार किया गया है। इस मतका निराकरण करनेके लिये उक्त कारिकाका अवतार हुआ है । उसका अभिप्राय यह है कि पुरुषको सर्वथा नित्य माना जाता है तो वह विकार रहित होनेसे चेतना रूप क्रियाका कर्ता भी नहीं हो सकता, क्योंकि, उस अवस्थामें कारक (कुम्भकारादि ) अथवा ज्ञापक ( प्रमाता ) हेतुओंका व्यापार असम्भव है। अथवा यदि कारक व ज्ञापक हेतुओंका व्यापार स्वीकार किया जाता है तो फिर पूर्व स्वभाव ( अकारक अथवा अप्रमाता ) का परित्याग करके उत्तर स्वभाव (उत्पत्ति अथवा क्रियाका कर्तृत्व ) को ग्रहण करनेके कारण उसकी कूटस्थताका विघात होता है । अतएव कूटस्थ नित्यताका पक्ष बनता नहीं है। ___Jain Educationase आमी . ३७. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ) छक्खडागमे संतकम्म यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति । परिणामप्रक्लप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी ॥ ३ ॥ पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं* कुतः ।। बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥ ४ ॥ सदकरणात, उपादानग्रहणात्, सर्वसम्भावाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च असंतं चेव कज्जमुप्पज्जदि त्ति के वि भणंति। तण्ण जुज्जदे, विसेससरूवेणेव सामण्णसरूवेण वि असंते बुद्धिविसयमइक्कते वयणगोयरमुल्लंघिय द्विदकारणकलाववावारविरोहादो। अविरोहे वा, मट्टियपिंडादो घडो व्व गद्दहसिंगं पि उप्पज्जेज्ज, असंतं पडि यदि कार्य सर्वथा सत् है तो वह पुरुषके समान उत्पन्न नहीं हो सकता। और परिणामकी कल्पना नित्यत्वरूप एकान्त पक्षकी विघातक है ।। ३ ।। विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि यदि कार्यको सर्वथा सत् ही स्वीकार किया जाता है तो जैसे सांख्य मतमें पुरुषकी उत्पत्ति नहीं मानी गई है वैसे ही पुरुषके समान सर्वथा सत् होनेसे प्रकृतिसे महान् व अहंकारादिकी भी अनुत्पत्तिका अनिवार्य प्रसंग आता है, जो उन्हें अभीष्ट नहीं है। इस प्रसंगको टालने के लिये यदि कहा जाय कि यथार्थमें न कोई कार्य उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है। किन्तु जिस प्रकार कछवा अपने विद्यमान अंगोंको कभी बाहिर निकालता है और कभी भीतर छुपा लेता है, इसी प्रकार पूर्व में विद्यमान महान् व अहंकारादिका प्रधानसे आविर्भाव मात्र होता है। इस प्रकारके आविर्भाव व तिरोभावरूप परिणामको छोडकर कार्य-कारणभाव वास्तव में है ही नहीं। सो इस कथनको असंगत बतलाते हुए उत्तरमें यहां कहा गया है कि पूर्वस्वभाव ( तिरोभूत अवस्था ) के नाश और उत्तरस्वभाव ( आविर्भूत अवस्था ) के उत्पन्न होने का नाम ही तो परिणाम है। फिर भला ऐसे परिणामकी कल्पना करने पर नित्यत्वरूप एकान्त पक्ष में कैसे बाधा न उपस्थित होगी? अवश्य होगी। इसके अतिरिक्त सर्वथा नित्यत्वकी प्रतिज्ञामें मन, वचन व कायकी शुभ प्रवृत्तिरूप पुण्य क्रिया तथा उनकी अशुभ प्रवृत्तिरूप पाप क्रिया भी नहीं बन सकती। अत एव पुण्य व पापका अभाव होनेपर जन्मान्तरप्राप्तिरूप प्रत्यभाव तथा सुख व दुःखके अनभवनरूप पूण्य एवं पापका फल भी कहांसे होगा? नहीं हो सकेगा । इसलिये हे भगवन् ! जिन एकान्तवादियोंके आप नेता नहीं हैं उनके मतमें बन्ध व मोक्षकी व्यवस्था भी नहीं बन सकती ॥४॥ अब सत् कार्यके किये न जा सकनेसे उपादानोंका ग्रहण होने से, सबसे सबकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे, शक्त कारण द्वारा शक्य कार्यके ही किये जानेसे तथा कारणभाव होनेसे असत् ही कार्य उत्पन्न होता है; ऐसा कणाद ( वैशेषिकदर्शनके कर्ता ) और गौतम ( न्यायदर्शनके कर्ता ) आदि कितने ही ऋषि कहते हैं वह भी योग्य नहीं है, क्योंकि, कार्य जैसे विशेष ( घटादि आकार ) स्वरूपसे असत् है वैसे ही यदि उसे सामान्य ( मृत्तिका आदि ) स्वरूपसे भी असत् स्वीकार किया जाय तो ऐसा कार्य न तो बुद्धिका ही विषय हो सकता है और न वचनका भी । अत एव बुद्धि व वचनके अविषयभूत ऐसे कार्यके लिये स्थित कारणकलापके व्यापार का विरोध आता है। और यदि विरोध न माना जाय तो फिर जैसे मिट्टीके पिण्डसे घट उत्पन्न होता है वैसे ही उससे गधेका सीग भी उत्पन्न हो जाना चाहिये, क्योकि, असत्त्वकी ४ आ मी ३९. * काप्रती 'प्रत्य मावफलं' इति पाटः। आ मी ४०. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्कमाणुयोगद्दारे असंतकज्जवादणिरासो विसेसाभावादो। कि च -जदि पिंडे असंतो घडो समुप्पज्जइ तो वालुवादो वि तदुप्पत्ती होदु, असंतं पडि विसेसाभावादो। किं च-इदं चेव एदस्स कारणं, ण अण्णमिदि एवं पि ण जुज्जदे; णियामयाभावादो। भावे वा, कारणे कज्जस्स अत्थित्तं मोत्तूण कोवरो णियामयो होज्ज ? ण सहावो णियामओ, कज्जुप्पत्तीए पुवं कज्जस्सहावस्स* अभावादो। ण चासंतो* असंतस्स णियामयो होदि, अइप्पसंगादो। किं च-पिंडे घडो व्व तिहुवणमुप्पज्जउ, असंतं पडि भेदाभावादो। ण च एवं, परिमियकज्जुप्पत्तिदसणादो। किं च-समत्थो वि कुंभारो मट्टियपिडे घडं व पडं फिण्ण उप्पादेदि, विसेसाभावादो ? विसेसभावे वा सगसत्तं मोत्तूण कोवरो विसेसो होज्ज ? वुत्तं च-- यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्माजनि खपुष्पवत् ।। मोपादाननियामो भून्माश्वासः कार्यजन्मनि ।। ५ ।। अपेक्षा दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । दूसरे, यदि मृत्पिण्डमें अविद्यमान घट उससे उत्पन्न होता है तो वह मृत्पिण्डके समान वालुसे भी क्यों न उत्पन्न हो जावे ? अवश्य ही उत्पन्न हो जाना चाहिये, क्योंकि, असत्त्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है । ( अर्थात् जैसे वह मृत्पिण्डमें अविद्यमान है वैसे ही वह वालुमें भी अविद्यमान है । फिर क्या कारण है कि वह मृत्पिण्डसे तो उत्पन्न होता है और वालुसे नहीं उत्पन्न होता ? अत एव मानना चाहिये कि घट मृत्पिण्डमें व्यक्तिरूपसे अविद्यमान होकर भी शक्तिरूपसे विद्यमान है, किन्तु वालुमें वह शक्तिरूपसे भी विद्यमान नहीं: अतएव वह जैसे मत्पिण्डसे उत्पन्न होता है वैसे वालसे उत्पन्न नहीं हो सकता।) और भी-कार्यको सर्वथा असत् माननेपर यही इसका कारण है, अन्य नहीं है; यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, इसका कोई नियामक नहीं है । और यदि कोई नियामक है भी, तो वह कारणमें कार्यके अस्तित्वको छोड़कर दूसरा भला कौनसा नियामक हो सकता है ? यदि कहो कि स्वभाव नियामक है तो यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि, कार्योत्पत्तिके पूर्व में कार्यके स्वभावका अभाव है । और एक असत् कुछ दूसरे असत्का नियामक हो नहीं सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर अतिप्रसंग आता है । इसके अतिरिक्त-मृत्पिण्डमें जैसे घट उत्पन्न होता है वैसे ही उससे तीनों लोक भी उपत्न्न हो जाने चाहिये ; क्योंकि, असत्त्वकी अपेक्षा इनमें कोई भेद भी नहीं है । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, परमित कार्यकी उत्पत्ति देखी जाती है । इसके सिवाय समर्थ भी कुम्हार मृत्पिण्डमें जैसे घटको उत्पन्न करता है वैसे पटको क्यों नहीं उत्पन्न करता, क्योंकि, किसी भी विशेषताका यहां अभाव है । अथवा यदि कोई विशेषता है, तो वह अपने अस्तित्वको छोड़कर और दूसरी क्या हो सकती है ? कहा भी है-- यदि कार्य सर्वथा (पर्यायके समान द्रव्यसे भी असत् है तो वह आकाशकुसुमके समान उत्पन्न ही नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त वैसी अवस्थामें घटका उपादान मिट्टी है, तन्तु नहीं है, इस प्रकारका उपादाननियम भी नहीं बन सकेगा। इसीलिये अमुक कार्य अमुक कारणसे उत्पन्न होता है, अमुकसे तहीं; इस प्रकारका कोई भी आश्वासन कार्यकी उत्पत्तिमें नहीं हो सकता ।।५।। ताप्रतो 'कज्जस्स सहावस्स' इति पाठः। मप्रतिपाठोऽयम् । का-ताप्रत्योः 'णवासंतो' इति पाठः । * आ. मी. ४२. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं किं च- ण णिच्चादो कारणकलावादी असंतस्स कज्जमुप्पज्जइ, णिच्चस्स अाया दिसयस्स पमाणगोयरमइवकंतस्स अणहिलप्पस्स असंतस्स कारणत्तविरोहादो । ण कमेण कुणदि, णिच्चम्मि कमाभावादो । भावे वा, अणिच्चं होज्ज; अवत्थादो अवत्थंतरं गयस्स णिच्चत्तविरोहादो । ण च अक्कमेण कुणदि, एग ण च अकज्जं कारण समए समुप्पा दसयलकज्जस्स बिदियसमए असंतप्पसंगादो । मत्थितमल्लियइ, पमाणविसयमइक्कंतस्स अत्थित्तविरोहादो । णच अणिच्चादो कारणादो असंतं कज्जमुप्पज्जदि, अट्ठियस्त कारणत्तविरोहादो । ण ताव उप्पज्जमाणमुप्पादेदि, एगसमए चेव सव्वकज्जाणमुप्पत्तिप्पसंगादो। ण च एवं, बिदियसमए सव्वकज्जस्स अणुवलद्धिप्पसंगादो। ण च उप्पण्णमुप्पादेदि, अणवट्टियस्स दुसमयअवट्ठाण विरोहादो। ण च णट्ठं कज्ज मुप्पादेदि, अभावस्स सयलसत्तिविरहियस्स और भी - नित्य कारणकलापसे तो असत् कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, सर्वथा नित्य वस्तु अनाधेयातिशय होनेसे न प्रमाणकी विषय हो सकती है और न वचनकी भी विषय हो सकती है । इस प्रकार असत् होनेसे ( गधेके सींग के समान ) उससे कारणताका विरोध है | ( इतनेपर भी यदि उसे कारण स्वीकार किया जाता है तो यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि विवक्षित कारण क्या क्रमसे कार्यको करता है या अक्रमसे ? ) क्रमसे तो वह कार्यको कर नहीं सकता, क्योंकि, नित्यमें क्रमकी सम्भावना ही नहीं है । अथवा यदि उसमें क्रमकी सम्भा ना है तो फिर वह अनित्यताको प्राप्त होना चाहिये, क्योंकि, एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाको प्राप्त होनेपर नित्यताका विरोध है । अक्रमसे वह कार्यको करता है, यह द्वितीय पक्ष भी योग्य नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर एक समय में समस्त कार्यको उत्पन्न करके द्वितीय समय में उसके असत्त्वका प्रसंग आता है। इस प्रकारसे कार्यव्यापारसे रहित कारण अस्तित्वको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, प्रमाण ( अनुमानादि ) का अविषय होनेसे उसके अस्तित्वका विरोध है । अनित्य कारणसे असत् कार्य उत्पन्न होता है, यह बौद्धाभिमत भी ठीक नहीं है; क्योंकि, स्थिति रहित वस्तुके कारणताका विरोध है ( यदि स्थितिसे रहित अर्थ भी कारण हो सकता है तो वह क्या उत्पन्न होता हुआ कार्यको उत्पन्न करता है, उत्पन्न होकर कार्यको उत्पन्न करता है, नष्ट होकर कार्यको उत्पन्न करता है, अथवा विनष्ट होता हुआ कार्यको उत्पन्न करता है ? ) उत्पन्न होता हुआ तो वह कार्यको उत्पन्न कर नहीं सकता, क्योंकि, इस प्रकार से एक समयमें ही समस्त कार्योंके उत्पन्न होनेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर द्वितीय समय में समस्त कार्योंकी अनुपलब्धिका प्रसंग प्राप्त होता है । उत्पन्न होकर वह कार्यको उत्पन्न करता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अवस्थानसे रहित उसका दो समयोंमें रहनेका विरोध है । नष्ट हो करके वह कार्यको उत्पन्न करता है, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि, नष्ट होनेपर अभाव स्वरूपको प्राप्त हुए उसके समस्त शक्तियोंसे रहित होनेके कारण कार्यको उत्पन्न करनेका विरोध ४ काप्रती सयस्स इति पाठः । , Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्कमाणुयोगद्दारे सत्तभंगपरूबणा ( २३ कज्जुप्पायणत्तविरोहादो। अविरोहे वा, सससिंगादो वि ससी समुप्पज्जेज्ज, अभावं पडि विसेसाभावादो। ण च विणस्संतमुप्पादेदि, विणट्ठाविणटुभावे मोत्तूण विणस्संतभावस्स तइज्जस्स अणुवलंभादो । तदो णासंतं पि कज्जमुप्पज्जदि । गोभयसरूवं कज्जमुप्पज्जइ, विरोहादो उभयपक्खदोसप्पसंगादो वा । णाणुभयपक्खो वि, णीरूवस्स उप्पत्तिविरोहादो। ण च कज्जाभावो, उवलब्भमाणस्स अभावविरोहादो। तदो सिया सतं, सिया असंतं, सिया अवत्तव्वं, सिया संतं च असंतं च, सिया संतं च अवत्तव्वं च, सिया असंतं च अवत्तव्वं च, सिया संतं च असंतं च अवत्तव्वं च कज्जमुप्पज्जदि त्ति पिच्छओ कायव्वो; अण्णहा पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो। एदेसि भंगाणमत्थो वुच्चदे । तं जहा-कज्जं सिया संतमुप्पज्जदि। पोग्गलभावेण मट्टियादिवंजणपज्जाएहि य संतस्स दव्वस्स घडपज्जाएण उप्पत्तिदसणादो । सिया असंतमुप्पज्जइ, पिंडागारेण णटुस्त पोग्गलदव्वस्स घडभावेण उत्पत्तिदसणादो । सिया अवत्तव्वं कज्जमुप्पज्जइ, पोग्गलदव्वस्स अत्यपज्जाएहि वयगविसयमइक्कंतस्स घडभावेणुप्पत्तिदसणादो, विहि-- पडिसेहधम्माणं सगसरूवापरिच्चाएग अण्णोण्णाणुगयत्तादो जच्चंतरहै । और यदि इस विरोधको नहीं माना जाता है, तो फिर खरगोशके सींगसे भी चन्द्रमा उत्पन्न हो जाना चाहिये, क्योंकि, अभावकी अपेक्षा उनमें कोई विशेषता नहीं है। विनष्ट होता हुआ वह कार्यको उत्पन्न करता है, यह पक्ष भी असंगत है; क्योंकि, विनष्ट और अविनष्ट पदार्थोंको छोड़कर तीसरा कोई विनश्यमान पदार्थ पाया नहीं जाता। इस कारण सत् कार्यके समान असत् कार्य भी उत्पन्न नहीं हो सकता है। यदि कहा जाय कि उभय ( सत्-असत् ) स्वरूप कार्य उत्पन्न होता है, सो यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि, उसमें विरोध आता है । अथवा, उभय पक्षमें दिये गये दोषोका प्रसंग अनिवार्य होगा । अनुभव ( न सत् न असत् ) पक्ष भी नहीं बनता, क्योंकि, वैसी अवस्था में निःस्वरूप होनेसे उसकी उत्पत्तिका विरोध है । यदि कार्यका ही अभाव स्वीकार किया जाय तो यह भी अनचित होगा, क्योंकि, जो प्रत्यक्षादिसे उपलभ्यमान है उसका अभाव मानने में विरोध आता है । इस कारण कथंचित् सत्, कथंचित् असत् कथंचित् अवक्तव्य, कथंचित् सत् व असत्, कथंचित् सत् व अवक्तव्य, कथंचित् असत व अवक्तव्य, तथा कथंचित् सत् व असत् और अवक्तव्य कार्य उत्पन्न होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये ; क्योंकि, इसके बिना एकान्त पक्षोंमें दिये गये पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग अनिवार्य है। ___ इन भंगों का अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-कार्य कथंचित् सत् उत्पन्न होता है। क्योंकि, पुद्गल स्वरूपसे और मृत्तिका आदि व्यञ्जन पर्यायरूपसे भी सत् द्रव्यकी घट पर्याय स्वरूपसे उत्पत्ति देखी जाती है । कथंचित् वह असत् उत्पन्न होता है, क्योंकि, पिण्डरूप आकारसे नष्ट हुए पुद्गल द्रव्यको घट स्वरूपसे उत्पत्ति देखी जाती है । कथंचित् अवक्तव्य कार्य उत्पन्न होता है, क्योंकि, अर्थ पर्यायों को अपेक्षा वचनके अविषयभूत पुद्गल द्रव्यकीघट स्वरूपसे उत्पत्ति देखी जाती है, अथवा अपने स्वरूपको न छोड़कर परस्परमें अनुगत होनेसे जात्यन्तर भावको प्राप्त हुए विधि-प्रतिषेध धर्मोको कहनेवाले शब्दका अभाव है, इसलिये भी कार्य अवक्तव्य उत्पन्न होता है। .. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ) छक्खंडागमे संतकम्म मावण्णाणं पदुप्पायणसद्दाभावादो वा । कुदो जच्चंतरत्तं ? संजोग-समवाएहि विणा अण्णोण्णाणुगयत्तादो। को संजोगो ? पुधप्पसिद्धाणं मेलणं संजोगो । को समवाओ? एगत्तेण अजुवसिद्धाणं मेलणं । ण विहिप्पडिसेहाणं संजोगो, पुधप्पसिद्धीए अभावादो। ण समवाओ वि, सामण्णसरूवेण सव्वकालमण्णोण्णाजहावुत्तीए द्विदाण संबंधाणुववत्तीदो। ण च एयंतेण दुविहसंबंधाभावो, विहि-प्पडिसेहविसेसं पडुच्च तदुभयसंबंधुवलंभादो। ण च विहि-प्पडिसेहाणं पुधभावो णत्थि, भिण्णपच्चयगेज्झतेण पुधभूददव्वावट्ठाणेण च तदुवलंभादो। तदो सिद्धं जच्चंतरत्तं । सिया संतमसंतं च उप्पज्जदि णेगमणयावलंबणेण । को णेगमो? यदस्ति न तद्वयमतिलंध्य वर्तत इति नैकगमो नैगमः। सिया संतं च अवत्तव्वं च अवत्तव्वेण सह विहिधम्मप्पणाए। एवं णेगमणयमस्सिदूण द्विदसेसभंगाणं पि अत्थो वत्तव्यो । ण च शंका-- जात्यन्तरता क्यों है ? समाधान-- कारण कि वे विधि-प्रतिषेध धर्म संयोग व समवायके विना परस्परमें अनुगत हैं। शंका-- संयोग किसे कहते हैं ? समाधान-- पृथक् प्रसिद्ध पदार्थों में मेलको संयोग कहते हैं। शंका-- समवाय किसे कहते हैं ? समाधान-- अयुतसिद्ध पदार्थोंका एक रूपसे मिलनेका नाम समवाय है । विधि और प्रतिषेध धर्मोंका संयोग तो संभव नहीं है, क्योंकि, उनमें पृथसिद्धत्वका अभाव है। समवायकी भी सम्भावना नहीं हैं, क्योंकि, सामान्य स्वरूपसे सब कालमें परस्पर अजहत् वृत्तिसे स्थित उक्त दोनों धर्मोका सम्बन्ध नहीं बन सकता। और एकान्ततः इन दो प्रकारके सम्बन्धोंका अभाव हो, ऐसा भी नहीं है; क्योंकि, विधि-प्रतिषेधविशेषकी अपेक्षा वे दोनों सम्बन्ध पाये जाते हैं। विधि व प्रतिषेध धर्मोके भिन्नता नहीं हो, यह भी बात नहीं है, क्योंकि, भिन्न प्रत्यय द्वारा ग्राह्य होनेसे तथा पृथग्भूत द्रव्योंमें रहनेसे उनमे भिन्नता पायी जाती है। इसलिये उनमें जात्यन्तरत्व सिद्ध है। नैगम नयकी अपेक्षा कथंचित् सत् व असत् कार्य उत्पन्न होता है। शंका- नैगम नय किसे कहते हैं ? समाधान-- 'जो विद्यमान है वह भेद व अभेद इन दोनोंका उल्लंघन करके नहीं रहता' इस कारण जो उन दोनोंमेंसे किसी एकको विषय न करके विवक्षाभेदसे दोनोंको ही विषय करता है वह नैगम नय कहा जाता है । अवक्तव्यके साथ विधि धर्मकी प्रधानतासे कार्य कथंचित् सत् व अवक्तव्य उत्पन्न होता है। इसी प्रकार नैगम नयका आश्रय करके स्थित शेष भंगोंके भी अर्थका कथन करना चाहिये । । ४ ताप्रती 'विहिपडिसेहणं ' इति पाठः । * काप्रती 'विविह' इति पाठ:। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिबंधणाणुयोगद्दारे खणक्खइत्तणिरासो ( २५ एत्य पुव्वुत्तदोसा संभवंति, एयंतविसयाणं दोसाणमणेयंते संभवविरोहादो। को अणेयंतो णाम? जच्चंतरत्तं। उप्पत्ती णाम ण परदो, अणवत्थापसंगादो। ण सदो, असंतस्स कारणत्ताणुववत्तीदो। दोसइ च सव्वत्थाणं सत्तं, तदो णिच्चा सव्वत्था त्ति पत्थि कज्जुप्पत्ती? ण एस दोसो, पमाणगोयरमइक्कंतस्स णिच्चत्थस्स अत्थित्तविरोहादो। णिच्चत्थो पमाणविसयमइक्कतो, अक्कमेण कमेण वा तत्थ कम्म-कत्तारपज्जायाणमभावादो, भावे च अणिच्चत्तप्पसंगादो। ण च कज्जं परदो चेव उप्पज्जदि सदो वा, दव्व-खेत्त-काल-भावे पडुच्च उप्पज्जमाणकज्जुवलंभादो। ण च पमाणेण विसईकयत्थो पमाणपडिकूलदाए , अवगयअप्पमाणत्तेहि वियप्पाभासेहि अण्णहा काउं सक्किज्जदि, अव्ववत्थापसंगादो। वत्थुविणासो ण परदो होदि, पसज्ज-पज्जुदासलक्खणअभावाणमणेहितो उप्पत्ति यहां पूर्वोक्त ( सत् व असत् एकान्त पक्षमें दिये गये ) दोषोंकी भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, एकान्तको विषय करनेवाले दोषोंकी अनेकान्तके विषयमें सम्भावना नहीं है । शंका-- अनेकान्त किसे कहते हैं ? समाधान-- जात्यन्तरभावको अनेकान्त कहते हैं । शंका-- उत्पत्ति किसी दूसरेसे नहीं हो सकती, क्योंकि, ऐसा होनेपर अनवस्थाका प्रसंग आता है । ( अर्थात् विवक्षित घटादि कार्योंकी उत्पत्ति जिस किसी दूसरेसे होती हैं, वह भी अन्य किसी दसरेसे ही उत्पन्न होगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर कल्पना करनेपर व्यवस्था नहीं बनेगी, इसलिये अनवस्था दोष सम्भव है।) यदि कहा जाय कि कार्य किसी दूसरेसे उत्पन्न न होकर स्वतः उत्पन्न होता है, तो यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि, असत् पदार्थके कारणता बन नहीं सकती। और चंकि सब पदार्थों का सत्त्व देखने में आता है, इसीलिये समस्त पदार्थोके नित्य होनेसे कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नित्य पदार्थ चूंकि प्रमाणगोचर नहीं है, अर्थात् प्रत्यक्ष व अनुमानादि किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, अत एव उसके अस्तित्वका विरोध है। नित्य अर्थ प्रमाणका विषय नहीं है, क्योंकि, युगपत् अथवा क्रमसे उसमें कर्म व कर्ता रूप पर्यायोंका अभाव है। और यदि उनका सद्भाव है तो फिर उसके अनित्य होनेका प्रसंग आता है। इसके अतिरिक्त कार्य परसे ही उत्पन्न होता हो अथवा स्वतः ही उत्पन्न होता हो, यह बात भी नहीं है; क्योंकि, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय करके उत्पन्न होनेवाला कार्य पाया जाता है । दूसरे, प्रमाणके प्रतिकूल होनेसे जिनकी अप्रमाणता ज्ञात हो चुकी है ऐसे विकल्पाभासों ( परत: उत्पन्न हैं या स्वतः उत्पन्न हैं, इत्यादि ) के द्वारा प्रमाणसे विषय किया गया पदार्थ अन्यथा करनेके लिये शक्य नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे अव्यवस्थाका प्रसंग आता है। शंका-- वस्तुका विनाश परके निमित्तसे नहीं होता है, क्योंकि, प्रसज्य व पर्युदासरूप ४ काप्रती ' पडिकुलदाए' इति पाठ: । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं विरोहादो । तदो णिरहेउओ विणासो । वृत्तं च भास्ते० - जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न च ध्वस्तो नश्येत् पश्चात् स केन : १ ।। ६ ।। araaणो च ण कज्जमुपज्जदि, उप्पण्णुप्पज्जमाणेहिंतो कज्जुप्पत्तिविरोहादो । तदो ण कज्जमुप्पज्जदि त्ति ? ण, उप्पत्तीए विणा खणखइत्तविरोहादो । ण चाणुप्पण्णं विणस्सदि, गद्दहसिंगस्स वि विणासप्पसंगादो । ण च खणक्खइवत्थू अत्थि, पमाणपमेयाणमभावप्यसंगादो । वृत्तं च क्षणिकान्तपक्षेsपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ।। ७ ।। तदो उप्पाद-ट्ठिदि-भंगलक्खणं सव्वं दव्वं ति इच्छेयव्वं । उत्तं च अभावोंका दूसरोंसे उत्पन्न होने का विरोध है । इसीलिये विनाश निर्हेतुक है। कहा भी है भाष्य मेंपदार्थोंके विनाश में जाति ( उत्पत्ति ) को ही कारण माना जाता है । परन्तु जो उत्पन्न होकर भी नष्ट नहीं होता है वह फिर पीछे आपके यहां किसके द्वारा नाशको प्राप्त होगा ? नहीं हो सकेगा ।। ६ ।। दूसरे, क्षणक्षयी कारणसे कार्य उत्पन्न भी नहीं हो सकता है, क्योंकि उत्पन्न अथवा उत्पद्यमान कारणों से कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है । इस कारण कार्य उत्पन्न नहीं होता । समाधान - ऐसा जो बौद्धका कहना है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उत्पत्ति के विना क्षणक्षयित्वका विरोध है । पदार्थ उत्पन्न हुए विना नष्ट नहीं हो सकता; क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर गधेके सींगके भी विनाशका प्रसंग आता है । दूसरे क्षणक्षयी वस्तुका अस्तित्व ही सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रमाण और प्रमेय दोनोंके अभावका प्रसंग आता है । कहा भी है क्षणिक एकान्त पक्ष में भी प्रत्यभिज्ञान आदिका अभाव होनेसे कार्यका आरम्भ नहीं हो सकता, और जब कार्यका आरम्भ नहीं हो सकता है तब उसके अभाव में भला पुण्य एवं पाप रूप फलकी सम्भावना कहांसे की जा सकती है ? तथा पुण्य व पापका अभाव होनेपर जन्मान्तर रूप प्रेत्यभाव एवं बन्ध - मोक्षादिका भी सद्भाव नहीं रह सकता ।। ७ ।। विशेषार्थ - सब पदार्थ क्षणक्षयी हैं, ऐसा एकान्त स्वीकार करनेपर स्मृति व प्रत्यभिज्ञान आदिकीं सम्भावना नहीं की जा सकती है। कारण कि स्मृति पूर्वमें अनुभव किये गये पदार्थ के विषय में ही होती है । परन्तु जिसका वर्तमान में अनुभव किया गया है वह तो उसी क्षण में उत्पन्न होने के साथ ही नष्ट हो चुका। इस प्रकार विषयका अभाव होनेसे स्मरण ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता । स्मरणके अभाव में प्रत्यभिज्ञान भी असम्भव है, क्योंकि, प्रत्यक्ष व स्मरण के काप्रती 'भाष्ये', ताव्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । * काप्रती 'विणासपसंगादो विइति । ति पाठ: । उद्धतेयं कारिका कसा पाहुडे १, आ. मी. ४१. Jain Education Internal hal२२७. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्कमाणुयोगद्दारे दव्वस्स उप्पादादिसरूवत्तं (२७ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। ८ ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ९ ॥ साथ निमित्तसे 'यह वही देवदत्त है, गायके सदृश गवय होता है ' इस प्रकार जो एकत्व व सादृश्य आदि विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। पदार्थके सर्वथा क्षणिक होनेपर पूर्वोत्तर अवस्थाओंमें रहनेवाले एकत्व आदि धर्मोके असम्भव होनेसे उक्त लक्षणवाले प्रत्यभिज्ञानकी भी सम्भावना नहीं की जा सकती है। इस प्रकार स्मरण व प्रत्यभिज्ञान आदिके तर अवस्थाओं में अवस्थित एक प्रमाता आत्माके भी न रह सकनेसे कार्यका आरम्भ नहीं हो सकता । कार्यके अभावमें उसके फल स्वरूप पुण्य-पाप एवं बन्ध-मोक्ष आदि भी नहीं बन सकते। अतएव वह क्षणिक एकान्त पक्ष ग्राह्य नहीं है। इसलिये सब द्रव्यको उत्पाद, स्थिति ( ध्रौव्य ) व भंग ( व्यय ) स्वरूप स्वीकार करना चाहिये । कहा भी है-- घट, मुकुट और सुवर्णसामान्यका अभिलाषी यह मनुष्य क्रमशः घटके नाश, मुकुटके उत्पाद और सुवर्णसामान्यकी स्थिति में शोक, प्रमोद एवं माध्यस्थ्य भावको प्राप्त होता है । यह सहेतुक है, अकारण नहीं है ।। ८ ॥ विशेषार्थ- यहां वस्तुको उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप सिद्ध करनेके लिये निम्न प्रकार लौकिक दृण्टान्त दिया गया है-कल्पना कीजिये कि तीन मनुष्य क्रमसे सुवर्णघट, सुवर्णका मुकुट एवं सुवर्णसामान्यकी अभिलाषासे किसी विशेष दूकानपर जाते हैं । इसी समय दुकानदारके द्वारा सुवर्णघटको नष्ट करके मुकुटका निर्माण करानेपर उनमेंसे सुवर्णघटका अभिलाषी दुखी, मुकुटका अभिलाषी हर्षित और सुवर्णसामान्यका ग्राहक हर्ष-विषाद दोनोंसे ही रहित होकर मध्यस्थ रहता है। अब यदि कार्यका विनाश न होता तो घटके नष्ट होनेपर तदभिलाषी व्यक्तिको दुखी न होना चाहिये था । इसी प्रकार यदि कार्यका उत्पाद न होता तो मुकुटाभिलाषी व्यक्तिका हर्षित होना असंगत था। निरन्वय विनाशके होनेपर ( ध्रौव्यके अभावमें ) सुवर्णसामान्यके ग्राहककी उदासीनता भी स्थिर नहीं रह सकती थी। परन्तु चूंकि व्यवहारमें वैसा देखा जाता है, अतएव द्रव्यको उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप मानना ही चाहिये। 'मैं केवल दूधको ग्रहण करूंगा' ऐसा नियम लेनेवाला व्यक्ति दहीको नहीं खाता है, 'मैं केवल दही खाऊंगा' ऐसा नियम रखनेवाला व्यक्ति दधको नहीं लेता है. तथा । या में गोरससे भिन्न पदार्थको ग्रहण करूंगा ' ऐसा व्रत लेनेवाला व्यक्ति दूध व दही दोनोंको ही नहीं खाता है। इसीलिये वस्तुतत्त्व उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य इन तीनों स्वरूप है ॥ ९॥ विशेषार्थ- पर्याय स्वरूपसे होनेवाले उत्पाद व व्ययमें न सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद ही है, किन्तु वे कथंचित् भेदाभेदको प्राप्त हैं । कारण कि दूधके अपने स्वरूपको छोड़कर दही रूपमें परिणत होनेपर भी यदि उनमें सर्वथा अभेद ही स्वीकार किया जाय तो दूधका " आ. मी. ५९. " आ. मी. ६० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ) सव्वं पिवत्थु पि विहि-पडिसेहप्पयं ति घेत्तव्वं, अण्णहा कज्ज-कारणभावविरोहादों । वृत्तं च- छक्खंडागमे संतकम्मं न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात् सहैकत्रोदयादि सत् ।। १० ।। भावैकान्ते पदार्थांनामभावानामपह्नवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् नियम करनेवाले के दहीका ग्रहण तथा दहीका नियम करनेवालेके दूधका ग्रहण करना अनुचित ठहरेगा । उसी प्रकार अन्वय प्रत्ययके विषयभूत गोरस सामान्यसे भी दूध व दही रूप विशेषोंको यदि सर्वथा भिन्न स्वीकार किया जाय तो गोरस-भिन्न भोजनका नियम करनेवालेके उन दोनोंका त्याग करना अयुक्तिसंगत होगा । परन्तु ऐसा है नहीं, अतएव सिद्ध है कि वस्तुतत्त्व अनेकातसे अनुगत होकर उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य स्वरूप ही है । कोई भी वस्तु सामान्य स्वरूपसे न उत्पन्न होती है और न नष्ट भी होती है, क्योंकि, इनमें सामान्य स्वरूपसे स्पष्टतया अन्वय देखा जाता है । किन्तु वही विशेष स्वरूपसे नष्ट भी होती है और उत्पन्न भी होती है । हे भगवन् ! इस प्रकार आपके मतमें एक ही वस्तुमें उत्पादादि तीनों ही एक साथ रहते हैं । इन्हीं तीनोंसे युक्त वस्तुको सत् कहा जाता है ॥ १० ॥ विशेषार्थ -- पूर्वोत्तर पर्यायोंमें रहनेवाले साधारण स्वभावका नाम सामान्य है, जैसे सुवर्णसे उत्तरोत्तर होनेवाली कटक व कुण्डलादि रूप पर्यायोंमें सुवर्णसामान्य । इसकी अपेक्षा वस्तुका उत्पाद व विनाश सम्भव नहीं है, क्योंकि, कटकरूप पर्यायका नाश होकर कुण्डल रूप पर्याय के उत्पन्न होनेपर भी 'यह वही सुवर्ण है जिसके पहिले कटक बनवाये गये थे ' ऐसा अन्वय प्रत्यय पाया जाता है। उत्पाद व विनाश केवल विशेष (पर्याय) की अपेक्षा होता है । यदि कटक व कुण्डल रूप आकारके समान सुवर्णद्रव्यका भी विनाश व उत्पाद हुआ तो उन दोनोंमें समान रूपसे सुवर्णत्वका बोध नहीं हो सकता था । परन्तु होता अवश्य है, अतः सिद्ध है कि सामान्य स्वरूपसे वस्तु उत्पाद-व्ययसे रहित होकर कथंचित् नित्य और वही विशेषकी अपेक्षा कथंचित् अनित्य भी है । ये सामान्य और विशेष धर्म भी परस्पर सापेक्ष रहते हैं, न कि निरपेक्ष । इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही वस्तुमें एक साथ पाये जाते हैं । इन्हीं तीनोंसे युक्त वस्तुको सत् कहा जाता है और यही द्रव्यका लक्षण है । आ. मी.५७. ॥। ११ ॥ सभी वस्तु विधि-प्रतिषेधात्मक है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि, इसके विना कार्य-कारणभावका विरोध है । कहा भी है अस्तित्वविषयक एकान्त पक्षमें अभावोंका अपलाप होनेसे दूसरोंके मत में पदार्थो सर्वरूपता, अनादिता, अनन्तता और अस्वरूपताका प्रसंग आता है ।। ११ ।। * विशेषार्थ -- सांख्योंका अभिमत है कि सब पदार्थ सत्स्वरूप ही हैं, कोई भी असत् ( अभाव ) स्वरूप नहीं हैं । उनमें जो परावर्तित अवस्थायें देखी जाती हैं वे आविर्भाव व तिरोभावके कारण होती हैं । उनके यहां निम्न २५ तत्त्व स्वीकार किये गये हैं- पुरुष, प्रकृति, महान् आ. मी ९. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. मी. १०. पक्कमाणुयोगद्दारे भावेयंतरासो कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य नि नवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ।। १२ ।। सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्रसमवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥ ३१ ॥ ( बुद्धि ), अहंकार, ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय ( वाक् पाणि, पाद, पायु व उपस्थ), मन, पांच तन्मात्र ( गन्ध, रस, रूप, स्पर्श व शब्द ) और पांच भूत ( पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश ) । इनमें प्रकृति कर्त्री और पुरुष भोक्ता है । प्रकृतिसे महान् महान्से अहंकार, अहंकारसे ग्यारह इन्द्रियां व पांच तन्मात्र, तथा पांच तन्मात्रोंसे पांच भूतोंका आविर्भाव और इसके विपरीत क्रमसे उन सबका तिरोभाव ( जैसे पृथिव्यादि पांच भूतोंका तिरोभाव गन्धादि पांच तन्मात्रों में ) होता है । इस प्रकार सांख्यमतमें सब कार्य सत् ही हैं । उनके इस एक पक्षको दूषित करते हुए उपर्युक्त कारिकामें कहा गया है कि सब पदार्थोंको सर्वथा सत् माननेपर अन्योन्याभाव, प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अत्यन्ताभाव, ये चारों ही अभाव नहीं बन सकेंगें । इनमें से महान् व अहंकारादिमें प्रकृतिका तथा प्रकृतिमें महदादिका अन्योन्याभाव न रहने से महदादिक प्रकृतिस्वरूप व प्रकृति महदादिस्वरूप भी हो सकती है । इस प्रकार अन्योन्याभावके अभाव में सबके सब स्वरूप हो जानेका प्रसंग अनिवार्य होगा । इसी प्रकार प्रागभाव ( कार्योत्पत्ति के पूर्व में उसका अभाव । के न रह सकनेसे महदादिके अनादिताका तथा प्रध्वंसाभाव ( विनाश) के न रहनेसे उनके अनन्तताका प्रसंग भी दुर्निवार होगा । साथ ही प्रकृति में भोक्तृत्वका तथा पुरुषमें कर्तृत्वका अत्यन्ताभाव न रहनेपर प्रकृति व पुरुषका कोई निश्चित लक्षण भी नहीं बन सकेगा, अतः निःस्वरूपताका प्रसंग भी कैसे टाला जा सकेगा ? इसीलिये उक्त एकान्त पक्ष ग्राह्य नहीं हो सकता । प्रागभावका अपलाप होनेपर कार्यरूप द्रव्यके अनादि हो जानेका प्रसंग आता है । तथा प्रध्वंसरूप धर्मका ( प्रध्वंसाभावका ) अभाव होनेपर वह अनन्तता ( अविनश्वरता ) को प्राप्त हो जावेगा ।। १२ ।। विशेषार्थ --- कार्यके उत्पन्न होनेके पूर्व में जो उसकी अविद्यमानता है उसे प्रागभाव कहा जाता है । इसको न माननेपर घटपटादि कार्य अपने स्वरूपलाभ ( उत्पत्ति ) के पूर्व में भी विद्यमान ही रहना चाहिये । इस प्रकार प्रागभावके अभाव में घटादि कार्योंके अनादि हो जानेका अनिष्ट प्रसंग आता है । कार्य के विनाशका नाम प्रध्वंसाभाव है । इसे स्वीकार न करनेपर चूंकि घटादि कार्योंका उत्पन्न होने के पश्चात् कभी विनाश तो होगा ही नहीं, अत एव उनके अनन्त ( अन्त रहित ) हो जानेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, घटादि पर्यायविशेषोंका अपनी उत्पत्ति के पूर्व में और विनाशके पश्चात् उन उन आकारविशेषोंमें अवस्थान देखा नहीं जाता। अत एव यह स्वीकार करना चाहिये कि पदार्थ सर्वथा भाव ( अस्तित्व ) स्वरूप नहीं है, किन्तु अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वे कथंचित् भावस्वरूप तथा दूसरे पदार्थोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा कथंचित् अभावस्वरूप भी हैं । अन्यापोह ( अन्योन्याभाव ) का उल्लंघन होनेपर विवक्षित कोई एक तत्त्व सब तत्त्वों आ. मी. ११. ( २९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ) छक्खंडागमे संतकम्मं ।। १४ ।। अभावैकान्तपक्षेऽपि भावापहन्ववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधन- दूषणम् विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते, ॥ १५ ॥ स्वरूप हो जावेगा । अन्यत्रसमवाय, अर्थात् ज्ञानादि गुणविशेषोंका अपने समवायी ( आत्मादि) के अतिरिक्त दूसरे समवायीमें समवाय होनेपर अर्थात् अत्यन्ताभाव के अभाव में अभीष्ट स्वरूपसे किसी भी तत्त्वका निर्देश नहीं किया जा सकेगा ।। १३ ।। विशेषार्थ -- विवक्षित स्वभावकी दूसरे स्वभावोंसे रहनेवाली भिन्नताका नाम अन्योन्याभाव है, जैसे गायरूप स्वभाव । पर्याय ) की अश्वादि स्वभावोंसे रहनेवाली भिन्नता । इस अन्योन्याभावको न माननेपर गाय अश्वस्वरूप और अश्व गायस्वरूप भी हो सकता है । इस प्रकार द्रव्यकी सब पर्यायें सभी पर्यायों स्वरूप हो सकती हैं । इससे लोकव्यवहारका विरोध होगा । अत एव द्रव्यकी विभिन्न पर्यायोंमें परस्पर भेदको प्रगट करनेवाले अन्योन्याभावको स्वीकार करना ही चाहिये । एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यसम्बन्धी असाधारण गुणोंके कालिक अभावको अत्यन्ताभाव कहा जाता है, जैसे पुद्गल द्रव्य में चैतन्य गुणका अभाव और जीव द्रव्यमें रहनेवाला रूपादि गुणों का अभाव। इस अत्यन्ताभावको स्वीकार न करनेसे एक द्रव्य गुणोंका दूसरे द्रव्यमें समवाय सम्भव होनेपर दूसरोंके द्वारा कल्पित प्रकृति-पुरुषादिरूप तत्त्वोंका नियमित स्वरूप नहीं बन सकेगा । अत एव तत्त्वव्यवस्थाको स्थिर रखनेके लिये अत्यन्ताभावका भी अपलाप नहीं किया जा सकता है । 'कोई भी पदार्थ सत्स्वरूप नहीं है' इस प्रकारसे सर्वथा अभाव पक्षको स्वीकार करनेपर भी सत्स्वरूपताका अपलाप करनेवाले शून्यैकान्तवादियों ( माध्यमिक ) के यहां बोधरूप स्वार्थानुमान और वाक्यरूप पदार्थानुमान प्रमाणका भी सद्भाव नहीं रह सकेगा । ऐसी अवस्था में शून्यता रूप स्वपक्षकी सिद्धि किस प्रमाणसे की जावेगी, तथा सत्स्वरूप पदार्थको स्वीकार करनेवाले अन्य वादियोंके पक्षको दूषित भी किस प्रमाणके द्वारा किया जावेगा ? ॥ १४ ॥ विशेषार्थ —— ' पदार्थोंकी जिस स्वरूपसे प्ररूपणा की जाती है वह उनका स्वरूप वास्तव में ह नहीं, क्योंकि, पदार्थोंके एकानेकरूपता बनती नहीं है । अत एव बाह्य या आभ्यन्तर कोई भी पदार्थ सत्स्वरूप नहीं है ।' यह शून्यैकान्तवादी माध्यमिकोंका अभिमत है । इस एकान्त पक्षको असंगत बतलाते हुए यहां कहा गया है कि जो वादी शून्यमय जगत्को स्वीकार करते हैं उनके यहां सत् स्वरूप किसी भी पदार्थके न रहनेसे अपने अभीष्ट ( शून्यता ) पक्ष के साधक और परपक्ष ( सत्स्वरूपता ) को दूषित करनेवाले अनुमानादि प्रमाणकी भी सत्ता सम्भव नहीं है । और ऐसा होनेपर प्रमाणके अभाव में उनका अभीष्ट तत्त्व भी सिद्ध नहीं हो सकता । इसलिये यदि स्वपक्षको सिद्ध करनेके लिये किसी प्रमाणविशेषकी सत्ता स्वीकार की जाती है। तो उसके सद्भावमें ‘सर्वथा शून्यमय जगत् है वह उनका एकान्त पक्ष नहीं रहता । · ' पदार्थ सत् व असत् स्वरूप हैं' इस प्रकार अनेकान्तविरोधियों के यहां उभयस्वरूपताका भी एकान्त पक्ष नहीं बनता, क्योंकि, उसमें विरोध है । तथा 'पदार्थ सर्वथा वचनके अगोचर आमी १२ आ. मी. १३. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्कमाणुयोगद्दारे अणेयं तसिद्धी कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥ १६ ॥ हैं' इस प्रकारका भी एकान्त पक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर ' अवाच्य हैं' इस वाक्यका प्रयोग भी अयुक्त होगा ।। १५ ।। 1 विशेषार्थ -- जो वादी पदार्थको सत् व असत् ( उभय ) स्वरूप मानकर भी उन दोनों धर्मो परस्पर सापेक्षता स्वीकार नहीं करते उनके यहां उभयस्वरूपता भी असम्भव है, क्योंकि, जिस स्वरूपसे वे सत् हैं उसी स्वरूपसे उन्हें असत् माननेमें विरोध आता है । इस प्रकार स्याद्वाद न्यायके विना उक्त प्रकारसे उभय स्वरूपता भी नहीं बनती। किन्तु स्याद्वादका अवलम्बन करनेपर पदार्थको उभय ( सत् असत् ) स्वरूप माननेमें कोई विरोध नहीं रहता कारण कि स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा सत्स्वरूप वस्तुको परकीय द्रव्य ' क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत्स्वरूप भी मानना ही पडेगा, क्योंकि, इसके विना सबके सब स्वरूप हो जानेका अनिवार्य प्रसंग आनेसे घटपटादि पदार्थोंमें विभिन्नरूपता सम्भव नहीं है । जो वादी ( बौद्ध ) सत् व असत् पक्षोंमें दिये गये दोषोंके परिहारकी इच्छासे तत्त्वको अवक्तव्य स्वीकार करते हैं वे अपने इस अभिमतका परिज्ञान दूसरोंको किस प्रकारसे करावेंगे ? कारण कि स्वसंवेदनसे तो दूसरोंको समझाया नहीं जा सकता है । यदि कहा जाय कि तत्त्व क्षणक्षयी व कल्पनातीत होनेसे अवाच्य है' इत्यादि वाक्योंके द्वारा दूसरोंको समझाया जा सकता है, सो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि, ऐसा होनेपर ' सर्वथा अवक्तव्य है यह सिद्धान्त स्वयमेव खण्डित हो जाता है । यह कथन तो उस व्यक्ति के समान स्ववचनबाधित ह जो कि 'मैं मौनव्रती हूं' इन शब्दोंके द्वारा अपने मौनव्रतकी सूचना देता है । , ( ३१ हे भगवन् ! आपका अभीष्ट तत्त्व कथंचित् सत् स्वरूप ही है, वह कथंचित् असत् स्वरूप ही है, कथंचित् उभय ( सत्-असत् ) स्वरूप भी है, और कथंचित् अवाच्य भी है । वह अभीष्ट तत्त्व नयके सम्बन्धसे ऐसा है, सर्वथा वैसा नहीं है ॥ १६ ॥ विशेषार्थ -- उक्त प्रकारसे सत्, असत्, उभय और अवाच्य स्वरूप एकान्त पक्षोंमें दोषोंको दिखाकर यहां इस कारिकाके द्वारा सप्तभंगीको प्रगट किया गया है । यद्यपि कारिकामें चार ही भंगों का निर्देश है, तथापि उसमें प्रयुक्त 'च' शब्दके द्वारा शेष तीन भंगोंकी भी सूचना कर दी गयी है । प्रश्नके वश एक ही वस्तुमें विधि व निषेधकी कल्पना करनेको सप्तभंगी कहा जाता है । वह नयविवक्षाके अनुसार ही सम्भव है, न कि सर्वथा । वे सात भंग निम्न प्रकार हैं(१) कथंचित् घट सत् स्वरूप है । इसमें द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे विधिकी कल्पना की गई है, क्योंकि, घटादिक सभी पदार्थ अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे सत् स्वरूप ही हैं । यदि उन्हें अपने द्रव्यादिककी अपेक्षा सत् न माना जाय तो फिर वे खरविषाणके समान वस्तु ही नहीं रहेंगे । (२) कथंचित् घट असत् स्वरूप है । इसमें पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे प्रतिषेधकी कल्पना की गई है, क्योंकि, परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे घट असत् ही है । यदि परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा विवक्षित वस्तुको असत् न स्वीकार किया जावे तो जिस प्रकार घट आ मी १४ सिय अस्थि णत्थि उहह्यं अव्वत्तव्वं पुणो यतत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभगं आदेसवसेण संभवदि ।। पंचा. १४. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं ण च एयादो अणेयाणं कम्माणं वुप्पत्ती विरूद्धा, कम्मइयवग्गणाए अनंताणंतसंखाए अटुकम्मपाओग्गभावेण अट्ठविहत्तमावण्णाए एयत्तविरोहादो | णत्थि एत्थ एयंतो, एयादो घडादो अणेयाणं खप्पराणमुप्पत्तिदंसणादो । वृत्तं च-कम्मं ण होदि एयं अणेयविहमेय बंधसमकाले । मूलुत्तरपयडीणं परिणामवसेण जीवाणं ।। १७ ।। जीवपरिणामाणं भेदेण परिणामिज्ज माणकम्मइथवग्गणाणं भेदेण च कम्माणं बंधसमकाले चेव अणेयविहत्तं होदित्ति घेत्तव्वं । कधं मुत्ताणं कम्माणममुत्तेण जीवेण सह संबंधो ? ण, अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्त संसारावत्थाए अमुत्तत्ताभावादो | अणादिबंधो । स्वकीय द्रव्यादिसे सत् है, उसी प्रकार वह परकीय द्रव्यादिककी अपेक्षा भी सत् ही ठहरेगा । और वैसा होनेपर ' यह घट है, पट नहीं है' इस प्रकारका भेद न रह सकनेसे सबके सब स्वरूप हो जानेका प्रसंग अनिवार्य होगा । अतएव अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा वस्तु जैसे सत् है वैसे ही वह परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा असत् भी है, यह मानना ही चाहिये । ( ३ ) कथंचित् घट सत् व असत् ( उभय ) स्वरूप है यहां द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा क्रमसे विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है । कारण कि यदि ऐसा न माना जाये तो फिर घटादि वस्तुओंमें क्रमशः होनेवाले सत् व असत् रूप विकल्पके व्यवहारका विरोध होगा । ( ४ ) कथंचित् घट अवक्तव्य है । इसमें युगपत् विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है। चूंकि सत् व असत् रूप दोनों धर्मो को एक साथ सूचित करनेवाला कोई भी शब्द सम्भव नहीं है, अतएव उस अवस्थामें वस्तुको अवक्तव्य मानना उचित ही है । च' शब्द से सूचित शेष तीन भंग( ५ ) कथंचित् घट सत् व अवक्तव्य है । यहां विधिके साथ ही युगपत् विधि व प्रतिषेध की कल्पना की गई है । ( ६ ) कथंचित् घट असत् व अवक्तव्य है । यहां प्रतिषेधके साथ युगपत् विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है । ( ७ ) कथंचित् घट सत्-असत् व अवक्तव्य है । यहां क्रमशः विधि व प्रतिषेधकी कल्पना के साथ युगपत् भी विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है । इस प्रकार ये सात वाक्य ही सम्भव है । प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ भंगों में दो अथवा तीन के संयोग से उत्पन्न वाक्य इन्हीं में अन्तर्भूत होंगे, उनसे भिन्न सम्भव नहीं हैं । " इसके अतिरिक्त एकसे अनेक कर्मोंकी उत्पत्ति विरुद्ध है, ऐसा कहना भी अयुक्त है; क्योंकि, आठ कर्मोंकी योग्यतानुसार आठ भेदको प्राप्त हुई अनन्तानन्त संख्यारूप कार्मण वर्गणाको एक माननेका विरोध है । दूसरे, एकसे अनेक कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होती; ऐसा एकान्त भी नहीं है, क्योंकि, एक घटसे अनेक खप्परोंकी उत्पत्ति देखी जाती है । कहा भी है-कर्म एक नहीं है, वह जीवों के परिणामानुसार मूल व उत्तर प्रकृतियों के बन्ध समान कालमें ही अनेक प्रकारका है ।। १७ ।। जीवपरिणामोंके भेदसे और परिणमायी जानेवाली कार्मण वर्गणाओंके भेदसे बन्धके समकालमें ही कर्म अनेकप्रकारका होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । शंका-- • मूर्त कर्मोंका अमूर्त जीवके साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, अनादिकालीन बन्धनसे बद्ध रहनेके कारण जीवका संसार ताप्रती " ण इत्येतत्पदं नास्ति । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्कमाणुयोगद्दारे जीवस्स मुत्तामुत्तत्तविआरो कुदो गव्वदे ? जीव-सरीराणं वट्टमाणबंधण्णहाणुववत्तीदो। ण च वट्टमाणबंधघडावणठें जीवस्स विरूवित्तं वोत्तुं जुत्तं, जीव-देहाणं महापरिमाणत्तादो रूवित्तणेण च उवलद्धिलक्खणपत्ताणं रूव-रस-गंध-पासाणं पुधभूदाणमुवलंभप्पसंगादो। कि चण जीवदव्वमत्थि, रूपिणः पुद्गलाः' इच्चेदेण लक्खणेण जीवाणं पोग्गलेसु अंतभावादो। ण च दव्वं दवंतरस्स असाहारणगुणेण परिणमइ, अच्चंताभावेण णिरुद्धपवुत्तीदो। काणि दवाणमसाहारणलक्खणाणि ? चेयणलक्खणं जीवदव्वं, रूवरस-गंध-पासलक्खणं पोग्गलदव्वं, ओगाहणलक्खणमायासदव्वं, जीव-पोग्गलाणं गमणागमणणिमित्तकारणं धम्मदव्वं, तेसिमवट्ठाणस्स णिमित्तकारणलक्खणमधम्मदव्वं, दव्वाणं परिणमणस्स णिमित्तकारणलक्खणं कालदव्वं । कि दव्वं णाम ? स्वकासाधारणलक्षणापरित्यागेन द्रव्यांतरासाधारणलक्षणपरिहारेण द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं । तदो जीवो अमुत्तो चेव, पोग्गलस्स असाहारणगुणेहि तस्स परिणामाभावादो । मिच्छत्तासंजम--कसाय--जोगा अवस्थामें अमूर्त होना सम्भव नहीं है । शंका-- अनादिबन्धका परिज्ञान किस प्रमाणसे होता है ? समाधान-- चूंकि जीव और शरीरका वर्तमान बन्ध अनादिबन्धके विना बन नहीं सकता है, अत एव इस अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुसे उसका ज्ञान हो जाता है। शंका-- वर्तमान बन्धको घटित करानेके लिये पुद्गलके समान जीवको भी रूपी कहना योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर जीव और शरीर दोनों चूंकि महान् परिमाणवाले हैं और रूपी भी हैं; अतएव वे इन्द्रियग्राह्य हो जाते हैं । इसलिए उनके रूप, रस, गन्ध और स्पर्शके अलग अलग ग्रहण होनेका प्रसंग आता है । दूसरे, जीव द्रव्यको इस प्रकारसे रूपी स्वीकार करनेपर उसका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, क्योंकि, 'जो रूपी हैं वे पुद्गल हैं। इस सूत्रोक्त लक्षणके अनुसार रूपी माननेसे जीवोंका पुद्गलोंमें अन्तर्भाव हो जाता है। तीसरे, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके असाधारण गुणरूपसे परिणत भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसी प्रवृत्ति अत्यन्ताभावके द्वारा रोकी जाती हैं। द्रव्योंके असाधारण लक्षण कौनसे हैं? जीव द्रव्यका असाधारण लक्षण चेतना; पुद्गल द्रव्यका रूप, रस, गन्ध व स्पर्श ; आकाश द्रव्यका अवगाहन, धर्म द्रव्यका जीवों और पुद्गलोंके गमनागमनमें निमित्तकारणता, अधर्म द्रव्यका उक्त जीवों और पुदगलोंके अवस्थानमें निमित्तकारणता, तथा काल द्रव्यका असाधारण लक्षण द्रव्योंके परिणमनमें निमित्तकारण होता है । द्रव्य किसे कहते हैं ? अपने असाधारण स्वरूपको न छोड. कर दूसरे द्रव्योंके असाधारण स्वरूपका परिहार करते हुए जो उन उन पर्यायोंकों वर्तमानमें प्राप्त होता है, भविष्यमें प्राप्त होगा व भूतकालमें प्राप्त हो चुका है वह द्रव्य कहलाता है । इसलिये जीव अमूर्तिक ही है, क्योंकि, पुद्गल द्रव्यके जो रूप और रसादिक असाधारण गुण हैं उनके स्वरूपसे उसका परिणमन हो नहीं सकता। तथा मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और - कापतो 'वि' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते। * तत्त्वा० ५-५. यथास्वं पर्याययन्ते द्रवन्ति व तानि द्रव्याणि । स, सि ५-२. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ) छक्खंडागमे संतकम्म जीवादो0 अपुधभूदा कम्मइयवग्गणक्खंधाणं तत्तो पुधभूदाणं कधं परिणामांतरं संपादेति ? णं एस दोसो, जलणट्टिददहणगुणेण तेल्लस्स वट्टिगयस्सरी कज्जलागारेण परिणामुवलंभादो । वुत्तं च-- . राग-द्वेषायूष्मा स योग*-वात्मदीप आवर्ते । स्कन्धानादाय पुनः परिणमयति तांश्च कर्मतया ।। १८ ॥ जदि मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मइयवग्गणक्खंधा अटकम्मागारेण परिणमंति तो एगसमएण सव्वकम्मइयवग्गणक्खंधा कम्मागारेण कि ण परिणमंति, णियमाभावावो? ण, दव्व-खेत्त-काल-भावे त्ति चदुहि णियमेहि णियमिदाणं परिणामुवलंभादो। दव्वेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव वग्गणाओ एगसमएण एगजीवादो कम्मसरूवेण परिणमंति। खेत्तेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तोगाहणाओ जीवेणोगाढखेत्तट्टियाओ चेव परिणमंति, ण सेसाओ। कालेग एगसमयमादि कादूण जाव असंखेज्जलोगमेत्तकाल कम्मइयवग्गणसरूवेण द्विदाओ चेव परिणमंति, ण सेसाओ। योग ये जीवसे अभिन्न होकर उससे पृथग्भूत कार्मण वर्गणाके स्कन्धोंके परिणामान्तर ( रूपित्व ) को कैसे उत्पन्न करा सकते हैं ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अग्निमें स्थित दहन गुणके निमित्तसे बत्तीमें रहनेवाले तेलका कज्जलके आकारसे परिणाम पाया जाता है। कहा भी है-- संसारमें राग-द्वेषरूपी उष्णतासे संयुक्त वह आत्मारूपी दीपक योगरूप बत्तीके द्वारा ( कार्मण वर्गणाके ) स्कन्धोंको ग्रहण करके फिर उन्हें कर्मस्वरूपसे परिणमाता है ।। १८ ।। शंका-- यदि मिथ्यात्वादिक प्रत्ययोंके द्वारा कार्मण वर्गणाके स्कन्ध आठ कर्मरूपसे परिणमन करते हैं तो समस्त कार्मण वर्गणाके स्कन्ध एक समयमें आठ कर्मरूपसे क्यों नहीं परिणत हो जाते, क्योंकि, उनके परिणमन का कोई नियामक नहीं है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार नियामकों द्वारा नियमको प्राप्त हुए उक्त स्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन पाया जाता है । यथा-व्यकी अपेक्षा अभवसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणी और सिद्ध जीवोंके अनन्त में भाग मात्र ही वर्गणायें एक समयमें एक जीवके साथ कर्मस्वरूपसे परिणत होती हैं । क्षेत्रकी अपेक्षा जीवके द्वारा अवगाहको प्राप्त क्षेत्रमें स्थित अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनावाली वर्गणायें ही कर्मस्वरूपसे परिणत होती हैं, शेष वर्गणायें कर्मस्वरूपसे परिणत नहीं होतीं । कालकी अपेक्षा एक समयसे लेकर असंख्यात लोक मात्र कालके भीतरकी कार्मणवर्गणा स्वरूपसे स्थित ही वे वर्गणायें कर्मस्वरूपसे परिणत होती हैं, शेष नहीं होती । भावकी अपेक्षा कार्मणवर्गणा पर्यायरूपसे परिणत * तातो ४ माप्रती 'जोगजीवादो' इति पाठः। तातो 'वडिगवस्स इति पाठः । 'सयोग- इति पाठः। मप्रती आदत्ते - इति पाठः । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकमाणुयोगद्दारे मूलपयडिपक्कमो ( ३५ भावेण कम्मइयवग्गणपज्जाएण परिणदाओ चेव कम्मसरूवेण परिणमंति, ण नेसाओ । वुत्तं च-- एयवेत्तोगाढं सव्वपदेसेहि कम्मणो जोगं । बंध इ जहुत्तहेऊ* सादियमहणादियं वा वि ॥ १९ ।। सो च एवंविहलक्खणो पक्कमो पयडिपक्कमो ठिदिपक्कमो अणुभागपक्कमो चेदि तिविहो । तत्थ पयडिपक्कमो दुविहो-- मूलपयडिपक्कमो उत्तरपयडिपक्कमो चेदि । तत्थ मूलपयडिपक्कम वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वत्थोवं एगसमयपबद्धम्हि आउअदव्वं, णामा-गोददव्वं अण्णोण्णं सरिसं होदूण विसेसाहियं, णाण-दंसणावरणअंतराइयाणं दव्वमण्णोण्णण सरिसं होदूण विसेसाहियं । मोहणीयदव्वं विसेसाहियं । वेयणीयदव्वं विसेसाहियं । सव्वत्थ विसेसपमाणमणंतरहेट्ठिमदव्वमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तं होदि । वुत्तं च-- आउअभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहिओ। आवरण-अंतराए तुल्लो अहिओ दु मोहे वि ।। २० ।। ही वे कर्मस्वरूपसे परिणत होती हैं, शेष नहीं। कहा भी है-- जीव एकक्षेत्रमें अवगाहको प्राप्त हुए तथा कर्मके योग्य सादि, अनादि अथवा उभय स्वरूप पुद्गलप्रदेशसमहको यथोक्त हेतुओं ( मिथ्यात्व आदि) द्वारा अपने सब प्रदेशोंसे बांधता है ।। १९ ।। इस प्रकारके लक्षणसे संयुक्त वह प्रक्रम प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रमके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें प्रकृतिप्रक्रम मूलप्रकृतिप्रक्रम और उत्तरप्रकृतिप्रक्रमके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें मूलप्रकृतिप्रक्रमका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है- एक समयप्रबद्धमें आयुका द्रव्य सबसे स्तोक है । नाम व गोत्र कर्मोका द्रव्य परस्परमें समान होकर उससे विशेष अधिक है। ज्ञानावरण. दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मोका द्रव्य परस्परमें सम मान होकर नाम व गोत्रकी अपेक्षा विशेष अधिक है । मोहनीयका द्रव्य उससे विशेष अधिक है । वेदनीयका द्रव्य उससे विशेष अधिक है। सब जगह विशेषका प्रमाण अनन्तर अधस्तन द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करके जो एक खण्ड प्राप्त होता है उतने मात्र है। कहा भी है-- ___ आयु कर्मका भाग सबसे स्तोक है। नाम व गोत्र कर्ममें वह समान हो करके उससे अधिक है। आवरण अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण तथा अन्तरायमें वह समान होकर उक्त दोनों कर्मोकी अपेक्षा विशेष अधिक है। मोहनीयमें उनसे विशेष अधिक है। किन्तु वेदनीय ते खल पुदगलस्कन्धा अभव्यानन्तगुणा सिद्धानन्तभागप्रमितप्रदेशा घनांगलस्यासंख्येयभागक्षेत्रावगाहिन एक-द्वि-त्रि-चतुः-संख्येयासंख्येयसमयस्थितिकाः पचवण-पंचरस-द्विगन्ध-चतुःस्पर्शस्वभावा अष्टविधकर्मप्रकृतियोग्याः योगवशादात्मनात्मसात् क्रियन्त इति प्रदेशबन्धः समासतो वेदितव्यः । स. सि. ८-२४. ताप्रती 'जहत्त हेयो सादियमणादियं ' इति पाठः। एयक्खेत्तोगाढं सवपदेसेहि कम्मणो जोग्गं । बंधदि सगहेर्हि य अणादियं सादियं उभयं । गो. क. १८५. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म सत्रुवरि वेदणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु । सुह-दुक्खकारणत्ता ठिदियविसेसेण सेसाणं* ।। २ ।। एवं सत्तविह-छविहबंधगेसु वि पदेसपक्कमो परूवेयत्वो, विसेसाभावादो । एवं मूलपयडिपक्कमो समत्तो। उत्तरपयडिपक्कमो दुविहो- उक्कस्सउत्तरपयडिपक्कमो जहागउत्तरपडिपक्कमो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं- सव्वथोवं अपच्चक्खाणकसायमाणपदेसग्गं । अपच्चक्खाणकोधे विसेसाहियं । अपच्चक्खाणमायाए विसेसाहियं । अपच्चक्खाणलोहपदेसग्गं विसेसाहियं । पच्चक्खाणमाणपदेसग्गं विसेसाहियं । कोहे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । अणंताणुबंधिमाणपदेसग्गं विसेसाहियं । कोधे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । मिच्छत्ते विसेसाहियं । केवलदसणावरणे विसेसाहियं । पयलाए विसेसाहियं । णिहाए विसेसाहियं । पयलापयलाए पक्कमदव्वं विसेसाहियं । णिद्दाणिहाए विसेसाहियं। थोणगिद्धीए विसेसाहियं । केवलणाणावरणे विसेसाहियं । आहारसरीरणामाए पक्कमदव्वं अणंतगुणं । वेउव्वियसरीरणामाए पक्कमदव्वं विसेसाहियं । कर्मका द्रव्य सर्वोत्कृष्ट हो करके मोहनीयकी अपेक्षा विशेष अधिक है। इसका कारण वेदनीयका सुख व दुखमें निमित्त होना है। शेष कर्मोंका हीनाधिक भाग उनकी स्थितिविशेषसे है।।२०-२१।। इसी प्रकारसे सात सात प्रकारके व छह प्रकारके कर्मोंको बांधनेवाले जीवोंमें भी प्रदेशप्रक्रमका कथन करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार मूलप्रकृतिप्रक्रम समाप्त हुआ। उत्तरप्रकृतिप्रक्रम दो प्रकारका है- उत्कृष्ट उत्तरप्रकृतिप्रक्रम और जघन्य उत्तरप्रकृतिप्रक्रम । उनमें उत्कृष्ट उत्तरप्रकृतिप्रक्रम प्रकृत है- अप्रत्याख्यान कषायोंमें मानका प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। अप्रत्याख्यान क्रोधमें उससे अधिक प्रदेशाग्र है। अप्रत्याख्यान मायामें उससे अधिक प्रदेशाग्र है । अप्रत्याख्यान लोभमें उससे अधिक प्रदेशाग्र है। उससे प्रत्याख्यान मानका प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र है। मायामें विशेष अधिक प्रदेशाग्र है। लोभमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र है। अनन्तानुबन्धी मानका प्रदेशाग्र उससे विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेध अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है । वह प्रक्रमद्रव्य प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगद्धिमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रक्रमद्रव्य आहारशरीर नामकर्ममें अनन्तगुणा है। प्रक्रमद्रव्व वैक्रियिकशरीर नामकर्म में विशेष अधिक है। प्रक्रमद्रव्य औदारिकशरीर नामकर्ममें विशेष अधिक है। प्रक्रमद्रव्य तेजसशरीर नामकर्ममें * आउग भागो थोवो णामा-गो देसम तदो अहियो धादितिये वि य तत्तो मोहे तत्ती तदो तदिये ।। सुह दुक्खणिमित्तादो बहुणिज्नरगो ति वेदणीयस्स सहिंतो बहुगं दव्व होदि ति णि इंट।। सेसाग पयindian डीणं ठिदिपडि मागेण होदि दव्वं तु । आवलि असख भागो पविभागो होदि णियमेण ।। गो. क. १९२-१९४ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिपक्कमो ओरालियसरीरणामाए पक्कमदव्वं विसेसाहियं । तेजासरीरणामाए पक्कमदव्वं विसेसाहियं । कम्मइयसरीरणामाए पक्कमदव्वं विसेसाहियं । देवगइ-णिरयगईण पक्कमदव्वं संखेज्जगुणं । मणुसगईए विसेसाहियं । तिरिक्खगईए विसेसाहियं । अजसगित्तीए विसेसाहियं । दुगुंछाए पक्कमदव्वं संखेज्जगुणं । भयपक्कमदव्वं विसेसाहियं । हस्स-सोगपक्कमदव्यं विसेसाहियं । रदि-अरदिपक्कमदव्वं विसेसाहियं । इत्थि-णवूसयवेदपक्कमदव्वं विसेसाहियं । दाणंतराए संखेज्जगुणं । लाभंतराए विसेसाहियं । भोगंतराए विसेसाहियं । परिभोगंतराए विसेसाहियं । विरियंतराए विसेसाहियं । कोहसंजलणे विसेसाहियं । मणपज्जवणाणावरणे विसेप्ताहियं । ओहिणाणावरणे विसेसाहियं । सुदणाणावरणे विसेसाहियं । मदिणाणावरणे विसेसाहियं । माणसंजलणे विसेसाहियं । ओहिदसणावरणे विसेसाहियं । अचक्खुदंसणावरणे विसेसाहियं । चक्खुदंसणावरणे विसेसाहियं । पुरिसवेदे विसेसाहियं । मायासंजलणे विसेसाहियं। अण्णदरम्हि आउए विसेसाहियं । णीचागोदे विसेसाहियं । लोहसंजलणे विसेसाहियं। असादे विसेसाहियं । उच्चागोदे जसगित्तीए विसेसाहियं । सादे विसेसाहियं । एवमुक्कस्सपयडिपक्कमो समत्तो। जहण्णए पयदं-सव्वत्थोवमपच्चक्खाणमाणे पक्कमदव्वं । कोहे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । पच्चक्खाणमाणे विसेसाहियों कोधे विसेसाहियं। मायाए विशेष अधिक है। प्रक्रमद्रव्य कार्मणशरीर नामकर्म में विशेष अधिक है। देवगति और नरकगतिका प्रक्रमद्रव्य संख्यातगणा है । मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है । तिर्यग्गतिमें विशेष अधिक है । अयश कीति में विशेष अधिक है। जुगुप्सामें प्रक्रमद्रव्य संख्यातगुणा है । भयमें प्रक्रमद्रव्य विशेष अधिक है। हास्य व शोकमें प्रक्रमद्रव्य विशेष अधिक है। रति व अरतिमें विशेष अधिक है । स्त्रीवेद व नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें संख्यातगुणा है । लाभान्तरायमें विशेष अधिक है । भोगान्तरायमें विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है । वीर्यान्तरापमें विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । पुरुषवेदमें विशेष अधिक है । संज्वलन मायामें विशेष अधिक हैं । अन्यतर आयुमें विशेष अधिक है। नीच गोत्रमें विशेष अधिक है । संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें विशेष अधिक है । उच्चगोत्र और यश:कीतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें विशेष अधिक है । इस प्रकार उत्कृष्ट प्रकृतिप्रक्रम समाप्त हुआ। ___ जघन्य प्रकृतिप्रक्रम प्रकृत है - प्रक्रमद्रव्य अप्रत्याख्यान मानमेंसबसे स्तोक है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यान मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष ४ प्रत्योरुभयोरेव ' माणसंजलणे' इति पाठः । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ) छक्खंडागमे संतकम्म विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । अणंताणुबंधिमाणे विसेसाहियं । कोधे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । मिच्छत्ते विसेसाहियं । केवलदसणावरणे विसेसाहियं । पयलाए विसेसाहियं । णिहाए विसेसाहियं । पयलापयलाए विसेसाहियं । णिद्दाणिद्दाए विसेसाहियं। थीणगिद्धीए विसेसाहियं। केवलणाणावरणे विसेसाहियं । ओरालियसरीरे अणंतगुणं। तेजइयसरीरे विसेसाहियं। कम्मइयसरीरे विसेसाहियं । तिरिक्खगईए संखेज्जगुणं । जसाजसगित्तीए सरिसं विसेसाहियं । मणुसगईए विसेसाहियं। दुर्गुच्छाए संखेज्जगुणं । भये विसेसाहियं । हस्स-सोगे विसेसाहियं । रदि-अरदीए विसेसाहियं । अण्णदरम्हि वेदे विसेसाहियं। माणसंजलणाए। विसेसाहियं । कोधे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । दाणंतराइए विसेसाहियं । लाहंतराइए विसेसाहियं । भोगंतराइए विसेसाहियं । परिभोगंतराइए विसेसाहियं । वीरियंतराइए विसेसाहियं । मणपज्जवणाणावरणे विसेसाहिये। ओहिणाणावरणे विसेसाहियं । सुदणाणावरणे विसेसाहियं । मदिणाणावरणे विसेसाहियं । ओहिदंसणावरणे विसेसाहियं । अचक्खुदंसणावरणे विसेसाहियं। चक्खुदंसगावरणे विसेसाहियं । उच्च-णीचागोदेसु संखेज्जगुणं । सादासादेसु विसेसाहियं । वेउव्वियसरीरे असंखेज्जगुणं । देवगईए संखेज्जगुणं। अधिक है। अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायाम विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्व में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। औदारिकशरीरमें अनन्तगुणा है। तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। तिर्यंचगतिमें संख्यातगुणा है। यशकीर्ति व अयशकीतिमें समान होकर विशेष अधिक है। मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें संख्यातगुणा है। भयमें विशेष अधिक है। हास्य व शोकमें विशेष अधिक हैं। रति व अरतिमें विशेष अधिक है। अन्यतर वेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है। भोगान्तरायमें विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है। वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है । मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक हैं। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। ऊंच व नीच गोत्रमें संख्यातगुणा है । साता व असाता वेदनीयमें विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । देवगतिमें संख्यातगुणा है। मनुष्य व तिर्यच आयुका प्रक्रमद्रव्य असंख्यातगुणा है । नरकगतिका असंख्यातगुणा है । देव व नारक ताप्रतो ' अण्णदरम्हि विसे० वेदे माणसंजलणाए' इति पाठः । *ताप्रती 'लाहतराइए विसेसाहियं' इत्येतद व'क्यं नास्ति। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पककमाणुयोगद्दारे अणुभागपक्कमो मणुस-तिरिक्खाउआणं असंखेज्जगुणं । णिरयगईए असंखेज्जगुणं । देव-णिरयाउआणं असंखेज्जगुणं । आहारसरीरस्स पक्कमदव्वमसंखेज्जगुणं । एवं पयडिपक्कमो समत्तो। ठिदिपक्कमे पयदं- सव्वत्थोवं चरिमाए ट्ठिदीए पक्कमिदपदेसग्गं । पढमद्विदीए पक्कमिदपदेसग्गमसंखेज्जगुणं । अपढम-अचिरमासु ट्ठिदीसु पक्कमिदपदेसग्गमसंखेज्जगुणं । अपढमाए पदेसग्गं विसेसाहियं । अचरिमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं विसेसाहियं । सव्वासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं । कुदो एदमप्पाबहुगं ? ठिदीसु पक्कमिददव्वावेक्खित्तादो । तं जहा- जहणियाए ट्ठिदीए बहुअं पदेसग्गं पक्कमदि। बिदियाए विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं होदूण गच्छदि जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, तत्थ दुगुणहीणं । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सट्ठिदि त्ति । एत्थ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो। णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । एवं ठिदिपक्कमो समत्तो।। अणुभागपक्कमे पयदं जहणियाए वग्गणाए बहुअं पदेसग्गं पक्कमदि । बिदियाए विसेसहीणमणंतभाएण । एवमणंताणि फद्दयाणि गंतूण दुगुणहीणं पक्कमदि। आयुका असंख्यातगुणा है । आहारशरीरका प्रक्रमद्रव्य असंख्यातगुणा है । इस प्रकार प्रकृतिप्रक्रम समाप्त हुआ । स्थितिप्रक्रम प्रकृत है- चरम स्थिति में प्रक्रमित प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। प्रथम स्थितिमें प्रक्रमित प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । अप्रथम-अचरम स्थितियोंमें प्रक्रमित प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । अप्रथम स्थितिमें प्रक्रमित प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। अचरम स्थितिमें प्रक्रमित प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । सब स्थितियों में प्रक्रमित प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। यह अल्पबहुत्व क्यों हैं ? समाधान- कारण कि वह स्थितियोंमें प्रक्रमको प्राप्त हुए द्रव्यकी अपेक्षा करता है । पथा- जघन्य स्थितिमें बहुत प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है । द्वितीय स्थितिमें विशेषहीन प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है । इस प्रकार विशेषहीन होकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक जाता है। वहांकी स्थितिमें दुगुणा हीन प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये। ___यहां एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। नानाद्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं । एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर उनसे असंख्यातगुणा है । इस प्रकार स्थितिप्रक्रम समाप्त हुआ। अनभागप्रक्रम प्रकृत है- जघन्य वर्गणामें बहुत प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है । द्वितीय वर्गणामें अनन्तवें भाग रूप विशेष हीन प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है । इस प्रकार अनन्त स्पर्द्धक जाकर दुगुणा हीन प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है । इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा तक ले जाना चाहिये । *ताप्रती ' दुगहीणं' इति पाठ: । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ०. छक्खंडागमे संतकम्मं एवं यव्वं जाव उक्कस्वग्गणेति । एयगुणहाणिट्ठाणंतरे फद्दयाणि थोवाणि । णाणागुणहाणिद्वाणंतराणि अनंतगुणाणि । ४० एत्थ अप्पा बहुअं वुच्चदे । तं जहा - सव्वत्थोवमुक्कस्सियाए वग्गणाए पक्कमिददव्वं । जहणियाए वग्गणाए अनंतगुणं । अजहण्ण-अणुक्कस्सियासु वग्गणासु पक्कदिव्वमतगुणं । अजहण्णियासु विसेसाहियं । अणुक्कस्सियासु विसेसाहियं । सव्वासु विसेसाहियं । संपहि ट्ठिदीसु पक्कमिदअणुभागस्स अप्पाबहुअं उच्चदे - सव्वत्थोवो जहणियाए ट्ठदीए पक्कमिदअणुभागो । अपढम अचरिमासु ट्ठिदीसु अणुभागो अनंतगुणो | अचरिमासु ट्ठिदीसु अणुभागो विसेसाहिओ । चरिमाए ट्ठिदीए अणुभागो अनंतगुणो । अपढमासु ट्ठिदीसु अणुभागो विसेसाहिओ । सव्वासु ट्ठिदीसु अणुभागो विसेसाहिओ । एसो णिक्खेवाइरियउवएसो । एवं पक्कमेत समत्तणुओगद्दारं । एकगुणहानिस्थानान्तर में स्पर्द्धक स्तोक हैं । नानागुणहानिस्थानान्तर ( में स्पर्धक ) अनन्त - हैं। यहां अल्पबहुत्वका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है- उत्कृष्ट वर्गणा में - प्रक्रमप्राप्त द्रव्य सबसे स्तोक है । जघन्य वर्गणा में अनन्तगुणा है । अजघन्य - अनुष्कृष्ट वर्गणाओंमें प्रक्रमप्राप्त द्रव्य अनन्तगुणा है । अजघन्य वर्गणाओंमें विशेष अधिक है । अनुत्कृष्ट वर्गणाओं में विशेष अधिक है । सब वर्गणाओंमें विशेष अधिक है । अब स्थितियों में प्रक्रमप्राप्त अनुभागके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं-- जघन्य स्थितिमें प्रक्रमप्राप्त अनुभाग सबसे स्तोक है । अप्रथम - अचरम स्थितियोंमें प्रक्रमप्राप्त अनुभाग अनन्तगुणा है । अचरम स्थितियों में अनुभाग विशेष अधिक है । चरम स्थिति में अनुभाग अनन्तगुणा है । अप्रथम स्थितियोंमें अनुभाग विशेष अधिक है । सब स्थितियों में अनुभाग विशेष अधिक है । यह निक्षेपाचार्यका उपदेश है । इस प्रकार प्रक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारं सलिंदविंदवंदियमहिणंदियभव्व-पउमवणसंडं । अहिणंदणजिणणाहं णमिऊण उवक्कम वोच्छं ॥ १ ॥ एत्थ उवक्कमस्स ताव णिक्खेवो उच्चदे। तं जहा- णामउवक्कमो, ठवणउवक्कमो' दव्वउवक्कमो, खेत्तउवक्कमो, काल उवक्कमो, भाव उवक्कमो चेदि छव्विहो उवक्कमो' णाम-ढवणं गदं । दव्वउवक्कमो दुविहो आगम-णोआगमदव्वोवक्कमभएण। उवक्कमअणुयोगद्दार जाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्वोवक्कमो। णोआगमदव्वोवक्कमो तिविहो जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तभेएण। जाणुग-भवियं गदं। तव्वदिरित्तदव्वोवक्कमो दुविहो- कम्मोवक्कमो णोकम्मोवक्कमो चेदि। कम्मोवक्कमो अट्टविहो। णोकम्मोवक्कमो तिविहो सचित्त-अचित्त-मिस्सभेएण। खेत्तोवक्कमो* जहा उड्ढलोगो उवकंतो, गामो उवक्कंतो, णयरमुवक्कंतं इच्चेवमादी। कालोवक्कमो जहा वसंतो उवक्कतो, हेमंतो उवक्कंतो इच्चेवमादी। भावोवक्कमो दुविहो आगम-णोआगमभावोव समस्त इन्द्रसमूहोंसे वन्दित और भव्य जीवों रूपी कमल-वनखण्डको अभिनन्दित करनेवाले अभिनन्दन जिनेन्द्रको नमस्कार करके उपक्रम अनुयोगद्वारका कथन करते हैं ॥ १ ॥ यहां पहिले उपक्रमका निक्षेप कहते हैं। वह इस प्रकार है- नामउपक्रम, स्थापनाउपक्रम, द्रव्यउपक्रम, क्षेत्रउपक्रम, कालउपक्रम और भाव उपक्रम, इस तरह उपक्रम छह प्रकारका है। नाम व स्थापना उपक्रम अवगत हैं। द्रव्यउपक्रम आगम और नोआगम द्रव्यउपक्रमके भेदसे दो प्रकारका है। उपक्रमअनुयोगद्वारका ज्ञायक, उपयोग रहित जीव आगमद्रव्योपक्रम कहलाता है। नोआगमद्रव्योपक्रम ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्योपक्रम अवगत हैं। तद्व्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम रका है-- कर्मोपक्रम और नोकर्मोपक्रम । कर्मोपक्रम आठ प्रकारका है। नोकर्मोप्रक्रम सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। क्षेत्र-उपक्रम-जैसे ऊर्ध्वलोक उपक्रान्त हुआ, ग्राम उपक्रान्त हुआ व नगर उपत्रान्त हुआ इत्यदि। कालउपक्रम जैसे- वसन्त उपक्रान्त हुआ व हेमन्त उपक्रान्त हुआ इत्यादि। भाव-उपक्रम आगम और नोआगम भाव-उपक्रमके भेदसे दो प्रकारका है। उपक्रम-अनुयोगद्वारका ज्ञायक ७ प्रत्योरुभयोरेव उवक्कमणयोगद्दार इति पाठः । से कि तं उवक्कमे ? छविहे पण्णत्ते । तं जहाणामोवक्कमे ठवणोवक्कमे दम्वोवक्कमे खेत्तोवक्कमे कालोवक्कमे भावोवकामे नाम-ठवणाओ गयाओ से कित दबोवक्कमे ? दब्वोवक्कमे दुविहे पगणत्ते । तं जहा-- आगमओ अ नोआगमओ अ। जाव जाणगसरीरभवियसरीर-वहरिते दम्वोवक्कमे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- सचित्ते अचित्ते मीसए । अण. ६०. से कि त खेत्तोवक्कमे ? जण्ण हल-कुलिआईहिं खेत्ताई उवक्कमिज्जति, से तं खेत्तोवक्कमे । अण. ६७. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ) छवखंडागमे संतकम्मं क्कमभेण । उवक्कमअणुयोगद्दारजाणगो उवजुत्तो आगमभावोवक्कमो - जहा पाहुडमुवक्कतं, पुव्वं वत्थू वा उवक्कतं । ओदइयादिभावोवक्कमो णोआगमभावोवक्कमो णाम । एत्थ एदेसु उवक्कमेसु केण पयदं ? कम्मोवक्कमेण पयदं । जो सो कम्मोवक्कमो सो चउव्विहो- बंधणउवक्कमो उदीरणउवक्कमो उवसामणउवक्कमो विपरिणामउवक्कमो चेदि । पक्कम उवक्कमाणं को भेदो ? पयडि-ट्ठिदि-अणुभागेसु ढुक्कमाण पदेसग्गपरूवणं * पक्कमो कुणइ, उवक्कमो पुण बंधबिदियसमयप्पहूडि संतसरूवेण ट्ठिदकम्मपोग्गलाणं वावारं परूवेदि । तेण अत्थि विसेसो । जो सो बंधणवक्कमो सो चउव्विहो- पर्याडबंधण उवक्कमो, ठिदिबंधणउवक्कमो अणुभागबंधनउवक्कमो, पदेसंबंधणउवक्कमो चेदि । जीवपदेसेहि खीर-णीरं व अण्णोष्णाणुगयपयडीणं बंधक्कमपरूवणं पयडिबंधणउवक्कमो णाम । तो संतपयडीण मेगसमयादि जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ त्ति कम्मभावेणावट्ठाण कालपरूवणं ट्ठिदिबंधणवक्कमो णाम । तासि चेत्र संतपयडीणमणुभागस्ग जीवेण सह एयत्तं गयस्स फद्दय- वग्ग - वग्गणा - ट्ठाणाविभागपडिच्छेदादिपरूवणा अणुभागबंधण उवक्कमो नाम । तासि चेव पयडीणं खविद-गुणिदकम्मंसिय-तग्घोलमाणे अस्सिदूण संचिद उपयोग युक्त जीव आगमभाव उपक्रम कहलाता है। जैसे- प्राभृत उपक्रान्त हुआ, पूर्व उपक्रान्त हुआ अथवा वस्तु उपक्रान्त हुई । औदयिक आदि भावोंके उपक्रमको नोआमगभावोपक्रम कहते हैं । शंका-- इन उपक्रमोंमें यहां कौनसा उपक्रम प्रकृत है ? समाधान -- यहां कर्मोपक्रम प्रकृत है । जो वह कर्मोपक्रम है वह चार प्रकारका है -- बन्धन- उपक्रम, उदीरणा - उपक्रम, उपशामना - उपक्रम और विपरिणाम - उपक्रम | शंका -- प्रक्रम और उपक्रममें क्या भेद है ? समाधान -- प्रक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभाग में आनेवाले प्रदेशाग्रकी प्ररूपणा करता है; परन्तु उपक्रम अनुयोगद्वार बन्धके द्वितीय समयसे लेकर सत्त्वस्वरूपसे स्थित कर्म - पुद्गलोंके व्यापारकी प्ररूपणा करता है । इसलिये उन दोनों में विशेषता है । जो वह बन्धन- उपक्रम है वह चार प्रकारका है - प्रकृतिबन्धन उपक्रम, स्थितिबन्धन- उपक्रम, अनुभागबन्धन- उपक्रम और प्रदेशबन्धन - उपक्रम । दूधके साथ पानीके समान जीवप्रदेशों के साथ परस्परमें अनुगत ( एकरूपताको प्राप्त ) प्रकृतियों के बन्धके क्रमकी प्ररूपणा करने को प्रकृतिबन्धन - उपक्रम कहते हैं । अनन्तर उन सत्वरूप प्रकृतियों के एक समयसे लेकर सत्तर asrafs सागरोपम काल तक कर्मस्वरूपसे रहनेके कालकी प्ररूपणाको स्थितिबन्धन - उपक्रम कहते हैं। उन्हीं सत्त्वप्रकृतियोंके जीवके साथ एकताको प्राप्त हुए अनुभाग सम्बन्धी स्पर्द्धक, वर्ग, वर्गणा, स्थान और अविभागप्रतिच्छेद आदिकी प्ररूपणाका नाम अनुभागबन्धन- उपक्रम है । उन्हीं प्रकृतियोंके क्षपितकर्माशिक, गुणितकर्माशिक, क्षपितघोलमान और गुणितघोलमान जीवों काप्रतौ ' दुः कमण ' इति पाठः । ताप्रतौ ' ( तो ) संतपयडीण' काप्रती 'परूवण ' तानी' परूवणा ( णं ' इति पाठ: इति पाठः । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकमाणुयोगद्दारे उतीरणाभेदरूपणा (४३ उक्कस्साणुक्कस्सपदेसपरूवणा पदेसबंधणउवक्कमो णाम। एत्थ एदेसि चदुण्णमुवक्कमाणं जहा संतकम्मपयडिपाहुडे परूविदं तहा परूवेयव्वं । जहा महाबंधे परूविदं तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे ? ण, तस्स पढमसमयबंधम्मि चेव वावारादो। ण च तमेत्थ वोत्तुं जुत्तं, पुणरुत्तदोसप्पसंगादो। एवं बंधणउवक्कमो समत्तो। उदीरणा चउन्विहा- पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसउदीरणा चेदि । तत्थ पयडिउदीरणा दुविहा- मूलपयडिउदीरणा उत्तरपयडिउदीरणा चेदि। तत्थ मूलपयडिउदीरणं वत्तइस्सामो। तं जहा- का उदीरणा णाम? अपक्कपाचणमुदीरणा। आवलियाए बाहिरटिदिमादि कादूण उवरिमाणं ठिदीणं बंधावलियवदिक्कंतपदेसग्गमसंखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओकट्टिदूण उदयावलियाए देदिसा उदीरणा ।मूलपयडि उदीरणा दुविहा- एगेगपयडिउदीरणा पयडिट्ठाण का आश्रय करके संचयको प्राप्त हुए उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशकी प्ररूपणाको प्रदेशबन्धनउपक्रम कहा जाता है। इन चार उपक्रमोंकी प्ररूपणा जैसे सत्कर्मप्रकृतिप्राभृतमें की गई है उसी प्रकार यहां भी करनी चाहिये । शंका--- जैसी महाबन्धमें प्ररूपणा की गई है वैसी प्ररूपणा यहां क्यों नहीं की जाती है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, उसका व्यापार प्रथम समय सम्बन्धी बन्धमें ही है । और उसका यहां कथन करना योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है । इस प्रकार बन्धन-उपक्रम समाप्त हुआ। उदीरणा चार प्रकारकी है-- प्रकृति उदीरणा, स्थिति उदीरणा, अनुभागउदीरणा, प्रदेशउदीरणा। उनमें प्रकृतिउदीरणा मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदीरणाके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमें मूलप्रकृति उदीरणाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-- शंका-- उदीरणा किसे कहते हैं ? समाधान-- नहीं पके हुए कर्मोके पकानेका नाम उदीरणा है। आवलीके बाहिरकी स्थितीको लेकर आगेकी स्थितियोंके बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशाग्रको असंख्यात लोक प्रतिभागसे अथवा पत्योपमके असंख्यातवें भाग रूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके उदयावली में देना, यह उदीरणा कहलाती है। मूलप्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है- एक-एकप्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा। ४ कापती उदयावलियारा जादि ' इति पाठः । * तत्थ उदओ णाम कम्माणं जहाकालजणिदो फलविवागो कम्मोदयो उदयो त्ति भणिदं होइ। उदीरणा पुण अपरित्तकालाणं चेव कम्माणमवायविसेसेण परिपाचण, अपक्वपरिपाचनमदीरणेति वचनात् । वृत्तं च- कालेण उवायेण य पच्चति जहा वणप्फइफलाई । तह कालेण तवेण य पच्चंति कयायिं कमा (म्मा) यिं ।। जयध. अ. प. ७४८. ज करणेणोकडिय उदये दिज्जा उदीरणा एसा पगह-ठि इ-अणुभाग-प्पएसमूलत्तरविभागा ।। क.प्र. ४, १. तत्र यत्परमाण्वात्मकं दलिक करणेण योगसंज्ञकेन वीयं विशेषेण कषायसहितेन असहितेन वा उदयावलिकाबहिवेत्तिनीभ्यः स्थितीभ्योऽपकृष्य उदये दीयते उदयावलिकायां प्रक्षिप्यते एषा उदीरणा ( मलय. ) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ) छक्खंडागमे संतकम्म एत्थ ताव एगेगपयडिउदीरणाए सामित्तं भणिस्सामो। णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइडिमादि कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासि तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा। मोहणीयस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइओ त्ति उदीरया । णवरि चडमाणसुहमसांपराइयद्धाए समयाहियावलियसेसाए उदीरणा वोच्छिण्णा । वेयणीयस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति उदीरया। गवरि पमत्तसंजदस्स अप्पमत्ताहिमुहस्स चरिमसमए उदीरणा वोच्छिण्णा। आउअस्स मिच्छाइट्ठी मरणकाले चरिमावलियं मोत्तूण सेससव्वकाले उदीरओ। गुणं पुण पडिवज्जमाणो जाव चरिमसमयं ताव उदीरओ । एवं वत्तव्वं जाव पमत्तसंजदो त्ति । उवरि उदीरणा आउअस्स पत्थि। कुदो ? साभावियादो। णामा-गोदाणं मिच्छाइटिप्पडि जाव सजोगिकेवलि त्ति उदीरणा* । णवरि सजोगिकेवलिचरिमसमए उदीरणा वोच्छिण्णा । एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो-- वेयणीय-मोहणीयाणमुदीरओ अणादिओ अपज्जवसिदो, यहां पहले एक-एक-प्रकृति उदीरणाके स्वामित्वका कथन करते हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकपाय पर्यन्त, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीणकषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है । मोहनीय कर्मके मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्म साम्मरायिक तक उदीरक हैं। विशेष इतना है कि चढते समय सूक्ष्मसाम्मरायिकके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। वेदनीय कर्मके मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक उदीरक हैं। विशेष इतना है कि अप्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख हुए प्रमत्तसंयत जीवके अन्तिम समयमें उसकी उदो रणा व्युच्छिन्न हो जाती है। मरणकालमें अन्तिम आवलीको छोडकर शेष सब काल में आयुका उदीरक मिथ्यादृष्टि जीव होता है। परन्तु अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेवाला जीव उस गुणस्थानके अन्तिम समय तक उदीरक होता है। इस प्रकार प्रमत्तसंयत तक कहना चाहिये, क्योंकि, उसके आगे आयुकी उदीरणा नहीं है। इसका कारण स्वभाव है। नाम व गोत्र कर्मकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक है। विशेष इतना है कि सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा काल- वेदनीय और मोहनीयका उदीरक जीव अनादि-अपर्यवसित, ४ घाईण छउमत्था उदीरगा रागिणो य मोहस्स । क. प्र. ४,३. घातिकृतीनां ज्ञानावरण-दर्शनावरणान्तरायरूपाणां सर्वेऽपि छद्मस्थाः क्षीण मोहपर्यवसाना उदीरकाः । मोहनीयस्य तु रागिण: सरगा: सूक्षसाम्परायपर्यवसाना उदीरका: (मलय. टीका)। *तइयाऊण पमत्ता जोगंता उत्ति दोण्ह च ।। क प्र.४,४. तृतीयस्य वेदनीयस्य आयुषश्च प्रमत्ता। प्रमत्तगुणस्थानकपर्यन्ताः सर्वेऽप्युदीरकाः। केवलमायुषः पर्यन्तावलिकायां नोदीरका भवन्ति तथा द्वयोम-गोत्रयोर्योग्यन्ताः सयोगिकेवलिपर्यवसानाः सर्वेऽप्यदौरका: (मलय.टीका)। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदीरणाए एगजीवेण कालो ( ४५ अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो वा। जो सो सादिओ सपज्जवसिदो सो जहण्णेण अंतोमुहत्तं उदीरेदि, अप्पमत्त-उवसंतकसायाणं हेट्ठा पदिदूण सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो अप्पमत्तगुणं गयाणं समयाहियात्रलिय 0 सुहमसांपराइयचरिमसमयअपत्ताणं च जहाकमेण वेयणीय-मोहणीयाणमंतोमुत्तकालपमाणउदीरणुवलंभादो। उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियढें, अप्पमत्त-उवसंतकसाएसु हेट्ठा पदिदूण उवड्ढपोग्गलपरियढें परिभमिय जहाकमेण सग-सगगुणं गंतूण उदीरणावोच्छेदे कदे उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलमेत्तकालुवलंभादो। आउअस्स जहण्णएण एगो वा दो वा समया। अप्पमत्तो पमत्तो होदण जहण्णेण एगसमयं चेव आउअस्स उदीरओ होदूण बिदियसमए आउअस्स अणुदीरओ होदि । उदयावलियमेतद्विदिविसेसो त्ति जे आइरिया भणंति तेसिमहिप्पाएण उदीरणकालो जहण्णओ एगसमयमेत्तो। जे पुण दोणिसमए जहण्णण उदीरेदि ति भणंति तेसिमहिप्पाएण बे समया त्ति परूविदं। उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि । कुदो ? उदयावलियभंतरे पविट्ठट्टिदीणं उदोरणाभावादो। सेसाणं कम्माणमणादिओ अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित होता है । जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त काल तक उदीरणा करता है । इसका कारण यह है कि अप्रमत्त और उपशान्तकषाय गुणस्थानसे नीचे गिरकर और सर्वजघन्य अन्तर्मुहुर्त काल तक वहां रहकर फिरसे अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवोंके, तथा एक समय अधिक आवली स्वरूप सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्त समयको न प्राप्त हुए अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायिकके कालमें एक समय अधिक आवलीके अवशिष्ट रहनेके पूर्व समयवर्ती जीवोंके, यथाक्रमसे वेदनीय और मोहनीय कर्मकी अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण उदीरणा पायी जाती है। उत्कर्षसे दोनों कर्मोकी उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक उदीरणा करता है, क्योंकि, अप्रमत्त और उपशान्तकषाय गुणस्थानोंसे नीचे गिरकर व उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके यथाक्रमसे अपने अपने गुणस्थानको प्राप्त होकर वहां उदीरणाकी व्युच्छित्ति करनेपर उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल पाया जाता है । आय कर्मकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक अथवा दो समय है । कारण कि अप्रमत्त जीवप्रमत्त हो जघन्यसे एक समय ही आयुका उदीरक होकर द्वितीय समयमें आयुका अनुदीरक होता है । जो आचार्य उदयावली मात्र स्थितिविशेषकी प्ररूपणा करते हैं उनके अभिप्रायसे उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय मात्र होता है । किन्तु जो आचार्य 'जघन्यसे दो समय उदीरणा करता है' ऐसा कहते हैं उनके अभिप्रायसे दो समय मात्र जघन्य कालकी प्ररूपणा की गई है । आयुका उदीरणाकाल उत्कर्षसे एक आवली हीन तेतीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि, उदयावलीके भीतर प्रविष्ट स्थितियोंकी उदीरणा सम्भव नहीं है । शेष कर्मोका उदीरक अनादि-अपर्यवसित ४ काप्रती — समयाहियावलिया ' ताप्रतो 'समयाहियावलिया ( य ) ' इति पाठः । * प्रत्योरुभयोरेव 'समयअप्पमत्ताणं : इति पाठः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म अपज्जवसिदो । खवगसेडिमणारहणसहावाणमेस भंगो । अणादिओ सपज्जवसिदो, खवगसेडिमारुहिय विणासिदउदीरणाणमेसेव भंगो । एवं कालो समत्तो। ___ एगजीवेण अंतरेण पयदं- वेयणीय-मोहणीयउदीरणाणमंतरं जहण्णण एगो समओ । कुदो ? अप्पमत्त-आवलियसेससुहमउवसामयगुणेसु एगसमयमच्छिय बिदियसमए मदाणं तदुवलंभादो । उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । कुदो ? अप्पमत्तगुणमुवसंतकसायगुणं च पडिवज्जिय सव्वुक्कस्समंतोमुत्तमच्छिय पमत्तगुणे सकसायगुणे च पडिवणे ० तदुवलंभादो । आउअस्स उदीरणंतरं जहणेण आवलिया। कुदो ? सव्वेसु भवेसु आवलियमेत्तसेसेसु आउअस्स उदीरणाभावादो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कुदो ? अप्पमत्तादिउवरिमगुणट्ठाणेसु सन्वुकस्समंतोमुत्तमच्छिय पुणो पमत्तगुणं पडिवण्णस्स तदुवलंभादो । सेसाणं कम्माणं पत्थि अंतर, खीणकसायगुणट्ठाणम्हि उदीरणाए णट्ठाए पुणो उदीरणाऽपादुब्भावादो* । एवमंतरं समत्तं । ____णाणाजीवेहि भंगविचए अटुपदं- जे जं पडि वेदंति तेसु पयदं, अवेदएसु अव्ववहारादो । एदेण अटुपदेण आउअ-वेयणीयाणं जीवा णियमा उदोरया अणुदीरया च । सेसाणं कम्माणं सव्वे जीवा णियमा उदीरया, सिया उदीरया च अणुदीरओ च, जीव होता है। यह भंग क्षपकश्रेणिपर न चढनेवाले जीवोंके सम्भव है । तथा इन्हीं शेष कर्मोंका उदीरक अनादि-सपर्यवसित जीव भी होता है। किन्तु क्षपकश्रेणिपर चढकर उदीरणाको नष्ट करनेवालोंके यही भंग होता है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर प्रकृत है- वेदनीय और मोहनीयकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय है, क्योंकि, अप्रमत्त और आवली प्रमाण शेष सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक इन दोनों गुणस्थानोंमें क्रमसे एक समय रहकर द्वितीय समयमें मरणको प्राप्त हुए जीवोंके उक्त अन्तरकाल पाया जाता है। उत्कर्षसे वह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, क्योंकि, अप्रमत्त गुणस्थान और उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त होकर और वहां सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर प्रमत्त गुणस्थान और सकषाय ( सूक्ष्मसाम्पराय ) गुणस्थानको प्राप्त होनेपर वह पाया जाता है । आयुकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे आवली काल प्रमाण है, क्योंकि, सब भवोंके आवली मात्र शेष रहनेपर आयकी उदीरणाका अभाव होता है। उत्कृर्ष से वह अन्त हर्त प्रमाण है, क्योंकि, अप्रमत्तादिक उपरिम गुणस्थानों में सर्वोत्कृष्ट अन्तमहर्त काल तक रहकर पश्चात् प्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके वह पाया जाता है। शेष पांच काँकी उदीरणाका अन्तर नहीं है, क्योंकि, क्षीणकषाय गुणस्थान ( बारहवें और तेरहवें ) में उदीरणाके नष्ट होने पर फिर उदीरणाका प्रादुर्भाव नहीं है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। नाना जोवोंकी अपेक्षा भंग विचयमें अर्थपद- जो जिस प्रकृतिका वेदन करते हैं वे यहां प्रकत हैं. क्योंकि, अवेदकोंमें उसका व्यवहार नहीं है। इस अर्थपदसे आय और वेदनीय कमोके नयमसे उदीरक भी हैं और अनुदीरक भी हैं। शेष कर्मोके सब जीव नियमसे उदीरक, ४ तातो ‘पमत्तगुणे च पहिवणे इति पाठः। * तातो पादुब्भावा (मावा-, दो' इति पाठः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७ उवक्कमाणुयोगद्दारे उदीरयाणमप्पाबहुअं सिया उदीरया च अणुदीरया च । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। णाणाजीवेहि कालो- सव्वेसि कम्माणं उदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। अंतरं णत्थि । अप्पाबहुअं पयदं । आउअस्स उदीरया थोवा। वेयणीयस्स उदीरया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? चरिमावलियाए संचिदअणंतजीवमेत्तेण । मोहणीयस्स उदीरया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अप्पमत्त-अपुव्व-अणियट्टिसुहमसांपराइयजीवमेतण। णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमुदीरया विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? उवसंत-खीणकसायमेत्तेण । णामा-गोदाणमुदीरया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? सजोगिकेवलिमत्तेण। णिरयगईए रइएसु सम्वेसि पि कम्माणमुदीरया तुल्ला, णिरंतरं तत्थ मरंताणमभावादो । कदाचि आउअस्स उदीरया थोवा, सेसकमाणं सरिसा विसेसाहिया । केत्तियमेतेण? चरिमावलियाए संचिदजीवमेतेण । एवं सव्वासिं गदीणं वत्तव्वं । णवरि तिरिक्खेसु सरिसा त्ति ण वत्तव्वं । मणुस्सेसु ओघं । एवमप्पाबहुअं समत्तं । कदाचित् बहुत उदीरक व एक अनुदीरक, तथा कदाचित् बहुत उदीरक व बहुत अनुदीरक होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। ___ नाना जीवोंकी अपेक्षा काल- सब कर्मोंकी उदीरणा कितने काल तक होती है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा होती है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। ___ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व प्रकृत है- आयु कर्मके उदीरक स्तोक हैं । वेदनीयके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं? अन्तिम आवलीमें संचित अनन्त जीवोंके प्रमाणसे अधिक हैं। मोहनीय कर्मके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं । ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तरायके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंके प्रमाणसे अधिक हैं। नाम व गोत्रके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? सयोगकेवलियोंके प्रमाणसे अधिक हैं। नरकगतिमें नारकियोंमें सभी कर्मोके उदीरक तुल्य हैं, क्योंकि वहां निरन्तर मरनेवाले जीवोंका अभाव है । कदाचित् वहां आयु कर्मके उदीरक स्तोक हैं और शेष कर्मोंके उदीरक समान होकर आयु कर्मके उदीरकोंकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं ? कितने मात्रसे विशेष अधिक होते हैं ? अन्तिम आवलीके संचित जीवोंके प्रमाणसे वे विशेष अधिक होते हैं । — सदृश होते हैं ' ऐसा नहीं कहना चाहिये । मनुष्योंकी प्ररूपणा ओघके समान है । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । ४ काप्रती चरिमावलिये', ताप्रती 'चरिमावलिय' इति पाठः । Jain Education international For Private & Personal use only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ) छक्खंडागमे संतकम्म भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढीउदीरणा च णत्थि, एगेगपयडिअधियारादो। एवमेगेगपयडिउदीरणा समत्ता। संपहि पयडिट्ठाणसमुक्कित्तणं कस्सामो। अट्ठविह-सत्तविह-छव्विह-पंचविहदुविह-उदीरणा त्ति पंचपयडिट्ठाणाणि उदोरणाए होंति । तं जहा- सव्वाओ पयडीओ उदीरंतस्स अट्टविहउदीरणा होदि । आउएण विणा सत्तविहउदीरणा होइ । आउअवेयणीएहि विणा अप्पमत्तादिसु छविहउदीरणा होदि। मोहाउअ-वेयणीयकम्मेहि विणा खीणकसायम्हि उवसंतकसाए च पंचविहउदोरणा होदि। णाणावरण-दसणावरणवेयणीय-मोहाउअ-अंतराइएहि विणा सजोगकेवलिम्हि दोण्णमुदीरणा होदि । एवं ट्ठाणसमुक्कित्तणा समत्ता। सामित्तं- अट्ठण्णमुदीरओ को होदि ? अण्णदरो पमत्तो, जस्स आउअंण होदि उदयावलियपविट्ठ। सत्तण्णमुदीरओ को होदि ? अण्णदरो पमत्तो, जस्स आउअंउदयावलियं पविळं। छण्णमुदीरओ को होदि ? अप्पमत्तो सकसाओ। पंचण्णमुदीरओ को होदि ? छदुमत्थो वीयराओ आवलियचरिमसमयस्स हेट्ठा। दोण्णमुदीरओ को होदि ? उप्पण्णणाण-दसणहरो सजोगिकेवली । एवं सामित्तं समत्तं । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिउदीरणा नहीं है, क्योंकि, यहां एक एक प्रकृतिका अधिकार है। इस प्रकार एक-एकप्रकृतिउदीरणा समाप्त हुई। अब प्रकृतिस्थानोंका समुत्कीर्तन करते हैं - आठ कर्मोकी, सात कर्मोंकी, छह कर्मोकी, पांच कर्मोंकी और दो कर्मोकी उदीरणा इस प्रकार उदीरणाके पांच प्रकृतिस्थान हैं। यथा-सब प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवालेके आठ प्रकृतिक उदीरणा होती है । आयुके विना सात प्रकृतिक उदीरणा होती है । आयु और वेदनीयके विना अप्रमत्त आदि गुणस्थानोंमें छह प्रकृतिक उदीरणा होती है । मोहनीव, आयु और वेदनीय कर्मोंके विना क्षीणकषाय और उपशान्तकषाय गुणस्थानोंमें पांच प्रकृतिक उंदीरणा होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु और अन्तरायके विना सयोगकेवली गुणस्थानमें दो प्रकृतिक उदीरणा होती है । इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तना समाप्त हुई। ___ स्वामित्व – आठ कर्मोका उदीरक कौन होता है ? उनका उदीरक अन्यतर प्रमत्त जीव होता है, जिसका आयु कर्म उदयावलीमें प्रविष्ट नहीं है । सात कर्मोंका उदीरक कौन होता है ? अन्यतर प्रमत्त जीव उनका उदीरक होता है, जिसका आयु कर्म उदयावलीमें प्रविष्ट है । छहका उदीरक कौन होता है ? अप्रमत्त सकषाय जीव उनका उदीरक होता है। पांचका उदीरक कौन होता है ? उनका उदीरक छद्मस्थ वीतराग जीव होता है, मात्र वह क्षीणमोहके कालमें एक आवलीके चरम समय शेष रहनेके पूर्व उनकी उदीरणा करता है। दोका उदीरक कौन होता है ? उत्पन्न हुए ज्ञान व दर्शनका धारक सयोगकेवली उनका उदीरका होता है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। ४ घाईण छ उमत्था उदीरगा रागिणो य मोहस्स । तइयाऊण लमत्ता जोगता उत्ति दोण्हें .च ।। क० प्र०४-४. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे एगजीवेण अंतरं ( ४९ एयजीवेण कालो- अट्टण्णमुदीरओ जहण्णण एक्कं व दो व समए, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि। सत्तण्णमुदीरओ जहण्णेण एक्कं व दो व समए, पमत्ते उदयावलियपविट्ठआउए बिदियसमए तदियसमए वा अप्पमत्तगुणं गदे वेदणीयउदीरणाए णटाए एग-दोसमयसत्तउदीरणाकालुवलंभादो। उक्कस्सेण आवलिया । छण्णमुदीरओ जहणेण एक्कं व दो व समए उदोरेदि, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । पंचण्णमुदीरओ जहणेण एक्कं व दो व समए उदीरेदि, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । दोण्णमुदीरगो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । एवं कालो समत्तो। __एगजीवेण अंतरं- अढण्णमुदीरणंतरं जहण्णण : एगावलिया, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सत्तण्णमुदीरणंतरं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमावलियूणं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि । छण्णमुदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियढें । एवं पंचण्णमुदीरयाणं पि अंतरं वत्तव्वं । दोण्णमुदीरयाणं णत्थि अंतरं । कुदो ? अंतरिदे पुणो दोण्णमुदीरणाए पादुब्भावाभावादोश। एवमंतरं समत्तं । एक जीवकी अपेक्षा काल- आठ कर्मोंका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय तथा उत्कर्षसे आवली कम तेतीस सागरोपम काल तक होता है। सात कर्मोका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय होता है, क्योंकि, प्रमत्तगुणस्थानवी जीवके आयु कर्मके उदयावलीमें प्रविष्ट होनेपर जब वह द्वितीय समयमें अथवा तृतीय समयमें अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होता है तब चूंकि वेदनीयकी उदीरणा नष्ट हो जाती है, अतः उसके एक या दो समय प्रमाण सातकी उदीरणाका काल पाया जाता है। (तात्पर्य यह है कि जिस प्रमत्तसंयतके आयुकर्म उदयावलीमें प्रविष्ट हो गया उसके सात कर्मकी उदीरणा होती है। किन्तु उसके एक समय बाद या दो समय बाद अप्रमत्त संयत गुणस्थानको प्राप्त हो जानेपर प्रमत्तसंयतके सात कर्मकी उदीरणाका जघन्य काल एक या दो समय देखा जाता है । ) सातकी उदीरणाका काल उत्कर्षसे आवली प्रमाण है। छहका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय उनकी उदीरणा करता है, उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त काल तक उदीरणा करता रहता है। पांचका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय उनकी उदीरणा करता है उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक उनकी उदीरणा करता है। दोका उदीरक जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल तक उनकी उदीरणा करता है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा-आठ कर्मोकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक आवली व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। सातकी उदीरणाका अन्तर जघन्यतः आवलीसे हीन क्षुद्रभवग्रहण व उत्कर्षसे आवली कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। छहकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्महर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार पांच कर्मोके उदीरकोंका भी अन्तर कहना चाहिए । दोके उदीरकोंका अन्तर नहीं होता, क्योंकि, अन्तरको प्राप्त होनेपर फिर दोकी उदीरणाके प्रादुर्भावका अभाव है। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। ४ काप्रती ' एवं दो', ताप्रती एवं (गं ) दो' इति पाठः। * ताप्रतौ ' अठ्ठण्णमुदीरणंतरं, जहण्णेण' इति पाठः । 8 काप्रतौ पादुब्भावादो' इति पारः। For Prive & Personal use only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ) छक्खंडागमे संतकम्म णाणाजीवेहि भंगविचओ- जे जं पयडिट्ठाणमुदीरेंति तेसु पयदं । अटुण्णं सत्तण्णं छण्णं दोण्णं द्वाणाणं णियमा सव्वे जीवा उदीरया। सिया एदे च पंचविहउदीरओ च, सिया एदे च पंचविहउदीरया च । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। णाणाजीवेहि कालो- पंचण्णमुदीरयाणं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । सेसाणमुदीरयाणं सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। अंतरं पंचण्णमुदीरयाण जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा। सेसाणं णत्थि अंतरं । एवमंतरं समत्तं । अप्पाबहुअं- पंचण्णमुदीरया थोवा। दोण्णमुदीरया संखेज्जगुणा । छण्णमुदीरया संखेज्जगुणा । सत्तण्णमुदीरया अणंतगुणा । अटण्णमुदीरया संखेज्जगुणा । कुदो? एगावलियसंचिदसत्तण्हमुदीरएहितो संखेज्जावलियसंचित अटण्णमुदीरयाणं संखेज्जगुणत्तुवलंभादो। एवमप्पाबहुअं समत्तं । भुजगारे अट्ठपदं- जाओ एहि पयडीओ उदीरेदि तत्तो अणंतरओसक्काविदे समए अप्पदरियाओ उदीरेदि त्ति एसो भुजगारो।अणंतरविदिक्कतसमए बहुदरियाओ उदीरेदि त्ति एसा अप्पदरउदीरणा। दोसु वि समएसु तत्तियाओ चेव पयडिओ उदीरेंतस्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- जो जीव जिस प्रकृतिस्थानकी उदीरणा करते हैं वे प्रकृत हैं। आठ, सात, छह और दो प्रकृतिक स्थानोंके नियमसे सब जीव उदीरक होते हैं। कदाचित् ये नाना जीव उदीरक होते हैं और पांचका एक जीव उदीरक होता है। कदाचित् ये नाना जीव उदीरक होते है और पांचके भी नाना जीव उदीरक होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल-पांच कर्मोके उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त प्रमाण है। शेष कर्मोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तर- पांच कर्मोंके उदीरकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास है। शेष कर्मोंके उदीरकोंका अन्तर नहीं है। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। अल्पबहुत्व- पांचके उदीरक जीव स्तोक हैं। दोके उदीरक संख्यातगुणे हैं। छहके उदीरक संख्यातगुणे हैं। सातके उदीरक अनन्तगुणे हैं। आठके उदीरक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, एक आवली में संचित सातके उदीरकोंसे संख्यात आवलियोंमें संचित हुए आठके उदीरक संख्यातगुणे पाये जाते हैं। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। भुजाकारके विषयमें अर्थपद- इस समय जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा करता है उससे अनन्तर पिछले समयमें उनसे थोडी प्रकृतियोंकी उदीरणा करता है, यह भुजाकार उदीरणा है। इस समय जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा करता है उनसे अनन्तर वीते हुए समयमें बहुतर प्रकृतियोंकी उदीरणा करता है, यह अल्पतर उदीरणा है। दोनों ही समयोंमें उतनी मात्र प्रकृतियोंकी ही उदीरणा करनेवालेके अवस्थित उदीरणा होती है । अनुदीरणासे उदीरणा करनेवालेके ताप्रतौ ' उदीरंतस्स' इति पाठः । ' Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे भुजगरादीणमंतरं ( ५१ अवट्टिउदीरणा । अणुदीरणाओ उदीरेंतस्स * अवत्तव्वउदीरणा । एदेण अट्ठपदेण उवरिमअहियारा वत्तव्वा । सामित्तं - भुजगारउदीरओ, अप्पदरउदीरओ अवट्ठिदउदीरओ च को होदि ? अण्णदरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा । अवत्तव्वउदीरया * णत्थि । एवं सामित्तं समत्तं ? । एयजीवेण कालो - भुजगार- अप्पदरउदीरयाणं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । तं जहा - उवसंतकसाए सुहुमसांपराइए जादे छ उदीरेंतस्स एगो भुजगारसमओ । पुणो बिदियसमए कालं काढूण देवे सुप्पण्णस्स पढमसमए अट्ठ उदीरेंतस्स बिदिओ भुजगारसमओ । एवं भुजगारस्स बे समया । पमत्तसंजदचरिमसमए आउए उदयावलियं पविट्ठे सत्त उदीरंतस्स एगो अप्पदरसमओ । तदो बिदियसमए अप्पमत्तगुणे पविणे वेदणीएण विणा छ उदीरेंतस्स बिदिओ अप्पदरसमओ । एवमप्पदर उदीरणाए वि उक्कस्सेण बे चैव समया । अवट्टिदउदीरणाए कालो जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि समयाहियाए आवलियाए ऊणाणि, देवे सुप्पण्णपढमसमओ मरणावलिया च । एवं भुजगारकालो समत्तो । भुजगार उदीरणाए अंतरं जहण्णेण एक्को वा दो वा समया । कुदो? पंचविहअवक्तव्य उदीरणा होती है । इस अर्थपदके अनुसार आगेके अधिकारोंका कथन करना चाहिये । स्वामित्व - भुजाकार उदीरक, अल्पतर उदीरक और अवस्थित उदीरक कौन होता है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव उनका उदीरक होता है । अवक्तव्य उदीरक नहीं हैं । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । एक जीवकी अपेक्षा काल -- भुजाकार और अल्पतर उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय प्रमाण है । वह इस प्रकारसे -- उपशान्तकषाय जीवके सूक्ष्मसाम्परायिक होकर छह प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेपर भुजाकार उदीरणाका एक समय प्राप्त होता है । पश्चात् द्वितीय समय में मृत्युको प्राप्त होकर देवोंमें उत्पन्न हुए उक्त जीवके प्रथम समयमें आठ कर्मोकी उदीरणा करनेपर भुजाकार उदीरणाका द्वितीय समय प्राप्त होता है । इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अन्तिम समयमें आयुके उदयावली में प्रविष्ट होनेपर सात कर्मोंकी उदीरणा करनेवालेके अत्पतर उदीरणाका एक समय काल होता है । पश्चात् द्वितीय समयमें अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होनेपर वेदनीयके विना छकी उदीरणा करनेवाले के अल्पतर उदीरणाका द्वितीय समय पाया जाता है । इस प्रकार अल्पतर उदीरणाके भी उत्कर्षसे दो ही समय हैं । अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय अधिक आवली से हीन तेतीस सागरोपम प्रमाण है । यहां एक समय और एक आवलीसे देवोंमें उत्पन्न होनेका प्रथम समय और मरणावली ली गई है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ । भुजाकार उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक व दो समय है, क्योंकि, पांच कर्मोंका उदीरक * ताप्रती 'उदीरंतस्स' इति पाठः । प्रत्योरुभयोरेव 'अवत्तव्वत्तउदीरणा' इति पाठः । ताप्रती ' अवद्विद (अवत्तन्त्र ) उदीरया इति पाठः । ताप्रतौ 'समत्तं ' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते । काप्रती ' काले' इति पाठः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ) छक्खंडागमे संतकम्म उदीरओ उवसंतकसाओ हेट्ठा ओदरिय सुहुमसांपराइयो होदूण छव्विहउदीरगो जादो, बिदियसमए भुजगारउदीरणा अवट्ठिदउदीरणाए अंतरिदा, तदियसमए कालं कादूण देवेसुप्पज्जिय अट्ठ उदीरयमाणो भुजगारं गदो, एवमेगसमयअंतरदसणादो। उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊणाणि । तं जहा--तेत्तीससागरोवमेसु उप्पण्णपढमसमए भुजगारं कादूण समऊणतेत्तीससागरोवमाणि अवट्ठिद-अप्पदरउदीरणाए अंतरिय मणुस्सेसु उप्पण्णपढमसमए कयभुजगारस्स समऊणतेत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्सभुजगारंतरं होदि । एवमप्पदरउदीरणाए वि वत्तव्वं । कुदो ? आवलियकालेण देवेसुप्पज्जिहदि त्ति पुव्वं चेव अप्पदरं काऊण अंतरिय देवेसुप्पज्जिय आवलियूणतेत्तीससागरोवमाणि गमिय अप्पदरे कदे तदुवलंभादो। अधवा अप्पदरस्स उक्कस्सं अंतरं तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । अवट्ठिदउदीरणाए जहण्णण अंतरमेगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। एवं भुजगारंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि* भंगविचओ। वेदएसु पयदं--भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदउदीरया णियमा अत्थि, अवत्तव्वं णत्थि । एवमोघो समत्तो। सेसासु गदीसु जाणिदूण वत्तव्वं । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। प्राप्त कषाय जीव नीचे उतर कर सक्षमसाम्परायिक होकर छह कर्मोंका उदीरक हआ, द्वितीय समयमें भलाकार उदीरणा अवस्थित उदीरणासे अन्तरको प्राप्त हई. ततीय समयमें मत होकर देवोंमें उत्पन्न हो आठ कर्मोको उदीरणा करता हआ भजाकर उदीरणाको प्राप्त हआ, इस प्रकार भजाकार उदीरणाका एक समय अन्तर देखा जाता है। उत्कर्षसे एक समय कम तेतीस रोपम प्रमाण अन्तर होता है। वह इस प्रकारसे--तेतीस सागरोपम प्रमाण आय वालोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें भुजाकार उदीरणाको करके एक समय कम तेतीस सागरोपम तक अवस्थित या अल्पतर उदीरणासे अन्तरको प्राप्त हो मनुष्योंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय भुजाकर उदीरणाको करनेपर एक समय कम तेतीस सागरोपम प्रमाण भुजाकर उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकार अल्पतर उदीरणाके विषयमे भी कहना चाहिये, क्योंकि, आवली प्रमाण कालके बाद देवोंमें उत्पन्न होगा, इस प्रकार पूर्व में ही अल्पतर उदीरणा करके अन्तरको प्राप्त हो देवोंमें उत्पन्न होकर आवलीसे कम तेतीस सागरोपमोंको विताकर अल्पतर उदीरणा करनेपर उक्त अन्तर पाया जाता है । अथवा, अल्पतर उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है । अवस्थित उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय है । इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका अन्तर समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय । वेदक प्रकृत हैं-- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे हैं, अवक्तव्य उदीरक नहीं हैं। इस प्रकार ओघ समाप्त हुआ। शेष गति आदिकोंके विषयमें जानकर कथन करना चाहिये। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। o काप्रती ' अप्प० उ० अमरिय, ' ताप्रती 'अप० उ० अंतरं' इति पाठः । * काप्रतौ 'गाजीवेण ' इति पाठः Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदणिक्खेवो ( ५३ भागाभागो, परिमाणं, खेत्तं, पोसणं, कालो, अंतरं, भावो च जाणिदूण णेदव्वो। अप्पाबहुअं-भुजगारउदीरया थोवा । अप्पदरउदीरया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो? संखेज्जमाणुसजीवमेत्तो। अवविदउदीरयार असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? असंखेज्जा समया। एवं मणुसगदीए वि अप्पाबहुअ वत्तव्वं । सेसासु गदीसु भुजगारअप्पदरउदीरया तुल्ला थोवा । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । एवमप्पाबहुअं समतं । पदणिक्खेवो- उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो पंचविहउदीरओ उवसंतकसाओ मदो, तस्स पढमसमयदेवस्स अट्ट उदीरयमाणस्स उक्कस्सिया वड्ढी । एदस्स चेव से काले उक्कस्समवढाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो अटुण्णमुदीरगो पमत्तो अप्पमत्तो जादो तस्स उक्कस्सिया हाणी। पंचउदीरएण दोसु उदीरिदासु उक्कस्सहाणी किण्ण परूविदा ? ण, बहुपयडीहितो बहुहाणीए इहग्गहणादो । अधवा एसो वि संभवो एत्थ संगहेयव्वो। हाणी थोवा, वड्ढी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । एवमोघो समत्तो। भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और भावको जानकर ले जाना चाहिये। अल्पबहुत्व-- भुजाकार उदीरक स्तोक हैं। अल्पतर उदीरक विशेष अधिक है। शंका-- विशेष कितना है ? समाधान-- वह संख्यात मनुष्य जीवोंके बराबर है। अल्पतर उदीरकोंसे अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात समय है। इसी प्रकार मनुष्य गतिमें भी अल्पबहुत्व कहना चाहिये। शेष गतियोंमें भुजाकार और अल्पतर उदीरक समान होकर स्तोक हैं। अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ___ पदनिक्षेप- उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? पांचका उदीरक जो उपशान्तकषाय जीव मृत्युको प्राप्त हुआ है, उसके देव होनेके प्रथम समयमें आठकी उदीरणा करनेपर उत्कृष्ट वृद्धि होती है। इसीके अनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो आठका उदीरक प्रमत्त जीव अप्रमत्त हुआ है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। शंका-- पांचके उदीरक जीवके द्वारा दोकी उदीरणा करनेपर उसके उत्कृष्ट हानिकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, यहां बहुत प्रकृतियोंसे बहुत हानिको ग्रहण किया गया है। अथवा यह विकल्प भी चूंकि सम्भव है, अत: उसका भी यहां संग्रह करना चाहिये । __ हानि स्तोक है तथा वृद्धि व अवस्थान दोनों ही समान होकर उससे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार ओघ समाप्त हुआ। ४ काप्रतौ — उदीरणा' इति पाठः । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४) छक्खंडागमे संतकम्म ___सेसासु गदीसु वड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि तिण्णि वि तुल्लाणि । एवं पदणिक्खेवो समत्तो। एतो वढिउदीरणा- संखेज्जभागवड्ढी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी अवट्टिदउदीरणा चेदि एत्थ चत्तारि चेव पदाणि होति । सेसं जाणिऊण वत्तव्वं । एवं मूलपडिउदीरणा समत्ता।। उत्तरपयडिउदीरणा दुविहा- एगेगपयडिउदीरणा पयडिट्ठाणउदीरणा चेदि । एगेगपयडिउदीरणाए सामित्तं उच्चदे- पंचण्णं णाणावरणीयाणं को उदीरगो ? अण्णदरो छदुमत्थो । आवलियचरिमसमयछदुमत्थो णवरि अणुदीरओ। एवमुवरिमसव्वे छदुमत्था अणुदीरया जाव चरिमसमयछदुमत्थो त्ति । एवं चत्तारिदसणावरणीय-पंचंतराइय-णिद्दा-पयलागं वत्तव्वं, विसेसाभावादो। णिद्दाणिद्दा-पयला मनुष्यगतिके सिवा शेष गतियोंमें वृद्धि, हानि व अवस्थान तीनों ही समान हैं। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। ___ आगे वृद्धिउदीरणाका कथन करते हैं- संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थितउदीरणा, ये चार ही पद यहां होते हैं। शेष कथन जानकर करना चाहिये। विशेषार्थ-- पहले पदनिक्षेपका कथन कर आये हैं। वहां उत्कृष्ट हानिका निर्देश करते समय पांचकी उदीरणा करनेवालेके दोकी उदीरणा करनेपर उत्कृष्ट हानि सम्भव है, उत्कृष्ट हानिके इस विकल्पका भी निर्देश किया है। अब यदि इस विकल्पकी विवक्षा की जाती है तो संख्यातगुणहानिके साथ चार पद सम्भव हैं और यदि इसकी विवक्षा नहीं की जाती है तो संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित ये तीन पद ही सम्भव है । __ इस प्रकार मूलप्रकृतिउदीरणा समाप्त हुई। उत्तरप्रकृतिउदीरणा दो प्रकारकी है- एक-एकप्रतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा। इनमें से एक-एकप्रकृतिउदीरणाके स्वामित्वका कथन करते हैं-- • पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंका उदीरक कौन होता है ? उनका उदीरक अन्यतर छद्मस्थ होता है। विशेष इतना है कि छद्मस्थकालके अन्तमें जिसके आवली मात्र काल शेष रहा है ऐसा छद्मस्थ जीव उनका उदीरक नहीं होता । इसी प्रकार छद्मस्थकी अन्तिम आवलीके प्रारम्भसे लेकर अन्तिम समय तकके आगेके सब छद्मस्थ जीव अनुदीरक हैं । इसी प्रकारसे चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, निद्रा और प्रचलाके विषयमें कथन करना चाहिये, क्योंकि, उनमें इनसे कोई विशेषता नहीं है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और - साना मोत्तण खीणरागं इंदियपज्जत्तगा उदीरेंति । णिहा-पयला सायासायाई जे पमत्त ति॥ पं. सं. ४, १९. इह कर्मस्तवकारादयः क्षग्क-क्षीणमोहयोरपि निद्राद्विकस्योदयमिच्छन्ति, उदये च सत्यवश्यमुदीरणा । ततस्तन्मतेनोक्तं क्षीणरागमन्तावलिकामात्रकाल माविनं मुक्त्वेति । ये पुनः सत्कर्माभिध ग्रन्थकारादयस्ते क्षपक-खीणमोहान् व्यतिरिच्य शेषाणामेव निद्राद्विकस्योदयमिच्छन्ति । तथा च तद्ग्रन्थः- 'णिद्दागुदस्स उदओ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए सामित्तं पयला-थी गिद्धीणं च उदीरओ को होदि ? अण्णदरो इंदियपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तो । एदमादि काढूण एदासिमुदीरणाए ताव पाओग्गो होदि जाव पमत्तसंजदो त्ति णवरि पमत्तसंजदस्स उत्तरसरीरविउव्वणाभिमुहस्स चरिमावलियप्पहुडि उवरि जाव आहारसरीरमुट्ठविय मूलसरीरं पविसदि ताव अणुदीरगो । थोणगिद्वितियस्स अप्पमत्तसंजदा च देव णेरइया च आहारसरोरया च उत्तरसरीरं विउव्विदतिरिक्ख मणुस्सा च असंखेज्जवासाउआ च अणुदीरया । सादासादाणमुदीरणाए मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्ताहिमुहचरिमसमयपमत्तो त्ति पाओग्गो * । मिच्छत्तस्स मिच्छाइट्ठी चेव उदीरगो जाव सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठि ति । वरि उवसमसम्मत्तं पडिवज्जमाणमिच्छाइट्ठिस्स मिच्छत्तपढमद्विदीए आवलियसेसाए णत्थि उदीरणा । सम्मामिच्छत्तस्स सम्मामिच्छाइट्ठी जाव चरिमसमओ त्ति ताव उदीरगो । सम्मत्तस्स असंजदसम्माइद्विप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो ति तावउदीरया । णवरि सम्मत्तं खवेंतुवसामेंताणं सम्मत्तट्ठिदीए उदयावलियपविट्ठाए णत्थि स्त्यानगृद्धि, इनका उदीरक कौन होता है ? इन्द्रिय पर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके द्वितीय समय में रहनेवाला अन्यतर जीव उनका उदीरक होता है । इसको आदि लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक कोई भी जीव इन प्रकृतियोंकी उदीरणाके योग्य होता है । विशेषता इतनी है कि उत्तर शरीरकी विक्रिया अभिमुख हुए प्रमत्तसंयतकी अन्तिम आवलीसे लेकर आगे जब तक आहा शरीर उत्थित हो करके मूल शरीर में प्रविष्ट नहीं होता तब तक वह इनका अनुदीरक है । अप्रमत्तसंयत, देव, नारकी, आहारकशरीरी, उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त तिर्यञ्च व मनुष्य, तथा असंख्यातवर्षायुष्क ये सब उक्त स्त्यानगृद्धि आदि तीन प्रकृतियोंके अनुदीरक हैं । मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती प्रमत्तसंयत तक साता व असातावेदनीयकी उदीरणाके योग्य होता है । सम्यक्त्व अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि तक मिथ्यादृष्टि जीव ही मिथ्यात्व प्रकृतिका उदीरक होता है। विशेष इतना है कि उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व की प्रथम स्थितिमें एक आवलीके शेष रहनेपर उदीरणा नहीं होती । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपने अन्तिम समय तक सम्यग्मिथ्यात्वका उदीरक होता है । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सम्यक्त्व प्रकृतिके उदीरक होते हैं । विशेष इतना है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय अथवा उपशम करनेवाले जीवोंके सम्यक्त्वकी स्थिति के उदयावली में प्रविष्ट होनेपर उसकी उदीरणा सम्भव नहीं है । खवगे परिच्चज्ज | ' तन्मतेनोदीरणापि निद्राद्विकस्य क्षपक-क्षीणमोहान् व्यतिरिच्य शेषाणामेव वेदितव्या । तथा चोक्तं कर्म प्रकृतौ - इंदियपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तगाए पाउग्गा । णिद्दा पयलाणं खीणराग-खवगे परिचचज्ज ।। ( ४-१८ ) ( मलयगिरि टीका ) । निद्दानिद्दाईण वि असंखवासा य मणुय तिरिया य । वेउव्वाहारतणू वज्जित्ता अध्यमते य ॥ क. प्र. वेयणियाण पमत्ता xxx ॥ क. प्र. ताप्रती 'मुदीरया ( णा ) ए इति पाठः । काप्रती 'खइयेंतुवसामंताणं' इति पाठः । ४, १९ ४, २० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ) छक्खंडागमे संतकम्म उदीरणा । अणंताणुबंधिचउक्कस्स मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी वा उदीरगो । अपच्चक्खाणचउक्कस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइद्विचरिमसमओ त्ति ताव उदीरया । पच्चक्खाणचउक्कस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदस्स चरिमसमओ त्ति ताव उदीरया । णवंसयवेदस्स उदीरओ को होदि? सव्वो णवंसओ। णवरि खवओ उवसामओ वा णवंसओ णवंसयवेदपढमट्टिदीए उदयावलियमेत्तसेसाए अणुदीरगो णवंसयवेदस्स, अवसेसो सव्वो णवूसओ उदीरगो चेव। जहा णवंसयवेदस्स तहा इत्थिवेद-पुरिसवेदाणं पि वत्तव्वं । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं मिच्छाइद्विमादि कादूण जाव अपुव्वकरणचरिमसमयं ति ताव उदीरगो। णवरि साद-हस्सरदीणं पढमसमयदेवमादि कादूण जाव अंतोमुहुत्तदेवो त्ति ताव णियमा उदीरणा, उवरि भज्जा। असाद-अरदिसोगाणं पढमसमयणेरइयमादि कादूण जाव अंतोमुहुत्तणेरइओ त्ति ताव णियमा उदीरणा । तिण्णं संजलणाणं मिच्छाइट्ठिमादि कादूण जाव अणियट्टिअद्धाए सग-सगबंधज्शवसाणाणं चरिमसमओ त्ति ताव उदोरणा। लोहसंजलणाए मिच्छाइट्ठिमादि कादूण जाव समयाहियावलियचरिमसमयसकसाओ ति ताव उदीरणा। णिरयाउअस्स+ सव्वम्हि णेरइयम्हि उदीरणा । णवरि आवलियचरिमसमय अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव उदीरक होता है। अप्रत्याख्यानचतुष्कके मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समय तकके जीव उदीरक होते हैं। प्रत्याख्यानचतुष्कके मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानके अन्तिम समय तकके जीव उदीरक होते हैं। नपुसंकवेदका उदीरक कौन होता है ? उसके उदीरक सभी नपुंसक जीव होते हैं। विशेष इतना है कि क्षपक और उपशामक नपुंसक जीव नपुंसकवेदकी प्रथम स्थितिके उदयावली मात्र शेष रहनेपर नपुंसकवेदके अनुदीरक होते हैं । शेष सब नपुंसक जीव उसके उदीरक ही होते हैं। जिस प्रकारसे नपुंसकवेदके उदीरकोंका कथन किया गया है, उसी प्रेकारसे स्त्री और पुरुष वेदोंके भी उदीरकोंका कथन करना चाहिए । हास्य, रति, अरति, शोक भय व जुगुप्सा; इन प्रकृतियोंका उदीरक मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक रहनेवाला जीव होता है । विशेष इतना है कि देवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहुर्त तक सातावेदनीय, हास्य और रति इनकी उदीरणा नियमसे होती है। आगे वह भाज्य है। अर्थात् आगे वह होती भी है और नहीं भी होती। तथा नारकीके उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त तक असाता वेदनीय, अरति और शोककी उदीरणा नियमसे होती हैं। तीन संज्वलन कषायोंकी उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरणकालमें अपने-अपने बन्धाध्यवसानोंके अन्तिम समय तक होती है । संज्वलनलोभकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर अन्तिम समयवर्ती सकषाय होने में एक समय अधिक आवलि मात्र कालके शेष रहने तक होती है। नारकायुकी उदीरणा सब नारकियोंमें होती है। विशेष इतना है कि जिस नारक जीवके क. प्र ४, ६.*xxx ते ते बंधतगा कसायाणं । क. प्र. ४, २०. अंतमहत्तं तु आइमं देवा । इयराणं नेरइया उड्ढं परियत्तणविहीए ॥ प. सं. ४, २१. उभाउअस्स' ताप्रती 'णिरयाउ (आउ ) अस्स' इति पाठः। ४ हास-रई-सायाणं काप्रती "णिरया Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवकमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए सागित्तं (५७ तन्भवत्थणेरइयमादि काढूण जाव चरिमसमयतब्भवत्यो त्ति ताव अणुदीरओ । जहा रिया अस्स तहा सेसाउआणं पि परूवणा कायव्वा । णवरि तिरिक्ख मणुस - देवाउआणं जहाकमेण तिरिक्ख मणुस देवाचेव उदीरया । मणुसाउअस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदस्स मरणकाले चरिमावलियं मोत्तूण अण्णत्थ उदीरणा । णिरयगइणामाए सव्वो णेरइओ उदीरओ । तिरिक्खगइणामाए सव्वो तिरिक्खजोणिओ उदीरओ । मणुसगइणामाए अजोइं मोत्तूण सेसो सव्वो मणुसो मणुसिणी वा उदीरओ | देवगदिणामाए सव्वो देवो सव्वदेवी वा उदीरया । एइंदियजादिणामाए सव्वो एइंदियो, बीइंदियजादिणामाए सव्वो बीइंदियो, तीइंदियजादिणामाए सव्वो तीइंदियो, चरदियजादिणामाए सव्वो चरिदियो, पंचिदियजादिणामाए सव्वो पचिदियो उदीरओ । णवरि पंचिदियजादिणामाए अजोगिम्हि णत्थि उदीरणा । ओरालियस रणामाए उदीरगो अण्णदरो जो ओरालियसरीरस्स णिव्वत्तओ । वेउब्वियसरीरणामाए उदीरओ अण्णदरो जो वेउव्वियसरीरस्स णिव्वत्तओ । आहारसरीरणामाए उदीरगो अण्णदरो जो आहारसरीरस्स णिव्वत्तओ । तेजा - कम्मइयसरीराणमुदीरओ अण्णदरो जो सजोगो । जहा सरीराणं तहा तेसिमंगोवंगणामाणं वत्तव्वं । एवं अन्तिम समयवर्ती तद्भवस्थ होनेमें आवली मात्र काल शेष रहा है उससे लेकर अन्तिम समयवर्ती नारक तक उसकी उदीरणा नहीं होती । जैसे नारकायुकी उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही शेष तीन आयु कर्मोंकी भी उदीरणाकी प्ररूपणा करनी चाहिये । विशेष इतना है कि तिर्यंच, मनुष्य और देव आयुओंके उदीरक यथाक्रमसे तिथंच मनुष्य एवं देव ही होते हैं | मनुष्यायुकी मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक उदीरणा होती है । मात्र मरणकालमें अन्तिम आवलीको छोड़कर अन्य कालमें ही उदीरणा होती है । नरकगति नामकर्मके सभी नारकी उदीरक होते हैं । तिर्यचगति नामकर्मके सभी तिर्यंच योनिवाले जीव उदीरक होते हैं। मनुष्यगति नामकर्मके उदीरक अयोगी जिनको छोडकर शेष सब मनुष्य और मनुष्यनियां होती हैं । देवगति नामकर्मके उदीरक सब देव और सभी देवियां हैं। एकेन्द्रियजाति नामकर्म के सब एकेन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रियजाति नामकर्मके सब द्वीन्द्रिय जीव, त्रीन्द्रियजाति नामकर्मके सब त्रीन्द्रिय जीव, चतुरिन्द्रियजाति नामकर्म के सब चतुरिन्द्रय जीव, तथा पंचेंन्द्रियजाति नामकर्मके सब पंचेंन्द्रिय जीव उदीरक होते हैं विशेष इतना है कि पंचेन्द्रियजाति नामकर्मकी उदीरणा अयोगी गुणस्थान में नहीं है । औदारिकशरीर नामकर्मका उदीरक अन्यतर जीव होता है जो कि औदारिकशरीरका निर्वर्तक है । वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदीरक अन्यतर जीव होता है जो कि वैक्रियिकशरीरका निर्वर्तक है | आहारशरीर नामकर्मका उदीरक अन्यतर जीव होता है जो कि आहारशरीरका निर्वर्तक है । तैजस और कार्मण शरीरोंका उदीरक अन्यतर जीव होता है जो कि योगसे सहित है । जैसे शरीरोंकी उदीरणाका कथन किया गया है वैसे ही उनके अंगोपांग नामकर्मोंकी उदीरणाका भी कथन करना XXX कामतो बेव्वियसरीरणामस्स, तातो 'वेउब्वियसरीरस्स णामस्स इति पाठः । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ) छक्खंडागमे संतकम्म छसंठाण-वज्जरिसहवइरणारायणसंघडणाणं पि वत्तव्वं। सेसाणं संघडणणामाणं उदीरगो णिवत्तओ। तं जहा- वेउव्वियसरीरस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठित्ति उदीरणा। एवं तदंगोवंगस्स। आहारदुगस्स पमत्तसंजदम्मि चेव उदीरणा। वज्जणारायणसंघडण-णारायणसंघडणाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव उवसंतकसाओ त्ति उदीरणा। अद्धणारायणसंघडण-खीलियसंघडण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति उदीरणा। पंचबंधण-पंचसंघादाणं पंचसरीरभंगो। वण्ण-गंधरस-फासाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति उदीरणा । णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पढमसमयणेरइओ दुसमयणेरइओ वा मिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी वा उदीरओ। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुविवणामाए तिरिक्खो पढमसमयतब्भवत्थो बिदियसमयतब्भवत्थो वा सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी वा, पढमसमय-दुसमय-तिसमयतब्भत्थमिच्छाइट्ठी वा उदीरओ। मणुसगइपाओग्गाणुपुस्विणामाएपढमसमय दुसमयतब्भवत्थो सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा उदीरओ* । देवगइपाओग्गाणुपुवीणामाए पढमसमयतब्भवत्थो दुसमयतब्भवत्थो चाहिये। इसी प्रकारसे छह संस्थानों और वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननको उदीरणाका भी कथन करना चाहिये। शेष संहनन नामकर्मोंका उदीरक उनका निवर्तक होता है। यथा- वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होती है। इसी प्रकार वैऋियिकशरीरांगोपांगकी भी उदीरणा जानना चाहिये। आहारद्विककी उदीरणा प्रमत्तसं यतमें ही होती है। वज्रनाराचसंहनन और नाराचसंहननकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक होती है। अर्धनाराचसंहनन, कीलितसंहनन और असंप्राप्तासपाटिकासंहननकी उदीरणा मिथ्यावृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक होती है। पांच बन्धन और पांच संघातोंकी उदीरणाकी प्ररूपणा पांच शरीरोंके समान है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्षकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक होती है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समयवर्ती नारक अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती नारक मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि होता है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा प्रथम समय, द्वितीय समय और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ मिथ्यादृष्टि होता है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानूपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समय अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होता है। देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि अथवा अगंयत . प्रत्योरुभयोरेव ‘संघडणाणं ' इति पाठः। * काप्रती 'तिरिक्ख' इति पाठः । काप्रतौ 'सासण सम्माइली असंजदसम्मामिच्छाइट्ठी वा उदीरओ', ताप्रती 'सासणसम्माइटी असंजदसम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा पढमसमयदुसमयतिसमयतब्भवत्थमिच्छाइटठी वा उदीरओ' इति पाठः । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए गामित्तं मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी वा उदीरओ। अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुभासुभ-णिमिणणामाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा। उवघादणामाए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिचरिमसमओ त्ति उदीरणा। णवरि आहारओ चेव उदीरेदि, णाणाहारओ। परघादणामाए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिचरिमसमओ ति उदीरणा। णवरि सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो चेव उदीरेदि । उस्सासणामाए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा। णवरि आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदो चेव उदीरओ*। आदावणामाए बादरपुढविजीवो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो चेव उदीरओ। उज्जोवणामाए एइंदियो वा बादरो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो चेव उदीरओ । पसत्थविहायोगदिणामाए पंचिदियो पज्जत्तो सण्णी असण्णी वा मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरगो। एवमप्पसत्थविहायोगइणामाए वि वत्तव्वं । णवरि सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो सव्वो तसकाइयो सजोगी उदीरेदिई । गम्यग्दृष्टि होता है। ___ अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण, इन नामकर्मोंकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समय तक होती है। उपघात नामकर्मकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। विशेष इतना है कि उसकी उदीरणा आहारक ही करता है, अनाहारक नहीं करता। परघात नामकर्मकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। विशेष इतना है कि शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ जीव ही उसकी उदीरणा करता है। उच्छ्वास नामकर्मकी उदीरणा मिथ्यादष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है । विशेष इतना है कि आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ जीव ही उसका उदीरक होता है। आतप नामकर्मका उदीरक शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ बादर पृथिवीकायिक जीव ही होता है। उद्योत नामकर्मका उदीरक शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ ही एकेन्द्रिय अथवा द्वीन्द्रिय आदि बादर जीव होता है। प्रशस्तविहायोगति नामकर्मका उदीरक पंचेन्द्रिय पर्याप्त संज्ञी और असंज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होता है। इसी प्रकार अप्रशस्तविहायोगति नामकर्मकी उदीरणाका भी कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए सब त्रसकायिक सयोगकेवली तक उसकी उदीरणा करते हैं। ४ ताण्तावतः प्राक- उदीरओ ( आदावणामाए बादरपुढविजीवो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो चेव उदीरओ ) इत्येतावानयं पाठ उपलभ्यते कोष्ठाकान्तर्गतः । * उस्सासस्स सराण य पज्जत्ता आण पाणभासासु । सव्वण्ण णुस्सासो भासा वि य जान रुज्झति ॥ क. प्र. ४, १५. प. सं. ४, १६. बायरपुढवी आयावस्स य वज्जित सुहम-सुहुमतसे । उज्ज यस्स य तिरिए (ओ) उत्तरदेहो य देव-जई ।। क. प्र. ४, १३. पज्जत्त-बायरे च्चिय आयवउद्दीरगो भोमो। पुढवी-आउ-वणस्सइ-बायर-पज्जत्त उत्तरतणय। विगलपणिदियतिरिया उज्जोव बीरगा भणिया ।। पं० सं०४, १३-१४. | सगला सुगति-सराणं पज्जत्तासंखवास-देवा य । इयराणं नेरइया नर-तिरि सुसरस्स विगला य ।। पं. सं. ४, १५. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म तसणामाए तसकाइयमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा। बादरणामाए बादरमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा। पज्जत्तणामाए पज्जत्तमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिवरिमसमओ त्ति उदीरणा । पत्तेयसरीरणामाए पत्तेयसरीरमिच्छाइटिप्पडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ ति उदीरणा। णवरि आहारओ चेत्र उदीरओ, णाणाहारओ। थावरणामाए थावरो मिच्छाइट्ठी उदीरओ। सुहुमणामाए सुहमेइंदियो उदीरओ। अपज्जत्तणामाए अपज्जत्तो मिच्छाइट्ठी उदीरओ। साहारणसरीरणामाए अण्णदरो साहारणकाइयो आहारओ चेव उदीरओ। जसकित्तिणामाए बीइंदियो तीइंदियो चरिदियो पंचिदियो वा पज्जत्तो चेव उदीरओ, एइंदियो वि बादरो पज्जत्तो तेउक्काइय-वाउकाइयवदिरित्तो उदीरेदि, संजदासंजदा संजदा च णियमा जसगित्तीए उदीरया जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति । जदा पग्गहेण पग्गहिदो तदा अजसगित्तिवेदगो वि जसिित्त वेदयदि, तव्वदिरित्तो दो वि वेदयदि । परगहो णाम संजमो संजमासंजमो च । अजसगित्तिणामाए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति उदीरणा । सुभगादेज्जाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि गब्भोवक्कं तियसण्णि त्रस नामकर्मकी उदीरणा त्रसकायिक मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली के अन्तिम समय तक होती है। बादर नामकर्मकी उदीरणा बादर मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। पर्याप्त नामकर्मकी उदीरणा पर्याप्त नामकर्मके उदयसे संयक्त मिथ्यादष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। प्रत्येकशरीर नामकर्मकी उदीरणा प्रत्येकशरीर मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। विशेष इतना है कि आहारक जीव ही उसका उदीरक होता है. अनाहारक नहीं होता। स्थावर नामकर्मका स्थावर मिथ्यादष्टि उदीरक है। सुक्ष्म नामकर्मका सक्ष्म एकेन्द्रिय जीव उदीरक है । अपर्याप्त नामकर्मका अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे संयुक्त मिथ्यादृष्टि उदीरक है । साधारणशरीर नामकर्मका उदीरक अन्यतर साधारणकायिक आहारक जीव ही होता है । यशकीर्ति नामकर्मका उदीरक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंवेन्द्रिय पर्याप्त ही होता है; तेजकायिक व वायुकायिकको छोडकर एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त जीव भी उसकी उदीरणा करता है ; तथा संयतासंयत और सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक संयत जीव भी नियमसे यशकीतिके उदीरक हैं । जब प्रग्रहसे प्रगृहीत अर्थात् संयमको स्वीकार करता है तब अयशकीर्तिका वेदक भी यशकीर्तिका वेदक होता है, शेष जीव दोनोंका वेदन करते हैं। प्रग्रहका अर्थ संयम और संयमासंयम है। अयशकीर्ति नामकर्मकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होती है। सुभग और आदेयकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। विशेष इतना है कि अन्यतर गर्भोपकान्त संज्ञी व असंज्ञी ४ ताप्रत 'पज्जत्तणामाए मिच्छाइटिप्पहुडि ' इति पाठः। * काप्रती 'संजदासजदा संजदो', ताप्रती 'संजदासंजदो संजदो' इति पाठः । ॐ नेरइया सुहुमतसा व'जय सुहमा य तह अपनत्ता। जगगितिउदीरगाइज्जसू भगनानाण सण्णि सुरा । पं. सं. ४, १७. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्क माणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए एगजीवेण कालो ( ६१ असणण अण्णदरा नियमा देवा देवीओ संजदासंजदाQ संजदा च उदीरेंति । दूभगअणाज्जाणं मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव असंजत्रसम्माइट्ठि त्ति उदीरणा । सुस्सर दुस्सराणं मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि बेइंदियो तेइंदियो चउरदियो पंचिदियो वा भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदो चेव उदीरेदि । तित्थयरणामाए तित्थयरो उप्पण्णकेवलणाणो सजोगी चेव उदीरगो । उच्चागोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदी रणा । णवरि मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा सिया उदीरेदि, देवो देवी वा संजदो वा णियमा उदीरेंति, संजदासंजदो सिया उदीरेदि । णीचागोदस्स मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिक्ख णेरइएसु थिमा उदीरणा, मणुसेसु सिया उदीरणा * । एवं सामित्तं समत्तं । जीवेण कालो - आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उदीरओ अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो । एवं सेसचत्तारिणाणावरणीय चत्तारिदंसणावरणीय तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस - फास - अगुरुअलहुअ-थिराथिर- सुभासुभ- णिमिण-पंचं तराइari दोह भंगेहि कालपरूवणा कायव्या । णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थी गिद्धीणमुदीरणाए जीव उसकी उदीरणा करते हैं; तथा देव व देवियां, संयतासंयत एवं संयत जीव नियमसे उसकी उदीरणा करते हैं । दुभंग व अनादेयकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होती है । सुस्वर और दुस्वरकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली के अन्तिम समय तक होती है । विशेष इतना है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होकर ही उनकी उदीरणा करता है। तीर्थंकर नामकर्मका उदीरक जिसके केवलज्ञान उत्पन्न हो चुका है ऐसा सयोगी तीर्थंकर ही होता है । उच्चगोत्रकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है । विशेष इतना है कि मनुष्य और मनुष्यनी उसकी कदाचित् उदीरणा करते हैं, देव-देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियमसे करते हैं, तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते हैं। नीचगोत्रकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक होती है । विशेष इतना है कि देवोंमें उसकी उदीरणा सम्भव नहीं है, तिर्यंचों व नारकियोंमें उसकी उदीरणा नियमसे तथा मनुष्योंमें कदाचित् होती है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। । एक जीवकी अपेक्षा काल- आभिनीबोधिकज्ञानावरणीयका उदीरक अनादि - अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित जीव है । इसी प्रकारसे शेष चार ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय; इन प्रकृतियों (ध्रुवोदयी) के उदीरणाकालकी प्ररूपणा इन दो भंगों से करनी चाहिये । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है, उच्च चिय जइ देवो सुभग ए (इ) ज्जाग गब्भवक्कंतिओ य क प्र. ४, १६. अमरा केई मणुया व नीयमेवण्णे । चउगया दुभगाई तित्थयरो केवली तित्थं । पं. सं. ४, १८. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ) छक्खंडागमे संतकम्म कालो जहण्णेण एगसमओ। कुदो? अदुवोदयादो। उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । एवं णिद्दापयलाणं पि वत्तव्वं । सादस्स जहण्णएण एयसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । असादस्स जहण्णएण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहत्तब्भहियाणि । कुदो? सत्तमपुढविपवेसादो पुव्वं पच्छा च असादस्स अंतोमुत्तमेत्तकालमुदीरणुवलंभादो। हस्स-रदीणं कालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण छमासा। अरदि-सोगाणं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तब्भहियाणि। मिच्छतस्स तिण्णि भंगा-जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। सम्मत्तस्स जहण्णेण अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण छावद्धिसागरोवमाणि आवलियूणाणि । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णेण उक्कस्सेण वि अंतोमुहत्तं । सम्मत्त-मिच्छत्तसम्मामिच्छताणं जहण्णगो उदीरणकालो तल्लो। सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सउदीरणकालो विसेसाहिओ। अणंताणुबंधिकोधस्स उदीरणकालो जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं। एवं माण-माय-लोभाणं पि वत्तव्वं । जहा अणंताणुबंधीणं तहा अपच्चवखाणचउक्क-पच्चक्खाणचउक्काणं पि वत्तव्वं । कोहसंजलणाए जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । एवं माण-माया-लोभसंजलणाणं वत्तत्वं । भय-दुगुंछाणं जहण्णेण क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। उनकी उदीरणाका काल उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है। इसी प्रकारसे निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंके उदीरणाकाल कथन करना चाहिये। सातावेदनीयकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास है। असातावेदनीयकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षत: अन्तर्महुर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि, सातवीं पृथिवी में प्रवेश करनेसे पूर्व और पश्चात् अन्तर्मुहुर्त मात्र काल तक असातावेदनीयकी उदीरणा पायी जाती है । हास्य व रतिका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास है। अरति और शोकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। मिथ्यात्वके उदीरणाकालकी प्ररूपणामें तीन भंग हैं- उनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपाधं पुद्गलपरिवर्तन है। सम्यक्त्व प्रकृतिका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे आवलीसे कम छयासठ सागरोपम प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वका काल जघन्यसे और उत्कर्षसे भी अन्तर्मुहूर्त मात्र है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों प्रकृतियोंका जघन्य उदीरणाकाल समान है। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट उदी रणाकाल उससे विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी क्रोधका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकारसे अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभके भी उदीरणाकालका कथन करना चाहिये । जैसे अनन्तानुबन्धी कषायोंके उदीरणाकालकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही अप्रत्याख्यानचतुष्क और प्रत्याख्यानचतुष्कके भी उदीरणकालकी प्ररूपणा करना चाहिये । संज्वलन क्रोधका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है। इसी प्रकार संज्वलन मान, माया और लोभके उदीरणाकालका कथन करना चाहिये । भय और जुगुप्साका Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए एगजीयेण कालो (६३ एयसमओ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । कधं भय-दुगुंछाणमुदीरणकालो एगसमओ ? अपुव्वकरणचरिमसमयम्मि पढमसमयवेदगो होदूण से काले अणियट्टिगुणं गदस्स उदीरणवोच्छेददसणादो। णवंसयवेदस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जपोग्गलपरियट्टं। इथिवेदस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवेदस्स जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । णिरयाउअस्स जहण्णेण दसवाससहस्साणि आवलियाए ऊणाणि, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियाए ऊणाणि । एवं देवाउअस्स वि वत्तव्वं । मणुसाउअस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णिपलिदोवमाणि आवलियाए ऊणाणि । तिरिक्खाउअस्स जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमावलियाए ऊणं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि आवलियाए ऊणाणि । णिरयगदिणामाए उदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दसवाससहस्साणि, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि । एवं देवगदीए वि वत्तव्वं । तिरिक्खगदिणामाए मणुसगदिणामाए च जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण परिवाडीए अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियÉ तिण्ण पलिदोवमाणि पुवकोडियुधत्तेणब्भहियाणि । अजोगिवज्जा मणुसगदीए उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है।। शंका-- भय और जुगुप्साका उदीरणाकाल एक समय कैसे है ? समाधान-- कारण कि अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उनका एक समयके लिये वेदक होकर अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त होनेपर उक्त प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति देखी जाती है । नपुंसकवेदका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। स्त्रीवेदका जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमशतपृथक्त्व प्रमाण है । पुरुषवेदका उदीरणाकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है। नारकायुका उदीरणाकाल जघन्यसे एक आवली कम दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे आवली कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। इसी प्रकार देवायुके उदीरणाकालका भी कथन करना चाहिये । मनुष्यायुका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवली कम तीन पल्योपम प्रमाण है । तिर्यंच आयुका उदीरणाकाल जघन्यसे आवली कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे आवली कम तीन पल्योपम प्रमाण है। नरकगति नामकर्मकी उदीरणा कितने काल होती है ? उसकी उदीरणा जघन्यसे दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल तक होती है। इसी प्रकारसे देवगतिके भी उदीरणाकालका कथन करना चाहिये। तिर्यंचगति नामकर्म और मनुष्यगति नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे क्रमशः असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप अनन्त काल तथा पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाण है । अयोगकेवलिको छोडकर शेष ( सब मनुष्य व मनुष्यनी ) मनुष्यगति नामकर्मके उदीरक हैं। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ) छवखंडागमे संतकम्म उदीरथा। एइंदियजादिणामाए जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टं। बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदियजादीणं जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि। पंचिदियजादिणामाए जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियं । ओरालियसरीरणामाए जहण्णेण एगसमओ। कुदो? उत्तरसरीरं विउब्विय मूलसरोरं पविसिय एगसमयमोरालियसरीरमुदीरिय बिदियसमए कालं काढूण विग्गहं गदस्त तदुवलंभादो। उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। वेउव्वियसरीरणामाए जहणेण एगसमओ। कुदो? तिरिवखमणुस्सेसु एगसमयमुत्तरसरीरं विउव्विदूण बिदियसमए मुदस्स तदुवलंभादो। उवकस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि। आहारसरीरणामाए जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कुदो ? आहारसरीरमुट्ठावेंतस्स अपज्जत्तद्धाए मरणाभावादो। जहा तिण्णं सरीराणं तहा तेसिं अंगोवंगाणं पि वत्तव्वं । णवरि ओरालियसरीरंगोवंगणामस्स उक्कस्सेण* तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । जहा पंचण्णं सरीराणं तहा तेसि बंधण-संघादाणं परूत्रणा कायव्वा । समचउरससंठाणणामाए जहण्णेण एगसमओ। कुदो ? अणप्पिदसंठाणेण उत्तर एकेन्द्रियजाति नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप अनन्त काल है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । पंचेन्द्रियजाति नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक हजार सागरोपम प्रमाण है। औदारिकशरीर नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय मात्र है, क्योंकि, उत्तर शरीरकी विक्रिया कर मूल शरीरमें प्रविष्ट होकर एक समय औदारिकशरीरकी उदीरणा करनेके पश्चात् द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त होकर जो विग्रहको प्राप्त हुआ है उसके उपर्युक्त काल पाया जाता है। उसका उत्कृष्ट उदीरणाकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय मात्र है, क्योंकि, तिर्यंचों या मनुष्योंमें एक समय उत्तर शरीरकी विक्रिया करके द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त हुए जीवके उक्त काल पाया जाता है। उसका उत्कृष्ट उदीरणाकाल साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। आहारशरीर नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है, क्योंकि, आहारशरीरको उत्पन्न करनेवाले जीवका अपर्याप्तकालमें मरण सम्भव नहीं है । जैसे इन तीन शरीरोंके उदीरणाकालकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही उनके अंगोंपांगोंके भी उदीरणाकालकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि औदारिकशरीरांगोपांगका उदीरणाकाल उत्कर्षसे पूर्वकोटिपथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाण है। जैसे पांच शरीरोंके उदीरणाकालकी प्ररूपणा की गई है बैसे ही उनके बन्धन और संघातोंके उदीरणाकालकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। समचतुरस्रसंस्थान नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय मात्र है, क्योंकि, 8 प्रत्योरुभयोरेव -णामाण' इति पाठः । * कापतो ' उक्कस्स तातो 'उक्कस्से.' इति पाठः। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्तमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए एगजीवेण कालो ( ६५ सरीरं विउव्विय अप्पिदसंठाणमूलसरीरं पविट्ठ बिदियसमए कालं काढूण संठाणंतरं गदस्स एगसमयकालुवलंभादो । उक्कस्सेण तेवट्ठि-सागरोवमसदं सादिरेयं । सेसाणं संठाणाणं इंडसठाणवज्जाणं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुव्वकोडि धत्तं, कम्मभूमि पंचिदियतिरिक्ख मणुस्से मोत्तूण अण्णत्थ सेससंठाणाणं संभवाभावादो। हुंडठाणणा जहणे एसओ, उक्कस्सेण अंगुलस्त असंखेज्जदिभागो । कुदो ? विग्गहगदीए विणा हिंडमाणएइंदिय-विगलदिएसु संठाणंतराभावादो । अनंतकालो किरण परूविदो ? ण, विग्गहगदी वट्टमाणाणं संठाणुदयाभावादो । तत्थ संठाणाभावे जीवाभावो किण्ण होदि ? ण, आणुपुव्विणिव्वत्तिदसंठाणे अवट्ठियस्स जीवस्स अभावविरोहादो । वज्जरि सहवइरणारायणसरीरसंघडणणामाए जहण्णेण एगसमओ, उत्तरसरीरादो मूलसरीरं गंतूण अप्पिदसंघडणेण * एगसमयं परिणमिय बिदियसमए मुदस्स तदुवलंभादो ! उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणन्भहियाणि । सेसाणं संघडणाणं पंचणं पि जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुव्वकोडिपुधत्तं । अविवक्षित संस्थान के साथ उत्तर शरीरकी विक्रिया करके विवक्षित संस्थानवाले मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेके द्वितीय समय में मृत्युको प्राप्त होकर संस्थानान्तरको प्राप्त हुए जीवके एक समय मात्र काल पाया जाता है । उसका उत्कृष्ट उदीरणाकाल साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम प्रमाण है । हुण्डकसंस्थानको छोडकर शेष चार संस्थानोंका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व मात्र है, क्योंकि, कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्योंको छोडकर अन्यत्र शेष संस्थानोंकी सम्भावना नहीं है । हुण्डकसंस्थान नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है, क्योंकि, विग्रहगतिके विना परिभ्रमण करनेवाले एकेन्द्रियों व विकलेन्द्रियोंमें अन्य संस्थानकी सम्भावना नहीं है । शंका -- अनन्तकालकी प्ररूपणा क्यों नहीं की ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, विग्रहगति में रहनेवाले जीवोंके संस्थानका उदय सम्भव नहीं है । शंका --- विग्रहगतिमें संस्थानके अभाव में जीवका अभाव क्यों नहीं हो जाता ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, वहां आनुपूर्वीके द्वारा रचे गये संस्थानमें अवस्थित जीवके अभावका विरोध है वज्रर्षभनाराचशरीरसंहनन नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय मात्र है, क्योंकि, उत्तर शरीरसे मूल शरीरको प्राप्त होकर विवक्षित संहननसे एक समय परिणत होकर द्वितीय समय में मृत्युको प्राप्त हुए जीवके उक्त काल पाया जाता है । उसका उदीरणाकाल उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पत्योपम प्रमाण है । शेष पांचों ही संहननों का उदीरणाकाल जघन्यसे एक समम और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । ताप्रती 'विग्गहगदीसु' इति पाठः । प्रत्योरुभयोरेव ' संघादणेण ' इति पाठ: । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म -णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। एवं मणुसगइ-देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाणं वत्तव्वं । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुस्विणामाए जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया। उवघादणामाए जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। परघादणामाए जहण्णेण एगसमओ, उत्तरसरीरं विउव्विय पज्जत्तयदबिदियसमए मुदस्स एगसमओ लब्भदे । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि। जहा परघादणामाए परूविदं तहा उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइसुस्सर-दुस्सराणं परवेयव्वं । आदावणामाए जहण्णण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण बावीसवस्ससहस्साणि देसूणाणि, सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयस्स आदावुदयाभावादो। उज्जोवणामाए* जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । तसणामाए जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि। थावर-बादर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेयसाधारणाणं जहण्णगो उदीरणकालो अंतोमुहत्तं । उक्कस्सओ थावरणामाए असंखेज्जपोग्गलपरियट्टा, बादरणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, सुहुमणामाए असंखेज्जा लोगा, पज्जत्तणामाए बेसागरोवमसहस्साणि, अपज्जत्तणामाए अंतोमुहुत्तं, पत्तेय-साहारणाणं नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र है। इसी प्रकार मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोंके उदीरणाकालका कथन करना चाहिये । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय प्रमाण है। उपघात नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। परघात नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय है, क्योंकि, उत्तर शरीरकी विक्रिया कर पर्याप्त होनेके द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त हुए जीवके एक समय काल पाया जाता है। उसका उदीरणाकाल उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। जैसे परघात नामकर्मके उदीरणाकालकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, सुस्वर और दुस्वर नामकर्मोके उदीरणाकालकी प्ररूपणा करना चाहिये । आतप नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष प्रमाण है, क्योंकि, शरीरपर्याप्तिसे अपर्याप्त जीवके आतप नामकर्मका उदय सम्भव नहीं है। उद्योत नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे कुछ कम तीन पल्य प्रमाण है। त्रस नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण है । स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक और साधारण नामकर्मोका उदीरणाकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । उत्कृष्ट उदीरणाकाल स्थावर नामकर्मका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन, बादर नामकर्मका अंगुलके असंख्यातवें भाग, सूक्ष्म नामकर्मका असंख्यात लोक, पर्याप्त नामकर्मका दो हजार सागरोपम, अपर्याप्त नामकर्मका अन्तर्मुहूर्त, तथा प्रत्येक व ४ उपयोरेव प्रत्योः 'मणसगइ-देवगइणामाणं' इति पाठः। *उभयोरेव प्रत्योः 'उज्जोव गामाणं' इति पाट:। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए एगजीवेण कालो ( ६७ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। जसगित्ति-सुभगादेज्जणामाणं जहण्णण एगसमओ उत्तरविउव्वणाए कालं करेंतस्स, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । अजसगित्ति-दूभग-अणादेज्जणामाणं जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अजसगित्तीए असंखेज्जा लोगा, दूभगअणादेज्जाणं असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। कधमेगसमओ ? अजसकित्तिमुदीरयमाणो संजदो जादो, ताधे जसगित्ती उदयमागदा, पुणो अंतोमुहत्तेण सासणं गदो, तत्थ अजसगित्तीए उदीरणाबिदियसमए मुदो, तस्स एगसमओ लब्भइ। उत्तरविउवणाए वि लब्भदे। एवं दूभग-अणादेज्जाणं पि वत्तव्वं, परियट्टमाणउदयत्तादो। तित्थयरणामाए जहण्णेण वासपुधत्त, उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा। णीचागोदस्स जहण्णण एगसमओ, उच्चागोदादो णीचागोदं गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय बिदियसमए उच्चागोदे उदयमागदे एगसमओ लब्भदे । उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । उच्चागोदस्स जहण्णेण एयसमओ, उत्तरसरीरं विउव्विय * एगसमएण मुदस्स तदुवलंभादो। एवं णीचागोदस्त वि। उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । एवमोघाणुगमो साधारण नामकर्मोका अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यशकीर्ति, सुभग और आदेय नामकर्मोंका उदीरणाकाल उत्तर विक्रियासे मृत्युको प्राप्त होनेवाले जीवके जघन्यसे एक समय मात्र है, उत्कर्षसे वह सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है। अयशकीर्ति, दुर्भग और अनादेय नामकर्मोका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय मात्र है। उत्कर्षसे वह अयशकीर्तिका असंख्यात लोक तथा दुर्भग व अनादेयका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। शंका-- इनका जघन्य उदीरणाकाल एक समय मात्र कैसे है ? समाधान-- अयशकीर्तिकी उदीरणा करनेवाला जीव संयत हो गया, उस समय उसके यशकीर्तिका उदय हुआ, फिर वह अन्तर्मुहुर्तमें सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ, वहां अयशकीर्तिकी उदीरणाके द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त हुआ, उसके अयशकीर्तिका उदीरणाकाल एक समय पाया जाता है। यह काल उत्तर विक्रियासे भी पाया जाता है। इसी प्रकार दुर्भग व अनादेय नामकर्मोंके भी एक समयरूप उदीरणाकालका कथन करना चाहिये, क्योंकि, ये परिवर्तमान उदयवाली प्रकृतियां हैं। तीर्थकर नामकर्मका उदीरणाकाल जघन्यसे वर्षपृथक्त्व और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। नीचगोत्रका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय मात्र है, क्योंकि. उच्चगोत्रसे नीचगोत्रको प्राप्त होकर वहां एक समय रहकर द्वितीय समयमें उच्चगोत्रका उदय होनेपर एक समय उदीरणाकाल पाया जाता है। उत्कषसे वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण हैं । उच्चगोत्रका उदीरणाकाल जघन्यसे एक समय मात्र है, क्योंकि, उत्तर शरीरकी विक्रिया करके एक समयम मत्यको प्राप्त हुए जीवके उक्त काल पाया जाता है। नीचगोत्रका भी जघन्य काल एक समय मात्र इसी प्रकारसे घटित होता है। उच्चगोत्रका उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपथक्त्व प्रमाण ४ मप्रतिपाठोऽयम्, का-ताप्रत्योः ' एगसमओ उक्क. उत्तरविउठवणाए काल करेंतस्स सागरोबम ' इति पाठः। 0 प्रत्योरूमयोरेव ' उदयमागदो' इति पाठः। * काप्रती 'विउविद' इति पाठः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ) छक्खंडागमे संतकम्म समत्तो । आदेसो जाणियूण वत्तव्यो । एवं कालो समत्तो । एयजीवेण अंतरं--पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीरवण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणमुदीरणाए अंतरं णत्थि, धुवोदयत्तादो। णिद्दा-पयलाणमंतरं जहण्णमुक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं । णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणमंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि साहियाणि अंतोमुहुत्तेण । सादस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सादस्स गदियाणुवादेण जहण्णमंतरमंतोमुत्तं, उक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं चेव । असादस्स जहण्णमंतरमेगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा। मणुसगदीए असादस्स उदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । मिच्छत्तस्स जहण्णमंतरं अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण बेछावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियढें देसूणं । अणंताणुबंधीणं जहण्णमंतरं अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण बेछावढिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अपच्चक्खाणकसायाणं जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा। एवं चेव पच्चक्खाणावरणीयचदुक्कस्स वत्तव्वं । कोह-माण-मायासंजलणाणं है। इस प्रकार ओघानुगम समाप्त हुआ। आदेशका कथन जानकर करना चाहिये । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। ___ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर--पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय' ; इनकी उदीरणाका अन्तर नहीं होता, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। निद्रा और प्रचलाकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त मात्र है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका वह अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अन्वर्मुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है । सातावेदनीयकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है । गतिके अनुवादसे सातावेदनीयकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त ही है । असातावेदनीयका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट छह मास प्रमाण है । मनुष्यगतिमें असाताकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । मिथ्यात्वका जघन्य उदीरणा-अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक दो छयासठ सागरोपम प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका वह अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक दो छयासठ सागरोपम काल प्रमाण है । अप्रत्याख्यान कषायोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। इसी प्रकार ही प्रत्याख्यानावरणीयचतुष्कके अन्तरका कथन करना चाहिये । संज्वलन क्रोध, मान और मायाका जघन्य Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए एगजीवेण अंतरं (६९ जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पि अंतोमुहुत्तं । लोहसंजलणाए* जहण्णमंतरं एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । जहा सादस्स तहा हस्स-रदीणं वत्तव्वं । जहा असादस्स तहा अरदि-सोगाणं वत्तव्वं । भय-दुगुंछाणमंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कध एगसमओ ? चरिमसमयणियट्टिभयवेदगो से काले अणियट्टिगुणं पविठ्ठो अवेदगो जादो, तदो से काले मदो देवो जादो भयं चेव वेदेदि, एवं भयवेदगस्स एगसमयमंतरं । एवं दुगुंछाए । पुरिसवेदस्स* उदीरणंतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सं णवंसयवेदस्स सागरोवमसदपुधत्तं, इत्थिवेदस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। देव-णिरयाउआणमुदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । तिरिक्खाउअस्स जहण्णेण अन्तरमावलिया, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । एवं मणुस्साउअस्स वि । णवरि उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। अन्तर अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहर्त मात्र है । संज्वलन लोभका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । जिस प्रकार साता वेदनीयके अन्तरकी प्ररूपणा की गई है है उसी प्रकारसे हास्य व रतिके अन्तरकी प्ररूपणा करनी चाहिये। जिस प्रकार असातावेदनीयके अन्तरका कथन किया है उसी प्रकारसे अरति और शोकके अन्तरका कथन करना चाहिये । भय और जुगुप्साका अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । शंका-- उनकी उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय कैसे है ? समाधान-- भयका वेदक अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरण अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रविष्ट होकर उसका अवेदक हुआ । पश्चात् अनन्तर समयमें मृत्युको प्राप्त होकर देव हुआ । वह उस समय भयका ही वेदन करता है । इस प्रकारसे भयका वेदन करनेवाले उक्त जीवके एक समय अन्तर पाया जाता है । इसी प्रकार जुगुप्साके भी उपर्युक्त एक समय मात्र अन्तरका कथन करना चाहिये । पुरुषवेदकी उदौरणाका अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। स्त्री और नपुंसक वेदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है । उत्कृष्ट अन्तर नपुंसकवेदका सागरोपमशतपृथक्त्व और स्त्रीवेदका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। देव व नारक आयुओंकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्महर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है । तिर्यंच आयुका अन्तर जघन्यसे एक आवली और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है । इसी प्रकारसे मनुष्यायुके भी अन्तरका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि उसका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । . प्रत्योरुभयोरेव 'लोइसंजलणाणं' इति पाठः । 0 प्रत्योरुभयोरेव 'अणियट्रिभयवेदगो' ति पाठः । * काप्रतौ 'पुरिसवेदयस्स ' इति पाठः। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ) छक्खंडागमे संतकम्म चदुण्णं पि गदीणमंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तिरिक्खगइणामाए सागरोचमसदपुधत्तं, सेसाणं गईणमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। ओरालिय-वेउव्वियसरीराणमुदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण ओरालियसरीरस्स तेतीसं सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तब्भहियाणि वेउब्वियसरीरस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। अहारसरीरस्स जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियढें । अण्णदरस्स संठाणस्स जहण्णमंतरं एगसमओ उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णवरि हुंडसंठाणस्स तेवट्ठि-सागरोवमसदं सादिरेयं । एइंदियजादीए जहण्णमंतरं अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि। सेसाणं जादीणं जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । तिण्णमंगोवंगाणं सग-सगसरीराणं व जहण्णुक्कस्संतंरं वत्तव्वं । णवरि ओरालियअंगोवंगस्स वेउव्वियभंगो। पंचसरीरबंधण-संघादाणं पंचसरीरभंगो । छण्णं संघडणाणं जहण्णमंतरं एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। देवगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाणं जहण्णेण दसवाससहस्साणि साहियाणि। उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए जहणेग खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। चारों गतियोंका उक्त अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है। उत्कर्षसे वह तिर्यचगतिका सागरोपमशतपृथक्त्व और शेष गतियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। औदारिक और वैक्रियिक शरीरोंका उदोरणा-अन्तर जघन्यसे एक समय है। उत्कर्षसे वह औदारिकशरीरका अन्तर्मुहुर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम और वैक्रियिकशरीरका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । आहारकशरीरका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। अन्यतर संस्थानका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। विशेष इतना है कि हुण्डकसंस्थानका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम प्रमाण है । एकेन्द्रिय जातिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण है। शेष जातियोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। तीन अंगोपांग नामकर्मोके जघन्य व उत्कृष्ट अन्तरका कथन अपने अपने शरीरोंके समान करना चाहिये। विशेष इतना है कि औदारिक अंगोपागके अन्तरकी प्ररूपणा वैक्रियिकशरीरके समान है। पांच शरीरबन्धनों और पांच संघातोंके अन्तरकी प्ररूपणा पांच शरीरोंके समान है। छह संहननोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। देवगति और नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोंका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोका अन्तर जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका अन्तर जघन्यसे दो समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवकमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीग्णाए एगजीवेण अंगरं ( ७ ? उवघादणामाए उदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया । परघाद-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-सुस्सर-दुस्सराणमुदीरणंतरं जहण्णमंतोमुहुत्तं केवलिसमुग्घादं पडुच्च पंचसमया । उक्कस्सेण परघादुस्सासाणमंतोमुत्तं पसत्थापसत्थविहायगइ-सुस्सर--दुस्सराणमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । आदावु-- ज्जोवाणं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालं* । तसणामाए जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तअपज्जत्ताणं उदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण थावरणामाए तसटिदि०, सुहुमणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, बादरणामाए असंखेज्जा लोगा, पज्जत्तणामाए अंतोमुहत्तं, अपज्जत्तणामाए तसपज्जत्तद्विदी। पत्तेयसाहारणाणं जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण पत्तेयसरीरणामाए णिगोददिदी, साहारणसरीरणामाए असंखेज्जा लोगा। जसगित्ति-अजसगित्ति-सुभग-दुभग-आदेज्ज-अणादेज्जाणमंतर जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण जसगित्तीए असंखेज्जा लोगा, सुभग-आदेज्जाणं असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, अजसगित्ति-दूभग-अणादेज्जाणं सागरोवमसदपुधत्तं । तित्थयरणामाए णत्थि अतरं । उच्चाणीचागोदाणं जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण णीचा असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। उपघात नामकर्मकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय प्रमाण है। परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, सुस्वर और दुस्वर नामकर्मोकी उदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, मात्र है, केवलिसमुद्घातकी अपेक्षा वह पांच समय प्रमाण है । उत्कर्षसे वह परवात व उच्छ्वासका अन्तर्मुहुर्त, तथा प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतियों, सुस्वर और दुस्वर नामकर्मोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । आतप व उद्योतका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण है। त्रस नामकर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त नामकर्मोकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। उत्कर्षसे वह स्थावर नामकर्मका त्रसस्थिति ( साधिक दो हजार सागरोपम ), सूक्ष्म नामकर्मका अंगुलके असंख्यातवें भाग, बादर नामकर्मका असंख्यात लोक, पर्याप्त नामकर्मका अन्तर्मुहूर्त, तथा अपर्याप्त नामकर्मका त्रस पर्याप्तकी स्थिति प्रमाण है । प्रत्येक और साधारणका अन्तर जघन्यसे एक समय है । उत्कर्षसे वह प्रत्येकशदीर नामकर्मका निगोदस्थिति प्रमाण तथा साधारणशरीर नामकर्मका असंख्यात लोक प्रमाण है । यशकीर्ति, अयशकीर्ति, सुभग, दुर्भग, आदेय और अनादेयका अन्तर जघन्यसे एक समय है । उत्कर्षसे वह यशकीर्तिका असंख्यात लोक, सुभग व आदेयका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन; तथा अयशकीर्ति, दुर्भग और अनादेयका सागरोपमशतपथक्त्व प्रमाण है तीर्थकर प्रकृतिकी उदीरणाका अन्तर सम्भव नहीं है । ऊंच व नीच गोत्रोंका अन्तर जघन्यसे एक समय है। उत्कर्षसे नीच गोत्रकी उदीरणाका वह अन्तर सागरोपम *प्रत्योरुभयोरेव 'अणंता लोगा' इति परः।०काप्रतिगोऽयम् । ता-मप्रत्यो: 'तस्स दिदी ' इति पारः। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ) छवखंडागमे संतकम्म गोदस्स सागरोवमसदपुधत्तं, उच्चागोदस्स उदीरणंतरमुक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवमेगजीवेण अंतरं समत्तं । ___णाणाजीवेहि भंगविचओ वुच्चदे। तत्थ अट्टपदं- जेसि कम्ममत्थि तेसु पयदं, अकम्मेहि अव्ववहारो। एदेण अट्ठपदेण पंचण्णं णाणावरणीयाणं सिया सव्वे जीवा उदीरया, सिया उदीरया च अणुदीरयो च, सिया उदीरया च अणुदीरया च । एवं तिण्णि भंगा। चदुदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं णाणावरणभंगो। णिहादीणं पंचण्णं पि उदीरया च अणुदीरया च णियमा अस्थि । णिरयगइ-देवगईसु णिद्दा-पयलाणं सिया सव्वे जीवा अणुदीरया, सिया अणुदीरया च उदीरओ च, सिया अणुदीरया च उदीरया च । सव्वे जीवा सादस्स असादस्स च णियमा उदीरया च अणुदीरया च। रइएसु सादस्स सिया सव्वे जीवा अणुदीरया, अणुदीरया* च उदीरगो च, अणुदीरया च उदीरया च । णेरइयवज्जा जे पमत्ता तसा ते सादस्स सिया सव्वे उदीरया, उदीरया च अणुदीरगो च, उदीरया च अणुदीरया च । रइया असादस्स सिया सव्वे उदीरया, उदीरया च अणुदीरओ च, उदीरया च अणुदीरया च । रइयवज्जा सेसा जे पमत्ता तसा ते शतपृथक्त्व तथा ऊंच गोत्रकी उदीरणाका अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तर समाप्त हुआ । नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयकी प्ररूपणा करते हैं। उसमें अर्थपद- जिन जीवोंके कर्मका अस्तित्व है वे प्रकृत हैं, कर्म रहित जीवोंसे व्यवहार नहीं है । इस अर्थपदसे पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंके कदाचित् सब जीव उदीरक, कदाचित् बहुत उदीरक व एक अनुदीरक, तथा कदाचित् बहुत उदीरक और बहुत अनुदीरक भी, इस प्रकारसे तीन भंग हैं। चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुल घु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, र्माण और पांच अन्तराय, इन कर्मोकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। निद्रा आदि पांचोंके नियमसे बहुत उदीरक और बहुत अनुदीरक हैं । नरकगति और देवगतिमें निद्रा और प्रचलाके कदाचित् सब जीव अनुदीरक, कदाचित् बहुत अनुदीरक व एक उदीरक, तथा कदाचित् बहुत अनुदीरक व बहुत उदीरक भी होते हैं। साता व असाता वेदनीयके नियमसे सब जीव उदीरक और अनुदीरक हैं। नारक जीवोंमें सातावेदनीयके कदाचित् सब जीव अनुदीरक, (कदाचित्) अनुदीरक बहुत व उदीरक एक, तथा (कदाचित्) अनुदीरक बहुत और उदीरक भी बहुत होते हैं। नारकियोंको छोडकर जो प्रमत्त (प्रमाद युक्त) त्रस जीव हैं वे सातावेदनीयके कदाचित् सब उदीरक, उदीरक बहुत व अनुदीरक एक, तथा उदीरक बहुत अनुदीरक भी होते हैं। नारकी जीव असातावेदनीयके कदाचित् सब उदीरक, उदीरक बहुत व अनुदीरक एक, तथा उदीरक बहुत व अनुदीरक भी बहुत होते हैं। नारकियोंको छोडकर शेष जो प्रमत्त (प्रमाद ० काप्रती ' अक्कमेहि ' इति पाठः । * कापतो 'अणुदीरया च अणुदीरया' इति पः। ताप्रतो ‘पम- (ज्ज । त्ता' इति पाठः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवकमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए णाणाजीपेहि कालो (७३ असादस्स सिया सव्वे अणुदीरया, अणुदीरया च उदीरओ च, अणुदीरया च उदीरथा* च। __ सम्मामिच्छत्तस्स सिया सव्वे जीवा अणुदीरया, अणुदीरया च उदीरओ च, अणुदीरया च उदीरया च । एवमेत्य तिण्णि भंगा वत्तव्वा । सेससत्तावीसमोहपयडीणं णियमा उदीरया च अणुदीरया च अस्थि । एवं सम्वेसिमाउआणं । णवरि देवणिरयाउआणं । अणुदीरया भयणिज्जा। णामस्स परियत्तमाणपयडीणमाहारसरीरआणुपुग्वितियवज्जाणं सव्वजीवा णियमा उदीरया च अणुदीरया च अस्थि । आहारआणुपुग्वितियाणं सिया सव्वे जीवा अणुदीरया, अणुदीरया च उदीरओ च, अणुदीरया च उदीरया च । एवं तिण्णि भंगा। उच्चा-णीचागोदाणं णियमा उदीरया च अणुदीरया च । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। ___णाणाजीवेहि कालो वुच्चदे- आहारसरीर-आणुपुग्वितिय-सम्मामिच्छत्तं मोत्तूण सेससव्वकम्माणं उदीरया सव्वद्धं । आहारसरीरस्स उदीरआ जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आणुपुन्वितियस्स जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । सहित ) त्रस जीव हैं वे असातावेदनीयके कदाचित् सब अनुदीरक, बहुत अनुदी रक व एक उदीरक, तथा बहुत अनुदीरक व बहुत उदीरक भी होते हैं । ___सम्यग्मिथ्यात्वके कदाचित् सब जीव अनुदीरक, अनुदीरक बहुत उदीरक एक, तथा अनुदीरक बहुत व उदीरक भी बहुत होते हैं। इस प्रकारसे यहां तीन भंगोंको कहना चाहिये । शेष सत्ताईस मोहनीय प्रकृतियोंके नियमसे बहुत उदीरक और बहुत अनुदीरक भी हैं। इसी प्रकार सब आयुओंके विषयमें कथन करना चाहिये। विशेष इतना है कि देवायु और नारकायुके अनुदीरक भजनीय हैं। आहारकशरीर और तीन आनुपूवियोंको छोडकर नामकर्मकी शेष परिवर्तमान प्रकृतियोंके सब जीव नियमसे उदीरक और अनुदीरक भी हैं। आहारकशरीर और तीन आनुपूर्वियोंके कदाचित् सब जीव अनुदीरक, अनुदीरक बहुत व उदीरक एक, तथा अनुदीरक बहुत व उदीरक भी बहुत होते हैं। इस प्रकारसे तीन भंग हैं। ऊंच व नीच गोत्रोंके नियमसे बहुत उदीरक और बहुत अनुदीरक भी होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है- आहारकशरीर, तीव आनुपूर्वी और सम्यग्मिथ्यात्वको छोडकर शेष सब कर्मोके उदीरक सब काल रहते हैं। आहारकशरीरके उदीरक जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल रहते हैं। तीन आनुपूर्वियोंके उदीरक जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक रहते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरक जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक रहते हैं। नाना जीवोंकी काप्रती 'अणुदीरया' इति पाठः । * काप्रतौ 'उदीरिया' इति गठ: । काप्रती 'देवणिरया उआ' इति पाठः। 9 काप्रती 'उदीरअ', ताप्रती · उदीरओ'इति पाठः । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ) ... छक्खंडागमे संतकम्म णाणाजीवेहि सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णओ उदीरणकालो थोवो, तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं' तस्सेव उक्कस्सओ उदीरणकालो असंखेज्जगुणो। सम्मामिच्छत्तस्स उदीरणाए जाणाजीवेहि उक्कस्सओ विरहकालो असंखेज्जगुणो। एवं णाणाजीवेहि कालो समत्तो। ___णाणाजीवेहि अंतरं वुच्चदे-- सम्मामिच्छत्तस्स अंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। आहारसरीरस्स उदीरणंतरं जहष्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्साणि । आणुपुग्वितियस्स जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण चउवीसमुहुत्ता । सेसाणं कम्माणं णत्थि अंतरं । एवमंतरं समतं । सण्णियासो दुविहो- सत्थाणसण्णियासो परत्थाणसण्णियासो चेदि। सत्थाणसण्णियासे पयदं- मदिणाणावरणमुदीरेंतो सेसणाणावरणीयाणि णियमा उदीरेदि । एवं पुध पुध सेसपयडीणं वत्तव्वं । चक्खुदंसणावरणीयमुदीरेंतो अचक्खु-मोहिकेवलदंसणावरणीयाणं णियमा उदीरओ। सेसपंचण्णं पयडीणं सिया उदीरओ। एवमचक्खुदंसणावरणीय-ओहिटसणावरणीय-केवलदसणावरणीयाणं वत्तव्वं । णिहमुदीरेंतो हेट्ठिमाणं चदुण्ण पयडीणं णियमा उदीरओ, सेसाणमुवरिमाणं णियमा अणुदीरओ। एवं पयलाए णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं पुध पुध वत्तव्वं । अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य उदीरणाकाल स्तोक है। उसीका द्रव्य असंख्यातगुणा है । उसीका उत्कृष्ट उदीरणाकाल असंख्यातगुणा है। नाना जीवोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणाका उत्कृष्ट विरहकाल असंख्यातगुणा है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा समाप्त हुई। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका कथन किया जाता है- सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण है। आहारकशरीरकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्ष प्रमाण है। तीन आनुपूर्वियोंकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चौबीस मुहूर्त प्रमाण है। शेष कर्मोंकी उदी रणाका अन्तरकाल सम्भव नहीं है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। संनिकर्ष दो प्रकार है-- स्वस्थान संनिकर्ष और परस्थान संनिकर्ष । यहां स्वस्थान संनिकर्ष प्रकृत है-- मतिज्ञानावरणीयकी उदीरणा करनेवाला शेष ज्ञानावरणीयोंकी नियमसे उदी रणा करता है। इसी प्रकार पृथक् पृथक् शेष चार ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंके आश्रयसे संनिकर्षका कथन करना चाहिये । चक्षुदर्शनावरणीयकी उदीरणा करनेवाला अचक्षदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणका नियमसे उदीरक होता है। शेष पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका कदाचित् उदीरक होता है। इसी प्रकारसे अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके आश्रयसे संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये । निदाकी उदीरणा करनेवाला पिछली चार प्रकृतियोंका नियमसे उदीरक और शेष आगेकी प्रकृतियोंका नियमसे अनुदीरक होता है। इसी प्रकार प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि प्रकृतियोंका आश्रय करके अलग अलग संनिकर्षका कथन करना चाहिये। . प्रत्योरुभयोरेव 'दंसणावरणीयं ' इति पाठः । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए सत्थाणसंणियासो (७५ सादमुदीरेंतो असादस्स अणुदीरओ, असादमुदीरेंतो सादस्स अणुदीरओ। मिच्छत्तं उदीरेंतो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणुदीरओ, अणंताणुबंधिस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ, संजोजिदअगंताणुबंधीणमावलियामेत्तकालमुदीरणाभावादो। जदि उदीरओ कोह-माण-माया-लोहाणं सिया उदीरगो। अपच्चक्खाणपच्चक्खाण-संजलणकसायाणं णियमा उदीरओ। एदेसि बारसण्हं कसायाणं एक्केक्कं पडुच्च सिया उदीरगो। तिण्णिवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ, तिण्णं वेदाणमेक्कदरस्स वेदस्स हस्स-रदि-अरदि-सोगजुगलेसु एक्कदरस्स जुगलस्स णियमा उदीरओ। भय-दुगुंछाणं सिया उदीरओ। सम्मत्तमुदीरेंतो मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अणंताणुबंधीणं च णियमा अणुदीरगो, अपच्चक्खाण-पच्चक्खाणकसायाणं सिया उदीरओ, जदि उदीरओ अट्ठण्णं कसायाणं सिया उदीरओ। संजलणस्स णियमा उदीरओ, तस्सेव चदुण्णं कसायाणं सिया उदीरगो । तिण्णं वेदाणं सिया उदीरओ, तिण्णं वेदाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ, दोण्णं जुअलाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। भय-दुगुंछाणं सिया उदीरओ। सम्मामिच्छत्तमुदीरेंतो सम्मत्त-मिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं णियमा अणुदीरगो। सातावेदनीयकी उदीरणा करनेवाला असाताका अनुदीरक और असाताकी उदीरणा करनेवाला साताका अनुदीरक होता है। मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदीरक तथा अनन्तानुबन्धीका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है, क्योंकि, अनन्तानुबन्धी कषायोंका संयोग हो जानेपर संयोगके समयसे लेकर आवली मात्र काल तक उदीरणा सम्भव नहीं है। यदि उनका उदीरक होता है तो क्रोध, मान, माया और लोभका कदाचित् उदीरक होता है। अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, व संज्वलन कषायोंका नियमसे उदीरक होता है। फिर भी इन बारह कषायोंमें एक एककी अपेक्षा कर कदाचित् उदीरक होता है । तीन वेद, हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक होता है। परंतु तीन वेदोंमेंसे किसी एक वेदका एवं हास्य-रति और अरति-शोक इन युगलोंमेंसे किसी एक युगलका नियमसे उदीरक होता है। वह भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिको उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धियोंका नियमसे अनदीरक होता है। परन्तु अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान कषायोंका कदाचित उदीरक होता है । यदि वह उनका उदीरक है तो आठ कषायोंका कदाचित् उदीरक होता है। संज्वलनका नियमसे उदीरक होता है। किन्तु वह उसीकी ( संज्वलन ) चार कषायोंका कदाचित् उदीरक होता है। तीन वेदोंका कदाचित् उदीरक होता है, किन्तु इन्हीं तीनों वेदोमेंसे किसी एक वेदका नियमसे उदीरक होता है । हास्य, रति, अरति और शोकका वह कदाचित् उदीरक होता है; किन्तु इन दोनों युगलोंमें से किसी एक युगलका नियमसे उदीरक होता है। भय व जुगुप्साका वह कदाचित् उदीरक होता है सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायोंका Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ) छक्खंडागमे संतकम्म अपच्चक्खाण-पच्चक्खाण-संजलणक सायाणं णियमा उदीरओ, तेसि बारसण्णं पयडीणं सिया उदीरओ। तिण्णं वेदाणं सिया उदीरओ, तिण्णं वेदाणं एक्कदरस्स णियमा उदीरगो। हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ, दोण्णं जुगलाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। भय-दुगुंछाणं सिया उदीरओ। ____ अणंताणुबंधिकोधमुदीरेंतो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणुदीरओ । मिच्छत्तस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ, उदयावलियं पविटुमिच्छत्तपढमट्टिदिमिच्छाइटिस्स सासणस्स च उदयाभावादो। अपच्चक्खाण-पच्चक्खाण-सजलणाणं तिण्णं कोहाणं णियमा उदीरओ, सेसाणं बारसणं कसायाणं णियमा अणुदीरओ। तिण्णं वेदाणं सिया उदीरगो, तिण्णं वेदाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। हस्स-रदिअरदि-सोगाणं सिया उदीरओ। दोण्णं जुगलाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। भयदुगुंछाणं सिया उदीरओ। एवमणंताणुबंधिमाण-माया लोहाणं वत्तव्वं । णवरि माणे उदीरिज्जमाणे चदुण्णं माणाणं, मायाए उदीरिज्जमाणाए चदुण्णं मायाणं, लोभे उदीरिज्जमाणे चदुण्णं लोभाणं णियमा उदीरणा होदि त्ति वत्तव्वं । अपच्चक्खाणकसायस्स कोधमुदीरेंतो तिविहं दंसणमोहणीयं सिया उदीरेदि । नियमसे अनुदीरक होता है । अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषायोंका नियमसे उदीरक होता है । किन्तु इनकी बारह प्रकृतियोंका वह कदाचित् उदीरक होता है। तीन वेदोंका कदाचित् उदीरक होकर वह उक्त तीन वेदोंमेंसे किसी एकका नियमसे उदीरक होता है। हास्य, रति, अरति व शोकका कदाचित् उदीरक होकर इन दो युगलोंमेंसे किसी एकका नियमसे उदीरक होता है । भय व जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदीरक होता है । वह मिथ्यात्वका कदाचित् उदीरक व कदाचित् अनुदीरक होता है, क्योंकि, उदयावलीमें प्रविष्ट हुए मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति युक्त मिथ्यादृष्टिके और सासादनसम्यग्दृष्टिके उसका उदय सम्भव नहीं है । वह अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन इन तीन क्रोध कषायोंका नियमसे उदीरक होता है । शेष बारह कषायोंका नियमसे अनुदीरक होता है। तीन वेदोंका कदाचित् उदीरक होकर उक्त तीन वेदोंमेंसे किसी एकका नियमसे उदीरक होता है। हास्य-रति और अरति-शोकका कदाचित् उदीरक होकर दोनों युगलोंमेंसे किसी एक युगलका नियमसे उदीरक होता है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभके आश्रयसे कयन करना चाहिये । विशेष इतना है कि मानकी उदीरणाके समय चार मान कषायोंकी, मायाको उदीरणाके समय चार माया कषायोंकी, और लोभकी उदीरणाके समय चार लोभ कषायोंकी नियमसे उदीरणा होती है। ऐसा कहना चाहिये । अप्रत्याख्यान कषायके क्रोधकी उदीरणा करनेवाना तीन प्रकारके दर्शनमोहकी कदाचित् * काप्रतौ ' संजुलण' इति पाठः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए सत्थाणसंणियासो (७७ अणंताणुबंधिकोधस्स सिया उदीरओ, अणंताणुबंधिसेसीकसायाणं णियमा अणुदीरगो। पच्चक्खाणकोधस्स संजलणकोधस्स णियमा उदीरओ। सेसाणं णवण्णं कसायाणं णियमा अणुदीरओ। तिण्णं वेदाणं सिया उदीरओ, तिण्णं वेदाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ, दोणं जुगलाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ । भय-दुगुंछाणं सिया उदीरओ । एवं सेसतिण्णं कसायाणं। पच्चक्खाणकसायस्स कोधमुदीरेंतो तिविहं दंसणमोहणीयं सिया उदीरेदि । अणंताणुबंधिं पि सिया उदीरेदि, जदि उदीरेदि तो कोधं णियमा उदीरेदि, सेसतिविहअणंताणुबंधीणं णियमा अणुदीरओ । अपच्चक्खाणकसायस्स सिया उदीरओ, जदि उदीरओ तो णियमा कोधमुदीरेदि, तस्सेव सेसकसायाणमुदीरओ । पच्चक्खाणस्स सेसतिण्णं कसायाणं णियमा अणुदीरओ। कोधसंजलणस्स णियमा उदीरओ, सेससंजलणाणमणुदीरगो। तिण्णं वेदाणं सिया उदीरओ, तिण्णं वेदाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ, दोगं जुगलाणमेक्कदरस्स णियमा उदीरओ। भय-दुगुंछाणं सिया उदीरओ। एवं सेसपच्चक्खाणकसायाणं वत्तव्वं । उदीरणा करता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध का कदाचित् उदीरक होता है, शेष अनन्तानुबन्धी मान आदि कषायोंका वह नियमसे अनुदीरक होता है। प्रत्याख्यान क्रोध और संज्वलन क्रोधका नियमसे उदीरक होता है । अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन मान, माया एवं लोभ इन शेष नौ कषायोंका नियमसे अनुदीरक होता है। तीन वेदोंका कदाचित् उदीरक होकर वह उक्त तीन वेदोंमेंसे किसी एकका नियमसे उदीरक होता है । हास्य-रति और अरतिशोकका कदाचित उदोरक होकर इन दो यगलोंमेंसे किसी एकका नियमसे उदीरक होता है। भय और जुगुप्साका वह कदाचित् उदीरक होता है। इसी प्रकारसे अप्रत्याख्यान मान आदि शेष तीन कषायोंके आश्रयसे प्ररूपणा करना चाहिये। प्रत्याख्यान कषायके क्रोधकी उदीरणा करनेवाला तीन प्रकारके दर्शनमोहकी कदाचित् उदीरणा करता है। अनन्तानुबन्धीकी भी कदाचित् उदीरणा करता है। यदि उसकी उदीरणा करता है तो क्रोधकी नियमसे उदीरणा करता है । शेष तीन प्रकार अनन्तानुबन्धी कषायोंका नियमसे अनुदीरक होता है । वह अप्रत्याख्यान कषायका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो नियमसे क्रोधकी उदीरणा करता है, उसीकी शेष कषायोंक वह अनुदीरक होता है। प्रत्याख्यानकी शेष तीन कषायोंका वह नियमसे अनुदीरक होता है। संज्वलन क्रोधका नियमसे उदी रक होकर वह शेष संज्वलन कषायोंका नियमसे अनुदीरक होता है। तीन वेदोंका कदाचित् उदीरक होकर उक्त तीन वेदोंमेंसे किसी एकका नियमसे उदीरक होता है। हास्य-रति और अरति-शोकका कदाचित् उदीरक होकर इन दो युगलोंमेंसे किसी एक युगलका नियमसे उदीरक होता है। भय और जुगुप्साका वह कदाचित् उदीरक होता है। इसी प्रकारसे मान आदि शेष प्रत्याख्यान कषायोंके आश्रयसे प्ररूपणा करना चाहिये। 9 उभयोरेव प्रत्यो: 'अणंताणुबंधिविसेस-' इति पाठः । ४ उभयोरेव प्रत्योः ‘सेसरंजलणाणमुदीरगो' इति पाठः। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म कोधसंजलणमुदीरेंतो तिविहदसणमोहणीयं सिया उदीरेदि । अणंताणुबंधिअपच्चक्खाण-पच्चक्खाणाणं सिया उदीरओ, जदि उदीरओ तो एदेसि कोधाण णियमा उदीरओ, सेसवारसण्णं कसायाणं णियमा अणुदीरओ। तिण्णं वेदाणं सिया उदीरओ, तिण्णं वेदाणमेक्कदरस्स वि सिया उदीरगो । हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सिया उदीरगो, दोण्णं जुगलाणमेक्कदरस्स (वि) सिया उदीरओ*, भय-दुगुंछाणं सिया उदीरओ । एवं सेसतिण्णं कसायाणं संजलणाणं वत्तव्वं ।। पुरिसवेदमुदीरेंतो दंसणमोहणीयं सिया उदीरेदि । अणंताणुबंधि-अपच्चक्खाण. पच्चक्खाणकसायाणं सिया उदीरओ। संजलणाए णियमा उदीरओ। उदीरेंतो वि सोलसण्हं कसायाणं पि सिया उदीरओ। इत्थि-णवंसयवेदाणं णियमा अणुदीरओ। हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ, दोण्णं जुअलाणं पि सिया उदीरओ। भयदुगुंछाणं सिया उदीरओ । एवमित्थि-णवंसयवेदाणं पि वत्तव्वं । हस्समुदीरेंतो रदीए णियमा उदीरओ। अरदि-सोगाणं णियमा अणुदीरओ । दसणतिय-सोलसकसाय-तिण्णिवेद-भय-दुगुंछाणं सिया उदीरओ । रदिमुदीरेंतो हस्सस्स णियमा उदीरओ। सेसं हस्सभंगो। अरदिमुदीरेंतो सोगस्स णियमा उदीरओ । हस्स संज्वलन क्रोधकी उदीरणा करनेवाला तीन प्रकारके दर्शनमोहनीयकी कदाचित् उदीरणा करता है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषायोंका वह कदाचित् उदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो इनके क्रोधोंका नियमसे उदीरक होता हुआ शेष बारह कषायोंका नियमसे अनुदीरक होता है। तीन वेदोंका कदाचित् उदीरक होकर उन तीनोंमेंसे किसी एक वेदका भी कदाचित् उदीरक होता है। हास्य-रति व अरति-शोकका कदाचित् उदीरक होकर दोनों युगलोंमेंसे किसी एकका भी कदाचित् उदीरक होता है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है। इसी प्रकार मान आदि शेष तीन संज्वलन कषायोंके आश्रयसे प्ररूपणा करना चाहिये । पुरूषवेदकी उदीरणा करनेवाला तीन दर्शनमोहनीयकी कदाचित् उदीरणा करता है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंका कदाचित् उदीरक होता है । संज्वलनका नियमसे उदीरक होता है । उदीरणा करता हुआ भी वह सोलह कषायोंका भी कदाचित् उदीरक होता है । स्त्री और नपुंसक वेदोंका वह नियमसे अनुदीरक है । हास्य-रति और अरति-शोकका कदाचित् उदीरक होता हुआ दोनों युगलोंका भी कदाचित् उदीरक होता है । भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है । इसी प्रकार स्त्री और नपुंसक वेदोंके आश्रयसे भी प्ररूपणा करना चाहिए। हास्यकी उदीरणा करनेवाला रतिका नियमसे उदीरक होता है। अरति और शोकका निय-- मसे अनुदी रक होता है । तीन दर्शनमोहनीय, सोलह कषाय, तीन वेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है। रतिको उदीरणा करनेवाला हास्यका नियमसे उदीरक होता है। शेष कथन हास्यके समान है । अरतिकी उदीरणा करनेवाला शोकका नियमसे उदीरक होता है । हास्य व * प्रत्योरुभयोरेव ‘णियमा उदीरओ' इति पाठः। 0 काप्रती 'हस्स'ताप्रती 'हस्सं' इति पाठः । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए सत्थाणसंगियासो ( ७९ रणदीरओ | सेसं रदिभंगो । सोगमुदीरेंतो अरदीए णियमा उदीरओ । सेसमरभिंगो । भयमुदीरेंतो सेससत्तावीसमोहणीयपयडीणं सिया उदीरओ । एवं दुगुंछाए । णिरयाउअमुदीरेंतो सेसआउआणं णियमा अणुदीरओ। एवं सेसआउआणं वत्तव्वं । गिरयगइमुदीरेंतो णियमा सेसगईणमणुदीरओ । एवं सेसतिण्णं गईणं वत्तव्वं । एदियजादिमुदीरेंतो सेसजादीणं णियमा अनुदीरओ । एवं चटुण्णं जादीणं वत्तव्वं । ओरालियसरीरमुदीरेंतो वेउव्वियसरीर आहारसरीराणं णियमा अणुदीरओ, तेजाकम्मइय-सरीराणं णियमा उदीरओ । वेउव्वियसरीरमुदीरेंतो ओरालिय-आहारसरीराणं णियमा अणुदीरओ, तेजा कम्मइयसरीराणं णियमा उदीरओ । आहासरीरमुदीरेंतो ओरालियवे उब्वियसरीराणं णियमा अणुदीरओ, तेजा क्रम्मइयसरीराणं णियमा उदीरओ । अण्णदरसंठाणमुदीरेंतो सेससंठाणाणं णियमा अणुदीरओ । एवं छष्णं संघडणाणं वत्तव्वं । एवं चेवाणुपुव्वी - तस - थावर - बादर - सुहुमपज्जतापज्जत्त--पसत्थापसत्थाविहायगइ - - सुभग- दुभंग-सुस्सर -- दुस्सर-आदेज्ज-अगादेज्ज - जसगित्ति- अजसगित्तीणं वत्तव्वं । तिण्णमंगोवंगाणं तिसरीरभंगो । वण्ण---गंध-रस -- फासाणं सेसाणं सिया सगभेदेसु अण्णदरमुदीरेंतो रतिका अनुदीरक होता है। शेष कथन रतिके समान है । शोककी उदीरणा करनेवाला अरतिका नियमसे उदीरक होता है । शेष कथन अरतिके समान है । भयकी उदीरणा करनेवाला शेष सत्ताईस मोहनीय प्रकृतियोंका कदाचित् उदीरक होता है । इसी प्रकार जुगुप्सा के आश्रयसे प्ररूपणा करना चाहिये । नारक आयुकी उदीरणा करनेवाला शेष आयु कर्मोंका नियमसे अनुदीरक होता है । इसी प्रकार शेष आयु कर्मोंका आश्रय कर प्ररूपणा करना चाहिये । नरकगतिकी उदीरणा करनेवाला नियमसे शेष गतियोंका अनुदीरक होता है । इसी प्रकार शेष तीन गतियोंका आश्रय कर प्ररूपणा करना चाहिये । एकेन्द्रिय जातिकी उदीरणा करनेवाला शेष जतियोंका नियमसे अनुउदीरक होता है । इसी प्रकार शेष चार जातियों का आश्रय करके प्ररूपणा करना चाहिये । औदारिकशरीरकी उदीरणा करनेवाला वैक्रियिकशरीर और आहारक शरीरका नियमसे अनुदीरक तथा तेजस और कार्मण शरीरोंका नियमसे उदीरक होता है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा करनेवाला औदारिक और आहारक शरीरोंका नियमसे अनुदीरक तथा तैजस व कार्मण शरीरोंका नियमसे उदीरक होता है । आहारकशरीरकी उदीरणा करनेवाला औदारिक और वैक्रिय शरीरोंका नियमसे अनुदीरक तथा तैजस व कार्मण शरीरोंका नियमसे उदीरक होता है । अन्यतर संस्थानकी उदीरणा करनेवाला शेष संस्थानोंका नियमसे अनुदीरक होता है । इसी प्रकार छह संहननोंके आश्रयसे कथन करना चाहिये । इसी प्रकारसे ही आनुपूर्वी, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्ति के आश्रय से प्ररूपणा करना चाहिये । तीन अंगोपांगों की प्ररूपणा तीन शरीरोंके समान है । वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्शके अपने भेदों में से Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ) छक्खंडागमे संतकम् उदीरओ, विरोहाभावादो । आदावमुदीरेंतो उज्जोवस्स णियमा अणुदीरओ, उज्जोवमदीरेंतो आदावस्स णियमा अणुदीरओ। णिरयगइ-मणुसगईओ वेदंतो उज्जोवस्स णियमा अणुदीरओ । देवगई वेदंतो मूलसरीरेण उज्जोवस्स अणुदीरओ। आदावस्स पुढविजीवो चेव अदीरगो, ण अण्णो। उच्चगोदमुदीरेंतो णीचागोदस्स णियमा अणुदीरगो । एवं णीचागोदस्स । सेसं जाणियूण वत्तव्वं । एवं सत्थाणसणियासो समत्तो । परत्थाणसण्णियासो जाणियूण वत्तव्यो । एवं सण्णियासो समत्तो। अप्पाबहुअं दुविहं-- सत्थाणप्पाबहुअं परत्थाणप्पाबहुअं चेदि । सत्थाणे पयदं-पंचविहस्स णाणावरणस्स तुल्ला उदोरया । थीणगिद्धीए उदीरया0 थोवा । णिद्दाणिद्दाए उदीरया संखेज्जगुणा, पयलापयलाए उदीरया संखेज्जगुणा, णिद्दाए उदीरया संखेज्जगुणा, पयलाए उदीरया संखेज्जगुणा, सेसचदुण्णं दंसणावरणीया-- णमुदीरया तुल्ला संखेज्जगुणा।। सादस्स उदीरया थोवा, असादस्स उदीरया संखेज्जगुणा। णिरयगईए सादस्स उदीरया थोवा, असादस्स उदीरया असंखेज्जगुणा । सेसेसु तसेसु असादस्स उदीरया किसी एककी उदीरणा करनेवाला शेष भेदोंका कदाचित् उदीरक होता है, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है। आतपकी उदीरणा करनेवाला उद्योतका नियमसे अनदीरक और उद्योतकी उदीरणा करनेवाला आतपका नियमसे अनदीरक होता है। नरकगति व मनष्यगतिका वेदन करनेवाला उद्योतका नियमसे अनुदीरक होता है । वेवगतिका वेदन करनेवाला मल शरीरसे उद्योतका अनुदीरक होता है । आतपका उदीरक पृथिवीकायिक जीव ही होता है, अन्य नहीं होता। उच्चगोत्रकी उदीरणा करनेवाला नीचगोत्रका नियमसे अनुदीरक होता है । इसी प्रकार नीचगोत्रके आश्रयसे कहना चाहिये। शेष कथन जानकर करना चाहिये । इस प्रकार स्वस्थान संनिकर्ष समाप्त हुआ। परस्थान संनिकर्षकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये। इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ। अल्पबहुत्व दो प्रकार है- स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व। इनमें स्वस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है--पांच प्रकार ज्ञानावरणकी उदीरणा करनेवाले परस्परमें समान हैं। स्त्यानगद्धिके उदीरक जीव स्तोक हैं, उनसे निद्रानिद्राके उदीरक संख्यातगुणे हैं, उनसे प्रचलाप्रचलाके उदीरक संख्यातगुणे हैं, उनसे निद्राके उदीरक संख्यातगुणे हैं, उनसे प्रचलाके उदीरक संख्यातगुणे हैं, उनसे शेष चार दर्शनावरणीय प्रकृतियोंके उदीरक परस्परमें तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके उदीरक स्तोक हैं, असाताके उदीरक उनसे संख्यातगुणे हैं। नरकगतिमें साताके उदीरक स्तोक हैं, असाताके उदीरक उनसे असंख्यातगुणे हैं। शेष त्रस जीवोंमें काप्रती उदीरए' इति पाठः । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवककमाणुयोगदारे मोहणीय उदीरणढाणपरूवणा थोवा । सादस्स उदीरया संखेज्जगुणा। एइंदिएसु सादस्स उदीरया थोवा, असादस्स उदीरया संखेज्जगुणा। उवरि उवदेसं लहियं वत्तव्वं। परत्थाणप्पाबहुगं जाणिय वत्तव्वं । एवमप्पाबहुअं समत्तं । भुजगार-पदणिक्खेवो वड्ढीयो पत्थि, एगेगपयडिविक्वखत्तादो। एत्तो उदीरणट्ठाणपरूवणा कीरदे- णाणावरणीयस्स उदीरणाए एक्कं चेव ट्ठाणं । एत्थ ( सामित्तं ) णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुअं च परूवेयव्वं । णाणावरणीयस्स हाणपरूवणा समत्ता । दसणावरणीयस्स दुवे द्वाणाणि चदुण्णमुदीरणा पंचण्णमुदीरणा चेदि । एदेसि टाणाणं सामित्तं णाणाजीवेहि भंगविचओ। कालो अंतरमप्पाबहुअंच कायव्वं । एवं दंसणावरणस्स टाणउदीरणा समत्ता। वेयणीयस्स णत्थि ट्ठाणउदीरणा। मोहणीयस्स ट्ठाणउदीरणाए अत्थि एक्किस्से पवेसओ, दोण्णं पवेसमो, तिण्णं पवेसओ णत्थि, चदुण्णं पवेसओ अत्थि। एत्तो पाए णिरंतरं जाव दसणं पवेसओ त्ति वत्तव्वं । एक्किस्से पवेसयस्स चत्तारि भंगा। तं जहा- कोधसंजलणस्स उदएण एगो भंगो, माणसंजलणस्स उदएण बिदियो भंगो, मायातंजलणस्स उदएण तिण्णि भंगा, लोभस्स उदएण चत्तारि भंगा। दोण्णं पवेसयस्स बारस भंगा। चदुग्ण पदेसयस्स चदुवीसभंगा। पंचण्णं पवेसयस्स चत्तारि चउवीसभंगा। असाताके उदीरक स्तोक और साताके उदीरक उनसे संख्यातगुणे हैं । एकेन्द्रिय जीवोंमें साताके उदीरक स्तोक और असाताके उदीरक उनसे संख्यातगुणे हैं। आगे उपदेशको प्राप्तकर कथन करना चाहिये । परस्थान अल्पवहुत्वकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वार यहां नहीं हैं; क्योंकि, एक एक प्रकृतिकी विवक्षा है । __ आगे यहां उदीरणास्थानोंकी प्ररूपणा की जाती है- ज्ञानावरणीयकी उदीरणाका एक ही स्थान है। यहां स्वामित्व, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । ज्ञानावरणीयकी स्थानप्ररूपणा समाप्त हई। दर्शनावरणीयके दो स्थान हैं- चारकी उदीरणाका एक स्थान और पांचकी उदीरणाका एक । इन स्थानोंके स्वामित्व, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। इस प्रकार दर्शनावरणकी स्थानउदीरणा समाप्त हुई। वेदनीयकी स्थान उदीरणा नहीं है। मोहनीय की स्थानउदीरणामें एक प्रकृतिका प्रवेशक ( उदीरक ) है, दो प्रकृतियोंका प्रवेशक है, तीन प्रकृतियोंका प्रवेशक नहीं है, चार प्रकृतियोंका प्रवेशक है। चार प्रकृतियोंके प्रवेशकको आदि करके दस प्रकृतियोंके प्रवेशक तक इन स्थानोंका प्रवेशक निरन्तर है। इनमें एक प्रकृतिके प्रवेशकके चार भंग हैं। वे इस प्रकार हैं- संज्वलन क्रोधके उदयकी अपेक्षा एक भंग, संज्वलन मानके उदयकी अपेक्षा द्वितीय भंग, संज्वलन मायाके उदयकी अपेक्षा तृतीय भंग, और संज्वलन लोभके उदयकी अपेक्षा चतुर्थ भंग। दो प्रकृतियोंके प्रवेशकके बारह भंग होते हैं। चार प्रकृतियोंके प्रवेशकके चौबीस भंग होते हैं । पांच प्रकृतियोंके 8 जयध (चू. सू. ) अ. प. ७५६. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ) छक्खंडागमे संतकम्म छण्णं पवेसयस्स सत्त चउवीस भंगा । सत्तण्णं पवेसयस्स दस चउवीस भंगा। अढण्णं पवेसयस्स एक्कारस चउवीस भंगा। णवण्णं पवेसयस्स छ चदुवीस भंगा। दसणं पवेसयस्स एक्को चउवीस भंगा। एदेसि भंगाणं पमाणपरूवगट्ठमेसा गाहा वुच्चदे। तं जहा एक्क य छक्केक्कारस दस सत्त चदुक्कमेक्कयं चेव।। दोसु य बारस भंगा एक्कम्हि य होंति चत्तारि० ॥ १ ॥ एवं ट्ठाणसमुक्कित्तणा समत्ता। सामित्तपरूवणाए इमाओ बे सुत्तगाहाओ। तं जहा-- सत्तादि दसुक्कस्सं मिच्छे सण-मिस्सए णउक्कसं। छादी य णवुक्कस्सं अविरदसम्मत्तमादिस्स ।। २ ॥ पंचादि अणिहणा विरदाविरदे उदीरणढाणा। एगादी तियरहिदा सत्तुक्कस्सा य विरदस्स ॥ ३ ॥ प्रवेशकके चार चौबीस ( २४४४ ) भंग होते हैं। छह प्रकृतियोंके प्रवेशकके सात चौबीस ( २४x७ ) भंग होते हैं। सात प्रकृतियोंके प्रवेशकके दस चौबीस ( २४४१०) भंग होते हैं। आठ प्रकृतियोंके प्रवेशकके ग्यारह चौबीस (२४४११ ) भंग होते हैं। नो प्रकृतियोंके प्रवेशकके छह चौबीस ( २४४६ ) भंग होते हैं। दस प्रकृतियोंके प्रवेशकके एक चौबीस ( २४४१) भंग होते हैं। इन भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणाके लिये यह गाथा कही जाती है । वह इस प्रकार है-- दस, नौ, आठ, सात, छह, पांच और चार प्रकृतियोंके प्रवेशकके क्रमसे एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक ( इतनी शलाकाओंसे युक्त चौबीस ) भंग; दो प्रकृतियोंके प्रवेशकके बारह, तथा एक प्रकृतिके प्रवेशकके चार भंग होते है ॥ १॥ ___ इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तना समाप्त हुई। स्वामित्वको प्ररूपणामें ये दो सूत्र गाथायें हैं। यथा सातको आदि लेकर उत्कर्षसे दस ( ७, ८, ९, १० ) प्रकृतियों तकके चार स्थान मिथ्यात्व गुणस्थानमें होते हैं, अर्थात् इन चार स्थानोंका स्वामी मिथ्यादृष्टि है। सातको आदि लेकर उत्कर्षसे नौ प्रकृतियों तकके तीन ( ७, ८, ९, ) स्थान सासादन और मिश्र गुणस्थानमें होते हैं। छह प्रकृतियोंको आदि लेकर उत्कर्षसे नौ तकके चार ( ६, ७, ८, ९) स्थान अविरतसम्यग्दृष्टिके होते हैं। पांचको आदि लेकर आठ प्रकृतियों तकके चार (५, ६, ७,८) उदीरणास्थान विरताविरत ( देशविरत ) गुणस्थानमें होते हैं । एकको आदि लेकर उत्कर्षसे त्रिप्रकृतिक स्थानसे रहित सात प्रकृतियों तकके छह ( १, २, ४, ५, ६, ७) उदीरणास्थान संयत जीवके होते हैं ॥२-३॥ विशेषार्थ-- यहां सात प्रकृतियोंको आदि लेकर दस प्रकृतियों तकके जो चार उदीरणा "एक्कग-च्छेक्के (छक्के) कारस दस सत्त चउक्क एककगं चेव । दोसु च बारस मंगा एकाम्हि य होंति चत्तारि ॥ जयध. अ प. ७५८. एक्क य छक्केयारं दस-सग-चदुरेक्कयं अपूणरुत्ता। एदे चवीसगदा बार दुगे पंच एक्कम्हि ।। गो. क. ४८८. ताप्रतौ ‘ण उक्कस्सं' इति पाठः। * जयध अ. प. ७५९. दस-णव गवादि चउ-तिय-तिद्राण णवट्र-सग-सगादि चऊ। ठाणा छादि तियं च य चवीसगदा अपव्वोत्ति ॥ गो.क.४८०. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे मोहणीयउदीरणट्ठाणपरूवणा एदासु दोसु गाहासु भासिदासु मोहणीयसामित्तं समप्पदि । एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो- एक्किस्से पवेसओ केवचिरं कालादो होदि? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। दोण्णं पवेसओ जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। चदुण्णं पवेसयस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । पंचण्णं पवेसयस्स जहण्णेण स्थान मिथ्यादृष्टिके बतलाये गये हैं वे इस प्रकारसे सम्भव हैं- मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्कमेंसे एक, अप्रत्याख्यानचतुष्क मेंसे एक, प्रत्याख्यानचतुष्कमें से एक, संज्वलनचतुष्कमेंसे एक, तीन वेदोंमेंसे कोई एक, हास्य रति और अरति-शोकमेंसे एक युगल, तथा भय व जुगुप्सा; इन दस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पाया जाता है। इन दस प्रकृतियोमें भय व जुगुप्सामेंसे किसी एकके विना नौ प्रकृतियोंका स्थान होता है, भय व जुगुप्सा इन दोनोंके विना आठ प्रकृतियोंका स्थान होता है; तथा भय, जुगुप्सा व कोई एक अनन्तानुबन्धी कषाय इन तीन प्रकृतियोंके विना सातका स्थान होता है। ये तीन स्थान भी मिथ्यादृष्टिके ही सम्भव हैं। उपर्युक्त दस प्रकृतियोंके स्थानमेंसे एक अनन्तानुबन्धी कषायको कम करके मिथ्यात्व प्रकृतिके स्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वके ग्रहण करनेपर नौ प्रकृतियोंका स्थान होता है । इसमें भय व जुगुप्सामेंसे एकके विना आठका, तथा दोनोंके विना सातका स्थान होता है । ये तीन उदीरणास्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही सम्भव हैं। इन तीनों स्थानमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वको कम करके अनन्तानबन्धी कषायको जोड देनेपर भी जो नौ, आठ व सात प्रकृतियोंके तीन उदीरणास्थान होते हैं उनका स्वामी सासादनसम्यग्दृष्टि होता है । सम्यक्त्व प्रकृति, एक अप्रत्याख्यान कषाय, एक प्रत्याख्यान कषाय, एक संज्वलन कषाय, एक वेद, हास्यादिमेंसे एक युगल तथा भय व जुगुप्सा प्रकृतिको ग्रहण कर नौका; भय व जुगुप्सामेंसे एकके विना आठका, इन दोनों के ही विना सातका, तथा उपशमसम्यग्दृष्टि एवं क्षायिकसम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा सम्यक्त्व प्रकृतिको भी छोडकर छहका; ये चार उदीरणास्थान अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पाये जाते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टिके इन चार उदीरणास्थानोंमें से एक अप्रत्याख्यान कषायको कम कर देनेपर जो आठ, सात, छह और पांच प्रकृतियोंके चार उदीरणास्थान होते हैं उनका स्वामी संयतासंयत होता है। इसके उक्त चारों स्थानोंमेंसे एक प्रत्याख्यान कषायको कम कर देनेपर जो सात, छह, पांच और चार प्रकृतियोंके चार उदीरणास्थान होते हैं प्रमत्त और अप्रमत्तमें वे सब तथा अपूर्वकरणमें सातके बिना तीन स्थान पाये जाते हैं। संज्वलनचतुष्कमेंसे एक और तीन वेदोंमेंसे एक इन दो प्रकृतियोंका स्थान, तथा एक मात्र अन्यतर संज्वलन प्रकृतिका स्थान, ये दो स्थान अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्राप्त होते हैं। तीन प्रकृतियोंके स्थानकी सम्भावना ही नहीं है। तथा सूक्ष्म लोभकी अपेक्षा एक प्रकृतिक स्थान सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें भी होता है, इतना यहां विशेष जानना चाहिये । इन दो गाथाओंकी प्ररूपणा करनेपर मोहनीय कर्मका स्वामित्व समाप्त होता है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। - एक जीवकी अपेक्षा काल- एक प्रकृतिक स्थानका उदीरक कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। दो प्रकृतिक स्थानका उदीरक जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है । चार प्रकृतिक स्थानके उदीरकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त मात्र है। पांच प्रकृतिक स्थानके उदीरकका Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ खंडागमे संतकम्म एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । छण्णं पवेसयस्स जहण्णेण एगसमओ, उसकस्सेण अंतोमुहुत्तं । सत्तण्णं पवेसयस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अट्ठण्णं पवेसयस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । णवण्णं दसण्णं पवेसयस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । एवमेगजीवेण कालो समत्तो। ___ एगजीवेण अंतरं-- दसण्णं पवेसयस्स अंतरं जहण्णेण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण बेछावट्ठिसागरोवमाणि । णवण्णं पवेसयस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण पुन्वकोडी देसूणा । अण्णं पवेसयस्स जहण्णेण एगसगओ, उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । सत्तण्णं पवेसयस्स जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। छण्णं पवेसयस्स जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। जहा छण्ण तहा पंचण्णं । चदुग्णं पवेसयस्स जहणेण अंतोमुत्तं, उवकस्सेण अद्धपोग्गलपरियढें। एवं दोण्णमेक्किस्से पवेसयस्स वत्तव्वं । एवमेगजीवेण अंतरं समत्तं । ___णाणाजीवेहि भंगविचओ- दसण्णं णवण्णं अट्ठण्णं सत्तण्णं छण्णं पंचण्णं चदुण्णं पवेसया जीवा णियमा अस्थि । दोण्णमेक्किस्से पवेसया जीवा भजिदत्वा। एवं णाणा काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है। छह प्रकृतिक स्थानके उदीरकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है । सात प्रकृतिक स्थानके उदीरकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है । आठ प्रकृतिक स्थानके उदीरकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं । नौ और दस प्रकृतिक स्थानके उदीरकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर- दस प्रकृतिक स्थानके उदीरकका अन्तर जघन्यसे अन्तमहूर्त और उत्कर्षसे दो छयासठ सागरोपम प्रमाण है । नौ प्रकृतिक स्थानके उदीरकका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल प्रमाण है। आठ प्रकृतिक स्थानके उदीरकका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल प्रमाण है । सात प्रकृतिक स्थानके उदीरकका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । छह प्रकृतिक स्थानके उदीरकका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। जैसे छह प्रकतिक स्थानके उदीरकका अन्तरकाल है वैसे ही पांच प्रकृतिक स्थानके उदीरकका अन्तर काल है। चार प्रकृतिक स्थानके उदीरकका अन्तरकाल जवन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । इसी प्रकारसे दो प्रकृतियोंके और एक प्रकृतिके उदीरकके अन्तरकालका कथन करना चाहिये । इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तर समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- दस, नौ, आठ, सात, छह, पांच और चार प्रकृतिक स्थानोंके उदीरक जीव नियमसे हैं । दो और एक प्रकृतिक स्थानोंके उदीरक जीव भजनीय हैं। ४ नाप्रती एवं णवण्ण इति पाल Private & Personal use only . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाफमाणुयोगदारे मोहणीयउदीरणढाणपरूवणा ( ८५ जीवेहि भंगविचओ समत्तो। णाणाजीवेहि कालो- एक्किस्से दोण्णं च पवेसया जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसाणप्पवेसयाणं कालो सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। णाणाजीवेहि अंतरं- एक्किस्से दोण्णं च पसंतरं जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । सेसाणं णत्थि अंतरं । एवमंतरं समत्तं। सण्णियासो- एक्किस्से पवेसओ बेण्हमप्पवेसओ,०। एवं सेसाणं वत्तव्वं । एवं सव्वट्ठाणाणं परूवणा कायव्वा* । एवं सण्णियासो समत्तो। अप्पा बहुअं-सव्वत्थोवा एक्किस्से पवेसया। दोण्णं पवेसया संखेज्जगुणा । चदुण्णं पवेसया संखेज्जगुणा । पंचण्णं पवेसया असंखेज्जगुणा । छण्णं पवेसया असंखेज्जगुणा। सत्तण्णं पवेसया असंखेज्जगुणा । दसण्णं पवेसया अणंतगुणा । णवणं पवेसया संखज्जगुणा । अट्ठण्णं पवेसया संखेज्जगुणा । आदेसेण णिरयगदीए सव्वत्थोवा छण्णं पवेसया। सत्तण्णं पवेसया असंखेज्जगुणा। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल- एक व दो प्रकृतियोंके उदीरक जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त काल तक रहते हैं। शेष स्थानोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर- एक और दो प्रकृतिक स्थानोंकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास तक होता है। शेष प्रकृतिक स्थानोंकी उदीरणाका अन्तर सम्भव नहीं है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। संनिकर्ष- एक प्रकृतिक स्थानका उदीरक दो प्रकृतिक स्थानका उदीरक नहीं होता है। इसी प्रकारसे चार, पांच आदि शेष प्रकृतिक स्थानोंको कहना चाहिये । इस प्रकार सब स्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ। ___ अल्पबहुत्व- एक प्रकृतिक स्थानके उदीरक सबसे स्तोक हैं। उनसे दो प्रकृतिक स्थानके उदीरक संख्यातगुणे हैं। उनसे चार प्रकृतिक स्थानके उदीरक संख्यातगुणे हैं। उनसे पांच प्रकृतिक स्थानके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। उनसे छह प्रकृतिक स्थानके उदीरक असंख्यातगणे हैं। उनसे सात प्रकृतिक स्थानके उदीरक संख्यातगुणे हैं। उनसे दस प्रकृतिक स्थानके उदीरक अनन्तगुणे हैं। उनसे नौ प्रकृतिक स्थानके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। उनसे आठ प्रकतिक स्थानके उदीरक संख्यातगण हैं। आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें छह प्रकृतिक स्थानके उदीरक सबसे स्तोक हैं। सात प्रकृतिक स्थानके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। दस प्रकृतिक स्थानके उदीरक असंख्यातगुणे हैं । 8 उभयोरेव प्रत्यो: 'वेण्हं पवेसओ' इति पाठः। * सण्णियासो। एत्तो सण्णियासो कायव्यो ति अहियारसंभालणवक्कमेदं । एक्किस्से पवेसगो दोण्हमप्पवेसगो। कुदो? परोपारविरुद्धसहावत्तादो। चउण्ड पंचण्हं छण्णं सत्तण्णं अट्ठण्ह णतण्हं दसण्हं च अपवेसगो ति एदमत्थदो लब्भदे, एक्किस्से पवेसगस्स सेसासेसट्रांगाणमरवेसयभावस्स देसामासयभावेणेदस्स पयट्टत्तादो। एवं सेसाणं । सुगमं । उच्चारणाहिप्पाएण सणियासो णस्थि त्ति, तत्थ सत्तारसण्हमेवाणिओगद्दाराणं परूवणादो। जयध. अ. प. १७६३-६४. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ) छक्खंडागमे संतकम्म दसण्णं पवेसया असंखेज्जगुणा । णवणं पवेसया संखेज्जगुणा । अट्टष्णं पवेसया संखेज्जगुणा । एवं सव्वणेरइय-देव-भवणादि जाव सहस्सारे त्ति । तिरिक्खेसु पंचपवेसया थोवा । छप्पवेसया असंखेज्जगुणा । उवरि ओघं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिगस्स । णवरि दसपवेसया असंखेज्जगुणा । पंचिदियतिरिक्खमणुसअपज्जत्तएसु दसपवेसया थोवा, णवपवेसया संखेज्जगुणा, अट्ठपवेसया संखेज्जगुणा । मणुस्सेसु एक्किस्से पवेसया थोवा, दोण्णं पवेसया संखेज्जगुणा, चदुण्णं पवेसया संखेज्जगुणा, पंचण्णं पवेसया संखेज्जगुणा, छण्णं पवेसया संखेज्जगुणा, सत्तण्णं पवेसया संखेज्जगुणा, दसण्णं पवेसया असंखेज्जगुणा, णवण्णं पवेसया संखेज्जगुणा, अट्ठण्णं पवेसया संखेज्जगुणा । एवं मणुस पज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्वं । आणदादि जाव णवगेवज्ज त्ति दसणं पवेसया थोवा, छप्पेवसया संखेज्जगुणा, णवपवेसया संखेज्जगुणा, अट्ठपवेसया संखेज्जगुणा, सत्तपवेसया संखेज्जगुणा। एवमणुद्दिसादि जाव सवढे त्ति । णवरि दसपवेसया णत्थि। आउअस्स द्वाणदीरणा णत्थि। णिरयगईए णामस्स. एक्कवीस पंचवीस सत्तावीस नौ प्रकृतिक स्थानके उदीरक संख्यातगुणे हैं। आठ प्रकृतिक स्थानके उदीरक संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकारसे सब नारक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंके विषयमें अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । तिर्यंचोंमें पांच प्रकृतिक स्थानके उदीरक स्तोक हैं। छह प्रकृतिक स्थानके उदीरक असंख्यातगुणे हैं । आगे ओघके समान कथन करना चाहिये । इसी प्रकारसे पंचेन्द्रिय तिर्यच आदि तीनके सम्बन्धमें कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इनमें दस प्रकृतिक स्थानके उदीरक असंख्यातगुणे हैं । पंवेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें दस प्रकृतिक स्थानके उदीरक स्तोक, नौके उदीरक संख्यातगुणे तथा आठके उदीरक संख्यातगुणे हैं। मनुष्योंमें एक प्रकृतिक स्थानके उदीरक स्तोक, दोके उदीरक संख्यातगुणे, ( चारके उदीरक संख्यातगुणे, ) पांचके उदीरक संख्यातगुणे, छहके उदीरक संख्यातगुणे, सातके उदीरक संख्यातगुणे, दसके उदीरक असंख्यातगणे, नौके उदीरक संख्यातगणे, तथा आठके उदीरक संख्यातगणे हैं। इसी प्रकार मनष्य पर्याप्त और मनष्यनियोंके विषयमें कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि जहां मनष्योंमें असंख्यातगणा कहा गया है वहां इनमें संख्यातगणा कहना चाहिये। आनत स्वर्गको आदि लेकर नौ ग्रेवेयक पर्यंत देवोंमें दस प्रकृतिक स्थानके उदीरक स्तोक, छहके उदीरक संख्यातगणे, नौके उदीरक संख्यातगणे, आठके उदीरक संख्यातगणे और सातके उदीरक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनुद्दिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां दसके उदीरक नहीं हैं। आयु कर्मकी स्थानउदीरणा नहीं है । नरकगतिमें नामकर्मके इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस * काप्रती ‘णिरयगईणामस्स ' इति पाठः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे णामकम्मोउदीरणट्ठाणपरूवणा ( ८७ अट्ठावीस एगुणतीसं ति पंच उदीरणट्ठाणाणि होति । २१ । २५/२७/२८।२९।। तत्थ इगिवीसपयडिउदीरणटाणं वुच्चदे । तं जहा- णिरयगइ-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-णिरयगइपाओग्गापुपुत्वी-अगुरुअलहुअ- तस-बादर-पज्जत्तथिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादेज्ज-अजसगित्ति-णिमिणाणि त्ति एदाओ पयडीओ घेतूण एक्कवीसाए द्वाणं होदि । एदस्स ढाणस्स को सामी? विग्गहगदीए वट्टमाणो णेरइयो सम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा। एदस्स कालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। __आणुपुव्वीमवणेदूण वेउब्वियसरीर-हुंडसंठाण-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-उवघादपत्तेयसरीरेसु पुव्वुत्तपयडीसु पक्खित्तेसु पणुवीसाए उदीरणट्ठाणं होदि । तं कस्स ? सरीरगहिदणेरइयस्स । तं केवचिरं कालादो होदि ? सरीरगहिदपढमसमयमादि कादूण जाव सरीरपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ त्ति, अंतोमुत्तमिदि वुत्तं होदि। परघाद-अप्पसत्य विहायगदीसु पुग्विल्लपणुवीसपयडीसु पक्खित्तासु सत्तावीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि । तं केवचिरं कालादो होदि ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयमादि कादूण जाव आणपाणपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ त्ति । एसो वि कालो जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुत्तमेत्तो। अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियोंके पांच ( २१, २५, २७, २८, २९ ) उदीरणास्थान होते हैं। उनमें इक्कीस प्रकृतियोंके उदीरणास्थानकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीति और निर्माण; इन प्रकृतियोंको ग्रहण कर इक्कीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। शंका-- इस स्थानका स्वामी कौन है ? समाधान-- विग्रहगतिमें वर्तमान सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नारक जीव उक्त स्थानका स्वामी है। इसका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय है। पूर्वोक्त प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वीको कम करके वैक्रियिकशरीर, हुण्डकसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन पांच प्रकृतियोंको मिला देनेपर पच्चीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। वह किसके होता है ? वह जिसने शरीर ग्रहण कर लिया है ऐसे नारक जीवके होता है। वह कितने काल तक होता है ? शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयको आदि करके शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होनेके उपान्त्य समय तक होता है । अभिप्राय यह कि वह अन्तमुहूर्त काल तक रहता है। पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियोंमें परघात और अप्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियोंको मिला देनेपर सत्ताईस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। वह कितने काल रहता है ? वह शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयको आदि लेकर आनप्राण पर्याप्तिके पूर्ण होनेके उपान्त्य समय तक होता है । यह भी काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ४ काप्रती 'परघादपसत्थ-', ताप्रती ‘परघाद- ( अ-) पसत्थ-' इति पाठः । Jain Educatioernational For Private & Perschal use only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ) छक्खंडागमे संतकम्म पुग्विल्लसत्तावीसपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते अट्ठावीसपयडीणं उदीरणट्ठाणं होदि । तं केवचिरं कालादो होदि? आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयमादि कादूण जाव भासापज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ ति । एसो वि कालो जहण्णुवकस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तो। पुटिवल्लअट्ठावीसपयडीसु दुस्सरे पविखत्ते एगुणतीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि। एदस्स अद्धाणं भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमयमादि कादूण जाव अप्पप्पणी आउद्विदीए चरिमसमओ त्ति । तस्स कालो जहणेण दसवस्ससहस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि, उक्कस्सेण अंतोमुत्तूणतेत्तीसं सागरोवमाणि । तिरिक्खगदीए एक्कवीस-वउवीस-पंचवीस-छवीस-सत्तावीस-अट्ठावीस-एगणतीसतीस-एक्कत्तीसं ति णव उदीरणढाणाणि । तत्थ एइंदियाणमेक्कवीस-च उवीस-पंचवीसछव्वीस-सत्तावीसं ति पंच उदीरणट्ठाणाणि। आदावुज्जोवाणमणुदएण एइंदियस्स सत्तावीसट्ठाणेण विणा चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि। आदावुज्जोवुदएण सहिदए इंदियस्सपणुवीसट्ठाणेण विणा चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि । तत्थ आदावुज्जोवुदयविरहिदएइंदियस्स भण्णमाणे तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी--अगुरुअलहुअ-थावर-बादर-सुहुमाणमेक्कदरं पज्जत्तापज्जत्ताणमेककदरं थिराथिरं सुभासुभं दूभगं अणादेज्जं जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणमेदाहि पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासके मिला देनेपर अट्ठाईस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। वह कितने काल तक रहता है ? आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयको आदि करके भाषापर्याप्तिके पूर्ण होने के उपान्त्य समय तक रहता है। यह भी काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंमें दुस्वरके मिला देनेपर उनतीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। इसका अध्वान भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयको आदि करके अपनी अपनी आय:स्थितिके अन्तिम समय तक है। उसका काल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है । तिर्यग्गतिमें इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतियोंके नौ उदीरणास्थान हैं। उनमें एकेन्द्रिय जीवोंके इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतियोंके पांच उदीरणास्थान सम्भव हैं। उनमें से आतप व उद्योतके उदयसे रहित एकेन्द्रिय जीवके सत्ताईसके विना चार उदीरणास्थान होते हैं। आतप व उद्योतके सहित एकेन्द्रिय जीवके पच्चीस प्रकृति रूप स्थानके विना चार उदीरणास्थान होते हैं । उनमें आतप व उद्योतके उदयसे रहित एकेन्द्रिय जीवके उक्त चार स्थानोंका कथन करनेपर तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, स्थावर, बादर व सूक्ष्ममें से एक, पर्याप्त व अपर्याप्तमेंसे एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यशकीति और अयशकीतिमें से एक तथा निर्माण, इन इक्कीस Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवकमाणुयोगद्दारे णामकम्मोउदीरणट्टाणपरूवणा ( ८९ एक्कवीसपयडीहि एगमुदीरणाट्ठाणं होदि । तं कत्थ ? विग्गहगदीए वट्टमाणएइंदि यमि होदि । तं केवचिरं ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया । पुव्विल्ल एक्कवीसपडी आणुपुव्वीमवणेण ओरालियस रीर-हुंडठाण - उवघाद-पत्तेयसाहारणसरीराणमेक्कदरे पक्खित्ते चउवीसाए उदीरणट्ठाणं होदि । तं कत्थं ? गहिदसरीरपढमसमय पहुडि जाव सरोरपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ ति एदम्मि अद्धा Q । तं चिरं ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । पुणो अपज्जत्तमवणिय सेसचउवीसपयडीसु परघादे पक्खित्ते पंचवीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि । तं कत्थ ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयमादि काढूण जाव आणपाणपज्जत्तीए अणिल्लेविदaftaarओति । तं केवचिरं ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । तस्सेव आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पुव्विल्लपंचवीसपयडीसु उसासे पक्खित्ते छन्वीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि । तं कस्स ? आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स । तं केवचिरं ? जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तूणबावीसवस्ससहस्साणि । आदावुज्जोवुदयसहिदएइंदियस्स वुच्चदे- एक्कवीस - चउवीसउदीरणट्ठाणाणं पुत्रं व परूवणा कायव्वा । पुणो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स परघाद-आदावुज्जो वाणमेक्कदरे प्रकृतियोंका एक उदीरणास्थान होता एकेन्द्रिय जीवके होता है । वह कितने उत्कर्ष से तीन समय तक होता है । पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वीको कम करके औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, उपघात तथा प्रत्येक व साधारण शरीरमें से एक, इन चार प्रकृतियोंको मिला देनेपर चौबीस प्रकृतियों का उदीरणास्थान होता है । वह कहांपर होता है ? वह शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लेकर शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होनेके उपान्त्य समय तक इस अध्वानमें होता है । वह कितने काल तक होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है । फिर इनमें से अपर्याप्तको कम करके शेष चौबीस प्रकृतियोंमें परघातको मिला देनेपर पच्चीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है । वह कहांपर होता है ? वह शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होनेके प्रथम समयको आदि करके आनप्राणपर्याप्ति के पूर्ण होनेके उपान्त्य समय तक होता है । वह कितने काल तक होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है । आनप्राणपर्याप्ति से पर्याप्त हुए उक्त एकेन्द्रिय जीवकी पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासके मिला देनेपर छब्बीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है । वह किसके होता है ? वह आन-प्राणपर्याप्ति से पर्याप्त हुए एकेन्द्रिय जीवके होता है । वह कितने काल तक होता है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष तक होता है । । वह कहां पर होता है ? वह विग्रहगतिमें वर्तमान काल तक होता है ? वह जघन्यसे एक समय और अब आतप व उद्योतके उदयसे सहित एकेन्द्रिय जीवके उदीरणास्थानोंका कथन करते हैं- इक्कीस और चौबीस प्रकृति रूप स्थानोंकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करना चाहिये । पुनः शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवकी पूर्वोक्त चौबीस प्रकृतियों में परघात और आतप उद्योत में से XXX काप्रती अद्धाणं इति पाठः । 1 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ) छक्खंडागमे संतकम्मं च पुव्विल्लचदुवीस पयडीसु पक्खित्तेसु पणुवीसट्ठाणमुल्लंघिय छटवीसपय डिट्ठानमुप्पज्जदि । तं कस्स ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स । तं केवचिरं ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । तस्सेव आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स छब्बीसपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते सत्तावीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि । विगलिदियाणं सामण्णेण एक्कवीस-छव्वीस अट्ठावीस - एगूणतीस-तीस - एक्कत्ती सं ति छउदीरणट्ठाणाणि । उज्जोवउदयविरहिदविगलिदियाणं पंच उदीरणट्ठाणाणि, एक्कत्तीसउदीरणट्ठाणाभावादो । उज्जोवुदयसंजुत्तविगिलिदियस्स वि पंचेवुदीरणट्ठाणाणि, परघादुज्जोव-अप्पसत्थविहायगदीणमक्कमपवेसेण अट्ठावीस ट्ठाणाणुप्पत्तीदो । उज्जोवुदयविरहिदबेइं दियस्स ताव उच्चदे । तं जहा - तिरिक्खगइ - बेइंदियजादि तेजा -कम्मइयसरीर वण्ण-गंध-रस - फास - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी - अगुरुअलहुअ-तसबादर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिर -- र- सुभासुभ- दूभग- अणादेज्ज जस-अजसगित्तीमेक्कदरं णिमिणणामं च एदासिमेक्कवीसपयडीणमेगं ट्ठाणं । तं कस्स ? बेइंदियस्स विग्गहगदी वट्टमाणस्स । तं केवचिरं ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । एदासु एक्कवीस पयडी आणुपुव्वीमवणेवण गहिदसरीरपढमसमए ओरालियसरीर किसी एकके मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक स्थानका उल्लंघन करके छब्बीस प्रकृतियोंका स्थान उत्पन्न होता है । वह किसके होता है ? वह शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवके होता है । वह कितने काल तक रहता है ? वह जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । आनप्राणपर्याप्त पर्याप्त हुए उक्त जीवकी छब्बीस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासके मिला देनेपर सत्ताईस प्रकृतियों का उदीरणास्थान होता है । विकलेन्द्रिय जीवोंके सामान्यसे इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, और इकतीस प्रकृति रूप ये छह उदीरणास्थान होते हैं । परन्तु उद्योतके उदयसे रहित विकलेन्द्रिय जीवोंके पांच उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि, उनके इकतीस प्रकृति रूप उदीरणास्थान नहीं होता। उद्योतके उदयसे संयुक्त विकलेन्द्रियके भी पांच ही उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि, उनके परघात, उद्योत और अप्रशस्त विहायोगति इन तीन प्रकृतियोंका युगपत् प्रवेश होने से अट्ठाईस प्रकृतियोंका स्थान उत्पन्न नहीं होता । उद्योतके उदयसे रहित द्वीन्द्रिय जीवके उदीरणास्थानोंका कथन करते हैं । यथा - ( तिर्यगति ) द्वीन्द्रियजाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त व अपर्याप्त में से एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय; यशकीर्ति और अयशकीर्ति में से एक तथा निर्माण नामकर्म; इन इक्कीस प्रकृतियोंका एक स्थान होता है । वह किसके होता है ? वह विग्रहगति में वर्तमान द्वीन्द्रिय जीवके होता है । वह कितने काल तक रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय रहता है । इन इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वीको कम करके शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समय में औदारिकशरीर, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे णामकम्मोदी रणद्वाणपरूवणा ( ९१ हुंडठाण - ओरालियस रीरंगोवंग असंपत्तसेवट्टसंघडण उवघाद-पत्तेयसरीरेसु पक्खित्तेसु छवीसाए ट्ठाणं होदि । तं कस्स ? बेइंदियस्स सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदस्स । तं केवचिरं ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सरीरर्पज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पुव्वुत्तपयडीसु अपज्जत्तमवणिय परघाद- अप्पसत्थविहायगदीसु पक्खित्तासु अट्ठावीसाए द्वाणं होदि । आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पुव्वुत्तपयडीसु उसासे पक्खित्ते एगुणतीसट्ठाणं होदि । भासापज्जत्तीए पज्जरायदस्स पुव्वुत्तपयडीसु दुसरे पक्खित्ते तीसाए ट्ठाणं होदि । संपहि उज्जोवुदयसंजुत्तबेइंदियस्स भण्णमाणे एक्कवीस-छब्बीसाओ जधा पुन्वं वुत्ताओ तधा वत्तव्वाओ। पुणो छब्बीसाए उवरि परधादुज्जोव - अप्पसत्थविहायगदीसु पक्खित्तासु एगुणतीसाए ट्ठाणं होदि । आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खिते तीसाए ट्ठाणं होदि । भासापज्जत्तीए पज्जतयदस्स दुसरे पक्खित्ते एक्कतीसा ट्ठाणं होदि । एदस्स कालो जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुतूणबारसवासाणि । एवं तेइंदिय- चउरिदियाणं पि वत्तव्वं । णवरि तीसेवकत्ती साणं कालो जहाकमेण एगुणवण्णरादिदियाणि छम्मासा अंतोमुहुत्तूणा । हुण्डकसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर; इन छह प्रकृतियों को मिला देनेपर छब्बीस प्रकृतिक स्थान होता है । वह किसके होता है ? वह शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त न हुए द्वीन्द्रिय जीवके होता है। वह कितने काल रहता है ? वह जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त रहता है। शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए द्वीन्द्रिय जीवकी पूर्वोक्त प्रकृतियोंमें अपर्याप्त को कम करके अर्थात् पर्याप्त के साथ परघात और अप्रशस्त विहायोगतिको मिला देनेपर अट्ठाईस प्रकृति रूप स्थान होता है । आनप्राणपर्याप्ति से पर्याप्त हुए उक्त जीवकी पूर्वोक्त प्रकृतियोंमें उच्छ्वास के मिला देनेपर उनतीस प्रकृति रूप स्थान होता है । भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए उक्त जीवकी पूर्वोक्त प्रकृतियों में दुस्वरको मिला देनेपर तीस प्रकृति रूप स्थान होता है । अब उद्योतके उदयसे संयुक्त द्वीन्द्रिय जीवके स्थानोंका कथन करते समय इक्कीस और छब्बीस प्रकृति रूप स्थानोंकी प्ररूपणा जैसे पहिले की गई है वैसे ही करना चाहिये । पुनः छब्बीस प्रकृति रूप स्थानके ऊपर परघात, उद्योत और अप्रशस्त विहायोगति इन तीन प्रकृतियोंको मिला देनेपर उन तीस प्रकृति रूप स्थान होता है । आनप्राणपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवके एक उच्छ्वास प्रकृतिके मिला देनेपर तीस प्रकृति रूप स्थान होता है । भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त हुए उक्त जीवके दुस्वर प्रकृतिके मिला देनेपर इकतीस प्रकृति रूप स्थान होता है । इसका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कम बारह वर्ष प्रमाण है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके भी स्थानोंका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि तीस और इकतीस प्रकृति रूप स्थानोंका काल यथाक्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम उनंचास रात्रि - दिवस और अन्तर्मुहूर्त कम छह मास प्रमाण है । " Jain Education Inted काप्रती पज्जत्तयदस्स " ता Pro Poll अ.) पज्जत यदस्स' इति पाठः । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ) - छक्खंडागमे संतकम्म ..... पंचिदियतिरिक्खस्स सामण्णण एक्कवीस-छव्वीस-अट्ठावीस-एगुणतीस-तीसएक्कत्तीस-ति छउदीरणट्ठाणाणि । उज्जोवुदयविरहिदपंचिदियतिरिक्खस्स पंच उदीरणट्ठाणाणि । कुदो? तत्थ एक्कत्तीसाए उदयाभावादो। उज्जोवुदयसंजुत्तचिदियतिरिक्खस्स वि पंचेवुदीरणट्ठाणाणि । कुदो ? तत्थ अट्ठावीसट्ठाणाभावादो। उज्जोवुदयविरहिदपंचिदियतिरिक्खस्स भण्णमाणे तत्थ इदमेक्कवीसाएट्ठाणं*-तिरिक्खगइ-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिर-सुभासुभ-सुभगदुभगाणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामंच, एदासिमेक्कवीसपयडीणमेक्कं चेव हाणं । सरीरे गहिदे आणुपुव्वीमवणिय ओरालियसरीरं छण्णं संठाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीरअंगोवंगं छण्णं संघडणाणमेक्कदरं उवघादं पत्तेयसरीरमिदि छसु पयडीसु पक्खित्तासु छन्वीसाए ट्ठाणं होदि । सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स अपज्जत्तमवणिय परघादे दोण्णं विहायगदीणमेक्कदरे च पक्खित्ते अट्ठावीसाए ठाणं होदि। आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खित्ते एगुणतीसाए ठाणं होदि। भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सर-दुस्सरेसु एक्कदरे पक्खित्ते तीसाए ट्ठाणं होदि। एदिस्से तीसाए कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, पंचेन्द्रिय तिर्यंचके सामान्यसे इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, और इकतीस प्रकृति रूप छह उदीरणास्थान होते हैं। उद्योतके उदयसे रहित पंचेन्द्रिय तिर्यंचके पांच उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि, उसके इकतीस प्रकृतिरूप उदीरणास्थानकी सम्भावना नहीं है। उद्योत उदयसे संयुक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचके भी पांच ही उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि, वहां अट्ठाईस -प्रकति रूप स्थानकी सम्भावना नहीं है। उद्योतके उदयसे रहित पंचेन्द्रिय तिर्यचके स्थानोंकी प्ररूपणा करते समय उनमें इक्कीस प्रकृति रूप स्थान यह है-तिर्यग्गति, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त व अर्याप्तमेंसे एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग और दुर्भगमेंसे एक, आदेय व अनादेयमेंसे एक, यशकीर्ति और अयशकीर्तिमेंसे एक तथा निर्माण नामकर्म; इन इक्कीस प्रकृतियोंका एक ही स्थान होता है । शरीरके ग्रहण कर लेनेपर आनुपूर्वीको कम करके औदारिकशरीर, छह संस्थानोंमेंसे एक, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहननोंमेंसे एक, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन छह प्रकृतियोंको मिला देनेपर छब्बीस प्रकृतियोंका स्थान होता है। शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए उक्त जीवकी उन छब्बीस प्रकृतियोंमेंसे अपर्याप्तको कम करके अर्थात् पर्याप्तके साथ परघात और दो विहायोगति में से एक, इन दो प्रकृतियोंको मिला देनेपर अट्ठाईस प्रकतियोंका स्थान होता है। उक्त जीवके आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त हो जानेपर उक्त प्रकृतियों में उच्छवासके मिला देनेपर उनतीस प्रकृतियों का स्थान होता है। भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उपर्यत प्रकृतियों में सुस्वर और दुस्वरमें से किसी एकको मिला देनेपर तीस प्रकृतियों का स्थान * कात्रौ 'पविता' इति पाठः । * काप्रती 'इदमेककवीसट्ठागाणं' इति पाठः। ताप्रतौ 'परघाद' इति पाठः । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे णामकम्मोदीरणट्ठाणपरूवणा उक्कस्सेण अंतोमुत्तूणतिण्णिपलिदोवमाणि । उज्जोवुदयसंजुत्तपंचिदियतिरिक्खस्स एक्कवीस-छव्वीसउदीरणट्ठाणाणि पुव्वं व वत्तवाणि। पुणो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स परघादुज्जोवेसु पसत्थापसत्थविहायगदीणमेवकदरे च पविठेसु एगणतीसाए ट्ठाणं होदि । आणापाणपज्जत्तीए पज्ज यदस्स उस्सासे पक्खित्ते तीसाए ट्ठाणं होदि । भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सरदुस्सराणमेक्कदरे पविठे एक्कत्तीसाए ट्ठाणं होदि । एदस्स ठाणस्स कालो जहण्णेण अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तूणतिण्णिपलिदोवमाणि ।। मणुस्साणं सामण्णण वीसेक्कवीस-पंचवीस-छव्वीस-सत्तावीसअट्ठावीस-एगुणतीस-तीस-एक्कत्तीस इदि णव उदीरणट्ठाणाणि । सामण्णमणुस्सा विसेसमणुस्सा विसेसविसेसमणुस्सा चेदि तिविहा मणुस्सा होंति । तत्थ सामण्णमणुस्साणं वुच्चदे। तं जहा- मणुसगइ-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंधरस-फास-मणुसगइपाओग्गणुपुव्वी-अगुरुअलहुअ-तस-बादर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिर-सुहासुह सुभग-दुभगाणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जसकित्तिअजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं चेदि एदासि पयडीणमेक्कमुदीरणट्ठाणं । गहिदसरीरस्स0 मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीमवणेदूण ओरालिय--- होता हैं। तीस प्रकृति रूप इस स्थानका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूत कम तीन पल्योपम प्रमाण है। उद्योतके उदयसे संयुक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचके इक्कीस और छब्बीस प्रकृति रूप स्थानोंका कथन पहिलेके समान ही करना चाहिये । पुनः शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंचकी उक्त छब्बीस प्रकृतियोंमें परघात, उद्योत और प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतियोंमेंसे एक, इन तीन प्रकृतियोंके प्रविष्ट होनेपर उनतीस प्रकृतियोंका स्थान होता है। आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त हो जानेपर उनमें एक उच्छ्वासके मिला देनेसे तीस प्रकृतिरूप स्थान होता है । भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त हो जानेपर सुस्वर और दुस्वरमेंसे किसी एक प्रकृतिके उपर्युक्त प्रकृतियोंमें प्रविष्ट होनेपर इकतीस प्रकृति रूप स्थान होता है। इस स्थानका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम प्रमाण है। _मनुष्योंके सामान्यसे बीस, इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस; ये नौ उदीणास्थान होते हैं । सामान्य मनुष्य, विशेष मनुष्य और विशेषविशेष मनुष्य इस प्रकारसे मनुष्योंके तीन भेद हैं। उनमें सामान्य मनुष्योंके उदीरणास्थानोंका कथन करते हैं । यथा- मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श मनुष्यातिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त व अपर्याप्तमेंसे एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग व दुर्भगमेंसे एक, आदेय व अनादेयमें से एक, यशकीर्ति व अयशकीर्तिमेसे एक तथा निर्माण नामकर्म, इन प्रकृतियोंका एक उदीरणास्थान होता है। शरीरके ग्रहण कर लेनेपर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको कम करके औदारिकशरीर, छह संस्थानोंमेंसे एक, औदारिक JainEducation inताप्रती 'गहिदस्स सरीरस्स' इति पाPates Pers neKUMST' गाहवस्त स रस्स हातPrivate &Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ) छक्खंडागमे संतकम्म सरीरं छण्णं संठाणाममेक्कदरं ओरालियसरीरअंगोवंगं छण्णं संघडणाणमेक्कदरं उवघाद-पत्तेयसरीरं च घेत्तूण पक्खित्ते छन्वीसाए ट्ठाणं होदि। सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स अपज्जत्तमवणिय परघादं पसत्थापसत्थविहायगदीणमेक्कदरं च घेत्तूण पक्खित्ते अट्ठावीसाए ठाणं होदि। आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खित्ते एगुणतीसाए ट्ठाणं होदि । भासापज्जत्तीए पज्जत्तयवस्स सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरे पक्खित्ते तीसाए ट्ठाणं होदि। संपहि आहारसरीरोदइल्लाणं विसेसमणस्साणं भण्णमाणे तेसि पंचवीससत्तावीस-अट्ठावीस-एगुणतीसं चेदि चत्तारिउदीरणढाणागि। मणुसगइ-पंचिदियजादिआहार-तेजा*-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण--आहारसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-तस--बादर-पज्जत्त-पत्तयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-- आदेज्ज-जसगित्तिणिमिणं चेदि एदासि पणुवीसपयडीणमेक्कमुदीरणट्ठाणं । सरीरपज्जतीए पज्जत्तयदस्स परघाद-पसत्थविहायगदीसु पक्खित्तासु सत्तावीसाए द्वाणं होदि । आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खित्ते अट्ठावीसाए ट्ठाणं होदि। भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सरे पक्खित्ते एगुणतीसाए ट्ठाणं होदि । विसेसविसेसमणुस्साणं वीस-एक्कवीस-छव्वीस-सत्तावीस-अट्ठावीस-एगूणतीस-तीस शरीरांगोपांग, छह संहननोंमें एक, उपघात और प्रत्येकशरीर इन प्रकृतियोंको ग्रहण करके मिला देनेसे छब्बीस प्रकृतियोंका स्थान होता है । शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हो जानेपर अपर्याप्तको कम करके परघात और प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतियोंमेंसे एक, इन दो प्रकृतियोंको ग्रहण करके मिला देनेपर अट्ठाईस प्रकृति रूप स्थान होता है। आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त हो जानेपर उच्छ्वासके मिला देनेसे उनतीस प्रवृत्ति रूप स्थान होता है। भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर सुस्वर और दुस्वरमेंसे किसी एक प्रकृतिके मिला देनेसे तीस प्रकृतिरूप स्थान होता है । __अब आहारशरीरके उदयसे संयुक्त विशेष मनुष्योंके उदीरणास्थानोंका कथन करनेपर उनके पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृति रूप चार उदी रणास्थान होते हैं। मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण नामकर्म ; इन पच्चीस प्रकृतियोंका एक उदीरणास्थान होता है। शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उपर्युक्त प्रकृतियोंमें परघात और प्रशस्तविहायोगतिके मिला देनेसे सत्ताईस प्रकृति रूप स्थान होता है। आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उच्छ्वासके मिला देनेसे अट्ठाईस प्रकृति रूप स्थान होता है। भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर सुस्वरके मिला देनेसे उनतीस प्रकृति रूप स्थान होता है । विशेषविशेष मनुष्योंके बीस, इक्कीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और * काप्रती 'जादि-तेजा' इति पाठः । . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे णामकम्मोदीरणट्टाणपरूवणा एक्कत्तीसं चेदि अट्ठ उदीरणट्ठाणाणि। तं जहा- मणुसगइ-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुभासुभसुभग-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिणं चेदि एदासि वीसण्णं पयडीणमेगं चेव ढाणं । तं कस्स? पदर-लोगवूरणगदसजोगिकेवलिस्स । जदि तित्थयरो तो तित्थयरेण सह एक्कवीसाए ट्ठाणं होदि। कवाडं गदस्स ओरालियसरीरं समचउरससंठाणं, तित्थयरुदयरहियाणं छण्णं संठाणाणमेक्कदरं, ओरालियसरीरंगोवंगं वज्जरिसहसंघडणं उवघादं पत्तेयसरीरं च वीसाए एक्कवीसाए वा पक्खित्ते छव्वीसाए सत्तवीसाए वाटाणं होदि। दंडं गदस्स परघादं पसत्थापसत्थविहायगदीणमेक्कदरं च घेत्तूण छव्वीसाए सत्तवीसाए च पक्खित्ते अट्ठवीसाए एगुणतीसाए वा द्वाणं होदि । णवरि तित्थयराणं पसत्थविहायगदी एक्का चेव उदेदि। आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खि ते एगुणतीसाए तीसाए च ट्ठाणं होदि। भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्त सुस्सर-दुस्सरेसु एक्कदरे पविढे तीसाए एक्कतीसाए वा हाणं होदि । णवरि तित्थयराणं दुस्सर-अप्पसत्थविहायगदीणमुदओ णस्थि । संपहि एक्कत्तीसंपयडीणं णामणिद्देसो कीरदे। तं जहा- मणुसगइ-पंचिदयजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण--ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण इकतीस, ये आठ उदीरणास्थान होते हैं। यथा- मनुष्यगति, पंवेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सभग, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण : इन बीस प्रकृतियोंका एक स्थान होता है। वह किसके ह प्रतर व लोकपुरण समदघातगत सयोगकेवलीके होता है। वह यदि तीर्थकर होता है तो तीर्थंकर प्रकृतिके साथ इक्कीस प्रकृति रूप स्थान होता है। कपाटसमदघातक केवलीके औदारिकशरीर, ( यदि वह तीर्थकर है तो) समचतुरस्रसंस्थान, तीर्थंकर प्रकृतिके उदयसे रहित केवलियोंके छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर; इन छह प्रकृतियोंको बीस अथवा इक्कीस प्रकृति रूप स्थानमें मिला देनेपर छब्बीस अथवा सत्ताईस प्रकृति रूप स्थान होता है। दण्डसमुद्घातको प्राप्त केवलीकी अपेक्षा परघात और प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतिमेंसे किसी एकको ग्रहण कर छब्बीस अयवा सत्ताईस प्रकृति रूप स्थानोंमें मिला देनेसे अट्ठाईस अथवा उनतीस प्रकृति रूप स्थान होते हैं। विशेष इतना है कि तीर्थंकरोंके एक प्रशस्त विहायोगतिका ही उदय होता है । आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उक्त दो स्थानोंमें एक उच्छ्वास प्रकृतिको मिला देनेसे क्रमश: उनतीस और तीस प्रकृति रूप स्थान होते हैं । भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उक्त प्रकृतियोंमें सुस्वर व दुस्वरमेंसे किसी एकके प्रविष्ट होनेपर तीस अथवा इकतीस प्रकृति रूप स्थान होता है । विशेष इतना है कि तीर्थंकरोंके दुस्वर और अप्रशस्तविहायोगतिका उदय नहीं होता। अब इकतीस प्रकृतियोंके नामोंका निर्देश किया जाता है । यथा- मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं वण्ण-गंध-रस-फास- अगुरुअलहुअ - उवघाद - परघाद- उस्सास-पसत्यविहायगइ-तस - बादरपज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुह-सुभग-सुस्सर आदेज्ज- जसकित्तिणिमिण- तित्थयरं चेदि एदाओ एक्कत्तीसपयडीओ तित्थयरो उदीरेदि । एदस्स कालो जहणेण वासपुधत्तं, उक्कस्सेण गब्भादिअट्टवस्सेहि ऊणा पुव्वकोडी । सेसाणं द्वाणाणं कालो + for araat | देवगदीए एक्कवीस-पंचवीस- सत्तावीस (अट्ठावीस - एगुणतीस उदीरणट्ठाणाणि होंति । तत्थ एक्कवीसाए पयडिपरूवणं कस्सामो । तं जहा- देवगड पंचिदियजादितेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास - देवगइपाओग्गाणुपुब्बी - अगुरुअलहुअ-तसबादर- पज्जत्त-थिराथिर - सुहासुह-सुभग-आदेज्ज - जसगित्ति- णिमिणं चेदि । एदस्स ठाणस्स कालो जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । सरीरे गहिदे आणुपुव्वीमवणेण वेडव्वियसरीर-समचउरससंठाण वे उव्वियसरीरंगोवंग-उवघाद-पत्तेयसरीरेसु पक्खित्तेसु पणुवीसाए ट्ठाणं होदि । सरीरपज्जतीए पज्जत्तयदस्स परघाद-पसत्थविहायगदी पक्खित्तासु सत्तावीसाए ट्ठाणं होदि । आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्रायदस्स उसासे पविट्ठे अट्ठावीसाए ट्ठाणं होदि । भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सरे पविट्ठे एगुणतोसाए ट्ठाणं होदि । एदस्स ट्ठाणस्स कालो जहण्णेण अंतोमुहूतूणदसवस्ससहस्साणि, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तूणतेत्तीसं सागरोवमाणि । एसि संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर; इन इकतीस प्रकृतियोंकी उदीरणा तीर्थंकर करते हैं । इसका काल जघन्यसे वर्षपृथक्त्व और उत्कर्षतः गर्भसे लेकर आठ वर्षोंसे हीन एक पूर्वकोटि प्रमाण है । शेष स्थानोंके कालका कथन जानकर करना चाहिये । देवगति में इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस; ये पांच उदीरणास्थान होते हैं । उनमें इक्कीस प्रकृति रूप स्थानकी प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण । इस स्थानका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र है। शरीरके ग्रहण कर लेनेपर आनुपूर्वीको कम करके वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, उपघात और प्रत्येकशरीर; इन पांच प्रकृतियोंको मिलानेपर पच्चीस प्रकृति रूप स्थान होता है। शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर परघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियोंको उपर्युक्त प्रकृतियोंमें मिला देने से सत्ताईस प्रकृति रूप स्थान होता है । आनप्राणपर्याप्ति से पर्याप्त होनेपर उच्छ्वास प्रकृतिके प्रविष्ट होनेसे अट्ठाईस प्रकृति रूप स्थान होता है । भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होनेपर सुस्वरके प्रविष्ट होने से उनतीस प्रकृतिरूप स्थान होता है । इस स्थानका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है । इन स्थानों का एक जीवकी अपेक्षा काप्रतौ ' सेसाणं कालो' इति पाठः । काप्रतौ ' सत्ताविस इति पाठः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ उवक्कमाणुयोगद्दारे भुजगारुदीरणा ढाणाणमेयजीवेण अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरमप्पाबहुअंच जाणिदूण वत्तव्वं । गोदस्स पत्थि ट्ठाणउदीरणा । अंतराइयस्स एक्कं चेव द्वाणं । एवं ट्ठाणपरूवणा समत्ता । एत्तो भुजगारुदीरणा वुच्चदे । तं जहा- दंसणावरणीयस्स अत्थि भुजगारअप्पदर-अवट्ठिदउदीरणाओ, अवत्तव्वउदीरणा णत्थि । एवं परूवणा समत्ता। एत्थ सामित्तं-भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदाणं को उदीरगो? अण्णदरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा। एवं सामित्तं समत्तं । कालो- भुजगार-अप्पदराणं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अवट्ठिदस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं कालो समत्तो। ___ अंतरं- एयजीवेण भुजगार-अप्पदराणमंतरं जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अवट्टिदउदीरणंतरं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । एवमंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ वुच्चदे । तं जहा- भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदउदीरया णियमा अत्थि । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। कालो- भुजगार-अप्पदर-अवट्ठिदाणं सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्वको जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । गोत्र कर्मकी स्थानउदीरणा सम्भव नहीं है । अन्तराय कर्मका एक ही स्थान है। इस प्रकार स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। यहां भुजाकार उदीरणाका कथन करते हैं । यथा- दर्शनावरणीय कर्मकी भुजाकार अल्पतर और अवस्थित उदीरणायें है; अवक्तव्य उदीरणा नहीं है। इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई। यहां स्वामित्व-भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणाओंका उदीरक कौन है ? अन्यतर मिथ्यादष्टि और सम्यग्दष्टि जीव उनका उदीरक है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। काल-भुजाकार और अल्पतर उदीरणाओंका काल जघन्य और उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तर-एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार और अल्पतर उदीरणाओंका अन्तर जघन्यसे व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । अवस्थित उदीरणाका अन्तर जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयकी प्ररूपणा की जाती है। यथा-भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। काल- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणाओंका काल सर्वदा है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। .ताप्रती ' भुजगारअप्पदराणमंतरं जहणुक्कस्सेण एगसमओ' इति पारः। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं अंतरं भुजगार - अप्पदर अवट्टिदाणं णत्थि अंतरं । एवमंतरं समत्तं । अप्पा बहुअं - भुजगार - अप्पदरउदीरया तुल्ला थोवा । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । एवमप्पा बहुगं समत्तं । मोहणीयस्स सामित्तं वुच्चदे - भुजगार- अप्पदर अवट्टिदाणमुदीरओ को होदि ? अण्णदरो सम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा । अवत्तव्वउदीरओ को होदि ? मणुसो वा मसणी वा देवो वा सम्माइट्ठी । एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो - भुजगारउदीरओ जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि समया । कुदो? वेद- कसाय-भय-दुगंछासु कमेण उदिण्णासु चदुष्णं समयाणमुवलंभादो । अधवा सेडीदो परिवदमाणस्स हस्स- रदीहि सह एक्को, भएण एक्को, दुगंछाए एक्को, कालगदस्स एक्को, एवं चत्तारि समया । अप्पदरस्स जहण्णमेगसमओ, उक्कस्सं तिण्णि समया । अवट्ठिदस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अवत्तव्वस्स Store से एगसमओ । एवं कालो समत्तो । एयजीवेण अंतरं भुजगारस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवमप्पदर-अवट्टिदाणं । अवत्तव्वं जहणमंतोमुहुत्तं, उक्कस्समुवड्ढपोग्गलपरियहं । एवमंतरं समत्तं । अन्तर- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणाओंका अन्तर नहीं है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ । अल्पबहुत्व - भुजाकार और अल्पतर उदीरक दोनों तुल्य होकर स्तोक हैं । अवस्थित उदीरक उनसे असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । मोहनीयकर्मके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती हैं- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणाओंका उदीरक कौन होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि उनका उदीरक होता है । अवक्तव्य उदीरक कौन होता है ? सम्यग्दृष्टि मनुष्य, मनुष्यनी और देव उसका उदीरक होता । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । एक जीवकी अपेक्षा काल- भुजाकार उदीरकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय है, क्योंकि, वेद, कषाय, भय और जुगुप्सा प्रकृतियोंकी क्रमसे उदीरणा होनेपर चार समय पाये जाते हैं । अथवा श्रेणिसे नीचे गिरते हुए जीवके हास्य व रतिके साथ एक समय, भय के साथ एक समय, जुगुप्साके साथ एक समय, तथा मरणको प्राप्त हुएका एक समय इस प्रकार चार समय पाये जाते । अल्पतरका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय है। अवस्थितका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । अवक्तव्यका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर- भुजाकारका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है । इसी प्रकार अल्पतर और अवस्थित उदीरणाका अन्तर है । अवक्तव्य उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पयडिउदीरणाए पदणिक्खेवो णाणाजीवेहि भंगविचओ- भुजगार-अप्पदर-अवविदउदीरया णियमा अस्थि । सिया एदे च अवतव्वउदीरओ च, सिया एदे च अवत्तव्वउदीरया च धुवससहिया तिण्णि* । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। कालो- अवत्तव्वउदीरयाणं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जा समया। सेसाणं सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। अंतरं अवत्तव्वउदीरयंतरं जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्साणि । सेसाणं णत्थि अंतरं । एवमंतरं समत्तं । अप्पाबहुअं- अवत्तव्वउदीरया थोवा । भुजगारउदीरया अणंतगुणा । अप्पदरउदीरया विसेसाहिया खवगसेडि पडुच्च । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । एवमप्पाबहुअं समत्तं । पदणिक्खेवो- उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो उवसामओ एगपयडिउदीरओ मदो देवो जादो, ताधे अट्ठ उदीरेदि, तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । तस्सेव उक्कस्समवट्ठाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो मिच्छाइट्ठी से काले संजमं पडिविज्जहिदि, संपहि भय दुगुंछाणं वेदगो, से काले पढमसमयसंजदो जादो भय-दुगुंछाणमवेदगो, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय-- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे हैं । कदाचित् ये व अवक्तव्यउदीरक एक, कदाचित् ये व अवक्तव्यउदीरक बहुत, इस प्रकार इन दो भंगोंमें ध्रुवभंगको मिलानेपर तीन भंग होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। काल- अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समयप्रमाण है। शेष उदीरकोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तर- अवक्तव्य उदीरकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्षप्रसाण है । शेष उदीरकोंका अन्तर सम्भव नहीं है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। ___ अल्पबहुत्व- अवक्तव्य उदीरक स्तोक हैं। उनसे भुजाकारउदीरक अनन्तगुणे हैं। उनसे क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा अल्पतरउदीरक विशेष अधिक हैं। अर्थात् क्षपकश्रेणिमें मोहनीयका अल्पतर पद ही होता है, भुजाकार पद नहीं होता; इस अपेक्षासे भुजाकार उदीरकोंसे अल्पतर उदीरक विशेष अधिक कहे गये हैं। इनसे अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। पदनिक्षेप- उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो उपशामक एक प्रकृतिका उदीरक होता हुआ मृत्युको प्राप्त होकर देव हुआ है, तब वह आठकी उदीरणा करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके (अनन्तर समयमें) उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है? जो मिथ्यादृष्टि अनन्तर समयमें संयमको प्राप्त होगा वह अभी भय व जुगुप्साका वेदक है, अनन्तर समयमें वह प्रथमसमयवर्ती संयत होकर उनका अवेदक हो जाता है, उस मिथ्यात्वसे भज० अप्प० अवढि० उदीर० णिय० अस्थि । सिया एदे च अवत्तम्बओ च सिया एदे च अवत्तब्वगा च भंगा तिणि ३। जयध. अ. प. ७६७. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0 छक्खंडागमे संतकम्मं तस्स मिच्छत्तपच्छायदस्स पढमसमय संजदस्स उक्कस्सिया हाणी । एवं सामित्तं समत्तं । हाणी थोवा, वड्ढी अवट्ठाणं च विसेसाहियं । जहण्णिया वड्ढी जहण्णिया हाणी जहण्णमवद्वाणं च एया पयडी । सेसं चितिय वत्तव्वं । एवं पदणिक्खेवो समत्तो । . एतो वड्ढिउदीरणा -- अत्थि संखेज्जभागवड्ढि - संखेज्जगुणवड्ढिउदीरओ, एदेसि चेव हाणीओ अवट्ठाणमवत्तव्वं च । अवत्तव्वउदीरया थोवा । संखेज्जगुणहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । संखेज्जगुणउदीरया संखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढिउदीरया अनंतगुणा । संखेज्जभागहाfortcut विसेसाहिया । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । एवं णामकम्मस्स वि जाणिऊण वत्तव्वं । पयडिउदीरणा समत्ता । ठिदिउदीरणा दुविहा- मूलपयडिट्ठिदिउदीरणा उत्तरपयडिट्ठि दिउदीरणा चेदि । मूलपय डिट्ठिदिउदीरणा दुविहा- जहणिया उक्कस्सिया चेदि । तत्थ उक्कस्सिया ठिदिउदीरणा णाणावरणीय दंसणावरणीय-वेयणीय- अंतराइयाणं तीसं सागरोवमकोडाhttओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ । एवं णामा-गोदाणं । णवरि वीसं सागरोवम आये हुए प्रथम समयवर्ती संयतके उत्कृष्ट हानि होती है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । हानि स्तोक है, उससे वृद्धि और अवस्थान दोनों समान होकर विशेष अधिक हैं । जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान एक प्रकृति स्वरूप हैं । शेष प्ररूपणा विचार कर करना चाहिये । इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ । यहां वृद्धिउदीरणा - संख्यात भागवृद्धिउदीरक और संख्यातगुणवृद्धिउदीरक हैं । इनकी ही हानियोंके उदीरक अर्थात् संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि उदीरक, अवस्थानउदीरक तथा अवक्तव्य उदीरक हैं । अवक्तव्यउदीरक स्तोक हैं। उनसे संख्यातगुणहानिउदीरक संख्यातगुण हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धिउदीरक अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकारसे नामकर्मकी भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । प्रकृतिउदीरणा समाप्त हुई । स्थितिउदीरणा दो प्रकारकी है - मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिस्थितिउदीरणा । मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा दो प्रकारकी है- जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे हीन तीस कोडा कोडि सागरोपम प्रमाण है । इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्मकी भी स्थितिउदीरणा समझना चाहिये । संपत्ति य उदए पओगओ दिस्सए उईरणा सा । सेची ( वी ) का ठिइहिंता जाहिं तो तिगा एसा । क. प्र. ४, २९. तथा चाह-- या स्थितिरकालप्राप्तापि सती प्रयोगत उदीरणाप्रयोगेण संप्राप्त्यृदए पूर्वोक स्वरूपे प्रक्षिप्ता सती दृश्यते केवल चक्षुषा सा स्थित्युदीरणा ( मलयगिरि ) । तत्रोदये सति यासां प्रकृतीनामुत्कृष्टो बन्धः सम्भवति तासामुत्कर्षत आवलिकाद्विकहीना सर्वाप्युत्कृष्टा स्थितिरुदीरणाप्रायोग्या । क. प्र. ४, २९ ( मलय ) । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ठिदिउदीरणा ( १०१ कोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ। उक्कस्सिया द्विदिउदीरणा मोहणीयस्स* सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ। आउअस्स उक्कस्सिया ठिदिउदीरणा तेत्तीसं सागरोवमाणि एगावलियाए ऊणाणि । एवमुक्कस्सिया ठिदिउदीरणा समत्ता। जहणिया ठिदिउदीरणा- णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा एया ठ्ठिदी। सा कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयखीणकसायस्स। मोहणीयस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा एगा ठ्ठिदी। सा कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयसुहमसांपराइयखवगस्स। वेदणीयस्स जहणिया द्विदिउदीरणा सागरोवमस्स तिणि सत्त भागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणा । णामा-गोदाणं जहणिया द्विदिउदीरणा अंतोमुत्तमेत्ता समयूणावलियाए ऊणा, अजोगिअद्धा चरिमफाली च होदि ति भणिदं होदि। आउअस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा एगा ट्ठिदी । तं कत्थ? मरणकाले समयाहियावलियसेसे । एवं मूलपयडिट्ठिदिउदीरणा समत्ता। उत्तरपयडीसु उक्कस्सिया ठिदिउदीरणा पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरण.यअसादावेयणीय-पंचण्णमंतराइयाणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि विशेषता यह है कि उनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे हीन सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा एक आवलीसे रहित तेतीस सागरोपम प्रमाण है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा समाप्त हुई । जघन्य स्थितिउदीरणा- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी जघन्य स्थिति उदीरणा एक स्थिति मात्र है। वह किसके होती है ? वह जिसके अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है उसके होती है। मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक स्थिति मात्र है। वह किसके होती है ? वह जिस जीवके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक होने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रहा है उसके वेदनीयकी जघन्य स्थिति उदीरणा पल्योपमका असंख्यातवां भाग हीन सागरोपमके तीन बटे सात भाग (3) प्रमाण होती है । नाम और गोत्रकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक समय कम आवलीसे हीन अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है । अभिप्राय यह कि वह अयोगकेवलीके काल और अन्तिम फालि रूप होती है।। आयकर्मकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक स्थिति मात्र है। वह कहांपर होती है ? वह मरणसमयमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर होती है। इस प्रकार मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा समाप्त हुई। उत्तर प्रकृतियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय और पांच अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियों (बन्धावली और उदयावली) से कम तीस कोडाकोडि ताप्रो 'ट्रिदिउदीरणा । मोहणीयस्स' इति पाठः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ) छवखंडागमे संतकम्म ऊणाओ। सादस्स तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तीहि आवलियाहि ऊणाओ। मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया ठिदिउदीरणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तूणाओ। सोलसण्णं कसायाणं उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ। णवणोकसायाणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओतीहि आवलियाहि ऊणाओ। गिरय-देवाउआणं उक्कस्सिया ट्ठिदिउदीरणा तेत्तीससागरोवमाणि आवलिऊणाणि । तिरिक्ख-मणुस्साउआणं तिणि पलिदोवमाणि आवलियूणाणि । णिरयगइ-तिरिक्खगइ एइंदिय-चिदियजादि-ओरालिय-वेउम्विय-तेजा-कम्मइयसरीरहुंडसंठाण-ओरालिय-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवठ्ठसंघडण-वण्ण-गंधरस-फास-णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी--अगुरुअलहुअ-उवघाद--परघाद-- उस्सास-उज्जोव--अप्पसत्थविहायगइ-तस-थावर-बादर-पज्जत्त--पत्तेयसरीर-अथिरअसुभ-दूभग-दुस्सर-अणावेज्ज-अजसगित्ति-णिमिण-णीचागोदाणमुक्कस्सिया ट्ठिदिउदीरणा वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ । मणुसगइ सागरोपम प्रमाण है। साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा तीन आवलियों ( बन्धावली, संक्रमणावली और उदयावली ) से होन तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा दो आवलियोंसे हीन सत्तर कोडाकोडि सागरोपमप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अन्तर्मुहर्त कम सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे हीन चालीस कोडाकोडि सागरोपमप्रमाण है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा तीन आवलियोंसे हीन चालीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। नारकआयु और देवाउकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा एक आवली कम तेतीस सागरोपमप्रमाण है । तिर्यगायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा एक आवली कम तीन पल्योपमप्रमाण है। नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तेजस व कार्मण शरीर, हण्डकसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, असंप्राप्तासपाटिकासंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगति व तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघू, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीति, निर्माण और नीचगोत्र; इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। मनुष्यगति, पांच संस्थान, पांच संहनन, प्रशस्त विहायो " येषां त कर्मणां मनजगति-सातावेदनीय... एकोनत्रिंशत्संख्याकानामदए सति संक्रमेणोत्कष्टा स्थिति.. तेषामावलिकात्रिकहीना सर्वा स्थितिरुदीरणाप्रायोग्या, केवलं तानि कर्माणि वेश्यमानानां वेदितव्या। क. प्र (मलय) ४. ३२। ओघेण मिच्छ० उक्कस्सिपा टिदिउदीरणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ Jain Educatioदोहि आवलियाहि ऊ गाओ। सम्म० सम्मामि.......जयवअ. प. ७९३ । . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे छिदीउदीरणा पंचसंठाण-पंचसंघडण-पसत्थविहायगइ-थिरादिछक्क-उच्चागोदाणमुक्कस्सदिदिउदीरणा वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तीहि आवलियाहि ऊणाओ। देवगदि-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियजादि-देव-मणुस्सगइपाओग्गाणुपुवी-आदाव-सुहम अपज्जत्त-साहरणाणमुक्कस्सद्विदिउदीरणा वीस कोडाकोडिसागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणाणि । आहारदुगस्स अंतोकोडाकोडिसागरोवमाणि उदीरणा । तित्थयरस्स उक्कस्सिया ट्ठिदिउदीरणा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एवमुक्कस्सो अद्धाच्छेदो समत्तो। जहण्णए पयदं-पंचगाणावरणीय-छदसणावरणीय-मिच्छत्त-सम्मत्त-तिण्णिवेदचत्तारिसंजलण-चत्तारिआउअ-पंचतराइयाणं जहणिया द्विदिउदीरणा एगा द्विदि । थोणगिद्धितिय-सादासाद-बारसकसाय-छण्णोकसाय एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियजादि-पंचसंघडण-तिरिक्खगइ-तिरिक्ख-मणुस्सगइपाओग्गाणुपुव्वी-आदावुज्जोवथावर-सुहुम-अपज्जत--साहारग--दूभग--अणादेज्ज--अजसकित्ति--णीचागोदाणं जहगिया टिदिउदीरणा सागरोवमस्त तिणि सत्त भागा चत्तारि सत्त भागा बे सत्त भागा पलिदोवमस्स* असंखेज्जदिभागेण ऊणया । मणुसगइ----पंचिदियजादि----ओरालिय---तेजा----कम्मइयसरीर---- गति, स्थिर, आदि छह और उच्चगोत्र; इनको उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा तीन आवलियोंसे हीन बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाग है । देवगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, देवगति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर इनकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा अन्तर्मुहर्त कम बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है । आहारद्विककी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा अन्तःकोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। इस प्रकार उत्कृष्ट अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। जघन्य अद्धाच्छेद प्रकृत है-पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तीन वेद, चार संज्वलन, चार आयु और पांच अन्तराय ; इनकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक स्थिति मात्र है। स्त्यानगद्धि आदि तीन, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, छह नोकषाय, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, पांच संहनन, तिर्यग्गति, तिर्यग्गति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आता, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयशकीति और नीचगोत्र; इनकी जघन्य स्थितिउदीरणा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन, चार और दो भाग ( :, ३, ) प्रमाण है। अर्थात् दर्शनावरण व वेदनीयकी प्रकृतियोंकी पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम एक सागरके तीन बटे सात भाग प्रमाण, मोहनीयको उत्तर प्रकृतियोंकी पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम एक सागरके चार बटे सात भाग प्रमाण तथा नामकर्म और गोत्र कर्मकी उत्तर प्रकतियोंकी पल्यका असंख्यातवां भाग कम एक सागरके दो बटे सात भाग प्रमाण जघन्य स्थितिउदीरणा होती है । मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, ताप्रती 'चत्तारिकसायसंजलण-' इति पाठः। .ओघेण मिच्छ० सम्म० चदूसंजल० तिणिवेद जह• ट्रिदि उदी. एया दिदि समयाहियावलियदिदी । जयध अ. प. ७९३. . बारसक० छण्णोक० जह. ट्रिदिउदी० सागरोवमस्स चत्तारि सत्त भागा पलिदो० असंखे० भागेणणा । जयध. अ. प. ७९३. • मप्रति गठोऽयम् । उभयोरेव प्रत्यो: 'सागरोवमस्स तिणि सत्त भागा पलिदोवमः' इति पाठः । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ) छक्खंडागमे संतकम्म छप्तंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअउववाद-परघाद-उस्सास-दोविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुम-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिण-तित्थयर-उच्चागोदाणं जहणिया ठिदिउदीरणा अंतोमुत्तं । सा कत्थ? सजोगिचरिमसमए। वेगुन्वियछक्कस्स जहणिया टिदिउदीरणा सागरोवमसहस्स-बेसत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया। णवरि वेउव्वियसरीरस्स सागरोवमस्स बे सत्त भागा देसूणा । उव्वेलणं पडुच्च सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया ठिदिउदीरणा सागरोवमं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणयं । सा पुण उवेल्लमाणेण सम्मामिच्छत्तपाओग्गजहण्णट्ठिदिसंतकम्म कादूण सम्मामिच्छत्ते पडिवण्णे तस्स चरिमसमए जहणिया द्विदिउदीरणा । आहारदुगस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा अंतोकोडाकोडी । एवं जहण्णट्ठिदिअद्धाछेदो समत्तो। एत्तो सामित्तं-पंचणाणावरणीयाणं उक्कस्सद्विदिउदीरओ को होदि? जो उक्कस्सदिदि बंधिदूण आवलियादिक्कतो एइंदिओ वा पंचिदिओ वा पज्जत्तो वा अपज्जत्तो वा। जदि अपज्जत्तो जाव आवलियतब्भवत्थो त्ति उक्कस्सदिदिउदीरगो । अपज्जत्तो त्ति वुत्ते कस्स गहणं? णेरइओ वा बादरपत्तेयसरीरएइंदिओ गब्भोवक्कंतिओ णवंसओ वा छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगतियां, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर और उच्चगोत्र ; इनकी जघन्य स्थितिउदीरणा अन्तर्मुहुर्त काल प्रमाण है । वह कहांपर होती है ? वह सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें होती है। वैक्रियिकशरीर आदि छह प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिउदी रणा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक हजार सागरोपमोंके सात भागोंमेंसे दो भागप्रमाण है। विशेष इतना है कि वैक्रियिकशरीरकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक सागरोपमके सात भागोंमें से कुछ कम दो भाग प्रमाण है। उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उदीरणा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम प्रमाण है। परन्तु वह जघन्य स्थितिउदीरणा उद्वेलनाको करनेवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके योग्य जघन्य स्थितिसत्त्वको करके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर उसके अन्तिम समयमें होती है। आहारद्विकको जघन्य स्थितिउदीरणा अन्तःकोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। इस प्रकार जघन्य स्थितिअद्धाच्छेद समाप्त हुआ। यहां स्वामित्व- पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर जिसने आवली मात्र कालको विताया है ऐसा एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, पर्याप्त व अपर्याप्त जीव उसका उदीरक होता। यदि अपर्याप्त है तो वह आवली कालवर्ती तद्भवस्थ होने तक उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । __ शंका-- 'अपर्याप्त ' कहनेपर किसका ग्रहण किया गया है ? समाधान-- नारक, बादर प्रत्येकशरीर एकेन्द्रिय और गर्भोपक्रान्तिक नपुंसकका ग्रहण Jain Education Internataसम्मामि० जह० ट्रिदिउदी० सागरोनमधत्तं । जयध अ.प. ७९३. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ठिदिउदीरणा ( १०५ घेत्तव्यो । जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा चत्तारिदसणावरणीय-असादावेदणीयमिच्छत्त-सोलसकसाय-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-णवंसयवेद-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-णिमिण-डंडसंठाण-णीचागोद-पंचंतराइयाणं च वत्तव्वं । सादस्स उक्कस्सििदउदीरगो को होदि ? जो असादस्स उक्कस्सियं हिदि बंधेदूण पडिभग्गो संतो सादं बंधमाणो आवलियूणमसादुक्कस्सद्विदि पडिच्छिय संकमणावलियकालं गमिय उदयावलियबाहिरसम्वविदीओ ओकड्डिय उदए णिसिंचमाणो। एवं हस्स-रदि-पुरिस-इत्थिवेदाणं । थीणगिद्धितिय-णिद्दा-पयलाणमुक्कस्सटिदिउदीरओ को होदि? जो उक्कस्सियं द्धिदि बंधियूण पडिभग्गो संतो पंचण्णमेक्कदरपयडीए पवेसओ उदयावलियबाहिरसव्वद्विदीओ बंधावलियादिक्कताओ ओकड्डियूण उदए संछुहमाणो। थीणगिद्धितियस्स उक्कस्सटिदिउदीरओ* णियमा पज्जत्तओ। सम्मत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरओ को होदि? जो मिच्छत्तस्स उक्कस्सदिदि बंधियूण अंतोमुत्तेण पडिभग्गो चेव सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स बिदियसमयसम्माइट्ठिस्स । सम्मामिच्छत्तस्स सो चेव सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी जादो, तस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणा*। करना चाहिये। जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार चार दर्शनावरणीय, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, निर्माण, हुण्डकसंस्थान, नीचगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके भी स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये। साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता हैं ? जो असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर प्रतिभग्न होकर साता वेदनीयकी बांधता हुआ एक आवलीसे हीन असाताकी उत्कृष्ट स्थितिको सातारूप सक्रान्त कर व संक्रमणावलीकालको विताकर उदयावलीके बाहरकी सब स्थितियोंका अपकर्षण करके उदयमें देता है वह साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसी प्रकार हास्य, रति, पुरुष और स्त्री वेदके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, निद्रा और प्रचलाकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर प्रतिभग्न होता हुआ उक्त पांच प्रकृतियोंमेंसे किसी एकका उदीरक होकर बन्धावलीसे अतिक्रान्त उदयावलीके बाहिरकी सब स्थितियोंका अपकर्षण कर उदयमें दे रहा है वह उनकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक निययसे पर्याप्तक जीव होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधक र अन्तर्मुहुर्तमें प्रतिभग्न होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उसके सम्यग्दृष्टि होनेके द्वितीय समयमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा होती है। वहीं सम्यग्दृष्टि सम्बग्मिथ्यादृष्टि हो गया, तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। * काप्रतौ 'टिदिउदीरणा णियमा', ताप्रती 'टिदि उदीरणा (ओ)' इति पाठः। * तथा सप्ततिसागरोपम दृष्टिना सता बद्धा। ततोऽन्तर्महत कालं यावन्मिथ्यात्वमनभय Jain Educatio सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । ततः सम्यक्त्वे साम्यग्मिथ्यात्वे चन्तर्मुहूर्तानां मिथ्यात्वस्थिति सकलामपि संक्रमयति helibrary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ) छक्खंडागमे संतकम्म चदुण्णमाउआणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो अप्पप्पणो उक्कस्साउटिटीसु उववण्णो पढमसमयतब्भवत्थो सो उक्कस्सियाए द्विदोए उदीरओ। णिरयगदिणामाए उक्कस्सद्विदीए उदीरओ को होदि ? जो उक्कस्सट्टिदि बंधियण णिरयगदीए उववण्णो जहण्णेण पंचमाए पुढवीए उक्कस्सेण सत्तमाए पुढवीए पढमसमयतब्भवत्थो दुसमयतब्भवत्थो तिसमयतब्भवत्थो चदुसमयतब्भवत्थो वि एवं जाव आवलियतब्भवत्थो त्ति उक्कस्सद्विदीए उदीरओ*। तिरिक्खगइणामाए उक्कस्सियाए टिदीए उदीरओ को होदि? णियमा पज्जतओ देवगइपच्छायदए इंदियो वा देव -णिरयगदिपच्छायदगब्भोववकं तियतिरिक्खजोणिणqसयवेदो वा। एवमेइंदियजादीए। णवरि देवपच्छायदएइंदियस्सेव । पंचिदियजादीए णाणावरणभंगो। णवरि एइंदिओ त्ति ण वत्तव्वं । चार आयु कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुस्थितिमें उत्पन्न होकर प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ है वह उस उस आयुकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो उसकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर नरकगतिमें उत्पन्न हुआ है, वह जघन्यसे पांचवीं और उत्कर्षसे सातवीं पृथिवीमें तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें, द्वितीय समयमें, तृतीय समयमें, चतुर्थ समयमें ; इस प्रकार तद्भवस्थ होने के आवली मात्र काल तक नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। तिर्यग्गति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? नियमसे देवगतिसे लौटकर आया हुआ एकेन्द्रिय पर्याप्त, अथवा देवगति व नरकगतिसे लौटकर आया हुआ गर्भोपक्रान्तिक तिर्यंचयोनिवाला नपुंसकवेदी जीव तिर्यग्गतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे एकेन्द्रिय जाति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके स्वामीका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि देव पर्यायसे प.छे आये हुए एकेन्द्रिय जीवके ही उसकी उदीरणा सम्भव है। पंचेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके स्वामीका कथन ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि यहां 'एकेन्द्रिय' यह नहीं कहना चाहिये । मनुष्यगति संक्रमावलिकायां चातीतायामुदीरणायोग्या, तत्र सक्रमावलिकातिक्रमेऽपि सान्तर्मुहूर्वोतव । तन: सम्यक्त्वमनुभवतः सम्यक्त्वस्यान्तर्मुहुर्तोना सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणोत्कृष्टा स्थि िरुदीरणायोग्या। ततः कश्चित सम्यक्त्वेऽप्यन्तर्मुहूर्त स्थित्वा सम्पग्मिथ्यान्वं प्रतिपद्यते । ततः सम्यग्मिथ्यात्वमनुभवतः सम्यग्मिथ्यात्वस्यान्तर्मुहर्त द्विकोना सप्ततिसागरोपमक टीकोटीप्रमाणोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति। क. प्र. (मलय.) ४,३२. X ताप्रतौ ' वि । एवं ' इति पाठः। * अद्धाच्छेओ सामित्तं पि य ठिहसंकमे जहा नवरं रि। तव्वेइसु निरयगईए वा वि तिसु हि (हे) ट्रिम खिईसु ॥ क. प्र. ४, ३२. नरकगतेः, अपिशब्दान्नरकानपूाश्च तिर्यपंचेन्द्रियो मनष्यो वोत्कृष्टां स्थिति बद्ध्वा उत्कृष्टस्थितिबन्धानन्तरं चान्तमहर्ते व्यतिक्रान्ते सति तिमध्वधस्तनपृथिवीषु मध्येऽन्यतरस्यां पृथिव्यां समुन्मन्नः, तस्य प्रथमसमये नरकगतेरन्तमहर्तहीना सर्वापि स्थितिविंशतिमागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा उदीरणायोग्या भवति। ......... अधस्तनपृथिवीत्रयग्रहणे किं प्रयोजनमिति चेदूच्यते- इह नरकगत्यादीनामुत्कृष्टां स्थिति बन्धनवश्यं कृष्णलेश्यापरिणामोपेतो भवति । कृष्णलेश्या गरिणामोपेतश्च कालं कृत्वा नरकेषुत्पद्यमानो जघन्यकृष्णलेश्यापरिणानः पंचमपृथिव्यामुत्पद्यते, मध्यमकृष्ण लेश्यापरिणामः षष्ठपृथिव्याम्, उत्कृष्टकृष्णलेश्यापरिणामः सप्तमपृथिव्यामित्यधस्तनपथिवीत्रय ग्रहणम् । (मलय. टीका ) * काप्रतौ 'देवा' इति पाठः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १०७ मणुसगदिणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो मणुस्सो णिरयगइणामाए उक्कस्सियं ट्ठिदि बंधिदूण पडिभग्गो संतो मणुसदि बंधदि तस्स आवलियादिक्कंतस्स पडिच्छिदणिरयगदिउक्कस्सट्ठिदिस्स मणुस गदिणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा । देवदिणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? मणुस्सो वा तिरिक्खो वा णिरयगदिसंजुत्तमुक्कस्सद्विदि बंधिदूण पडिभग्गो संतो ताधे चेव जो देवर्गाद बंधिदूण अंतोमुहुत्तेण देवो जादो तस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स। जहा तिरिक्खगइणामाए तहा ओरालियसरीरणामाए। वेउब्वियसरीरस्स णिरयगइभंगो। आहारसरीरणामाए उक्कस्सट्टिदिउदीरओ को होदि ? आहारसरीरस्सर तप्पाओग्गउक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मिओ पढमसमयआहारसरीरओ* ओरालियसरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो मनुष्य नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर उससे भ्रष्ट होता हुआ मनुष्यगतिको बांधता है उसके नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका मनुष्यगति रूपसे संक्रणम होनेपर एक आवली कालके पश्चात् मनुष्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा होती है। देवगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो मनुष्य या तिर्यच होता है, वह नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर भ्रष्ट होता हुआ उसी समयमें देवगतिको बांधकर अन्तर्मुहूर्तमें देव हो जाता है । उसके देव होने के प्रथम समयमें देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा होती है। जिस प्रकार तिर्यग्गति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाके स्वामीकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार औदारिकशरीरकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। वैक्रियिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है। आहारकशरीरनामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? आहारकशरीरका उदीरक तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिके सत्त्ववाला समयवर्ती आहारक * ताप्रती '-उक्कस्सट्रिदिमणुस-' इति गठः। २ मप्रतिणठोऽयम् । उभयोरेव प्रत्योः 'अंतोमुत्तूण देवो' इति पाठः। 6 देवगति-देव-मणयाणपुवी आयाव-विगल-सुहमतिगे। अंतोमहत्तभग्गा तावयगुणं तदुक्कस्सं ॥ क. प्र. ४, ३३. देवगनि त्ति- देवगति-देवानपूर्वी-मनुष्यानपूर्वीणामातपस्य विकलत्रिकस्य द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियजातिरूपस्य सूक्ष्मत्रिकस्य च सूक्ष्म-साधारणापर्याप्तकलक्षणस्य (१०) स्व-स्वोदये वर्तमान अन्तर्मुहर्त भग्ना उत्कृष्टस्थितिबन्धाध्यवसायादनन्तरमन्तमहतं कालं यावत् परिभ्रष्टा: सन्तस्तावदूनामन्तर्मुहतॊनां तदुत्कृष्टां देवगत्यादीनामुत्कृष्टां स्थितिमदीरयन्ति । यमत्र भावना- कश्चित्तथाविधपरिणामविशेषभावतो नरकगतेउत्कृष्टां स्थिति विंशतिसागरोपमक टीकोटीप्रमाणां बध्वा ततः शभपरिणामविशेषभावतो देवगतेरुकष्टां स्थिति दशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां बद्घमारभते । ततस्तस्यां देवगतिस्थिती बध्यमानायामावलिकाया उपरि बन्धावलिकाहीनामावलिकात उपरितनी सर्वामपि नरकगति स्थिति संक्रमयति । ततो देवगतेरपि विंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा स्थितिरावलिकामात्रहीना जाता। देवगति च बध्नन् जघन्येनाप्यन्तमहतं कालं यावद् बध्नाति । बन्धानन्तरं च कालं कृत्वाऽनन्तरसमये देवो जातः। ततस्तस्य देवत्वमनुभवतो देवगतेरन्तर्महर्लोना बिंशतिसागरोपमकोटीको टीप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति । (मलय. टीका). ४ उभयोरेव प्रत्योः ‘आहारसरीरदुगस्स' इति पाठः । ताप्रती 'आहारसरीर (? ।' इति पाठः। ...तथाहारकसप्तकमप्रमत्तेन सता तद्योग्योत्कृष्टसंक्लेशेनो कष्टस्थितिकं बद्धन्, तत्कालोत्कृष्ट स्थितिक ( स्व ) मूलप्रकृत्यभिन्नप्रकृत्यन्तरदलिकं च तत्र संक्रमितम्। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ) छक्खंडागमे संतकम्म अंगोवंगणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरओ को होदि ? देवो रइओ वा उक्कस्सििद बंधिदूण तिरिक्खजोणिगब्भोवक्कंतियणसए उववण्णो तस्स जाव आवलियतब्भवत्थस्से त्ति ओरालियंगोवंगणामाए उक्कस्सिया ट्ठिदिउदीरणा। जहा वेउव्वियाहारसरीराणं तहा तेसिमंगोवंगणामाणं । जहा पंचण्णं सरीराणं तहा पंचबंधण-संघादाणं पि परूवणा कायव्वा । ___पंचसंठाणेसु जस्स जस्स इच्छिज्जदि तस्स तस्स संठाणस्स वेदगो उक्कस्सियं ठिदि कादूण आवलियादिक्कंतमुदीरेदि। जहा ओरालियसरीरअंगोवंगणामाए तहा असंपत्तसेवट्टसंघडणणामाए वत्तव्वं । सेसाणं पंचणं संघडणाणं जहा पंचण्णं संठाणाणं कदं तहा कायव्वं । जहा णिरयगई तहा णिरयाणुपुवीए। जहा तिरिक्खगई तहा तिरिक्खाणुपुवीए। जहा देवगई तहा देवाणुपुव्वीए मणुसाणुपुवीए च। जहा धुवउदीरयाणं पयडीणं तहा उवघादणामाए परघादणामाए उस्सासणामाए च। उक्कस्सियं द्विदि बंधिदूण अमरंतो चेव आवलियादिक्कंतमुदीरेदि त्ति शरीरी होता है। औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक देव अथवा नारक जीव होता है, जो उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर तिर्यंच योनिवाले गर्भापक्रान्तिक नपुंसकमें उत्पन्न हुआ है उसके उक्त भवमें स्थित होनेके आवली मात्र कालके भीतर औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा होती है। जिस प्रकार वैक्रियिक और आहारकशरीर सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे उनके आंगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये। जसे पांच शरीरोंको उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही पांच बन्धन और पांच संघात नामकर्मों के सम्बन्ध में भी प्ररूपणा करना चाहिये। पांच संस्थानोंमेंसे जिस जिसकी विवक्षा हो उस संस्थानका वेदक जीव उत्कृष्ट स्थितिको करके आवली मात्र कालको बिताकर उसका उदीरक होता है। जैसे औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका कयन किया गया है वैसे ही असंप्राप्तासृपाटिकासंहननकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका कथन करना चाहिये । शेष पांच संहननोंका कथन पांच संस्थानोंके समान करना चाहिये । नरकगत्यानुपूर्वीको प्ररूपणा नरक गतिके समान है। तिर्यग्गत्यानुपूर्वीकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान है। देवगत्यानुपूर्वी और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। उपघातनामकर्म, परघात नामकर्म और उच्छ्वास नामकर्मको प्ररूपणा ध्रुवउदीरणावाली प्रकृतियोंके समान है। मात्र उनकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मरणसे रहित होता हुआ एक आवलीके ततस्तत्सर्वोत्कृष्टान्तःसागरोपमकोटीकोटीस्थि तक जातम्। बन्धानन्तर चान्तमहर्तमतिक्रम्याहारकशरीरमारभते। तच्चारभमाणो लब्ध्यपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादभाग्भवति । ततस्तस्य प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरमुत्पादयत आहारकशरीरसप्तकस्यान्तर्मुहूर्तोनोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या। अत्र प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरारम्भकत्वादुत्कृटस्थित्यदीरणास्वामी प्रमत्तसंयत एवं वेदितव्यः । क. प्र. ( मलय. ) ४, ३३. ४ देवगति-देव-मणुयाणुपुब्बी आयाव-विगल-सुहुमतिगे । अंतोमुहुत्तभग्गा तावयगूणं तदुक्कस्सं ॥ क प्र.४,३३. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १०९ वत्तव्वं । एवमुज्जोवणामाए। णवरि उत्तरविउव्विददेवस्स। आदावस्स देवपच्छायदपुढविकाइयस्स सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स तप्पाओग्गमुक्कस्सद्विदिमुदीरेमाणस्स। पसत्थापसत्थविहायगइणामाए उस्सासभंगो । णवरि एदासि पयडीणं जो वेदओ तत्थ वत्तव्वं । तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरणामाणं जहा धुवउदोरणापयडीणं परूविदं तहापरूवेयव्वं । थावरणामाए उकस्सट्टिदिउदीरणा कस्स होदि ? जो देवो उक्कस्सियं ट्ठिदि बंधिदूण मदो एइंदिएसु उववण्णो तस्स जाव आवलियतब्भवत्थो ति ताव उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा । सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं उक्कस्सटिदिमुदीरओ को होदि ? जो वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधिदण पडिभग्गो संतो अप्पिदपयडीओ बंधिय उक्कस्सियं पडिच्छिय अंतोमहत्तमच्छिय सव्वलहुं सुहम-अपज्जत्त-साहारणसरीरेसुप्पण्णपढमसमयतब्भवत्थो उक्कस्सट्टिदिउदीरगो । एवं बेइंदिय-तेइंदियचरिदियणामाणं पि वत्तन्वं । बाद उसकी-उदीरणा करता है, ऐसा कहना चाहिये । इसी प्रकारसे उद्योत नामकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि उसकी उदीरणा उत्तर विक्रियायुक्त देवके होती है । आतप नामकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा देव पर्यायसे पीछे आये हुए पृथिवीकायिक जीवके शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करते समय होती है। प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति नामकर्मोकी प्ररूपणा उच्छ्वास नामकर्मके समान है। विशेषता इतनी है कि इन प्रकृतियोंका जो जीव वेदक है उसके कहना चाहिये। त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर नामको सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा जैसे ध्रुव-उदीरणावाली प्रकृतियोंकी की गई है वैसे करना चाहिये । स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? जो देव उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मरणको प्राप्त हो एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके आवली मात्र कालवर्ती तद्भवस्थ रहने तक उसकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो जीव बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थितिको बांधकर प्रतिभग्न होता हुआ विविक्षित प्रकृतियोंको बांधकर उत्कृष्ट स्थितिको संक्रान्त कर अन्तर्मुहूर्त स्थित रहकर सर्वलघु कालमें सूक्ष्म अपर्याप्त साधारणशरीरवालोंमें उत्पन्न होकर प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ हुआ है वह उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । इसी प्रकारसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय नामकर्मोकी भी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये। एवमातपादीनामप्यन्तर्मुहूर्तोना उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणा भावनीया । नन्वृदयसंक्रमोत्कृष्टस्थितीनां प्रकृतीनामन्तमुहूर्तोना उत्कृष्ट स्थितिरुदीरणायोग्या भवतु, आतपनाम तू बन्धोत्कृष्टम, ततस्तस्य बन्धोदयावलिका द्विकरहितवोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणाप्रायोग्या प्राप्नोति, कथमच्यतेऽन्त महर्मोनेति ? उच्यते-इह देव एवोत्कृष्टे संक्लेशे वर्तमान एकेन्द्रियप्रायोग्याणामातप-स्थावरैकेन्द्रियजानीनामत्कष्टा स्थिति बध्नाति, नान्यः । स च तां वध्वा तत्रव देवभवेऽन्तमहत कालं यावदवतिष्ठते । ततः कालं कृत्वा बादरपृथिवीकायिकेषु मध्य समुत्पद्यते। समुत्पन्नः सन् शरीरपर्याप्त्या पर्याप्त आतपनामोदये वर्तमानस्तदुदीरयति । तत एवं सति तस्यान्तमहर्लोनवोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति (मलय. टीका)। कापतौ 'उक्कस्सभंगो' इति पाठः । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ) छक्खंडागमे संतकम्म थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसगित्तीणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो उक्कस्सटिदि बंधिदूण पडिभग्गो होदूण बंधावलियादिक्कतं पडिच्छिय संकमणावलियादीदमुदयावलियबाहिरमोकड्डियूण उदए देदि सो उक्कस्सट्ठिदिउदीरओ। अथिर-असुहदूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्तीणं जहा धुवउदीरयाणं तहा कायव्वं । णवरि सुस्सरदुस्सराणमपज्जत्तकाले पत्थि उदीरणा। तित्थयरस्स उक्कस्सट्ठिदि उदीरगो को होदि? जो पढमसमयकेवली तप्पाओग्गुक्कस्सटिदिसंतकम्मिओ। उच्चागोदस्स उक्कस्सटिदिउदीरगो को होदि ? जो णीचागोदस्स उक्कस्सट्टिदि बंधियूण पडिभग्गो संतो? उच्चागोदस्सेव वेदओ तस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणा । एवं उवकस्ससामित्तं । एत्तो जहण्णसामित्तं उच्चदे। तं जहा-पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं जहण्णढिदिउदीरगो को होदि? जो समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थोखीणकसायम्मिणिद्दा-पयलाणमुदीरणा पत्थि त्ति भणंताणमभिप्पाएण णिहाणिद्दा-पयलापयला-थोणगिद्धीहि * सह जहण्गसामित्तं वत्तव्वं *। तिण्णं दंसणावरणीयाणं जहण्ण स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर व उससे प्रतिभग्न होकर बन्धावलीसे अतिक्रान्त स्थितिको संक्रान्त कर संक्रमणावालीके बाद उदयावलीसे बाह्य स्थितिका अपकर्षण कर उदयमें देता है वह उनकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, और अयशकीति ; इनकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका कथन ध्रुवउदीरणावाली प्रकृतियोंके समान करना चाहिये । विशेष इतना है कि सुस्वर और दुस्वरकी उदीरणा अपर्याप्तकालमें नहीं होती। तीर्थकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्त्ववाला प्रथय समयवर्ती केवली तीर्थंकर प्रकृतिका उदीरक होता है। उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो उच्चगोत्रका ही वेदक नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर उससे प्रतिभग्न हआ है उसके उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। यहां जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती हैं। वह इस प्रकार है-पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है ऐसा छद्मस्थ जीव उपर्यक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है । क्षीणकषाय गुणस्थानमें निद्रा और प्रचलाकी उदीरणा नहीं है, ऐसा कहनेवाले आचार्यों के अभिप्रायसे उनकी उदीरणाके जघन्य स्वामित्वका कथन निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि प्रकृतियोंके साथ करना चाहिये। तीन * तित्थयरस्स य पल्लासंखिज्जइमे xxx ॥ क. प्र. ४, ३४ इह पूर्व तीर्थकरनाम्नः स्थिति शुभैरध्यवसायरपवल्पवयं पल्योपमासंख्येयभागमात्रा शेषीकृता। ततोऽनन्तरसमये उत्पन्नकेवलज्ञानःसन तामदीरयति । उदीरयतश्च प्रयमममये उत्कृष्टोदीरणा। सर्वदैव चेयन्मात्रैव स्थितिरुत्कृष्टा तीर्थकरनाम्त उदीरणाप्रायोग्या प्राप्यते, नाधिकेति । (मलय.) 8ताप्रती 'प डेभागे संते ' इति पाठः । छउमत्थखीणरागे चउदस समयाहिगालिगदिईए । क. प्र. ४, ४२. * काप्रतौ '-मभिप्पारण गिद्धीहि', ताप्रती 'मभिपाएण ( थीण-) गिद्धीहि' इति पाठः। * इंदियाज्जतीए दुसमयपज्जत्तगाए (उ) पाउग्गा । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १११ द्विदिउदीरओ को होदि? जो पज्जत्तो हदसमुप्पत्तियकम्मेण सव्वचिरं कालं जहण्णद्विदिसंतकम्मस्स हेट्ठा बंधिदूण तदो तं चेव जहण्णसंतकम्मं बंधिय पुणो तत्तो उवरिल्लट्ठिदि बंधमाणस्स आवलियमेत्ते काले गदे तिण्णं दंसणावरणीयाणं जहण्णदिदिउदीरणा । सादस्स जहण्णट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो बादरएइंदिओ हदसमुप्पत्तिएण कम्मेण सव्वचिरं जहण्णढिदिसंतादो हेट्ठा बंधिदूण से काले उरि बंधिहिदि त्ति तदो मदो सण्णीसु उववण्णो, तत्थ असादं सव्वचिरं बंधियण सादस्स बंधगो जादो, तस्स सादं बंधमाणस्स गमिदावलियकालस्स सादस्स जहणिया द्विदिउदीरणा। एवमसादस्स वि वत्तव्वं । णवरि सण्णीसुप्पण्णो संतो सादं बंधावेयव्वो, तदो सादबंधगद्धाए उक्कस्सियाए गदाए असादं बद्धं, तदो आवलियमधिच्छिदूण जहण्णट्ठिदिमसादस्स उदीरेदि त्ति वत्तव्वं । दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो पर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ सर्वचिरकाल ( दीर्घ अन्तर्मुहुर्त काल ) तक जघन्य स्थितिसत्त्वसे कम बांधकर, पुनः उसी जघन्य स्थितिसत्कर्मको बांधकर, तत्पश्चात् ऊपरकी स्थितिको बांधता हुआ जब आवली मात्र काल बिताता है तब उसके तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है । सातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो बादर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ सर्वचिरकाल जघन्य स्थितिसत्त्वसे कम बांधकर, अनन्तर कालमें अधिक स्थितिको बांधेगा कि इसी बीचमें मरकर संज्ञी जीवोंमें उत्पन्न हुआ, फिर उनमें सर्वचिरकाल तक असाता वेदनीयको बांधकर साता वेदनीयका बन्धक हुआ है, उसके साताको बांधते हुए आवली मात्र कालके बीतनेपर साता वेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। इसी प्रकार असाता वेदनीयके विषयमें भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि संज्ञियोंमें उत्पन्न होते हुए उसे साता वेदनीयका बन्ध कराना चाहिये, तत्पश्चात् उत्कृष्ट साताबन्धककालके बीतनेपर जो असाताका बन्धक हुआ है वह आवली मात्र कालको बिताकर असाता वेदनीय सम्बन्धी जघन्य स्थितिकी उदीरणा करता है, ऐसा कहना चाहिये ? णिहा-पयलाणं खीणराग-खवगे परिच्चज्ज ।। क प्र.४, १८. दिय त्ति- इन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्ताः सन्तो द्वितीयसमयादारभ्येन्द्रियपर्याप्त्यनन्तरसमयादारभ्येत्यर्थः; निद्रा-प्रचलयोरुदीरणाप्रायोग्या भवन्ति । कि सर्वेऽपि? नेत्याह-क्षीणरागान् क्षपकांश्च परित्यज्य । उदीरणा हि उदये सति भवति, नान्यथा । न च क्षीणराग-क्षपकयोनिदाप्रचलोदयः सम्मवति, “णिहादुगस्स उदओ खीणग-खवगे परिच्चज्ज" इति वचनप्रापाण्यात् । ततस्तान् वजयित्वा शंषा निद्रा-प्रचलयोरुदीरका वेदतव्याः। (मलय. टीका ). ४ थावरजहन्नसंतेण समं अह ( ही ) गं व बंधनो ॥ गंतूणावलिमित्तं कसायबारसग-भय-दुर्ग (गुं)छाणं । णिद्दाय (इ) पंचगस्स य आयावुज्जोयणामस्स ॥ क प्र. ४, ३४-३५. . * भावना त्वियम्- एकेन्द्रियो जघन्यस्थितिसत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुद्धृत्य पर्याप्त-संज्ञिपंचेंद्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः, उत्पत्तिप्रथमसमयादारभ्य च सातावेदनीयमनभवन् असातावेदनीयं बृहत्तरमन्तर्मुहूर्तकालं यावद् बध्नाति । ततः पुनरपि सातां बदधुमारभते । ततो बन्धावलिकायाश्चरमसमये पूर्वबद्धस्य सातावेदनीयस्य जघन्यां स्थित्युदोरणां करोति । एवमसागवेदनीयस्यापि द्रष्टव्यम। केवलं सातावेदनीयस्थानेऽसातावेदनीय मच्चारणीयम्, असातावेदनीयस्थाने सातवेदनीयमिति । क. प्र (मलय.)४,३७. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२) छक्खंडागमे संतकम्म मिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो दंसणमोहणीयउवसामगो समयाहियावलियचरिमसमयमिच्छाइट्ठी । सम्मत्तस्स जहण्णटिदिउदीरगो को होदि ? जो समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणिज्जो । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिउदीरगो को होदि ? जो अट्ठावीससंतकभिमओ मिच्छाइट्ठी एइंदिय गंतूण तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय तदो तसेसु उववण्णो, तत्थ अंतोमुत्तमच्छिय पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणसागरोवमटिदिसंतकम्मेण सह सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो तस्स चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स जहणिया ठुिदिउदीरणा । तसेसु चेव उव्वेल्लाविय सम्मामिच्छत्तं किण्ण णीदो? ण, एइंदिएसु उव्वेल्लिदसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्सेव पलिदोवमस्स असंखेज्जदि मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो जीव दर्शनमोहनीयका उपशामक है उसके मिथ्यादृष्टि रहने के अन्तिम समयमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष रहनेपर मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जिसके दर्शनमोहनीयके क्षीण होने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रहा है वह उसकी जघन्य स्थिति का उदीरक होता है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला मिथ्यादृष्टि जीव एकेन्द्रियोंमें जाकर वहां पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र कालके द्वारा सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके पश्चात् त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम प्रमाण स्थितिसत्त्वके साथ सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है; उस अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उसकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। शंका-- त्रस जीवोंमें ही उद्वेलना कराकर सम्यग्मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, जिसने एकेन्द्रियों में सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वकी उद्वेलना की है उसके ही पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम मात्र स्थितिसत्त्वके शेष रहनेपर मिच्छत्तस्स जहणिया द्विदिउदीरणा कस्स? अण्णदरस्स मिच्छाइदिस्स उवसमसम्मताहिमहस्स समयाहियावलियण्ढमट्ठिदिउदीरगस्स तस्स जहणिया ट्ठिदिउदीणा । सम्मत्तस्स जहणिया ठिदिउदीरणा कस्स? अण्णदरस्स सणमोक्खवयस्स समयाहियानलियउदीरगस्स। जयध. अ. प. ७९४. समयहिगालिगाए पढमरिईए उ सेसवेलाए । मिच्छत्ते वेएसु य संजलणासु वि य सम्मत्ते (तं)॥ क. प्र. ४,३९. सम्मामिच्छत्तजहणिया ठिदिउदीरणा कस्स ? अण्णदरो जो मिच्छाइट्ठी वेदगपाओग्गजहण्णट्रिदिसंतकम्मिओ सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो अंतोमुहुत्तं विगट्ठ सम्मामिच्छत्तद्धमणुपालिय चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्रिस्स तस्स जहणिया दिदिउदीरणा। जयध. अ प.७९४. पल्लासंखियभागू णुदही एगिदिया गहे मिस्से । क प्र. ४, ४०. पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनं यदेकं सागरोपमं तावन्मात्रसम्पमिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुद्धत्य संज्ञिपंचेन्द्रियमध्ये समायातः । तस्य यतः समयादारभ्यान्तर्मुहुर्तानन्तरं सम्पग्मिथ्यात्वस्योदीरणापगमिष्यति तस्मिन समये सम्यग्मिथ्यात्वप्रतिपन्नस्य चरमसमये सम्यग्मिथ्यात्वस्य जघन्या स्थित्युदीरणा। एकेन्द्रियसत्कजघन्य स्थितिमत्कर्मणश्च सकाशादधो वर्तमान सम्पग्मिथ्यात्वमुदीरणायोग्यं न भवति, तावन्मात्रस्थितिके तस्मिन्नवश्यं Jan Education मिथ्यात्वादयसम्भवतस्तदुद्वलनसम्भवात् (मलय.) Dect उभयोरेव प्रत्योः 'वेउव्वेल्लाविय' इति पाठः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( ११३ भागेण ऊणसागरोवममेतदिदिसंतकम्मे सेसे सम्मामिच्छत्तग्गहणपाओग्गस्सुवलंभादो । जो पुण तसेसु एइंदियट्ठिदिसंतसमं सम्मामिच्छत्तं कुणइ सो पुव्वमेव सागरोवमपुधत्ते सेसे चेव तदपाओग्गो होदि ।। बारसणं कसायाणं जहण्णदिदिउदीरगो को होदि ? जो बादरेइंदियो पज्जत्तो सव्वविसुद्धो हदसमुप्पत्तियकमेण जहण्णढिदिसंतकम्मस्स हेट्ठा सव्वचिरं बंधिऊण से काले समर्शिद वा उरि वा बंधिय तदो आवलियमर गदस्स जहणिया द्विदिउदीरणा बारसण्णं कसायाणं होदि । कोधसंजलणस्स जहण्णढिदिउदीरणा कस्स होदि? खवओ वा उवसामओ वा जो कोधवेदओ से काले उदय-उदीरणाओ वोच्छिजिहिंति त्ति तस्स जहणिया डिदिउदीरणा। माणसंजलणस्स जहण्णदिदिउदीरणा कस्स? खवगो वा उवसामगो वा माणवेदओ से काले उदय-उदीरणाओ वोच्छिजिहिंति त्ति तस्स जहण्णद्विदिउदीरणा। मायासंजलणाए जहण्णद्विदिउदीरणा वि एवं चेव वत्तव्वा। लोभसंजलणस्स जहण्णटिदिउदीरओ को होदि ? समयाहियावलियचरिमसमयसकसाओ। सम्यग्मिथ्यात्वके ग्रहणकी योग्यता पायी जाती है । परन्तु जो त्रस जीवों में एकेन्द्रियके स्थितिसत्त्वके बराबर सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वको करता है वह पहिले ही सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर ही उसके ग्रहणके अयोग्य हो जाता है । बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त सर्वविशुद्ध जीव हतसमुत्पत्तिक क्रमसे जघन्य स्थितिसत्त्वके नीचे सर्वचिर काल तक बांधकर अनन्तर समयमें समान स्थिति अथवा अधिक स्थितिको बांधकर उससे आगे एक आवली मात्र काल ऊपर गया है उसके बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। संज्वलनक्रोधकी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है ? जो क्षपक अथवा उपशामक क्रोधवेदक जीव अनन्तर कालमें उदय व उदीरणाकी व्युच्छित्ति करेगा उसके उसकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। संज्वलनमानकी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है ? जो क्षपक अथवा उपशामक मानवेदक जीव अनन्तर कालमें उदय व उदीरणाकी व्युच्छित्ति करेगा उसके उसकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। इसी प्रकारसे संज्वलनमायाकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका भी कथन करना चाहिये। संज्वलनलोभकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती सकषाय रहने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रहा है वह उसकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। हास्य व रति सम्बन्धी जघन्य स्थितिकी ४ प्रत्योरुभयोरेव -'पाओग्गाणुवलंभादो'इति पाठः। वारसक० जह० टिदिउदी० कस्स? अण्णद० बादरेइंदियस्स हदसमुप्पत्तियस्स जावदि सक्कं ताव संतकम्मस्स हेदा बंधिदूण समद्विदि वा बंधिदूण संतकम्म वोलेदूण वा आवलियादीदस्स । जयघ. अ. प. ७९४. * तापतौ 'उदीरया त्ति' इति पाठः । 0 चदुसंज. जह० टिदिउदीर० कस्स ? अण्णद० उवसामगस्स वा खवगस्स वा अप्पप्पणो कसाएहिं सेढिमारूढस्स समयाहियावलियउदी० तस्स जह। जयध. अ. प. ७९४. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ) छक्खंडागमे संतकम्म हस्स-रदीणं सादभंगो। अरदि-सोगाणमसादभंगो। भय-दुगुंछाणं बारसकसायभंगो। तिण्णं वेदाणं कोधसंजलणस्स भंगो। णवरि जस्स जस्स वेदस्स इच्छिज्जदि तस्स तस्स वेदस्सुदएण खवगुवसामगसेडीयो चढाविय समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा वत्तव्वा । आउआणं जहण्णद्विदिउदीरणा कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयतब्भवत्थस्स। णिरयगइणामाए जहणिया टिदिउदीरणा कस्स ? जो असण्णिपंचिदियो तप्पाओग्गजहण्णद्विदिसंतकम्मिओ तप्पाओग्गुक्कस्सियाए द्विदीए पढमपुढविणेरइएसु उववण्णो तस्स चरिमसमयणेरइयस्स जहणिया दिदिउदीरणा। तिरिक्खगइणामाए जहणिया टिदिउदीरणा कस्स ? जो तेउकाइयो वा वाउकाइयो वा हदसमुप्पत्तिकमेण सव्वचिरं जहण्ण द्विदिसंतकम्मस्स हेट्ठा बंधिदूण सण्णिपंचिदियतिरिक्खेसुववग्णो, उप्पण्णपढमसमए चेव मणुसगइबंधगो जादो, पुणो तं सव्वचिरं बंधिऊण तदो तिरिक्खगई बद्धा तस्सावलियकालं बंधमाणस्स तिरिक्खगईए जहणिया द्विदिउदीरणा। तेउकाइय-वाउकाइयपच्छायदो तिरिक्खगई उदीरणाका कथन सातावेदनीयके समान है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति-उदीरणाका कथन असातावेदनीयके समान है। भय व जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका कथन बारह कषायोंके समान करना चाहिए । तीन वेदोंकी प्ररूपणा संज्वलनक्रोधके समान है। विशेष इतना है कि जो जो वेद अभीष्ट हो उस उस वेदके उदयसे क्षपक अथवा उपशम श्रेणिपर चढाकर अन्तिम समयवर्ती सवेद रहने में एक समय अधिक आवलिके शेष रहनेपर जघन्य स्थिति-उदीरणाका कथन करना चाहिये। आयु कर्मोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है? अन्तिम सयमवर्ती तद्भवस्थ होने में जिसके एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है उसके आयु कर्मोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है । नरकगति नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है? जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट आयु स्थितिके साथ प्रथम पृथिवीके नारक जीवोंमें उत्पन्न हुआ है उस अन्तिम समयवर्ती नारक जीवके उसकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। तिर्यंचगति नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है? जो तेजकायिक अथवा वायुकायिक जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ सर्वचिर काल तक जघन्य स्थितिसत्वके नीचे बांधकर संज्ञी पंचेंद्रिय तिथंच जीवोंमें उत्पन्न हुआ है तथा उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही मनुष्यगतिका बन्धक हुआ है, पश्चात् सर्वचिर काल तक उसे बांधकर जिसने तिर्यंचगतिका बन्ध किया है, आवली मात्र काल तक बांधनेवाले उसके तिर्यंचगतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। तेजकायिक और वायुकायिक 8 काप्रतौ ‘बद्धो' इति पाठः। * तथा तेजस्कायिको वायुकायिको वा बादरः सर्वजघन्यस्थितिसत्कर्मा पर्याप्त-संज्ञि-तिर्यक्पंचेन्द्रियेषु मध्ये समत्पन्नः । ततो बृहत्तरमन्तर्मुहूर्तकालं यावन्मनुजगति बध्नाति । तदबध्नानन्तर च तिर्यग्गति बद्धमारमते । ततो बन्धावलिकायाश्चरमसमये तस्यास्तिर्यग्गते जघन्यां स्थित्य दीरणां करोति । क. प्र. (मलय.) ४, ३७.se Only Jain Education Internatid . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्क माणुयोगद्दारे ट्ठदिउदीरणा ( ११५ चेव अंतोमुहुत्तं बंधदित्ति भणंतबंधसामित्तेण णेदस्स विरोहो, तत्थ नियमाभावादो | मणुसगईए जहण्णिया ट्ठिदिउदीरणा कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । जहा freeगईए तहा देवगईए वत्तव्वं । णवरि तत्पाओग्गेण जहण्णट्ठिदिसंतकम्मेण असforपचदियो तप्पा ओग्गउक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मिएसु देवेसु उप्पादेदव्वो । चदुजादिणामाणं बादरेइंदियं सव्वसिसुद्धपरिणामेण कयजहण्णट्ठिदिसंतकम्मं सग-सगजादिमुप्पादिय पडिवक्खबंधगद्धाओ वोलाविय अप्पिदजादि बंधमाणस्स पढमावलियचरिमसमए जहण्णट्ठिदिउदीरणा वत्तव्वा । पचिदियजादि-ओरालिय-तेजा - कम्मइयसरीराणं जह दिउदीरगो को होदि ? चरिमसमयसजोगिकेवली । वेउव्वियसरीरस्स जहण्णfararरओ को होदि ? जो एइंदियो वेउव्वियसरीरस्स तप्पा ओग्गजहण्णट्ठिदिसंतकम्मिओ विउव्विदुत्तरसरीरो तस्स चरिमसमए जहण्णिया ट्ठिदिउदीरणा । जीवों से पीछे आया हुआ जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक तिर्यंचगतिको ही बांधता है, इस प्रकारकी प्ररूपणा करनेवाले बन्धस्वामित्वके साथ इसका कोई विरोध नहीं है, क्योंकि, वहां ऐसा नियम नहीं है | मनुष्यगतिकी जघन्य स्थिति - उदीरणा किसके होती है ? उसकी उदीरणा अन्तिम समयवर्ती . सयोगकेवली के होती है । जैसे नरकगतिकी जघन्य स्थिति उदीरणा कही गई है वैसे ही देवगति सम्बन्धी जघन्य स्थिति उदीरणाका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्त्वके साथ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवको तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट आयुस्थितिसत्त्ववाले देवों में उत्पन्न कराना चाहिये । सर्वविशुद्ध परिणामके द्वारा किये गये जघन्य स्थितिसत्त्व से संयुक्त बादर एकेन्द्रियको उस उस जातिवाले जीवोंमें उत्पन्न कराकर प्रतिपक्ष जातियोंके बन्धककालको बिताकर विवक्षित जाति नामकर्मको बांधनेवाले उस उस जीवके प्रथम आवलीके अन्तिम समयमें एकेन्द्रिय आदि चार जाति नामकर्मकी जघन्य स्थिति उदीरणा कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तेजस व कार्मण शरीर इनकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? अन्तिम समयवर्ती सयोगकेवली जीव उनकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। वैक्रियिकशरीर सम्बन्धी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? वैक्रियिकशरीरके तत्प्रायोग्य स्थितिसत्त्ववाले जिस एकेन्द्रिय जीवने उत्तर शरीरकी विक्रिया की है उसके उत्तर शरीरकी विक्रियाके अन्तिम समयमें वैक्रियिकशरीरकी जघन्य स्थिति - उदीरणा होती हैं । आहारकशरीरकी जघन्य स्थिति - उदीरणा तिरिक्खगइ-ओरालियदुग-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुथ्वी-णीचागोदाणं सांतर- णिरंतरी, तेउ वाउकाइयाणं उ-बाउकाइय-सत्तमपुढवीणेरइए हितो आगंतूण पंचिदियतिरिक्त-तप्पज्जत्त जोगिणीसु उप्पण्णणं सणक्कुमारा-देव-रहितो तिरिक्खे सुप्पण्णाणं च निरंतरबंधदंसणादो । ष. खं. पु. ८, पृ. १२१. अमणागयस्स चिरठि अंत (ते) सुर-नरयगह उवंगाणं | अणुपुव्वीतिसमइगे नराण एगिदियागयगे । क. प्र. ४, ३८. उभयोरेव प्रत्यो: 'जहण्णओट्ठिदि' इति पाठः । उभयोरेव प्रत्योः 'विउन्विदुत्तरसरीरोत्तरस्स' इति पाठः । • एतदुक्तं भवति - बादरवायुकायिकः पल्योपमासंख्येय भागहीन सागरोपमद्वि-सप्तभागप्रमाणवैयिषट्कजघन्य स्थितिसत्कर्मा बहुशो वैक्रियमारस्य चरमे वैक्रियारम्भे चरमसमये वर्तमानो जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति । अनन्तरसमये च वैक्रियिकषट्कमे के न्द्रियसत्कजघन्यसत्कर्मापेक्षया स्तोकतरमिति कृत्वा उदीरणायोग्यं न भवति किन्तुद्वलनायोग्यम् । क. प्र. ( मलय ) ४, ४०. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ) छक्खंडागमे संतकम्म आहारसरीरस्स जहणिया द्विदिउदीरणा कस्स ? जो आहारसरीरस्स तप्पाओगेण जहण्णेण टिदिसंतकम्मेण आहारसरीरमुट्ठावेंतस्स सव्वमहंतीए उत्तरविउव्वणद्धाए चरिमसमए होदि । कस्स पुण जहण्णट्ठिदिसंतकम्मं वुच्चदे? जो चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण पच्छा दंसणमोहणीयं खवेदूण देवेसु तेत्तीससागरोवमिएसु उववण्णो तत्तो चुदो मणुस्सेसु संजमं पुवकोडिकालमणुपालेऊण तदो पुव्वकोडीए अंतोमुत्तावसेसाए आहारएण उत्तरं विउव्विदो सव्वमहंतीए विउव्वणद्धाए चरिमसमये जहण्णदिदिसंतकम्मं ।जधा आहारसरीरस्स तथा तदंगोवंगस्स वि वत्तव्वं । जहा ओरालियसरीरस्स तहा तदंगोवंगस्स सजोगिचरिमसमए वत्तव्वं । वेउन्वियअंगोवंगस्स णिरयगदि-भंगो। जहा पंचण्णं सरीराणं तहा तेसिं बंधण-संघादाणं परवेयव्वं । छसंठाण-वज्जरिसहसंघडणाणं जहण्णटिदिउदीरणा कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । पंचण्णं संघडणाणं भण्णमाणे एइंदिएसु तप्पाओग्गजहण्णट्टिदि कादूण सण्णीसु अप्पिदसंघडणेणुप्पादिय अवेदिज्जमाणसंघडणाणि सव्वचिरं बंधाविय तदो जं वेदेदि तं पच्छा किसके होती है ? - जो जीव आहारकशरीरके तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्त्वके साथ आहारकशरीरको उत्पन्न कर रहा है उसके सबसे महान् उत्तर विक्रियाकालके अन्तिम समयमें उसकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। शंका-- जघन्य स्थितिसत्त्व किस जीवके होता है ? समाधान-- जो जीव चार वार कषायोंको उपशमा कर पश्चात् दर्शनमोहनीयका क्षय करके तेतीस सागरोपम स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, तत्पश्चात् वहांसे च्युत होकर मनुष्योंमें पूर्वकोटि काल तक संयमका पालन करके पूर्वकोटि में अन्तर्मुहर्तके शेष रहनेपर जो आहारकशरीरके साथ उत्तर विक्रियाको प्राप्त हुआ है, उसके सबसे महान् विक्रियाकालके अन्तिम समयमें उसका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। जिस प्रकार आहारकशरीर सम्बन्धी जघन्य स्थिति- उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे उसके अंगोपांगकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । जैसे औदारिकशरीरकी जघन्य स्थितिउदीरणा कही गई है वैसे ही उसके अंगोपांगकी जघन्य स्थिति-उदीरणा सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें कहनी चाहिये। वैक्रियिकशरीरांगोपांगकी प्ररूपणा नरकगतिके समान करना चाहिये। पांच शरीरों सम्बन्धी बन्धनों और संघातोंकी प्ररूपणा उन पांच शरीरोंके ही समान करना चाहिये। छह संस्थानों और वज्रर्षभसंहनन सम्बन्धी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है ? उनकी जघन्य स्थिति-उदीरणा अन्तिम समयवर्ती संयोगकेवलीके होती है। पांच संहननोंकी प्ररूपणा करते समय एकेन्द्रिय जीवोंमें तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिको करके संज्ञी जीवोंमें विवक्षित संहननके साथ उत्पन्न कराकर उदयमें न आनेवाले संहननोंको सर्वचिर काल तक बंधाकर पश्चात् जिस संहनन वेदन करता है उसे पीछे बंधाना चाहिये, उसके प्रथम ४ चउरुवसमेत्तु पेज पच्छा मिच्छं खवेत्तु तेत्तीसा। उककोससंजमदा अंते सुतणू-उवंगाणं ।। क. प्र. ४, ४१. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ areमाणुयोगद्दारे दिउदीरणा ( ११७ बंधावेयध्वं पढसमयपबद्धस्स आवलियकाले गदे तस्स जहणिया द्विदिउदीरणा । वण-गंध-रस- फासाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । णिरयाणुपुवीए जहण्णट्ठिदिउदीरणा कस्स ? असण्णिपच्छायदस्स तप्पा ओग्गजहण्णट्ठिदिसंतकम्मस्स दुसमयणेरइयस्स । मणुस्साणुपुव्वीए जहण्णट्ठिदिउदीरणा कस्स? जो बादरेइंदिओ हदसमुत्पत्तियकम्मेण सव्वचिरं जहण्णट्ठिदिसंतकम्मादो हेट्ठा बंधिन से काले संतकम्मस्स उवरि बंधिहिदि त्ति मणुस्सो जादो तस्स दुसमयमणुसस्स जहणट्ठिदिउदीरणा । जहा देवगदिणामाए जहण्णसामित्तं परुविदं तहा देवगइपाओग्गाणुपुartणामाए परूdeoवं । णवरि देवेसुप्पण्णबिदियसमए जहण्णसामित्तं वत्तव्वं । तिरि- इपाओग्गाणुपुव्वीजहण्ण द्विदिउदीरणाए को सामी ? जो तेउकाइयो वाउकाइयो वा सव्वविसुद्ध सव्वजहण्णेण द्विदिसंतकम्मेण मदो सण्णितिरिक्खजोणिएसु विग्गहगदी उबवण्णो तस्स बिदियसमयतन्भवत्थस्स । अगुरुअलहुअ -उवघाद-परघादउस्सास-पसत्यापसत्य विहायगदि तस - बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुह समय में बांधने के पश्चात् आवली मात्र कालके बीतनेपर उसके विवक्षित संहनन सम्बन्धी जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सम्बन्धी जघन्य स्थिति उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगकेवलीके होती है । नरकगत्यानुपूर्वी सम्बन्धी जघन्य स्थिति- उदीरणा किसके होती है ? वह असंज्ञी जीवोंमेंसे पीछे आये हुए ऐसे तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्त्व युक्त द्वितीय समयवर्ती नारक जीवके होती है । मनुष्यगत्यानुपूर्वी सम्बन्धी जधन्य स्थिति उदीरणा किसके होती है ? जो बादर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ सर्वचिरकाल तक जघन्य स्थितिसत्त्वसे कर्मको बांधकर अनन्तर कालमें उक्त स्थितिसत्त्वके ऊपर बांधेगा कि इस बीच में जो मनुष्य हुआ है उसके मनुष्य भवके द्वितीय समयमें जघन्य स्थिति- उदीरणा होती है । जिस प्रकार देवगति नामकर्मके जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई हैं उसी प्रकार से देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मके जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि देवोंमें उत्पन्न होनेके द्वितीय समय में जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी सम्बन्धी जघन्य स्थिति - उदीरणाका स्वामी कौन है ? जो सर्वविशुद्ध तेजकायिक अथवा वायुकायिक जीव सर्वजघन्य स्थितिसत्त्व के साथ मरकर विग्रहगति द्वारा संज्ञी तिर्यंचयोनि जीवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समय में तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी सम्बन्धी जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है । अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, वेयणिया ( य ) नोकसाया सम्मत्त सघडणपंच-नीयाणं । तिरियदुग- अयस दुभंगणा इज्जाणं च सनिगए । क. प्र. ४, ३७. सहननपंचकस्य तु मध्ये वेद्यमान संहननं मुक्त्वा शेषसंहननानां प्रत्येकं बन्धकालोऽतिदीर्घो वक्तव्यः । ततो वेद्यमान संहननस्य बन्धे वन्धावलिकाचरमसमये जघन्या स्थित्युदीरणा । ( मलय. ) एकेन्द्रियः सर्वजघन्यमनुष्यानुपूर्वीस्थिति सत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुद्धृत्य मनुष्येषु मध्ये उत्पद्यमानोऽपान्तलगतौ वर्तमान मनुष्यानुपूर्व्यास्तृतीयसमये जघन्यस्थितित्युदीरणास्वामी भवति । क. प्र. ( मलय ) ४, ३८. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ) छक्खंडागमे संतकम्म सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसगित्ति-तित्थयर-णिमिणणामाणं जहण्णढिदिउदीरओ को होदि ? चरिमसमयसजोगी। आदावणामाए जहण्णदिदिउदीरओ को होदि ? जो बादरपुढविजीवो पज्जत्तओ हदसमुप्पत्तिएण सव्वचिरं हेढा बधियूण तदो उर्वार वा समट्टिदियं वा बंधिय आवलियादिक्कंतस्स आदावणामाए जहण्णढिदिउदीरणा। उज्जोवणामाए जहण्णट्ठिदिउदीरणा कस्स ? जो बादरेइंदिओ पज्जत्तयदो हदसमुप्पत्तियकम्मेण सव्वचिरं हेढदो बंधिय पुणो उवरि समद्विदियं वा बंधिय आवलियादिक्कंतस्सल । थावर-सुहम-अपज्जत्त-साहारणणामकम्माणं जहण्णदिदिउदोरणाए एइंदियस्स* सामित्तं वत्तव्वं । दुभग-अणादेज्ज-अपज्जत्त-अजसगित्तीणमेइंदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण पंचिदिएसुप्पाइय पडिवक्खबंधगद्धाओ गालिय तदो आवलियादीदस्स वत्तव्वं । णीचागोदस्त तिरिक्खगइभंगो । उच्चागोदस्स जहण्णट्टिदिउदीरणा अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थंकर और निर्माण; इन नामकर्मोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? उनका उदीरक अन्तिम समयवर्ती सयोगकेवली होता है । आतप नामकर्म सम्बन्धी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मसे सर्वचिर काल तक कमको बांधकर पश्चात् उससे अधिक अथवा समान स्थितिको बांधकर आवली मात्र कालको विताता है उसके आतप नामकर्म सम्बन्धी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है। उद्योत नामकर्म सम्बन्धी जवन्य स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? जो बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मसे सर्वचिर काल कर्मको बांधकर, फिर उससे अधिक अथवा समान स्थितिको बांधकर आवली मात्र कालको विताता है उसके उद्योत सम्बन्धी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है। स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नामकर्मोंकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी उदीरणाका स्वामित्व एकेन्द्रियके जीवके कहना चाहिये । दुर्भग, अनादेय अपर्याप्त और अयशकीर्तिकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी उदीरणाके स्वामित्वका कथन ऐसे एकेन्द्रिय जीवके करना चाहिये जिसने हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ पंवेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धककालोंको गलाकर पश्चात् आवली मात्र कालको विताया है। नीच गोत्र सम्बन्धी जघन्य स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान करना चाहिये। उच्चगोत्र सम्बन्धी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगकेवलीके होती है। गतियोंमें जानकर जघन्य स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये । इस X सेसाणुदीरणते भिण्णमुहुत्तो ठिईकालो ॥ क प्र. ४, ४२. शेषागां च प्रकृतीनां मनुजगति-पंचेन्द्रियजाति-प्रथमसंहननौदारिकसप्तक-संस्थानषट्कोपधान-परघातोच्छ्वास-प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति-त्रस-बादरपर्याप्त-प्रत्येक-सुभग-सुस्वरादेय-यशःकीनि-तीर्थकरोच्वंर्गोत्र दुःस्वरलक्षणानां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनां पूर्वोक्तानां च नामध्रुवोदीरणानां त्रयस्त्रिशत्प्रकृतीनां सर्वसंख्यया पंचषष्टिसंख्यानां सयोगिके बलिचरमसमये जघन्या स्थित्युदीरणा । तस्याश्च जघन्यायाः कालो भिन्नमुहूर्तोऽन्तर्मुहुर्नमित्यर्थः । ( मलय.) ४ तारतो 'आवलियादिक्कं ( तो-) तस्म' इति पाउः। * काप्रती 'उदीरणा एइंदियस्स', ताप्रती — उदीरणा० एइंदियस्स' इति पाठः। * काप्रती 'समए सजोगिस्स ' इति पाठः । . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा । ( ११९ कस्स ? चरिमसमयजोगिस्स । गदीसु जाणिदूण णेदव्वं । एवं जहण्णट्ठिदिउदीरणा समत्ता। एयजीवेण कालो- पंचणाणावरणीयस्स उक्कस्सटिदिउदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणुक्कस्सटिदिउदीरणाए कालो जहण्णण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । जहा णाणावर. णीयस्स तहा सव्वासि धुवउदीरणापयडीणं वत्तव्वं । दसणावरणपंचयस्स उक्कस्सअणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । णवरि उक्कस्सस्स * एगावलिया, उक्कस्सट्ठिदिबंधकाले गिद्दादि पंचयस्स उदयाभावादो। सादस्स उक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा। जहा सादस्स तहा हस्स-रदीणं वत्तव्वं । असादस्स उक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुत्त। अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । जहा असादस्स तहा अरदि-सोगाणं वत्तव्वं । सोलसकसाय-भय-दुगुच्छाणमुक्कस्साणुक्कस्सठिदीणामुदीरणकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त। सम्मत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। प्रकार जघन्य स्थिति-उदीरणा समाप्त हुई। ___ एक जीवकी अपेक्षा काल-पांच ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा कितने काल तक होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त काल तक होती है। इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनस्वरूप अनन्त काल है । जैसे ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके कालका कथन किया गया है वैसे ही सब ध्रुवोदयी प्रकृतियोंकी भी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके कालका कथन करना चाहिये । पांच दर्शनावरणीयकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त है । विशेष इतना है कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल एक आवली प्रमाण है, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालमें निद्रा आदि पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका उदय सम्भव नहीं है । सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली मात्र है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास है। जिस प्रकार साताको उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका कथन किया है उसी प्रकार हास्य और रति प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके कालका कथन करना चाहिये। असातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अत्तर्मुहूर्त है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम है। जैसे असातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके कालकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके कालकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितियोंकी उदीरणा काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका ४ ताप्रती 'धुवउत्तरपयडीणं' इति पाठः। * ताप्रती — उक्कस्स० ' इति पाठः । ___ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ) छक्खंडागमे संतकम्म अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छावद्धिसागरोवमाणि देसूणाणि। सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । णवंसयवेदस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं।अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । इथिवेदस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सटिदिउदी रणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवेदस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सदिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । .. चदुण्हमाउआणमुक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुवकस्सटिदिउदीरणाकालो गिरय-देवाउआणं जहण्णण दसवस्ससहस्साणि आवलियूणाणि, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि समयाहियआवलियाए ऊणाणि । तिरिक्खाउअस्स अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमावलियूणं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि समयाहियआवलियाए ऊणाणि । मणुस्साउअस्स अणुक्कस्सदिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि समयाहियावलियाए ऊणाणि । काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम छयासठ सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे व उत्कर्षसे एक समय मात्र है । उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है । उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुसलपरिवर्तन प्रमाण है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली प्रमाण है । उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमशतपृथक्त्व प्रमाण है। पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली मात्र है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है। चार आयु कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे व उत्कर्षसे एक समय मात्र है । नारकायु और देवायुकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यतः एक आवलीसे कम दस हजार वर्ष और उत्कर्षत: एक समय अधिक आवलीसे हीन तेत्तीस सागरोपम है। तिर्यंचआयुकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे आवली कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे एक समय अधिक आवलीसे हीन तीन पल्योपम है । मनुष्यआयुकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय धिक आवलीसे हीन तीन पल्योपम प्रमाण है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १२१ गिरयगइणामाए उक्कस्सटिदिउदीरणा केवचिरं कालो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलिया। अणुक्कस्सद्विदिउदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । तिरिक्खगइणामाए उक्कस्सद्विदिउदीरणा केवचिरं कालादोहोदि? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियहा। मणुसगदिणामाए उक्कस्सटिदिउदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सद्विदिउदीरणा केवचिरं कालादो होदि ?. .. जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । देवगइणामाए उक्कस्सटिदिउदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सटिदिउदीरणा जहण्णण दसवाससहस्साणि समयूणाणि, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । एइंदियजादिणामाए तिरिक्खगइभंगो। बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियणामाणं उक्क- .. स्सदिदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहपणेण खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि। पंचिदियजादिणामाए. उक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहत्तं वा, उक्कस्सेण नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवली मात्र काल तक होती है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल तक होती है। तिर्यंचगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली तक होती है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। मनुष्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली काल तक होती है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा कितने काल तक होती है ? वह जवन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाण काल तक होती है। देवगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा कितने काल तक होती है? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय तक होती है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा जघन्यसे एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल तक होती है। एकेन्द्रियजाति नामकर्मकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष है। पंचेन्द्रियजाति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे ४ ताप्रतौ 'उदीरणाकालो'' इति पाठः । तापतौ 'अणकस्सट्रदिउदीरणकालो' इति पाठः। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ) छक्खंडागमे संतकम्म सागरोमवसहस्सं पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियं ।। ओरालियसरीरणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्गेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। वेउव्वियसरीरणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहपणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । अणुक्कस्सट्ठिदिउदोरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि। आहारसरीरणामाए उक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सटिदिउदोरणाकालो जहण्णुककस्सेण अंतोमुहत्तं ओरालियसरीरअंगोवंगणामाए उक्कस्सट्टिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । वेउव्विय-आहारसरीरअंगोवंगणामाणं वेउग्विय-आहारसरीरणामाणं भगो। पंचबंधण-पंचसंघादणामाणं पंचसरीरभंगो। पंचण्णं संठाणाणं उक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो समचउरससंठाणस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तेवढिसागरोवम-सदं सादिरेयं । सेसाणं चदुण्णं संठाणाणं जहण्णेण एगसमओ, क्षुद्र भवग्रहण अथवा अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपम है । औदारिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आबली मात्र है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है। वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। आहारकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है । औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली मात्र है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तीन पल्योपम मात्र है। वैक्रियिक और आहारक शरीरांगोपांग नामकर्मोंकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके कालकी प्ररूपणा वैक्रियिक और आहारक शरीरनामकर्मोके समान है। पांच बंधन और संघात नामकर्मोंकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके कालकी प्ररूपणा पांच शरीरोंके समान है। पांच संस्थान नामकर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली मात्र है। उनमें समचतुरस्रसंस्थानकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपमप्रमाण है। शेष चार संस्थानोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । 0 ताप्रती ' अगुक्क० टिदिउदीरणकालो। समचउरससंटाणस्स' इति पाठः । Jain Education Internetonal Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमागुयोगद्दारे ट्ठिदि उदीरणा ( १२३ उक्कस्सेण पुव्वकोडिपुधत्तं । हुंडसंठागस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। छण्णं संघडणा गमुक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया । अगुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो वज्जरिसहवइरणारायणसंघडणस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि । सेसाणं पंचण्णं संघडणाणमणुक्कस्सट्टिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुव्वकोडिपुधत्तं । तिण्णमाणुपुवीणामाणमुक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । णवरि मणुस्स-देवाणुपुवीणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। अणुक्कस्सट्टिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया। उवघाद-परघाद-उस्सास-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-तस-पत्तेयसरीर-दुभगअणादेज्ज-दुस्सरणामाणं णीचागोदस्स उक्कस्सटिदिउदीरणाकालोजहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणुक्कस्सटिदिउदोरणाकालो जहण्णेण एगसमओ; दुभग-अणा हुण्ड संस्थानकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूत मात्र है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातों भाग मात्र है। छह संहननोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली मात्र है। इनमें वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम मात्र है। शेष पांच संहननोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। तीन आनुपूर्वी नामकर्मोंकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाओंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय है। विशेष इतना है कि मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वीकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उरीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय है । उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, प्रत्येकशरीर, दुर्भग, अनादेय और दुस्वर नामकर्मोकी तथा नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा काल जघन्यसे एक समय है, क्योंकि, इनमें दुर्भग, अनादेय व नीचगोत्रको छोडकर शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी JainEducation anताप्रती ' णीचागोदवज्जएण' इति पाठ: A Pers. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ) छक्खंडागमे संतकम्म देज्जणीचागोदवज्जाणमुक्कस्सट्ठिदिमुदीरेदूण तदो अणुक्कस्समेगसमयमुदीरिय कालगदस्स विग्गहगदस्स च, दुभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं पुण उत्तरविउव्विदस्स तदुवलंभादो। णवरि तसणामाए अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उवघादणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, परघाद-उस्सास-अप्पसत्यविहायगइ-दुस्सराणं च तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि, उज्जोवणामाए देसूणतिणिपलिदोवमाणि, तसणामाए बे सागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि, पत्तयसरीरणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, दुभगअणादेज्ज-णीचागोदाणमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । . आदाव-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो आदावणामाए जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बाबीसवाससहस्साणि देसूणाणि। सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं जहण्णकालो अंतोमुत्तं । उक्कस्सेण सुहुमणामाए असंखेज्जा लोगा, अपज्जत्तणामाए अंतोमुहुत्तं, साहारणसरीरणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। पसत्थविहायगइ-जसगित्ति-सुभगादेज्जणामाणमुच्चागोदस्स य एदेसि कम्माणमुक्कस्सद्विदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सटिदि उदोरणाकालो पसत्थविहायगइ--जसगित्ति--सुभगादेज्जाणं जहण्णेण एगसमओ। उदीरणा करके तत्पश्चात् उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी एक समय उदीरणा करके कालको प्राप्त होकर विग्रहको प्राप्त हुए जीवके उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका उपर्युक्त एक समय मात्र काल पाया जाता है; तथा दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी अनत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका वह एक समय रूप काल उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त हए जीवके पाया जाता है। विशेष इतना है कि त्रस नामकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त है। उत्कर्षसे अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल उपघात नामकर्मका अंगुलके असंख्यातवें भाग; परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति और दुस्वरका कुछ कम तेतीस सागरोपम; उद्योत नामकर्मका कुछ कम तीन पल्योपम, बस नामकर्मका साधिक दो हजार साारोपम, प्रत्येकशरीर नामकर्मका अंगुलके असंख्यातवें भाग; तथा दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नामकर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है। उनमें अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका काल आतप नामकर्मका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष प्रमाण है ; सूक्ष्म अपर्याप्त व साधारण नामकर्मोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त है। उत्कृर्षसे वह सूक्ष्म नामकर्मका असंख्यात लोक, अपर्याप्त नामकर्मका अन्तर्मुहुर्त, तथा साधारणशरीर नामकर्मका अंगुलके असंख्यातवें भाग है। प्रशस्त विहायोगति, यशकीति, सुभग व आदेय नामकर्मोकी तथा उच्चगोत्र इन कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली मात्र है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका काल प्रशस्त विहायोगति, यशकीर्ति, सुभग और आदेय नामकर्मोंका जघन्यसे Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा उक्कस्सेण पसत्थविहायगईए तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि, जसगित्ति-सुभगादेज्जाणं सागरोवमसदपुधत्तं । उच्चागोदस्स जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । ___ थावरणामाए उक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगावलिया। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। बादर-पज्जत्ताणामाणमुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णण अंतोमुहुत्तंछ। उक्कस्सेण बादरणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, पज्जत्तणामाए बेसागरोवमसहस्साणि। थिरसुभाणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलिया। अणुक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। तित्थयरस्स उक्कस्सटिदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण वासपुधत्तं उक्कस्सेण पुन्वकोडी देसूणा । एवमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो समतो। जहणद्विदिउदीरणाकालो बुच्चदे। तं जहा-पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीयसादासाद-सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-चदुसंजलणाणि तिण्णिवेद-हस्स-रदि-अरदि एक समय है। उत्कर्षसे वह प्रशस्त विहायोगतिका कुछ कम तेतीस सागरोपम तथा यशकीति, सुभग और आदेय नामकर्मोंका सागरोपमशतपृथक्त्व मात्र है। उच्चगोत्रकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है। स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। बादर और पर्याप्त नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका क.ल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । तथा उत्कर्षसे वह बादर नामकर्मका अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और पर्याप्त नामकर्मका दो हजार सागरोपम है। स्थिर और शुभ नामकर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवली प्रमाण है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप अनन्त काल है । तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे वर्षपृथक्त्व और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि मात्र है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका काल समाप्त हुआ। जघन्य स्थिति-उदीरणाके कालकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व ४ अणुक्कस्सटिदिउदीरणकालो जहण्णेण अंतोमुहूतं' इत्येतावानय पाठ उभयोरेव प्रत्योरनुपलभ्यInternatio मानो मप्रतितोऽत्र योजितः । For Piप्रत्योरुभयोरेक आवलियाए ' इति पाठ: Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ) छक्खंडागमे संतकम्म सोग-चत्तारिगदि-पंचजादि-पंचसरीर-तिण्णिअंगोवंग-पंचसरीरबंधणं-पंचसंघाद-छसंठाण-छसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-चत्तारिआणुपुव्वी-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघादउस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-थिरादि-छजुगला तित्थयर-णिमिण-उच्च-णीचागोद-पंचंतराइयाणं चदुण्णमाउआणं जहण्णट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अजहण्णढिदिउदीरणाकालो पंचणाणावरणीय-चउर्दसणावरणीय-पंचंतराइयतेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-थिराथिर-सुहासुह-अगुरुअलहुअ-णिमिणणामपयडीणं अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो वा । सादासादाणं अजहण्णट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण सादस्स छम्मासा, असादस्स तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तब्भहियाणि । मिच्छत्तस्स अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदोत्ति तिण्णि भंगा। तत्थ जो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। चउसंजलगाणमजहण्णद्विदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्ता हस्स-रदि-अररि-सोगाणं अजहण्णदिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण हस्स-रदीणं छम्मासा, अरदि-सोगाणं तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । इत्थिवेदस्स अजहण्णदिदिउदोरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, चार संज्वलन, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, चार गतियां, पांच जातियां, पांच शरीर, तीन अंगोपांग, पांच शरीरबन्धन, पांच संघात, छह संस्थान, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, स्थिर आदि छह युगल, तीर्थंकर, निर्माण, उच्चगोत्र नीचगोत्र और पांच अन्तराय तथा चार आयु कर्म; इनकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है। अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक, चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु और निर्माण नामकर्मका अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित है। साता व असाता वेदनीयकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है । उत्कर्षसे वह सातावेदनीयका छह मास और असातावेदनीयका अन्तर्मुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाके कालके अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित, ये तीन भंग हैं। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे उपाधं पुद्गलपरिवर्तन है । चार संज्वलन कषायोंकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। हास्य, रति, अरति और शोककी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है। उत्कर्षसे वह हास्य व रतिका छह मास तथा अरति व शोकका साधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण है। स्त्रीवेदकी अजघन्य स्थिति Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवमाणुयोगद्दारे द्विदिउदीरणा ( १२७ उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवेदस्स जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । णवंसयवेदस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्तस्स अजहण्णट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि समयाहियावलियूणाणि । सम्मामिच्छत्तस्स जहष्णुक्कसे अंतोमुत्तं । णिरयाउअस्स जहणेण दसवाससहस्साणि समयाहियावलियूणाणि, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि समयाहियावलियूणाणि । देआउअस्स णिरयाउअभंगो । मणुसाउअस्स अजहण्णट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि समयाहियावलियूणाणि । तिरिक्खाउअस्स जहणेण खुद्दाभवग्गहणं समयाहियावलियणं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि समयाहियावलियूणाणि । णिरय- देवगइणामाणमजहण्णट्ठिदिउदीरणाकालो जहण्णेण दसवस्ससहस्साणि, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि । तिरिक्ख मणुसगइणामाणं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण जहाकमेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्ते - उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से पल्योपमपृथक्त्व प्रमाण है । उक्त काल पुरुषवेदका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से सागरोपमशतपृथक्त्व मात्र है । नपुंसकवेदका उक्त काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे एक समय अधिक आवलीसे हीन छ्यासठ सागरोपम प्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थिति - उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है । नारका की अजघन्यस्थिति - उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय अधिक आवली हीन दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे एक समय अधिक आवलीसे हीन तेतीस सागरोपम प्रमाण है । देवायुकी उक्त प्ररूपणा नारकायुके समान है। मनुष्यआयुकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय अधिक आवलीसे हीन तीन पल्योपम प्रमाण है । तिर्यंच आयुकी अजघन्य स्थिति - उदीरणाका काल जघन्यतः एक समय अधिक आवलीसे हीन क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से एक समय अधिक आवलीसे हीन तीन पल्योपम प्रमाण है । नरकगति और देवगति नामकर्मोंकी अजघन्य स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे दस हजार वर्ष और उत्कर्षतः तेतीस सागरोपम प्रमाण है । तिर्यंचगति और मनुष्यगति नामकर्मोकी अजघन्य स्थिति - उदीरणाका काल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे क्रमशः असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन तथा पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पत्योपम प्रमाण है । एकेन्द्रियजाति ताप्रती 'समयाहियावलिऊणाणि तेतीसं सागरोवमाणि ' इति पाठः । ताप्रती 'समयाहिया वलियणाणितिष्णि पलिदोवमाणि इति पाठः । ܙ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८) छक्खंडागमे संतकम्म भहियाणि । एइंदियजादिणामाए अजहण्णटिदिउदीरणाकालो जहण्णण खुद्दाभवगहणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदिय-चिदियजादीणं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि। णवरि पंचिदियजादिणामाए संखेज्जाणि सागरोवमाणि । ओरालियसरीरणामाए अजहण्णट्ठिदउदीरणाकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। वेउव्वियसरीरणामाए जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । आहारसरीरणामाए जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । तिण्णमंगोवंगाणमणुक्कस्सभंगो। पंचसंघाद-पंचबंधणाणं पि0 सग-सगसरीरभंगो । समचउरससंठाणणामाए जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेवट्ठि-सागरोवमसदं सादिरेयं । हुंडसंठाणणामाए जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। सेसाणं संठाणाणं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुव्वकोडिपुधत्तं । वज्जरिसहवइरणारायणणामाए जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुरवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सेसाणं संघडणाणं अजहण्णढिदिउदीरणाकालो जहण्णण एगसमओ, - नामकर्मकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रह और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंवेन्द्रिय जातिनामकर्मोंकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है। विशेष इतना है कि पंचेन्द्रियजाति नामकर्मकी उक्त उदीरणाका काल उत्कर्षसे संख्यात सागरोपम प्रमाण है। औदारिकशरीर नामकर्मकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है । वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। आहारशरीर नामकर्मकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। तीन अंगोपांग नामकर्मोकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके कालके समान है। पांच संघातों और पांच बन्धनोंकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल अपने अपने शरीरनामकर्मके समान है। समचतुरस्रसंस्थान नामकर्मकी अजघन्य स्थितिकी उदीरणाका जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम प्रमाण है। हण्डकसंस्थान नामकर्मकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समयं और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष संस्थानोंकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्य एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननकी नामकर्मकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाण है। शेष संहननोंकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय ४ मप्रतिपाठोऽयम् । काप्रती 'पसवादरचसघडणागं पि', ताप्रती 'पंचसंघाद-पंचसंघडणाणं पि Jain Education Internation: 1781194991 (पंचबंधण-पंचसंघादाणं पि)' इति पाठः ।..... 199) S ve: Personal Use Only . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ areमाणुयोगद्दारे दिउदीरणा उक्कस्सेण पुव्वकोडिपुधत्तं । णिरयगइ - देवगड - मणुस गइपाओग्गाणुपुव्वीणामाणं अजहण्णट्ठिदिउदीरणकालो जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । एवं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणामाए वत्तव्वं । णवरि उक्कस्सेण तिरिण समया । उवघादणामाए जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । परघादणामाए जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोत्रमाणि देसूणाणि । उस्सास पसत्थापसत्थविहायगइ-सुस्सरदुस्सराणं परघादभंगो । तसणामाए जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि । थावर - बादर-सुहुम-पज्जत्त - अपज्जत्त पत्तेय-साहारणसरीराणं अजहणट्ठिदिउदीरणकालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण थावरणामाए असंखेज्जा लोगा, बादरणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, सुहुमणामाए असंखेज्जा लोगा, पज्जत्तणामाए बे-सागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि, अपज्जत्तणामाए अंत्तोमुहुत्तं, पत्तेय--साहारणाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । जसकित्ति - - सुभगादेज्जणामाणं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । अजसगित्ति- दुभगअणादेज्जणामाणं * जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अजसगित्तीए और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोंकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय प्रमाण है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी अजघन्य स्थिति - उदीरणाके कालकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार है । विशेष इतना है कि उसका उत्कृष्ट काल तीन समय प्रमाण है । उपघात नामकर्मकी अजघन्य स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है । परघात नामकर्मकी अजघन्य स्थिति उदीरणा काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से कुछ कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है । उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, सुस्वर और दुस्वर; इनकी अजघन्य स्थिति - उदीरणाकी प्ररूपणा परघात नामकर्मके समान है । त्रस नामकर्मका अजघन्य स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण है । स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर नामकर्मोंकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है | उत्कर्ष से स्थावर नामकर्मका असंख्यात लोक, बादर नामकर्मका अंगुलके असंख्यातवें भाग, सूक्ष्म नामकर्मका असंख्यात लोक, पर्याप्त नामकर्मका साधिक दो हजार साग़रोपम, अपर्याप्त नामकर्मका अन्तर्मुहूर्त, तथा प्रत्येक व साधारण शरीरनामकर्मोंका उपर्युक्त क अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । यशकीर्ति, सुभग और आदेय नामकर्मोंकी अजघन्य स्थिति- उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है । अयशकीर्ति, दुर्भग और अनादेय नामकर्मोंकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका काल जघन्यसे एक 6 काप्रतौ ' णामाणं ज० कालो', ताप्रती 'णामाणं कालो' इति पाठः । प्रयोरुभयोरेव ' - णामाए' इति पाठ: । ( १२९ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ) छक्खंडागमे संतकम्म असंखेज्जा लोगा, सेसाणमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । तित्थयरणामाए जहण्णेण वासपुधत्तं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । णीचागोदस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । उच्चागोदस्स जहण्णेण एगसमओ अंतोमुहुत्तं वा, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । __ सणावरणीयपंचयस्स जहण्ण-अजहण्णट्ठिदिउदीरणकालो जहण्णेण एगसमओ. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणकालो अजहण्णटिदिउदीरणकालो च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आदावुज्जोवाणं जहण्णढिदिउदीरणकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त। अजहण्ण द्विदिउदीरणकालो जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण आदावणामाए बावीसं वाससहस्साणि देसूणाणि, उज्जोवणामाए तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । एवं जहण्णट्ठिदिउदीरणा समत्ता। अंतराणुगमेण उक्कस्सटिदिउदीरणंतरं उच्चदे। तं जहा-पंचण्णं णाणावरणीयाणं छण्णं दंसणावरणीयाणं उक्कस्सटिदिउदीरणंतरं केवचिरं कालादो होदि? जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । थोणगिद्धितियस्स उक्कस्सटिदिउदीरणंतरं समय है। उक्त काल उत्कर्षसे अयशकीर्तिका असंख्यात लोक तथा शेष दोका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। तीर्थंकर नामकर्मकी अजघन्य स्थितिकी उदीरणाका काल जघन्यसे वर्षपृथक्त्व और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि मात्र है। नीचगोत्रकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। उच्चगोत्रकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय अथवा अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है। निद्रा आदिक पांच दर्शनावरणप्रकृतियोंकी जघन्य व अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका काल और अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। आतप व उद्योतकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उनकी अजघन्य स्थिति-उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है । उक्त काल उत्कर्षसे आतप नामकर्मका कुछ कम बाईस हजार वर्ष तथा उद्योत नामकर्मका कुछ कम तीन पल्योपम प्रमाण है। इस प्रकार जघन्य स्थिति-उदीरणा समाप्त हुई। अंतरानुगमके द्वारा उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके अंतरका कथन करते हैं। यथा- पांच ज्ञानावरण और छह दर्शनावरण प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तरकाल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप अनन्त काल प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तमुहूर्त मात्र होता है। स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी उकृष्ट स्थिति-उदीरणाका ताप्रती ' ( उक:०- ) ' इति पाठः । : Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १३.२ जहणेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। अणुक्कस्सद्विबिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उपकस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सादासादवेदणीयाणमुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि छम्मासा। मिच्छत्तस्स उक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे-छावद्धिसागरोवमाणि देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियढें । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ अंतोमहत्तं च, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियढें । चदुण्णं संजलणाणमुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदोरणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणंताणुबंधिचउक्कस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण बे-छावट्टिसागरोवमाणि देसूणाणि । अटुकसायाणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा Irket अंतर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है । साता व असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर काले कितना है ? वह जघन्यसे अंतर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अंतर काल है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सातावेदनीयका साधिक तेतीस सागरोपम तथा असातावेदनीयका छह मास प्रमाण होता है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे अंतर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पदगलपरिवर्तन मात्र अनंत काल है। उसकी अनत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे समय और उत्कर्षसे कुछ कम दो छयासठ सागरोपम प्रमाण होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे अंतर्मुहर्त और उत्कर्षसे अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और अंतर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है। चार संज्वलन कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका अंतर जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कषसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी उकृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम दो छयासठ सागरोपम प्रमाण होता है । आठ कषायोंकी उत्कष्ट स्थितिकी उदारणाका अन्तर aint Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । अरदि- सोग - भय - दुगुंछ - - - णवंसयवेदाण मुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा अंतोमुहुत्तं, णवुंसयवेदस्स सागरोवमसदपुधत्तं । इत्थवेद - पुरिसवेद - हस्स - रढीणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा वरि हस्त- रदीर्ण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणुस - तिरिक्खाउआणं उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण तिष्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्टि दिउदीरणंतरं जहणेण गावलिया । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं मणुस्साउअस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णिरयाउअस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण तेत्तीसं सागरोवमाणि मासyधत्तेण भहियाणि, मासपुधत्तादो हेट्ठा उक्कस्सणिरयाउअस्स * बंधाभावादो; उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण जघन्यते अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है । उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि मात्र होता है । अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है । उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अरति व शोकका छह मास तथा भय और जुगुप्साका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका यह अंतर उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण होता है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य व रतिकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है । उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता हैं । विशेष इतना है कि उक्त अन्तर हास्य और रतिका उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है । मनुष्य व तिर्यंच आयुकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे साधिक तीन पल्योपम और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक आवली मात्र होता है । उत्कर्षते वह तिर्यंच आयुका सागरोपमशतपृथक्त्व और मनुष्यायुका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है। नारकायुकी उत्कृष्ट स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे मासपृथक्त्वसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है, क्योंकि, ( ऐसे जीवके तिर्यंच होनेपर ) मासपृथक्त्व से नीचे उत्कृष्ट नारकायुका बन्ध सम्भव नहीं है । उक्त अन्तर उसका उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन नात्र अनन्तकाल प्रमाण होता है । उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अंतर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे वह एकेन्द्रियकी स्थिति के * काप्रतौ ' णिरयाउअजीवस्स', तातो 'णिरयाउअ (जीव ) स्स ' इति पाठ: । . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे द्विदिउदीरणा ( १३३ अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण एइंदियद्विदी। देवाउअस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं णत्थि । अणुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। णिरयगइ-तिरिक्खगइणामाए उक्कस्सदिदिउदीरणंतरं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, णिरयगईए सत्तारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि वा जहण्णंतरं। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण जहाकमेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा सागरोवमसदपुधत्तं । देवगइणामाए उक्कस्साणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । मणुसगइणामाए उक्कस्साणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एइंदिय-बीइंदियतेइंदिय-चरिदियजादिणामाणं उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सटिदि उदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। णवरि एइंदियजादिणामाए अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । पंचिदियजादिणामाए उक्कस्सटिदिउदीरणंतरं बराबर होता है। देवायुकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर नहीं होता। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण नरकगति और तिर्यग्गति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष प्रमाण होता है । अथवा, नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका जघन्य अन्तर साधिक सत्तरह सागरोपम प्रमाण होता है। उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे क्रमशः असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्तकाल और सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण होता है । देवगति नामकमंकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाओंका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष व अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है। मनुष्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाओंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल मात्र होता है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष व अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनंत काल प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय व अन्तर्मुहुर्त तथा उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनंत काल प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि एकेन्द्रिय जातिनामकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम Jain Educal प्रमाण होता है । पंचेन्द्रिय जातिनामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्त-jainelibrary.org Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ) छक्खंडागमे संतकम्म . जहण्णण अंतोमुहत्तं । अणुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ । उकस्सेण दोण्णं पि पमाणमणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरिया।। ओरालियसरीरस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सटिदिउदोरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतोमुत्तब्भहियागि । वेउब्वियसरीरस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सदिदिउदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। आहारसरीरस्स उक्कस्स-अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियठें। तेजा-कम्मइयसरीराणं उक्कस्सदिदिउदीरणंतरं जहण्णण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । जहा सरीरणामाणं तहा तेसिमंगोवंग-बंधण-संघादाणं पि वत्तव्वं । णवरि ओरालियअंगोवंगअणुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं कम्मइयसरीर-एइंदियट्ठिदी। छण्णं संठाणाणमुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ। णवरि हुंडसंठाणस्स महर्त है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय मात्र होता है। उत्कर्षसे उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा और अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा इन दोनोंके ही अन्तरका प्रमाण असंख्यात पदगलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल है। औदारिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात पूदगलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है। उसकी अनकृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक, समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है । उसकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। आहारकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाओंका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। तैजस और कार्पण शरीरनामकर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल मात्र होता है। उनकी अनुत्कष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। जैसे शरीरनामकर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाओंके अंतरकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही उनके आंगोपांग, बंधन और संघात नामकर्मोंकी भी उक्त दोनों उदीरणाओंके अंतरकी प्ररूपणा करनी चाहिए। विशेष इतना है कि औदारिकशरीर आंगोपांगकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका अंतर कार्मणशरीर अर्थात् कर्मणकाययोगके दो समय अधिक एकेन्द्रियको कायस्थिति प्रमाण होता है । __ छह संस्थानोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय मात्र होता है। विशेष इतना है कि हुण्डकसंस्थानका उक्त अंतर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। उत्कर्षसे छहों Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १३५ अंतोमुहत्त। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं (जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। णवरि हुंडसंठाणस्स तेवट्ठि-) सागरोवमसदं लादिरेयं । छण्णं संघडणाणं उक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ । णवरि असंपत्तसेवट्टसंघडणस्स दसवासहस्साणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अगुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जापोग्गलपरियट्टा। वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुहपंचय-णिमिण-णीचागोदंतराइयाणमुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण असंखज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुअलहुअ-सुहसुस्सर-आदेज्ज-णिमिणंतराइय-उवघाद-परघाद-उस्सासाणमंतोमुहुत्तं, अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सर-तसाणमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, उज्जोव-बादरणामाणमसंखेज्जा लोगा, पज्जत्तस्स अंतोमुत्तं, पत्तेयसरीरस्स अड्ढाइज्जा पोग्गलपरियट्टा, दुभग-अणादेज्ज-अजसगित्ति-णीचागोदाणं सागरोवमसदपुधत्तं । तिण्णमाणुपुत्वीणं जहा गदिणामाणं तहा वत्तव्वं । णवरि तिरिक्खगइपाओग्गाणुसंस्थानोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनंत काल प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर (जघन्यसे एक समय मात्र होता है, उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि हुण्डकसंस्थानका उत्कर्षसे अन्तर ) साधिक सौ सागरोपम प्रमाण होता है। छह संहननोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय मात्र होता है। विशेष इतना है कि असंप्राप्तासृपाटिकासंहननकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष प्रमाण होता है। उत्कर्षसे छहों संहननोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है। उनकी अनत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परधात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभादिक पांच, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका अंतर जघन्यसे अंतर्मुहूर्त और उत्कर्षते असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय मात्र होता है। उत्कर्षसे वह वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, शुभ, सुस्वर, आदेय, निर्माण, अन्तराय, उपघात, परघात और उच्छ्वासका अन्तर्मुहुर्त मात्र; अप्रशस्तविहायोगति, दुस्वर और त्रसका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन; उद्योत और बादर नामकर्मोंका असंख्यात लोक, पर्याप्तका अन्तर्मुहुर्त, प्रत्येकशरीरका अढाई पुद्गलपरिवर्तन; तथा दुर्भग अनादेय, अयशकीति और नीचगोत्रका सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण होता है। तीन आनुपूर्वियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके अंतरका कथन गतिनामकर्मोके समान करना चाहिये । विशेष इतना है कि तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी अनुत्कृष्ट Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ) छक्खंडागमे संतकम्म पुवीए अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहणेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। देवगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीगं अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि त्ति वत्तव्वं । मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीए उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णमंतोमुहुत्तं, उक्कस्सटिदि बंधिदूण पडिभग्गो होदूण मणुस्सेसुप्पज्जिय मणुस्साणुपुव्वीए उक्कस्सटिदि वेदिय तदो अंतोमुहुत्तेण पत्ति समाणिय गन्भे चेव उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण पुणो तदुक्कस्सदिदि कादूण मणुस्सेसुप्पणस्स तदुवलंभादो। णेदमसिद्धं, सत्तमाए पुढवीए उप्पज्जंतस्स मणुस्सेसुप्पत्ति पडि विरोहाभावदो । उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं दुसमऊणं* उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। आदाव-सुहम-अपज्जत्त-साहारणाणमुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तीणवरि आदावस्स दसवस्ससहस्साणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं जहणेण अंतोमुहत्तं णवरि साहारणसरीरस्स एगसमओ। उक्कस्सेण आदाव-साहारणसरीराणं जहाकमेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा असंखेज्जा लोगा। सुहुमस्स अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, अपज्जत्तस्स बे सागरोवमसहस्सं सादिरेगं । थावरस्स एइंदियभंगो। जहा पंचण्णं संठाणाणं तहा पसत्थविहायगइ-उच्चागोदस्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होता है, तथा देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष प्रमाग होता है, ऐसा कहना चाहिये । मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और प्रतिभग्न होकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट स्थितिका वेदन करके तत्पश्चात् अन्तर्मुहुर्त कालके द्वारा पर्याप्तिको पूर्ण कर गर्भमें ही उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर फिरसे उसकी उत्कृष्ट स्थितिको करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुए जीवके उपर्युक्त अन्तर पाया जाता है। यह असिद्ध भी नहीं क्योंकि, जो जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होनेवाला है उसके मनुष्यों में उत्पन्न होनेका कोई विरोध नहीं है। उसका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे दो समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है । आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नामकर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है। विशेष इतना है कि आतप नामकर्मका वह अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष प्रमाण होता है । उन सबकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है । विशेष इतना है कि साधारणशरीर नामकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका वह अन्तर एक समय मात्र होता है । उत्कर्षसे वह अन्तर आतप और साधारणशरीर नामकर्मका यथाक्रमसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन और असंख्यात लोक, सूक्ष्म नामकर्मका अंगुलके ___Jain Education Int* काप्रती 'दुसमऊगाणं', ताप्रतौ ‘दुसमउ (णा) file Only . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कमाणुयोगद्दारे द्विदिउदीरणा ( १३७ थिर-सुहपंचयाणं । णवरि उच्चागोदउक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुत्तं । थिर-सुह-अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं उक्कस्सेण एगावलिगा, जसगित्ति अणुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं असंखेज्जा लोगा। तित्थयरस्स उक्कस्साणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं पत्थि । एवमुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं समत्तं ।। जहण्णए पयदं- पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-आहारसरीर-तित्थयरुच्चागोद-पंचंतराइयाणं जहण्णदिदिउदीरणंतरं णत्थि । णिद्दा-पयलाणं पि जहण्णदिदिउदीरणंतरं णत्थि ति एत्थ ण परूविदं । कुदो? एदस्साइरियस्स उवदेसेण खीणकसायम्हि जहण्णदिदिउदीरणाभावादो। एसि * णामपयडीणं सजोगिचरिमसमए जहण्णट्ठिदिउदीरणा तासि पि अंतरं पत्थि । पंचण्णं दंसणावरणीयाणं जहण्णद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। मिच्छत्तस्स जहण्णढिदिउदीरणंतरं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। सम्मत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरं णत्थि । उवसामगं पडुच्च जहण्णण अंतोमुत्तं । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। असंख्यातवें भाग, तथा अपर्याप्त नामकर्मका साधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण होता है । स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा एकेन्द्रियजाति नामकर्मके समान है। जैसे पांच संस्थानोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही प्रशस्त विहायोगति, उच्चगोत्र तथा स्थिर आदि पांच प्रकृतियोंके भी उक्त अन्तरकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका वह अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है। स्थिर और शुभ नामकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका उत्कर्षसे अन्तर एक आवली प्रमाण है तथा यशकीर्तिका अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाओंका अन्तर नहीं होता। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर समाप्त हुआ। जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर अधिकारप्राप्त है--पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, आहारशरीर, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तर नहीं होता। निद्रा और प्रचलाकी भी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर नही होता, यह यहां नहीं कहा गया है; क्योंकि, इन आचार्यके उपदेशसे क्षीणकषाय गुणस्थानमें इन दोनोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा नहीं होती। जिन नाम प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है उनकी भी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर नहीं होता । निद्रा आदि पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण होता है। मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर नहीं होता। परन्तु उपशामककी अपेक्षा उसका उक्त अन्तर जघन्यसे अंतर्मुहूर्त प्रमाण होता है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तर जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। इन तीनों ही प्रकृतियों* ताप्रती ‘सुह-पंचतराइयाणं ' इति पाठः। * काप्रती ‘एदासिं ' इति पाठः । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८) छक्खंडागमे संतकम्म उक्कस्सेण तिण्णं पि जहणद्विदिउदीरणंतरमुवड्ढपोग्गलपरियढें । बारसण्णं कसायाणं जहण्णद्विदिउदीरणंतरं जहण्णण अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। भय-दुगुंछाणं बारसकसायभंगो। तिण्णं वेदाणं चदुण्णं संजलणाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियट्रं। देव-णिरयाउआणं जहण्णण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । मणुस-तिरिवखाउआणं जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं समऊणं । उक्कस्सेण मणुस्साउअस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, तिरिक्खाउअस्स सागरोवमसदपुधत्तं । तिणं गइणामाणं जहण्णटिदिउदीरणंतरं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अणंतकालं। मणुसगईए णत्थि अंतरं, सजोगिचरिमसमए जहण्णटिदिउदीरणदसणादो। वेउव्वियसरीरणामाए जहण्णढिदिउदीरणंतरं जहण्णण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अणंतकालं । तिण्णं सरीराणं जहण्णद्विदिउदीरणंतरं जहण्णुक्कस्सेण णत्थि अंतरं। एवं दोण्णमंगोवंगणामाणं वेउव्वियसरीरअंगोवंगस्स की जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है । बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण होता है । साता व असाता सेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तर जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कर्षसे वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है । भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा बारह कषायोंके समान है । तीन वेदों और चार संज्वलन कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। देवायु और नारकायुकी जघन्य स्थितिकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। मनुष्यायु और तिर्यंचआयुकी जघन्य स्थितिकी उदी रणाका अन्तर जघन्यसे एक समय कम क्षुद्रभवग्रयण प्रमाण होता है । उत्कर्षसे उक्त अन्तर मनुष्यायुका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण तथा तिर्यंचआयुका सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमाण होता है। तीन गतिनामकर्मोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा उत्कर्षसे वह अनन्त काल प्रमाण होता है। मनुष्यगति नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर नहीं होता, क्योंकि, जघन्य स्थितिकी उदीरणा सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें देखी जाती है । वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी जघन्य स्थिति उदीरणाका अन्तर जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण होता है । तीन शरीरोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा अन्तर जघन्य व उत्कर्षसे होता ही नही है । इसी प्रकारसे दो अंगोपांग नामकर्मोके उक्त अन्तरका कथन करना चाहिए । वैक्रियिक ___Jain Education Internationताप्रनो 'हस्स-रदि-सोगाणं' इति पाठ: IPersonal use Only . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्क माणुयोगद्दारे द्विदिउदीरणा ( १३९ देवगइभंगो | पंचसरीरबंधण-संघादाणं पंचसरीरभंगो । एइंदियजादिणामाए जहट्ठिदिउदीरणंतरं जहृण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । बेइंदियतेइंदिय - चउरिदियजादिणामाणं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अनंतकालं । पंचिदियजादिणामाए णत्थि अंतरं । छसंठाण वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणं च णत्थि अंतरं । पंचण्णं संघडणाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अनंतकालं । गिरयगइ - देवगइपाओग्गाणुपुव्विणामाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अनंतकालं । तिरिक्खगइ - मणुस्सगइपाओग्गाणुपुव्वीणामाणं जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अनंतकालं । आदावणामाए जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अनंतकालं । एवमुज्जोवणामाए। थावर - सुहुम-साहारणाणं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । दुभग- अणादेज्ज-अजस गित्ति-अपज्जत्तणीचागोदाणमसादभंगो। एवमंतरं समत्तं । terrataह भंगविचओ दुविहो- जहण्णपदभंगविचओ उक्कस्सपदभंगविचओ शरीरांगोपांगकी जघन्यस्थितिकी उदीरणाका अन्तर देवगतिके समान है। पांच शरीरबन्धन और पांच शरीरसंघात नामकर्मोंकी जघन्यस्थिति - उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा पांच शरीरनामकर्मों के समान है । एकेन्द्रिय जातिनामकर्मकी जघन्य स्थिति उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्मोंकी जघन्य स्थिति उदीरणाका अन्तर जवन्यसे पत्योपमके असंख्यातवें भाग तथा उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण है । पंचेन्द्रिय जातिनामकर्मकी जघन्य स्थिति - उदीरणाका अन्तर नहीं होता । छह संस्थानों और वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननकी जंघ य स्थितिकी उदीरणाका अन्तर नहीं होता है। पांच संहनन नामकर्मोंकी जघन्य स्थितिकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कर्ष से अनन्त काल प्रमाण होता है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोंकी जघन्य स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे पत्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोंकी जघन्य स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे पत्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण है । आतप नामकर्मकी जघन्य स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण है । इसी प्रकार उद्योत नामकर्मकी जघन्य स्थिति - उदीरणाका अन्तर भी समझना चाहिये । स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नामकर्मोंकी जघन्य स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण है। दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति, अपर्याप्त और नीचगोत्रकी जघन्य स्थिति - उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा असातावेदनीयके समान है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है- जघन्यपदभंगविचय और उत्कृष्टपद Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ) छक्खंडागमे संतक.म्म । चेदि। तत्थ अट्टपदं- जे उक्कस्सियाए द्विदीए उदीरया ते अणुक्कस्सियाए अणुदीरया, जे अणुक्कस्सियाए दिदीए उदीरया ते उक्कस्सियाए अणुदीरया। जे जं पयडिमुदीरेंति तेसु पयदं। अणुदीरएसु अव्ववहारो। एदमेत्थ अट्ठपदं कादूण उवरिमपरूवणा कायव्वापंचण्णं णाणावरणीयाणं उक्कस्सद्विदीए सिया सव्वे जीवा अणुदीरया, सिया अणुदीरया च उदीरओ च, सिया अणुदीरया च उदीरया च । एवमणुक्कस्सियाए। णवरि तप्पडि. लोमेण तिण्णि भंगा वत्तव्वा। एवं सेससव्वकम्माणं पि वत्तव्वं । णवरि सम्मामिच्छत्तआहारदुग-आणुपुन्वीतिगाणं पादेक्कमटुभंगा। उक्कस्साणुक्कस्सटिदिउदीरयाअणुदीर. याणं सव्वभंगसमासो सोलस १६ । एवमुक्कस्सओ णाणाजीवभंगविचओ समत्तो। ..जहण्णपदभंगविचए ताव अटुपदं वुच्चदे-जे जहणियाए उदीरया ते अजहण्णिआए द्विदीए णियमा अणुदीरया, जे अजहणियाए उदीरया जीवा ते जहणियाए द्विदीए णियमा अणुदीरया । एदेण अट्टपदेण जहण्णपदभंगविचओ उच्चदे । तं जहा- पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-सादासदवेदणीय-दोदसणमोहणीय-चदुसंजलण-तत्तणोकसाय-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयाणं जेसि णामाणं तसा जहण्णं करेंति तेसिं च कम्माणं जहण्णपदभंगविचए छच्चेव भंगा होति। तं जहा- एदेसि कम्माणं जहण्णट्टिदीए सिया भंगविचय । उनमें अर्थपद-- जो जीव उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिके अनुदीरक होते हैं, जो जीव अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक होते हैं वे उत्कृष्ट स्थितिके अनुदीरक होते हैं। जो जिस प्रकृतिकी उदीरणा करते हैं वे प्रकृत हैं। अनुदीरक जीवोंका व्यवहार नहीं है। यहां इस अर्थपदको करके आगेकी प्ररूपणा करते हैं-- पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके कदाचित् सब जीव अनुदीरक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक और एक जीव उदीरक होता है, कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक व बहुत जीव उदीरक होते हैं। इसी प्रकारसे उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके विषयमें भी प्ररूपणा करनी चाहिये। विशेष इतना है कि उनके विपरीत क्रमसे तीन भंगोंका कथन करना चाहिये। इसी प्रकारसे शेष दर्शनावरणादि सब कर्मोंके सम्बन्धमें प्रकृत प्ररूपणा करनी चाहिये । विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्व, आहारादिक और तीन आनुपूवियोंमेंसे प्रत्येकके आठ भंग कहना चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंके सब भंगोंका जोड सोलह (१६) होता है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भंगविचय समाप्त हुआ। जघन्यपदभंगविचयके विषयमें पहिले अर्थपदका कथन करते हैं- जो जीव जघन्य स्थितिके उदीरक होते हैं वे अजघन्य स्थितिके नियमसे अनुदीरक होते हैं, तथा जो जीव अजघन्य स्थितिके उदीरक हैं वे जघन्य स्थितिके नियमसे अनुदीरक होते हैं। इस अर्थपदके अनुसार जघन्यपदभंगविचयका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, दो दर्शनमोहनीय, चार संज्वलन कषाय, सात नोकषाय, नीच व ऊंच गोत्र, पांच अन्तराय तथा जिन नामकर्मप्रकृतियोंका त्रस जीव जघन्य करते हैं उन नामकर्मप्रकृतियोंके भी जघन्यपदभंगविषयक छह ही भंग होते हैं। वे इस Jain Educath प्रकारसे - इन कर्मोंकी जवन्य स्थितिके कदाचित् सब जीव अनुदीरक होते हैं, कदाचित् बहुत Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १४१ सव्वे जीवा अणुदीरया, सिया अणुदीरया च उदीरओ च, सिया अणुदीरया च उदीरया च। एवं तिण्णि भंगा ३। अजहणस्स वि तिण्णि चेव भंगा लभंति ३ । एदेसि समासो छभंगा होंति ६ । पंचदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्खाउआदावुज्जोव-थावर-सुहम-साहारणणामाणं जहण्णट्टिदीए णियमा उदीरया अणुदीरया च अस्थि । मणुस्सगइ-देवगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणामाणं जहण्णढिदिउदीरणाए सोलस-सोलस भंगा। मणुस-देव-णिरयआउआणं च जहण्णढिदिउदीरयाणं छ भंगा होति। सम्मामिच्छत्त-आहारसरीराणं सोलस भंगा। एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। णाणाजीवेहि कालो अंतरं च णाणाजीवेहि भंगविचयादो साहेद्ण वत्तव्वं । एवं कालंतरपरूवणा समत्ता। सण्णियासो वुच्चदे- मदिणाणावरणीयस्स उक्कस्सद्विदिमुदीरेंतो सुदणाणावरणीयदिदीए किमुदीरओ अणुदीरओ? णियमा उदीरओ। जदि उदीरओ किमुक्कस्सियाए ट्ठिदीए उदीरओ आहो अणुक्कस्सियाए ? उक्कस्सियाए अणुक्कस्सियाए वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि काण जाव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणा। एवं सेसतिण्णिणाणावरणीय चउदंसणावरणीयाणं वा। पंचदंसणावरणीयाणं असादस्स च अणु जीव अनुदीरक और एक जीव उदीरक होता है, कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक और बहुत जीव उदीरक भी होते हैं ।। इस प्रकार तीन (३) भंग हुए । अजघन्य स्थितिके भी तीन (३) ही भंग प्राप्त होते हैं। इनके जोडसे छह (६) भंग होते हैं। पांच दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यंचआयु, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नामकर्मोंकी जघन्य स्थितिके नियमसे बहुत जीव उदीरक और अनुदीरक भी होते हैं। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी; देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी जघन्य स्थिति-उदीरणाके सोलह-सोलह भंग होते हैं । मनुष्यायु, देवायु और नारकायुकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंके छह भंग होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्व और आहारकशरीरके सोलह भंग होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयसे सिद्ध करके करनी चाहिये । इस प्रकार काल और अन्तरकी प्ररूपणा समाप्त हुई। ___ संनिकर्षकी प्ररूपणा की जाती है- मतिज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला जीव श्रुतज्ञानावरणीयकी स्थितिका क्या उदीरक होता है या अनुदीरक? वह नियमसे उसका उदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो वह क्या उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है या अनुत्कृष्ट स्थितिका? वह उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उसके उत्कृष्टकी अपेक्षा यह अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको आदि करके उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम तक होती है । इसी प्रकार शेष तीन ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके विषयमें कहना चाहिये। वह पांच दर्शनावरण और असाता वेदनीयका अनुदीरक और उदीरक भी होता है । यदि उनका उदी रक Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ) छक्खंडागमे संतकम्म दीरओ उदीरओ वा। जदि उदीरओ उक्कस्सियाए अणुक्कस्सियाए वा टिदीए उदीरओ। उक्कसादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागेणूणा। सादस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ णियमा अणुक्कस्सा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुत्तूणमादि कादूण जाव संखेज्जगुणहीणा । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं णियमा अणुदीरओ। मिच्छत्तस्स णियमा उदीरओ, तंतु समऊणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणा। सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणवंसयवेद-अरदिसोगाणं सिया अणुदीरगो। जदि उदीरगो तं तु समऊणमादि कादूण जात्र पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण होणा ति। णवरि कसायवज्जाणं समऊणमादि करिय पलिदोवमस्स असंखेज्जभागहीण-वीसं-सागरोवमकोडाकोडीओ त्ति। इत्थिपुरिसवेद-हस्सरदीणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ णियमा अणुक्कस्सद्विदिमुदीरेदि अंतोमुहत्तणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडीओ ति। णिरयाउअस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिदा । मणुस-तिरिक्खाउआणं सिया उदीरओ सिया होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों स्थितियोंका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उसके उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कमको आदि लेकर उत्कर्षते पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम तक होती है । सातावेदनीयका कदाचित उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। उत्कृष्टकी अपेक्षा यह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त कमको आदि लेकर संख्यातगणी हीन तक होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका वह नियमसे अनुदीरक होता है। मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक होता है । वह उत्कृष्ट स्थितिसे एक समय कमको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम तक होती है । सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नपुंसक वेद, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदोरक होता है तो वह उनकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यात भागसे कम तक होती है । विशेष इतना है कि कषायोंका छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी एक समय कम स्थितिको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम तक स्थिति होती है स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य व रतिका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो वह नियमसे उत्कृष्टसे अन्तर्मुहर्त कम स्थितिको आदि लेकर अन्तःकोडाकोडि सागरोपम तक अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करता है। नारकआयुका वह कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट स्थिति चतुःस्थानपतित होती है। मनुष्यायु व तिर्यंचआयुका कदाचित् उदीरक और कदाचित प्रत्योरुमयोरेव 'उदीरया' इति पाठः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमाणुयोगद्दारे उदीरणा ( १४३ अणुदीरओ । जदि उदीरओ णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जगुणहीणा । देवाउअस्स सिया उदीरओसिया अणुदीरआ । जदि उदीरओ णियमा अणुक्कस्सा सादिरेयअट्ठारससागरोवममादि काढूण जाव समयाहियावलिया त्ति । णिरयगइणामाए सिया उदीरओसिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । जदि अणुकस्सा समऊणमादि काढूण जाव अंतोसागरोवमसहस्सस्स । मणुसगदिणामाए सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ णियमा अणुक्कस्सा | उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि काढूण जाव संखेज्जगुणहीणा । तिरिक्खगदिणामाए सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । देवगदिणामाए सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ णियमा अणुक्कस्सा | उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि काढूण जाव अंतोसागरोवमसहस्सस्स । एइंदिय-पंचिदिदियजादिणामाणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो * ति । बेइंदिय-तेइंदिय- चउरिदियजादीणं णियमा अणु अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो वह नियमसे असंख्यातगुणी हीन अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीर होता है । देवायुका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो वह नियमसे साधिक अठारह सागरोपमको आदि लेकर एक समय अधिक आवली मात्र तक अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। नरकगति नामकर्मका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों स्थितियोंका उदी होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो वह अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमको आदि लेकर हजार सागरोपमके भीतर तक होती है । मनुष्यगति नामकर्मका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उसके नियमसे अनुत्कृष्ट स्थिति होती है । यह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्टकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमको आदि लेकर संख्यातगुणी हीन तक होती है । तिर्यग्गति नामकर्मका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका उदीरक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो यह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमको आदि लेकर अन्तःकोडाकोडि सागरोपम प्रमाण तक होती है । देवगति नामकर्मका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक है तो नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । यह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्टकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमको आदि लेकर हजार सागरोपमके भीतर तक होती है । एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जातिनामकर्मोंका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका उदीरक होता है । यह अनुत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक होती है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ताप्रती अणुक्कस्सा (वा)' इति पाठः । " ताप्रती ' भागा' इति पाठः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ) दीरओ । ओरालियसरीरस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोsति । वेउव्वियसरीरणामाए णिरयगइभंगो | तेजा -कम्मइयसरीराणं सुदणाणावरणभंगो | पंचसंठाण - पंचसंघडणाणं सादभंगो । हुंडठाणस्स असादभंगो । असंपत्त सेवट्टसंघडणस्स तिरिक्खगइभंगो । णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीए* सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि काढूण जाव पल्लस्स असंखेज्जदिभागो ऊणो त्ति । एवं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीए । मणुसगइ - देवगइपाओग्गाणुपुव्वीणमणुदीरओ । उवघाद--परघाद-- उस्सास -- अपसत्थविहायगइ ---तस - - बादर -- पज्जत्त -- पत्तेय-सरीराणमसादभंगो। णवरि बादर - पज्जत्ताणं णियमा उदीरओ । उज्जोवणामाए सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव अंतोकोडाकोडीए । आदावस्स अणुदीरओ । पसत्थविहायगदि-थिर-सुभ-सुभग सुस्सर - आवेज्ज-जस कित्तीणं सादभंगो। णवरि थिर छक्खंडागमे संतकम्मं जातिनाम का वह नियमसे अनुदीरक होता है । औदारिकशरीरका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका उदीरक होता है । उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कमको आदि करके अन्तःकोडाकोडि सागरोपम प्रमाण तक होती है । वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है । तैजस और कार्मण शरीरनामकर्मोंकी प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरणके समान है। पांच संस्थानों और पांच संहनन की प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है । हुंण्डकसंस्थानकी प्ररूपणा असातावेदनीयके समान है । असंप्राप्तासृपाटिकासंहननकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टका उदीरक होता है । उत्कृष्टकी अपेक्षा यह अनुत्कृष्ट एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक कम होती है। इसी प्रकार तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी प्ररूपणा समझना चाहिये । मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका वह अनुदीरक होता है । उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर, इनके संनिकर्षकी प्ररूपणा असातावेदनीयके समान है। विशेष इतना है कि वह बादर और पर्याप्तका नियमसे उदीरक होता है । उद्योत नामकर्मका वह कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों का उदीरक होता है । उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय कमको आदि करके अन्तः कोडाकोडि सागरोपम तक होती है । वह आतप नामकर्मका अनुदीरक होता है । प्रशस्त विहायोगति, थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है । विशेष इतना है कि स्थिर और शुभका वह नियमसे उदीरक होता | अस्थिर, उभयोरेव प्रत्यो: 'णिरय इगदेवाणुपुब्बीए' इति पाठ: । for Private & Personal Use On ताप्रती ' वा ' इत्येतत्पदं नास्ति । . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १४५ सुभाणं णियमा उदीरओ। अथिर-असुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-गीचागोदाणं असादभंगो। णवरि अथिर-असुहागं णियमा उदीरओ। अगुरुअलहुअ-णिमिणाणं सुदणाणावरणभंगो। अपज्जत्त-सुहुम-साहारणाणमणुदीरओ। वण्ण-गंध-रस-फासाणं सुदणाणावरणभंगो। उच्चागोदस्स सादभंगो। एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स णिरोहणं काऊण परूवणा कदा। एवं सव्वासि धुवबंधपयडीणं कायव्वं । एत्तो समासेण कासि पि पयडीणं सण्णियासं वत्तइस्सामो। तं जहा- णाणावरणीयस्स णियमा उदीरओ। उदीरेंतो वि णियमा अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव.. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणं ति। एवं सव्वासि धुवबंधपयडीणं वत्तव्वं । हस्सरदि-इत्थि-पुरिसवेदाणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । णqसयवेद-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूण-वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ ति । भय-दुगुंछाणं सिया - अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी यह संनिकर्षप्ररूपणा असातावेदनीयके समान है। विशेष इतना है कि अस्थिर और अशुभका नियमसे उदीरक होता है । अगुरुलघु और निर्माणके संनिकर्षकी प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरणके समान है । अपर्याप्त, सूक्ष्म और साधारणका अनुदीरक होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शकी यह प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरणके समान है। उच्चगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है । इस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयकी विवक्षा करके यह संनिकर्षकी प्ररूपणा की गयी है। इसी प्रकारसे सब ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंकी विवक्षा करके संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये। यहां संक्षेपसे कुछ प्रकृतियोंके संनिकर्षकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-- ( सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला ) ज्ञानावरणीयका नियमसे उदीरक होता है। उदीरक होकर भी वह उत्कृष्टसे एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यात भागसे हीन तक अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे सब ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंके विषयमें कहना चाहिये । हास्य, रति, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों स्थितियोंका उदीरक होता है। उत्कष्टकी अपेक्षा अनत्कृष्ट स्थिति एक समय कमको आदि करके अन्तःकोडाकोडि सागरोपम तक होती है। नपुंसकवेद, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका उदीरक होता है। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण तक होती है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और _Jain Educationing कापतो 'भागेगूणं' इति पाठः | Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं - उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूण- चत्तालीसंसागरोवमको डाकोडीओ त्ति । णिरयाउअस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ णियमा अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तमादि काढूण जाव समयाहियावलिया त्ति । मणुस - तिरिक्खाउआणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ नियमा असंखेज्जगुणहीणद्विदीए उदीरओ । देवाउअस्स सिया उदीरओ सिया * अणुदीरओ । जदि उदीरओ सादिरेयअट्ठारससागरोवमाणि आदि काढूण जाव ( समयाहियावलिया त । णिरयगइ देवगइणामाणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ •णियमा अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तमादि काढूण जाव ) सागरोवमसहस्सअंतो । मणुसगदीए सिया उदीरओ सिया अणुदोरओ । जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । जदि अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । तिरक्खगदीए सिया उदीओसिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ णियसा अणुक्कस्सा समऊणमादि का जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । एवं सेसाओ वि सव्वणामपयडीओ जाणिवण परूवेयव्वाओ। जहा सादेण सह सण्णियासो कदो तहा इत्थि पुरिसवेद-हस्स-रदीणं परियत्तमाणसुह अनुत्कृष्ट दोनों स्थितियों का उदीरक होता है । उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय कमको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम चालीस कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण तक होती है । नाकाका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता हुआ अन्तर्मुहूर्तको आदि लेकर एक समय अधिक आवली मात्र अनुत्कृष्ट स्थिति तकका उदीरक होता है। मनुष्य व तिर्यंच आयुका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो नियमसे असंख्यातगुणी हीनस्थितिका उदीरक होता है । देवायुका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । -यदि उसका उदीरक होता है तो साधिक अठारह सागरोपमोंको आदि करके एक समय अधिक - आवली मात्र स्थिति तकका उदीरक होता है । नरकगति व देवगति नामकर्मो का कदाचित् उदीरक व कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो नियमसे अन्तर्मुहूर्तको आदि करके हजार सागरोपमोंके भीतर तक अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । मनुष्यगतिका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका उदीरक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टसे एक समय कम स्थितिको आदि करके अन्तः कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण तक अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । तिर्यंचगतिका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो नियम से एक समय कमको आदि करके अन्तःकोडा कोडि सागरोपम तक अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । इसी प्रकार से शेष सभी नामप्रकृतियोंकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । जिस प्रकार सातावेदनीयके साथ संनिकर्षकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद हास्य Q ताप्रतो' उदीरओ (ण) नियमा' इति पाठः । * काप्रतौ ' देवाउअस्स उदीरया प्रिय ', ताप्रती 'देवाउअस्स (सिया ) उदीरया (ओ) सिया Person कोणडकस्थोऽयं पाठस्ताप्रती नोपलभ्यते Jain Education nati . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा (१४७ णामकम्मपयडीणं च सण्णियासो कायव्वो। जहण्णपदसण्णियासो वि चितिय वत्तव्यो। एवं सण्णियासो समत्तो। अप्पाबहुअं उच्चदे- सव्वत्थोवा तित्थयरुक्कस्सटिदिउदीरणा । मणुस-तिरक्खाउआणं उक्कस्सटिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा। देव-णिरयाउआणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । आहारसरीरस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । जहण्णद्विदिउदीरणा* विसेसाहिया । देवगदीए उक्कस्सटिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया। मणुसगदि-उच्चागोद-जसगित्तीणं उक्कस्सद्विदिउदीरणा विसेसाहिया । एदासि चेव पयडीणं जहण्णट्रिदिउदीरणा* विसेसाहिया। णिरयगइ---तिरिक्खगइ--चदुसरीर---अजसगित्तिणीचागोदाणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा सरिसा , जहण्ण द्विदिउदीरणा विसेसाहिया । सादस्स उक्कस्सिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया । सादस्स जहण्णट्टिदिउदीरणा विसेसाहिया । पंचणाणावरणीयणवदंसणावरणीय--असादावेदणीय-पंचंतराइयाणं उक्कस्सदिदिउदीरणा सरिसा । एदासिं चेव जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया। णवण्णं णोकसायाणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया । एदेसि चेव कम्माणं जहण्णट्टिदिउदीरणा विसेसाहिया । सोलसण्हं कसायाणं उक्कस्सद्विदिउदीरणा सरिसा ति। एदेसि कम्माणं व रति तथा परिवर्तमान शुभ नामकर्मकी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे भी संनिकर्षकी प्ररूपणा कहना चाहिये । जघन्य पदविषयक संनिकर्षकी भी विचारकर प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ। . अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है- तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा सबसे स्तोक है। मनुष्यायु और तिर्यंचआयुकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। देवायु और नारकायुकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है। आहारकशरीरकी उत्कृष्ट-स्थिति-उदीरणा संख्यातगणी है। उससे उसीकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है। उससे उसीकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। मनुष्यगति, उच्चगोत्र और यशकीर्तिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। इन्हीं प्रकृतियोंकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नरकगति, तिर्यंचगति, आहारकको छोडकर शेष चार शरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा सदृश है। इनकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । सातावेदनीयकी ज-स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पांच अन्तराय ; इनकी उकृष्ट स्थिति-उदीरणा सदृश है। इन्हींकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। इन्ही कर्मोंकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा सदृश है । इन कर्मोंकी ज-स्थिति-उदीरणा । प्रत्योरुभयोरेव ' जहण्णट्ठिदिउदीरणा' इति पाठः। * काप्रतौ 'ज० दिदि-', ताप्रतौ ' जहण्णट्रिदि' इति पाठः। *ताप्रती 'जह० ट्रिदिउदीरणा' इति पाठः । अग्रेत्वत्र काप्रती प्रायशः 'ज. ट्रिदि' तथा ताप्रतौ 'जह० ट्रिदि० ' इत्येवंविध: पाठ उपलभ्यते।४ काप्रती 'सरिसा होति' इति पाठः । For Private & Persoal Use Only ' Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ) छक्खंडागमे संतकम्म जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सटिदिउदीरणा विसेसाहिया। जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। सम्मत्तस्स उक्कस्सिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया। ज०टिदिउदीरणा विसेसाहिया। मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया। ज०ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। एवमोघुक्कस्सअप्पाबहुअं समत्तं । एव गदियादिसु वि उक्कस्सदंडओ कायन्वो । ____ जहण्णप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा- पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-सम्मत्तमिच्छत्त-चदुसंजलण-तिण्णिवेद-चत्तारिआउअ-पंचंतराइयाणं जहणिया टिदिउदीरणा थोवा । जट्ठिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा। मणुसगइ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरजसगित्तिउच्चागोदाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। वेउव्विय० जहण्णदिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा, ज.द्विदिउदीरणा विसेसाहिया। अजसगित्ति विसे० ज०टिदि० विसे०। तिरिक्खगदि० जह० द्विदि० विसे । ज० दिदि विसे । णीचागोदस्स जह० टिदिउदीरणा विसे० । जट्टिदि० विसे० । सादस्स जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया। ज०द्विदि० विसे । असादस्स जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया। ज.द्विदि० विसेसाहिया। पंचण्णं दंसणावरणीयाणं जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया। जटिदि० विसेसाहिया। हस्स-रदीगं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघ उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इसी प्रकारसे गति आदि मार्गणाओंमें भी उत्कृष्ट दण्डक करना चाहिये। जघन्य अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, चार संज्वलन, तीन वेद, चार आयु और पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थिति-उदीरणा स्तोक है। ज-स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है । मनुष्यगति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, यशकीति और उच्चगोत्र, इनकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरकी जघन्य स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अयशकीर्तिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। तिर्यंचगति नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नीचगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। असातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अथिक है । हास्य व रतिकी जघन्य-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा ४ काप्रो 'णी वागदस्त' इत्यादिवासद्वयं नास्ति। Jain Education international . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्क माणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १४९ ज.दिदि विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, । ज०द्विदि विसेसाहिया। भय-दुगुंछाणं जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया। ज०ट्रिदि विसेसाहिया । बारसणं कसायाणं जहणिया दिदिउदीरणा तत्तिया चेव । ज०टिदि विसेसाहिया। सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णढिदिउदोरणा विसेसाहिया। जट्ठिदि विसेसाहिया। देवगदीए जहण्णढिदिउदीरणा संखेज्जगुणा। ज० द्विदि विसेसाहिया । देवगदिपाओग्गाणु० विसे०। जटिदि विसेसाहिया। णिरयगइ० विसे । ज०द्विदि विसे० । णिरयगइपाओग्गाणु० विसे० । ज.दिदि विसे० । आहारदुग० संखेज्जगुणा। जद्विदि विसेसाहिया। एवमोघजहण्णप्पाबहुअं समत्तं । णिरयगईए सम्मत्त-मिच्छत्त-णिरयाउआणं जहण्णद्विदिउदीरणा थोवा, जटिदिउदी० असंखेज्जगुणा। सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णटिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा, जट्ठिदि विसेसाहिया। वेउब्वियसरीर-णिरयगईणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जटिदि विसेसाहिया। अजसगित्तीए जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, ज०ट्ठिदि विसेसाहिया। णीचागोदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, ज० ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया।तेजाकम्मइयाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जछिदि, विसेसाहिया। सादस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, ज०ट्ठिदि विसेसाहिया । असादस्स जहण्णट्ठिदि विशेष अधिक है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा उतनी मात्र ही है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । देवगतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। देवगतिप्रायोग्यानपूर्वीकी जघन्य स्थिा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नरकगतिकी जघन्य स्थिति-उदीर विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी जघन्यस्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । आहारद्विककी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघ जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। नरकगतिमें सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और नारकायकी जघन्य स्थिति-उदीरणा स्तोक है; जस्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीर और नरकगतिकी जघन्य स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । अयशकीर्तिकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । नीचगोत्रकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। तैजस और कार्मण शरीरकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । असातावेदw.jainelibrary.org Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ) छक्खंडागमे संतकम्म उदीरणा विसेसाहिया, जहण्णढिदि विसेसाहिया। पंचणाणावरण-चउदंसणावरण पंचंतराइयाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जहण्णट्ठिदि विसेसाहिया । हस्सरटीगं जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया, जहण्णद्विदि विसेसाहिया । णवंसयवेदस्स* जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया, जहण्णदिदि विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहण्णद्विदिउदीरणा विसेसाहिया, जहण्णढिदि विसेसाहिया। भय-दुगुंछाणं जहण्णछिदिउदीरणा विसेसाहिया, जहण्णट्ठिदि विसेसाहिया। सोलसणं कसायाणं जहण्णछिदिउदीरणा तत्तिया चेव, तेसि चेव जहण्णछिदिउदीरणा विसेसाहिया । णिहापयलाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जहण्णछिदि विसेसाहिया । एवं णिरयगइजहण्णट्ठिदिउदीरणादंडओ समत्तो। तिरिक्खगईए सम्मत्त-मिच्छत्त-तिरिक्खाउआणं जहण्णठिदिउदीरणा थोवा, जहण्णछिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसरीरणामाए जहण्णट्ठिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा, जहण्णट्ठिदि विसेसाहिया । जसगित्तीए जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जहण्णहिदि विसेसाहिया । अजसगित्तीए जहण्णट्ठिदिउदोरणा विसेसाहिया, जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया।तिरिक्खगइणामाए जहण्णहिदिउदीरणा विसेसाहिया, जहण्णहिदि विसेसाहिया । णीचागोदस्स जहणिया नीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है; ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। हास्य व रतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अरति और शोकको जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सोलह कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा उतनी मात्र ही है, उन्हींकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। निद्रा और प्रचलाकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । इस प्रकार नरकगतिमें जघन्य स्थिति-उदीरणादण्डक समाप्त हुआ। तिर्यंचगतिमें सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और तिर्यंचआयुकी जघन्य स्थिति-उदीरणा स्तोक है, ज-स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक हैं। यशकीर्तिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । अयशकीर्तिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। तिर्यंचगति नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है. ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नीचगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। औदारिक, तैजस और कार्मण * तातो ‘ण समवेदस' इति पाठः। कासो ‘स नगुणा ' इति पाठः। ___ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणियोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १५१ जहण्णदिदितेजा-कम्मइयसरीराणं जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया । सादस्स जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया । असादस्स जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया । पंचणाणावरणीयणवदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया। पुरिसवेदस्स जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्रिदि० विसेसाहिया। हस्स-रदीणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जढिदि० विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया। णवंसयवेदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, एइंदिएसु चेव पडिवक्खबंधगद्धं गालिय जहण्णढिदि उदोरणाविहाणादो। पंचिदियतिरिक्खपडिवक्खबंधगद्धाओ किण्ण गलिदाओ? णवंसयवेदपाओग्गविसोहीए णवंसयवेदे. बज्झामाणे तट्ठिदीए बहुत्तप्पसंगादो । जट्ठिदि० विसेसाहिया । भय-दुगुंछाणं जहण्णट्ठिदिउदोरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया। सोलसकसायाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा सरिसा, जट्ठिदि० विसेसाहिया । इथिवेदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया । कुदो कसायट्ठिदीदो इत्थिवेदह्रिदीए गलिदपडिवक्खबंधगद्धाए विसेसाहियत्तं ? ण, इत्थिवेदोशरीरोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है । सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। असातावेदनीय जघन्य स्थितिकी-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। हास्य व रतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अरति व शोककी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, क्योंकि, एकेन्द्रिय जीवोंमें ही प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके बन्धककालको गला कर जघन्य स्थितिकी उदीरणाका विधान है। शंका- पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके बन्धकाल क्यों नहीं गलते ? समाधान- कारण कि नपुंसकवेदके बन्धयोग्य विशुद्धिके द्वारा नपुंसकवेदके वांधे जानेपर चूंकि उसकी स्थितिके बहुत होनेका प्रसंग आता है, अतएव वे वहां नहीं गलते । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणासे उसकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सोलह कषायोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा समान है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। शंका- कषायस्थितिकी अपेक्षा प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धककालसे रहित स्त्रीवेदकी स्थिति विशेष अधिक क्यों है ? Jain Education Internatio समाधान- नहीं, क्योंकि स्त्रीवेदके उदय युक्त जीवमें स्त्रीवेदके उदयके समुत्पादनार्थ ainelibrary.org Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ) छक्खंडागमे संतकम्म दइल्ले समुप्पायणढं इत्थिवेदविसोहीए इथिवेदेण सह बज्झमाणकसायाणमहियद्विदीदो पडिवक्खबंधगद्धाओ वि बहुत्तुवलंभादो । जट्ठिदि० विसेसाहिया। सम्मामिच्छ-तस्स जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टिदि० विसेसाहिया। उच्चागोदस्स जहपणढिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठिदि० विसेसाहिया। तिरिक्खेसु णीचागोदस्स चेव उदीरणा होदि त्ति सव्वत्थ परूविदं । एत्थ पुण उच्चागोदस्स वि परूवणा परविदा, तेण पुवावरविरोहो त्ति भणिदे- ण, तिरिक्खेसु संजमासंजमं परिवालयंतेसु उच्चागोदत्तुवलंभादो। उच्चागोदे देस-सयलसंजमणिबंधणे संते मिच्छाइट्ठीसु तदभावो त्ति णासंकणिज्ज, तत्थ वि उच्चागोदजणिदसंजमजोगत्तावेक्खाए उच्चागोदत्तं पडि विरोहाभावादो। एवं तिरिक्खगदीए जहण्णढिदिउदीरणादंडओ समत्तो। तिरिक्खणीसु मिच्छत्त-तिरिक्खाउआणं जहण्णटिदिउदीरणा थोवा, जटिदिउदी० असंखेज्जगुणा। जसगित्तीए जहण्णट्ठिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा, जट्ठिदि० विसेसाहिया। अजसगित्तीए जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया। तिरिक्खगइणामाए जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया। णीचागोदस्स स्त्रीवेदके बन्ध योग्य विशुद्धिके द्वारा स्त्रीवेदके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाली कषायों की अधिक स्थितिसे प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका वन्धककाल भी बहुत पाया जाता है । स्त्रीधेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणासे उसकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। उच्चगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । शंका- तिर्यंचोंमें नीचगोत्रकी ही उदीरणा होती है, ऐसी प्ररूपणा सर्वत्र की गयी है। परन्तु यहां उच्चगोत्रकी भी उनमें प्ररूपणा की गयी है, अतएव इससे पूर्वापर कथनमें विरोध आता है ? समाधान- ऐसा कहनेपर उतर देते हैं कि इसमें पूर्वापर विरोध नहीं है, क्योंकि, संयमासंयमको पालनेवाले तिर्यंचोंमें उच्वगोत्र पाया जाता है । यदि उच्चगोत्रके कारण देशसंयम और सकलसंयम हैं तो फिर मिथ्यादृष्टियों में उसका अभाव होना चाहिये ? समाधान- ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है, क्योंकि, उनमें भी उच्चगोत्रके निमित्तसे उत्पन्न हुई संयमग्रहणकी योग्यताकी अपेक्षा उच्चगोत्रके होने में कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार तिर्यंचगतिमें जघन्य स्थिति-उदीरणादण्डक समाप्त हुआ। तिर्यंच स्त्रियोंमें मिथ्यात्व और तिर्यंच आयुकी जघन्य स्थिति-उदीरणा स्तोक है, ज-स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। यशकीर्तिकी जवन्य स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है, ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। अयशकीतिको जवन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है । तियं चगति नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है. ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । नीचगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा - ( १५३ जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि विसेसाहिया। ओरालिय-तेजा-कम्मइयाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि विसेसाहिया। सादस्स जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, ज०ट्ठिदि विसेसाहिया। असादस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जछिदि विसेसाहिया। पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचतराइयाणं जहणिया टिदिउदीरणा विसेसाहिया, ज.हिदि विसेसाहिया। इत्थिवेदस्स जहणिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया, ज०ट्ठिदि विसेसाहिया। हस्स-रदीणं जहण्णिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया, ज.दिदि विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहण्णद्विदिउदीरणा विसेसाहिया, ज.दिदि विसेसाहिया। भय-दुगुंछाणं जहणिया ट्ठिदिउदोरणा विसेसाहिया, ज०ट्ठिदि विसेसाहिया। सोलसणं कसायाणं जहणिया टिदिउदीरणा तत्तिया चेव, जटिदिउदीरणा विसेसाहिया । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, ज०टिदि विसेसाहिया । दसणावरणपंचयस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा ज०टिदि विसेसाहिया। वेउब्वियसरीरणामाए उच्चागोदस्स च जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, ज. द्विदि विसेसाहिया। एवं पंचिदियतिरिक्खजोणिणी० जहण्णट्ठिदिउदीरणादंडओ समत्तो। ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है; ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। असातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदी रणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, जस्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, जस्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। हास्य और रतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सोलह कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा उतनी मात्र ही है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीर नामकर्म और उच्चगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिगतियोंमें जघन्य स्थिति-उदीरणादण्डक समाप्त हुआ। ताप्रतौ — उदीरणसंकमो दंडओ' इति पाठः । Personal use Only Jain Education A nal | Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ) छक्खंडागमे संतकम्म - मणुसगदीए पंचणाणावरणीय-चत्तारिदसणावरणीय-सम्मत्त-मिच्छत्त-चदुसंजलणतिण्णिवेदाउआणं पंचंतराइयाणं जह० टिदिउदीरणा थोवा, जट्टि० उदो० असंखेज्जगुणा। मणुसगइ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-जसगित्ति-उच्चागोदाणं जह० दिदिउदोरणा संखेज्जगुणा, जट्टि० विसेसाहिया। अजसगत्तीए जह० दिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा, जट्ठि० विसेसाहिया। णीचागोदस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। सादस्स जहणिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्रि० विसेसाहिया। असादस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। हस्सरदीणं जहणिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहणिया ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। भय-दुगुंछाणं जहणिया ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। बारसण्णं कसायाणं जहणिया ठिदिउदीरणा तत्तिया चेव, जट्ठि० विसेसाहिया। सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया विदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। दंसणावरणपंचयस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठि० विसेसाहिया। आहारसरीरणामाए जहणिया ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठि० विसेसाहिया। वेउब्वियसरीरस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया । एवं मणुसगईए जहण्णट्ठिदिउदीरणादंडओ समत्तो। मनष्यगतिमें पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, चार संज्वलन, तीन वेद और आयु कर्मोकी तथा पांच अन्तरायकी जघन्य स्थिति-उदीरणा स्तोक है; जस्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। मनुष्यगति, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अयशकीर्तिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नीचगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। असाता वेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। हास्य और रतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा उतनी मात्र ही है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। आहारकशरीर नामकर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । इस प्रकार मनुष्यगतिमें जघन्य स्थिति-उदीरणा-दण्डक समाप्त हुआ। ४ तापतौ ' एवं ' इत्येतत्पदं नास्ति । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे विदिउदीरणा ( १५५ देवगईए सम्मत-मिच्छत-देवाउआणं जहणद्विदिउदीरणा थोवा, जट्टि० उदो० असंखेज्जगुणा । सम्मामिच्छज्जस्स जहण्णटिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा, जट्ठि० विसेसाहिया। देवगइ-वेउब्वियसरीरणामाणं जहण्णढिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्टि० विसेसाहिया । उच्चागोदस्स जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। जसकित्तीए जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० उदी० विसेसाहिया। अजसगित्तीए जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठिदि० विसेसाहिया। तेजा-कम्मइयाणं जहण्णढिदिउदोरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। सादस्स जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि. विसेसाहिया। असादस्स जहणिया टिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, जढि० विसेसाहिया। पुरितवेदस्स जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। हस्स-रदीणं जहण्णद्विदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया । भय-दुगुंछाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया।सोलसणं कसायाणं जहणिया ट्रिदिउदीरणा तत्तिया चेव, जट्ठि० विसेसाहिया। इत्थिवेदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। णिद्दा-पयलाणं जहण्णछिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, देवगतिमें सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और देवायकी जघन्य स्थिति-उदीरणा स्तोक है, जस्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है, ज-स्थिति उदीरणा विशष अधिक है। देवगति और वैक्रियिकशरीर नामकर्मोकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। उच्चगोत्रकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। यशकीर्तिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अयशकी तिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। तैजस और कार्मण शरीरोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। असातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इनकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है; ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। हास्य और रतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सोलह कषायोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा उतनी ही है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। निद्रा और प्रचलाकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगणी है, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ) छक्खंडागमे संतकम्म जट्ठि० विसेसाहिया। देवगईए जहण्णट्ठिदिउदीरणादंडओ समत्तो। . असण्णीसु आउअस्स जहण्णट्टिदिउदीरणा थोवा, जट्ठिदि० उदी० असंखेज्जगुणा। जसगित्तीए जहण्णदिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जढि० विसेसाहिया। तिरिक्खगईए जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। णीचागोदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। ओरालिय-तेजा-कम्मइयाणं जहण्णदिदिउदोरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। अजस गित्तीए जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। सादस्स जहण्णट्ठिदिउदोरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। असादस्स जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्टि० विसेसाहिया। पंचणाणावरणीय-चत्तारिदसणावरणीय-पंचंतराइयाणं जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। पुरिसवेदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेताहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। हस्स-रदीणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। भय-दुगुंछाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया। सोलसकसायाणं जहणिया टिदिउदीरणा तत्तिया चेव, जट्ठि० विसेसाहिया । इत्थिवेदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेसाहिया । णवंसयवेदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया, जट्ठि० विसेज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । देवगतिमें जघन्य स्थिति-उदीरणा-दण्डक समाप्त हुआ। असंज्ञी जीवोंमें आयु कर्मकी जघन्य स्थिति-उदीरणा स्तोक है, ज-स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। यशकीर्तिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। तिर्यंचगतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नीचगोत्रकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है; ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अयशकीर्तिकी स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज. स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। असाताधेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है ; ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। हास्य और रतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सोलह कषायोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा उतनी ही है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नपुंसकवेदकी जवन्य स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक ताप्रतौ ( ज० टुिदि० विसे०- ) इति पाठः । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १५७ साहिया। पंचण्णं दसणावरणीयाणं जहण्णठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठि० विसेसाहिया। असण्णीसु जहण्णट्ठिदिउदीरणादंडओ समत्तो।। भुजगारउदीरणाए अट्ठपदं- अप्पदराओ द्विदीओ उदीरेदूण अणंतरउवरिमसमए बहुदरासु ठिदिसु उदीरिदासु एसा भुजगारउदीरणा। बहुदराओ द्विदीओ उदीरेदूण अणंतरउवरिमसमए थोवासु उदीरिदासु अप्पदरउदीरणा । जत्तियाओ द्विदीओ एण्हि उदोरिदाओ अणंतरउवरिमसमए तित्तियासु चेवउ दीरिदासु एसा अवट्ठिदउदीरणा। अणुदीरएण उदीरिदे भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदउदीरणाहि पुधभूदत्तादो एसा अवत्तव्वउदीरणा । एदमेत्थ अट्ठपदं। संपहि सामित्तं वुच्चदे। भुजगारउदीरओ को होदि ? अण्णदरो। अप्पदर-अवट्ठिद-अवत्तव्वउदीरओ को होदि ? अण्णदरो। णवरि धुवियाणमवत्तव्वउदीरगो पत्थि । एवं सामित्तपरूवणा गदा। एयजीवेण कालो- पंचणाणावरणीयस्स भुजगारउदीरणा केबचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जाणि समयसहस्साणि । एइंदियस्स अप्पिदणाणावरणीयपयडीए उवरि अणप्पिदसंखेज्जसहस्सपयडिट्टिदीणं संकमेण संकंत है। पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है, ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। असंज्ञियों में जघन्य स्थिति-उदीरणा-दण्डक समाप्त हुआ। भुजाकारउदीरणामें अर्थपद- अल्पतर स्थितियोंकी उदीरणा करके आगेके अन्यतर समयमें बहुतर स्थितियोंकी उदीरणा करनेपर यह भुजाकार उदीरणा होती है। बहुतर स्थितियोंकी उदीरणा करके आगेके अनन्तर समयमें स्तोक स्थितियोंकी उदीरणा करनेपर अल्पतर उदीरणा होती है। जितनी स्थितियोंकी इस समय उदीरणा की गयी है आगेके अनन्तर समयमें उतनी ही स्थितियोंकी उदीरणा करनेपर यह अवस्थित उदीरणा होती है। अनुदीरकके द्वारा उदीरणा की जानेपर यह अवक्तव्य उदीरणा कही जाती है, क्योंकि, वह भुजाकार, अल्पतर व अवस्थित उदीरणाओंसे भिन्न है। यह यहां अर्थपद हुआ। अब स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है। भुजाकार उदीरणा करनेवाला कौन होता है ? अन्यतर जीव भुजाकार उदीरक होता है । अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरक कौन होता है ? अन्यतर जीव उनका उदीरक होता है। विशेष इतना है कि ध्रुवोदयी प्रकृतियोंका अवक्तव्य उदीरक नहीं होता। इस प्रकार स्वामित्व प्ररूपणा समाप्त हुई। एक जीवकी अपेक्षा काल-पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी भुजाकार उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे संख्यात हजार समयों तक होती है। एकेन्द्रियके विवक्षित प्रकृतिस्थितिके आगे अविवक्षित संख्यात हजार प्रकृतिस्थितियोंके संक्रमसे संक्रान्त ४ काप्रती 'एसो' इति पाठः। * करणोदय-संताणं पगइहाणेसु सेसगतिगे य । भूयक्कारप्पयरो अवट्रिओ तह अवत्तव्यो । एगादहिगे पढमो एगाईऊणगम्मि बिइओ उ । तत्तियमेतो तइओ पढमे समये अवत्तब्वो ॥ क. प्र. ७, ५१-५२. प्रत्योरुभयोरेव 'दुवियाणमवत्तव्वा उदीरगो' इति पाठः । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ) छक्खंडागमे संतकम्म पयडिमेत्ता ठिदिभुजगारसमथा एइंदिएसु लद्धण पुणो अप्पिदपयडीए * अद्धाक्खएण एक्को, संकिलेसक्खएण सन्वासु वड्ढिदासु अण्णेगो, पुणो सण्णिपंचिदिएसुप्पण्णयस्स विग्गहगदीए असण्णिट्ठिदीए अवरो गहिदसरीरस्स सण्णिट्ठिदीए अण्णेगो, एवं वढिदटिठदीसुकमेणुदीरिज्जमाणासु भुजगाररुदीरणाए कालो संखेज्जाणि समयसहस्साणि। चदुण्णं दंसणावरणीयाणं भुजगारउदीरणा जहण्णेग एगसमओ, उक्कस्सेण बारस समया। तंजहा- एइंदियस्स अणप्पिदअटुपयडोणं जहापरिवाडीए संकमेण अट्ठ भुजगारसमया, पुणो अप्पिदपयडीए अद्धाक्खएण एक्को, संकिलेसक्खएण सव्वासु वढिदासु अण्णेगो, पुणो सण्णीसुप्पण्णस्स विग्गहगदीए अवरो, गहिदसरीरस्स सण्णिट्ठिदीए अण्णगो; एवं बारस समया। पंचण्णं दसणावरणीयाणं भुजगारउदीरणा केवचिरं कालादो होदि? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण णव समया अत्यदो दस समया वा। सादासाद-मिच्छत्ताणं भुजगारउदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि समया। सोलसण्णं कसायागं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एगूणवीस समया। णवणं णोकसायाणं भुजगारउदीरणा जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण अट्ठावीससमया। अत्थदो एगूणवीस समया दीसंति । हुई प्रकृतियोंके बराबर स्थितिभुजाकार समयोंको एकेन्द्रियोंमें प्राप्त करके पश्चात् विवक्षित प्रकृतिके अद्धाक्षयसे एक, संक्लेशक्षयसे सबके वृद्धिको प्राप्त होनेपर अन्य एक समय, पुनः संज्ञी पंचन्द्रियों में उत्पन्न होनेपर विग्रहगतिमें असंज्ञी स्थितिका अन्य एक समय, शरीरके ग्रहण कर लेनेपर संज्ञी स्थितिका अन्य एक समय, इस प्रकार वृद्धिप्राप्त स्थितियोंकी क्रमसे उदीरणा करनेपर भजाकार उदीरणाका काल संख्यात हजार समय प्रमाण होता है। चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण प्रकृतियोंकी भुजाकार उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे बारह समय तक होती है। वह इस प्रकारसे- एकेन्द्रियके अविवक्षित आठ प्रकृतियोंके परिपाटी अनुसार संक्रमण द्वारा आठ भुजाकार समय, पुनः विवक्षित प्रकृतिके अद्धाक्षयसे एक समय, संक्लेशक्षयसे सब प्रकृतियोंके वृद्धिंगत होनेपर अन्य एक समय, पुनः संज्ञियोंमें उत्पन्न होनेपर विग्रहगतिमें एक, शरीरके ग्रहण कर लेनेपर संज्ञी स्थितिका अन्य एक समय ; इस प्रकार उपर्युक्त बारह समय प्राप्त होते हैं। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी भुजाकार उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे नौ समय अथवा अर्थतः दस समय होती है । साता व असाता वेदनीय तथा मिथ्यात्वकी भुजाकार उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय तक होती है। सोलह कषायोंकी भुजाकार उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे उन्नीस समय होती है। नौ नोकषायोंकी भुजाकार उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अट्ठाईस समय होती है । अथवा अर्थतः उसके उन्नीस समय दिखते हैं । क'प्रतौ 'समयासु एईदिएसु', ताप्रती 'पपया (सु) एइंदिएसु' इति पाठः । ताप्रती 'अणप्पिदयडीए' इति पाठः । .ताप्रतौ 'डिदेसु ट्रिदीसु' इति पाठः। * काप्रती 'दसणावरणीय' ताप्रती 'दंसणावरणीय (याणं)' इति पाठः । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १५९ आउआणं भुजगारउदीरणा णत्थि । णामाणमण्णदरपयडीए भुजगारउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जाणि समयसहस्साणि। उच्चागोद-णीचागोदाणं भुजगारउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण पंच समया। अत्थदो चत्तारि समया दीसंति। पंचण्णमंतराइयाणं भुजगारउदीरणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अट्ठ समया। पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीयाणं णामम्हि धुवोदयपयडीणं पंचंतराइयाणं च अप्पदरउदीरणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे-छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि। पंचण्णं दसणावरणीयाणमप्पदरउदीरणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं। सादस्स अप्पदरउदीरणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासे समऊणे । असादस्स अप्पदरउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण सम्माविट्ठीसु असंजदेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एदेसि पुवुत्तसव्वकम्माणमवठ्ठियस्स कालो जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । मिच्छत्तअप्पदरउदीरणा जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। अवट्ठिदउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । सम्मत्तस्स भुजगारो अवट्ठिदो जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। अप्पदरउदीरणा जहण्णण अंतोमुत्तं, आयु कर्मोंकी भुजाकार उदीरणा नहीं होती। नाम कर्मकी प्रकृतियोंमें अन्यतर प्रकृतिकी भुजाकार उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात हजार समय तक होती है। उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी भजाकार उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पांच समय होती है। अर्थतः उसके चार समय दीखते है। पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी भुजाकार उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आठ समय होती है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, नामकर्मकी ध्रुवोदयी प्रकृतियों तथा पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी अल्पतर उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम काल तक होती है। पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी अल्पतर उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त तक होती है। सातावेदनीयकी अल्पतर उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम छह मास तक होती है । असाता वेदनीयकी अल्पतर उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंयत सम्यग्दृष्टियोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक होती है। पूर्वोक्त इन सब कर्मोकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। मिथ्यात्वकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी भुजाकार और अवस्थित उदीरणाओंका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उसकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे.. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ) छक्खंडागमे संतकम्म उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि। सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अवट्ठिदउदीरणाओ पत्थि । अप्पदरउदीरणा जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुत्तं । सोलसण्णं कसायाणं भय-दुगंछाण च अप्पदरउदीरणा अवट्रिदउदीरणा च जहण्णण एंगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । जहा असादस्स तहा अरदि-सोगाणं । जहा सादस्स तहा हस्स-रदीणं । णवंसयवेदस्स अप्पदरउदीरणा जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । अवट्ठिदउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं इत्थिवेदस्स अप्पदरउदीरणा जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण पणवण्णपलिदोवमाणि सादिरेयाणि। अवविदउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । पुरिसवेदस्स अप्पदरउदीरणा जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण बे-छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्ठिदउदीरणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । कुढो? एदासु पयडीसु बज्झमाणासु कसायअवट्ठिदबंधस्स अंतोमुत्तमेत्तकालुवलं नादो। आउआणमप्पदरउदीरणा जहष्णेण सग-सगजहण्णट्ठिदी समयाहियावलियाए ऊणा। णवरि मगुस्साउअस्स एयो समयो। उक्कस्सेण सग-सगउक्कस्सटिदी समयाहियावलियाए हीणा। अन्तर्महर्त और उत्कर्षसे कुछ कम छयासठ सागरोपम प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजाकार और अवस्थित उदीरणा नहीं होती। उसकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ___ सोलह कषायोंकी तथा भय व जुगुप्साकी अल्पतर उदीरणा और अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। जिस प्रकार असातावेदनीयकी इन प्रकृत उदीरणाओंके कालकी प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार अरति व शोक की उक्त उदीरणाओंके कालकी प्ररूपणा करना चाहिये। जिस प्रकार सातावेदनीयकी उन उदीरणाओंके कालकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार हास्य व रतिकी भी उन उदी रणाके कालकी प्ररूपणा करना चाहिये । नपुंसकवेदकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। स्त्रीवेदकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक पचवन पल्य प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। पुरुषवेदकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त मात्र है। इसका कारण यह है इन प्रकृतियोंके बंधनेपर कषायके अवस्थित बन्धका अन्तर्मुहुर्त मात्र काल पाया जाता है। आयु कर्मोंकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय अधिक आवलीसे हीन अपनी अपनी जघन्य स्थिति है। विशेष इतना है कि मनुष्यायुकी उक्त उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है। उनकी उपर्युक्त उदीरणाका काल उत्कर्षसे एक समय अधिक आवलीसे हीन अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। ४ काप्रतो 'खया' इति पाठः। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १६१ णिरयगईए अप्पदरउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊणाणि । अवट्ठियस्स जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण समऊणावलिया। तिरिक्खगईए अप्पदरउदीरणा जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्ठिदउदीरणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । मणुसगईए अप्पदरउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अवठ्ठिदउदीरणा जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देवगईए णिरयगइभंगो । सेसाणं पि णामाणं जाणिदूण णेयव्वं । णीचागोदस्स अप्पदरउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि। अवट्ठिदउदीरणा जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । उच्चागोदस्स अप्पदरउदीरणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे-छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि । अवट्ठिदउदीरणा जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवमेयजीवेण कालो समत्तो। एयजीवेण अंतरं कालादो साधेदूण भाणियव्वं । णाणाजीवेहि भंगविचओ- जे जं पडि वेदंति तेसु पयदं । अवेदएहि अव्ववहारो। णाणावरणीयपंचयस्स भुजगारअप्पदर-अवट्ठिदउदीरया णियमा अत्थि। सव्वाओ पयडीओ णाणाजीवेहि एवं जाणि नरकगति नामकर्मकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम आवली प्रमाण है। तिर्यग्गति नामकर्मकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तीन पल्योपम प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। मनुष्यगतिकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तीन पल्य प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। की प्ररूपणा नरकगतिके समान है। शेष नामकर्मोकी भी उक्त उदीरणाओंके कालकी प्ररूपणा जानकर ले जाना चाहिये। नीचगोत्रकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है। ऊंच गोत्रकी अल्पतर उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम दो छयासठ सागरोपम प्रमाण है। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा कालसे सिद्ध करके कहलाना चाहिये। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- जो जीव जिस प्रकृतिका वेदन करते हैं वे प्रकृत हैं। अवेदकोंका व्यवहार नहीं है। पांच ज्ञानावरणीयके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे हैं। इसी प्रकारसे , ४ काप्रती 'देवगईए णिरयगई सेसाणं', ताप्रती 'देवगईए णिरयगईए सेसाणं' इति पाठः । * अ-आ प्रत्योः 'सादिरेयाणि ' इति पाठः। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ) छक्खंडागमे संतकम्म दूण भाणिदवाओ। णाणाजीवेहि कालो अंतरं च जाणिदूण भाणिदव्वं । अप्पाबहुगं- सव्वत्थोवा णाणावरणपंचयस्स भुजगारउदीरया जीवा, अवट्टिदउदीरया संखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा। एवं चत्तारिदसणावरणीयपंचंतराइयाणं धुवोदयणामपयडीणं च वत्तव्वं । सव्वत्थोवा णिहाए भुजगारउदीरया, अवत्तव्वउदीरया संखेज्जगुणा, अवविदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा । एवं सेसचदुण्णं दंसणावरणोयाणं । सादासादाणं णिद्दाभंगो । मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया, भुजगारउदीरया अणंतगुणा, अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया असंखेज्जगुणा। सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा अवट्ठिदउदीरया, भुजगारउदीरया असंखेज्जगुणा, अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया असंखेज्जगुणा। सम्मामिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया अप्पदरउदीरया असंखेज्जगुणा। सोलसण्णं कसायाणमण्णदरस्स कसायस्स सव्वत्थोवा भुजगारउदीरया, अवत्तव्वउदीरया संखेज्जगुणा, अवविदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा । एवं हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं । इत्थि-पुरिसवेदाणं सव्वत्थोवा सब प्रकृतियोंके. विषयमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका कथन जानकर करना चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अन्तरका कथन भी जानकर करना चाहिय । ___ अल्पबहुत्व- पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंके भुजाकार उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं, उनसे अवस्थित उदीरक संख्यातगुणे हैं, उनसे अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय और ध्रुवोदयी नामप्रकृतियोंके विषयमें भी प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। निद्रा दर्शनावरणके भुजाकार उदीरक सबसे स्तोक हैं, उनसे अवक्तव्य उदीरक संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, उनसे अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार शेष चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके विषय में प्रकृत अल्पबहुत्व कहना चाहिये । साता व असाता वेदनीयकी प्रकृत अल्पबहुत्वप्ररूपणा निद्रा दर्शनावरणके समान है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, भुजाकार उदीरक उनसे अनन्तगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वके अवस्थितउदीरक सबसे स्तोक हैं, भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, अल्प तर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। सोलह कषायोंमें अन्यतर कषायके भुजाकार उदीरक सबसे स्तोक हैं, अवक्तव्य उदीरक संख्यातगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर-उदीरक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साके विषयमें इस अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । स्त्री और पुरुष वेदके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, ४ ताप्रतौ 'अवत्तव्वउदीरया, ( अप्पदरउदीरया) असंखे० गुणा, भुजागारउदीरया अणंतगुणा, अवट्रिद उदीरया असंखेज्जगणा। सम्पत्तस्स' इति पाठः।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १६३. अवत्तव्वउदीरया भुजगारउदीरया संखेज्जगुणा। अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा। णवंसयवेदस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया, भुजगारउदीरया अणंतगुणा, अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा। ____ आउआणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया, अप्पदरउदीरया असंखेज्जगुणा। णिरयगइणामाए सव्वत्थोवा भुजगारउदीरया, अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा, अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा। मणुसगइणामाए सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया, भुजगार उदीरया संखेज्जगुणा, अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा। जहा णवंसयवेदस्स तहा तिरिक्खगइणामाए। देवगईए णिरयगइभंगो। ओरालियसरीरणामाए सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया, भुजगारउदीरया असंखेज्जगुणा, अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा। वेउव्विविवयसरीरणामाए देवगदिभंगो। संठाण-संघडणाणं ओरालियसरीरभंगो। णिरयाणुपुन्वीणामाए सव्वत्थोवा भुजगारउदीरया, अवद्विदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा, अवत्तव्वउदीरया विसेसाहिया। एवं मणुस-देवाणुपुव्वीणं । तिरिवखाणुपुव्वीणामाए सव्वत्थोवा भुजगारउदीरया, अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अवत्तव्वउदीरया संखेज्जगुगा, अप्पदरउदीरया विसेसाहिया। उवघादभुजाकार उदीरक संख्यातगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदके अवक्तव्य उदी रक सबसे स्तोक हैं, भुजाकार उदीरक अनन्तगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। आयु कर्मोके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। नरकगति नामकर्मके भुजाकार उदीरक सबसे स्तोक हैं, अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगुण हैं। मनुष्यगति नामकर्मके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, भुजाकार उदीरक संख्यातगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। जैसे नपुंसकवेदके विषयमें प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही तिर्यंचगति नामकर्मके विषयमें भी उसे करना चाहिये । देवगतिकी प्रकृत प्ररूपणा नरकगतिके समान है । औदारिकशरीर नामकर्मके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुण हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी यह प्ररूपणा देवगतिके समान है। संस्थानों और संहननोंकी यह प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान है। नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकके भुजाकार उदीरक सबसे स्तोक हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगणे हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगणे हैं, अवक्तव्य उदीरक विशेष अधिक हैं। इसी प्रकारसे मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विषयमें प्रकृत प्ररूपणा करना चाहिये । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मके भुजाकार उदीरक सबसे स्तोक हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अवक्तव्य उदीरक संख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक विशेष अधिक हैं। ४ ताप्रती 'सव्वस्थोवा अवत्तव्ध उदीरया, भजगार. असंखे० गुणा, अवद्विद०' इति पाठः। Jain Education international For Poate & Personal use only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ) छक्खंडागमे संतकम्म परघाद-उस्सास--आदावुज्जोव--पसत्थापसत्थविहायगदि-तस-बादर-सुहुम--पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारण-सुहदुहपंचय-उच्चागोदाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया, भुजगारउदीरया असंखेज्जगुणा, अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा। अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा। थावर-णीचागोदाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदोरया, भुजगारउदीरया अणंतगुणा, अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा, अप्पदर उदीरया संखेज्जगुणा। सेसअवुत्तपयडीणं पि जाणिऊण भाणियव्वं । एवं भुजगारो समत्तो। पदणिक्खेवो वुच्चदे- सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । कुदो ? उक्कस्सटिदिखंडयग्गहणादो। उक्कस्सिया वड्ढी अवट्ठाणं च विसेसाहिया। कुदो ? उक्कस्सटिदिखंडयादो द्विदिवंधुक्कस्सवड्ढीए विसेसाहियदंसादो। जहणिया वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च तिण्णि वि तुल्लाणि, एगढिदिपमाणत्तादो। वड्ढि-उदीरणाए सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च जाणिदूण कायव्वं । - अप्पाबहुअ कीरदे । तं जहा- सव्वत्थोवा णाणावरणीयस्स असंखेज्जगुणहाणिउदीरया । संखेज्जगुणहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया अणंतगुणा । अवट्ठिदउदीरया संखेज्जगुणा। उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, सुह-दुहपंचक ( सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय और यशकीर्ति ) और ऊंच गोत्र; इनके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। स्थावर और नीचगोत्रके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं, भुजाकार उदीरक अनन्तगुणे हैं, अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं, अल्पतर उदीरक संख्यातगुणे हैं। यहां जिन शेष प्रकृतियोंका उल्लेख नहीं किया गया है उनके विषयमें भी उपर्युक्त अल्पबहुत्वका जानकर कथन करना चाहिये। इस प्रकार भुजाकार समाप्त हुआ। पदनिक्षेपका कथन करते हैं- उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिकांडकका ग्रहण है। उत्कृष्ट वृद्धि व अवस्थान विशेष अधिक हैं, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिकांडककी अपेक्षा स्थितिबन्धकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक देखी जाती है। जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान ये तीनों ही समान हैं; क्योंकि, वे एक स्थिति प्रमाण हैं। वृद्धिउदीरणाके स्वामित्व, काल, अन्तर और नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल तथा अन्तरका कथन जानकर करना चाहिये। अल्पबहत्वका कथन किया जाता है। वह इस प्रकार है- ज्ञानावरणीयकी असंख्यातगुणहानिके उदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणहानिके उदीरक असंख्यातगणे हैं। संख्यातभागहानिके उदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिके उदीरक अनन्तगुणे हैं। अवस्थितउदीरक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिके उदीरक संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार पांच ज्ञानावरणीय, ४ मप्रतौ 'सखेज्जभागवडिउदीरया असंखे० गुणा संखेज्जभागवड्डिउदीरया संखेज्जगुणा असंखेज्नभागवड्डिउदीरया असंखेज्जगुणा' इति पाठः। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १६५ असंखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । एवं पंचणाणावरणीय-चउदसणावरणीयपंचंतराइयाणं धुवउदीरणासव्वणामपयडीणं च वत्तव्वं । __णिद्दाए वेदओ टिदिघादं ण करेदि। णिहाए वेदओ दिदिबंधं बंधदि । असादस्स चउढाणियजवमज्झादो संखेज्जगुणहीणं अंतोकोडाकोडीए हेढदो बंधतो वि सादस्स तिढाणिय-चदुढाणियाणि ण बंधदि, दुढाणियाणि चेव बंधदि । एवं णिद्दाटिदिउदीरणावड्ढिअप्पाबहुअस्स साहणं भणिदं । अप्पाबहुअं। तं जहा- सव्वत्थोवा णिदाए संखेज्जभागवढिउदीरया। संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया अणंतगुणा । अवत्तव्वउदीरया संखेज्जगुणा। अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । एवं पयला-णिद्दाणिद्दापयलापयला-थीणगिद्धीणं पि वत्तव्वं । सव्वत्थोवा सादस्स संखेज्जगुणहाणिउदीरया। संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । संखेज्जगुवणढिउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया अणंतगुणा । अवत्तव्वउदीरया संखेज्जगुणा । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । असाद-सोलसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोगभय-दुगुंछाणं सादभंगो। णवरि चदुसंजलणाणमसंखेज्जगुणवड्ढि-हाणिउदीरया चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय और ध्रुव उदीरणावली सब नामप्रकृतियोंके विषयमें प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये ।। निद्राका वेदक स्थितिघातको नहीं करता है। निद्राका वेदक स्थितिबन्धको बांधता है। वह असातावेदनीयके चतु:स्थानिक यवमध्यसे संख्यातगुणे हीन अन्तःकोडाकोडिके नीचे बन्धको बांधता हुआ भी सातावेदनीयके त्रिस्थानिक व चतूस्थानिक स्थितिबन्धको नहीं बांधता है, किंतु उसके द्विस्थानको ही बांधता है। यह निद्राकी स्थिति-उदीरणावृद्धिके अल्पबहुत्वका साधन कहा है। उसका अल्पबहुत्व कहा जाता है। यथा- निद्राके संख्यातभागवृद्धिउदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणवृद्धिके उदीरक असंख्यातगणे हैं। असंख्यातभागवद्धि उदीरक अनन्तगुणे हैं। अवक्तव्यउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवस्थित उदीरक असख्यातगणे हैं। असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकारसे प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगृद्धिके विषयमें भी प्रकृत अल्पबहुत्व कहना चाहिये। सातावेदनीयके संख्यातगुणहानिउदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिउदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागवद्धिउदीरक अनन्तगुणे हैं। अवक्तव्यउदीरक संख्यातगणे हैं। अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुण हैं। असातावेदनीय, सोलह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी यह प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। विशेष इतना है कि चार संज्वलन कषायोंके असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि Jain Education unापती ' एवं ' इति पाठः। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ) वि अत्थि । ते एत्थ ण विवक्खिया । मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया । संखेज्जगुणहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जगुणवड्ढि उदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढि उदीरया संखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढि उदीरया अणंतगुणा । अवद्विदउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया । असंखेज्जभागहाणिउदीरया असंखे-ज्जगुणा । सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जभागहाणिउदीरया । अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । एदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागछेदणएहि ओवट्टिदसम्मत्तपवेसणरासिपमाणं । संखेज्जगुणहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । कुदो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागच्छेदणएहि ओवट्टपसम्मत्तपवेसणरासिपमाणत्तादो। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा । कुदो ? सम्मत्तपवेसणरासिगहणादो । संखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वउदीरया णाम एगसमयपवेसया, संखेज्जभागहाणिउदीरया पुण सव्वो पविट्ठरासी अंतोमुहुत्तस्संतो संखेज्जवारं संखेज्जभागवड्ढिखंडयघादओ, तेण संखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्ज - गुणा । असंखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । छक्खंडागमे संतकम्मं उदीरक भी होते हैं । परन्तु उनकी यहां विवक्षा नहीं की गयी है । मिथ्यात्वके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं । संख्यातगुणहानिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । संख्यात भागहानिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणवृद्धिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । संख्यात भागवृद्धिउदोरक संख्यातगुणे हैं । असंख्यात भाहानिउदीरक अनन्तगुणे हैं । अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात भागवृद्धिउदीरक अनन्तगुणे हैं । सम्यग्मिख्यात्वके अवक्तव्य उदीरक सबसे स्तोक हैं । असंख्यात भागहानि उदीरक असंख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व प्रकृतिके असंख्यात भागगुणहानिउदीरक सबसे स्तोक हैं । अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । संख्यात गुणवृद्धिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । संख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं । ये पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र अर्धच्छेदोंसे अपवर्तित सम्यक्त्वमें प्रविष्ट होनेवाले जीवोंकी राशि प्रमाण हैं । संख्यातगुणहानिउदीरक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे आवलिके असंख्यातवें भाग मात्र अर्धच्छेदोंसे अपवर्तित सम्यवत्वमें प्रविष्ट होनेवाले जीवों की राशि प्रमाण है । अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, यहां सम्यक्त्व में प्रविष्ट होनेवाले जीवोंकी राशिका ग्रहण है । संख्यात भागहानिउतीरक असंख्यातगुणे हैं । इसका कारण यह है कि अवक्तव्यउदीरक एक समय में प्रविष्ट होनेवाले जीव हैं, परन्तु संख्यातभागहानिउदीरक अन्तर्मुहूर्त के भीतर संख्यात वार संख्यातभागवृद्धिकाण्डकोंकी घातक सब प्रविष्ट राशि है । इसलिये संख्यात भागहानिउदीरक उनसे संख्यातगुणे हैं । असंख्यात भागहानिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १६७ इत्थिवेदस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिउदीरया। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । संखेज्जगुणवड्ढीए संखेज्जगुणा। संखेज्जगुणहाणीए संखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणीए उदीरया संखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढीए उदीरया संखेज्जगुणा। अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। पुरिसवेदस्स इथिवेदभंगो। णवरि असंखेज्जगुणवड्ढिउदीरया वि अस्थि, ते एत्थ ण विवक्खिया। गंथाहिप्पाओ जाणिय वत्तव्वो। णवंसयवेदस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिउदीरया। संखेज्जगुणहाणीए असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणीए उदीरया संखेज्जगुणा। कुदो? असण्णिपंचिदिय-बीइंदिय-बीइंदिय-चरिदियेसु सण्णिपंचिदियेसु च संखेज्जभागहाणीए संभवुवलंभादो। संखेज्जगुणवड्ढोए असंखेज्जगुणा। संखेज्जभागवड्ढीए उदीरया संखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढीए अणंतगुणा । अवट्ठिदउदीरहा असंखेज्जगुणा । असंसंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। देव-णिरयाउआणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया। असंखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा। तिरिक्ख-मणुस्साउआणं चत्तारि पदाणि, तेसि जाणिय वत्तव्वं । णिरयगईए सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्ढीए उदीरया। संखेज्जगुणहाणिउदीरया संखेज्जगुणा*। संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा। संखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया स्त्रीवेदके असंख्यातगुणहानि उदीरक सबसे स्तोक हैं, । अवक्तव्य उदीरक असंख्यागुणे हैं । संख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिके उदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणहानिके उदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदकी यह प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है। विशेष इतना है कि उसके असंख्यातगुणवृद्धिउदीरक भी हैं। किन्तु उनकी विवक्षा यहां नहीं की गयी है। ग्रन्थके अभिप्रायका जानकर कथन करना चाहिये । नपुंसकवेदके असंख्यातगुणहानिउदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणहानिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यउदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिके उदीरक संख्यातगुण हैं। कारण यह कि असंज्ञी पंचेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय तथा संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें संख्यातभागहानिकी सम्भावना पायी जाती है । संख्यातगुणवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिके उदीरक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धि के उदीरक अनन्तगुणे हैं । अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागहानिके उदीरक संख्यातगुणे है। देवायु और नारकायुके अवक्तव्य उदी रक सबसे स्तोक हैं। असंख्यातभागहानिउदीरक असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचायु और मनुष्यायुके चार पद हैं, उनका जानकर कथन करना चाहिये । नरकगतिनामकर्मके संख्यातगुणवृद्धि के उदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिउदीरक ४ काप्रतौ ' असखेज्जगुणहाणि', ताप्रती 'असंखे० । गणा) गणहाणि' इति पाठः । * क प्रतौ ' सब्वत्थोषा संखेज्जगुणवड्ढीए उदीरया संखेनगुणा' इति पाठः । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ) छक्खंडागमे संतकम्म संखेज्जगुणा। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। अवठ्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा, संखेज्जवासाउअरासीए पाहणियादो। देवगदिणामाए णिरयगइभंगो। तिरिक्खगइणामाए सव्वत्थोवा संखेज्जगुणहाणीए उदीरया। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। संखेज्जगुणवड्ढीए असंखेज्जगुणा। संखेज्जभागवड्ढीए संखेज्जगुणा। असंखेज्जभागवड्ढोए अणंतगुणा । अवविदउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। मणुसगदीए सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणीए उदीरया। संखेज्जगुणहाणिउदीरआ संखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा। संखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । अवद्विदउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। ओरालियसरीरस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणीए उदीरया। संखेज्जगुणहाणीए असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागहाणीए असंखेज्जगुणा । संखेज्जगुणवड्ढीए असंखेज्जगुणा। संखेज्जभागवडूढीए संखेज्जगुणा । अवत्तव्वउदीरया अणंतगुणा। असंखेज्जभागवड्ढीए संखेज्जगुणा । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा । वेउव्वियसरीरस्स णिरयगइभंगो। आहारसरीरस्स असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यउदीरक असंख्यातगुणे हैं। अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, यहां संख्यातवर्षायुष्क राशिकी प्रधानता है। देवगति नामकर्मकी यह प्ररूपणा नरकगतिके समान है। तिर्यंचगति नामकर्मके संख्यातगुणहानि उदीरक सबसे स्तोक हैं । अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगणे हैं। संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धि उदीरक असंख्यातगणे हैं। संख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धिउदीरक अनन्तगुणे हैं। अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागहानिके उदीरक संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति नामकर्म के असंख्यातगुणहानिके उदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं । अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिके उदीरक संख्यातगुणे हैं। औदारिकशरीरके असंख्यातगुणहानिउदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणहानिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिके उदीरक संख्यातगुणे हैं । अवक्तव्यउदीरक अनन्तगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिके उदीरक संख्यातगुणे हैं। अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिकशरीरकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है । आहारकशरीरके अवक्तव्यउदीरक सबसे स्तोक हैं। असंख्यातभागहानिके उदीरक संख्यातगुणे काप्रतावतः प्राक् ‘संखेज्जगुणा' इत्येतदधिक पदमुपलभ्यते । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १६९ सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया। असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा । ओरालियसरीरअंगोवंगस्स सम्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणीए उदीरया । संखेज्जगुणहाणीए असंखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणीए असंखेज्जगुणा । संखेज्जगुणवड्ढीए असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढीए संखेज्जगुणा । अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागवड्ढीए संखेज्जगुणा । अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। आहारसरीरअंगोवंगस्स आहारसरीरभंगो। वेउव्वियसरीरअंगोवंगस्स वेउव्वियसरीरभंगो। समचउरससंठाणस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणी०। ( संखेज्जगुणहाणी० ) असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढीए असंखेज्जगुणा। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। संखेज्जगुणवड्ढोए संखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढीए संखेज्जगुणा। अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। णग्गोहपरिमंडलसंठाणस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिउदीरया। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढीए संखेज्जगुणा। संखेज्जगुणवड्ढीए संखेज्जगुणा। संखेज्जगुणहाणीए संखेज्जगुणा। संखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। असंखेज्जभागवड्ढीए संखेज्जगुणा। अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणीए संखेज्जगुणा। एवं सादिय-वामण-कुज्जसंठाणाणं। हुंडसंठाणस्स ओरालियसरीरभंगो। हैं। औदारिकशरीरअंगोपांगके असंख्यातगुणहानिके उदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणहानिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिउदीरक असंख्यातगुण हैं। संख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यउदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानि उदीरक संख्यातगुणे हैं। आहारकशरीरअंगोपांगकी प्ररूपणा आहारकशरीरके समान है। वैक्रियिकशरीरअंगोपांगकी प्ररूपणा वैक्रियिकशरीरके समान है। समचतुरस्रसंस्थानके असंख्यातगुणहानिउदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातगुणहानिउदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं । अवक्तव्यउदीरक असंख्यातगणे हैं। संख्यातगणवृद्धिउदीरक संख्यातगणे हैं। संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थानके असंख्यातगुणहानिउदीरक सबसे स्तोक हैं । अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणहानि उदीरक संख्यातगणे हैं। संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धि उदीरक संख्यातगुणे हैं। अवस्थितउदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार स्वाति, वामन और कुब्जक संस्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । हुण्डकसंस्थानकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान है। वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननकी प्ररूपणा न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थानके समान है। शेष संहननोंकी ४ ताप्रती ' असंखे० (गुणा-)' इति पाठः। * काप्रतौ 'सव्वत्थोवा असखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणा', ताप्रतौ 'सव्वत्थोवा असंखे० गुणहाणी० असंखे० गुणा ?' इति पाठः । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ) छक्खंडागमे संतकम्म वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणस्स णग्गोहपरिमंडलसंठाणभंगो। सेसाणं संघडणाणं पि णग्गोहपरिमंडलसंठाणभंगो। णवरि असंखेज्जगुणहाणी णत्थि । णिरयदेवाणुपुव्वीणं सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया । संखेज्जभागवड्ढीए असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागवड्ढीए असंखेज्जगुणा हेदुणा। उवदेसेण पुण संखेज्जगुणा । अवविदउदीरया असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । अवत्तत्वउदीरया विसेसाहिया। मणुस्साणुपुटवीए देवाणुपुव्वीभंगो। तिरिक्खाणुपुटवीए सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्ढीए उदीरया। संखेज्जभागवड्ढीए असंखेज्जगुणा। असंखेज्जभागवड्ढीए अणंतगुणा। अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा। अवत्तव्वउदीरया संखेज्जगुणा। असंखेज्जभागहाणीए विसेसाहिया। एदेण बीजपदेण सेसाओ वि पयडीओ जाणिदूण भाणिदव्वाओ। एवं ट्ठिदिउदीरणा समत्ता। एत्तो अणुभागउदीरणा दुविधा- मूलपयडिउदीरणा उत्तरपयडिउदीरणा चेदि। तत्थ मूलपयडिउदीरणा जाणिदूण भाणिदव्वा। उत्तरपयडिउदीरणाए पयदं- तत्थ इमाणि चउवीस अणुयोगद्दाराणि । तं जहा- सण्णा, सव्वउदारणा, णोसव्वउदीरणा, उक्कस्सउदीरणा, अणुक्कस्सउदीरणा, जहण्णउदीरणा, अजहण्णउदीरणा, सादिउदीरणा, अणादिउदीरणा, धुवउदीरणा, अर्धवउदीरणा, एगजीवेण सामित्तं, कालो, अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ, भागाभागाणुगमो, परिमाणं, खेत्तं, फोसणं, णाणाजीवेहि कालो, भी प्ररूपणा न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थानके समान है। विशेष इतना है कि उनके असंख्यातगुणहानि नहीं है। नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके संख्यातगुणवृद्धि उदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातभागवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं। किन्तु वे हेतुपूर्वक उपदेशसे संख्यातगुणे हैं। अवस्थितउदीरक असंख्यातगुण हैं । संख्यातभागहानिउदीरक संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्य उदीरक विशेष अधिक है । मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी प्ररूपणा देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके समान है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी के संख्यातगुणवृद्धिउदीरक सबसे स्तोक हैं। संख्यातभागवृद्धिके उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धिके उदीरक अनन्तगुणे हैं। अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यउदीरक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानि उदीरकके विशेष अधिक है । इस बीजपदसे शेष प्रकृतियोंकी भी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार स्थिति-उदीरणा समाप्त हुई। यहा अनुभागउदीरणा मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृति उदीरणाके भेदसे दो प्रकारकी है। इनमें मूलप्रकृतिउदीरणाका कथन जानकर करना चाहिये। उत्तरप्रकृतिउदीरणा प्रकृत है- उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार हैं। यथा- संज्ञा, सर्व उदीरणा, नोसर्वउदीरणा, उत्कृष्टउदीरणा, अनुत्कष्टउदीरणा, जघन्य उदीरणा, अजघन्य उदीरणा, सादिउदी रणा, अनादिउदीरणा, ध्रुव उदीरणा, अध्रुवउदीरणा, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिणाम, क्षेत्र, स्पर्शन, ४ काप्रतौ ' होदुणा उवदेसेण' ताप्रती 'होदु णा ? उवदेसेण ' इति पाठः । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभाग उदीरणा ( १७१ अंतरं, भावो, अप्पाबहुअं, सण्णियासो चेदि। एदाणि भणिदूण पुणो भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी ठाणं च? वत्तव्वं । तत्थ ताव सण्णा वुच्चदे। सा दुविहा घादिसण्णा टाणसण्णा चेदि । तत्थ घादिसण्णा उच्चदे। तं जहा-आभिणिबोहिय-सुदणाणावरणीयाणमुक्कस्सा सव्वघादी, अणुक्कस्सा सव्वघादी वा देसघादी वा। ओहि-मणपज्जवणाणावरणीयाणमुक्कस्सा सव्वघादी, अणुक्कस्सा सव्वघादी वा देसघादी वा। केवलणाणावरणीयस्स उक्कस्सा अणुक्कस्सा च उदीरणा सव्वघादी। अचक्खुदंसणावरणीयस्स उक्कस्सा अणुक्कस्सा च देसघादी। चक्खु-ओहिदसणावरणीयाणमुक्कस्सा सव्वघादी, अणुक्कस्सा सव्वघादी वा देसघादी वा। केवलदसणावरण-णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थोणगिद्धि-णिद्दा-पयलाणमुक्कस्सा अणुक्कस्सा च सव्वघादी। सादासादाउचउक्कस्स सव्व णामपयडीणं उच्चाणीचागोदाणं उक्कस्सा अणुक्कस्सा च उदीरणा अघादी सव्वघादिपडिभागो। मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसायाणमुक्कस्सा अणुक्कस्सा च सव्वघादी। सम्मत्तस्स पंचंतराइयाणं उदीरणा उक्कस्सा अणुवकस्सा च देसघादी। चदुसंजलण-णव-णोकसायाणमुदीरणा उक्कस्सा सव्वघादी, अणुक्कस्सा सव्वघादी वा देसघादी वा। जेसिकम्माणमुदीरणाए देसघादित्तं सव्वघादित्तं च संभवदि तेसिं नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व और संनिकर्ष । इनकी प्ररूपणा करके पश्चात् भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थानका कथन करना चाहिए। उनमें पहिले संज्ञाका कथन करते हैं । वह दो प्रकारकी है- घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा। उनमें घातिसंज्ञाकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- आभिनिबोधिकज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा सर्वघाती तथा अनुत्कृष्ट अणुभागउदीरणा सर्वघाती और देशघाती है। अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरणकी उत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती और देशघाती है। केवलज्ञानावरणकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती है। अचक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणा देशघाती है। चक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाति और देशघाति है । केवलदर्शनावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि निद्रा और प्रचलाकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाति है। साता व असाता वेदनीय, आयु चार, सब नामप्रकृतियों, तथा ऊंच व नीच गोत्रको उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणा अघाती है जो सर्वघातिके प्रतिभाग स्वरूप है। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती है । सम्यक्त्व व पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट उदीरणा देशघाती है। चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती और देशघाती है। जिन कर्मोंकी उदीरणामें देशघातीपना और सर्वघातीपना सम्भव है उन कर्मोंकी जघन्य उदीरणा नियमसे . तापतो ' पुणो पदणिक्खेवो' इति पाठः। 8 काप्रती ' व ' इति पाठः । * काप्रती चउक्कसन्न ' इति पामः। काप्रती । तेसिं 'इति पाठः । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२) छक्खंडागमे संतकम्म कम्माणं जहणिया उदीरणा णियमा देसघादी, अजहणिया देसघादी वा सव्वघादी वा। जेसि कम्माणमुक्कस्सिया उदीरणा णियमा देसघादी तेसि कम्माणं जहणिया अजहणिया वि उदीरणा णियमा देसघादी। जेसि कम्माणमुक्कस्समणुक्कस्सं पि सव्वघादी तेसि जहण्णमजहण्णं पि सव्वघादी। भवोवग्गहियाणमुदीरणा जहण्णा अजहण्णा च णियमा अघादी घादिपडिभागिया। ____ एत्तो सामित्त भण्णमाणे तत्थ इमाणि चत्तारि अणुयोगद्दाराणि । तं जहापच्चयपरूवणा विवागपरूवणा ठाणपरूवणा सुहासुहपरूवणा चेदि। पंचणाणावरणीयणवदंसणावरणीय-तिदंसणमोहणीय-सोलसकसायाणमुदीरणा परिणामपच्चइया। को परिणामो ? मिच्छत्तासंजम-कसायादी णवण्हं णोकसायाणं उदीरणा पुवाणुपुवीए असंखेज्जदिभागो परिणामपच्चइया, पच्छाणुपुवीए असंखेज्जा भागा भवपच्चइया। सादासादवेदणीय-चत्तारिआउअ-चत्तारिगदि-पंचजादीणं च उदीरणा भवपच्चइया । ओरालियसरीरस्स उदीरणा तिरिक्ख-मणुस्साणं भवपच्चइया । वेउव्वियसरीरस्स उदीरणा देव-णेरइयाणं भवपच्चइया, तिरिक्ख-मणुस्साणं परिणामपच्चइया। आहारसरीरस्स उदीरणा परिणामपच्चइया। तेजा-कम्मइयसरीराणमुदीरणा देव-णेरइयाणं भवपच्चइया, तिरिक्ख-मणुस्सेसु परिणामपच्चइया। तिण्णमंगोवंगाणं संघाद-बंधणाणं देशघाती तथा अजघन्य उदीरणा देशघाती और सर्वघाती होती है। जिन कर्मोंकी उत्कृष्ट उदीरणा नियमसे देशघाती होती है उन कर्मोकी जघन्य और अजघन्य भी उदीरणा नियमसे देशघाती होती है। जिन कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भी उदीरणा सर्वघाती होती है उन कर्मोंकी जघन्य व अजघन्य भी उदीरणा सर्वघाती होती है । भवोपगृहीत ( आयु ) प्रकृतियोंकी जघन्य व अजघन्य उदीरणा नियमसे अघाती होकर घातिप्रतिभागस्वरूप होती है । यहां स्वामित्वके कथनमें ये चार अनुयोगद्वार हैं। यथा- प्रत्ययप्ररूपणा, विपाकप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा और शुभाशुभप्ररूपणा। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, तीन दर्शनमोहनीय और सोलह कषाय ; इनकी उदीरणा परिणामप्रत्ययिक है । शंका-- परिणाम किसे कहते है ? समाधान-- मिथ्यात्व, असंयम एवं कषाय आदिको परिणाम कहा जाता है। र नौ नोकषायोंकी असंख्यातवें भाग प्रमाण उदीरणा परिणामप्रत्ययिक तथा पश्चादानुपूर्वी के अनुसार असंख्यात बहुभाग प्रमाण उदीरणा भवप्रत्ययिक है। साता व असाता वेदनीय, चार आयुकर्म तथा चार गति और पांच जाति नामकर्मोकी उबीरणा भवप्रत्ययिक होती है । औदारिकशरीरकी उदीरणा तिर्यंचों व मनुष्योंके भवप्रत्ययिक होती है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा देवों व नारकियोंके भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंचों व मनुष्योंके परिणामप्रत्ययिक होती है। आहारकशरीरकी उदीरणा परिणामप्रत्ययिक होती है। तैजस व कार्मण शरीरोंकी उदीरणा देवों व नारकियोंके भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंचों व मनुष्योंके परिणामप्रत्ययिक होती है। तीन अंगोपांग, पांच संघात व पांच बन्धन प्रकृतियोंकी प्ररूपणा अपने अपने शरीर के ४ काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः, मप्रतौ 'कसायादियागं णवण्ह' इति पाठः । * काप्रती 'मणस्स-' इति पाठः । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमाणयोगद्दारे अणुभाग उदीरणा ( १७३ सगसरीरभंगो। समचउरससंठाणस्स उदीरणा मूलसरीरे भवपच्चइया आहारसरीरस्स उत्तरसरीरं विउव्विदतिरिक्ख- मणुस्साणं च सव्र्व्वेसि परिणामपच्चइया । सेसपंचसंठणाणमुदीरणा भवपच्चइया । छण्णं संघडणाणमुदीरणा भवपच्चइया । वण्ण-गंधरसणामाणमुदीरणा देव - णेरइयागं भवपच्चइया, तिरिक्ख- मणुस्साणं परिणामपच्चsar | सीgor-frद्ध हुक्खाणमुदीरणा देव णेरइयाणं भवपच्चइया, तिरिक्ख- मणुस्साणं परिणामपच्चइया । कक्खड - गरुआणं उदीरणा एयंतभव : पच्चइया । मउअ-लहुआमुदीरणा आहारसरीरस्स उत्तरं विउव्विदस्स परिणामपच्चइया, सेसाणं भवपच्चइया । चदुण्णमाणुपुव्वीणमुदीरणा भवपच्चइया । अगुरुअलहुअ-थिराथिर - सुहासुहाणमुदीरणा देव णेरइयाणं भवपच्चइया, तिरिक्ख - मणुस्साणं परिणामपच्चइया । उवघादादावुस्सास- अप्पसत्थविहाय गइ-तस थावर - बादर - सुहुम-साहारण-पज्जत्तापज्जत्तदुभग- दुस्सर - अणादेज्ज - अजसकित्ति -- णीचागोदाण- मुदीरणा एयंतभवपच्चइया । परघादुदीरणा आहारसरीरस्स उत्तरं विउब्विदस्स च परिणामपच्चइया, अण्णत्थ भवपच्चइया । उज्जोवुदीरणा उत्तरं विउव्विदस्स परिणामपच्चइया, सेसाणं भवपच्च । पत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-सुस्सराणं परघादभंगो। णिमिण- तित्थयर- पंचतराइयाणमुदीरणा परिणामपच्चइया । सुभग-आदेज्ज - जसगित्ति Q - उच्चागोदाणमुदीरणा अनुसार है | समचतुरस्रसंस्थानकी उदीरणा मूल शरीरमें भवप्रत्ययिक होती है, और आहारकशरीरी तथा उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाले सभी तिर्यंचों व मनुष्योंके उसकी उदीरणा परिणामप्रत्ययिक होती है। शेष पांच संस्थानोंकी उदीरणा भवप्रत्ययिक होती है। छह संहननोंकी उदीरणा भवप्रत्ययिक होती है । वर्ण, गन्ध व रस नामकर्मोंकी उदीरणा देवों व नारकियोंके भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंचों व मनुष्योंके परिणामप्रत्ययिक होती है । शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्षकी उदीरणा देवों व नारकियोंके भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंचों व मनुष्योंके परिणाम प्रत्ययिक होती है । कर्कश और गुरु स्पर्शनामकर्मोंकी उदीरणा सर्वथा भवप्रत्ययिक है । मृदु और लघु नामकर्मोंकी उदीरणा आहारकशरीरी तथा उत्तरशरीरकी विक्रिया करनेवाले के परिणामप्रत्ययिक और शेष जीवोंके भवप्रत्ययिक होती है । चार आनुपूर्वियोंकी उदीरणा भवप्रत्ययिक होती है । अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ प्रकृतियोंकी उदीरणा देवों और नारकियोंके भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंचों और मनुष्योंके परिणामप्रत्ययिक होती है । उपघात, आतप, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, साधारण, पर्याप्त, अपर्याप्त, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी उदीरणा सर्वथा भवप्रत्ययिक है । परघातकी उदीरणा आहारकशरीरी एवं उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवालेके परिणामप्रत्ययिक तथा अन्यत्र भवप्रत्ययिक होती है । उद्योतकी उदीरणा उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाले जीवके परिणामप्रत्ययिक तथा शेष जीवोंके भवप्रत्ययिक होती है । प्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वरकी प्ररूपणा परघातके समान है । निर्माण, तीर्थंकर और पांच अन्तरायकी उदीरणा परिणामप्रत्ययिक है । सुभग, आदेय, यशकीर्ति और ऊंच गोत्रकी उदीरणा गुणप्रतिपन्न जीवोंमें परिणाम - काप्रतौ ' परिणामपच्चया ण, तापतो 'परिणामपच्चया (ण) ।' इति पाठः । काप्रती ' एवं तब्भव' इति पाठः । * ताप्रती ' अजगित्ति' इति पाठ: । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ) छवखंडागमे संतकम्मं गुणपडवणे परिणामपच्चइया, अगुणपडिवण्णेसु भवपच्चइया । को पुण गुणो ? संजमो संजमासंजमो वा । एवं पच्चयपरूवणा गदा । विवागपरूवणागदाए जहा णिबंधो पुव्वं परूविदो तहा एत्थ विवागो वि परूवेयव्वो, भेदाभावादो । ठाणपरूवणदाए आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्सिया उदीरणा नियमा चउट्ठाणिया । अणुक्कस्सा चउट्ठाणिया तिट्ठाणिया बिट्ठानिया एयट्ठाणिया वा । सुदणाणावरण - ओहिणाणावरण ओहिदंसणावरण-चदुसंजलण - णवुंसयवेदाणमाभिणिवोहियणाणावरणभंगो । मणपज्जवणाणावरण- केवलदंसणावरण- णिद्दाणिद्दा- पयलापयलाथी गिद्ध - णिद्दा - पयला-सादासादवेदणीय-मिच्छत्त- बारसकसाय छष्णोकसाय- णिरय-देवाउ- णिरय-- देवगइ - पंचिदियजादि-चदुसरीर - वे उब्विय - आहार अंगोवंग - वेड व्वियआहार - तेजा - कम्मइयपाओग्गबंधण-संघाद - समचउरस- हुंडठाण - वण्ण-गंध-रस-सीदुसुण- गिद्ध - ल्हुक्ख-मअ-लहुअ - अगुरुअलहुअ - उवघाद - परघाद -- उज्जोवुस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस - बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-- सुस्सरआदेज्ज - जसकित्ति दुभग- दुस्सर - अणादेज्ज- अजसकित्ति - णिमिणणीचुच्चागोदाणमुक्कस्सिया उदीरणा चउट्ठाणिया । अणुक्कस्सा चउट्ठाणिया तिट्ठाणिया दुट्टाणिया वा । प्रत्ययिक और अगुणप्रतिपन्न जीवोंमें भवप्रत्ययिक होती है । शंका- गुणसे क्या अभिप्राय है ? समाधान - गुणसे अभिप्राय संयम और संयमासंयमका है । इस प्रकार प्रत्ययप्ररूपणा समाप्त हुई । विपाकप्ररूपणाकी विवक्षा होनेपर जैसे पहिले निबन्धकी प्ररूपणा की गई है वैसे यहां विपाककी भी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है । स्थानप्ररूपणामें आभिनिबोधिकज्ञानावरणकी उत्कृष्ट उदीरणा नियमसे चतुः स्थानिक तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा चतु:स्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होती है । श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण, चार संज्वलन और नपुसंक वेदकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है । मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, छह नोकषाय, नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, पंचेंद्रियजाति, चार शरीर, वैयिक व आहारक अंगोपांग, वैक्रियिक, आहारक, तेजस व कार्मण शरीरोंके योग्य बंधन व संघात; समचतुरस्रसंस्थान, हुण्डकसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, लघु, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण तथा नीच व ऊच गोत्र, इनकी उत्कृष्ट उदीरणा चतु. स्थानिक तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक तानी ' गुणगारो' इति पाठ । ' Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १७५ चक्खु-अचक्खुदंसणावरण-सम्मत्त-इत्थि-पुरिसवेदाणं पंचंतराइयाणं च उक्कस्सिया उदीरणा दुढाणिया, अणुक्कस्सिया दुढाणिया एयवाणिया वा । चक्खु-अचक्खुदंसणाणमुदओ जस्स वि एगमक्खरमस्थि तस्स णियमा एगट्ठाणिया उदीरणा। सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया अणुक्कस्सिया वा णियमा दुट्ठाणिया एक्कम्मिट्ठाणे। तिरिक्खमणुस्साउ-तिरिक्ख-मणुसगइ-चउजादि--ओरालियसरीरतदंगोवंग-ओरालियसरीरबंधण-संघाद-चउसंठाण-छसंघडण-कक्खड-गरु-आणुपुव्वीचउक्कआदाव-थावर-सुहुमअपज्जत्त-साहारणाणमुक्कस्सा अणुक्कस्सा वा उदीरणा दुट्ठाणिया। तित्थयरस्स उक्कस्सा अणुक्कस्सा चदुट्ठाणिया। एवमुक्कस्सिया ह्राणपरूवणा समत्ता । जहणट्ठाणसमुक्कित्तणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वकम्माणं पि अणुक्कस्सियाए उदीरणाए जं जस्स जहण्णियट्ठाणं अभिवाहरिदं तं चेव जहण्णट्ठाणं उदीरणाए ट्ठाणमभिवाहरियव्वं अजहण्णाए अणुक्कस्सभंगो। भवोवग्गहियाणं दुढाणियपडिभागियं तिढाणपडिभागियं चउढाणपडिभागियं चेदि अभिवाहिरियव्वं । दुढाणिय-तिढाणियचउट्ठाणियं ति च ण भाणियव्वं । एवं ठाणपरूवणा समत्ता। एत्तो सुहासुहपरूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा- पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीयअसादावेदणीय-अट्ठावीसमोहणीय-णिरयाउ-णिरयगइ-तिरिक्खगइ--एइंदिय-बेइंदियतेइंदिय-चरिदियजादि-पंचसंठाण-पंचसंघडण-अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-णिरयगइहोती है। चक्षु व अचक्षु दर्शनावरण, सम्यक्त्व, स्त्री व पुरुष वेद तथा पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट उदीरणा द्विस्थानिक तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा द्विस्थानिक और एकस्थानिक होती है। चक्षु व अचक्षु दर्शनावरणका उदय जिसके भी एक अक्षर है उसके नियमसे उनकी एकस्थानिक उदीरणा होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणा एक स्थानमें नियमसे द्विस्थानिक होती है। तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, चार जातिनामकर्म, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकशरीरबन्धन, औदारिकशरीरसंघात, चार संस्थान, छह संहनन, कर्कश, गुरु, चार आनुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर; इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणा द्विस्थानिक होती है। तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणा चतुःस्थानिक होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। जघन्य स्थानसमुत्कीर्तनका कथन करते है। वह इस प्रकार है-- सभी कर्मोंकी अनुत्कृष्ट उदीरणामें जिसका जो जघन्य स्थान कहा गया है वही जघन्य स्थान उदीरणाका स्थान कहना चाहिये। अजघन्य उदीरणाकी प्ररूपणा अनुत्कृष्ट उदीरणाके समान है। भवोपगृहीत प्रकृतियोंके द्विसनप्रतिभागिक, त्रिस्थानप्रतिभागिक और चतु:स्थानप्रतिभागिक कहना चाहिये ; उनके द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक नहीं कहना चाहिये । इस प्रकार स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। यहां शुभाशुभप्ररूपणा कहते हैं। वह इस प्रकार है पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, अट्ठाईस मोहनीय, नारकायु, नरकगति, तिथंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरक Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ) छक्खंडागमे संतकम्म तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी--उपधाद--अप्पसत्थविहायगदि-थावर-सुहुम--अपज्जत्तसाहारणसरीर-अथिर-असुभ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज--अजसकित्ति-णीचागोद-पंचतराइयपयडीओ असुहाओ । सादावेदणीय-आउतिय-मणुसगइ--देवगइ-पंचिदियजादिओरालिय-वेउव्विय-आहार-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउत्वियआहारसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुअलहुअ-परघादुस्सास-आदावुज्जोव--पसत्थविहायगइ-तसबादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्त-णिमिण-तित्थयर उच्चागोदपयडीओ सुहाओ। एवं सुहासुहपरूवणा समत्ता। एत्तो सामित्तपरूवणा कीरदे। तं जहा- आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्सिया अणुभागउदीरणा कस्स? सण्णिस्स पज्जत्तयदस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । सुदमणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरणाणमाभिणिबोहियणाणावरणभंगो। चक्खुदंसणावरणीयस्स उक्कस्सउदीरणा कस्स? तीइंदियपज्जत्तयस्स सव्वसंकिलिटुस्स। ओहिकेवलदसणावरणाणं उक्कस्सिया कस्स? सण्णिपज्जत्तयस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स। णवरि ओहिणाण-दसणावरणीयाणं उक्कस्सुदीरणा ओहिलंभेणुज्झियस्स वत्तव्वा । अचक्खु गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीति, नीचगोत्र और पांच अन्तराय; ये प्रकृतियां अशुभ हैं। सातावेदनीय, शेष तीन आयु, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर और ऊंच गोत्र; ये प्रकृतियां शुभ हैं। इस प्रकार शुभाशुभप्ररूपणा समाप्त हुई। __ यहां स्वामित्वप्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- आभिनिबोधिकज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह संज्ञी, पर्याप्त एवं उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त जीवके होती है । श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है। चक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह त्रीन्द्रिय पर्याप्त सर्वसंक्लिष्ट जीवके होती है। अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह संज्ञी पर्याप्त सर्वसंक्लिष्ट जीवके होती है। विशेष इतना है कि अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट उदीरणा अवधिज्ञान और अवधिदर्शनकी प्राप्तिसे रहित जीवके कहना चाहिये। अचक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट xxxx चक्खुणो पुण तेइंदिय सवपज्जत्ते ।। क. प्र. ४, ५८. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १७७ दसणावरणीयस्स उक्कस्सिया अणुभागुदीरणा कस्स? सुहमस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णलद्धियस्स.। सेसपंचण्णं दसणावरणीयाणं उक्कस्सउदीरणा कस्स ? सण्णिपज्जत्तयस्स मज्झिमपरिणामस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स+ । सादस्स० कस्स? देवस्स तेत्तीसंसागरोवमियस्स पज्जत्तयस्स । असादस्स रइयस्स तेत्तीसंसागरोवमियस्स पज्जत्तस्स मिच्छाइटिस्स मज्झिमपरिणामस्स । कि कारणं ? उक्कस्ससंकिलिट्ठो वेदणीयं * ण बुज्झदि + त्ति ।। - सम्मत्तस्स कस्स ? सम्माइद्विस्स से काले मिच्छत्तं पडिवज्जमाणतप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स। सम्मामिच्छत्तस्स कस्स? सम्मामिच्छाइद्विस्स से काले मिच्छत्तं गच्छंतस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स। मिच्छत्त-सोलसकसायाणं कस्स ? उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स मिच्छाइट्ठिस्स । णवंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं कस्स ? तेत्तीससागरोवमियणेरइयस्स पज्जत्तयस्स मज्झिमपरिणामस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । हस्स-रदीणं कस्स? सहस्सार-देवस्स पज्जत्तयस्स मिच्छाइट्ठिस्स तप्पाओग्गसंकिलिटुस्स। इथिवेद उदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य लब्धिवाले सूक्ष्म जीवके तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें होती है। शेष पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तत्प्रायोग्य संक्लेशसे सहित मध्यम परिणामवाले संज्ञी पर्याप्त जीवके होती है। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले पर्याप्त देवके होती है । असातावेदनीयकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले मध्यम परिणामयुक्त पर्याप्त मिथ्यादृष्टि नारकीके होती है शंका-- इसका कारण क्या है ? समाधान-- इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ जीव वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका अनुभवन नहीं करता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह अनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले ऐसे तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त हुए सम्यग्दृष्टि जीवके होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह अनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले ऐसे तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। मिथ्यात्व व सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है? वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले नारक पर्याप्त जीवके होती है जो मध्यम परिणामोंसे युक्त होता हुआ तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त है। हास्य व रतिको उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त हुए सहस्त्रार कल्पवासी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि देवके होती है । स्त्रीवेद - ४ काप्रतावतोऽग्रे ' सण्णि रज्जत्तयस्स सब्वसंकिलिस्स' इत्येतावानयमधिकः पठोऽस्ति । दाणा अचक्खूणं जेट्ठा आयम्मि हीणल द्धिस्स । सुहुमस्स xxx ॥ क. प्र. ४, ५८. . निदाइपंचगस्स य मज्झिमपरिणामसंकिलिटुस्स । क. प्र. ४, ५९. * प्रत्योरुभयोरेव 'वेदं' इति पाठः। 4 मप्रतिपाठोयऽम्, का-ताप्रत्योः 'वज्झदि' इति पाठः। सम्मत्त-मीसगाणं से काले गहिहित्ति मिच्छत्तं । क.प्र.४, ६१. हाम-रईण सहस्सारगस्स पज्जत्तदेवस्स ॥ क. प्र. ४, ६१. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म पुरिसवेदाणं कस्स? तिरिक्खस्स अट्ठवासाउअस्स अट्ठवस्सजादस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स। णिरयाउअस्स कस्स? रइअस्स तेत्तीसंसागरोवमियस्स पज्जत्तस्स मिच्छाइद्विस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । मणुस-तिरिक्खाउआणं कस्स ? तिपलिदोवमियस्स पज्जत्तयस्सर । देवाउअस्स कस्स ? तेत्तीसंसागरोवमियस्स पज्जत्तस्स। _णिरयगइणामाए कस्स ? तेत्तीसंसागरोवमियस्स पज्जत्तस्स उक्कस्ससंकिलिटुस्स। मज्झिमपरिणामस्स वा। तिरिक्खगइणामाए कस्स ? तिरिक्खस्स अट्ठवासाउअस्स अटुवस्सजादस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । मणुसगदिणामाए कस्स? मणुस्सस्स तिपलिदोवमियस्स पज्जत्तस्स। देवगदिणामाए कस्स? देवस्स तेत्तीसंसागरोवमियस्स पज्जत्तस्स । ओरालियणामाए उक्कस्सिया उदीरणा कस्स? मणुस्सस्स तिपलिदोवमियस्स पज्जत्तस्स । वेउब्वियसरीरणामाए कस्स? देवस्स तेत्तीसंसागरोवमियस्स पज्जतस्स। आहारसरीरणामाए कस्स? पज्जत्तस्स आहारसरीरमुट्ठाविदसंजदस्स। तेजाकम्मइयसरीराणमुक्कस्सिया उदीरणा कस्स? चरिमसमयसजोगिस्स । तिण्णिअंगोवंग और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह आठ वर्ष प्रमाण आयुवाले अष्टवर्षीय सर्वसंक्लिष्ट तिर्यंच जीवके होती है । नारकायुकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले मिथ्यादृष्टि पर्याप्त नारकी जीवके होती है । मनुष्यायु और तिर्यंचआयुकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह तीन पल्योपम प्रमाण आयुवाले पर्याप्त जीवके होती है। देवायुकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है । वह तेतीस सागरोपमकी आयुवाले पर्याप्त देवके होती है। नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त अथवा मध्यम परिणाम यक्त तेतीस सागरोवमकी आयवाले पर्याप्त जीवके होती है। तिर्यग्गति नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तत्प्रायोग्य संक्लेशसे युक्त आठ वर्ष प्रमाण आयुवाले अष्टवर्षीय तिर्यंच जीवके होती है। मनुष्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तीन पल्योपमकी आयुवाले मनुष्य पर्याप्तके होती है। देवगति नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तेतीस सागरोपमकी आयुवाले देव पर्याप्तके होती है। औदारिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तीन पल्योपमकी आयुवाले मनुष्य पर्याप्तके होती है। वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तेतीस सागरोपम आयुवाले देव पर्याप्तके होती है। आहारकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह आहारकशरीरको पूर्ण करनेवाले संयत पर्याप्तके होती है। तैजस और कार्मण शरीरोंकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगी केवलीके होती है। तीन आंगोपांग, बन्धन और संघात नामकर्मोकी प्ररूपणा अपने ४ ताप्रती 'पज्जत्तयस्स' इत्येतत्पदं नास्ति । . नियगठिई उक्कोस्सो पज्जत्तो आउगाणं पि ।। क. प्र. ४, ६४. * काप्रती 'सागरोवमेयस्स पज्जतस्स उदीरणासकिलिट्ठस्स' इति पाठः । . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १७९ बंधण-संघादणामाणं सरीरभंगो । पसत्थवण्ण-गंध-रसाणं कस्स? चरिमसमयसजोगिस्स । अप्पसत्थाणं कस्स? उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । णिद्ध-उण्हाणं कस्स? चरिमसमयसजोगिस्स । सीद-ल्हुक्खाणं कस्स ? उक्कस्ससंकिलिस्स । मउअ-लहुआणं कस्स ? आहारसरीरेण पज्जत्तयदस्स संजदस्स । कक्खड-गरुआणं कस्स ? तिरिक्खस्स अट्ठवासाउअस्स अट्ठवासाणमंते वट्टमाणस्स। णिरयाणुपुव्वीणामाए कस्स ? तेत्तीसं सागरोवमियस्स रइयस्स बिसमयतब्भवत्थस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स। मणुसाणुपुवीणामाए कस्स? तिपलिदोवमियस्स मणुस्सस्स बिसमयतब्भवत्यस्त । तिरिक्खाणुपुवीणामाए कस्स ? तिरिक्खस्स अट्टवस्सियस्स बिसमयतब्भवत्थस्स । देवाणुपुवीणामाए कस्स? देवस्स तेत्तीसं सागरोवमियस्स बिसमयतब्भवत्थस्स । अगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसगित्ति-तित्थयर-णिमिणुच्चागोदाणमुक्कस्सिया उदीरणा कस्स? चरिमसमयसजोगिस्स*। उवघादणामाए कस्स? तेत्तीसं अपने शरीरके समान है। प्रशस्त वर्ण, गन्ध और रसकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती हैं ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोग केवलीके होती है । उन अप्रशस्त वर्णादिकोंकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है? वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त जीवके होती है। स्निग्ध और उष्ण स्पर्शकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगीके होती है । शीत और रूक्षकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट संक्लेश युक्त जीवके होती है । मृदु और लघुकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह आहारशरीरसे पर्याप्त हुए संयत जीवके होती है । कर्कश और गुरुकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह आठ वर्षकी आयुवाले व आठ वर्षों के अन्तमें वर्तमान तिर्यंच जीवके होती है। ___ नरकानुपूर्वी नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है? वह तत्प्रायोग्य संक्लेशसे संयुक्त तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले नारकी जीवके तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें होती है। मनुष्यानुपूर्वी नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है? वह तीन पल्योपम प्रमाण आयुवाले मनुष्यके तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें होती है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह आठ वर्षकी आयुवाले तिर्यंच जीवके तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें होती है। देवानुपूर्वी नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवके तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें होती है। ___ अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थकर, निर्माण और ऊंच गोत्रकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोग केवलीके होती है । * ताप्रती 'पज्जत्तयदसंजदस्स इति पामः। ४ कक्खा -गरु-गंधयणा-स्थी-पुम-संठाण-तिरियणामाणं ।। पंचिदिओ तिरिक्वो अमवा नटुनासाओ ।। क. प्र. ४, ६३. जोगते सेसाणं सुभाणमियरासि चउसु वि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ) छक्खंडागमे संतकम्म सागरोवमियस्स रइयस्स पज्जत्तस्स । परघाद-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीराणं कस्स? संजदस्स आहारसरीरमुट्ठाविदस्स पज्जत्तस्स। आदावणामाए कस्स ? बावीसं वस्ससहस्साउअस्स पुढविकाइयपज्जत्तयस्स। उज्जोवणामाए कस्स? संजदस्त विउव्विदुत्तरसरीरस्स पति गयस्स। बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदियजादिणामाणं कस्स ? जहण्णपज्जत्तणिवत्तीए* णिव्वत्तिदूण अंतोमुहुत्तपज्जत्तस्स * । एइंदियजादिणामाए कस्स? जहण्णपज्जत्तणिवत्तीए णिव्वत्तिय अंतोमुहुत्तपज्जत्तयस्स एइंदियस्स । पंचिदियजादि-उस्साससस-बादर-पज्जत्तणामाणं कस्स? देवस्स तेत्तीसं सागरोवमियस्स । अप्पसत्थविहायगइ-दुब्भग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्ति-णीचागोदाणं कस्स ? रइयस्स तेत्तीसं सागरोवमियस्स पज्जत्तयस्स। अथिर-असुहणामाणं कस्स ? उक्कस्ससंकिलिट्रस्स । थावरणामाए कस्स? जहणियाए पज्जत्तणिवत्तीए उववण्णस्स बादरेइंदियस्स उपघात नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले पर्याप्त नारकीके होती है। परघात, प्रशस्त विहायोगति और प्रत्येकशरीरकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह आहारकशरीरको उत्पन्न कर लेनेवाले संयत पर्याप्तके होती है। आतप नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह बाईस हजार वर्षकी आयुवाले पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवके होती है। उद्योत नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह उत्तर शरीरको विक्रिया करनेवाले संयत पर्याप्तके होती है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्मोकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? उनकी उत्कृष्ट उदीरणा जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिसे निवृत्त होकर अन्तर्मुहुर्तवर्ती पर्याप्त हुए उन उन जीवोंके होती है। एकेन्द्रियजाति नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिसे निवृत्त हुए अन्तर्मुहुर्तवर्ती पर्याप्त एकेन्द्रियके होती है । पंचेन्द्रियजाति, उच्छ्वास, त्रस, बादर और पर्याप्त नामकर्मोंका उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? उनकी उत्कृष्ट उदीरणा तेतीस सागरोपमकी आयुवाले देवके होती है। अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? उनकी उत्कृष्ट उदीरणा तेतीस सागरोपमकी आयवाले नरक पर्याप्तके होती है। अस्थिर और अशभ नामप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त जीवके होती है । स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है? वह जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न गई। पज्जत्तक्कडमिच्छस्सोहीणमणोहिलद्धिस्स ॥ क. प्र. ४, ६८. जे गंते त्ति- योगिनः सयोगकेवलिनोऽन्ते सर्वापवर्तनरूपे वर्तमानस्य शेषाणमक्तव्यतिरिक्तानां शुभप्रकृतीनां तैजससप्तक-मृदु-लघुवर्जशुभवर्णाद्येकादशकागरुलघ-स्थिर-शम-सुभगादेय-यशःकीति-निर्माणोच्चैर्गोत्रतीर्थकरनाम्नां (२५) पंचविंशतिसंख्यानामत्कृष्ट नभागोदीरणा भवति । ( मलयगिरिटीका ). * तातो 'जहण्णपज्जत्तीए' इति पाठः। हस्सठिई पज्जत्ता तन्नामा विगलजाइ-सुहुमाणं । क. प्र. ४, ६५. .पंचिदिय-तस-बादर पज्जत्तग-साइ-सुस्सर-गईणं । वे उव्वुस्मासाणं देवो जेटुट्टिइसमत्ता ।। क. प्र. ४,६०. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभाग उदीरणा ( १८१ अंतोमुहुत्तपज्जत्तयस्स* उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । सुहुमणामाए कस्स ? जहणियाए पज्जत्तणिव्वत्तीए उववण्णस्स अंतोमुहुत्तपज्जत्तयस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । अपज्जत्तणामा कस्स ? मणुस्सस्स उक्कस्सियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए चरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसं गदस्स । साहारणसरीरणामाए कस्स ? बादरणिगोदस्स जहण्णियाए पज्जत्तणिव्वत्तीए अंतोमुहुत्तं पज्जत्तयस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स समचउरससंठाणस्स उक्कस्सिया उदीरणा कस्स ? संजदस्स आहारसरीरस्स अंतोमुहुत्तं पज्जत्तयस्स । सेसाणं हुंडसंठाणवज्जाणं संठाणाणं पंचणं संघडणाणं च उक्कस्सिया कस्स ? तिरिक्खस्स अट्ठवासियस्स अट्ठवासते वट्टमाणस्स । हुंडठाणस्स कस्स ? णेरइयस्स अगदी उबवण्णअंतोमुहुत्तं पज्जत्तयस्स* । पढमसंघडणस्स कस्स ? मणुसस्स तिपलिदोवमियरस अंतोमुहुत्तं पज्जत्तयदस्स । अंतराइयपंचयस्स अचक्खुदंसणभंगो । एदाणि सव्वाणि सामित्तानि अप्पप्पणो संतकम्मेण उक्कस्सेण वा छट्टाणगुण 1 तथा उत्कृष्टसंक्लेशको प्राप्त हुए अन्तमुहूर्तवर्ती पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवके होती है । सूक्ष्म नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न तथा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्याप्त सूक्ष्म जीवके होती है । अपर्याप्त नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्तिके चरम समय में उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए मनुष्य होती है । साधारणशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिसे अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्याप्त हुए उत्कृष्ट संक्लेश युक्त बादर निगोद जीवके होती है । समचतुरस्रसंस्थानकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्याप्त हुए आहारशरीरी संयत जीवके होती है । हुण्डक संस्थानको छोड़कर शेष चार संस्थानोंकी तथा वज्रभनाराच संहननको छोडकर शेष पांच संहननोंकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह आठ वर्षोंके अन्तमें वर्तमान अष्टवर्षीय तिर्यंचके होती है । हुण्डकसंस्थानकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट स्थिति के साथ उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्याप्त हुए नारकीके होती है । प्रथम संहननकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? वह तीन पल्योपमकी आयुवाले अंतर्मुहूर्तवर्ती पर्याप्त मनुष्य के होती है। पांच अन्तराय कर्मोकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाकी प्ररूपणा अचक्षुदर्शनावरण के समान है । ये सब स्वामित्व अपने अपने उत्कृष्ट सत्कर्मके साथ अथवा षट्स्थान तथाऽ * ताप्रती 'अंतोमुद्दत्तं पज्जत्तयस्स ' इति पाठ: । D काप्रती 'समय' इति पाठ: । पर्याप्तनाम्नो मनुष्योऽपर्याप्तश्चरिमसमये वर्तमानः सर्वसंक्लिष्ट उत्कृष्टानभागोदीरणास्वामी । संज्ञितिर्यक्पंचेन्द्रियादपर्याप्तान्मनुष्योऽपर्याप्तोऽतिमं क्लिष्टतर इति मनुष्यप्रहणम् । क. प्र. ( मलय ) ४,६२. कक्खड - गुरु-संघयणा-त्थीपुम-संठाण - तिरियणामाणं । पंचिदिओ तिरिक्खो अट्टमवासटुवासाओ । क. प्र. ४, ६३. * गड-हुंडुवधायाणिट्ठखगइ णीयाण दुहचउक्कस्स । निरउक्कस्स-समत्ते असमत्ताए नरस्ते । क. प्र. ४, ६२. गति - नैरयिक उत्कृष्ट स्थतौ वर्तमानः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः सर्वोत्कृष्ट सं क्लेशयुक्तो नरकगतिहुं■संस्थानोपघाताप्रशस्त विहायोगति - नीचैर्गोत्राणां 'दुहचउक्कस्स त्ति' दुर्भगचतुष्कस्य दुर्भग- दुःस्वरानादेयायश कीर्तिरूपस्य सर्वसंख्यया नवानां प्रकृतीनामुत्कृष्टानु भागोदीरणास्वामी । मलय. मणु-ओरालिय- वज्जरिसहाण मणुओ तिपल्लपज्जत्तो 1 क. प्र. ४, ६४. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ) छक्खंडागमे संतकम्म होणेण वा होंति त्ति दट्टव्वाणि । एवमुक्कस्साणुभागुदीरणा समत्ता। जहण्णयं सामित्तं उच्चदे । तं जहा--आभिणिबोहिय-सुदणाणावरणीय-चक्ख अचक्खुदंसणावरणीयाणं जहणिया अणुभागउदीरणा कस्स? चोद्दसपुब्वियस्स समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स । ओहिणाण-ओहिदसणावरणाणं जहणिया उदीरणा कस्स ? परमोहिस्स समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स । मणपज्जवणाणावरणीयस्स जहणिया उदीरणा कस्स ? विउलमदिस्स समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स* । केवलणाण-केवलदसणावरणीयाणं जहणिया कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स । णिद्दा-पयलाणं जहणिया कस्स ? उवसंतकसायवीयरागछदुमत्थस्सल । णिहाणिद्दा-पयला-पयला-थोणगिद्धीणं जहणिया उदीरणा कस्स ? पमत्तसंजदस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्सक । सादासादाणं जहणिया उदीरणा कस्स? अण्णदरो रइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा उक्कस्स-मज्झिम-जहण्णासु दिदीसु वट्टमाणो मज्झिमपरिणामो* । पतित गुणहानिस्वरूप सत्कर्मके साथ होते हैं, ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट-अनुभागउदीरणा समाप्त हुई। जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है--आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावण और अचक्षुदर्शनावरणकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह चौदह पूर्वधारीके छद्मस्थ अवस्थाके अन्तसमयमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष रहनेपर होती है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी जघन्य उदीरणा किसके होती हैं ? वह परमावधिज्ञानीके छद्मस्थ अवस्थाके अन्तसमयमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष रहनेपर होती है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानीके छद्मस्थ अवस्थाके अन्तसमयमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष रहनेपर होती है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी जघन्य उदोरणा किसके होती है ? उनकी जघन्य उदीरणा छद्मस्थकालमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष रहनेपर होती है। निद्रा और प्रचलाकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थके होती है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी जघन्य उद्रीरणा किसके होती है ? वह तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त हुए प्रमत्तसंयतके होती है । साता व असाता वेदनीयकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है? जो अन्यतर नारकी, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य स्थितिमें वर्तमान होकर मध्यम परिणामसे युक्त होता है उसके * सुयकेवलिणो मइ-सुय-अचक्खु चक्खणदीरणा मंदा। विपुल-परमोहिगाणं मणणाणोहीदुगस्सावि ॥ क प्र. ४, ६९. Bखवणाए विग्ध-केवल-संजलेणाण य सनोकसायाणं । सय-सयउदीरणंते निद्दा-पयलाणमुवसंते ।। क. प्र. ७०. क्षपणायोत्थितस्य पंचविधान्तराय-केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरण-संज्वलनचतुष्टय-नवनोकपायरूपाणं विंशतिप्रकृतीनां स्व-स्वोदीरणापर्यवसाने जघन्यानुभागोदीरणा । तत्र पंचविधान्तराय-केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरणानां क्षीणकषायस्य xxx स्व-स्वोदीरणापर्यवमाने । तथा निद्रा-प्रचलायोरुपशान्तमोहे जधन्यानुभागोदीरणा लभ्यते । (म.टीका) णिहाणिद्दाईणं पमत्तविरए विसुज्झमाणम्मि । क.प्र. ४,७१. ४ काप्रती 'अण्णदरा रइया तिरिक्खमणत्सो', ताप्रतौ 'अण्णदरणेरइयो तिरिक्खो मणुस्सो' इति पाठः । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १८३ • मिच्छत्तस्स जहणिया उदीरणा कस्स? मिच्छाइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स पुन्वुप्पण्णेण सम्मत्तेण से काले सम्मत्तं संजमं च पडिवज्जिहिदि ति ट्ठिदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा। सम्मत्तस्स जहणिया उदीरणा कस्स? समयाहियावलिय अक्खीणदसणमोहणिज्जस्स। सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया उदीरणा कस्स? से काले सम्मत्तं पडिवज्जिहिदि ति द्वियस्स सम्मामिच्छाइट्ठिस्स* । अणंताणुबंधीणं जहणिया उदीरणा कस्स? मिच्छाइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स से काले सम्मत्तं संजमं च पडिवज्जिहिदि त्ति ट्ठियस्स। अपच्चक्खाणावरणचदुक्कस्स जहणिया उदीरणा कस्स? सम्माइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स से काले संजमं पडिवज्जिहिदि त्ति ट्टियस्स । पच्चक्खाणावरणचदुक्कस्स जहणिया उदीरणा कस्स? उन दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा होती है । मिथ्यात्वकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? जो सर्वविशुद्धमिथ्यादृष्टि जीव पूर्वोत्पन्न सम्यक्त्वसे अनन्तर कालमें सम्यक्त्व व संयमको प्राप्त करेगा, इस प्रकारसे अवस्थित है उसके मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागउदीरणा होती है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? जिसके दर्शनमोहनीयके अक्षीग रहने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रहा है उसके सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य अनुभागउदीरणा होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? जो अनन्तर कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा, इस अवस्थामें स्थित है ऐसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके उसकी जघन्य अनुभागउदीरणा होती है। अनन्तानुबन्धी कषायोंकी जवन्य उदीरणा किसके होती है ? जो अनन्तर कालमें सम्यक्त्व व संयमको प्राप्त करेगा, इस प्रकारसे स्थित उस सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके उनकी जघन्य उदीरणा होती है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी जघन्य उदीरणा किसके होती है? अन्तर कालमें संयमको प्राप्त करेगा, इस प्रकारसे स्थित सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टि जीवके अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी जघन्य उदीरणा होती है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? जो अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त ४ सेसाण पगइवेई मज्झिमपरिणामपरिणी होज्जा। क. प्र. ४, ७९. सेसाण ति- शेषाणां सातासातवेदनीय-गतिचतुष्टय-xxx चतुत्रिंशत्संख्यानां प्रकृतीनां तत्तप्रकृत्यये वर्नमाना: सर्वेऽपि जीवामध्यमपरिणामपरिणता जघन्यानुभागोदीरणास्वामिनो भवन्ति (मलय. टीका)। * से काले सम्मत्तं ससंजमं गिण्हओ य तेरसगं । क. प्र. ४, ७२. से त्ति- अनन्तरे काले द्वितीये यः सम्यक्त्वं ससंयम संयमसहितं गृहीष्यति तस्य त्रयोदशानां मिथ्यात्वनन्तानुबन्धिचष्तुयाप्रत्याख्यात-प्रत्याख्यानावरणप्ररूपाणां प्रकृतीनां जघन्यानुभागोदीरणा । अयमिह संप्रदाय:- योऽनन्तरसमये सम्यक्त्त्रं संयमसहितं गहीप्यति तस्य मिथ्यादृष्टेमिथ्यात्वानुबन्धिनां जघन्यानुभागोदीरणा । (म.टीका). . वेयगसम्यत्तस्स उ सगखवणोदीरणाचरिमे । क. प्र. ४, ७१. तथा क्षायिकसम्यक्त्वमत्पादयतो मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्वयोः क्षपितयोर्वेदकसम्यक्त्वस्य क्षायोपशमिकस्य सम्पत्वस्य क्षग्णकाले चरमोदीरणायां ममयाधिकाबलिक शेषायां स्थितौ सत्यां प्रवर्तमानायां जघन्यानुभागोदीरणा भवति । सा च चतुगतिकानामन्यतस्य वेदितव्या ( म टीका)। सम्मत्तमेव मीसे xxx॥ क.प्र. ४, ७२. तथा 'सम्मत्तमेव मीसे' इति यः सम्बग्मिथ्यादष्टिरनन्तरसमये संयम प्रतिपत्स्यते तस्य सम्पम्मिथ्यात्वस्य जघन्यानुभागोदीरणा । सम्पग्मिथ्यादृष्टियुगपत् सम्यक्त्वं संयमं च न प्रतिप पद्यते, तथा विशुद्धेरभावात, किन्तु केवलं सम्यक्त्वमेवेति कृत्वा तदेव केवलमुक्तम् (म टीका)। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ) छक्खंडागमे संतकम्म संजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स से काले संजमं पडिवज्जिहिदि त्ति । ___ कोधसंजलणाए जहणिया उदीरणा कस्स ? कोधोदएण खवगसेडिमुवट्टियस्स चरिमसमयकोधवेदयस्स । माणसंजलणाए जहणिया उदीरणा कस्स ? कोधोदएण माणोदएण वा खवगसेढिमारूढस्स चरिमसमयमाणवेदगस्स। मायासंजलणाए जहणिया उदीरणा कस्स ? चरिमसमयमायवेदस्स खवगस्स। लोभसंजलणाए जहणिया उदीरणा कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयसकसायस्स खवयस्स । णवंसयवेदस्स जहणिया उदीरणा कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयणqसयवेदयखवयस्स। पुरिसवेदस्स जहणिया उदीरणा कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयपुरिसवेदखवयस्स । इत्थिवेदस्स जहणिया उदीरणा कस्स ? समयाहियावलियइत्थिवेदस्स खवयस्स । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं जहणिया उदीरणा कस्स ? चररिमसमयअपुव्वकरणखवगस्स सव्वविसुद्धस्स। णिरयाउअस्स जहणिया उदीरणा कस्स ? दसवस्ससहस्सियाए दिदीए उववण्णस्स गैरइयस्स पढमे वा चरिमे वा अण्णम्हि वा कम्हि वि एगसमए वट्टमाणस्स। करेगा, इस प्रकारसे स्थित सर्वविशुद्ध संयतासंयतके उसकी जघन्य अनुभागउदीरणा होती है। संज्वलनक्रोधकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह क्रोधोदयके साथ क्षपक श्रेणिपर आरूढ हुए अन्तिम समयवर्ती क्रोधवेदक जीवके होती है। संज्वलनमानकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह क्रोधके उदयके साथ अथवा मानके उदयके साथ क्षपक श्रेणिपर आरूढ हुए अन्तिम समयवर्ती मानवेदकके होती है। संज्वलनमायाकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती मायावेदक क्षपकके होती है। संज्वलन लोभकी जघन्य उदीरणा किसके होती है। जिसकी सकषाय अवस्थाके अन्तिम समयमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष है ऐसे क्षपक जीवके संज्वलनलोभकी जघन्य उदीरणा होती है। नपुंसकवेदकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदक होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है ऐसे क्षपकके नपुंसकवेदकी जघन्य उदीरणा होती है । पुरुषवेदकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती पुरुषवेदी होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है ऐसे क्षपक जीवके उसकी जघन्य उदीरणा होती है । स्त्रीवेदकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? स्त्रीवेदवेदक क्षपकके उसके वेदनमें एक समय अधिक आवली मात्र कालके शेष रहनेपर स्त्रीवेदकी जघन्य उदीरणा होती है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरण क्षपकके होती है। नारकायुकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह दस हजार वर्षकी आयु स्थितिके साथ उत्पन्न हुए नारकीके प्रथम, अन्तिम अथवा अन्य किसी भी एक समयमें वर्तमान रहनेपर होती ४ काप्रतौ 'वेयणीयखवयस्स', ताप्रती 'वेदणीयखवयस्त ' इति पाठः । * काप्रती 'देवस्स सहस्सियाए ', ताप्रतौ 'देवस्स (दसवस्स) सहस्सियाए ' इति पाठः । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा (१८५ मणुस-तिरिक्खाउआणं जहणिया उदीरणा कस्स ? जहणियासु अपज्जत्तणिवत्तीसु उववण्णस्स पढमे अपढमे वा चरिमे अचरिमे वा समए वट्टमाणस्स मणुस-तिरिक्खस्स। देवाउअस्स जहणिया उदीरणा कस्स ? दसवस्ससहस्सियाए ट्ठिदीए उववण्णस्स पढमसमयदेवस्स वा चरिमसमयस्स वा तव्वदिरित्तस्स वा । णिरयगइणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? णेरइयस्स अण्णदरिस्से पुढवीए वट्टमाणस्स पज्जत्तस्स अपज्जत्तस्स वा मज्झिमपरिणामस्स । तिरिक्खगदिणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स? एइंदिय-बीइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-पंचिदिएसु अण्णदरस्स पज्जत्तस्स अपज्जत्तस्स वा तिपलिदोवमट्ठिदियस्स अण्णदरस्स वा। मणुसगदिणामाए जहणिया उदीरणा कस्स ? अण्णदरस्स संखेज्जवासाउअस्स असंखेज्जवासाउअस्स पज्जत्तस्स वा मणुस्सस्स मज्झिमपरिणामस्स । देवगदिणामाए जहणिया उदीरणा कस्स ? अण्णदरस्स कप्पोपपादियस्स वा अणुत्तरोपपादियस्स वा देवस्स मज्झिमपरिणामस्स । पंचण्णं जादिणामाणं जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? अण्णदरस्स पयडिवेदयस्स । है। मनुष्यायु और तिर्यंच आयुकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तियोंमें उत्पन्न और प्रथम-अप्रथम अथवा चरम-अचरम समयमें वर्तमान मनुष्य और तिर्यंचके होती है। देवायुकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह दस हजार वर्षकी आयुस्थितिके साथ उत्पन्न हुए देवके उत्पन्न होनेके प्रथम समययें, चरम समयमें अथवा उनसे भिन्न कसी भी समयमे स्थित रहनेपर होती है । नरकगति नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर पृथिवीमें वर्तमान मध्यम परिणामवाले पर्याप्त अथवा अपर्याप्त नारकीके होती है। तिर्यंचगति नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंमें अन्यतर पर्याप्त अथवा अपर्याप्तके तीन पल्योपम प्रमाण स्थितिसे अथवा अन्यतर आयुस्थिति युक्त होते हुए होती है। मनुष्यगति नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर संख्यातवर्षायुष्क अथवा असंख्यातवर्षायुष्क पर्याप्त अथवा अपर्याप्त मध्यम परिणामवाले मनुष्यके होती है। देवगति नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर कल्पोपपादिक अथवा अनुत्तरोपपादिक मध्यम परिणामवाले देवके होती है। पांच जातिनामकर्मोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उस उस प्रकृतिके वेदक अन्यतर जीवके होती है। + आऊण जहन्नगठिईसु ।। क.प्र. ४, ७२. तया चतुर्णामायुषामात्मीयात्मीयजघन्ययस्थितौ वर्तमानो जघन्यमनुभागम दीरयति । तत्र त्राणामायुषां संक्लेशादेव जयन्यस्थितिबन्धो भवतीति कृत्वा जघन्यानभागोर तत्रैव लभ्यते तथा नारकायुषो विशुद्धवशाज्जघन्यः स्थितिबन्धः, ततो जघन्यानभागोऽपि नारकायषस्तत्रैव लभ्यते । तथा च सति त्रयाणामायषामतिसंक्लिष्टो जघन्यान भागोदीरकः नारकायषस्त्वतिविशुद्ध इति । ( म. टीका). Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ) छक्खंडागमे संतकम्म ओरालियसरीरणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? सुहमस्स जहणियाए अपज्जत्तणिवत्तीए उववण्णस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स अविग्गहगदीए उववण्णस्स । वेउव्वियसरीरणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स वा जीवस्स? जहणियाए उत्तरविउव्वणद्धाए पढमसमयआहारयस्स। आहारसरीरणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स? जहणियाए आहारविउवणद्धाए पढमसमयआहारयस्स । तेजाकम्मइयाणं जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स? अण्णदरस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स। ओरालियसरीरअंगोवंगणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? बेइंदियस्स जहणियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए उववण्णस्स पढमसमयआहारयस्स । वेउव्वियअंगोवंगणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? पढमसमयणेरइयस्स असण्णिपच्छायदस्स पढमसमयआहारयस्स तपाओग्गउक्कस्सियाए विदोए उववण्णस्सी । आहारसरीरअंगोवंगस्स आहारसरीरभंगो । पंचसरीरबंधण-- औदारिकशरीर नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य अपर्याप्त निर्वत्तिसे एवं ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए सूक्ष्म जीवके तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें होती है । वैक्रियिकशरीर नामकर्म जघन्य अनुभाग उदीरणा किस जीवके होती है ? वह जघन्य उत्तरविक्रियाकालमें प्रथम समयवर्ती आहारकके होती है। आहारकशरीर नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य आहारकत्रिक्रियाकालमें प्रथम समयवर्ती आहारकके होती है। तैजस और कार्मण शरीरकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए अन्यतर जीवके होती है ? औदारिकशरीरअंगोपांग नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न ऐसे द्वीन्द्रिय जीवके आहारक होने के प्रथम समयमें होती है। वैक्रियिकशरीरअंगोपांग नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह असंज्ञी जीवोंमेंसे पीछे आकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिके साथ नरकमें उत्पन्न हुए प्रथम समयवर्ती नारकीके आहारक होनेके प्रथम समयमें होती है। आहारकशरीरांगोपांगकी जघन्य उदीरणाकी प्ररूपणा आहारकशरीरके समान है। पांच शरीरबन्धनों और ४ ताप्रती ' कस्स ? वा जीवस्स ? ' इति पाठः। पोग्गलविवागियाणं भवाइसमए विसेसमवि चासि । आइतणणं दोण्णं सुहमो वाऊ य अप्पाऊ ॥ क. प्र. ४, ७३. xxx तत एतदुक्तं भवति- औदारिकशरीरौदारिकसंघातौदारिकबन्धनचतुष्टयरूपस्यौदारिकषट्कस्याप्यपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियो वायुकायिको वैक्रियिकषटकस्य च पर्याप्तो बादरो वायुकायिकोऽल्णयुजघन्यानुभागोदीरको भवति । (म. टीका) xxx तत आहारकसप्तकस्य यतेराहारकशरीरमुत्पादयतः संक्लिष्टस्याल्पे काले, प्रथमसमय इत्यर्थ;, जघन्यानुभागोदीरणा । क. प्र. ४, ७४. (म. टीका ) तथा तेजससप्तक-म दु-लघवर्जशुभवर्णाद्येकाशदकागुरुलघुस्थिर-शभ-निर्माणरूपाणां (२०) विशतिप्रकृतीनां संक्लिष्टोऽपान्तरालगतौ वर्तमानोऽनाहारको मिथ्यावृष्टिजघन्यानुभागोदीरणास्वामी वेदितव्यः । क प्र ४, ७६ (म. टीका) २ इयमत्र भावना-द्वीन्द्रियोऽल्पायुरोदारिकांगोपांगनान्म उदयप्रथमसमये जघन्यमनुभागमुदीरयति । तथाऽसंजिपंचेन्द्रियः पूर्वोदलितवैक्रियो वैक्रियांगोपांगं स्तोककालं बद्ध्वा स्वभूमिकानुसारेण चिरस्थितिको नैरयिको जातस्तस्त क्रियांगोपांगनाम्न उदयप्रथमममये वर्तमानस्य जघन्यानुभागोदीरणा । क. प्र. ४, ७४. (म. टीका). Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १८७ संघादाणं सग-सगसरीरभंगो। समचउरससंठाणणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? जहण्णियाए पज्जत्तणिवत्तीए उववण्णस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स असण्णिस्स । हुंडसंठाणवज्जाणं सेसाणं संठाणाणं जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? पुवकोडाउअस्स पढमसमयआहार-पढमसमयतब्भवत्थस्स । हुंडसंठाणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? सुहुमेइंदियस्स उक्कस्सियाए पज्जत्तणिव्वत्तीए उववण्णस्स पढमसमयआहार-पढमसमयतब्भवत्थस्स । पढमसंघडणस्स पढमसंठाणस्स भंगो । चदुण्णं संघडणाणं जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? मणुस्सस्स पुव्वकोडाउअस्स पढमसमयआहार- पढमसमयतब्भवत्थस्स* । असंपत्तसेवट्टसंघडणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? बेइंदियस्स बारसवस्साउद्विदीए उववण्णस्स पढमसमयआहार-पढमसमयतब्भवत्थस्स। वण्ण-गंध-रसाणमप्पसत्थाणं सीद-ल्हुक्खाणं च जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्सा एदासिं चेव पडिवक्खाणं जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । कक्खड-गरुआणं जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? केवलिस्स मंथगदस्स पांच संघातोंकी प्ररूपणा अपने अपने शरीरनामकर्म के समान है। समचतुरस्रसंस्थान नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न हुए असंज्ञी जीवके तद्भवस्थ होने के प्रथम समयमें होती है । हुण्डकसंस्थानको छोडकर शेष संस्थानोंकी जघन्य अनभागउदीरणा किसके होती है ? वह पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण आयुवाले प्रथम समयवर्ती आहारकके तद्भवस्थ होने के प्रथम समयमें होती है । हुण्डकसंस्थानकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न होकर प्रथम समयवर्ती आहारक व प्रथम समयवर्ती तदभवस्थ हए सक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके होती है। प्रथम संहननकी जघन्य अनुभागउदीरणाकी प्ररूपणा प्रथम संस्थानके समान है। चार संहननोंकी जघन्य अनभागउदीरणा किसके होती है? वह प्रथम समयवर्ती आहारक व प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ हुए पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यके होती है। असंप्राप्तासपाटिकासंहननकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह बारह वर्ष प्रमाण आयुस्थितिके साथ उत्पन्न हुए प्रथम समयवर्ती आहारक व प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ हए द्वीन्द्रिय जीवके होती है। अप्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस तथा शीत एवं रुक्ष स्पर्शकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगीके होती है। इनकी ही प्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट संक्लेश युक्त जीवके होती है। कर्कश और गुरु स्पर्शनामकर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह मंथसमुद्घातगत . * अमणो चउरंसुसभाणप्पाऊ सगचिरट्रिई सेसे । संघयणाण य मणओ हंडवघायाणमवि सूहमो । क. प्र. ४, ७५. सेवट्टस्स बिइंदिय बारसवासस्स xxx॥ क. प्र. ४, ७६.: काप्रतौ' सीदुल्लल्हुक्खाणं, ताप्रतौ 'सीदल्ल-ल्हुक्खाणं' इति पारः। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १८८) छक्खंडागमे संतकम्म णियत्तमाणस्स. । लहुअ-मउआणं जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? सण्णिस्स अणाहारययस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स+। णिरयाणुपुग्विणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? णेरइयस्स अण्णदरिस्से पुढवीए वट्टमाणस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स दुसमयतब्भवत्थस्स वा।तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? अण्णदरस्स तिरिक्खस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स दुसमयतन्भवत्थस्स तिसमयतब्भवत्थस्स वा। मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? अण्णदरस्स मणुस्सस्स पढमविग्गहे बिदियविग्गहे वा वट्टमाणस्स? देवाणुपुवीणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? अण्णदरस्स दसवस्ससहस्सियस्स वा तेत्तीसं सागरोवमियस्सर वा। अगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-णिमिणणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? उकक्स्ससंकिलिट्ठस्स । अथिर-असुहाणं जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स? सजोगिचरिमसमए । उक्घादणामाए जह० कस्स? सुहमेइंदियस्स उक्कस्सियाए पज्जत्तणिवत्तीए उववण्णस्स पढमसमयआहार-पढमसमयतब्भवत्थस्स*। परघादणामाए जह० कस्स? सुहमस्स जहणियाए पज्जत्तणिवत्तीए वट्टमाणस्स पढमसमयपज्जत्तयस्स। केवलीके उससे पीछे हटनेकी अवस्थामें होती है। लघु और मृदुकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त संज्ञी अनाहारक जीवके होती है । नारकानुपूर्वी नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर पृथिवीमें वर्तमान नारकीके तद्भवस्थ होने के प्रथम समयमें अथवा उसके द्वितीय समयमें होती है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ, द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ, अथवा तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ अन्यतर तिर्यंच जीवके होती है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह प्रथम विग्रह अथवा द्वितीय विग्रहमें वर्तमान अन्यतर मनुष्यके होती है । देवानुपूर्वी नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती हैं ? वह दस हजार वर्षकी आयुवाले अथवा तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले अन्यतर देवके होती है । ___ अगुरुलघु, स्थिर, शुभ और निर्माण नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है? वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए जीवके होती है । अस्थिर और अशुभकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह सयोग केवलीके अन्तिम समयमें होती है। उपघात नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न हुए प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके होती है। परघात नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य पर्याप्त निर्वत्तिमें वर्तमान सूक्ष्म जीवके पर्याप्त होनेके प्रथम समयमें होती है। कक्खड-गरूण मंते (थे) नियत्तमाणस्स केवलिणो॥ क. प्र. ४, ७८. .xxx मउय । सन्निविसुद्धाणाहारगस्सxxx ॥ क.प्र. ४, ७६. 3 अप्रतो' सागरोवमेयस्स', काप्रती 'सागरोवमाणि', ताप्रती 'सागरोवमाणियस्स'। * हंडवघायाणमवि सुहमो॥क. प्र.४,७५. तथा सूक्ष्म केन्द्रियः सुदीर्घायुःस्थिक आहारकः प्रयमसमये हुंडोपघातनाम्नोर्जघन्यानुभागोदीरकः । म. टीका. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १८९ आदावणामाए जह० कस्स? बादरपुढविजीवस्स जहणियाए पज्जत्तीए उववण्णस्स सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमए वट्टमाणस्स। उज्जोवणामाए आदावभंगो। उस्सासणामाए जह० कस्स ? अण्णदरस्स देवस्स रइयस्स एइंदिय-बेइंदिय-तीइंदियचरिदिय-पंचिदियस्स वा। पसत्थापसत्थविहायगदीणं जह० कस्स? अण्णदरस्स तदुदइल्लस्स । तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्ताणं जह० कस्स? एदासि पयडीयं जो वेदओ सो सम्वो पाओग्गो जहण्णाणुभागउदीरणमुदीरे, । पत्तेयसरीरणामाए जह० कस्स? सुहमस्स जहणियाए अपज्जत्तणिवत्तीए उववण्णस्स पढमसमयआहार-पढमसमयतब्भवत्थस्स। साहारणसरीरणामाए जह० कस्स? सुहुमस्स पढमसमयआहारयस्स उक्कस्सियाए पज्जत्तणिव्वत्तीए उववण्णस्स । सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणा देज्ज-जसगित्ति-अजसगित्ति-णीचुच्चागोदाणं जह० कस्स? एदासि पयडीणं जो वेदओ सो सव्वो पाओग्गो जहणियअणुभागउदीरणमुदीरे, । तित्थयरणामाए जह० को होदि? पढमसमयकेवलिप्पहुडि जाव केवलसमुग्धादस्स चरिमसमयअणावज्जिदगो त्ति ताव जहण्णाणुभागउदीरओ।पंचण्णमंतराइयाणं जह० कस्स ? समयाहियावलिय आतप नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य पर्याप्तिसे उत्पन्न हुए बादर पृथिवीकायिक जीवके शरीरपर्याष्तिसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयमें वर्तमान होनेपर होती है। उद्योत नामकर्मकी प्ररूपणा आतप नामकर्मके समान है। उच्छ्वास नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर देव, नारकी अथवा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रियके होती है। प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतिकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उनके उदयसे संयुक्त अन्यतर जीवकें होती है। त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्तकी जघन्य उदीरणा किसके होती है? जो जीव इन प्रकृतियोंके वेदक हैं वे सब उनकी जघन्य अनुभागउदीरणा करनेके योग्य होते हैं। प्रत्येकशरीर नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न हुए प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्म जीवके होती है । साधारणशरीर नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वत्तिसे उत्पन्न होकर प्रथम समयवर्ती आहारक हुए सूक्ष्म जीवके होती है । सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीति, नीचगोत्र और ऊंचगोत्र ; इनकी जघन्य उदीरणा किसके होती है? जो इन प्रकृतियोंके वेदक हैं वे सब उनकी जघन्य अनुभागउदीरणा करनेके लिये योग्य होते हैं। तीर्थकर नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? प्रथम समयवर्ती केवलीसे लेकर केवलसमुद्घातके पूर्व अनावजितकरण अवस्थाके अन्तिम समय तक उसकी जघन्य अनुभागउदीरणा होती है। पांच अन्तराय कर्मोंकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? छद्मस्थ अवस्थामें एक तथा आतपोद्योतनाम्नोस्तद्योग्यः पृथिवीकायिकः शरीरपर्याप्या पर्याप्तः प्रथमसमये वर्तमानः संक्लिष्टो जघन्यानुभागोदीरकः । क. प्र. (म. टीका) ४, ७७.४ प्रतिषु 'अजहण्णाणुभागउदीरओ' इति पाठः। जा नाउज्जियकरणं तित्थयरस्स xxx। क. प्र. ४, ७८. ज ति- आयोजिकाकरणं नाम Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ) चरिमसमयछदुमत्थस्स । एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो । तं जहा -- आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्साणुभागउदीरणकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कण बेसमया । अणुक्कस्स० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सुद--ओहिमणपज्जव - केवलणाणावरणीयाणं आभिणिबोहियणाणावरणभंगो । चक्खु - अचक्खु - ओहि --- केवलदंसणावरणीय---मिच्छत्त--अथिर-- असुह--- दुभग-- अणादेज्ज --- णीचागोद -पंचतराइयाणं उक्कस्सअणुभागुदीरणकालो जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । णवरि अचक्खुदंसण ---पंचतराइयाणमुक्कस्साणुभागउदीरणा जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गसपरियट्टा । वरि अचक्खुदंसण- पंचतराइयाणं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्कस्सेण छक्खंडागमे संतकम्मं समय अधिक आवली मात्र शेष रह जानेपर होती है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । एक जीव की अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- आभिनिबोधिकज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय है । उसकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय व उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है | श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के कालकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्णनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, मिथ्यात्व, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, नाचगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय प्रमाण है । विशेष इतना है कि अचक्षुदर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्ष से एक समय मात्र है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । विशेष इतना है कि अचक्षुदर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से केवलसमुद्घातादर्वाग् भवति । तत्राङ् मर्यादायाम् । आ मर्यादया केकलिदृष्ट्या योजनं व्यापारणं आयोजनम् । तच्चातिशुभयोगानामवसेयम् । आयोजगमायोजिका, तस्याः करणं आयोजिकाकरणम् । केचिदावर्जितकरणमाहुः । तत्रायं शब्दार्थ:-- आवर्जितो नाम अभीमुखीकृतः । तथा च लोके वक्तारःआवजितोऽयं मया, संमुखीकृत इत्यर्थः । ततश्च तथा भव्यत्वेनावजितस्य मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं शुभयोगव्यापारणं आवर्जितकरणम् । अपरे 'जा नाउस्सयकरणं' इति पठन्ति । तत्रायं शब्दसंस्कारः-आवश्यककरणमिति । अन्वर्थश्चायं आवश्यकेनावश्यं मावेन करणमावश्यककरणम् । तथाहि-- समुद्घातं केचित् वुर्वन्ति, केचिच्च न कुर्वन्ति । इद त्वावश्ककरणं सर्वेऽपि केबलिनः कुर्वन्तीति । तच्चायोजिकाकरणमसंख्येयसमयात्मकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् । x x x तद्याववन्नाद्याप्यारभ्यते तावतीर्थंकरकेवलिनस्तीर्थंकरनाम्नो जघन्यानुभागोदीरणा । ( म. टीका ) काप्रती 'मुक्कस्साणुक्कस्सजहष्णुक्क ० ' ताप्रती 'मुक्कस्सा णुक्कस्स ० ( मुक्कस्साणुभागु० ) जहण्णुक्कस्त०', इति पाठः । " Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १९१ असंखेज्जा लोगा। दसणावरणपंचयस्स उक्क० अणुभागु० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं ।। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभाग० जहण्णुक्क० एगसमओ । अणुक्क० जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० सम्मामिच्छ० अंतोमु० सम्मत्त० छावट्ठिसागरोवमाणि आवलियूणाणि । सादासाद-सोलसकसाय-णवणोकसायाणमुक्कस्सअणुभागुदीरणा केवचिरं कालादो होदि? जहण्णण एगसमओ, उक्क० बेसमया। अणुक्क० अणुभागउदीरणा साद-हस्स-रदीणं जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा। असाद-अरदि-सोगाणं जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । णवंसयवेदस्स जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । पुरिसवेदस्स जह० एगसमओ, उक० सागरोवमसदपुधत्तं । इत्थिवेदस्स जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं। णिरयाउ-देवाउआणमुक्कस्सअणुभागउदीरणा जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि । तिरिक्ख असंख्यात लोक प्रमाण है। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र है। उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्का सम्यक्त्व और सम्पग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय प्रमाण है। उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । उत्कर्ष वह सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त और सम्यक्त्वका एक आवलीसे कम छयासठ सागरोपम प्रमाण है। साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय और नौ नोकषाय ; इनके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय तक होती है । अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल सातावेदनीय, हास्य व रतिका जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे छह मास; असातावेदनीय, अरति और शोकका जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम; सोलह कषाय, भय व जुगुप्साका जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त ; नपुंसकवेदका जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन; पुरुषवेदका जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व; तथा स्त्रीवेदका जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे पल्योपमशतपृथक्त्व प्रमाण है । ___ नारकाय व देवायुकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होती है। इनकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवलीसे ताप्रतौ ' अगुकक० (भा० )' इति पाठः। ताप्रतौ ' एगसमओ ......।' इति पाठः । • सम्पत्तस्स उक्कस्साणभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुककस्से ग एगसमओ। अणुक्कस्साणभागउदौरगो केवचिरं कालादोहोदि? जहण्णेण अंतोमुहतं। उक्स्से ण छावट्रिसागरोवमाणि आवलियणा'ण । सम्मा मच्छ तस्स उकास्साणु भागउदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुककस्सेण एयसमयो । अणुक्कस्सा णु मागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहणगुककस्सेण अंतोमुहुसं। क. पा. ( चू. सू.) प्र.ब.पृ. ५४३५. Jain Education international Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं मणु साउआणमुक्कस्सअणुभागुदीरणा जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया तिर्णण चत्तारि समया वा । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० तिष्ण पलिदोवमाणि आवलियूणाणि । चदुष्णं पि गईणमुक्कस्समणुभागुदीरणा जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० णिरय देवगईणं तेत्तीसं सागरोवमाणि, मणुसगईए तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वको डिपुधत्तेण भहियाणि, तिरिक्खगईए असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । पंचणं जादोणमुक्क० केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क० अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० सग-सगुक्क सद्विदीओ । ओरालिय-वेउव्वियआहार-सरीराणमुक्कस्सअणुभागुदीरणा० केवचिरं० ? जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण बेसमया । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० ओरालियसरीरस्स अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, वे उव्वियसरीरस्स तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि आहारसरीरस्स अंतोमुत्तं । तेजा - कम्मइयाणमुक्कस्स अणुभागुदीरणा केवचिरं० ? जहण्णुक्क० एगसमओ । अणुक्क० अणादि-अपज्जवसिदा अणादि सपज्जवसिदा वा । तिण्णि अंगोवंगपंचसरीरबंधण - संघादाणं च सग-सगसरीरभंगो । णवरि ओरालियअंगोवंग ० कम तेतीस सागरोपम प्रमाण होती है । तिर्यचायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से दो समय अथवा तीन चार समय होती है । इनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवलीसे कम तीन पल्योपम प्रमाण होती है । चारों गति नामकर्मोंकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र होती है । इनकी अनुत्कृष्ट उदीरणा जघन्य से एक समय होती है । उत्कर्ष से वह नरक व देवगतिकी तेतीस सागरोपम काल, मनुष्यगतिकी पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम, तथा तिर्यंचगतिकी असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होती है । पांच जातिनामकर्मोंकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होती है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होती है । औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से दो समय होती है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय होती हैं । उत्कर्षसे वह औदारिकशरीरकी अंगुलके असंख्यातवें भाग, वैक्रियिकशरीर की साधिक तेतीस सागरोपम, तथा आहारकशरीरकी अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है। तेजस व कार्मण शरीरकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? व जघन्य व उत्कर्ष से एक समय होती है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनादि-अपर्यवसित अथवा अनादि - सपर्यवसित होती है। तीन अंगोपांग, पांच शरीरबन्धन और पांच संघात नामकर्मोंकी प्ररूपणा अपने अपने शरीरके समान है । विशेष इतना है कि औदारिकशरी रांगोपांगकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पत्योपम XXX ताप्रती ( अणुक्क० )' इति पाठः । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्क माणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा अणुक्क सुक्कस्सस्स तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वको डिपुधत्तेणब्भहियाणि । छसंठाण - छसंघडणाणं च उक्क० अणुभागुदीरणा केवचिरं० ? जहणेण एगसमओ, उक्क० बेसमया । अणुक्क० जह० एगसमओ । उक्क० समचउरससंठा णस्स बे-छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि, इंडसंठाणस्स अंगुलस्स असंखे० भागो साणं संठाणाणं पुव्वको डिपुधत्तं । वज्जरिसहवइरणारायणसंघडणस्स तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वको डिपुधत्तेणब्भहियाणि, सेसाणं संघडणाणं पुव्वकोडिपुधत्तं । पसत्थवण्ण-गंधरस- णिङ्घण्णाणं तेजा - कम्मइयसरीरभंगो । अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-सीद ल्हुक्खकक्खड-गरुआणं णाणावरणभंगो। मउअ - लहुआणमुक्कस्सअणुभागउदीरणा केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्कस्सेण बेसमया । अणुक्क० अणादि - अपज्जवसिदा अणादिसपज्जवसिदा सादि सपज्जवसिदा । तत्थ सादि-सपज्जवसिदा जहणेण एगसमओ' उक्क ० अद्धपोग्गलपरियटं । (१९३ चदुण्णमाणुपुव्वीणमुक्कस्सअणुभागुदीरणा केवचिरं० ? जहष्णुक्क० एगसमओ । अणुक्क० अणुभागुदीरणा केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । णवरि तिरिक्खाणुपुव्वीए तिष्णिसमया । अधवा तिरिक्खाणुपुथ्वीए चत्तारिसमया सेसाणं तिणिसमया । अगुरुअलहुअ-थिर- सुभ- णिमिणणामाणं तेजा - कम्मइयभंगो । उवघाद प्रमाण है । छह संस्थानों और छह संहननोंकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल तक होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय तक होती है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय होती है । उत्कर्ष से वह समचतुरस्र संस्थानकी साधिक दो छ्यासठ सागरोपम, हुण्डकसंस्थानकी अंगुलके असंख्यातवें भाग, तथा शेष संस्थानों की पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक होती है । उक्त उदीरणा वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननकी पूर्वकोटिप्थक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम तथा शेष संहननोंकी पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक होती है । प्रशस्त वर्ण, गन्ध, उसकी तथा स्निग्ध और उष्ण स्पर्शकी प्ररूपणा तैजस व कार्मण शरीरके समान है । अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस तथा शीत, रूक्ष, कर्कश व गुरु स्पर्श नामकर्मोकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । मृदु और लघुकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से दो समय तक होती है। उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल अनादिअपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित और सादि - सपर्यवसित भी है । उनमें सादि सपर्यवसितका प्रमाण जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गल - परिवर्तन है । चार आनुपूर्वियोंकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल होती है। वह जघन्य व उत्कर्ष से एक समय होती है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल होती है । वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से दो समय तक होती है। विशेष इतना है कि तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी उक्त उदीरणा तीन समय तक होती है । अथवा तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी उक्त उदीरणा काल चार समय और शेष आनुपूर्वियोंका तीन समय है। अगुरुलघु, स्थिर, शुभ और निर्माण नामकर्मकी प्ररूपणा तैजस व कार्मण शरीरके समान है । उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४) छक्खंडागमे संतकम्म परघाद-आदाव-उज्जोव-उस्सास--पसत्थापसत्थविहायगइ--तस-थावर--बादर-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारण-दुस्सर-अजसकित्तीणमुक्कस्साणुभागउदीरणा केवचिरं? जहण्णण एगससओ, उक्कस्सेण बेसमया। अणुक्क० जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण जच्चिरं पयडिउदीरणा तच्चिरं कालं । जसगित्ति-सुभग-सुस्सर-आदेज्जउच्चागोदाणं उक्क० अणुभागुदीरणा केवचिरं०? जहण्णुक्क० एगसमओ। अणुक्कस्सं जच्चिरं पयडिउदीरणा तच्चिरं कालं । तित्थयरणामाए उक्कस्सअणुभागउदीरणा केवचिरं०? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सा० केवचिरं०? जह० वासपुधत्तं, उक्कस्सेण पुचकोडी देसूणा । एवमुक्कस्सअणुभागउदीरणाए कालो समतो। एत्तो जहण्णाणुभागउदीरणकालो वुच्चदे। तं जहा- पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं जहण्णागुभागउदीरणा जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्णाणुभागउदीरणा अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा । णिद्दापयलाणं जहण्णाणुभागुदोरणा जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अजहण्णउदीरणाए जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थोणगिद्धोणं जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। अजहण्ण० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण दस्वर और अयशकीर्तिकी उत्कृष्ट अनभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होती है। उनकी अनत्कृष्ट अनभाग उदीरणा जघन्यसे एकसमय और उत्कर्षसे जितने काल उनकी प्रकृतिउदीरणा होती है उतने काल होती है। यशकीर्ति, सुभग सुस्वर, आदेय और ऊंच गोत्रकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जितने काल प्रकृति उदीरणा होती है उतने काल होती है। तीर्थकर नामकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागउदी रणा कितने काल होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। उसकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे वर्षपृथक्त्व व उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल तक होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल समाप्त हआ। यहां जघन्य अनुभाग उदीरणाका काल कहा जाता है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय कर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। उनकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित भी है। निद्रा और प्रचलाकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है। उनकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी जघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होती है । उनकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक होती है। साता व असाता वेदनीयके जघन्य अनु Jain Education international Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १९५ सादासादाणं जहण्णाणुभागस्स जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारिसमया। अजहण्ण जह० एगसमओ। उक्क० सादस्स छम्मासा, असादस्स तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तब्भहियाणि । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जह० केवचिरं०? जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्ण० मिच्छत्तस्स तिण्णिभंगा । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। सम्मत्तस्स जह० अंत्तोमुहुत्तं, उक्क० छावट्ठिसागरोवमाणि समयाहियावलियूणाणि । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णुक्क० अतोमुहुत्तं । सोलसणं कसायाणं जहण्णाणुभागउदीरणा* केवचिरं? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्ण० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । णवणं णोकसायाणं जहण्णाणुभागुदीरणा केवचिरं०? जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्ण० हस्स-रदीणं जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा । अरदि-सोगाणं जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोत्रमाणि सादिरेयाणि । भय-दुगुंछाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । णqसयवेदस्स जह० एयसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । इत्थिवेदस्स जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवेदस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । भागकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय मात्र है। उनकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है। उत्कर्षसे वह सातावेदनीयका छह मास और असातावेदनीयका अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है । मिथ्यात्वकी जघन्य उदीरणाके विषयमें ( अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित व सादि-सपर्यवसित ये ) तीन भंग हैं। उनमें जो सादि-सपर्यवसित भंग है उसका काल जघन्यसे अन्तर्महुर्त व उत्कषसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। सम्यक्त्वकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे एक समय अधिक आवलीसे हीन छयासठ सागरोपम काल तक होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य उदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त काल तक होती है। सोलह कषायोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। उनकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त काल तक होती है। नौ नोकषायोंको जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है । अजघन्य उदीरणा हास्य व रतिकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे छह मास, अरति व शोककी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम, भय व जुगुप्साकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त, नपुंसकवेदकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन, स्त्रीवेदकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे पल्योपमशतपृथक्त्व, तथा पुरुषवेदकी जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक होती है । * मप्रो 'जहण्णाणुभागउदीरणा अणुभागउदीरणा' इति पाठः । | Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ) छक्खंडागमे संतकम्म आउआणं जहण्णाणुभागुदीरणा केवचिरं ? जह० एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमया। अजहण्ण० जह० एगसमओ, उक्क० णिरय-देवाउआणं तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि, तिरिक्ख-मणुस्साउआणं तिणि पलिदोवमाणि आवलियणाणि। चदुण्णं गदीणं जहण्णाणुभागुदीरणा केवचिरं ? जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारिलमया । अजहण्ण० जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण णिरय-देवगईणं तेत्तीसं सागरोवमाणि, मणुसगदीए तिणिपलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, तिरिक्खगइए असंखेज्जा लोगा । ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीराणं जहण्णाणुभागउदीरणा केवचिरं०? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्ण० ओरालियसरीरस्स जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो; वेउम्विय जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि; आहारसरीरस्स जहण्णुक्कस्सेणx अंतोमुहत्तं । तेजा-कम्मइयसरीराणं जहण्णाणुभागउदीरणा केवचिरं? जह० एगसमओ, उक्क० बे समया। अजहण्ण. जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। तिण्णिअंगोवंग-पंचसरीरबंधण-पंचसरीरसंघादाणं सग-सरीरभंगो। आयु कर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय तक होती है। उनकी अजघन्य अनुभागउदारणा जघन्यसे एक समय होती है। उत्कर्षसे वह नारकायु व देवायुकी एक आवलीसे कम तेतीस सागरोपम, तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायुकी एक आवलीसे कम तीन पल्योपम प्रमाण होती है। चार गति नामकर्मोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय तक होती है। उनकी अजघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय होती है। उत्कर्षसे वह नरकगति व देवगतिकी तेतीस सागरोपम, मनुष्यगतिकी पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम, तथा तिर्यंचगतिकी असंख्यात लोक प्रमाण काल तक होती है। औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल तक होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। अजघन्य अनुभागउदीरणा औदारिकशरीरकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग, वैक्रियिकशरीरकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम, तथा आहारशरीरकी जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त काल तक होती है । तैजस व कार्मण शरीरकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय तक होती है। उनकी अजघन्य अनभागउवीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होती है। तीन अंगोपांग, पांच शरीरबंधन और पांच शरीरसंघात प्रकृतियोंकी उक्त उदीरणाकी प्ररूपणा अपने अपने शरीरके समान है। विशेष इतना है कि औदारिकशरीरअंगोपांगकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका ४ प्रतिषु 'आहारसरीरस्स जह• अणु (अ. जहण्णुक्क० ) केवचिरं ? जह० उक्क० एगसमओ। अजह० जहणकस्सेग' इति पाठः । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १९७ णवरि ओरालियअंगोवंग० अनहष्णुक्कस्स तिण्णि पलिदोवमाणि पुन्वकोडिपुधत्तेण भहियाणि । ___ छसंठाण-छसंघडणाणं जहण्णाणुभागुदीरणा केवचिरं कालादो होदि? जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्ण समचउरससंठाणस्स जहण्णण एगसमओ, उक्क० बे-छावट्टिसागरोवमाणि । हुंडसंठाणस्स जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो। वज्जरिसहवइरणारायण० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सेसाणं संठाणाणं संघडणाणं च जह० एगसमओ, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । काल-णीलय-तित्त-कडुअ-दुग्गंध-सीद-ल्हुक्खाणं जहण्णाणुभागुदीरणा जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अजहण्ण. अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा । पसत्थ-वण्ण-गंध-रसाणं-णिधुण्हाणं च जहण्णाणुभागउदोरणा जह० एगसमओ, उक्क० बे-समया। अजहण्ण० जह० एगस० उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । मउअ-लहुआणं जहण्णाणुभागुदी० केवचिरं० ? जहण्णु० एगसमओ । अजहण्णअणुभागुदीरणा जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोंग्गलपरियट्टा । कक्खड-गरुआणं जहण्णाणु० केवचिरं० ? जहण्णुक्क एगसमओ। अजहण्णाणुभागउदीरणा अणादिय-अपज्जवसिदा अणादियसपज्जवसिदा सादिसपज्जवसिदा वा । जा सादि-सपज्जवसिदा सा जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाण है। छह संस्थानों और छह संहननोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। अजघन्य अनुभागउदीरणा समचतुरस्रसंस्थानकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे दो छयासठ सागरोपम, हुंण्डकसंस्थानकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग, वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम, तथा शेष संस्थानों और संहननोंकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथत्व काल तक होती है। कृष्ण व नील वर्ण, तिक्त व कटु रस, दुर्गन्ध तथा शीत व रूक्ष स्पर्श नामकर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। उनकी अजघन्य अनुभागउदीरणा काल अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित भी है। प्रशस्त वर्ण, गन्ध और रस नामकर्मोकी तथा स्निग्ध व उष्ण स्पर्श नामकर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय तक होती है। उनकी अजघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन काल तक होती है। मृदु और लघु स्पर्शनामकर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। इनकी अजघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन काल तक होती है। कर्कश और गुरु स्पर्शनामकर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल तक होती है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। उनकी अजघन्य अनुभाग-उदीरणा अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित होती है। उनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८) छक्खंडागमे संतकम्म चदुण्णमाणुपुन्वीणामाणं जहण्णाणुभाग० अजहण्णाणुभागउदी० च केवचिरं०? जहण्णेण एगसमओ, उक्क० बेसमया । णवरि तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणामाए तिण्णिसमया। केसि पि आइरियाणं अहिप्पाएण सव्वासिमाणुपुन्वीणमुक्कस्सकालो तिण्णिसमया, तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए चत्तारिसमया । अगुरुअलहुअ-थिर-सुभणिमिणणामाणं तेजा-कम्मइयभंगो। अथिर-असुह-उवधाद-परबाद-पत्तेय-साहारणसरीर-आदावुज्जोवणामाणं जहण्णाणुभागुदी० जहण्गुक्क० एगसमओ । अजहण्णाणुभागुदी० अथिर-असुहाणं अणादिया अपज्जवसिदा अणादिया सपज्जवसिदा । उवघादणामाए जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अंगुलस्स असंखे०भागो। परघादणामाए जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि, पत्तेयसाहारणसरीराणं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। आदावणामाए जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बावीसवाससहस्साणि देसूणाणि । उज्जोवणामाए जह० एगसमओ, उक्क० तिपलिदोवमाणि देसूणाणि । जादिपंचय-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहम-पज्जत्तापज्जतसुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चा-णीचागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणा जह० एगसमओ, उक्क०चत्तारिसमया। अजहण्णाणुभागुदी० चार आनुपूर्वी नामकर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा और अजघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होती है। विशेष इतना है कि तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी उदीरणाका काल उत्कर्षसे तीन समय मात्र है। किन्हीं आचार्योंके अभिप्रायसे सब आनुपूर्वियोंका उत्कृष्ट काल तीन समय और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका चार समय है। अगुरुलघु, स्थिर, शुभ और निर्माण नामकर्मकी इन उदीरणाओंके कालकी प्ररूपणा तैजस व कार्मण शरीरके समान है।। - अस्थिर, अशुभ, उपघात, परघात, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, आतप और उद्योत नामकर्मोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। अजघन्य अनुभागउदीरणा अस्थिर और अशुभकी अनादि-अपर्यवसित व अनादि-सपर्यवसित, तथा उपघात नामकर्मकी जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग, परघात नामकर्मकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम, प्रत्येक व साधारण शरीरकी जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त व उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग, आतप नामकर्मकी जघन्यसे अन्तमुहूर्त व उत्कर्षसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष, तथा उद्योत नामकर्मकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे कुछ कम तीन पल्योपम काल तक होती है। ___ पांच जातियां, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, ऊंचगोत्र और नीचगोत्र; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय तक ताप्रती 'जादिपंचयस्स' इति पाठः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा जह० उस्सास-पसत्थविहायगइ-सुस्सर-दुस्सराणं एगसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । तसणामाए जहण्णण एगसमओ, उक्क० बेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि । थावर-एइंदियणामाणं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। चदुण्णं जादीणं जह० एगसमओ, उक्क० सगढ़िदी । बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्ताणं जह० एगसमओ; उक्क० बादरणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, सुहुमणामाए असंखेज्जा लोगा, पज्जत्तणामाए बेसागरोवमसहस्साणि, अपज्जत्तणामाए अंतोमुहुत्तं । जसगित्ति-सुभग-आदेज्जाणं जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसहपुधत्तं। अजसगित्ति-दुभग-अणादेज्जाणं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। उच्चागोदस्स जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । णीचागोदस्स जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। तित्थयरणामाए जहण्णाणुभागुदी० केवचिरं० ? जह० वासपुधत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा देसूणचउरासीदिलक्खमेत्तपुव्वाणि वा। अजहण्ण० जहण्णुक्क०* अंतोमुत्तं । एवमेयजीवेण कालो समत्तो। एयजीवेण अंतरं । तं जहा- पंचणाणावरणीय-अट्ठदसणावरणीय-असादावेदणीय होती है। अजघन्य अनुभागउदीरणा उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति और सुस्वरकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम काल तक होती है। त्रस नामकर्मकी अजघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम काल तक होती है। उक्त अजघन्य उदीरणा स्थावर और एकेन्द्रिय नामकर्मकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र काल तक होती है। चार जाति नामकर्मकी वह उदीरणा जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अपनी स्थिति प्रमाण होती है । बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त व अपर्याप्तकी जघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय होती है। उत्कर्षसे वह बादर नामकर्मकी अंगलके असंख्यातवें भाग, सूक्ष्म नामकर्मकी असंख्यात लोक, पर्याप्त नामकर्मकी दो हजार सागरोपम, तथा अपर्याप्त नामकर्मकी अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है। यशकं ति, सुभग और आदेयकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक होती है । अयशकीर्ति, दुर्भग और अनादेयकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक काल तक होती है। ऊंच गोत्रकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सागरोपमशत पृथक्त्व काल तक होती है। नीचगोत्रकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र काल तक होती है। तीर्थंकर नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल तक होती है ? वह जघन्यसे वर्षपृथक्त्व तथा उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल अथवा कुछ कम चौरासी लाख मात्र पूर्व तक होती है। उसकी अजघन्य अनुभागउदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है । इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, आठ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायु, 0 अप्रती 'अणुकक०' इति पाठः। 8 अप्रतौ 'अंतरं जहा' इति पाठः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ) छक्खंडागमे संतकम्म मिच्छत्त-सोलसकसाथ-णवणोकसाय-णिरय-तिरिक्ख-मणुसाउअ-णिरय-तिरिक्खमणुसगइओरालियसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघाद-पंचसंठाण-छसंघडण-अप्पसत्थवष्णगंध-रस-फास-विलिंदियजादि-उवघाद-अप्पसत्थविहायगइ-अथिर-असुह-दूभग-दुस्सरअणादेज्ज-अजसकित्ति-णीचागोदाणं उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्ठा । अचक्खुदंसणावरगीयस्स अंतराइय पंचयस्स उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सादावेदणीय-देवाउ-देवगइ-पंचिदियजादि-आहार-वेउब्वियसरीराणं तदंगोवंग-बंघणसंघादणामाणं समचउरससंठाण-मउअ-लहुग-परघाद-उज्जोव-पसत्थविहायगइ-तसबादर-पज्जत्त--पत्तेयसरीर--उस्सासणामाणं च उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह ० एगसमओ, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियठें। णवरि साद-देवाउ-देवगदि-वेउदिवयचउक्कचिदिय-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्ताणं तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । तेजाकम्मइयसरीर-पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज जसकित्ति-तित्थयरणिमिणुच्चागोदाणमुक्कस्साणुभागउदीरणाए णत्थि अंतरं। णिरयाणुपुवीए उक्कस्साणुभागुदी० जह० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तिरिक्खाणुपुवीए अट्टवस्साणि समऊणाणि । मणुस्साणुपुव्वीए तिण्णि पलिदोवमाणि तिर्यगायु, मनुष्यायु, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात, पांच संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, विकलेन्द्रिय जाति, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय अयशःकीर्ति और नीचगोत्र; इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । अचक्षुदर्शनावरण की तथा पांच अंतरायकी उत्कृष्ट अनभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय कम क्षद्रभवग्रहण व उत्कर्षसे असंख्यात लोकमात्र होता है । सातावेदनीय, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, आहारकशरीर, वैक्रियिकशरीर, उन दोनों शरीरोंके अंगोपांग, बन्धन व संघात नामकर्म, समचतुरस्रसंस्थान, मृदु, लघु, परघात, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और उच्छवास नामकर्म; इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय वउत्कर्षसे उपार्ध पुदगलपरिवर्तन काल तक होता है। विशेष इतना है कि सातावेदनीय, देवाय, देवगति, वैक्रियिकचतुष्क, पंचेन्द्रियजाति, उच्छ्वास, त्रस, बादर और पर्याप्तका उपर्यक्त अन्तर उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम काल तक होता है । तैजस व कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थंकर, निर्माण और उच्चगोत्र; इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर नहीं होता। उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे नारकानुपूर्वीका साधिक तेतीस सागरोपम, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका एक समय कम आठ वर्ष, और मनुष्यानुपूर्वीका साधिक तीन पल्योपम ४ मिच्छत्तस्स उक्कस्सागभागुदोरगतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियड़ा। अणुक्कस्साणुभागुदीरणंतरं केवचिरं कालादो होदि? जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण बे-छावट्रिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । क. पा. (च.सू.) प्रे. ब. पृ. ५४४८-४९. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उareमाणुयोगद्दारे द्विदिउदीरणा ( २०१ सादिरेयाणि । उक्कस्सं तिष्णं पि एइंदियट्ठिदी । देवाणुपुव्वीए जहण्णुक्कस्सेण णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उवक० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं । अणुक्कस्सस्स पर्याडिउदीरणंतरभंगो Q । आदावणामाए उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एइंदियजादि थावर - सुहुम-साहारणसरीराणं उक्कस्साणुभाग उदीरणंतरं जह० एगसमओ उक्क० असंखे० लोगा । अपज्जत्तणामाए उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखे ० पोग्गलपरियट्टा । एवमोघुक्कस्सं समत्तं । जहण्णाणुभागुदीरणंतरं । तं जहा - पंचणाणावरणीय - चउदंसणावरणीय णवणोकसाय--चदुसंजलण-सम्मत्त अप्पसत्थत्रण्ण-गंध-रस- फास अथिर-असुभ - पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं णत्थि । णिद्दा- पयला-मिच्छत्त- सम्मामिच्छत्तबारसकसायाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गल - परियहं । णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थीणगिद्धीणं जहण्णाणुभाग० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं । सादासादाणं जह० उदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । मात्र काल तक होता है । उत्कृष्ट अन्तर इन तीनोंही का एकेन्द्रियकी स्थिति प्रमाण होता है । देवानुपूर्वीकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे व उत्कर्ष से भी नहीं होता । सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र होता है । इनकी अनुत्कृष्ठ अनुभागउदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा प्रकृतिउदीरणा के अन्तर जैसी है। आतप नामकर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका अन्तर जघ - न्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है । एकेन्द्रियजाति, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण शरीरकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। अपर्याप्त नामकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अग्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । इस प्रकार ओघ उत्कृष्ट समाप्त हुआ । जघन्य अनुभागउदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, नौ नोकषाय, चार संज्वलन, सम्यक्त्व, अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस व स्पर्श, अस्थिर, अशुभ और पांच अंतराय; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अंतर नहीं होता । निद्रा, प्रचला, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषाय; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी जघन्य उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । साता व असातावेदनीयकी जघन्य उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात लोक मात्र काल तक होता है । एवं से साणं कम्माणं सम्मत्त सम्मामिच्छतवज्जाणं । नवरि अणुक्कस्साणूभागुदीरणंतरं पयडिअंतरं कादव्वं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुक्कस्साणुभागुदीरणंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं । क. पा. ( च. सू ) प्रे. ब. पू. ५४५०-५१ . अ-काप्रत्योः चदुसंजणअप्पसत्थ' इति पाठः । 4 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्मं २०२ ) 1 चदुण्णमाउआणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ । उक्क० तिण्णमाउआणमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, तिरिक्खाउअस्स असंखेज्जा लोगा । चदुष्णं गईणं सग-सग आउअभंगो । ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीराणं ओरालिय-वेउब्विय-आहारसरीरंगो वंगाणं तेसि बंधण-संघादाणं उवघाद-परघाद-आदावुज्जोव-पत्तेय-साहारणाणं च जहणाणुभागुदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० ओरालियसरीरबंधण-संघाद-उवघादपरघाद-साहारणसरीराणमसंखेज्जा लोगा, वेउव्वियसरीर - ओरालिय- वेडव्वियसरीरंगोवंगतब्बंधण-संघाद-पत्तेय ० - आदावुज्जोवाणं उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, आहारसरीरआहारसरीरअंगोवंग-तब्बंधण-संघादाणं उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियहं । णवरि वेव्विय अंगोवंगणामाए जहण्णेण पलिदो० असंखे० भागो, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । हुंडठाणस्स ओरालियसरीरभंगो । पंचसंठाण छसंघडणाणं जहण्णाणुभागउदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क ० असंखे ० पोग्गलपरियट्टा । मउअ - लहुआणं संघडणभंगो । णिरय देवगइपाओग्गाणुपुव्वीणं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्क ० असंखे० पो० परियट्टा । अधवा, जहण्णाणुभागंतर मेगसमओ, देव-गेरइएसु अणाहार चार आयुकर्मोंकी जघन्य उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय होता है । उक्त अन्तर उत्कर्षसे तीन आयुकर्मोंका असंख्यात पुलपरिवर्तन और तिर्यंचआयुका असंख्यात लोक प्रमाण काल तक होता है । चार गतियोंके उक्त अन्तरकी प्ररूपणा अपनी अपनी आयुके समान है । औदारिक, वैयिक व आहारक शरीर; औदारिक, वैक्रियिक व आहारक अंगोपांग; उनके बन्धन व संघात तथा उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । उक्त अन्तर उत्कर्ष से औदारिकशरीर, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात, उपघात, परघात और साधारणशरीरका असंख्यात लोक मात्र; वैक्रियिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन, वैक्रियकसंघात, प्रत्येकशरीर, आतप और उद्योतका वह अन्तर उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण; तथा आहारकशरीर, आहारकअंगोपांग, आहारकबन्धन और आहारक संघातका वह अन्तर उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है । विशेष इतना है कि वैकिअंगोपांगका उक्त अन्तर जघन्यसे पत्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । हुण्डकसंस्थानके इस अन्तरकी प्ररूपणा औदारिकशरीर के समान है। पांच संस्थानों और छह संहननोंकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है । मृदु और लघुके प्रकृत अन्तरकी प्ररूपणा संहननोंके समान है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण ह ता है । अथवा उनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्य से एक समय मात्र होता है, क्योंकि, देवों Jain Education In अप्रती आयुः सम्बद्धसंदर्भोऽयमग्रे 'परघाद-साधारण सरीराणमसंखेज्जा ोगा' इत्यतः पश्चादुपलभ्यते Jainelibrary.org Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २०३ कालस्स तिसमयपमाणब्भुवगमादो। मणुसाणुपुवीए जहण्णाणुभागंतरं जह० एगसमओ, अधवा खुद्दाभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्क० असंखे० पो० परियट्टा। तिरिक्खाणुपुव्वीए जहण्णाणुभागंतरं जह० एगसमओ अधवा खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं चदुसमऊणं वा, उक्क० असंखेज्जा लोगा ।एइंदियजादि उस्सास-थावर-बादर-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त-जस-अजसकित्ति-दूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। चदुजादि दोविहायगइ-तस-सुभगादेज्जसरदुग-तेजा-कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-पसत्थ-वण्ण-गंध-रस- णिधुण्ह-अगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-णिमिणुच्चागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । तित्थयरस्स जहण्णाणुभागुदीरणंतरं णत्थि । एवमंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो उक्कस्सपदभंगविचओ जहण्णपदभंगविचओ चेदि। उक्कस्सपदभंगविचयस्स अट्ठपदं । तं जहा- जो उक्कस्सअणुभागस्स उदीरओ सो अणुक्कस्सअणुभागस्स अणुदीरओ, जो अणुक्कस्सअणुभागस्स उदीरओ सो उक्कस्सअणुभागस्स अणुदीरओ। जे जे पर्याड वेदंति तेसु पयदं, अवेदएसु अव्ववहारो। एदेण अटुपदेण पंचण्णं णाणावरणीयपयडीणं उक्कस्साणुभागस्स सिया सव्वे जीवा व नारकियोंमें अनाहारकालका प्रमाण तीन समय स्वीकार किया गया है। मनुष्यानुपूर्वीकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय अथवा दो समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण होता है, उत्कर्षसे वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है । तिर्यगानुपूर्वीकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय मात्र अथवा तीन समय कम या चार समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण होता है, उत्कर्षसे वह असंख्यात लोक मात्र काल तक होता है। एकेन्द्रियजाति उच्छ्वास, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नोचगोत्र ; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। चार जाति, दो विहायोगतियां, बस, सुभग, आदेय, स्वरद्विक, तैजसशरीर, काणशरीर, उन दोनोंके बन्धन व संघात, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्निग्ध, उष्ण, अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, निर्माण और ऊंचगोत्र; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर नहीं होता। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकार है- उत्कृष्ट-पद-भंगविचय और जघन्य-पदभंगविचय। इनमें उत्कृष्ट-पद-भंगविचयका अर्थपद कहा जाता है। यथा- जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है वह अनुत्कृष्ट अनुभागका अनुदीरक होता है । जो अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है वह उत्कृष्ट अनुभागका अनुदीरक होता है। जो जिस प्रकृतिका वेदन करते हैं वे प्रकृत हैं, अवेदकोंका व्यवहार नहीं है। इस अर्थपदके अनुसार पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सब जीव अनुदीरक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक व एक जीव ताप्रतौ 'उदीरणा ( ओ ,' इति पाठः। मप्रति गाठोऽधम् । अ-क-ताप्रतिषु ' उक्कस्सअणुभागस्स उदीरओ णत्थि ' इति पाठः । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ) छक्खंडागमे संतकम्मं अणुदीरया, सिया अणुदीरया च उदीरओ च, सिया अणुदीरया च उदीरया च । एवमणुक्कस्स वि पडिलोमेण तिण्णिभंगा वत्तव्वा । अट्ठत्रिहस्त दंसणावरणीयस्स णाणावरणभंगो | अचक्खुदंसणावरण-पंचंतराइयाणं च उक्कस्सअणुभागस्स नियमा उदीरया अणुदीरया च अत्थिं । सादासादाणं मोहणिज्जस्त सत्तावीसं पयडीगं चव्विहस्स आउअस्स आहारचउक्कवज्जाणं णामपयडीणं णीचुच्चागोदाणं च जहा णाणावरणस्स छभंगा परुविदा तहा परूवेदव्वा । सम्मामिच्छत्त- आहारचउक्कतिण्णमाणुपुव्वीणं च सोलस भंगा वत्तव्वा । जहणपदभंगविचए अट्ठपदं जहा उक्कस्सपदभंगविचए कढं तहा कायव्वं । पंचणाणावरणीय - णवदंसणावरणीय सत्तावीसमोहणीय- तिण्णिआउ-तिष्णिगदि-जादिचक्कवेउब्विय-तेजा-कम्मइयपयडीणं तब्बंधण-संघाद - अंगोवंगाणं पंचसंठाण - छसंघडण वष्ण-गंध-रस- फास - आदाव - तस - अगुरुअलहु - पसत्थापसत्य विहायगइ-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज- सुस्सर दुस्सर - तित्थयर - णिमिणुच्चागोद-पंचंतराइयाणं च जहणणाभागस्स सिया सव्वे जीवा अणुदीरया, सिया अणुदीरया च उदीरओ च, सिया उदीरक होता है, तथा कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक और बहुत जीव उदीरक भी होते हैं । इसी प्रकारसे अनुत्कृष्ट अनुभागके सम्बन्धमें भी प्रतिलोम स्वरूपसे इन तीन भंगोंको कहना चाहिये । आठ प्रकार दर्शनावरणके भंगविचयकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । अचक्षुदर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागके नियमसे बहुत जीव उदीरक और बहुत जीव अनुदीरक भी होते हैं। साता व असाता वेदनीय, मोहनीयकी सत्ताईस प्रकृतियों, चार प्रकार आयुकर्म, आहारकचतुष्कको छोडकर शेष नामप्रकृतियों तथा नीच व ऊंच गोत्रके विषयमें जैसे ज्ञानावरणके छह भंगोकी प्ररूपणा की गयी है, वैसे ही उनकी प्ररूपणा करना चाहिये । सम्यग्मिथ्यात्व आहारकचतुष्क और तीन आनुपूर्वियोंके सोलह भंग कहना चाहिये । जिस प्रकार उत्कृष्ट -पद-भंगविचयमें अर्थपद बतलाया गया है उसी प्रकार जघन्य-पदभंगविचयमें भी बतलाना चाहिये । पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सत्ताईस मोहनीयप्रकृतियां, तीन आयु तीन गति, चार जातियां, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण प्रकृतियां एवं उनके बन्धन, संघात व अंगोपांग, पांच संस्थान, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आतप, त्रस, अगुरुलघु, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, सुस्वर, दुस्वर, तीर्थकर, निर्माण, ऊंचगोत्र और पांच अन्तराय; इनके जघन्य अनुभागके कदाचित् सब जीव अनुदीर, कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक व एक उदीरक, तथा कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक और बहुत ही जीव उदीरक भी होते हैं । विशेष इतना है कि तीर्थंकर प्रकृतिके अजघन्यकी प्ररूपणा 1 अ-काप्रत्योः 'पलिदोवमेण ' ताप्रती ' (पलिदोवमेग ) ' इति पाठ: । * अप्रती पंपंनराइयस्स उक्कस्स....उदीरया च अणुदीरया च ' इति पाठः । * ओषेण मिच्छ० सोलपक० सम्म० णवणोक० उक्क० अणुभागुदीरणाए सिया सवे अणदीरगा, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणदीरगा च उदीरगा च । एवमृणुक्क० । णवरि उदीरगा पुव्वं व वत्तव्यं । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी ० अदुभंगा । जयध प्रे. ब. पृ ५४६७ जयध. पृ. ८८. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्क माणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २०५ अणुदीरया च उदीरया च । णवरि तित्थयरस्स अजहण्णं पुव्वं वत्तव्वं । एवमजहण्णस्स वि तिणिभंगा वत्तव्वा । णवरि तित्थयरस्स जहण्णं पुव्वं व वत्तव्वं । सादासादतिरिक्खा उ-तिरिक्खगइ एइंदियजादि - ओरालियसरीर - तब्बंधण-संघादहुंडठाण - तिरिक्खाणुपुव्वी-उवघाद - परघादुज्जोव - उस्सास - थावर - बादर - सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त- पत्तेय-साहारण जसकित्ति - अजसकित्ति - त- दुभग- अणादेज्ज - णीचागोदाणं जहण्णाजहण्णाणुभागस्स उदीरया अणुदीरया च णियमा अत्थि । सम्मामिच्छत्ततिण्णिआणुपुव्वी -- आहारसरीराणं जहण्णाजहण्णाणुभागउदीरणाए सोलस भंगा वत्तव । एवं भंगविचओ समत्तो । जीवेहि कालो । तं जहा - पंचगाणावरणीय - अट्ठदंसणावरणीयसादासाद- अट्ठवीसमोहणीय - णिरयाउ - - देवगइ - णिरयगइ -- तिरिक्खगइ -- जाइचउणिरय--तिरिक्खाणुपुन्वी - पंचसंठाण- पंच संघडण -- अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-- फासउवघाद-- आदाव- उस्सास- अप्पसत्थविहायगइ-तस - बादर - पज्जत्तापज्जत्त- अथिर-- असुहदूभग-अणादेज्ज-अजसगित्ति-दुस्सरणीचागोदाणं उक्कस्साणुभागुदीरणा केवचिरं० ? णाणाजीवे पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखे ० भागो । अणुक्कसउदीरणा केवचिरं • ? सव्वद्धा । णवरि सम्मामिच्छत्तस्स पहिले करना चाहिये । इस प्रकार अजघन्यके भी तीन भंग कहने चाहिये । विशेष इतना है कि तीर्थंकर प्रकृति की जघन्य अनुभाग उदीरणाविषयक भंगों का कथन पहिलेके समान करना चाहिये । साता व असातावेदनीय, तिर्यंचआयु, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात, हुण्डकसंस्थान, तिर्यगानुपूर्वी, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्र ; इनके जघन्य व अजघन्य अनुभाग के नियमसे बहुत जीव उदीरक और बहुत अदरक भी होते हैं । सम्यग्मिथ्यात्व, तीन आनुपूर्वियों और आहारकशरीरकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा के विषय में सोलह भंग कहने चाहिये । इस प्रकार भंगविचय समाप्त हुआ । नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, आठ दर्शनावरण, साता व असातावेदनीय, अट्ठाईस मोहनीय, नारकायु, देवगति, नरकगति, तिर्यग्गति, चार जातियां, नरकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, उपघात, आतप, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति, दुस्वर, और नीचगोत्र, इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल तक होती है? वह नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से आवली असंख्यातवें भाग मात्र काल तक होती है। इनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल तक होती है? वह सर्वकाल होती है । विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी वह उदीरणा जघन्यसे 8 अ-काप्रत्यो: ' अहण्णपुब्वं वत्तव्वं, ' ताप्रती ' अजहणणं पुव्वं व वत्तब्वं' इति पाठः । " अप्रती 'जहणं पुव्वं वत्तव्वं, काप्रती 'जणपुब्वं बत्तव्वं ' इति पाठः । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । णिरयाणुपुवीए अणुक्कस्सं पि आवलियाए असंखे० भागो । अचक्खुदंसणावरणीय एइदिय थावर-सुहुम-साहारणपंचंतराइयाणमुक्कस्साणुक्कल्स अणुभागुदीरणा केवचिरं० ? सव्वद्धा । मणुस - तिरिक्खाउ - मणुसगइ - देवाउ-पंचसरीर-तिण्णिअंगोवंग-बंध ण-संघादसमचउरससंठाण - वज्जरिस हवइरणारायणसरीरसंघडण - पसत्थवण्ण-गंध- रस- फारूमणुसगइ - देवगइपाओग्गाणुपुव्वी- अगुरुअलहु- परघाद-उज्जोव-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिर - सुभ-सुभग- सुस्सर - आदेज्ज- जसगित्तिणिमिण- तित्थयर - उच्चागोदाण उक्कस्सअणुभागउदीरणा णाणाजीवेहि जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । अणु क्कस्स० सव्वद्धा । णवरि आहारसरीर तदंगोवंग- बंधणं- संघादाणं अणुक्क० उदीरणा जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देव - मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणामाणं अणुक्कस्साणुभाग ० जह० एगसमओ उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एवमुक्कस्सकालो समत्तो । वे हाणुभागउदीरणाकालो । तं जहा - पंचणाणावरणीय - सत्तदंसणावरणीय - सत्तावीस मोहणीयाणं जहण्णाणुभागउदीरणाकालो जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । अजहण्णस्स सम्बद्धा । णिद्दा- पयलाणं जहण्णाणुभाग उदीरणाकालो जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अजहण्णस्स सव्वद्धा । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणु अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक होती है। नरकानुपूर्वीकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका भी काल केवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होती है । अचक्षुदर्शनावरण, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह सर्वकाल होती है | मनुष्यायु, तिर्यगायु, मनुष्यगति, देवायु, पांच शरीर, तीन अंगोपांग, बन्धन, संघात समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीर संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, व स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर और उच्चगोत्र, इनकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से संख्यात समय तक होती है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा सर्वकाल होती है। विशेष इतना है कि आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग, आहारकशरीरबन्धन और आहारकशरीरसंघातकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है। देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी आर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ । नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अनुभागउदीरणाका काल कहा जाता है । यथा- पांच ज्ञानावरण, सात दर्शनावरण और सत्ताईस मोहनीय; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है । इनकी अजघन्य उदीरणाका काल सर्वकाल है । निद्रा और प्रचलाकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उनकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाकाका काल सर्वकाल है । सम्य For Private Use Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २०७ भागुदीरणकालो जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अजहण्ण० जह० अंतोमु० उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। सादासाद-तिरिक्खाउआणं जहण्णाजहण्णाणुभागउदीरणकालो सव्वद्धा । णिरय-देव-मणुस्साउ-णिरय-देव-मणुस्सगदि-चउजादि-वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीरओरालिय-वेउव्वियअंगोवंग-वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीरबंधण-संघाद-पसत्थवण्ण-गंधरस-फास-णिरय-देव-मणुस्साणुपुव्वी-अगुरुअलहुअ-आदाव-पसत्थापसत्थविहायगइ-तसथिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-णिमिणुच्चागोदाणं जहण्णाणुभागउदीरणकालो जह० एगसमओ, उवक० आवलि० असंखे० भागो। अजहण्णाणुभागुदोरणाए सव्वद्धा। णवरि तिण्णमाणुपुव्वीणं जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असं० भागो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-एइंदियजादि-ओरालियसरीर-तब्बंधणसंघाद-हुंडसंठाण-उवघाद-परघाद-उज्जोव-उस्सास-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तपत्तेय-साहारणसरीर-जसकित्ति--अजसकित्ति-दुभग-अणादेज्ज-णीचागोद-तित्थयराणं जहण्ण-अजहण्णअणुभागउदीरणकालो सव्वद्धा। णवरि तित्थयरस्स अजहण्णाणुभागउदीरणकालो जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग-तब्बंधण-संघा. दाणं जहण्णाणुभागउदीरणकालो जह० एगसमओ, उक्क०संखेज्जा समया। अज० जहण्णुग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे अंतर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। साता व असाता वेदनीय और तिर्यंचआयुकी जघन्य व अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल सर्वकाल है। नारकायु, देवायु, मनुष्यायु, नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, चार जातियां, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीरके बन्धन और संघात, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, नरकानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, आतप, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, निर्माण और ऊंचगोत्र; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। इनकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल सर्वकाल है। विशेष इतना है कि तीन आनुपूर्वियोंकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात, हुण्डकसंस्थान, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, स्थावर, बादर, सूक्ष्म पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, यशकीर्ति, अयशकोति, दुर्भग, अनादेय, नीचगोत्र और तीर्थंकर; इनकी जघन्य व अजघन्य उदीरणाका काल सर्वकाल है। विशेष इतना है कि तीर्थंकर प्रकृतिकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे अंतर्मुहुर्त मात्र है । आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, तथा उसके बन्धन व संघात, इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है । इनकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। पांच संस्थानों और छह Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ) छक्खंडागमे संतकम्म क्कस्सेण अंतोमु०। पंचसंठाण-छसंघडणाणं जहण्णाणुभागउदी० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अजहण्ण० सव्वद्धा । अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फासअथिर-असुभाणं जहण्णाणुभाग० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा समया। अजहण्ण० सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। __णाणाजीवेहि अंतरं । तं जहा-पंचणाणावरणीय-अमृदंसणावरणीय-सादासादअट्ठावीसमोहणीय-णिरय-देव-तिरिक्ख--मणुस्साउ--चत्तारिगदि-चत्तारिजादि-ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघाद-छसंठाण-छसंघडण-अप्पसत्यवण्णगंध-रस-फास मउअ-लहुअ-चत्तारिआणुपुव्वी-उदघाद-परघाद-आदावुज्जोव-उस्सासपसत्थापसत्थविहायगइ--तस-बादर--पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुह--दूभगदुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-णीचागोदाणं उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं। णवरि सम्मामिच्छत्त-आहारचउक्क-तिण्णिआणुपुवीणं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो वासपुधत्तं चउवीसअंतोमुहुत्तं अचक्खुदंसणावरण उस्कस्साणुक्कस्स० पत्थि अंतरं । तेजा-कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-णिधुण्ण-अगुरुअलहुअ संहननोंकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। इनकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका काल सर्वकाल है। अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, अस्थिर तथा अशुभ ; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात समय मात्र है। इनकी अजवन्य अनुभाग उदीरणाका काल सर्वकाल है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है । यथा- पांच ज्ञानावरण, आठ दर्शनावरण, साता व असाता वेदनीय, अट्ठाईस मोहनीय, नारकायु, देवायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, चार गतियां, चार जातियां, औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीर तथा उनके अगोपांग बन्धन व संघात, छह संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस तथा मृदु व लघु स्पर्श नपवियां. उपघात. परघात, आतप उद्योत. उच्छवास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीति और नीचगोत्र; इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। उनकी अनुत्कृष्ट उदीरणाका अंतर नहीं होता। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्व, आहारकचतष्क और तीन आनपवियोंकी अनत्कष्ट अनभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय तथा उत्कर्षसे क्रमशः सम्यग्मिथ्यात्वका पल्योपमके असंख्यातवें भाग, आहारकचतुष्कका वर्षपृथक्त्व, और तीन आनुपूर्वियोंका चौबीस अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । अचक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणाका अन्तर नहीं होता । तैजस व कार्मण शरीर, उनके बंधन व संघात. प्रशस्त वर्ण, गंध, रस तथा स्निग्ध व उष्ण * अप्रतौ'उक्क० पलिदो० असंखे० भागवासपुधतं',काप्रती 'उक्कल पलि. वासपूधत्तं',ताप्रती 'उक्का पलिदोकमवासपुधत्तं' इति पाठः। ओघेण सव्वपयडी उक्क० अणुभागदी० अंतरंजह० एगस० उक्क उसंखेज्जा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २०९ थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणुच्चागोदाणं उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा। अणुक्कस्साए पत्थि अंतरं । एवं तित्थयरस्स । णवरि उक्कस्साणु० उदो० उक्कस्सेण वासपुधत्तं । थावर-सुहुमेइंदियजादि-साहारणसरीरपंचंतराइयाणं उपकस्साणुक्कस्सअणुभागुदीरणंतरं पत्थि । एवमुक्कस्संतरं समत्तं । ___ एत्तो जहण्णअणुभागउदीरणंतरं । तं जहा- आभिणिबोहियणाणावरणीय-सुदणाणावरणीय-मणपज्जवणाणावरणीय-चक्खुदंसणावरणीयाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जाणि वस्साणि । ओहिणाणावरणीय-ओहिदसणावरणीयाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं पि जह० एगसमओ, उक्क०संखेज्जाणि वस्ताणि। केवलणाणावरणीय-केवलदसणावरणीय--लोहसंजलण--अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फासअथिर-असुह-पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ उक्क० छम्मासा। णिद्दा-पयलाणं जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जवस्साणि । सम्मत्तस्स जह० एगसम। उक्क० छम्मासा । इत्थि-णवंसयवेदाणं जह० एगसमओ, उक्क० संखे० वस्साणि । स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीति, निर्माण और ऊंचगोत्र; इनकी उत्कृष्ट अनभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास प्रमाण होता है। इनकी अनुत्कृष्ट उदीरणाका अन्तर नहीं होता। इसी प्रकारसे तीर्थकर प्रकृतिके सम्बन्धमें भी कहना चाहिए । विशेष इतना है कि उसकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। स्थावर, सूक्ष्म, एकेन्द्रियजाति, साधारणशरीर और पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर नहीं होता । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर समाप्त हुआ। यहां जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर कहा जाता है । यथा- आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और चक्षुदर्शनावरणकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्ष मात्र होता है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर भी जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्ष मात्र होता है । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, संज्वलनलोभ, अप्रशस्त वर्ण गंध, रसा व स्पर्श, अस्थिर, अशुभ, और पांच अन्तरायकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास प्रमाण होता है । निद्रा और प्रचलाकी जघन्य उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्ष मात्र होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी उक्त उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास प्रमाण होता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उक्त उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्ष मात्र होता है । पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान व मायाकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और लोगा। अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मा'म० णणक्क० जह० एगस., उक्क० पलिदो० असं० भागो । जयध. प्रे. ब. पू. ५४८८. 0 अ-काप्रत्योः 'जद' इति पाठः।.ताप्रतौ संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि' इति पाम:। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ) छक्खंडागमे संतकम्म पुरिसवेद-कोध-माण माया संजलणाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० वासं सादिरेयं । णिहाणिहा-पयलापयला-थीणगिद्धि-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-छण्णोकसाय-णिरय-देव-मगुसाउ-णिरयगइ-मणुसगइ-देवगइ-चदुजादि-णिरय-देव-मणुस्साणुपुव्वी-वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-तिण्णिअंगोवंग --पंचसंठाण-छसंघडणपसत्थवण्ण-गंध-रस-फासमउअ-लहुअ-अगुरुअलहुअ -आदाव-पसत्यापसत्थविहायगइ-तस-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-णिमिणुच्चागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। कक्खड-गरुआणं जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-तिरिक्खगइपाओगाणुपुव्वी-ओरालियसरीर--तब्बंधण-संघाद-हुंडसंठाण-उवघाद-परघाद--उज्जोवउस्सास-थावर-सुहुम-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-जसगित्ति-अजसगित्ति-दुभगअणादेज्ज-णीचुच्चागोद-तित्थयराणं जहण्णाजहण्ण० णत्थि । णवरि तित्थयरी. अजहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवमंतरं समत्तं ।। सण्णियासो दुविहो उक्कस्सपदसणियासो जहण्णपदसण्णियासो चेदि । तत्थ* उक्कस्सपदसण्णियासो दुविहो सत्थाण-परत्थाणसण्णियासभेदेण। तत्थ सत्थाणे पयदं। उत्कर्षसे साधिक एक वर्ष मात्र होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, छह नोकषाय, नारकायु, देवायु, मनुष्यायु, नरकगति, मनुष्यगति, देवगति, चार जातियां, नरकानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर तथा उनके बन्धन और संघात, तीन अंगोपांग, पांच संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व मृदु-लघु स्पर्श, अगुरुलघु, आतप, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, निर्माण और ऊंच गोत्रकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। कर्कश और गुरुकी उक्त उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी, औदारिकशरीर व उसके बन्धन-संघात, हुण्डकसंस्थान, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छवास, थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, यशकीर्ति, अयशकीर्ति दुर्भग, अनादेय, नीचगोत्र, ऊंचगोत्र और तीर्थंकर; इनकी जघन्य व अजघन्य उदीरणाका अंतर नहीं होता। विशेष इतना है कि तीर्थंकर प्रकृतिकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व मात्र होता है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। संनिकर्ष दो प्रकार है- उत्कृष्टपदसंनिकर्ष और जघन्यपद संनिकर्ष । उनमें उत्कृष्टपदसंनिकष स्वस्थानसंनिकर्ष और परस्थानसंनिकर्षके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें स्वस्थानसंनिकर्ष प्रकृत * अप्रतौ 'फास-महुरअलहुअगुरुअलहु', ताप्रतौ 'फास-अगुरुअलहु-म (हुर) उ-लहअ', मप्रती 'फास-महुअलहुअगुरुअलहुअ ' इति पारः। 8 अप्रतौ 'तित्थयराणं', ताप्रती 'तित्थयर-' इति पाठः । अ-कापत्योः 'जत्थ' इति पारः। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २११ तं जहा-- आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्समुदीरेंतो सुदणाणावरणस्स उक्कस्समणुक्कस्सं वा उदीरेदि । जदि अणुवकरसं, छट्ठाणपदिदं । एवमोहिणाणावरणीय-मणपज्जवणाणावरणीय-केवलणाणावरणीयाणं पि वत्तव्वं । सेसचदुण्णं आभिणिबोहियणाणावरणीयभंगो। चक्खुदंसणावरणीयस्स उक्कस्समुदीरेंतो अचक्खु-ओहि-केवलदसणावरणाणं णियमा अणुक्कस्समुदीरेदि अणंतगुणहीणं । अचक्खुदंसणावरणस्स उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो सेसाणं तिण्णं पि णियमा अणंतगुणहीणमुदीरेदि। सेसपंचण्णं दसणावरणीयाण णियमा अणुदीरओ । ओहिदसणावरणस्स उक्कस्साणुभागं उदीरेंतो पंचण्णं दंसणावरणीयाणं उदीरओ। केवलदसणावरणस्स* णियमा, तं तु छट्ठाणपदिदं । सेसाणं दोण्णं दंसणावरणीयाणं णियमा अणुक्कस्साणुभागस्स अणंतगुणहीणस्स उदीरओ। केवलदसणावरणीयस्स ओहिदसणावरणभंगो। णिहाए उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो दंसणावरणचउक्कस्स णियमा अणतगुणहीणमुदीरेदि । सेसाणं चदुण्णं दंसणावरणीयाणं णियमा अणुदीरओ। सेसचदुण्णं दंसणावरणीयाणं णिहाए भंगो। है । यथा- आभिनिवोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला श्रुतज्ञानावरणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है तो षट्स्थानपतितकी करता है । इसी प्रकार अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणके सम्बन्धमें भी कहना चाहिये । शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी मुख्यतासे संनिकर्षकी प्ररूपणा आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके समान है। ___ चक्षुदर्शनावरणके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके नियमसे अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । अचक्षुदर्शनावरणके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला शेष तीनों ही प्रकृतियोंके नियमसे अनन्तगुणे होन अनुभागकी उदीरणा करता है । वह शेष पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका नियमसे अनुदीरक होता है । अवधिदर्शनावरणके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका ( कदाचित् ) उदीरक होता है । केवलदर्शनावरणका नियमसे उदीरक होता हुआ षट्स्थानपतितका उदीरक होता है। शेष दो दर्शनावरण ( चक्षुदर्शनावरण व अचक्षुदर्शनावरण ) प्रकृतियोंका उदीरक होकर वह नियमसे उनके अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है । केवलदर्शनावरणके संनिकर्षकी प्ररूपणा अवधिदर्शनावरणके समान है । निद्राके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला चक्षुदर्शनावरणादि चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके नियमसे अनन्तगुणे हीन अनुभागका उदीरक होता है । शेष चार दर्शनावरण प्रकृतियोंका वह नियमसे अनुदीरक होता है । प्रचला आदि शेष चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके संनिकर्षकी प्ररूपणा निद्रा दर्शनावरणके समान है। सातावेदनीयकी उदीरणा करनेवाला असातावेदनीयका नियमसे अनुदीरक होता है। इसी प्रकार असाताके भी सम्बन्धमें कहना चाहिये । * अप्रतौ 'केवलदंपणावरणं' काप्रसौ 'केवलदंसगावरगे', तापतौ 'केवनदंगावर. 'इति पारः। ताप्रतौ '-पदिदा' इति पाठः। For Private &Personal use only JainEducation inteताप्रती '-पदिदा' इति पाठः। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं सादावेदणीयमुदीरेंतो असादावेदणीयस्स णियमा अणुदीरओ। एवमसादस्स वि वत्तव्वं । मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो सोलसकसाय-णवुंसयवेद- अरदि-सोगभय-दुर्गुछाणं सिया उदीरओ, सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ उक्कस्समणुस्सं वा उदीरेदि । जदि अणुक्कस्स० तो छट्टाणपदिदमुदीरेदि । इत्थि - पुरिसवेदाणं पि एवं चेव वत्तव्वं । हस्स- रदीणं सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ णियमा अणुक्कसं* णियमा अनंतगुणहीणमुदीरेदि । सोलसरणं कसायाणं मिच्छत्तभंगो । णवरि कोधे णिरुद्धे माणादीणमुदीरणा णत्थि । एवं माणादीणं पि वत्तव्वं । णवुंसयवेदस्स मिच्छत्तभंगो । णवरि इत्थि - पुरिसवेदाणमुदीरणा णत्थि । अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं मिच्छत्तभंगो | णवरि अरदि-सोगमुदीरेंतो हस्स रदीणमणुदीरओ । इत्थि - पुरिसवेदाणं मिच्छत्तभंगो । वरि एगवेदे णिरुद्धे सेसवेदाणमणुदीरओ । हस्स रदीणमुक्कस्साणुभागमुदीरेंतो जासि पयडीणमुदीरओ णियमा तासिमणुक्कस्समुक्कस्सादो अनंतणहीणमुदीरेदि । सम्मत्तस्स उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो बारसकसायणवणोकसायाण सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि उदीरओ, णियमा अणुक्कस्सं णियमा अनंतगुणहीणं उदीरेदि । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वत्तव्वं 1 मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि वह उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। वह यदि अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है तो षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणाके सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । हास्य व रतिका कदाचित् उदीरक होता है और कदाचित् अनुदीरक । यदि उदीरक है तो वह नियमसे अनुत्कृष्ट और नियमसे अनन्तगुण हीन अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषायोंके संनिकर्षकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है । विशेष इतना है कि क्रोधकी विवक्षा होनेपर मानादिकी उदीरणा नहीं होती । इसी प्रकार मानादिकों की विवक्षा में भी कहना चाहिये । नपुंसकवेदके संनिकर्षकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान हैं। विशेष इतना है कि नपुंसक वेदके उदीरकके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं होती है । अरति व शोक, भय व जुगुप्सा के संनिकर्ष की प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है । विशेष इतना है कि अरति व शोककी उदीरणा करनेवाला हास्य व रतिका अनुदीरक होता है । स्त्री और पुरुष वेदों के संनिकर्ष की प्ररूपणा मिथ्यात्व के समान है । विशेष इतना है कि एक वेदके विवक्षित होनेपर शेष वेदोंका वह अनुदीरक होता है । हास्य व रतिके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जिन प्रकृतियों का उदीरक होता है उनके नियमसे उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला Xxx तातो 'अणुक्कस्सा भागमदीरेंतो' इति पाठ: । अ- काप्रत्योः '-वेदाणं पि चैव वत्तव्वं' ताप्रतौ ' - वेदाणं पि चेव ( एवं ) वत्तव्वं ' इति पाठः । ताप्रतौ ' हस्स रदीणं णियमा उदीरओसिया अणुदीओ ताप्रतौ ' - मणुदीरेदि' इति पाठ: । इति पाठ: । * ताप्रती ' अणुक्कस्पा' इति पाठ: । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २१३ णिरयगइणामाए उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो हुंडसंठाण-अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फाससीद-ल्हुक्ख-उवधाद-अप्पसत्थविहायगदि-अथिर-असुभ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजत - गित्तीणमुक्कस्साणुभागस्स सिया उदीरओ सिया अगुदीरओ। जदि अणुक्कस्समुदीरेदि तो तस्स छट्ठाणपदिदस्स उदीरओ। एवं सेसणामपयडीणं पि जाणियूण वत्तव्वं । दाणतरइयस्स उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो लाभ-भोग-परिभोग-वीरियंतराइयाणमकस्साणभागस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि अणुवकस्समुदीरेदि तो णियमा छट्ठा णपदिदमुदीरेदि। जहा सादासादाणं तहा गोदाउआणं । एवं सत्थाणसण्णियासो समत्तो। एत्तो परत्थाणसण्णियासो वुच्चदे । तं जहा--आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो चउणाणावरणीय-ओहि-केवलदसणावरणीय-असाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-तिण्णिवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछ-णिरयाउ-णिरयगइ-तिरिक्खगइ-पंचसंठाणचत्तारिसंघडण-णीचागोदाणमण्णेसि च जेसिमसुभाणमुदीरओ तेसिमुक्कस्साणुभागस्स सिया उदीरओ सिया अणुउदीरओजदि अणुक्कस्समुदीरेदि तो छट्ठाणपदिद।अभिणि बारह कषाय और नव नोकषायका कदाचित् उदीरक है तथा कदाचित् अनुदीरक है। यदि वह उदीरक होता है तो नियमसे अनन्तगुणाहीन, ऐसे अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भी कहना चाहिए। नरकगति नामकर्मके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला हुण्डकसंस्थान, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व शीत-रूक्ष स्पर्श, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागका कदाचित् उदीरक और कदाचित अनदीरक होता है। यदि अनत्कष्ट अन भागकी उदीरणा करता है तो वह उसके षटस्थानपतितका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे शेष नामकर्मकी प्रकृतियोंके सम्बन्धमें भी जानकर कथन करना चाहिये। दानान्तरायके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला लाभान्तराय, भोगान्तरायः परिभोगान्तराय और वीर्यान्त रायके उत्कृष्ट अनुभागका कदाचित् उदीरक व कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि अनुत्कृष्टकी उदीरणा करता है तो वह नियमसे षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है। जैसे साता व असाता वेदनीयके संनिकर्षकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही दोनों गोत्रों और चारों आयुकर्मोके संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार स्वस्थानसंनिकर्ष समाप्त हुआ। यहां परस्थान संनिकर्षकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- आभिनिबोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला शेष चार ज्ञानावरणीय, अवधि व केवल. दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेद, अरति. शोक, भय, जुगुप्सा, नारकायु, नरकगति, तिर्यग्गति, पांच संस्थान, चार संहनन और नीच गोत्र; इनका तथा अन्य भी जिन अशुभ प्रकृतियोंका उदीरक होता है उनके उत्कृष्ट अनुभागका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता हैं। यदि उनके अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है तो षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है । आभिनिबोधिकज्ञानाररणके अनुत्कृष्ट अनुभागकी * प्रतिष 'अणुक्कस्स मुदीरेंतो' इति पाठ: Livate & Personal use Only Jain Educatiot प्रतिष 'अणुक्कस्स मुदीरेंतो' इति प Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४.) छक्खंडागमे संतकम्म बोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्समणुभागमुदीरेंतो साद-हस्स-रदि-तिण्णिआउअ-मणुस्स गइ-देवगइ-उच्चागोद-पंचंतराइयाणमण्णेसिं च पसत्थपयडीणं जासिमुदीरओ णिमया तासि मणुक्कस्समुक्कस्सादो अणंगुणहीणमुदीरेदि । एवमेदीए दिसाए अण्णेसि पि कम्माणं परत्थाणसण्णियासो जाणियूण कायव्वो। एवं परत्थाणुक्कस्ससण्णियासो समत्तो। एत्तो जहण्णओ सत्थाणसण्णियासो। तं जह-आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स जहण्णाणुभागमुदीरेंतो सुद-केवलणाणावरणीयस्स णियमा जहण्णयमणुभागमुदीरेदि। ओहिमणपज्जवणाणावरणाणं सिया जहण्णं सिया अजहण्णमुदीरेदि । जदि अजहण्णं तो छट्ठाणपदिदमुदीरेदि । सुदणाणावरणीयस्स आभिणिबोहियणाणावरणभंगो। ओहिणाणावरणस्स जहण्णाणुभागमुदीरेंतो सुद-मदिआवरणाणं सिया जहण्णं सिया अजहण्णं वा उदीरेदि । जदि अजहण्णं णियमा अणंतगुणं । मणपज्जवणाणावरणीयस्स सिया जहण्णं सिया अजहण्णं वा उदीरेदि । जदि अजहणं तो छट्ठाणपदिद। केवलणाणावरण णियमा जहण्णमुदीरेदि । मणपज्जवणाणावरणस्स ओहिणाणावरणभंगो। केवलणाणावरणस्स जहण्णाणुभागमुदीरेंतो सेसाणं चदुण्णं पिछ जहण्णमजहण्णं वा उदीरेदि। उदीरणा करनेवाला सातावेदनीय, हास्य, रति, तीन आयुकर्म, मनुष्यगति, देवगति, उच्जगोत्र और पांच अन्तराय; इनका तथा अन्य भी जिन प्रशस्त प्रकृतियोंका उदीरक होता है वह नियमसे उनके उत्कृष्टकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। इस प्रकार इसी रीतिसे अन्य कर्मोंके भी परस्थान संनिकर्षकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिय । इस प्रकार परस्थान उत्कृष्ट संनिकर्ष समाप्त हुआ। यहां जघन्य स्वस्थान संनिकर्षकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला श्रुतज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणके नियमसे जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । वह अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरणके कदाचित् जघन्य अनुभागका और कदाचित् अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । यदि वह इनके अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है तो षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है। श्रुतज्ञानावरणकी विवक्षासे संनिकर्षकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है । अवधिज्ञानावरणके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला श्रुतज्ञानावरण और मतिज्ञानावरणके कदाचित् जघन्य और कदाचित् अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । यदि अजघन्यकी उदीरणा करता है तो नियमसे अनन्तगुणे अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। मनःपर्ययज्ञानावरणके कदाचित् जघन्य और कदाचित् अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । यदि उसके अजघन्यकी उदीरणा करता है तो षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है । केवलज्ञानावरणके वह नियमसे जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी विवक्षासे संनिकर्षकी प्ररूपणा अवधिज्ञानावरणके समान है। केवलज्ञानावरणके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला शेष चारों ही ज्ञानावरण प्रकृतियोंके जघन्य व अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । यदि अजघन्यकी उदीरणा करता है तो वह श्रुतज्ञानावरण व *ताप्रतौ 'जेसिमुदीरओ णियमा तेसि-' इति पाठः । ४ ताप्रतौ 'सेसाणं पि चदुण्णं' इति पाठ :। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववकमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २१५ अजहण्णं तो सुद-मदिआवरणाणं णियमा अणंतगुणमुदीरेदि । ओहि-मणपज्जवणाणावरणाणं छट्ठाणपदिदमुदीरेदि। चक्खुदंसणावरणस्स जहण्णाणु * भागमुदीरेंतो अचक्खुदंसणावरण-केवलदसणावरणाणं णियमा जहण्णमुदीरेदि । ओहिदसणावरणस्स सिया जहण्णं सिया अजहण्णमुदीरेदि । जदि अजहण्णमुदीरेदि तो छटाणपदिदं । सेसपंचण्णं दंसणावरणीयाणं अणुदीरओ। अचक्खुदंसणावरणीयस्स चक्खुदंसणावरणीयभंगो। ओहिदंसणावरणीयस्स जहण्णाणुभागमुदीरेंतो० चक्खु-अचक्खुदंसणावरणीयाणं जहण्णमजहण्णं वा उदीरेदि। जदि अजहण्णं तो णियमा अणंतगुणं । केवलदसणावरणस्स णियमा जहण्णमुदीरेदि। केवलदंसणावरणस्स जहण्णाणुभागमुदीरेंतो चक्खु-अचक्खु ओहिदंसणावरणीयाणं जहण्णमजहण्णं वा उदीरेदि । जदि अजहण्णं तो चक्खु-अचक्खु० अणंतगुणं, ओहिदसणावरणस्स छट्ठाणपदिदं । आउअ-वेदणिज्ज-गोदाणं णत्थि सत्थाणसण्णियासो। मोहणिज्ज-णामाणं. जाणिदूण णेयव्वं । दाणंतराइयस्स जहण्णाणुभागमुदीरेंतो सेसाणं चदुग्णं णियमा जहण्णमुदीरेदि । सेसचदुण्णमंतराइयाणं दाणंतराइय मतिज्ञानावरणके नियमसे अनन्तगुणे अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । वह अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरणके षट्स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । चक्षुदर्शनावरणके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके नियमसे जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। वह अवधिदर्शनावरणके कदाचित् जघन्य और कदाचित् अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। यदि अजघन्यकी उदीरणा करता है तो षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है। शेष निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका वह अनुदीरक होता है । अचक्षुदर्शनावरणके संनिकर्षकी प्ररूपणा चक्षुदर्शनावरणके समान है। अवधिदर्शनावरणके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला चक्षुदर्शनावरणके और अचक्षुदर्शनावरणके जघन्य व अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। यदि वह अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है तो नियमसे अनन्तगुणे अनुभागकी उदीरणा करता है। केवलदर्शनावरणके नियमसे जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। केवलदर्शनावरणके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरणके जघन्य व अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। यदि वह उनके अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है तो चक्षुदर्शनावरण व अचक्षुदर्शनावरण के अनन्तगुणे तथा अवधिदर्शनावरणके षट्स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। ___ आयु, वेदनीय और गोत्र कर्मोके स्वस्थान संनिकर्ष सम्भव नहीं है। मोहनीय और नामकर्मके संनिकर्षको जानकर ले जाना चाहिये। दानान्तरायके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला शेष चार अन्तराय प्रकृतियोंके नियमसे जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। शेष चार अन्तराय प्रकृतियोंकी विवक्षासे संनिकर्षकी प्ररूपणा दानान्तरायके समान है। इस प्रकार * अप्रतौ '-वरणस्स जहण गस्स जहण्णाणु-' इति पाठः। 8 अप्रयो: 'बरणीयस्समुदीरेंतो' इति पाठ:। * अ-काप्रयो: 'मोहणिज्जमाणाणं' इति प Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ) छक्खंडागमे संतकम्म भंगो। एवं सत्थाणसण्णियासो समत्तो। परत्थाणजहण्णाणुभागसण्णियासो।। तं जहा-आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स जहण्णाणुभागमुदीरेंतो सुद-केवलणाणावरण-केवलदसणाबरण-चक्खु-अचक्खुदंसणावरणीयाणं-णियमा जहण्णमुदीरेदि। एदेण कमेण परत्थाणसण्णियासो जाणिदूण यव्वो । एवं सण्णियासो समत्तो। ___ एवं सेसाणि अणुयोगद्दाराणि जाणिदूण णेयवाणि । अप्पाबहुअं दुविहं जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्सए पयदं। तं जहा-सव्वतिव्वाणुभागंसादावेदणीयाणं। जसगित्ति-उच्चागोदाणुभागउदीरणा अणंतगुणहीणा । कम्मइय० अणंतगुणहीणा। तेजासरीर० अणंतगुणहीणा । आहारसरीर० अणंतगुणहीणा0। वेउव्विय० अणंतगुणहीणा। मिच्छत्त० अणंतगुणहीणा । केवलणाणावरण-केवलदंसणावरण-असाद० उदीरणा अणंतगुणहीणा। अणंताणुबंधीसु अण्णदरउदीरणा अणंतगुणहीणा । संजलणेसु अण्णदरउदी० अणंतगु० हीणा । पच्चक्खाणावरणेसु अण्णदरउ०अणंतगुणहीणा । अपच्चक्खाणावरणेसु अण्णदरउदी० अणंतगु० हीणा । मदिणाणावरणअणं० गु० हीणा । सुदणाणाव०अणं० गु० - - स्वस्थान संनिकर्ष समाप्त हुआ। . परस्थान जघन्य अनुभागके संनिकर्षका कथन करते हैं । यथा- आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभाग उदीरणा करनेवाला श्रुतज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरणके नियमसे जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इस क्रमसे परस्थान संनिकर्षको जानकर ले जाना चाहिये । इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ। इसी प्रकारसे शेष अनुयोगद्वारोंको ले जाना चाहिये । अल्पबहुत्व दो प्रकार है- जघन्य अल्पबहुत्व और उत्कृष्ट अल्पबहुत्व । इनमें उत्कृष्ट अल्पबहुत्व प्रकृत है । यथा- सातावेदनीयकी अनुभागउदीरणा सबसे तीव्र अनुभागवाली है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी अनुभागउदीरणा उससे अनन्तगुणी हीन है । कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । तैजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। आहारकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । मिथ्यान्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और असातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अनन्तानुबन्धी कषायोंमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। संज्वलन कषायोंमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । प्रत्याख्यानावरण कषायोंमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अप्रत्याख्यानावरण कषायोंमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अवधि इति पठः। ताप्रती ' केवलदसणावरण ०-चक्खुदसणावरणीयाणं' इति पाठः। ४ ताप्रती 'अणंतगणा ताप्रती 'मदिणाणावरणेसु अण्ण० उ० अणंत हीणा' इति पाठः। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा होणा। ओहिणाणाव० ओहिदसणाव० अणं० गु० हीणा। मणपज्जवणाणाव० अणंतगुणहीणा । णवंसयवेद० अणंत० हीणा । थोणगिद्धि० अणं० गु० हीणा। अरदि० अगं० गु० होणा० । सोग० अणंतगुणहोणा। भय० अगंतगुणहीणा । दुगुंछा० अगंतगुणहीणा। णिद्दाणिद्दा० अगंतगुणहीणा। पयलापयला० अणंतगुणहीणा । णिद्दा० अणंतगुणहीणा । पयला० अणंतगुणहीणा। णीचागोदअजसगित्ति० अणंतगुणहीणा। णिरयगइ० अणंतगुणहीणा। देवगइ अणंतगुणहीणा। रदि अणंतगुणहोणा। हस्स० अणंतगुणहीणा । देवाउ० अणं० गु० हीणा । णिरयाउ० अणंतगु० होणा। मणुगगइ० अणं० गु० हीणा । ओरालिय० अणं० गु होणा। मणुसाउ० अणं० गु० होणा। तिरिक्खाउ० अणंतगुणहीणा । इत्यिवेद० अणंतगुणहीणा। पुरिसवेद० अणंतगुणहीणा। तिरिक्खगइ० अणंतगुणहीणा । चक्खुदं० अ० गु० हीणा। सम्मामिच्छत्त० अ० गु० हीणा । दाणंतराइय० अ० गुण हीणा । लाहंतराइय० अ० गुणहीणा । भोगंतराइय० अणंतगुणहीणा । परिभोगंतराइय० अणंतगुणहीणा । अचक्खुदं० अ० गु० होणा। वीरियंतराइय० अ० गु० हीणा। सम्मत्त०अणंतगुणहीणा। णिरयगईए णेरइएसु सव्वतिव्वाणुभागं मिच्छत्तं । केवलणाणावरण० केवलदंसणा ज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। स्त्यानगृद्धिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अरतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। भयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्रानिद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रचलाप्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नीचगोत्र और अयशकी तिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । नरकगतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। देवगतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । देवायुकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । रतिकी उदीरणा अनन्तगुणो हीन है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है। देवायुकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नारकायुकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनुष्यगतिकी उदीरणा अनन्तगुणी ह न है। औदारिकशर रकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनुष्यायुकी उदं रणा अनन्तगुणी हीन है। तिर्यगायुकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। स्त्रीवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। पुरुषवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तिर्यपातिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । चक्षुदर्शनावरण की उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदोरणा अनन्तगुण हीन है। दानान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। लाभान्तराकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। भोगान्त रायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। वीर्यान्तरायको उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सम्यक्त्वकीउदी रणा अनन्तगुणी हीन है। ___ नरकगतिमें नारकियोंमें सबसे तीव्र अनुभागवाली मिथ्यात्व प्रकृति है। केवलज्ञाना___Jain Education in+ताप्रतो 'भय० अणंतगुणहीणा' इति नास्तीदं वाक्यम् । only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ) छक्खंडागमे संतकम्म वरण० असादावेदणीय ० अणंतगुणहीणा । अणंताणुबंधीसु* अण्णदरउदीरणा अणंतगुणहीणा । चदुसंजलणम्मि अण्णदर० अणं गु० हीणा । पच्चक्खाणचउक्कम्मि अण्णदर० अणं० गु० होणा । अपच्च० चउक्क० अण्णदर० अ० गु० होणा। मदिणाणावर० अणंतगुणहीणा । सुदणाणावर० अ० गु० हीणा । मणपज्जवणाणावरण० अ० गु० हीणा । णवंसयवेद० अ० गु० होणा। अरदि० अणं० गु० हीणा । सोग० अ० गु० होणा। भय० अ० गु० हीणा । दुगुंछा अ० गु० हीणा । णिद्दा० अ० गु० हीणा । पयला० अ० गुणहीणा । णीचागोद० अजसगित्ति० अ० गु० हीणा । णिरयगइ० अ० गु० होणा। णिरयाउ० अ० गु० होणा। सादावेदणी० अ० गु० हीणा । रदि० अ० गुण० होणा । हस्स० अ० गु० होणा। कम्मइय० अ० गु० हीणा । तेजइय० अ० गु० हीणा । वेउ० अ० गु० हीणा । ओहिणाणाव० ओहिदसणाव० अ० गु० हीणा । सम्मामिच्छत्त० अ० गु० होणा । दाणंतराइय० अ० गुणहीणा । लाहंतराइय० अ० गु० होणा० । भोगंतराइय० अ० गु० हीणा । परिभोगंतराइय० अ० गु० हीणा । अचक्खुदं० अ० गु० हीणा । चक्खु० अ० गु० वरण, केवलदर्शनावरण और असातावेदनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा उससे अनन्तगुणी हीन है । अनन्तानुबंधी कषायोंमें अन्यतर प्रकृतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। चार संज्वलन कषायोंमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। चार प्रत्याख्यानावरण कषायोंमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। चार अप्रत्याख्यानावरण कषायोंमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अरतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। भयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नीचगोत्र और अयशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नरकगतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नारकायुकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। रतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तेजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। दानान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सम्यक्त्वकी * ताप्रती ' असादवेदणी० अणताणुबंधीसु' इति पाठः। ताप्रतावतोऽग्रे वक्ष्यमाणप्रकृतिबोध कपदानां मध्ये 'अणंतगणहीणा' इत्येतत्पदं नोपसभ्यते तत्तु प्रायः सदर्भस्यान्त एवैकवारमुपलभ्यते । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदी रणा ( २१९ हीणा । वीरियंतराइय० अ० गुणहीणा। सम्मत्त० अणंतगुणहीणा। पढमाए पुढवीए सव्वतिव्वाणुभाग मिच्छत्तं । केवलणाणावरण-केवलदंसणाव० अ० गु० होणा। अणंताणुबंधिचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गु० हीणा। संजलणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गु० हीणा । पच्चवखाणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गु० हीणा । अपच्च० चउक्क० अण्णद० अ० गु० हीणा । मदिणाणावरण० अ० गु० हीणा । सुदणाणाव० अ० गु० हीणा । मणपज्जवणाणाव० अ० गु० हीणा । णिद्दा० अ० गु० हीणा । पयला० अ० गु० हीणा । असाद० अणंतगुणहीणा । णqसयवेद० अ० गु० हीणा । अरदि० अ० गु० हीणा । सोग० अ० गु० हीणा । भय० अ० गु० हीणा । दुगुंछा० अ० गु० हीणा । णीचागोद० अजसगि० अ० गु० होणा। णिरयगइ० अ० गु० हीणा० । णिरयाउ० अ० गु० हीणा । साद० अ० गु० हीणा। रदि० अ० गु० हीणा । हस्स० अ० गु० हीणा । कम्मइय० अ० गु० हीणा । तेजइय० अ० गु० हीणा । वेउब्विय० अ० गु० हीणा । ओहिणाण० ओहिदंसण० अ० गु० हीणा। सम्मामिच्छत्त० अ० गु० हीणा । दाणंतराइय० अ० गु० हीणा । लाहंतराइय० अ० गु० हीणा। भोगंतराइय० अ० गु० हीणा। परिभोगंतराइय० अ० गु० हीणा । अचक्खु० अ० गु० हीणा । चक्खु० अ० गु० हीणा । वोरियंतराइय० अ० गु० उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रथम पृथिवीमें सबसे तीव्र अनुभागवाली यिथ्यात्व प्रकृति है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। श्रुतज्ञानावरणकी उदी रणा अनन्तगुणी हीन है। मनःपर्यरज्ञानावरणकी उदीरणा अन्नतगुणी हीन है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है। प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। असातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणो हीत है । नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अरतिकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है। शोककी उदोरणा अनन्तगुणी हीन है। भयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । नीचगोत्र और अयशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। नरकगतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । नारकायुकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। सातावेदनीयकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। रतिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। हास्यकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। तैजसशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। दानान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । लाभान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०) छक्खंडागमे संतकम्म होणा। सम्मत्त० अणंतगुणहोणा। तिरिक्खगदीए सव्वतिव्वाणुभागं सादवेदणीयउदीरणा । जसगित्ति-उच्चागोद० अ० गुणहीणा । कम्मइय० अ० गुणहीणा । तेजइय० अ० गु० होणा० । वेउ० अ० गु० हीणा । मिच्छत्त० अ० गु० होणा। केवलाणाण० अ० गु० होणा। केवलदसण० अ० गु० हीणा । अणंताणुबंधिचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुलहीणा । संजलणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गु० हीणा। पच्चक्खाणचउक्कम्मि० अण्णदर० अ० गु० होणा। अपच्च० चउक्क० अण्ण० अणंतणुहीणा । मदिआवरण अ० गु० हीणा । सुदआव० अ० गु० हीणा। ओहिणाणाव० ओहिदसणाव० अ० गु० होणा। मणपज्जव० अ० गु० हीणा। थीणगिद्धि० अ० गु० हीणा। णिद्दाणिद्दा अ० गु० होणा। पयलापयला० अ० गु० हीणा । णिद्दा० अ० गु० हीणा । पयला० अ० गु० हीणा। रदि० अ० गु० हीणा । हस्स० अ० गु० हीणा । ओरालिय० अ० गु० हीणा । तिरिक्खाउ० अ० गु० हीणा । असाद० अ० गु० हीणा । णवंसय० अ० गु० हीणा । इत्थिवेद० अ० गु० हीणा । पुरिस० अ० गु० हीणा । अरदि० अ० गुणहीणा । सोग० अ० गु० होणा। भय० अ० गु० हीणा । दुगुंछा० अ० गु० हीणा । णीचागोद० अणंतगुणहीणा। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । सम्यक्त्वको उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । तिर्यग्गतिमें सबसे तीव्र अनुभागवाली सातावेदनीय प्रकृित है। उससे यशकीर्ति और ऊंच गोत्रकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । तैजसशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। केवलज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है। स्त्यानगद्धिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्रानिद्राकी उदीरणा अनंतगणी हीन है। प्रचलाप्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । निद्राकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। प्रचलाकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । रतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। औदारिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तिर्यगायुकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। असातावेदनीयकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। स्त्रीवेदकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। पुरुषवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी 'हीन है। अरतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । शोककी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । भयकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नीचगोत्रकी उदीरणा अनन्त Jain Education internationa Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २२१ अजसकित्ति अ० गु० हीणा । तिरिक्खगइ० अ० गु० हीणा । चक्खु० अ०गु० होणा। सम्मामिच्छत्त० अ० गु० हीणा । दाणंतराइय० अ० गु० हीणा । लाहंतराइय० अ० गु० हीणा । भोगंतराइय० अ० गु० हीणा। परिभोगंतराइय० अ० गु० हीणा। अचक्खु० अ० गु० होणा। वीरियंतराइय० अ० गु० होणा। सम्मत्त०अणंतगुणहीणा। मणुस्सेसु लव्वतिव्वाणुभागा सादावेदणीय । उच्चागोद० जसकित्ति० अणंतगुणहीणा। कम्मइय० अ० गु० हीणा । तेजइय० अ० गु० हीणा। आहार० अ० गु० हीणा। वेउवि० अ० गु० हीणा। मिच्छत्त अ० गु० हीणा० । केवलणाण० केवलदसण० अ० गु० हीणा । अणंताणुबंधिचउक्कम्मि अण्णदर० अणंतगुणहीणा। संजलणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गु० हीणा । पच्चक्खा० चउक्क० अण्ण०अ० गु० होणा। अपच्च० चउक्क० अण्णदर० अ० गु० होणा*। मदिआवरण० अ० गु० हीणा । सुदणाणाव० अ० गु० हीणा। ओहिणाणाव० ओहिदं ०अ० गु० होणा। मणपज्जव० अ० गु० हीणा। थीणगिद्धि० अ० गु० होणा। णिद्दाणिहा० अ० गु० हीणा। पयलापयला० अ० गु० हीणा । णिद्दा० अ० गुणहीणा । पयला अ० गु० हीणा । रदि० गुणी हीन है । अयशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तिर्यग्गतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। दानान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । सम्यक्त्वकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। __ मनुष्योंमें सातावेदनीयकी उदीरणा सबसे तीव्र अनुभागवाली है। उससे उच्चगोत्र व यशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तैजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। आहारकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। अनंतानुबन्धिचतुष्कम अन्यतरकी उदीरणा अन्तगुणी हीन है। संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । श्रुतज्ञानावरणकी उदोरणा अनन्तगुणी हीन है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। स्त्यानगृद्धिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्रानिद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । प्रचलाप्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । रतिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । हास्यकी उदीरणा अनंतगुणी Jain Education indiaताप्रती ' अणं गुणा०' इति पाठ: Privates Pere Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ) छक्खंडागमे संतकम्म अ० गु० हीणा । हस्स० अ० गु० हीणा । मणुसगइ० अ० गु० हीणा० । ओरालिय० अणंतगुणहीणा । मणुसाउ० अणंतगुणहीणा । असाद० अ० गु० होणा० । णवंसयवे० अ० गु० हीणा । इत्थि० अ० गु० हीणा । पुरिस० अ० गु० होणा० । अरदि० अ० गु० हीणा । सोग० अ० गु० हीणा । भय० अ० गु० होणा। दुगुंछा० अ० गु० हीणा । णीचागोद० अ० गु० हीणा । अजसकित्ति० अ० गु० हीणा । सम्मामिच्छत्त० अ० गु० होणा। दाणंतराइय० अ० गु० हीणा। लाहंतराइअ० अ० गु० हीणा । भोगंतराइय० अ० गु० हीणा । परिभोगंतराइय० अ गु० हीणा । अचक्खु० अ० गु० हीणा । चक्खु० अ० गु० हीणा । वोरियंतराइय० अ० गु० हीणा। सम्मत्तअणंतगुणहीणा। देवगदीए सव्वतिव्वाणुभागं सादावेदणीयं । उच्चागोद० जसगित्ति० अ० गु० होणा। मिच्छत्त० अ० गु० होणा। केवलाणण० अ० गु० हीणा । केवलदसण० अ० गु० हीणा। अणंताणुबंधिचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणहीणा। संजलणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गु० हीणा । पच्चक्खाणचउक्क० अण्णद० अ० गु० हीणा। अपच्च० चउक्क० अण्णद० अ० गु० होणा*। मदिआवरण० अ० गु० हीणा । सुद० अ० गु० हीणा । हीन है। मनुष्यगतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । औदारिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । मनुष्यायुकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । असातावेदनीयकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। स्त्रीवेदकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। पुरुषवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अरतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । भयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। नीचगोत्रकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अयशकीर्तिकी उदोरणा अनन्तगुणी हीन सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। दानान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। सम्यक्त्वकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। देवगतिमें सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाली प्रकृति है। उससे उच्चगोत्र व यशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। केवलज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनःपर्यय ताप्रतौ 'अणं गुणा०' इति पाठः। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ saraणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २२३ मणपज्जव० अ० गु० हीणा । णिद्दा० अ० गु० हीणा । पचला० अ० गु० हीणा । देवगइ० अ० गु० होणा । रदि० अ० गु० हीणा । हस्स० अ० गुणहीणा । कम्मइय० अ० गु० हीणा । तेजइय० अ० गु० हीणा । वेउव्वि० अ० गु० हीणा । देवाउ० अ० गु० हीणा । असाद० अ० गु० हीणा । इत्थिवेद० अ० गु० होणा । पुरिस० अ० गु० होणा । अरदि० अ० गु० हीणा । सोग० अ० गु० होणा । भय० अ० गु० हीणा । दुगंछा० अ० गु० हीणा । अजसगित्ति० अ० गु० हीणा । ओहिणाणाव० अ० गु० हीणा । ओहिदंस० अ० गु० होणा । सम्मामिच्छत्त० अ० गु० होणा । दाणंतराइय० अ० गु० हीणा । लाहंतराइय० अ० गुणहीणा । भोगंतराइय० अ० गु० हीणा । परिभोगंतराइय० अ० गु० हीणा । अचक्खु० अ० गु० होणा । चक्खु० अ० गु० हीणा । वीरियंतराइय० अ० गु० होणा । सम्मत्त० अनंतगुणहीणा । भवणवासियदेवेसु सव्वतिव्वाणुभागं मिच्छत्तं । केवलणाण० केवलदंसण ० अतगुणहीणा । अताणुबंधिच उक्कम्मि अण्णदर० अ० गु० होणा संजलणचक्क ० अण्णद० अ० गु० हीणा । पच्चक्खाणचउक्क० अण्णद० अ० गु० हीणा । अपच्च ० ज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । निद्रादर्शनावरणको उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । प्रचलादर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। देवगतिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । रतिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । हास्यकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । कार्मणशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । तैजसशरीरको उदीरणा अनंतगुणी हीन है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । देवायुकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । असातावेदनीयकी उदीरणा अनंतगुणी होन है । स्त्रीवेदकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । पुरुषवेदकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है | अरतिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । शोककी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । भयकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । जुगुप्साकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । अयशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । अवधिज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी होन है । अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणो हीन है । दानान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । भोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । सम्यक्त्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । भवनवासी देवों में मिथ्यात्व प्रकृति सबसे तीव्र अनुभागवाली है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अनन्तानुबन्धिचतुष्क में अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क में काप्रतौ 'ओहिणाण० ओहिदंसण अनंतगुणहीणा' इति पाठः । For Preate & Personal Use Only Jain Education national Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ) छक्खंडागमे संतकम्म चउक्क० अण्णदर० अ० गु० हीणा। मदिआवरण० अ० गु० हीणा । सुद० अ० गु० हीणा । मणपज्जव० अ० गु० हीणा । णिद्दा० अ० गु० हीणा। पयला० अणंतगुणहीणा । साद० अ० गु० हीणा । उच्चागोद० अ० गु० होणा । जसगित्ति० अ० गु० हीणा । रदि० अ० गु० हीणा । हस्त अ. गु० होणा। कम्मइय० अ० गु० हीणा । तेजइय० अ० गु० होणा। वेउ० अ० गु० हीणा । देवांउ० अ० गु० हीणा। असाद० अ० गु० होणा। इत्यि अ० गु० हीणा । पुरिस अ० गु० होणा। अरदि० अ० गु० होणा। सोग अ० गु० होणा। भय० अ० गु० हीणा । दुगुंछा० अ० गु० होणा। अजस० अ० गु० हीणा । ओहिणाणा० अ० गु० होणा। ओहिदं अ० गु० हीणा । सम्मामिच्छत्त अ० गु० होणा । दाणंतराइय० अ० गु० हीणा । लाहंतराइय० अ० गु० हीणा । भोगंतराइय० अ० गु० होगा । परिभोगंतराइय० अ० गु० होणा। अचक्खु अ० गु० हीणा । चक्खु० अ० गु० हीणा। वोरियंतराइय० अ० गु० हीणा। सम्मत्त० अ० गु० हीणा । एइंदिएसु सव्वतिव्वाणभागं मिच्छत्तं केवलणाण• केवलदसण० अ० गु० होणा। अणंताणुबंधिचउवकम्मि अण्णदर० अ० गु० होणा। संजलणचउवक० अण्ण० अ० गु० अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। उच्चगोत्रको उदोरणा अनन्तगुणी हीत है । यशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। रतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तैजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है । देवायुकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । असातावेदनीयकी उदीरणा अनन्त गुणी हीन है । स्त्रीवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। पुरुषवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अरतिको उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। भयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अयशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अवधिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । दानान्तरायकी उदीरा अनन्तगुणी हं न है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । भोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुगी हीन है। चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । सम्यक्त्वकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। एकेन्द्रिय जीवोंमें मिथ्यात्व प्रकृति सबसे तीव्र अनुभागवाली है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है। संज्वलनचतुष्को अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगणी हीन है। प्रत्याख्याना Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २२५ हीणा । पच्चक्खाणचउक्कम्मि अण्ण० अ० गु० हीणा । अपच्चक्खाणचउक्कम्मि अण्ण० अ० गु० हीणा। मदिआवरण० अ० गु० हीणा। चक्खु० अ०गु० होणा । सुद० अ० गु० हीणा। ओहिणाण० अ० गु० हीणा। ओहिदंस० अ० गु० हीणा । मणपज्जव० अ० गु०हीणा। थीणगिद्धि० अ० गु० हीणा । णिद्दाणिद्दा० अ० गु० हीणा । पयलापयला० अ० गु० हीणा। णिद्दा० अ० गु० होणा। पयला अ० गु० होणा। असाद० अ० गु० हीणा। णवंसय० अ० गु० हीणा। अरदि० अ० गु० हीणा। सोग० अ० गु० हीणा। भय० अ० गु० हीणा । दुगुंछा० अ० गु० हीणा । णीचागोद० अजसगित्ति अ० गु० हीणा। तिरिक्खगइ० अ० गु० हीणा। साद० अ० गु० होणा। जसकित्ति० अ० गु० होणा। रदि० अ० गु० होणा। हस्स० अ० गु० होणा। कम्मइय० अ० गु० हीणा। तेजइय० अ० गु० होणा। वेउ० अ० गु० होणा। ओरालिय० अ० गु० हीणा। तिरिक्खाउ० अ० गु० हीणा। दाणंतराइय० अ० गु० हीणा। लाहंतराइय० अ० गु० होणा। भोगंतराइय० अ० गु० हीणा । परिभोगंतराइय० अ० गु० होणा। अचक्खु० अ० गु० हीणा । वरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अवधिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अवधिदर्शनावरण की उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। स्त्यानगृद्धिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्रानिद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रचलाप्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। असातावेदनीयकी उदीरणा अनंतगुणा हीन है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। अरतिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। भयकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । नीचगोत्र और अयशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तिर्यग्गतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। सातावेदनीयकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । यशकीतिकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । रतिकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। तैजसशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । औदारिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी हीन है। तिर्यगायुकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। दानान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है । परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदी रणा अनंतगुणी हीन है। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी हीन है। इसी * अ-का-ताप्रनिष्वनुपलभ्यमानं वाकामिदं मप्रतितोऽत्र योजितम् । 8 अप्रतावतोऽग्रे 'तिरिक्खगइ० अ० गु० हीणा' इत्याधिकः पाठोऽस्ति । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६) छक्खंडागमे संतकम्म वीरियंतराइय० अ० गु० हीणा । एवं विलिदिएसु वि । णवरि पसत्थकम्मंसाणमुवरि कायव्वं । एवमुक्कस्सप्पाबहुअं समत्तं । सव्वमंदाणुभागं लोहसंजलणं । मायासंजलणं अणंतगुणा । माणसंज० अणंतगुणा । कोधसंज० अणंतगुणा । वीरियंतराइय० अणंतगुणा। सम्मत्त० अणंतगुणा । चक्खुदंस० सुदणा० अणंतगुणा । मदि० अणंतगुणा। अचक्खु० अणंतगुणा । ओहिणाण० ओहिदंस० अणंतगुणा । परिभोगंतराइय० अणंतगुणा । भोगंतराइय० अणंतगुणा । लाहंतराइय० अणंतगुणा । दाणंतराइय० अणंतगुणा । पुरिसवे० अणंतगुणा । इत्थि० अणंतगुणा । णवूस अ० गुणा मणपज्जव० अ० गुणा । हस्स० अ०गुणा । रदि० अ० गुणा । दुगुंछा० अ० गुणा । भय० अ० गुणा । सोग० अ० गुणा। अरदि० अ० गुणा। केवलणाण केवलदसण० अ० गुणा। पयला० अ० गुणा। णिद्दा० अ० गुणा। पयलापयला० अणंतगुणा। णिहाणिद्दा अ० गुणा । थीणगिद्धि अ० गुणा । पच्चक्खाणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणा । अपच्च० चउक्क० अण्ण० अ० गुणा । सम्मामिच्छत्त० अ० गुणा । अणंताणुबंधिचउक्कम्मि अण्णदर० अणंतगुणा। मिच्छत्त० प्रकारसे विकलेन्द्रियोंमें भी प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रकृत कर्माशोंका अल्पबहुत्व ऊपर करना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। संज्वलनलोभ सबसे मंद अनुभागवाली प्रकृति है। उससे संज्वलनमायाके जघन्य अनुभागकी उदीरणा अनन्तगुणी है। संज्वलनमानकी उदीरणा अनन्तगुणी है। संज्वलनक्रोधकी उदीरणा अनंतगुणी है। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है। सम्यक्त्वकी उदीरणा अनंतगुणी है। चक्षुदर्शनावरण और श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है । मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है । अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनाणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है। दानान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है। पुरुषवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी है । स्त्रीवेदकी उदीरणा अनंतगुणी है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगुणी है। रतिकी उदीरणा अनंतगुणी है। जुगुप्साकी उदीरणा अनंतगुणी है। भयकी उदीरणा अनन्तगुणी है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी है । अरतिकी उदीरणा अनन्तगुणी है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है । प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी है । प्रचलाप्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी है। निद्रानिद्राकी उदीरणा अनंतगुणी है। स्त्यानगृद्धिकी उदीरणा अनंतगुणी है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणी है । अनन्तानुबन्धिचष्कमें अन्यतरकी उदीरणा . अ-काप्रत्यो: 'रदि० ' इति पाठः । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २२७ अ० गुणा। ओरालिय० अ० गुणा । वेउन्विय० अ० गुणा। तिरिक्खाउ० अ० गुणा। मणुसाउ० अ० गुणा। आहार० अ० गुणा। तेजइय० अ० गुणा । कम्मइय० अ० गुणा । तिरिक्खगइ० अ० गुणा। णिरयगइ० अ० गुणा । मणुसगइ अ० गुणा । देवगइ० अ० गुणा । णीचागोद० अ० गुणा । अजस० अ० गुणा । असादावेदणीय० अ० गुणा। उच्चागोद० अ० गुणा । जसगित्ति० अ० गुणा। साद० अ० गुणा । णिरयाउ० अ० गुणा । देवाउ० अणंतगुणा । णिरयगईए सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं । चक्खुदं० अ० गुणा*। अचक्खु० अ० गुणा। हस्स० अ० गुणा। रदि० अ० गुणा। दुगुंछा० अ० गुणा। भय० अ० गणा। सोग० अ० गुणा। अरदि० अ० गुणा। णवंसय० अ० गुणा। संजलणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणा। वीरियंतराइय० अ० गुणा । परिभोगंतराइय० अ० गुणा । भोगंतराइय० अ० गुणा। लाहंतराइय० अ० गुणा। दाणंतराइय० अ० गुणा। ओहिणाण--ओहिदसण० अ० गुणा । मणपज्जव० अ० गुणा। सुदावरण० अ० गुणा । मदिआव० अ० गुणा । अपच्चक्खाण० अण्णदर० अ० गुणा । पच्चक्खा० चउक्क० अनंतगुणी है। मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणी है। औदारिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । तिर्यगायुकी उदीरणा अनन्तगुणी है। मनुष्यायुकी उदीरणा अनन्तगुणी है। आहारकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी है। तैजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । तिर्यग्गतिकी उदीरणा अनंतगुणी है । नरकगतिकी उदीरणा अनंतगुणी है। मनुष्यगतिकी उदीरणा अन्तगुणी है । देवगतिकी उदीरणा अनंतगुणी है। नीचगोत्रकी उदीरणा अनन्तगुणो है। अयशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी है । असातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है । उच्चगोत्रकी उदीरणा अनंतगुणी है । यशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी है। सातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है। नारकायुको उदीरणा अनन्तगुणी है । देवायुकी उदीरणा अनंतगुणी है। नरकगतिमें सम्यक्त्व प्रकृति सबसे मन्द अनुभागवाली है । उससे चक्षुदर्शनावरणकी जघन्य अनभाग उदीरणा अनन्तगणी है। अचक्षदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगणी है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगणी है। रतिकी उदीरणा अनन्तगणी है। जगप्साकी उदीरणा अनन्तगणी है। भयकी उदीरणा अनन्तगुणी है। शोककी उदीरणा अनन्तगणी है। अरतिकी उदीरणा अनन्तगुणी है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी है। संज्वलनचतुष्क में अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगणी है । वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है । परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगणी है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगणी है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगणी है । दानान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगणी है। मनःपर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगणी है। श्रतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्य ताप्रती 'चक्ख० अण्ण० अणंतगुणा' इति पाठः । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८) छक्खंडागमे संतकम्म अण्ण० अ० गुणा। केवलणाण० केवलदसण० अ० गुणा। पयला० अणंतगुणा । णिद्दा० अ० गुणा। सम्मामिच्छत्त० अ० गुणा। अणंताणुबंधिचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणा। मिच्छत्त० अ० गुणा। वेउन्वि० अ० गुणा। तेजइय० अ० गुणा। कम्मइय० अ० गुणा । णिरयगइ० अ० गुणा।। अजसगित्ति० अ० गुणा । णीचागोद० अ० गुणा । असाद० अ० गुणा । साद० अ० गुणा। णिरयाउ० अणंतगुणा । एवं दोच्चाए वि। णवरि वीरियंतराइयस्स परिभोगंतराइयस्स मज्झे सम्मत्तं कायव्वं । तिरिक्खगदीए सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं। चक्खु० अणंतगुणा। अचक्खु० अ० गुणा। ओहिणाण० ओहिदंस० अ० गुणा । हस्स० अ० गुणा। रदि० अ० गुणा। दुगुंछा अ० गुणा। भय० अ० गुणा। सोग० अ० गुणा। अरदि० अ० गुणा। पुरिस० अ० गुणा। इत्थि० अ० गुणा । णवंसय० अ० गुणा । संजलणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणा। वीरियंतराइय० अ० गुणा । परिभोगंतराइय० अ० गुणा । भोगंतराइय० अ० गुणा । लाहंतराइय० अ० गुणा। दाणंतराइय० अ० गुणा । तरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनंतगुणी है . केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी है। अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणी है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। तैजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। नरकग की उदीरणा अनन्तगुणी है । अयशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी है। नीचगोत्रकी उदीरणा अनन्तगुणी है। असातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है। सातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है। नारकायुकी उदीरणा अनन्तगुणी है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीमें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व प्रकृतिको वीर्यान्तराय और परिभोगान्तरायके मध्यमें करना चाहिए। तिर्यंचगतिमें सम्यक्त्व प्रकृति सबसे मन्द अनुभागवाली है। चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणको उदीरणा अनन्तगुणी है। हास्यकी उदीरणा अनन्तगुणी है। रतिकी उदीरणा अनन्तगुणी है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी है । भयकी उदीरणा अनन्तगुणी है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी है। अरतिकी उदीरणा अनंतगुणी है। पुरुषवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी है। स्त्रीवेदकी उदीरणा अनंतगुणी है। नपुंसकवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी है । संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है । परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है । भोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है । दानान्तरायको उदीरणा अनंतगुणी है । मनःपर्ययज्ञानावरणकी . अ-काप्रत्यो: “णिरयाउ अण्णदर अणंतगुणा', ताप्रतौ — णिरयाउ० अण्णदर अणंतगुणा ' इति पाठः । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २२९ मणपज्जव० अ० गुणा। सुद० अ० गुणा । मदिणाण० अ० गुणा । पच्चक्खाणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणा । केवलगाण० केवलदंस० अ० गुणा । पंयला० अ० गुणा। णिद्दा० अ० गुणा । पयलापयला० अ० गुणा। णिहाणिद्दा० अ० गुणा । थीणगिद्धि अ० गुणा। अपच्चक्खाणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणा। सम्मामिच्छत्त० अ० गुणा। अणंताणुबंधिचउक्कम्मि अण्णदर० अणंतगुणा। मिच्छत्त०अ० गुणा। ओरालिय० अ० गुणा। वेउव्वि० अणंतगुणा। तिरिक्खाउ० अ० गुणा। तेज० अ० गुणा । कम्मइय० अ० गुणा । तिरिक्खगइ० अ० गुणा । णीचागोद० अजसगित्ति० अणंतगुणा। असाद० अ० गुणा । जसगित्ति० अ० गुणा । साद० अ० गुणा। उच्चागोद० अणंतगुणा । मणुस्सेसु ओघं । णवरि तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-णिरआउ-णिरयगइ-देवाउदेवगईणमुदीरणा णत्थि । देवगदीए सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं । चक्खु० अ० गुणा। सुदावरण० अ० गुणा। मदिआवरण० अ० गुणा। अचक्खु० अ० गुणा। ओहिणाण० ओहिदंस० उदीरणा अनन्तगुणी है। श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है । मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है । प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी है। निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी है। प्रचलाप्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी है। निद्रानिद्राकी उदीरणा अनंतगुणी है । स्त्यानगृद्धिकी उदीरणा अनंतगुणी है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनंतगुणी है। अनन्तानबन्धिचतष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी है। औदारिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी है। वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी है। तिर्यगायुकी उदीरणा अनन्तगुणी है। तैजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है। कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगणी है। तिर्यग्गतिकी उदीरणा अनन्तगुणी है। नीचगोत्र व अयशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगणी है। असातावेदनीयकी उदीरणा अनंतगुणी है। यशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी है। सातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है । उच्चगोत्रकी उदीरणा अनन्तगुणी है। मनष्योंमें जघन्य अनुभागउदीरणाके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि तिर्यगायु, तिर्यग्गति, नारकायु, नरकगति, देवायु और देवगतिकी उदीरणा उनमें सम्भव नहीं है। देवगतिमें सम्यक्त्व प्रकृति सबसे मंद अनुभागवाली है। उससे चक्षुदर्शनावरणकी जघन्य अनुभागउदीरणा अनन्तगुणी है । श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है। मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है। हास्यकी उदीरणा अनंतगुणी है। ताप्रती 'उच्चागोद० अण्ण अणं तगुणा' इति पाठः । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ) छक्खंडागमे संतकम्मं अ० गुणा । हस्स अ० गुणा । रदि० अ० गुणा । दुगुंछा० अ० गुणा । भय० अ० गुणा । सोग० अनंतगुणा । अरदि० अ० गुणा । पुरिस० अ० गुणा । इत्थि० अ० गुणा । संजलणचउक्कम्मि अण्णदर० अ० गुणा । वीरियंतराइय० अ० गुणा । परिभोगंतराइय० अनंतगुणा । भोगंतराइय० अ० गुणा । लाहंतराइय० अ० गुणा । दाणंतराइय० अ० गुणा । मणपज्जव० अ० गुणा । अपच्चक्खाणचक्क अण्णदर० अनंतगुणा। पच्चक्खाणचउक्क अण्णदर० अ० गुणा । केवलणाण० केवलदंसण० अ० गुणा । पयला अ० गुणा । णिद्दा० अ० गुणा । सम्मामिच्छत्त अ० गुणा । अनंताणुबंधिarrafम्म अण्णदर० अ० गुणा । मिच्छत्त० अ० गुणा । वेउ० अ० गुणा । तेज अनंतगुणा । कम्मइय० अ० गुणा । देवगइ० अ० गुणा । अजसगित्ति० अ० गुणा । असाद० अ० गुणा । उच्चागोद० जसगित्ति० अ० गुणा । साद० अ० गुणा । देवाउ० अनंतगुणा । एइंदिएसु सव्वमंदाणुभागं हस्स० । रदि० अ० गुणा । दुगुंछा० अ० गुणा । भय० अ० गुणा । सोम० अ० गुणा । अरदि० अ० गुणा । णवुंस० अ० गुणा । ती उदीरणा अनन्तगुणी है। जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी है । भयकी उदीरणा अनन्तगुणी है। शोककी उदीरणा अनन्तगुणी है । अरतिकी उदीरणा अनन्तगुणी है । पुरुषवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी है । स्त्रीवेदकी उदीरणा अनन्तगुणी है । संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । वीर्यान्तरायको उदीरणा अनन्तगुणी है । परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है। भोगान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है। लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है । दानान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है । मन:पर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । केवलदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनं गुणी है । प्रचलाकी उदीरणा अनंतगुणी है । निद्राकी उदीरणा अनंतगुणी है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी है । अनन्तानुबन्धिचतुष्क में अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी है । वैक्रियकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । तैजसशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी है । कार्मणशरीरकी उदीरणा अनंतगुणी है । देवगतिकी उदीरणा अनन्तगुणी है । अयशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी है । असातावेदनीयको उदीरणा अनंतगुणी है । उच्चगोत्र और यशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी है । सातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है । देवायुकी उदीरणा अनन्तगुणी है । एकेन्द्रियों में हास्य प्रकृति सबसे मंद अनुभागवाली है। उससे रतिकी उदीरणा अनंतगुण है । जुगुप्साकी उदीरणा अनन्तगुणी है । भयकी उदीरणा अनन्तगुणी है । शोककी उदीरणा अनंतगुणी है | अरतिक उदीरणा अनन्तगुणी है । नपुंसकवेदकी उदीरणा अनंतगुणी है । अ- काप्रत्योः 'रदि० ' इति पाठ: । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उateमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २३१ संजणच उक्कम्मि अण्णदर० अनंतगुणा । वीरियंतराइय० अ० गुणा । अचक्खु ० अ० गुणा । परिभोगंतराइय० अ० गुणा । भोगंतराइय० अ० गुणा । लाहंतराइय० अणंतगुणा । दाणंतराइय० अ० गुणा । मणपज्जव० अ० गुणा । ओहिणाण० ओहिदंस ० अ० गुणा । सुदआवरण० अ० गुणा । चक्खुदं० अ० गुणा । मदिआवर० अ० गुणा । अपच्चक्खाणचक्क० अण्ण० अ० गुणा । पच्चक्खा० चउक्क० अण्ण० अ० गुणा । बंधिचक्क अण्ण० अ० गुणा । केवलणाण० केवलदंसण० अ० गुणा । मिच्छत्त० अ० गुणा । पयला० अ० गुणा । णिद्दा० अ० गुणा । पयलापयला० अ० गुणा । णिद्दाणिद्दा० अ० गुणा । श्रीणगिद्धि० अ० गुणा । ओरालिय० अणंतगुणा । area अ० गुणा । तिरिक्खाउ० अ० गुणा । तेजइय० अ० गुणा । कम्मइय० अ० गुणा । णीचागोद० अ० गुणा । अजसगित्ति० अ० गुणा । असाद० अ० गुणा । जसगित्ति० अनंतगुणा । साद० अनंतगुणा । एवमणुभाग उदीरणाए अप्पाबहुअं समत्तं । एत्तो भुजगारउदीरणाए अट्ठपदं- अणंतरविदिक्कते समए अप्पदराणि फद्दयाणि संज्वलनचतुष्क में अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । वीर्यान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है । अचक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है। परिभोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है । भोगान्तरायकी उदीरणा अनंतगुणी है । लाभान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है । दानान्तरायकी उदीरणा अनन्तगुणी है । मन:पर्ययज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है । श्रुतज्ञानावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है । चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है । मतिज्ञानावरणकी उदीरणा अनंतगुणी है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क्रमें अन्यतरकी उदीरणा अनंतगुणी है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरकी उदीरणा अनंतगुणी है । अनन्तानुबन्धिचतुष्क में अन्यतरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी उदीरणा अनन्तगुणी है । मिथ्यात्वकी उदीरणा अनन्तगुणी है । प्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी है । निद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी है । प्रचलाप्रचलाकी उदीरणा अनन्तगुणी है । निद्रानिद्राकी उदीरणा अनन्तगुणी है । स्त्यानगृद्धिकी उदीरणा अन गुणी है । औदारिकशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा अनन्त - गुणी है । तिर्यगायुकी उदीरणा अनन्तगुणी है । तैजसशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । कार्मणशरीरकी उदीरणा अनन्तगुणी है । तिर्यग्गतिकी उदीरणा अनन्तगुणी है । नीचगोत्रकी उदीरणा अनन्तगुणी है । अयशकीर्तिकी उदीरणा अनंतगुणी है । असातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है । यशकीर्तिकी उदीरणा अनन्तगुणी है । सातावेदनीयकी उदीरणा अनन्तगुणी है । इस प्रकार अनुभागउदीरणा अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । यहां भुजाकार उदीरणाका अर्थपद कहा जाता है-- अनन्तर अतीत समय में अल्पतर अ-काप्रत्योः " साद० अण्णदर अनंतगुणा' इति पाठः । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं उदीरेण जदि एहिं बहुदराणि फद्दयाणि उदीरेदि तो एसा भुजगारउदीरणा । जदि अणंतरविदिक्कते समए बहुदराणि फद्दयाणि उदीरेद्रण एहिं थोवाणि उदीरेदि तो एसा अपदर उदीरणा । जदि तत्तियाणि तत्तियाणि चेव फद्दयाणि उदीरेदि तो एसा उदीरणा | अणुदीरएण उदीरिदे एसा अवत्तव्वउदीरणा । एदेण अट्ठपदेण सामित्तं भुजगार० अप्पदर० अवद्विद० अवत्तव्व० उदीरणाणं वत्तव्वं । एयजीवेण कालो बुच्चदे -- पंचणाणावरणीय - छदंसणावरणीय - पंचतराइयाणं च भुजगार - अप्पवरउदीरगाणं कालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अवट्ठिद० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । णिद्दाणिद्दापयलायला थी गिद्धि -- सादासादवेयणीय-- सोलसकसाय - णवणोकसाय---मिच्छत्तसम्मत्त सम्मामिच्छत्त आउचउक्क चत्तारिगदि-पंचजादि-ओरालिय--वेउव्विय-आहारसरीर-तिण्णिअंगोवंग-ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीर- पाओग्गबंधण-संघाद-छसंठाणसंघडणकक्खड-गरुअ-लहुअ-उवघाद- परघाद-आदावुज्जोवउस्सास-पसत्थाप सत्थविहायगइ-तस थावर- बादर-सुहुम- पज्जत्तापज्जत्त- पत्तेय-साहारण- दूभग-सुस्सर दुस्सर-अणादेज्ज - अजस गित्ति--णीचागोदाणं भुजगार -- अप्पदरउदीरणकालो जह० एगसमओ, उक्क ० अंतमुत्तं । अवट्टिदउदीरणकालो जह० एगसमओ, उक्क० स्पर्द्धकोंकी उदीरणा करके यदि इस समय बहुतर स्पर्द्धकोंकी उदीरणा करता है तो यह भुजाकारउदीरणा है । यदि अनन्तर अतीत समय में बहुतर स्पर्द्धकोंकी उदीरणा करके इस समय स्तोक स्पर्द्धकोंकी उदीरणा करता है तो यह अल्पतरउदीरणा है । यदि उतने उतने मात्र ही स्पर्द्धकोंकी उदीरणा करता है तो यह अवस्थितउदीरणा है । यदि पूर्व में उदीरणा नहीं की है और अब उदीरणा करता है तो यह अवक्तव्यउदीरणा है । इस अर्थपदके अनुसार यहां भुजाकार, अल्पतर अवस्थित और अवक्तव्य उदीरणाओंके स्वामित्वका कथन करना चाहिये । एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा करते हैं- पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी भुजाकार और अल्पतर उदीरणाओंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । अवस्थितउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार आयुकर्म, चार गतियां पांच जातियां, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर. आहारकशरीर, तीन अंगोपांग, औदारिक, वैक्रियिक व आहारकशरीरके योग्य बन्धन एवं संघात, छह संस्थान, छह संहनन, कर्कश, गुरु, लघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीचगोत्र ; इन प्रकृतियोंकी भुजाकार और अल्पतर उदीरणाओंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उनकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से सात समय मात्र है । तैजस व कार्मण शरीर तथा तत्प्रायोग्य बन्धन व संघात, वर्ण, गन्ध, रस, X ताप्रती ' अणुदीरणा उदीरेदि इति पाठ: । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा (२३३ सत्तसमया। तेजा-कम्मइयसरीर-तप्पाओग्गबंधण-संघाद-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिणुच्चागोदाणं भुजगारअप्पदरउदीरणाकालो जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमहत्तं । अवट्टिदउदीरणाकालो जह० एगसमओ, उक्क० पुब्वकोडी देसूणा। चदुण्णमाणुपुव्वीणं भुजगार-अप्पदरअवट्ठिदकालो जो जिस्से पयडीए उदीरणाकालो सो समऊणो होदि । तित्थयरणामाए भुजगारउदीरणाकालो जह० उक्कस्सेण वि अंतोमहत्तं । णत्थि0 अप्पदरउदीरणा । अवट्ठिदउदीरणाकालो जह० वासपुधत्तं, उक्क०. पुवकोडी देसूणा देसूणचुलसीदि पुव्वसदसहस्साणि वा। एगजीवेण अंतरं । तं जहा- णाणावरणीयस्स* भुजगार-अप्पदरउदीरणाणमंतरं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । अवट्ठिदमंतरं जह० एयसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवं सव्वासि धुवोदयपयडीणं । णवरि कक्खड-गरुववज्जअसुहणामाणं* अप्पदरउदीरणंतरं मउअ-लहुअवज्जसुहणामाणं भुजगारुदीरणंतरं च उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदरउदीरणाणमंतरं जह० एगसमओ, उक्क० बे-छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तित्थयरस्स णत्थि अंतरं। स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीति, निर्माण और उच्चगोत्रकी भुजाकार व अल्पतर उदीरणाओंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। इनकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि मात्र है। चार आनुपूवियोंकी भुजाकार, अल्पतर अवस्थित उदीरणाओंका काल, जो जिस प्रकृतिका उदीरणा काल है उससे एक समय कम है। तीर्थंकर नामकर्मकी भुजाकार उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्षसे भी अन्तर्मुहुर्त मात्र है। उसकी अल्पतर उदीरणा नहीं होती। उसकी अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे वर्षपृथक्त्व और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि अथवा कुछ कम चौरासी लाख वर्षपूर्व प्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- ज्ञानावरणीयकी भुजाकार व अल्पतर उदीरणाओंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है । उसकी अवस्थित उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण है। इसी प्रकारसे समस्त ध्रुवोदयी प्रकतियोंकी उदीरणाके अन्तरका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि कर्कश व गुरुको छोडकर शेष अशुभ नामप्रकृतियोंकी अल्पतर उदीरणाका अन्तर तथा मृदु व लघुको छोडकर शेष शुभ नामप्रकृतियोंकी भुजाकार उदीरणाका अन्तर उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि मात्र काल तक होता है। मिथ्यात्व प्रकृतिकी भुजाकार व अल्पतर उदीरणाओंका अन्तर जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम प्रमाण होता है। तीर्थंकर प्रकृतिकी उदीरणाका अन्तर नहीं होता। जो कर्म उदयकी अपेक्षा परिवर्तमान हैं उनकी B अ-काप्रत्यो: 'समऊणा' इति पाठः । ४ ताप्रतौ ' ण (अ) त्थि' इति पाठः। .ताप्रती (उक्क० ) इति पाठः। * अप्रप्तौ ' देसूणा चूलसीदि', काप्रती देसूणचूलसीदि ' इति पाठः । Jain Education * प्रतिषु ‘णाणाजीवस्स ' इति पाठः । * तापतौ कक्खडगरु अं वज्ज असुहणामाणं इति पाठः Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ) छक्खंडागमे संतकम्म जाणि कम्माणि उदएण परियत्तमाणयाणि तेसि भुजगार-अप्पदरउदीरणंतरं जहा पयडिउदीरणाए अंतरं परविदं तहा परूवेयव्वं । एवमंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ। तं जहा- पंचणाणावरणीय-चत्तारिदसणावरणीय पंचतराइयाणं जाओ णामपयडीओ धुवमुदीरिज्जंति तासि चर्स भुजगार-अप्पदर अवट्टिदउदीरया णियमा अत्थि। मिच्छत्त-तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-णqसयवेद-थावरदूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदउदीरया णियमा अस्थि । अवत्तव्वउदीरया भजियव्वा- सिया एदे च अवत्तव्वउदीरओ च, सिया एदे च अवत्तव्वउदीरया च, धुवसहिया एत्थ तिणि भंगा । सम्मामिच्छत्त-आहारसरीराणं आहारसरीरपाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघादाणं तिण्णमाणुपुव्वीणं च असिदीभंगा, धुवभंगाभावादो। ८०। सम्मत्त-इत्थि-पुरिसवेद-तिण्णिआउ-तिण्णिगइ-जादिचउक्क-ओरालियसरीरअंगोवंग-वेउब्वियसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघाद-पंचसंठाण-छसंघडण-पसत्यापसत्थविहायगइ-तस-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-उच्चागोदाणं भुजगार-अप्पदरउदीरया णियमा अत्थि । अवट्ठिद-अवत्तव्वउदीरया भजियव्वा । तेणेत्थ णव भंगा होति ९ । पंचदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोग--भय-दुगुंछा-तिरिक्खाउ--ओरालियसरीर--तप्पाओग्गबंधण-संघाद--हुंडसंठाण--तिरिक्खाणुपुवी-- भुजाकार व अल्पतर अनुभागउदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा प्रकृतिउदीरणाके अन्तरके समान करना चाहिये । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। ___ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका कथन करते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायके तथा जिन नामप्रकृतियोंकी ध्रुव उदीरणा होती है उनके भी भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे होते हैं। मिथ्यात्व, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, नपुंसकवेद, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे होते हैं। अवक्तव्य उदीरक भजनीय हैं-- कदाचित् उपर्युक्त ये तीन उदीरक बहुत व अवक्तव्य उदीरक एक होता है, कदाचित् ये तीन उदीरक बहुत और अवक्तव्य उदीरक भी बहुत होते हैं, इनमें ध्रुवभंगके मिला देनेसे यहां तीन भंग होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्व, आहारकशरीरप्रायोग्य आंगोपाग, बन्धन व संघात तथा तीन आनुपूर्वी ; इनके अस्सी (८०) भंग होते हैं, कारण ध्रुव भंगका अभाव है। सम्यक्त्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तीन आयुकर्म, तीन गतियां, चार जातियां, औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिक बन्धन व संघात, पांच संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र ; इनके भुजाकार व अल्पतर उदीरक नियमसे होते हैं । अवस्थित व अवक्तव्य उदीरक भजनीय हैं। इस कारण यहां ( ९) भंग होते हैं । पांच दर्शनावरण, साता व असातावेदनीय, सोलह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, औदारिकशरीर, तत्प्रायोग्य ४ ताप्रतौ 'च' इत्येतत्पदं नास्ति। * ताप्रतौ — अंगोवंगाणं' इति पाठः । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २३५ उवघाद-परघाद-आदाव-उज्जोव-उस्सास-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेयसरीरसाहारण-जसगित्ति-अजसगित्तीणं भुजगार-अप्पदर-अवट्टिद-अवत्तव्वउदीरया णियमा अस्थि । णवरि पत्तेयसरीरस्स अवद्विदउदीरया भजियव्वा । तेणेत्थ तिण्णिभंगा। णाणाजीवेहि कालो-- जेसि कम्माणं भंगविचए एक्को भंगो तेसिं भुजगारअप्पदर अवट्ठिद-अवत्तन्वउदीरयकालो सव्वद्धा। जेसि तिण्णिभंगा तेसिमवत्तव्वउदीरयाण कालो जह० एगसाओ, उक्क० आवलि. असंखे० भागो। सेसाणं सव्वद्धा : जेसि णवभंगा तेसि अवत्तव्व-अवविदउदीरयकालो जह० एगसमओ, उक्क० आव० असंखे० भागो। असीदिभंगएसु सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदराणं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवत्तव्व-अवविदउदीरयाणं जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। तिण्णमाणपुव्वीणं भजगार-अप्पदर-अवट्रिद-अवत्तव्वउदीरयाणं जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। आहारचउक्क० भुजगारअप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्ठिदावत्तव्व उदीरयाणं जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। एवं णाणाजीवेहि कालो समत्तो। बन्धन व संघात, हुण्डकसंस्थान, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, यशकीर्ति और अयशकीर्ति ; इनके भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरक नियमसे होते हैं । विशेष इतना है कि प्रत्येकशरीरके अवस्थित उदीरक भजनीय हैं । इसलिये यहां तीन भंग होते हैं । __नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका कथन किया जाता है- जिन कर्मोंका भंगविचयमें एक भंग होता है उनके भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरकोंका काल सर्वकाल होता है। जिन कर्मोके तीन भंग होते हैं उनके अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीका असंख्यातवां भाग होता है। शष कर्मोंका सर्वकाल होता है। जिन कर्मोके नौ भंग होते हैं उनके अवक्तव्य व अवस्थित उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । अस्सी भंगवाले कर्मोंके सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार उदीरकों और अल्पतर उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । अवक्तव्य व अवस्थित उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। तीन आनुपूर्वियोंके भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। आहारकचतुष्कके भुजाकार और अल्पतर उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । आहारचतुष्कके अवस्थित व अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात समय मात्र होता है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। ताप्रती ‘-उदीरणका लो' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः ‘अवट्टिदावत्त ब्वा' इति पाठः। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं णाणाजीवेहि अंतरं । तं जहा- जेसि कम्माणमवट्टिदउदीरया भज्जा तेसिमवट्ठिदउदीरयंतरमसंखेज्जा लोगा । सम्मत्तस्स अवत्तव्वउदीरयंतरं बारस अहोरत्ता । चदुर्गाद पडुच्च सत्त रादिदियाणि । भुजगार - अप्पदरउदीरयंतरं णत्थि । मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणं अवत्तव्वउदीरयंतरं जहण्णमेगसमओ, उक्क ० चवीसमहोरत्ते सादिरेगे पलिदो ० असंखे ० भागो । तिष्णं वेदाणमवत्तव्वउदीरयंतरं अंतोमुहुत्तं । चत्तारिगदि-पंचजादि वेडव्वियसरीर- पंचसंठाण ओरालिय- वे उब्वियअंगोवंग-छसंघडण तिण्णिआणुपुव्वी - दोविहायगइ-तस थावर - सुभग- दूभग- सुस्सर - दुस्सर - आदेज्ज-अणादेज्ज - उच्चा-णीचागोदाणं अवत्तव्व० जह० एगसमओ, उक्क० अंतमुत्तं । अप्पा बहुअं । तं जहा - आभिणिबोहियणाणावरणस्स अवट्ठिदउदीरया थोवा । अप्पदरउदीरया असंखेज्जगुणा । भुजगारउदीरया विसेसाहिया । विसेसो सगसंखेज्जदिभागो । सुद-ओहि मणपज्जव केवलणाणावरण-चक्खु ओहि केवलदंसणावरणाणं अभिगिबोहियणाणावरणभंगो । पंचदंसणावरणीय-सादासाद- सोलसकसाय - अट्ठणोकसायाणं सव्वत्थोवा अवट्ठिदउदीरया । अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार० विसेसाहिया । जेसि णामकम्माणमवत्तव्वउदीरया असंखे ० नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है । यथा - जिन कर्मोंके अवस्थित उदीरक भजनीय हैं उनके अवस्थित उदीरकोंका अन्तर असंख्यात लोक मात्र काल तक होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिके अवक्तव्य उदीरकोंका अन्तर बारह अहोरात्र प्रमाण होता है । चार गतियोंकी अपेक्षा वह सात रात्रिदिन प्रमाण होता है । उसके भुजाकार और अल्पतर उदीरकों का अन्तर सम्भव नहीं है । मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व के अवक्तव्य उदीरकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से क्रमशः साधिक चोबीस अहोरात्र और पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है। तीन वेदोंके अवक्तव्य उदीरकोंका अन्तर अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है । चार गतियां, पांच जातियां, वैक्रियिकशरीर, पांच संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वियां, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय. अनादेय, उच्चगोत्र और नीचगोत्र ; इनके अवक्तव्य उदीरकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । अल्पबहुत्व की प्ररूपरणा की जाती है । वह इस प्रकार है- आभिनिबोधिकज्ञानावरण के अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। उनसे उसके अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार उदीरक विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण अपना संख्यातवां भाग है। श्रुतज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण; इनके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानावरण के समान है। पांच दर्शनावरण, साता व असातावेदनीय, सोलह कषाय और आठ नोकषाय; इनके अवस्थित उदीरक सबसे स्तोक हैं । अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकार उदीरक विशेष अधिक हैं। जिन नामकर्मोंके अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे भाग मात्र Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २३७ भागो तेसि णामकम्माणमवट्ठिद० थोवा। अवत्तन्व० असंखे० गुणा। अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार० विसेसाहिया। मिच्छत्त-णवंसयवेद-तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-थावरदूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणमवत्तव्व० थोवा । अवट्ठिय० अणंतगुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार विसेसाहिया । अचक्खुदंसणावरण-सम्मत्त-पंचंतराइयाणं अवद्विदउदीरया थोवा । जत्थ अवत्तव्वया अत्थि ते असंखे० गुणा । भुजगार० असंखे० गुणा । अप्पदर० विसेसाहिया । सम्मामिच्छत्तस्स अवढि० थोवा । अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार० विसे० । सम्मामिच्छत्तगुणटाणे सत्थाणे भुजगार-अप्पदरउदीरया तुल्ला। मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंतजीवा थोवा । सम्मत्तादो गच्छंता असंखे० गुणा । जे सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति ते सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारउदीरया होति । कुदो? संकिलेसत्तादो। जे मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति ते सम्मामिच्छत्तस्स अप्पदरउदीरया होंति, विसुज्झमाणपरिणामादो । तेण अप्पदरउदीरएहितो भुजगारउदीरयाणं विसेसाहियत्तं सिद्धं । पदणिक्खेवे सामित्तं । तं जहा- मदिआवरणस्स उक्क० अणुभागउदीरणवड्ढी कस्स? जो संतकम्मेण उक्कस्सउदीरणापाओग्गेण तप्पाओग्गसंकिलेसादो उक्कस्ससंकिलेसं हैं उन नामकर्मोके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं । अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे है। अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकारउदीरक विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, स्थावर. दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके अवक्तव्य उदीरक स्तोक हैं । अवस्थिन उदीरक अनन्तगुणे हैं । अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकारउदीरक विशेष अधिक हैं। अचक्षुदर्शनावरण, सम्यक्त्व और पांच अन्त रायके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। जहां अवक्तव्य उदीरक हैं वे असंख्यातगुणे हैं । भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर उदीरक विशेष अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार उदीरक विशेष अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें स्वस्थान में भुजाकार और अल्पतर उदीरक दोनों तुल्य हैं । मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीव स्तोक हैं, परन्तु सम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं । जो जीव सम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं वे सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार उदीरक होते हैं, क्योंकि वे संक्लेश परिणामोंसे युक्त होते हैं । जो मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं वे सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर उदीरक होते है, क्योंकि, वे विशुध्यमान परिणामोंसे संयुक्त होते हैं; इसीलिये उसके अल्पतर उदीरकोंकी अपेक्षा भुजाकारउदी रकोंका विशेष अधिक होना सिद्ध हैं। पदनिक्षेपमें स्वामित्वका कथन किया जाता है। वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा-वृद्धि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट उदीरणाके योग्य सत्कर्मके साथ ताप्रती नोपलभ्यते पदमेतत् । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं गो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो उक्कस्समुदीरणमुदीरेण मदो एइंदिओ जादो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तत्थेव उक्कस्समवट्ठाणं । सुदमणपज्जवणाणावरण - केवलणाण - केवलदंसणावरण- मिच्छत्त- सोलस # कसायाणं मदिआवरणभंगो। ओहिणाण ओहिंदंसणावरणाण मुक्कस्सियाए वड्ढीए मदिआवरणभंगो । वरि ओहिलंभो णत्थि । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो विणा ओहिलंभेण उक्कस्समुदीरणमुदीरेण मदो णेरइयो जादो तस्स उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्समवद्वाणं कस्स ? जो उक्कस्समुदीरणमुदीरेंतो संतो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पा ओग्गजहण्णउदए पदिदो से काले तत्थेव अवट्ठिदो तस्स उकस्समवट्ठाणं । चक्खुदंसणावरणस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो तीइंदियो तप्पा ओग्गविसुद्धो संतो संकिलेस गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो तेइंदियो तप्पा ओग्गसंकि लिट्ठो संतो मदो एइंदियो जादो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव उक्कस्समवद्वाणं । अचक्खुदंसणावरणस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो पुव्वहरो मिच्छाइट्ठी तप्पा ओग्गसंकिलिट्ठो संतो मदो सुहुमेइंदिओ जहण्णखओवसमो जादो तत्प्रायोग्य संक्लेशके उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट उदीरणापूर्वक उदीरणा करके मृत्युको प्राप्त होता हुआ एकेन्द्रिय हुआ है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । वहींपर उत्कृष्ट अवस्थान भी होता है। श्रुतज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट वृद्धिकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि अवधिज्ञानकी प्राप्ति सम्भव नही है । उन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा-हानि किसके होती है ? जो जीव अवfuज्ञानकी प्राप्ति के बिना उत्कृष्ट उदीरणापूर्वक उदीरणा करके मृत्युको प्राप्त होता हुआ नारकी हुआ है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो उत्कृष्ट उदीरणा पूर्वक उदीरणा करता हुआ साकार उपयोगके क्षयसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य उदयमें आ पडता है व अनन्तर कालमें वहीं पर अवस्थित होता है उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है । चक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा-वृद्धि किसके होती है ? जो त्रीन्द्रिय जीव तत्प्रायोग्य विशुद्ध होकर संक्लेशको प्राप्त होता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो त्रीन्द्रिय जीव तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त होकर मृत्युको प्राप्त होता हुआ एकेन्द्रिय होता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । उसीके उत्कृष्ट अवस्थान होता है । अचक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? जो पूर्वधर मिथ्यादृष्टि जीव तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त होता हुआ मृत्युको प्राप्त होकर जघन्य क्षयोपशमसे संयुक्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय होता है उसके प्रतिषु मिच्छत्तस्स सोलस' इति पाठः । अ- काप्रत्यो: 'ती इंदिय-' इति पाठः । संकिलेस ' इति पाठः । अप्रतो * अ-काप्रत्योः 'भंगो' इति पाठः । मप्रतिपाछोयम् । अ-कात प्रतिषु ' उक्करसतस्स उक्कस्स उक्कस्सिया' इति पाठः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २३९ तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । अचक्खुदंसणावरणस्स उक्कस्सिया हाणी कस्स ? सुहमेइंदियस्स जहण्णलद्धिस्स से काले तप्पाओग्गविसोहीए सव्वविसुद्धस्स उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्समवट्ठाणं कस्स? जो बादरेइंदिओ उक्कस्ससंकिलिट्ठो सागारक्खएण तप्पाओग्गविसुद्धो जादो तत्थेव अवट्टिदो तस्स उक्कस्सयमवढाणं । दसणावरणपंचयस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो णिद्दावेदओ तप्पाओग्गविसुद्धो संतो तप्पाओग्गउक्कस्ससंकिलिट्ठो जादो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो णिद्दावेदओ उक्कस्ससंकिलिट्ठो सागारक्खएण तप्पाओग्गजहण्णए उदए पदिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवढाणं । एवं सेसाणं चदुण्ण पि वत्तव्वं । सादस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो देवो तेत्तीससागरोवमद्विदीओ तप्पाओग्गजहण्णसादोदयादो उक्कस्सयं सादोदयं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स? जो देवो उक्कस्ससादवेदओ मदो मणुस्सो तप्पाओग्गजहण्णसादावेदओ जादो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तत्थेव उक्कस्समवढाणं । असादस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो णेरइओ तेत्तीससागरोवमद्विदीओ तप्पाओग्गजहण्णअसादोदयादो उक्कस्सयं असादोदयं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? उक्कस्सअसादोदए वट्टउत्कृष्ट वृद्धि होती है। अचक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तर कालमें तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे सर्वविशुद्ध होनेवाले ऐसे जघन्य क्षयोपशम संयुक्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो बादर एकेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर साकार उपयोगके क्षयसे तत्प्रायोग्य विशद्धिको प्राप्त होता हआ वहींपर अवस्थित रहता है उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वद्धि किसके होती है ? जो निद्राका वेदक जीव तत्प्रायोग्य विशद्ध होकर फिर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है उसके निद्रा प्रकृतिकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा वृद्धि होती है। इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो निद्राका वेदक जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर साकार उपयोगके क्षयसे तत्प्रायोग्य जघन्य उदयमें आ पडता है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसके ही अनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकारसे प्रचला आदि शेष चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके सम्बन्धमें भी कहना चाहिये। ___ सातावेदनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा-वृद्धि किसके होती है? तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला जो देव तत्प्रायोग्य जघन्य साताके उदयसे उत्कृष्ट साताके उदयको प्राप्त होता है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट सातावेदनीयका वेदक जो देव मृत्युको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य जघन्य साताका वेदक मनुष्य होता है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। वहीं पर उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। असातावेदनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला जो नारकी जीव तत्प्रायोग्य जघन्य असाताके उदयसे उत्कृष्ट असाताके उदयको प्राप्त होता है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट असाताके उदयमें वर्तमान जो जीव मरकर तत्प्रायोग्य असाताके Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ) छक्खंडागमे संतकम्म माणओ मदो तप्पाओग्गजहण्णअसादोदए पदिदो तस्स* उक्कस्सिया हाणी । से काले उक्कस्समवट्ठाणं । __ अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-णवंसयवेदाणं असादभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो तप्पाओग्गजहण्णसंकिलेसादो उक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी। उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो उक्कस्ससंकिलेसादो तप्पाओग्गजहण्णसंकिलेसं गदो तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवढाणं । हस्स रदीणं सादभंगो । णवरि सहस्सारओ ति वत्तव्वं । इत्थि-पुरिसवेदाणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स होदि? जो तिरिक्खो अट्टवरसिओ अटुवस्सओ* जादो तप्पाओग्गजहण्णवेदोएण उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण उक्कस्सयं वेदोदयं तदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स? जो तिरिक्खो अवस्सिओ अट्ठवस्सओ जादो उक्कस्सवेदोदयादो सागारक्खएण तप्पाओग्गजहण्णसंकिलेसं जहण्णवेदोदयं गदो च तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव उक्कस्सयमवढाणं ।। णिरयाउअस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो तेत्तीससागरोवमट्टिदीओ तप्पाओग्गजहण्णसंकिलेसादो उक्कस्ससंकिलेसंगदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी। उक्कस्सिया जघन्य उदयमें आया है उससे उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । अनन्तर कालमें उसके उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। __ अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी प्ररूपणा असातावेदनीयके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट संक्लेशसे तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसके ही अनन्तर काल में उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । हास्य और रतिकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। विशेष इतना है कि यहां तेतीस सागरोपम स्थितिवाले देवके स्थानमें सहस्रार कल्पवासी देवका कथन करना चाहिये । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो आठ वर्षकी आयुवाला तिर्यच आठ वर्षका होकर तत्प्रायोग्य जघन्य वेदोदयके साथ उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट वेदोदयको प्राप्त होता है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो आठ वर्षकी आयुवाला तिर्यच आठ वर्षका होकर उत्कृष्ट वेदोदयसे साकार उपयोगके क्षयके साथ तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेश और जघन्य वेदोदयको भी प्राप्त हुआ है उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसीके उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । __ नारकायुकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला जो जीव तत्प्रामोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी ४ ताप्रतौ ' वडढमाणओ' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'पलिदोवमस्स तस्स', ताप्रतौ 'पलि दोवमस्स (पदिदो ) तस्स' इति पाठः। * अ-काप्रत्योः 'वस्स' इति पाठः । | Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा (२४१ हाणी कस्स ? जो तेत्तीससागरोवमद्विदीओ उक्कस्ससंकिलिट्ठो सागारक्खएण तप्पाओग्गजहण्णे संकिलेसे पदिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । मणुस-तिरिक्खाउआणमुक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो तिण्णिपलिदोवमाउद्विदीओ तप्पाओग्गजहण्णविसोहीदो तप्पाओग्गउक्कस्सविसोहि गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो तप्पाओग्गउक्कस्सविसोहीदो सागारक्खएण तप्पाओग्गजहण्णविसोहि गदो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । देवाउअस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो तेत्तीससागरोवमाउद्विदीओ तप्पाओग्गजहण्णविसोहीदो तप्पाओग्गउक्कस्सविसोहिं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? तस्सेव उक्कस्सआउओदयादो जो सागारक्खएण पडिभग्गो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । णिरयगईए णिरयाउभंगो । मणुसगईए मणुसाउभंगो। देवगईए देवाउभंगो। तिरिक्खगईए इत्थिवेदभंगो । ओरालियसरीर-ओरालियअंगोवंग-बंधण-संघादाणंमणुसगइभंगो। आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? तप्पाओग्गजहण्णविसोहीदो जो उक्कस्सविसोहि गदो तस्स उक्क० वड्ढी । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला जो जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर साकार उपयोगके क्षयसे तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशमें आ पडा है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। मनुष्यायु और तिर्यगायुकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तीन पल्योपम प्रमाण आयुवाला जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुआ है उसके उक्त दो आयु कर्मोकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिसे साकार उपयोगका क्षय होनेसे तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ है उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। देवायुकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुआ है उसके देवायुकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो साकार उपयोगके क्षयपूर्वक आयुके उत्कृष्ट उदयसे प्रतिभग्न हुआ है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । अनन्तर कालमें उसके ही उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । __ नरकगतिकी वृद्धि-हानिकी प्ररूपणा नारकायुके समान है। मनुष्यगतिकी उक्त वृद्धि-हानिकी प्ररूपणा मनुष्यायुके समान, देवगतिकी देवायुके समान, और तिर्यंचगतिकी स्त्रीवेदके समान है। औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग तथा औदारिक बन्धन व संघातकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है। आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग एवं आहारक बन्धन व संघातकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिसे उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुआ है उसके अ-काप्रत्योः 'पलिदोवमस्स तस्स', ताप्रती 'पलिदोवमस्स (पदिदो तस्स ' इति पाठः। अपतो 'पडिभागो' इति पाठः I cation Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ) छक्खंडागमे संतकम्म उक्क० हाणी कस्स? जो उक्कस्सविसोहीदो सागारक्खएण* जहण्णविसोहि गदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । वेउव्वियसरीरचउक्कसमचउरससंठाण-परघाद-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीराणं आहारसरीरभंगो। तेजा-कम्मइयसरीर-तेजा-कम्मइयसरीरबंधण-संघाद-पसत्थवण्ण-गंध-रस-णिद्धुण्ण-अगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-जसकित्ति-सुभग-आदेज्ज-णिमिण-उच्चागोदाणं उक्क० वढ्ढी कस्स? चरमसमयजोगिस्स । उक्क० हाणी कस्स ? पढमसमयसकसायस्स । जेणेदाओ तिरिक्ख-मणुसाणं परिणामपच्चइयाओ तेण ण देवस्स,सुहुमसांपराइयस्सेव । उक्कस्सयमवढाणं कस्स? जो अप्पमत्तसंजदो सव्वविसुद्धो सागारक्खएण अबढाणं गदो तस्स । चदुसंठाण-पंचसंघडणाणं तिरिक्खगदिभंगो । वज्जरिसहस्स मणुस्सो तिपलिदोवमिओ। अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-सीद-ल्हुक्खाणं मिच्छत्तभंगो । मउअ-लहुअउज्जोवाणमाहारसरीरभंगो। कक्खड-गरुआणमित्थिवेदभंगो। अथिर-असुभ-दूभगअणादेज्ज-अजसकित्तीणं मिच्छ तभंगो। पंचिदियजादि-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्तसुस्सराणं देवगइभंगो। उन चारों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है? जो उत्कृष्ट विशुद्धिसे साकार उपयोगके क्षयपूर्वक जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ है उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। वैक्रियिकशरीरादि चार, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, प्रशस्त विहायोगति और प्रत्येकशरीर; इनकी वृद्धि व हानिकी प्ररूपणा आहारकशरीरके समान है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, तेजसशरीर बन्धन व संघात, कार्मणशरीर बन्धन व संघात, प्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस, स्निग्ध, उष्ण, अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, यशकिर्ति, सुभग, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगीके होती हैं। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उनकी उत्कृष्ट हानि प्रथम समयवर्ती सकषाय प्राणीके होती है। चूंकि ये तिर्यंचों और मनुष्योंके परिणामप्रत्ययिक होती हैं, इसीलिए वे देवके सम्भव न होकर सूक्ष्मसाम्परायिक मनुष्यके ही सम्भव हैं। इनका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयत साकार उपयोगके क्षयसे अवस्थानको प्राप्त हुआ है उसके उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । चार संस्थानों व पांच संहननोंकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान है । वजर्षभनाराचसंहननकी उत्कृष्ट वृद्धि आदि तीन पल्योपम प्रमाण आयुवालेके होती है। अप्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस तथा शीत व रुक्ष स्पर्शोको प्ररूपणा मिथ्यात्व प्रकृतिके समान है। मृदु, लघु और उद्योतकी प्ररूपणा आहारकशरीरके समान है। कर्कश और गुरु स्पर्शोको प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है । अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय और अयशकीतिकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है । पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और सुस्वरकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । * अप्रतौ ' सागरक्वएण' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः 'संकिलिट्र' इति पाठः । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २४३ थावरणामाए उक्क ० वड्ढी कस्स ? जो बादरो तप्पा ओग्गजहण्णसंकिलेसादो Teraiकिलेसं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । सो चेव मदो तप्पा ओग्गजहण्णसंकिलेसे पदिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं । एदिय-विगलदिय- सुहुम-साहारणणामाणं थावरभंगो | णवरि वेदओ कायव्वो । साहारणणामाए बादरसाहारणकाइओ कायव्वो । अपज्जत्तणामाए उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? मणुस्सस्स अपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए उप्पज्जिय चरिमसमयतन्भवत्थस्स । सो चेव मदो सुहुमेइंदियअपज्जत्तएसु उववण्णो तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवद्वाणं । अप्पसत्थविहायगदि-दुस्सरणीचागोदाणं णिरयगइभंगो । पंचणमंत रायाण मुक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो सष्णिपंचिदिओ तप्पा ओग्गुस्सियाए लद्धीए संजुत्तो मदो सुहुमेइंदिएसु जहण्णलद्धिसंजुत्तो जादो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । तस्सेव उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स सागारक्खएण तप्पा ओग्गजहण्णसं किलेसे पदिदस्स तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवद्वाणं । आदावणामाए उक्कस्सवड्ढि - हाणि-अवट्ठाणाणं थावरभंगो । णवरि बादरपुढविकाइएसु विसोहीए वत्तव्वं । तित्थयरणामाए उक्क ० वड्ढी कस्स ? चरिमसमयजोगिस्स एवं उक्कस्स सामित्तं समत्तं । स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो बादर जीव तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेश से उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । वही मरकर सब तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशमें आता है तब उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसीके अनन्तर कालमें उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सूक्ष्म और साधारण नामकर्मोंकी प्ररूपणा स्थावर नामकर्मके समान है । विशेष इतना है कि विवक्षित प्रकृतिका वेदक कहना चाहिये । साधारण नामकर्मकी प्ररूपणामें बादर साधारणकायिक कहना चाहिये । अपर्याप्त नामकर्मकी उकृष्ट वृद्धि किसके होती है ? वह मनुष्य अपर्याप्त के होती है जो उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न होकर चरम समयवर्ती तद्भवस्थ होता है । वही मरकर जब सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होता है तब उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसीके अनन्तर कालमें उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । अप्रशस्त विहायोगति, दुस्वर और नीचगोत्रकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है । पांच अन्तराय कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट क्षयोपशमसे संयुक्त होता हुआ मृत्युको प्राप्त होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें जघन्य क्षयोपशम से संयुक्त होता है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त वही जब साकार उपयोगके क्षयसे तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशमें आता है तब उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसीके अनन्तर काल में उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । आतप नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा स्थावर नामकर्मके समान है । विशेष इतना है कि बादर पृथिवीकायिकों में विशुद्धिके द्वारा स्वामित्व कहना चाहिये । तीर्थंकर नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? वह चरम समयवर्ती सयोगीके होती है । प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ इस । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतक मं मदिआवरणस्स जहणिया वड्ढी कस्स? जो चोद्दसपुव्वहरो उदएण अनंतभागवड्ढी वड्ढिदो तस्स जह० वड्ढी । तेणेव जहण्णवड्ढिमेत्तं चैव हाइदूण उदीरि तस्स जह० हाणी । एगदरत्थ अवद्वाणं । सुदावरणस्स मदिआवरणभंगो । चक्खु - अचक्खुदंसणाणं पि मदिआवरणभंगो चेव चोद्दसपुव्वहरम्हि चक्खु अचक्खुदंसणावरणाणमुक्कस्सखओवसमदंसणादो । ओहिणाण ओहिदंसणावरणागं जहण्णवड्ढि - हाणि - अवट्ठाणाणि कस्स ? परमोहिणाणिस्स जहण्णवड्ढीए वड्ढियस्स वड्ढी, तेणेव हाइदस्स हाणी, एगदरत्थमवद्वाणं । मणपज्जवणाणावरणस्स जहण्ण-वड्ढि - हाणि अवद्वाणाणि कस्स ? विउलमइस्स । केवलणाण - केवलदंसणावरणाणं जह० हाणी कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयछ्दुमत्थस्स । जह० वड्ढी कस्स? पढमसमय सकसायरस संजदस्स । अवट्ठाणं कस्स? उवसंतकसायस्स । णिद्दा - पयलाणं goras - हाणि - अवद्वाणाणि कस्स ? तप्पा ओग्गविसुद्धस्स अप्पमत्तसंजदस्स उदएण सव्वजहण्णाणंतभागवड्ढीए वड्ढिदस्स जहण्णिया वड्ढी । तं चैव हाइदूण उदीरिदे जहणिया हाणी । एगदरत्थमवद्वाणं । णिद्दाणिद्दा -- पयलापयला - थी गिद्धीणं २४४ ) 1 मतिज्ञानावरणकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो चौदह पूर्वोका धारक उदयकी अपेक्षा अनन्तभाग वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त है उसके मतिज्ञानावरणकी जघन्य वृद्धि होती है । वही जब जघन्य वृद्धि मात्र ही हानिको प्राप्त होकर उदीरणा करता है तब उसके उसकी जघन्य हानि होती है । दोनोंमें से एकतर में उसका जघन्य अवस्थान होता हैं । श्रुतज्ञानावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरणकी प्ररूपणा भी मतिज्ञानावरण ही समान है, क्योंकि, चौदह पूर्वोके धारक प्राणीके चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट क्षयोपशम देखा जाता है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान किसके होता है ? जघन्य वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुए परमावधिज्ञानीके उनकी वृद्धि, जघन्य हानिसे हानिको प्राप्त हुए उसके ही उनकी हानि, तथा दोनोंमें से किसी एकमें अवस्थान होता है । मन:पर्ययज्ञानावरणकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान किसके होता है ? वे विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानीके होते हैं । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ होनेमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है उसके उन दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य हानि होती है । उनकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? वह प्रथम समयवर्ती सकषाय संयतके होती है । उनका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? उपशान्तकषायके उनका जघन्य अवस्थान होता है । निद्रा और प्रचलाकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान किसके होते हैं ? जो उदयकी अपेक्षा सर्वजघन्य अनन्तभागवृद्धिके द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त अप्रमत्तसंयत के उनकी जघन्य वृद्धि होती है । उतनी ही हानिको प्राप्त होकर उदीरणा करनेपर उसके उनकी जघन्य हानि होती है । दोनों में से किसी एकमें उनका जघन्य अवस्थान होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला अ-काप्रत्योः ' सव्वजहण्णाणंत मागवड्ढीए', ताप्रती 'सव्वजहण्णाणं तब्भागवड्ढिीए' इति पाठः । ताप्रतौ ' एगदरत्थमवाणं' इति पाठः । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २४५ णिद्दाभंगो । णवरि पमत्तसंजदो सामी । सादासादाणं जहण्णवड्ढि-हाणी-अवट्ठाणाणि कस्स? अण्णदरस्स। मिच्छत्तस्स जहण्णिया हाणी कस्स? चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स से काले संजमं पडिवज्जंतस्स । वड्ढि-अवट्ठाणाणि कस्स? अधापवत्तमिच्छाइहिस्स* तप्पाओग्गविसुद्धस्स उदयादो अणंतभाएण वड्ढियस्स जह० वड्ढी । तस्सेव से काले जहण्णमवट्ठाणं । अणंताणुबंधिचउक्कस्स मिच्छत्तभंगो । सम्मत्तस्स जहणिया हाणी कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । वड्ढि-अवढाणाणि कस्स ? अधापमत्तसम्माइट्ठिस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स उदयादो अणंतभागेण वड्ढियस्स तस्स जहणिया वड्ढी अवट्ठाणं च । सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया वड्ढी कस्स ? जो अधापमत्तसम्मामिच्छाइट्ठी तप्पाओग्गविसुद्धो अणंतभाएण उदयादो वढिदो तस्स जहणिया वड्ढी । तस्सेव से काले जहण्णमवट्ठाणं । सम्मामिच्छत्तस्स जह० हाणी कस्स? से काले सम्मत्तं पविडज्जंतस्स । अपच्चक्खाणकसायाणं जहणिया हाणी कस्स? सम्माइद्विस्स असंजदस्स से और स्त्यानगृद्धिकी प्ररूपणा निद्रा दर्शनावरणके समान है । विशेष इतना है कि उनका स्वामी प्रमत्तसंयत होता है। साता व असाता वेदनीयकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान किसके होते है ? वे किसीके भी होते हैं। मिथ्यात्वकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त होनेवाला है ऐसे अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वकी जघन्य हानि होती है। उसकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान किसके होते हैं ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध व उदयकी अपेक्षा अनन्तभागवृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त ऐसे अधःप्रवृत्त मिथ्यादृष्टिके उसकी जघन्य वृद्धि होती है। उसी के अनन्तर कालमें उसका जघन्य अवस्थान होता है। अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके दर्शनमोहनीयके अक्षीण रहने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रहा है उसके सम्यक्त्व प्रकृ जघन्य हानि होती है। उसकी जघन्य वृद्धि व अवस्थान किसके होते हैं ? जो अधःप्रवृत्त सम्यग्दृष्टि तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे संयुक्त है व उदयकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है उसके उसकी जघन्य वृद्धि व अवस्थान होता है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अधःप्रवृत्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे संयुक्त व उदयकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे वृद्धिंगत है उसके उसकी जघन्य वृद्धि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उसका जघन्य अवस्थान होता है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि किसके होती है ? अनन्तर कालमें जो सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला है उसके उसकी जघन्य हानि होती है। अप्रत्याख्यानावरण कषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो अविरत सम्यग्दृष्टि - * ताप्रती ' अधापम व ) तमिच्छाइदुिस्स' इति पाठः । ४ ताप्रती 'सम्मत्ते' इति पाठः । * अतोऽग्रे अ-काप्रत्योः पच्चक्खाणावरणकसायाणं जहणियाहाणी कस्स' इत्येतावत्पर्यन्त: पाठस्त्रटितोऽस्ति। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ) छक्खंडागमे संतकम्म काले संजमं पडिवजंतस्स । वढि-अवट्ठाणाणि कस्स ? अधापवत्तअसंजदसम्माइट्ठिस्स । पच्चक्खाणावरणकसायाणं जहणिया हाणी कस्स ? संजदासंजदस्स से काले संजमं पडिवज्जंतस्स। वड्ढि-अवटाणाणि कस्स ? अधापवत्तसंजदासंजदस्स। चदुण्णं संजलणाणं जहणिया हाणी कस्स ? कोह-माण-मायाणं खवओ चरिमसमयवेदओ सामी । लोभस्स पुण समयाहियावलियचरिमसमयसकसायस्स खवयस्स जहणिया हाणी । लोभस्स जहणिया वड्ढी कस्स? परिवदमाणस्स दुसमयसुहुमसांपराइयस्स । मायाए जह० वड्ढी कस्स ? परिवदमाणस्स दुसमयमायावेदस्स । माणस्स जह० वड्ढी कस्स ? परिवदमाणस्स दुसमयमाणवेदयस्स । कोधस्स जह० वड्ढी कस्स? परिवदमाणस्स दुसमयकोधवेदयस्स* । चदुण्णं पि संजलणाणं जहण्णभवट्ठाणं कस्स ? अधापवत्तसंजदस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स अणंतभाएण वड्ढिदूण हाइदूण वा अवट्ठियस्स । तिण्णं पि वेदाणं जह० हाणी कस्स ? खवयस्स समयाहियावलियचरिमसमयवेदयस्स अप्पिदवेदोदयजुत्तस्स जह० हाणी । जह० वड्ढी कस्स ? अप्पिदवेदोदएण अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त होनेवाला है उसके उनकी जघन्य हानि होती है। उनकी जघन्य वद्धि व अवस्थान किसके होता है ? अधःप्रवत्त असंयत सम्यग्दष्टिके उनकी जघन्य वद्धि और अवस्थान होता है। प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है? अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त करनेवाले संयतासंयत जीवके उनकी जघन्य हानि होती है। उनकी जघन्य वद्धि और अवस्थान किसके होते हैं? वे अधःप्रवत्त संयतासंयतके होते हैं। चार संज्वलन कषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? उसका स्वामी संज्वलन क्रोध, मान और मायाके क्षपणमें उद्यत उनका अन्तिम समयवर्ती वेदक जीव होता है। परन्तु संज्वलन लोभकी जघन्य हानि, जिस क्षपकके अन्तिम समयवर्ती सकषाय होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है, उसके होती है। संज्वलन लोभकी जघन्य वद्धि किसके होती है ? उपशमश्रेणिसे गिरते हुए द्वितीय समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके उसकी जघन्य वृद्धि होती है। संज्वलन मायाकी जघन्य वृद्धि किसके होती है। वह उपशमश्रेणिसे गिरते हुए द्वितीय समयवर्ती मायावेदकके होती है। संज्वलन मानकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? वह उपशमश्रेणिसे गिरते हुए द्वितीय समयवर्ती मानवेदकके होती है। संज्वलन क्रोधकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? वह उपशमश्रेणिसे गिरते हुए द्वितीय समयवर्ती क्रोधवेदकके होती है। चारों ही संज्वलन कषायोंका जघन्य अवस्थान किसके होता है? वह अनन्तवें भागसे वृद्धि अथवा हानिको प्राप्त होकर अवस्थित हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध अधःप्रवृत्तसंयतके होता है। तीनों ही वेदोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? विवक्षित वेदके उदयसे संयुक्त क्षपकके उसके अन्तिम समयवर्ती वेदक होने में एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर उनकी जघन्य हानि होती है। उनकी जघन्य वृद्धि किसके होती है। विवक्षित वेदके उदयके साथ श्रेणिसे ४ अ-काप्रत्यो: ' सव्वटुअबढागाणि ' इति पाठः। * अप्रतौ ' कोधवेदएण' इति पाठः । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभाग उदीरणा ( २४७ परिवदमाणस्स दुसमयवेदयस्स । तिण्णं वेदाणं जहण्णमवद्वागं कस्स ? अधापवत्तसंजदस्स । छण्णोकसायाणं जह० हाणी कस्स? चरिमसमयअपुव्वखवयस्स । वड्ढी ओदरमाण विदियसमयअपुव्वस्स । अवद्वाणं सत्थाणसंजदस्स । चदुण्णमाउआणं जहण्णवड्ढि - हाणि अवद्वाणाणि कस्स ? अप्पप्पणो जहण्णियाए णिव्वत्तीए उववण्णाणं जहण्णिया वड्ढी हाणी अवद्वाणं च । णिरयगइणामाए जह० वड्ढी कस्स ? अण्णदरस्स अण्णदरिस्से पुढवीए जहण्णवड्ढीए वड्ढियस्स । हाइदस्स हाणी । एगदरत्थ अवद्वाणं । तिरिक्खगइ - मणुस गइ - देवगइपंचजादीणं च णिरयगइभंगो । ओरालियसरीरणामाए जहणिया वड्ढी कस्स ? सुहुमेइंदियस्स जहण्णियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए उववण्णस्स दुसमयआहारयस्स दुसमयतब्भवत्थस्स जह० वड्ढी । जह० हाणी वा कस्स ? तस्स चेव खुद्दाभवग्गहणं जीविण मदस्स सुहुमेसुववण्णस्स पढमसमयआहारयस्स जह० हाणी । जहण्णमवद्वाणं कस्स ? जहण्णियाए वड्ढीए हाणीए वा aण हाइण अवट्ठियस्स सुहुमेइंदियस्स पज्जत्तस्स । ओरालियसरीरबंधणओरालियस रीरसंघाद- हुंडसंठाण-उवघादाणं ओरालिसरीरभंगो । गिरते हुए उनके द्वितीय समयवर्ती वेदकके उनकी जघन्य हानि होती है। तीन वेदोंका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? वह अधःप्रवृत्त संयतके होता है। छह नोकषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? उनकी जघन्य हानि अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरण क्षपकके होती है । और उनकी जघन्य वृद्धि श्रेणिसे उतरते हुए द्वितीय समयवर्ती अपूर्वकरणके होती है। उनका जघन्य अवस्थान स्वस्थान संयतके होता है । चार आयु कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होते है ? अपनी अपनी जघन्य निर्वृत्तिसे उत्पन्न जीवोंके उनकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान होते हैं । नरकगति नामकर्मकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? वह अन्यतर पृथिवीमें जघन्य वृद्धि वृद्धिको प्राप्त अन्यतर नारक जीवके होती है । उसीके हानिको प्राप्त होनेपर उसकी जघन्य हानि और दोनोंमेंसे किसी एक में जघन्य अवस्थान होता है । तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति और पांच जाति नामकर्मोंकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है । औदारिकशरीर नामकर्मकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न होकर द्वितीय समयवर्ती आहारक और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके उसकी जघन्य वृद्धि होती है । उसके जघन्य हानि किसके होती है ? क्षुद्रभवग्रहण मात्र जीवित रहकर मृत्युको प्राप्त हो सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए उपर्युक्त जीवके ही प्रथम समयवर्ती आहारक होनेपर उसकी जघन्य हानि होती हैं । उसका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? जघन्य वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त होकर अथवा जघन्य हानि द्वारा हानिको प्राप्त होकर अवस्थानको प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तके उसका जघन्य अवस्थान होता है । औदारिकशरीरबन्धन, औदारिकशरीरसंघात, हुण्डकसंस्थान और उपघात नामकर्मोंकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान है । औदारिकशरीरांगोपांग और असंप्राप्तासृपाटिकासंहननकी जघन्य ताप्रती 'अण्णदरस्स ' इत्येतत्पदं नास्ति । * अ-काप्रत्यो: 'हाणीए ' इति पाठ: । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ) छक्खंडागमे संतकम्म ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणाणं जह० वड्ढी कस्स? दुसमयबेइंदियस्स । णवरि संघडणस्स बारसवासाउदुसमयबेइंदियो सामी। ओरालियसरीरअंगोवंगस्स जहणियाए अपज्जत्तणिवत्तीए उववण्णो दुसमयबेइंदियो सामी। जहणिया हाणी कस्स? जो एसु चेव खुद्दाभवग्गहणं जीविदूण मदो एदासुर चेव द्विदीसु उववण्णो पढमसमयआहारओ पढमसमयतब्भवत्थो तस्स जह० हागी। जहण्णमवट्ठाणं कस्स? बेइंदियस्स बहुसमयपज्जत्तयस्स । वेउव्वियसरीरस्स जह० वड्ढी कस्स? बादरवाउजीवस्स बहुसमयउत्तरविउव्वियस्स। हाणि-अवट्ठाणाणि कस्स? तस्स चेव बादरवाउजीवस्स वेउव्वियसरीरेण दुसमयपज्जत्तयस्स । वेउव्वियसरीरअंगोवंगबंधण-संघादाणं वेउव्वियसरीरभंगो। आहारचउक्कस्स वेउन्वियचउक्कभंगो। पंचसंठाण-पंचसंघडणाणं जहणिया वड्ढी कस्स? जा जस्स जहणिया अणुभागउदीरणा तत्तो से काले सव्वजहणियाए वड्ढीए ड्ढिदस्स जह० वड्ढी । तेणेव हाइदस्स जहणिया हाणी । एगदरत्थ अवढाणं । चदुण्णमाणुपुवीणं जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि कस्स? अण्णदरस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि कुणंतस्स । तेजा-कम्मइयसरीर-पसत्थवृद्धि किसके हीती है ? वह द्वितीय समयवर्ती द्वीन्द्रिय जीवके होती है। विशेष इतना है कि उक्त संहननकी जघन्य वृद्धिका स्वामी बारह वर्ष प्रमाण आयु वाला द्वितीय समयवर्ती द्वीन्द्रिय होता है। औदाकिरशरीरांगोपांगकी जघन्य वृद्धिका स्वामी जघन्य अपर्याप्त निर्वत्तिसे उत्पन्न द्वितीय समयवर्ती द्वीन्द्रिय होता है। उसकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो इनमें ही क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण जीवित रहकर मृत्युको प्राप्त हो इन्हीं स्थितियोंमें उत्पन्न हुआ है उस प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थके उसकी जघन्य हानि होती है। उसका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? बहुसमयवर्ती पर्याप्त द्वीन्द्रियके उसका जघन्य अवस्थान होता है। वैक्रियिकशरीरकी जघन्य वृद्धि किसके होती है? वह बहुत समय उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाले बादर वायुकायिक जीवके होती है । उसकी जघन्य हानि व अवस्थान किसके होता है? वे वैक्रियिकशरीरके द्वारा द्वितीय समयवर्ती पर्याप्त हुए उसी बादर वायुकायिक जीवके होते हैं। वैक्रियिकशरीरअंगोपांगबन्धन और संघातकी प्ररूपणा वैक्रियिकशरीरके समान है। आहारकचतुष्ककी प्ररूपणा वैक्रियिकचतुष्कके समान है। पांच संस्थानों और पांच संहननोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो जिसकी जघन्य अनुभागउदीरणा है उसके अनन्तर कालमें सर्वजघन्य वृद्धिके द्वारा वृद्धि गत जीवके उनकी जघन्य वृद्धि होती है। उसीसे हानिको प्राप्त हुए जीवके उनकी जघन्य हानि होती है । दोनोंमेंसे किसी एकमें उनका जघन्य अवस्थान होता है। चार आनुपूर्वियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान किसके होता है ? विग्रहगतिमें वर्तमान होकर जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थानको करनेवाले अन्यतरके उनकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान होता है। तैजस व कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, व रस, स्निग्ध, उष्ण * अ-काप्रत्यो:'-सरीरस्ससघडणाणं', ताप्रतौ (मरीरस्स ) संघडणाण' इति पाठः। 9 अ-काप्रत्योः 'वेइंदियाणि',ताप्रती 'वेइंदियाणि (वेइंदियो)' इति पाठः। ४ अप्रतो 'एदोस्' का-ताप्रत्योः 'एदेसु' इति पाठः। 4 अप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २४९ वण्ण-गंध-रस-णिद्ध-उण्ह-अगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-णिमिणणामाणं जहण्णवड्ढि-हाणिअवट्ठाणाणि कस्स? उक्कस्ससंकिलिटुस्स। अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-सीद-ल्हुक्ख-अथिरअसुहणामाणं जहणिया हाणी कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । जहणिया वड्ढी कस्स ? पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स परिवदमाणयस्स । अवट्ठागं कस्स ? दुसमयउवसंतकसायस्स। कक्खड-गरुआणं जह० हाणी कस्स ? णियत्तमाणमंथे वट्टमाणयस्स। वड्ढि-अवट्ठाणाणि कस्स ? सण्णिस्स दुसमयतब्भवत्थस्स। एवं मउअ-लहुआणं । णवरि हाणी सण्णिस्स आहारयस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स। उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-थावर-बादर-सुहम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेयसाहारण-जसगित्ति-अजसगित्ति-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-उच्चणीचागोदाणं जह० वड्ढी हाणी अवट्ठाणं वा कस्स? अण्णदरस्स अप्पिदपयडिवेदयस्स। आदाव-उज्जोवाणं विहायगइभंगो। तित्थयरस्स जहण्णवड्ढि-अवट्ठाणाणि कस्स ? सजोगिकेवलिस्स । पंचण्णमंतराइयाणं केवलणाणावरणभंगो। एत्तो अप्पाबहुअं । तं जहा- मदिआवरणस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्ढी । अगुरुलघु, स्थिर, शुभ और निर्माण नामप्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान किसके होता है ? उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि आदि उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त जीवके होती हैं। अप्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस, शीत, रूक्ष, अस्थिर और अशुभ नामप्रकृतियोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगीके होती है। उनकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? वह श्रेणिसे गिरते हुए प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके होती है। उनका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? द्वितीय समयवर्ती उपशान्तकषायके उनका जघन्य अवस्थान होता है। कर्कश और गुरुकी जघन्य हानि किसके होती है ? वह निवर्तमान अवस्थामें मन्थ (प्रतर ) समुद्घातमें वर्तमान केवलीके होती है। उनकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान किसके होती है ? द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ संज्ञी जीवके उनकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान होता है। इसी प्रकारसे मृदु और लघु स्पर्श नामकर्मोकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि उनकी हानि तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त संज्ञी आहारकके होती है। उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपप्ति, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान किसके होता है ? विवक्षित प्रकृतिके वेदक अन्यतर जीवके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि आदि होती हैं। आतप और उद्योतकी प्ररूपणा विहायोगतिके समान है। तीर्थकर प्रकृतिकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान किसके होता है ? वे सयोगकेवली होते हैं। पांच अन्तराय कर्मोंकी प्ररूपणा केवलज्ञानावरणके समान है । अब यहां अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणकी 8 मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु ' मज्झे' इति पाठः ।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ) छक्खंडागमे संतकम्म हाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । सुद-मणपज्जव-केवलणाणावरणकेवलदसणावरण-चक्खुदंसणावरण-णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-णिद्दा-पयलासादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसायाणं णवणोकसाय-णिरय-तिरिक्ख-मणुस-देवाउणिरयगइ-तिरिक्ख-मणुस-देवगइ-पंचजादि-ओरालिय--वेउव्विय--आहारसरीर ओरालिय-वेउव्विय-आहार-सरीरअंगोवंग-तिण्णिबंधण-संघाद-छसंठाण--छसंघडणचत्तारिआणुपुवी-उवघाद-परघाद-आदावुज्जोव-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तसथावर-बादर-सुहम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय?-साहारणसरीर-अथिर-असुह-अजसगित्तिदुभग-सुस्सर-दुस्सर--अणादेज्ज-णीचागोदाणं उक्कस्सपदणिक्खेवप्पाबहुअस्स मदिणाणावरणभंगो । ओहिणाणावरण-ओहिदसणावरणाणं उक्क० वड्ढी थोवा । अवट्ठाणं विसेसाहियं । हाणी विसेसाहिया। अचक्खुदंसणावरणस्स सव्वत्थोवमुक्कस्समवट्ठाणं *। हाणी अणंतगुणा । वड्ढी अणंतगुणा । पंचण्णमंतराइयागं अचक्खुदंसणावरणभंगो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्सहाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि थोवाणि । उक्क० वड्ढी अणंतगुणा । तेजा-कम्मइयसरीर-पसत्थवग्ण-गंध-रस-णिधुण्हअगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-जसगित्ति-सुभग-आदेज्ज-उच्चगोदाणं उक्कस्सिया हाणी थोवा । अवट्ठाणमणंतगुणं । उक्क० वड्ढी अणंतगुणा । अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-सीदउत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उसकी हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्यज्ञायनावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, चक्षुदर्शनावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पांच जातियां, औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीर औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीरांगोपांग; तीन बन्धन और संघात, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वियां, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस स्थावर, बादर, सूक्ष्म. पर्याप्त व अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, अयशकीर्ति, दुर्भग सुस्वर, दुस्वर अनादेय और नीचगोत्र; इनके उत्कृष्ट-पद-निक्षेपविषयक अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। अवस्थान उससे विशेष अधिक है । हानि विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है । हानि अनन्तगुणी है । वृद्धि अनन्तगुणी है। पांच अन्तरायोंकी प्ररूपणा अचक्षदर्शनावरणके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कष्ट हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । तैजस व कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस, स्निग्ध, उष्ण, अगरुलघ, स्थिर, शभ, यशकीर्ति सभग, आदेय और उच्चगोत्रकी उत्कष्ट हानि स्तोक है। उनका उत्कष्ट अवस्थान अनन्तगणा है। उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है। अप्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस, शीत, रूक्ष, कर्कश, गुरु, मृदु और लघु; इनके उक्त ० अप्रतौ 'देवाउ वि णिरयगइ' इति पाठः। * ताप्रती ‘दुस्सर-पुस्सर-' इति पाठः । 8 अ-काप्रत्योः 'पज्जत्तापत्तेय' इति पाठः । * अप्रतौ —-मुवाणं' इति पाठः । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २५१ ल्हुक्ख-कक्खड-गरुअ-मउअ-लहुआणं च मदिणाणावरणभंगो। अपज्जत्तणामाए उक्क० वड्ढी थोवा । हाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि।। जहण्णपदणिक्खेवे अप्पाबहुअं। तं जहा- आभिणि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणावरणीय-चक्खु-अचक्खु-ओहिदसणावरणीयाणं जह० वड्ढी जह० हाणी जहण्णमवट्ठाणं च तिणि वि तुल्लाणि, तेणेत्थ अप्पाबहुअं णत्थि । केवलणाण-केवलदंसणावरणाणं जहणिया हाणी थोवा। अवट्ठाणमणंतगुणं । वड्ढी अणंतगुणा। पंचदंसणावरण-सादासादाणं जहण्णवड्ढि-हाणि-अवढाणाणि तुल्लाणि, तेणेत्थ अप्पाबहुअंणत्थि । मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-कक्खड-मउअ-लहुआणं जहणिया हाणी थोवा। वढि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि। बारसकसायाणं मिच्छत्तभंगो। चदुसंजलणतिण्णिवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं जह० हाणी थोवा । वड्ढी अणंतगुणा। अवट्ठाणमणंतगुणं । चदुण्णमाउआणं चदुण्णं गदीणं पंचण्णं जादीणं सादभंगो। ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जह० वड्ढी थोवा। हाणी अणंतगुणा। अवट्ठाणमणंतगुणं । वेउवियआहारसरीर-वेउव्विय-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघा-- दाणं जह० वड्ढी थोवा। हाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि। छसंठाणछसंघडण-उवघाद-पत्तेय-साहारणसरीराणं ओरालियसरीरभंगो। तेजाकम्मइयसरीर पसत्थ-वण्ण-गंध-रस-फासआणुपुव्वीचउक्क-अगुरुवलहुअ-उस्सास-पसत्थापसत्थअल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अपर्याप्त नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। उसकी हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। जघन्य-पद-निक्षेपके विषयमें अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- आभिनिबोधिक ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरणकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं; इसीलिये उनमें अल्पबहुत्व सम्भव नहीं है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी जघन्य हानि स्तोक है। उनका जघन्य अवस्थान उससे अनन्तगुणा है । वृद्धि अनन्तगुणी है । पांच दर्शनावरण तथा साता व असाता वेदनीयकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं; इसलिये इनमें अल्पबहुत्व नहीं है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, कर्कश, मृदु और लघु; इन प्रकृतियोंकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे हैं। बारह कषायोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है। चार संज्वलन, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी जघन्य हानि स्तोक है । वृद्धि अनन्तगुणी है। अवस्थान अनन्तगुणा है। चार आयु कर्मों, चार गतियों और पांच जातियोंकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन व औदारिकसंघातकी जघन्य वृद्धि स्तोक है। हानि अनन्तगुणी है। अवस्थान अनन्तगुणा है । वैक्रियिक व आहारक शरीर, वैक्रियिक व आहारक शरीरांगोपांग तथा उनके बन्धन और संघातकी जघन्य वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे हैं। छह संस्थान, छह संहनन, उपघात, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीरकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, चार Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ) छक्खंडागमे संतकम्म विहायगइ-तस-थावर--बादर-सुहुम--पज्जत्तापज्जत्त-थिर-सुभ-सुभग-दूभग-सुस्सरदुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-णीचुच्चागोदाणं जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि तिणि वि तुल्लाणि । अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फासअथिर-असुहणामाणं जहणिया हाणी थोवा । अवट्ठाणमणंतगुणं । वड्ढी अणंतगुणा । पंचण्णमंतराइयाणं जह० वड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि सरिसाणि । एवं पदणिक्खेवो समत्तो। एत्तो वढिउदीरणा। तं जहा- मदिणाणावरणस्स अत्थि अणंतभागवड्ढिउदीरणा असंखेज्जभागवडिढउदीरणा संखेज्जभागवढिउदीरणा संखेज्जगुणवड्ढिउदीरणा असंखेज्जगुणवड्ढिउदीरणा अणंतगुणवड्ढिउदीरणा अणंतभागहाणिउदीरणा असंखेज्जभागहाणिउदीरणा संखेज्जभागहाणिउदीरणा संखेज्जगुणहाणिउदीरणा असंखेज्जगुणहाणिउदीरणा अणंतगुणहाणिउदीरणा अवट्टिदउदीरणा चेदि । एवं सव्वेसि कम्माणं तेरस पदाणि होति । अवत्तव्वउदीरणाए सह केसि चिo चोद्दस पदाणि । एवं समुक्कित्तणा समत्ता। एत्तो सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुए त्ति एदाणि अणुयोगद्दाराणि जहा अणुभागवड्ढिबंधे परूविदाणि तहा एत्थ परूवेयवाणि । पुणो अणुभागउदीरणट्ठाणपरूवणा जीवसमुदाहारो च परूवेयव्वो। एवमणुभागउदीरणा समत्ता। आनुपूर्वी नामकर्म, अगुरुलघु, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर' सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, शुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच और ऊंच गोत्र; इनकी जघन्य हानि, वृद्धि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं । अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, अस्थिर और अशुभ नामकर्मोकी जघन्य हानि स्तोक है । अवस्थान अनन्तगुणा है । वृद्धि अनन्तगुणी है। पांच अन्तराय कर्मोकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान सदृश हैं। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। इसके आगे वृद्धि-उदीरणाकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणको अनन्तभागवृद्धिउदीरणा, असंख्यातभागवृद्धिउदीरणा, संख्यातभागवृद्धिउदीरणा, संख्यातगुणवृद्धि उदीरणा, असंख्यातगुणवृद्धि उदीरणा अनन्तगुणवृद्धि उदीरणा, अनन्तभागहानिउदी रणा, असंख्यातभागहानि उदीरणा, संख्यातभागहानिउदीरणा, संख्यातगुणहानिउदीरणा, असंख्यातगुणहानिउदीरणा, अनन्तगुणहानिउदौरणा और अवस्थित उदीरणा भी होती है। इस प्रकार सब कर्मोके ये तेरह पद होते हैं। किन्ही कर्मोंके अवक्तव्य उदीरणाके साथ चौदह पद भी होते हैं। इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। यहां स्वामित्व, काल, अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय', काल, अन्तर और अल्पबहुत्व; इन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा जिस प्रकार अनुभागवृद्धिबन्धमें की गयी है उसी प्रकारसे यहां भी प्ररूपणा करना चाहिये । तत्पश्चात् अनुभागउदीरणास्थानप्ररूपणा और जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार अनुभागउदीरणा समाप्त हुई। . अप्रगै 'केसि पि' इति पारः । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा ( २५३ एत्तो पदेसउदीरणा दुविहा मूलपयडिपदेसउदीरणा उत्तरपयडिपदेसउदीरणा चेदि । मूलपयडिपदेसउदीरणं चउवीसअणुयोगद्दारेहि मग्गिदूण भुजगार-पदणिक्खेववड्ढीसु परूविदासु मूलपयडिपदेसउदीरणा समत्ता होदि । उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं । तं जहा- मदिआवरणस्स उक्कस्सपदेस. उदीरणा कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स । सुदावरण-केवलणाणकेवलदसणचक्खु-अचक्खुदंसणावरण-मणपज्जवणाणावरणाणं मदिणाणावरणभंगो । एवमोहिणाणओहिदसणावरणाणं पि उक्कस्सपदेसउदीरणा वत्तव्वा । णवरि विणा ओहिलंभेण, पमत्तापमत्तद्धासु ओहिणाणसहेज्जुक्कस्सविसोहीहि ओकड्डिय सुहुमीकयउदयगोवच्छत्तादो । णिहा-पयलाणमुक्कस्सिया पदेसउदीरणा कस्स ? उवसंतवीयरागस्स । णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-सादासादाणं उक्कस्सिया उदीरणा कस्स ? पमत्तसंजदस्स से काले अप्पमत्तगुणं पडिवज्जिहिदि त्ति ट्ठियस्स। मिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं उक्क० उदीरणा कस्स? चरिमसमयमिच्छाइद्विस्स से काले सम्मत्तं संजमं च पडिविज्जहिदि त्ति द्विदस्स । सम्मत्तस्स उक्क० उदीरणा कस्स? समयाहियावलियकदकरणिज्जस्स । सम्मामिच्छत्तस्स उक्क० उदी० कस्स? चरिम यहां प्रदेशउदीरणा दो प्रकारको है- मूलप्रकृतिप्रदेश उदीरणा और उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणा। इनमें मूलप्रकृतिप्रदेशउदीरणाको चौबीस अनुयोगद्वारोंके द्वारा खोजकर भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा कर चुकनेपर मूलप्रकृतिप्रदेशउदीरणा समाप्त हो जाती है । उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणामें स्वामित्वकी प्ररूपणा करते है। वह इस प्रकार है-- मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा किसके होती है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती छदमस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है उसके मतिज्ञानावरणकी उत्त उदीरणा होती है। श्रुतज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण सम्बन्धी उक्त उदीरणाकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी भी उकष्ट प्रदेशउदीरणाका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि उसका कथन अवधिलब्धिके बिना करना चाहियं, क्योंकि, प्रमत्त व अप्रमत्त कालोंमें अवधिज्ञानसे सहकृत उत्कृष्ट विशद्धियोंके द्वारा अपकर्षण करके उदयगोपूच्छाओंको सूक्ष्म किया गया है। निद्रा और प्रचलाकी उत्कष्ट प्रदेशउदीरणा किसके होती है ? वह उपशान्तकषाय वीतरागके होती है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि, सातावेदनीय व असातावेदनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा किसके होती है ? जो प्रमत्तसंयत अनन्तर कालमें अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होगा, इस अवस्थामें स्थित है; उसके उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा होती है। मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायोंकी उत्कृष्ट उदीरणा किसके होती है ? जो अनन्तर काल में सम्यक्त्व व संयमको प्राप्त होगा, इस स्थितियुक्त अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उनकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा होती है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा किसके होती है ? जिसके कृतकरणीय होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है उसके सम्यक्त्व प्रकृतिकी Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ) छक्खंडागमे संतकम्मं . . . . . समयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स से काले सम्मत्तं पडिवज्जिहिदि त्ति ट्ठियस्स । - अपच्चक्खाणचउक्कस्स उक्क० उदी० कस्स? चरिमसमयअसंजदसम्माइटिस्स से काले संजमं पडिवज्जिहिदि त्ति द्वियस्स। पच्चक्खाणचदुक्कस्स उक्क० उदी० कस्स? चरिमसमयसंजदासंजदस्स से काले संजमं पडिवज्जिहिदि त्ति ट्ठियस्स । संजलणकोहस्स उक्कस्सपदेसउदीरणाए को सामी ? खवओ चरिमसमयकोधवेदओ। माणस्स० चरिमसमयमाणवेदओ खवओ। मायाए० खवओ चरिमसमयमायावेदओ। लोभस्स० खवओ समयाहियावलियचरिमसमयसकसाओ। तिण्णं वेदाणं पदेसउदीरणाए, उक्कस्सियाए को सामी ? खवओ अप्पप्पणो वेदस्स समयाहियावलियचरिमसमयवेदगो। छण्णं णोकसायवेदणीयाणमुक्कस्सउदीरणाए" को सामी ? खवओ सव्वविसुद्धो चरिमसमयअपुव्वकरणो। णिरयाउअस्स उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? जो तेत्तीससागरोवमाउद्विदीओ रइओ उक्कस्सए असादोदए वट्टमाणओ। मणुस-तिरिक्खाउआणं उक्कस्सपदेउदीरओ उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा होती है। सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? जो अनन्तर कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त होगा, ऐसी स्थिति युक्त अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उसकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा होती है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा किसके होती है ? जो अनन्तर काल में संयमको प्राप्त होगा, ऐसी स्थितियुक्त अन्तिम समयवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टिके उक्त उदीरणा होती है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा किसके होती है ? जो अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त होगा, ऐसी स्थितियुक्त अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतके उक्त उदीरणा होती है। संज्वलनक्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका स्वामी कौन होता है ? उसका स्वामी अन्तिम समयवर्ती क्रोधका वेदक क्षपक होता है। संज्वलनमानकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका स्वामी अन्तिम समयवर्ती मानका वेदक क्षपक होता है। संज्वलनमायाकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका स्वामी अन्तिम समयवर्ती मायाका वेदक क्षपक होता है। संज्वलनलोभको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामी ऐसा क्षपक जीव होता है जिसके अन्तिम सममवर्ती सकषाय रहने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है। तीन वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका स्वामी कौन होता है ? उसका स्वामी ऐसा क्षपक जीव होता है जिसके अपने अपने वेदके अन्तिम समयवर्ती वेदक होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है। छह नोकषाय वेदनीयोंकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका स्वामी कौन होता है ? उसका स्वामी सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरण क्षपक होता है। नारकायका उत्कृष्ट प्रदेशउदीरक कौन होता है ? तेतीस सागरोपम प्रमाण आयस्थितिवाला जो नारकी जीव उत्कृष्ट असातोदयमें वर्तमान है वह उसका उत्कृष्ट प्रदेशउदीरक होता है। मनुष्यायु और तिर्यगायुका उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक कौन होता है ? आठ वर्ष प्रमाण आयुवाला अ-काप्रत्योः 'उदीरणा' इति पाठः । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा ( २५५ को होदि । जो अवस्सिओ अदुवस्सओ जादो उक्कस्सए* असादोदए वट्टमाणओ। देवाउअस्स उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? जो दसवस्ससहस्साउओ उक्कस्सएर असादोदए वट्टमाणो। णिरयगइणामाए उक्कस्सपदेसस्स उदीरगो को होदि ? रइओ सम्माइट्ठी सम्वविसुद्धो । तिरिक्खगइणामाए उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? संजदासजदो सम्वविसुद्धो। देवगइणामाए उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? देवसम्माइट्ठी सव्वविसुद्धो । मणुसगइ-पंचिदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-तप्पाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघाद-छसंठाण-पढमसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवधादपरघाद-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभसुभग-आदेज्ज-जसगित्ति-तित्थयर-णिमिणुच्चागोदाणं उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? चरिमसमयसजोगिकेवली। वेउब्विय-आहारसरीर-वेउव्विय-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघादाणमुक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? संजदो सव्वविसुद्धो। पंचण्णं संघडणाणमुक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि । संजदो तप्पाओग्गविसुद्धो। चदुण्णमाणुपुव्वीणमुक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? तप्पाओग्गविसुद्धो सम्माइट्ठी। जो जीव आठ वर्षका होकर उत्कृष्ट असातोदयमें वर्तमान है वह उनका उत्कृष्ट प्रदेशउदीरक होता है। देवायुका उत्कृष्ट प्रदेशउदीरक कौन होता है ? दस हजार वर्ष प्रमाण आयुवाला जो देव उत्कृष्ट असातोदयमें वर्तमान है वह देवायुका उत्कृष्ट प्रतेशउदीरक होता है । नरकगति नामकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक सर्वविशुद्ध नारक सम्यग्दृष्टि होता है। तिर्यग्गति नामकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक सर्वविशुद्ध संयतासंमत ( तिर्यंच ) होता है। देवगति नामकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक सर्वविशुद्ध देव सम्यग्दृष्टि होता है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर तथा तत्प्रायोग्य अंगो. पांग, बन्धन व संघात, छह संस्थान, प्रथम संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थंकर, निर्माण और उच्चगोत्र; इनके उत्कृष्ट प्रदेशका उदी रक कौन होता है ? उनके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक चरम समयवर्ती संयोगकेवली होता है। वैक्रियिक व आहारक शरीर तथा उनके योग्य अंगोपांग, बन्धन व संघातके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उनके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक सर्वविशुद्ध संयत जीव होता है। पांच संहननोंके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वह तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त संयत होता है। चार आनुपूर्वियोंके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वह तत्प्रायोग्य प्रतिषु 'अट्ठवस्स' इति पाठः। * भ-काप्रत्योः ' असादोदएण', ताप्रतौ ' असादोएण (ण)' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः ' उक्कस्स' इति पाठः। 6 अप्रती ' उदीरणा' इति पाठः । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ) छक्खंडागमे संतकम्म आदावणामाए उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? पुढवीजीवो सव्वविसुद्धो। उज्जोवणामाए उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? वेउन्वियउत्तरसरीरो संजदो सव्वविसुद्धो। उस्सासणामाए उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? चरिमसमयउस्सासगिरोहकारओ* सजोगी। अजसगित्ति-दुभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? सव्वविसुद्धो असंजदसम्मामिच्छाइट्ठी से काले संजमं पडिवज्जिहिदि त्ति । बेइंदिय-तीइंदिय-चरिदियजादिणामाणमुक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? जहाकमेण बेइंदिय-तीइंदिय-चरिदियसव्वविसुद्धो। एइंदिय-थावर-साहारणसरीराणमुक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि? बादरेइंदियसव्वविसुद्धो। सुहुमणामाए उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? सुहुमेइंदिय-सव्वविसुद्धो * । अपज्जत्तणामाए उक्कस्सपदेसउदीरओ को होदि ? मणुस्सो उक्कस्सियाए अपज्जत्तणिवत्तीए उववण्णो चरिमसमयतब्भवत्थो सव्वविसुद्धो। पंचण्णमंतयाइराणमुक्कस्सपदेस० को होदि? समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थो। सुस्सर-दुस्सरणामाणं उक्कस्सपदेस० को होदि ? वचिजोगस्स चरिमसमयणिरोह विशुद्धिको प्राप्त सम्यग्दृष्टि होता है। आतप नामकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वह सर्वविशुद्ध पृथिवीकायिक जीव होता है । उद्योत नामकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? जिसने उत्तर शरीरकी विक्रिया की है ऐसा सर्वविशुद्धसंयत जीव उद्योतके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक होता है। उच्छ्वास नामकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उच्छ्वासनिरोधके अन्तिम समयमें वर्तमान सयोगकेवली उसके उत्कृष्ट प्रदेशके उदीरक होते हैं। अयशकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक सर्वविशुद्ध असंयत सम्यग्दृष्टि होता है जो कि अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त होगा। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उनके उत्कृष्ट प्रदेशके उदीरक यथाक्रमसे सर्वविशुद्ध द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव होते हैं। एकेन्द्रिय, स्थावर और साधारणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वह सर्वविशुद्ध बादर एकेन्द्रिय जीव होता है । सूक्ष्म नामकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है? वह सर्वविशुद्ध सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव होता है। अपर्याप्त नामकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? जो उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न होकर तद्भवस्थ रहने के अन्तिम समयमें वर्तमान है ऐसा सर्वविशुद्ध मनुष्य अपर्याप्तके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक होता है। पांच अन्तराय कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? जिसके चरम समयवर्ती छद्मस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है ऐसा जीव उनके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक होता है । सुस्वर व दुस्वर नामकर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वचनयोगनिरोधके अन्तिम समयमें वर्तमान सयोगकेवली उन दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशके उदीरक ४ अ-काप्रत्योः 'उक्कस्सासमाणाए' इनि पाठः । * अ-काप्रत्योः 'णिरोहोकारओ' . इति पाठः । * ताप्रती 'इंदिओ सव्वविसुद्धो' इति पाठः । For Private & Personal use only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ areमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा कारओ सजोगिकेवली । एवमुक्कस्सं सामित्तं समत्तं । एतो जहण्णयं सामित्तं । तं जहा - मदि- सुद-मणपज्जव - केवलणाणावरणचक्खु - अचक्खु - केवल दंसणावरणाणं जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? उक्कस्ससंकिलिट्ठो । ओहिणाणावरण - ओहिदंसणावरणाणं जहण्णपदेसुदीरओ को होदि ? पंचिदियो उक्कस्ससंकिलिट्ठो जस्स ओहिलंभो अत्थि सो जहण्णपदेसउदीरओ । दंसणावरणपंचयस्स जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? सणिपंचिदिओ पज्जत्तो तप्पा ओग्गसंकिलिट्ठो । सादासाद- मिच्छत्त- सोलसकसाय णवणोकसायाणं जहण्णपदेस उदीरओ को होदि ? उक्कस्ससंकिलिट्ठो । सम्मत्तस्स जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? वेदगसम्माइट्ठी असंजदो से काले मिच्छत्तं पडिवज्जंतओ । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णपदेस० को होदि ? सम्मामिच्छाइट्ठी से काले मिच्छत्तं पडिवज्जंतओ । णिरयाउअस्स जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? दसवस्ससहस्साउओ उक्कस्सए सादोदए वट्टमाणओ णेरइयो । तिरिक्खमगुस्सा आणं जहणपदेसउदीरओ को होदि ? जहाकमेण मणुस्स - तिरिक्खा तिपलिदो होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ । यहां जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरण, श्रुत ज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उनके जघन्य प्रदेशका उदीरक उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ जीव होता है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? जिसके अवधिलब्धि है ऐसा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ जीव उन दो प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वह तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव होता है । ( २५७ सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है । उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ जीव इनके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । सम्यक्त्व के जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? अनन्तर कालमे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाला वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत जीव सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदोरक अनन्तर कालमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाला सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होता है । नारकायुके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक दस हजार वर्षकी आयुवाला व उत्कृष्ट सातोदय में वर्तमान नारक जीव होता है । तिर्यगायु व मनुष्यायुके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? तीन पल्योपम प्रमाण आयुस्थितिवाले एवं उत्कृष्ट सातोदय में ताप्रती मणुस्स 'अ-काप्रत्यो: ' उदीरणा ' इति पाठः । अप्रतो' उदीरणा' इति पार: । ( सो ) तिरिक्ख (क्खो ' इति पाठ: । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ) छक्खंडागमे संतकम्म वमाउट्रिदीया उक्कस्सए सादोदए वट्टमाणा* । देवाउअस्स जहण्णपदेसउदीरओ को होदि? देवो तेत्तीससागरोवमाउओ उक्कस्सए सादोदए वट्ठमाणओ। चत्तारिगदि-पंचजादि-चत्तारिसरीर-तप्पाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघाद-वण्ण-गंधरस-फास-अगुरुअलहुअ-उवधाद-परघाद--उज्जोव0--उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइतस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्जअणादेज्ज-जसगित्ति-अजसगित्ति-णिमिण-णीचच्चागोद-पंचंतराइयाणं जहण्णपदेसउदीरओ को होदि? सण्णिपंचिदिओ पज्जत्तओ उक्कस्ससंकिलिटुओ। णवरि गदिजादीणं अप्पप्पणो जादिवेदओ सव्वसंकिलिट्ठो । छसंट्ठाण-छसंघडणाणं जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? अप्पिद--अप्पिदसंठाण+--संघडणाणं वेदओ उक्कस्ससंकिलिट्ठो। आहारसरीर-तप्पाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? पमत्तसंजदो उट्टाविदआहारसरीरो तप्पाओग्गसंकिलिट्ठो। चदुण्णमाणुपुव्वीणं जहण्णपदेसउदीरओ को होदि? तप्पाओग्गसंकिलिट्ठो विग्गहगदीए वट्टमाणओ। आदावणामाए जहण्णपदेसउदीरओ को होदि? पुढवीजीवो पज्जत्तो सव्वसंकिलिट्ठो। थावरवर्तमान मनुष्य व तिर्यंच यथाक्रमसे उन दो आयकर्मोंके जघन्य प्रदेशके उदीरक होते हैं । देवायुके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता? उसका उदीरक तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला व उत्कृष्ट सातोदयमें वर्तमान ऐसा देव होता है। __चार गतिनामकर्म, पांच जातिनामकर्म, चार शरीर और तत्प्रायोग्य आंगोपांग, बन्धन एवं संघात नामकर्म, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, अस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच गोत्र, ऊंच गोत्र और पांच अन्तराय; इनके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । विशेषत: इतनी है कि गति व जाति नामकर्मोंके अपनी अपनी जातिका वेदक सर्वसंक्लिष्ट जीव उनके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है। छह संस्थानों और छह संहननोंके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? विवक्षित विवक्षित संस्थान व संहननका वेदक प्राणी उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता हुआ उनके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । आहारकशरीर और तत्प्रायोग्य आंगोपांग, बन्धन व संघातके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाला तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त हुआ प्रमत्तसंयत जीव होता है । चार आनुपूर्वी नामकर्मोके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त हुआ विग्रहगतिमें वर्तमान जीव होता है । आतप नामकर्मके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? सर्वसंक्लिष्ट पृथिवीकायिक पर्याप्त O अ-काप्रत्णे: '-ट्रिदीयादिउक्कस्सए', ताप्रतौ '-द्विदीयादि (यो) उक्कस्सए' इति पाटः । * ताप्रतौ वट्टमाणओ' इति पाठः। ताप्रती 'उवधाद-उज्जोव ' इति पाठः। ताप्रतौ 'अप्पिदअणप्पिदसंठाण-' इति पाठः । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कमाणुयोगद्दारे पदेस उदीरणा ( २५९ साहारणणामाणं जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? बादरेइंदिओ सव्वसंकिलिट्ठो । सुहुमणामाए जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? सुहुमेइंदिओ सव्वसंकिलिट्ठो । अपज्जत्तणामाए जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? मणुस्सो उक्कस्सियाए अपज्जत्तणिव्वतीए उववण्णो चरिमसमयतब्भवत्थो उक्कस्ससंकिलिट्ठो । तित्थयरस्स जहण्णपदेसउदीरओ को होदि ? पढमसमयकेवलिमादि काढूण जाव आवज्जिदकरणस्स अकात्ति । एवं जहण्णसामित्तं समत्तं । एगजीवेण कालो अंतरं च सामित्तादो रओ साहेदूण भाणियव्वं । णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो उक्कस्सपदभंगविचओ जहण्णपदभंगविचओ चेदि । एदेसि दोण्णं पि भंगविचयाणं अट्ठपदं सामित्तादो साहेदूण भाणियव्वं । गाणाजीवेहि कालो अंतरं च सामित्तादो साहेदूण भाणिदव्वं । एतो साणिसयासो दुविहो सत्थाणसण्णियासो परत्थाणसण्णियासो चेदि । तत्थ सत्थासणास । तं जहा --मदिआवरणस्स उवकस्सपदेसमुदीरेंतो सुद-मणपज्जवकेवलणाणावरणाणं णियमा उक्कस्सपदेसमुदीरेदि । ओहिणाणावरणस्स सिया उक्कस्सं सिया अणुक्कस्सं उदीरेदि । जदि अणुक्कस्सं णियमा असंखेज्जगुणहीणं । एवं सेस जीव आपके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । स्थावर और साधारण नामकर्मोंके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वह सर्वसंक्लेशको प्राप्त हुआ बादर एकेन्द्रिय जीव होता है । सूक्ष्म नामकर्मके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? वह सर्वसंक्लेशको प्राप्त हुआ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव होता है। अपर्याप्त नामकर्मके जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? जो उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न होकर तद्भवस्थ रहनेके अन्तिम समयमे वर्तमात है ऐसा उत्कृष्ट क्लेशको प्राप्त हुआ मनुष्य अपर्याप्तके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । तीर्थंकर प्रकृति जघन्य प्रदेशका उदीरक कौन होता है ? प्रथम समयवर्ती केवलीको आदि करके जब तक वह आवर्जित करणको नहीं करता है तब तक तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य प्रदेशका उदीरक होता है । इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ । एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तरकी प्ररूपणा स्वामित्व से सिद्ध करके कहलाना चाहिये या पढवाना चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकार है- उत्कृष्ट-पद-भंगविचय और जघन्य-पदभंगविचय । इन दोनों ही भंगविचयोंके अर्थपदका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अन्तरका भी कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके ( शिष्योंसे कहलाना चाहिये | यहां संनिकर्ष दो प्रकार है- स्वस्थान संनिकर्ष और परस्थान संनिकर्ष । इनमें स्यस्थान संनिकर्ष प्ररूपणा करते हैं । यथा -- मतिज्ञानावरणके उत्कृष्ट प्रदेशकी उदीरणा करनेवाला नियमसे श्रुतज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणके उत्कृष्ट प्रदेशकी उदीरणा करता है । वह अवधिज्ञानावरणके कदाचित् उत्कृष्ट और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेशकी उदीरणा करता है। यदि वह उसके अनुत्कृष्ट प्रदेशकी उदीरणा करता है तो नियमसे असंख्यातगुणे हीनकी करता है । इसी प्रकार शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी विवक्षामें भी संनिकर्षका कथन * प्रतिषु ' आकारओ ' इति पाठ: । तातो 'उक्कस्सपदमुदीरेदि ' इति पाठ: । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ) छक्खंडागमे संतकम्म चदुण्णमावरणाणं पि वत्तव्वं । मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसमुदीरेंतो अणंताणुबंधिकोधस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ उक्कस्समणुक्कस्सं वा उदीरेदि । जदि अणुक्कस्सं असंखेज्जभागहीणं संखे० भागहीणं संखे० गुणहीणं असंखे० गुणहीणं वा उदीरेदि । एवमुक्कस्ससण्णियासो जाणिदूण णेदव्वो। जहण्णपदसण्णियासं वत्तइस्सामो। तं जहा--मदिआवरणस्स जहण्णपदेसउदीरओ* सुदआवरणस्स जहण्णमजहण्णं वा उदीरेदि । जदि अजहणं तो चउद्वाणपदिदमुदीरेदि । एदेण बीजपदेण जहण्णपदसण्णियासो वत्तव्वो। एवं परत्थाणसण्णियासो वि जहण्णुक्कस्सपदभेयभिण्णो णेयव्यो । एवं सण्णियासो समत्तो । एत्थेव अप्पाबहुअं जाणिदूण भाणियव्वं ।। __पदेसभुजगारउदीरणाए अट्ठपदं-अणंतरहेट्ठिमसमए उदीरिद पदेसग्गादो एण्हि* मुदीरिज्जमाणपदेसग्गं जदि बहुअं होदि तो एसा भुजगारउदीरणा । अणंतरादिक्कते समए उदीरिदपदेसग्गादो जमेण्णिमुदीरिज्जमाणपदेसग्गं जइ थोवं होदि तो एसा अप्पदरउदीरणा। जदि दोसु वि समएसु तत्तियं चेव उदीरेदि तो एसा अवविदउदीरणा। करना चाहिये। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशकी उदीरणा करनेवाला अनन्तानुबंधी क्रोधका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि वह उदीरक होता है तो उत्कृष्ट प्रदेशका उदीरक होता है। यदि वह अनृत्कृष्टकी उदीरणा करता है तो असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन संख्यातगुणहीन अथवा असंख्यातगुणहीनकी उदीरणा करता है । इस प्रकार उत्कृष्ट संनिकर्षको जानकर ले जाना चाहिये । जघन्य-पद-संनिकर्षकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-मतिज्ञानावरणके जघन्य प्रदेशका उदीरक श्रुतज्ञानावरणके जघन्य अथवा अजघन्य प्रदेशकी उदीरणा करता है । यदि वह अजघन्य प्रदेशकी उदीरणा करता है तो वह चतुःस्थानपतित ( असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन व असंख्यातगुणहीन ) की उदीरणा करता है । इस बीजपदसे जघन्यपद-संनिकर्षका कथन करना चाहिये। इसी प्रकारसे जघन्य व उत्कृष्ट पदभेदोंमें विभक्त परस्थान संनिकर्षको भी ले जाना चाहिये । इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ। यहींपर अल्पबहुत्वकी भी जानकर प्ररूपणा कहलाना चाहिये । प्रदेश-भुजाकार-उदीरणामें अर्थपद--अनन्तर अधस्तन समयमें उदीरित प्रदेशाग्रसे इस समय उदीयमाण प्रदेशाग्र यदि बहुत होता है तो यह भुजाकर उदीरणा कही जाती है। अनन्तर अतीत समयमें उदीरित प्रदेशाग्रसे यदि इस समय उदीर्यमाण प्रदेशाग्र स्तोक होता है तो यह अल्पतर उदीरणा कहलाती है । यदि दोनों ही समयोंमें उतने मात्र ही प्रदेशाग्रकी उदीरणा की ४ ताप्रतौ ' असंखे० भागहीणं संखे. गणहीणं' इति पार:। * अप्रतौ 'पदेपमदीरओ' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'उदीरेदि' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः 'एण्णि-' इति पाठः । | Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोग द्दारे पदेसउदीरणा ( २६१ अणुदीरओ होदूण जदि उदीरगो होदि तो एसा अवत्तव्वउदीरणा । सामित्तं- मदिआवरणस्स भुजगारउदीरओ अप्पदरउदीरओ अवट्ठिदउदीरओ वा को होदि ? अण्णदरो। एवं सव्वेसि कम्माणं । णवरि अवत्तव्वउदीरओ केसिंचि कम्माणं भाणियन्वो । एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो जहा अणुभागउदीरणाए तहा वत्तव्यो। णवरि भवपच्चइए जहा चेव परिणामपच्चएसु तहा कायन्वो। तं जहा- मणुसगदिणामाए पदेसउदीरणाए अवट्टिदउदीरओ पुवकोडि देसूणं । भवपच्चइयाणमवट्टिदउदीरयकालं मोत्तूण सेसाण कम्माणमेयजीवेण कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च जहा अणुभागउदीरणाए तहा पदेसउदीरणाए+वि भुजगारो कायव्वो। अप्पाबहुअं । त जहा- मदिआवरणस्स अवट्टिदउदीरया थोवा । भुजगारउदीरया असंखे० गुणा । अप्पपरउदीरया विसेसाहिया। सेसचदुण्णं णाणावरणीयाणं चदुण्णं दंसणावरणीयाणं च मदिआवरणभंगो। पंचण्णं दसणावरणीयाणं एवं चेव । णवरि अवट्ठिदउदीरया थोवा। अवत्तव्वउदो० असंखे० गुणा । सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा जाती है तो यह अवस्थित उदीरणा होती है । अनुदीरक हो करके यदि उदीरक होता है तो यह अवक्तव्य उदीरणा कहलाती है। स्वामित्व- मतिज्ञानावरणका भुजाकार उदीरक, अल्पतर उदीरक और अवस्थित उदीरक कौन होता है ? अन्यतर जीव उक्त प्रकारका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे सब कर्मोके सम्बन्धमें कहना चाहिये। विशेष इतना है कि अवक्तव्य उदीरक किन्हीं विशेष कर्मोंका कहना चाहिये । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन जैसे अनुभागउदीरणामें किया गया है वैसे ही यहां भी करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जिस प्रकार भवप्रत्ययिक प्रकृतियोंका काल कहा है उसी प्रकार यहां परिणामप्रत्ययिक प्रकृतियोंका कहना चाहिए। यथा- मनुष्यगति नामकर्मकी प्रदेशउदीरणाके अवस्थितपदका काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। भवप्रत्ययिक प्रकृतियोंके अवस्थित पदके उदीरककालको छोडकर शेष कर्मोका एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर; इनका कथन जिस प्रकार अनुभागउदीरणामें किया है उसी प्रकार यहां प्रदेश उदीरणामें भी भुजाकार पदका आश्रय लेकर करना चाहिए। अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर उदीरक विशेष अधिक हैं । शेष चार ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वकी भी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि इनके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक उनसे असंख्यात का-ताप्रत्योः 'तहा कायव्वो' इति पाठः। * अप्रतौ 'भवाच्च रसु' इति पाठः । ४ अ-काप्रत्यो: 'उदीरयाकालं', ताप्रतौ 'उदीरया (य) कालं' इति पाठः। ताप्रती 'कालो च अतरं' इति पाठः। प्रतिषु 'उदीरणाए तप्पदेसउदीरणाए ' इति पाठः । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२) छक्खंडागमे संतकम्म अवविदउदी० । अवत्तव्वउ० असंखे० गुणा । अप्पदरउ० असंखे० गुणा । भुजगार० विसेसाहिया । सम्मामिच्छत्तस्स अवट्ठिदउदीरया थोवा। अवत्तव्वउ० असंखे० गुणा। भुजगार-अप्पदरउदीरया तुल्ला असंखे० गुणा । अणुभागउदोरणाए* वि सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदरउदीरया तुल्ला कायव्वा । केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे? जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो मिच्छत्तं गच्छंति। जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छति । एदेण कारणेण भुजगारउदीरएहितो अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं । पुव्वमणुभागउदीरणाए अप्पदरुदीरएहितो भुजगारुदीरया विसेसाहिया त्ति जं भणिदं तेणेदस्स कधं ण विरोहो? सच्चं विरोहो चेव, किंतु दोण्णमुवदेसाणं थप्पत्तपरूवणठें तदुभयणिद्देसो ण विरुज्झदे । सादासादसोलसकसाय-अट्टणोकसाय-णिरय-देव-मणुसगइ-बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदिय-पंचिदियजादि--ओरालिय--वेउव्वियसरीर---ओरालिय---वेउव्वियसरीरंगोवंग---बंधणसंघाद---छसंठाण---छसंघडण----उवधाद----परघाद--आदावुज्जोव--- उस्सास-- पसत्थापसत्थाविहायगइ----तस---बादर---सुहुम---पज्जत्तापज्जत्त---पत्तेय--- गुणे हैं। सम्यक्त्वके अवस्थित उदीरक सबमें स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार उदीरक विशेष अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार व अल्पतर उदीरक दोनों तुल्य व असंख्यातगुणे हैं। अनुभागउदीरणामें भी सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार उदीरकों व अल्पतर उदीरकोंको तुल्य करना चाहिये । शंका-- भुजाकार व अल्पतर उदीरकोंकी समानता किम कारणसे कही जाती है ? समाधान--- जितने जीव मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं उतने ही सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं। इस कारण भुजाकार उदीरकोंसे अल्पतर उदीरकोंकी समानता कही गयी है। शंका-- पहिले अनुभाउदीरणामें " भुजाकार उदीरक अल्पतर उदीरकोंसे विशेष अधिक हैं" ऐसा जो कहा गया है, उससे इसका विरोध कैसे न होगा? समाधान-- सचमुच ही उससे इसका विरोध होता है, किन्तु दोनों उपदेशोंको स्थापित करनेकी प्ररूपणा करनेके लिये उन दोनोंका निर्देश करना विरुद्ध नहीं है। साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, नरकगति ; देवगति, मनुष्यगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक व वैक्रियिक शरीर तथा उनके अंगोपांग, बंधन व संघात, छह संस्थान, छह संहनन, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, ४ प्रतिष 'उदीरयाए ' इति पार:। प्रतिष 'तुल्लं' इति पाठः। .ताप्रती 'जत्तिया सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छंति तत्तिया सम्पत्तादो सम्मामिच्छतं गच्छति' इति पाठ:। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा साहारण-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-अजसगित्ति-उच्चागोदाणं अवट्टिदउदीरया थोवा । अवतव्वउदो० असंखे० गुणा। भुजगार० असंखे० गुणा। अप्पदरउ० विसेसा० । मिच्छत्त-णqसयवेद-तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-थावर-दूभग--अणादेज्ज--णीचागोदाणं अवत्तव्व० थोवा। अवट्ठिद० अणंतगुणा। भुज० असंखे० गुणा । अप्पदर० विसेसा०। जहा मदिआवरणस्स तहा धुवउदीरयाणं पंचण्णमंतराइयाणं च वत्तव्वं । चदुण्णमाउआणं अवडिय० थोवा० । अवत्त० असंखे० गुणा। अप्पदर० असंखे० गुणा। भुजगार० विसेसा० । केण कारणेण आउआणं भुजगारउदीरया बहुआ? जे असादअपज्जत्ता ते असादोदएण बहुअयरा वड्ढंति* । जे सादा अपज्जत्तया ते बहुयरा तादो. दएण परिहायंति, थोवयरा वड्ढंति । एदेण कारणेण आउआणं अप्पदर० थोवा, भुजगार० बहुआ। चउण्णमाणुपुवीणं अवट्ठिय० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवतव्व० विसेसा० । अप्पदर० विसेसा० । आदेज्ज-जसगित्तीणं उच्चागोदभंगो । साधारण, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, अयशकीर्ति और उच्चगोत्र; इनके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतरउदीरक विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीच गोत्रसे अवक्तव्य उदीरक स्तोक हैं। अवस्थित उदीरक अनन्तगुणे हैं। भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर उदीरक विशेष अधिक हैं। जैसे मतिज्ञानावरणके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही ध्रुव उदीरणावाली प्रकृतियोंके एवं पांच अन्तराय प्रकृतियोंके भी अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । चार आयु कर्मोंके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार उदीरक विशेष अधिक हैं। शंका-- आयु कर्मोके भुजाकार उदीरक बहुत किस कारणसे हैं ? समाधान-- जो जीव असातारूप संक्लेश परिणामसे सहित होते हुए पर्याप्तियोंसे अपरिपूर्ण होते हैं उनमें अधिकतर जीव दु:खानुभवरूप असाताके उदयसे संयुक्त होकर बढते हैं, अर्थात आयके भुजाकारको करते हैं। तथा जो जीव सातारूप मध्यम विशुद्धि परिणामोंसे परिणत होते हुए अपर्याप्त होते हैं उनमें अधिकतर सुखानुभवनरूप साताके उदयसे संयुक्त होकर हीन होते हैं, अर्थात् आयुके अल्पतरको करते हैं; कुछ थोडेसे जीव संक्लेश परिणामोंसे परिणत होते हुए अपर्याप्त होकर बढते हैं, अर्थात् भुजाकारको करते हैं। इस कारणसे आयु कर्मोके अल्पतर उदीरक स्तोक व भुजाकार उदीरक बहुत होते हैं। ___ चार आनुपूर्वी नामकर्मों के अवस्थित उदीरक स्तोक होते हैं। भुजाकार उदीरक असंख्यातगणे होते हैं । अवक्तव्य उदीरक विशेष अधिक होते हैं। अल्पतर उदीरक विशेष अधिक होते हैं। आदेय और यशकीर्ति नामकर्मों के अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा उच्चगोत्रके समान हैं। तीर्थंकर * अप्रतो 'बहुअयरा भवंति', काप्रती 'बहुअयरा हवंति', ताप्रती 'बहु ( अ ) यरा हवंति' इति पाठः । प्रतिषु ‘बटुंति' इति पाठः । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ) छक्खंडागमे संतकम्म तित्थयर० अवत्तव्व० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवढि० असंखे०० (?) गुणा । एवं भुजगारउदीरणा समत्ता । एत्तो पदणिक्खेवो । तत्थ सामित्तं- मदिआवरणीयस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स । उक्कस्सिया हाणी कस्स? पढमसमयदेवस्स वीयरायपच्छायदस्स । उक्कस्समवट्टाणं कस्स ? बिदियसमयदेवस्स वीयरायपच्छायदस्स सुद-मणपज्जव-केवलणाणावरण-चक्खु-अचवखु-केवलदसणावरणाणं मदिआवरणभंगो । ओहिणाणावरण-ओहिदसणावरणाणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स जस्स ताधे चेव ओहिलंभो णट्ठो। हाणिअवट्ठाणाणं मदिआवरणभंगो। अधवा ओहिणाण-ओहिदसणावरणाणं वड्ढीए वि मदिणाणावरणभंगो होदि त्ति केसि पि आइरियाणमुवएसो। णिद्दा-पयलाणमुक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो अधापमत्तसंजदो तप्पाओग्गजहण्णविसोहीदो तप्पाओग्गउक्कस्सविसोहिं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी। उक्क० हाणी कस्स? जो उक्कस्सविसोहीदो सागार क्खएण उक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स उक्कस्सिया प्रकृतिके अवक्तव्य उदीरक स्तोक होते हैं। भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणें होते हैं । अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे होते हैं। इस प्रकार भुजाकार उदीरणा समाप्त हुई। यहां पदनिक्षेपकी प्ररूपणा करते हैं। उसमें स्वामित्व इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिसके चरम समववर्ती छद्मस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है? वीतराग ( उपशान्तमोह ) से पीछे आये हुए प्रथम समयवर्ती देवके उसको उत्कृष्ट हानि होती है। उसका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? वीतरागसे पीछे आये हुए द्वितीय समयवर्ती देवके उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणको उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती छद्मस्य होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है तथा उसी समय ही जिसकी अवधिलब्धि नष्ट हुई है उसके उन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। इनकी उत्कृष्ट हानि एवं अवस्थानकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अथवा, अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट वुद्धिका कथन भी मतिज्ञानावरणके ही समान है, ऐसा कितने ही आचार्योंका उपदेश है। निद्रा और प्रचला दर्शनावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती हैं ? जो अधःप्रवृत्तसंयत तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुआ है उसके निद्रा सौर प्रचलाकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट विशुद्धिसे साकार उपयोगके क्षयपूर्वक उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। जब वह ४ आप्रतौ । संखेज ' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'सागर-' इति पाठः । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा ' ( २६५ हाणी। हाइदूण अवट्ठाणं गयस्स उक्कस्समवट्ठाणं । णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो पमत्तसंजदो तप्पाओग्गजहण्णविसोहीदो तप्पाओग्गउक्कस्सविसोहि * गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्क० हाणी कस्स? जो उक्कस्सवितोहीदो सागारक्खएण उक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स उक्कस्सिया हाणी । से काले अवट्ठाणं गयस्स उक्कस्समवट्ठाणं। सादस्स उक्क० वड्ढी कस्स? जो संजदो चरिमसमयपमतो सव्वविसुद्धो तस्स उक्क० वड्ढी। उक्क० हाणी कस्स? सो चेव चरिमसमयपमत्तो सव्वविसुद्धो मदो देवो जादो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । असादस्स उक्क० वड्ढी कस्स? जो संजदो चरिमसमयपमत्तो सव्वत्रिसुद्धो तस्स उक्क० वड्ढी । हाणी अवट्टाणं च तस्सेव उक्कस्सविसोहीदो तप्पाओग्गउक्कस्ससंकिलेसं गयस्स । मिच्छत्तस्स उक्क० वड्ढी कस्स? जो मिच्छाइट्ठी से काले संजमं पडिवज्जदि त्ति द्विदो तस्स उक्क० वड्ढी। हाणी अवट्ठाणं च कस्स? जो मिच्छाइट्ठी तप्पाओग्गविसुद्धो हीन होकर अवस्थानको प्राप्त होता है तब उसके उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो प्रमत्तसंयत तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होता है उसके उनकी उत्कृष्ट वुद्धि होती हैं। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट विशुद्धिसे साकार उपयोगके क्षयके साथ उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। अनन्नर कालम अवस्थानको प्राप्त होनेपर उसके उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्तिम समयवर्ती प्रमत्तसंयत जीव सर्वविशद्धिको प्राप्त उसके सातावेदनीयकी उत्कृष्ट वद्धि होती है। उसकी उत्कष्ट हानि किसके होती है ? वही अन्तिम समयवर्ती प्रमत्त सर्वविशुद्ध संयत जीव मरणको प्राप्त होकर जब देव हो जाता है तब उसके उक्त सातावेदनीयकी उत्कष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। असातावेदनीयकी उत्कृष्ट वद्धि किसके होती है? जो अन्तिम समयवर्ती प्रमत्त संयत सर्वविशद्धिको प्राप्त है उसके असातावेदनीयकी उत्कष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट विशुद्धिसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होनेपर उसीके उसकी हानि व अवस्थान भी होता है । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त होगा, ऐसी स्थितिमें वर्तमान है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान किसके होता है ? तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त जो मिथ्यादृष्टि साकार उपयोगके 8 अप्रतौ 'उकस्स हिं' इति पाठः। अप्रतौ 'सागर' इति पाठः । ४ अप्रतौ ' से .. काले अवदाणं मदो देवो जादो तस्स उक० हाणी तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं' इति पाठः । 0 अ-काप्रत्योः 'संजदा. (दो)' इति पाठः । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं सागा रक्खण तप्पा ओग्गुक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स उक्कस्सिया हाणी अवद्वाणं च । सम्मत्तस्स उक्क० वड्ढी कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । हाणि - अवद्वाणाणि कस्स । जो अधापमत्तसम्माइट्ठी सव्वविसुद्धो सागारक्खएण तप्पा ओग्गसंकिलेसं गदो तस्स उक्क० हाणि अवट्टाणाणि । सम्मामिच्छत्तस्स उक्क ० वड्ढी कस्स ? सम्मामिच्छाइट्ठिस्स से काले सम्मत्तं पडिवज्जिहिदि ति ट्ठियस्स | सम्मामिच्छत्त० उक्क० हाणी अवद्वाणं च कस्स? जो सम्मामिच्छाइट्ठी तप्पा ओग्गविसुद्ध परिणामक्खएण तप्पा ओग्गजहण्णविसोहीए पदिदो तस्स उक्क० हाणी अवद्वाणं च । वड्ढी वड्ढी । अताणुबंधिचक्कस्स मिच्छत्तभंगो । अपच्चक्खाणकसायाणं उक्क ० कस्स? जो असंजदसम्माइट्ठी से काले संजमं गाहदित्ति द्विदो तस्स उक्क० हाणि - अवाणाणि कस्स ? अधापमत्तसम्माइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स सागा रक्खएण से काले तप्पा ओग्गजहण्ण विसोहिं गयस्स । पच्चक्खाणकसायाणं अपच्चक्खाणकसायभंगो । वरि संजदासंजदेसु परूवणा कायव्वा । संजलणाणमुक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? कोहमाण- मायाणं खवगस्स चरिमसमयवेदयस्स तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । लोभस्स उक्क० क्षयसे तन्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिसके चरम समयवर्ती अक्षीणदर्शन मोह होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उसकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान किसके होता है ? जो अधःप्रवृत्त सम्यग्दृष्टि होकर साकार उपयोगके क्षयसे तत्प्रायोग्य संक्लेशको प्राप्त हुआ है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि ओर अवस्थान होता है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तर कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त होगा, ऐसी स्थिति में स्थित है उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान किसके होता है ? जो समयमिथ्यादृष्टि जीव तत्प्रायोग्य विशुद्ध होकर परिणामक्षयसे तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिमें आ पडा है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान होता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है । अप्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो असंयत सम्यग्दृष्टि अनन्तर कालमें संयमको प्राप्त करेगा, ऐसी अवस्था में स्थित है उसके उनकी उत्कृष्ट बृद्धि होती है । उनकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान किसके होता है ? जो सर्वविशुद्ध अधःप्रवृत्त सम्यग्दृष्टि साकार उपयोगके क्षयसे अनंतर कालमें तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ है उसके उनकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान होता है। प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी प्ररूपणा अप्रत्याख्यानावरण कषायों के समान है । विशेष इतना है कि उसकी प्ररूपणा संयतासंयत जीवों में करना चाहिये । संज्वलन कषायों ( क्रोध, मान व माया ) की उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो क्रोध, मान व मायाका क्षपक अन्तिम समयवर्ती तद्वेदक होता है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । संज्वलन लोभकी अप्रतौ 'गहिदि ' इति पाठः । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा ( २६७ वड्ढी कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयसकसायखवगस्स । एदेसि हाणी कस्स? जो उवसामगो अप्पिदकसायस्स उक्कस्सउदयट्ठाणं पत्तो संतो मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । छण्णोकसायाणमुक्कस्सिया बड्ढी कस्स ? चरिमसमयअपुव्वखवगस्स । हाणी कस्स? तस्सेव उवसामयस्स कालं काढूण देवेसु उववण्णस्स । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । णवरि अरदि-सोगाणं पडिवदमाणस्स दुसमयवेदगस्स उक्कस्सिया हाणी। उक्कस्समवट्ठाणं कस्स? अधापमत्तसंजदस्स कदउक्कस्सावट्ठाणस्स । पुरिसवेदस्स संजलणभंगो। इत्थि-णवंसयवेदाणमुक्कस्सिया वड्ढी कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयवेदगस्स खवगस्स । उक्क० हाणी कस्स? उवसमसेडीदो पडिवदमाणस्स दुसमयवेदयस्स। अवट्ठाणं कस्स ? सत्थाणसंजदस्स सागारक्खएण उक्कस्समवट्ठाणं गदस्स । णिरयाउअस्स उक्क० वड्ढी कस्स? णिरयगईए जस्स रइयस्स असादोदयस्स अणुभागउदीरणाए उक्कस्सिया वड्ढी तस्सल णिरयाउअस्स पदेसउदीरणाए उक्क० वड्ढी। उक्क० हाणी कस्स? णिरयगईए णेरइयस्स असादोदयस्स अणुभागुउदीरणाए उक्क० उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिस क्षपकके अन्तिम समयवर्ती सकषाय होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। इन चारोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उपशामक जीव विवक्षित कषायके उत्कृष्ट उदयस्थानको प्राप्त होता हुआ मृत्युको प्राप्त होकर देव हुआ है उसके देव होने के प्रथम समयममें उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसी के अनन्तर काल में उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। ___ छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरण क्षपकके होती है ? उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? मरणको प्राप्त होकर देवोंमें उत्पन्न हुए उसी अपूर्वकरण उपशामकके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसीके अनन्तर कालमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। विशेषता इननी है कि अरति और शोककी उत्कृष्ट हानि श्रेणिसे गिरनेवाले द्वितीय समयवर्ती तद्वेदकके होती है। उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है वह उत्कृष्ट अवस्थानको प्राप्त अधःप्रवृत्तसंयतके होता है। पुरुषवेदकी प्ररूपणा संज्वलन कषायके समान है। स्त्री व नपुंसक वेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है। जिस क्षपकके उनके अन्तिम समयवर्ती वेदक होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है उसके उन दो वेदोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले द्वितीय समयवर्ती तद्वेदकके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उनका उकृष्ट अवस्थान किसके होता है ? वह साकार उपयोगके क्षयसे उत्कृष्ट अवस्थानको प्राप्त हुए स्वस्थान संयतके होता है ।। नारकायुकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? नरकगतिमें जिस नारकीके अनुभागउदीरणामें असातोदयकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है उसके नारकायुकी प्रदेशउदीरणाकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? नरकगतिमें जिस नारकीके असातावेदनीयकी अनुभाग D काप्रतौ 'कस्स' इति पाठः । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ) छक्खंडागमे संतकम्म हाणी तस्स णिरयाउअस्स पदेसउदीरणाए उक्क० हाणी । उक्कस्समवट्ठाणं कस्स? णेरइयस्स उक्कस्सियं हाणि कादूण अवट्ठियस्स । तिरिक्खाउअस्स उक्क० पदेसवड्ढी कस्स ? जस्स तिरिक्खस्स अणुभागुदीरणाए असादोदयवड्ढी उक्कस्सिया तस्स तिरिक्खस्स तिरिक्खाउअस्सप पदेसउदीरणाए. उक्क० वड्ढी । उक्क०हाणी कस्स? जस्स तिरिक्खस्स अणुभागउदीरणाए असादोदयहाणी उक्क० तस्स उक्क० पदेसहाणी । उक्कस्सअवट्ठाणं कस्स ? जस्स तिरिक्खस्स अणुभागउदीरणाए असादोदयस्स उक्कस्समवटाणं तस्स तिरिक्खाउअस्स पदेसउदीरणाए उक्कस्समवट्ठाणं । मणुसाउअस्स तिरिक्खाउअभंगो । णवरि मणुस्सेसु वत्तव्वं । देवाउअस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जस्स देवस्स अणुभागुदीरणाए असादोदयवड्ढी उक्क० तस्स पदेसउदीरणाए देवाउअस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी कस्स? जस्स देवस्स अणुभागुदीरणाए असादोदयहाणी उक्कस्सिया तस्स पदेसउदीरणाए देवाउअस्स उक्क० हाणी । उक्कस्समवट्ठाणं । कस्स ? जस्स देवस्स अणुभागुदीरणाए असादोदयस्स उवकस्समवट्ठाणं तस्स देवाउअपदेसउदीरणाए उक्कस्समवट्ठाणं । उदीरणामें उत्कृष्ट हानि होती है उसके नारकायकी प्रदेशउदीरणाकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? वह उत्कृष्ट हानिको करके अवस्थानको प्राप्त हुए नारक जीवके होता है। तिर्यंचआयुकी उत्कृष्ट प्रदेशवृद्धि किसके होती है ? जिस तिर्यंचके अनुभागउदीरणामें असातोदयकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है उस तिर्यंचके तिर्यंचआयु सम्बन्धी प्रदेशउदीरणाकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस तिर्यंचके अनुभागउदीरणाम असातोदयकी उत्कृष्ट हानि होती है उसके तिर्यच आयुकी उत्कृष्ट प्रदेशहानि होती है। उसका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जिस तिर्यंचके अनुभागउदीरणाम असातोदयका उत्कृष्ट अवस्थान होता है उसके तिर्यंचआयुकी प्रदेशउदीरणाका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। मनुष्यायुकी प्ररूपणा तिर्यच आयुके समान है। विशेष इतना है कि मनुष्यायुकी प्रदेशउदीरणाकी वृद्धि आदिका कथन मनुष्योंमें करना चाहिये । देवायुकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिस देवके अनुभाग उदीरणामें असातोदयकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है उसके प्रदेश उदीरणामें देवायुकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस देवके अनुभागउदीरणामें असातोदयकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है उसके प्रदेशउदीरणामें देवायुकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जिस देवके अनुभागउदीरणामें असातोदयका उत्कृष्ट अवस्थान होता है उसके देवायुकी प्रदेशउदीरणाका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। * अप्रतौ त्रुटितो जातोऽत्र पाठः, का-ताप्रत्योः ' वड्ढी' इति पाठः। 0 अप्रतो 'कस्स तिरिक्खस्स तिरिक्खाउअस्स', काप्रती 'कस्स तिरिक्खाउअस्स' इति पाठः। . अ-काप्रत्यी: 'पदेसउदीरणा' इति पाठः। अ-काप्रत्यो: 'कस्स अवट्ठाणं', तारतौ ' (कस्स) । अवट्ठाणं ' इति पाठः । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा ( २६९ णामकम्मरस जाओ पयडीओ सुभाओ असुभाओ वा केवली वेदयदि तासि चरिमसमयसजोगिम्हि उक्कस्सिया वड्ढी ? णामपयडीओ सुहाओ असुहाओ वा उवसंतकसाओ वेदेदि तासिमुक्कस्सिया हाणी पढमसमयदेवस्स उवसंतकसायपच्छायदस्स होदि । तासिं चेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । णवरि मणुसगइ-ओरालियचदुक्क-सरदुग-विहायगइदुगाणमुक्कस्सिया हाणी ओदरमाणपढमसमयसुहुमसांपराइस्स, अवट्ठाणं बिदियसमयउवसंतकसायस्स । जासि णामपयडीणं केवली उदीरओ ण होदि तासि तप्पाओग्गजहण्णविसोहीदो उक्कस्सविसोहिं गदस्स संजदस्स उक्क० वड्ढी। उक्क० विसोहीदो जहण्णविसोहि गदस्स सागारक्खएण भवक्खएण वा तस्स उक० हाणी हाणी कादूण। अवट्टियस्स* उक्कस्समवट्ठाणं । णीचागोददूभग-अणादेज्ज-अजसगित्तीणं उक्क० वड्ढी कस्स ? चरिमसमयअसंजदस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी कस्स? (णीचागोदस्स) सम्माइट्ठिस्स सव्वुक्कस्सविसोहीदो जहण्णविसोहि गयस्स तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवढाणं । उच्चागोदस्सर उक्क० वड्ढी कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । उक्कस्सिया हाणी कस्स? पढमसमयदेवस्स उवसंतकसायस्स पच्छायदस्स । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं। पंचण्णमंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो । एवमुक्कस्स नामकर्मकी जिन शुभ अथवा अशुभ प्रकृतियोंकी वेदन केवली करते हैं उनकी उत्कृष्ट वृद्धि अंतिम समयवर्ती सयोगकेवलीके होती है। जिन शुभ-अशुभ नामप्रकृतियोंका उपशांतकषाय वेदन करता है उनकी उत्कृष्ट हानि उपशांतकषायसे पीछे आये हुए प्रथमसमयवर्ती देवके होती है। उन्हींका अनंतर काल में उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है। विशेष इतना है कि मनुष्यगति, औदारिकचतुष्क, स्वरद्विक और दोनों विहायोगतियोंकी उत्कृष्ट हानि श्रेणिसे उतरते हुए प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिकके होती है ; तथा उनका उत्कृष्ट अवस्थान द्वितीय समयवर्ती उपशांतकषायके होता है। जिन नामप्रकृतियोंके केवली उदीरक नहीं होते हैं उनकी उत्कृष्ट वृद्धि तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिसे उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुए संयतके होती है। साकार उपयोगके क्षयसे अथवा भवके क्षयसे उत्कृष्ट विशुद्धिसे जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हुए उक्त जीवके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानिको करके अनंतर कालमें अवस्थानको प्राप्त हुए उक्त जीवके ही उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। नीचगोत्र, दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्तिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? चरमसमयवर्ती असंयत जीवके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृप्ट हानि किसके होती है? सर्वोकृष्ट विशुद्धिसे जवन्य विशुद्धिको प्राप्त हुए उक्त (नीच गोत्रवाले) सम्यग्दृष्टि जीवके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? वह अंतिम समयवर्ती सयोगीके होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उपशान्तकषायसे पीछे आये हुए प्रथम समयवर्ती देवके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। पांच अन्तराय * अ-ताप्रत्यो: 'हाणी कादूण अवट्टियस्स ' इति पाठः । ताप्रती 'णीचागोदस्स ' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ‘णीचागोदस्स', ताप्रतौ ‘णीचा (उच्चा) गोदस्स ' इति पाठः । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ) छक्खंडागमे संतकम्म सामित्तं समत्तं । ___मदिआवरणस्स जहणिया पदेसउदीरणावड्ढी कस्स? जो उक्कस्ससंकिलिट्ठो तत्तो अणंतभागेण हीणो तस्स जहणिया वड्ढी। जहणिया हाणी कस्स? दुचरिमादो संकिलेसादो जो उक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स जह० हाणी । एगदरत्थ अवट्ठाणं । सुद-मणपज्जव- केवलणाणावरण-चक्खु-अचक्खु-केवलदसणावरण-सादासाद-मिच्छत्तसोलसकसाय-णवणोकसायाणं मदिणाणावरणभंगो । ओहिणाण-ओहिदसणावरणाणं। पि मदिणाणावरणभंगो । णवरि देव-णेरइएसु जहण्णसामित्तं दादव्वं । पंचण्णं दंसणावरणीयाणं मदिणाणावरणभंगो । णवरि तप्पाओग्गसंकिलिछे जहण्णसामित्तं दादव्वं । णिरया उअस्स जहणिया वड्ढी कस्स? जो उक्कस्सादो सादोदयट्ठाणादो दुचरिमसादोदयट्ठाणं गदो रइओ तस्स णिरयाउअस्स जह० वड्ढी। जह० हाणी कस्स? जो दुचरिमसादोदयादो चरिमसादोदयं गदो तस्स जहणिया हाणी । एगदरत्थ अवट्ठाणं । तिरिक्ख-मणुस-देवाउआणं णिरवाउभंगो णवरि तिरिख मणुसदेवेसु-अणुक्कस्ससादोदएसु जहाकमेण सामित्तं वत्तव्वं । सव्वणामपयडीणं जहण्णवड्ढ-हाणी-अवट्ठाणाणि भण्णमाणे मदिणाणावरणभंगो। णवरि अप्पिद-अप्पिदणामपयडीणमुदयसंभवपदेसम्हि उक्कस्स-अणुक्कस्ससंकिलेसुजहण्ण कर्मोकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। मतिज्ञानावरणकी जघन्य प्रदेशउदी रणावृद्धि किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ जो जीव उसके अनन्तवें भागसे हीन होता है उसके उसकी जघन्य वृद्धि होती है। उसकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो द्विचरम संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है उसके उसकी जघन्य हानि होती है । दोनोंमेंसे किसी एकमें उसका जघन्य अवस्थान होता है । श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी यह प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी भी उक्त प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि उनका जघन्य स्वामित्व देव-नारकियोमें देना चाहिये। निद्रा आदि पांच दर्शनावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि तत्प्रायोग्य संक्लेश युक्त जीवमें उनका जघन्य स्वामित्व देना चाहिये । नारकायुकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो नारकी जीव उत्कृष्ट सातोदयस्थानसे द्विचरम सातोदयस्थानको प्राप्त हुआ है उसके नारकायुकी जघन्य वृद्धि होती है। उसकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो द्विचरम सातोदयस्थानसे चरम सातोदयस्थानको प्राप्त हुआ है उसके उसकी जघन्य हानि होती है। दोनोंमेंसे किसी भी एकमें उसका जघन्य अवस्थान होता है। तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायुकी प्ररूपणा नारकायुके समान है। विशेष इतना है कि उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट सातोदय युक्त तिर्यंच, मनुष्य और देवमें यथाक्रमसे उनका जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये । सब नामप्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थानकी प्ररूपणा करनेपर वह मतिज्ञानावरणके समान करना चाहिये । विशेष इतना है कि विवक्षित विवक्षित नामप्रकृतियोंके उदयकी. Hngalnelibrary.org Jain Education Internation Vates Personal SeOilmy Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा सामित्तं दादव्वं । उच्च-णीचागोद-पंचंतराइयाणं जह० वड्ढी कस्स? जो उक्कस्ससंकिलेसादो दुचरिमसंकिलेसं गदो तस्स जह० वड्ढी । जह० हाणी कस्स ? जो दुचरिमसंकिलेसादो उक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स जह० हाणी । एगदरत्थमवट्ठाणं । एवं जहण्णसामित्तं समत्तं । अप्पाबहुअं । तं जहा- मदिआवरणस्स उक्कस्सिया हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । उक्क० वड्ढी असंखेज्जगुणा। सुद-मणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरण-चक्खुअचक्खु-ओहि-केवलदसणावरण-सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसाय-हस्सरदि-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-पंचिंदियजादि-तेजा--कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिणच्चागोद-पंचंतराइयाणं पदेसउदीरणाए उक्कस्सिया हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । उक्कस्सिया वड्ढी असंखे०गुणा । असादस्स उक्क०हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि थोवाणि। वड्ढी असंखे०गुणा। दंसणावरणपंचयस्स उक्क० वड्ढी थोवा। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि। सादस्सहाणी-अवट्ठाणाणि थोवा।वड्ढीअसंखे०गुणा । इत्थि-णqसयवेद सम्भावना युक्त ऐसे उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट संक्लेशवाले जीवोंमें उनके जघन्य स्वामित्वको देना चाहिये। उच्च व नीच गोत्र तथा पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है? जो उत्कृष्ट संक्लेशसे द्विचरम संक्लेशको प्राप्त होता है उसके उनकी जघन्य वृद्धि होती है। उनकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो द्विचरम संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है उसके उनकी जघन्य हानि होती है। दोनोंमें से किसी एकमें उनका जघन्य अवस्थान होता है। इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। उसकी उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है । श्रुतज्ञानावरण, मन.पर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर तथा उनके बंधन और संघात, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी प्रदेशउदीरणाकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य एवं स्तोक हैं। उनकी उत्कृष्ट वृद्धि उससे असंख्यातगुणी है । असातावेदनीयकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं । उससे उसकी वृद्धि असंख्यातगुणी है। निद्रादिक पांच दर्शनावरण प्रकृतिको उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयकी हानि व अवस्थान दोनों स्तोक हैं । वृद्धि असंख्यातगुणी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, * ताप्रतौ -सरीर-बंधण' इति पाठः । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२) छक्खंडागमे संतकम्म अरदि-सोगाणं सव्वत्थोवमवट्ठाणं । हाणी असंखे०गुणा । वड्ढी असंखेज्जगुणा। आउआणं वड्ढी थोवा। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । तिण्णं गईणं चदुण्णं जादोणं च उक्कस्सिया वड्ढी थोवा। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसा० । मणुसगइणामाए उक्क० हाणी थोवा। अवट्ठाणमसंखे० गुणं । वड्ढी असंखे० गुणा । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघाद-पंचसंठाण-वज्जरिसहसंघडण-परघाद--उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-दुस्सर-दुस्सराणं उक्कस्सिया हाणी थोवा । अवट्ठाणमसंखे०गुणं । वड्ढी असंखे० गुणा । वेउन्वियआहारसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघाद-आदावुज्जोव-थावर-सुहम-अपज्जत्त- साहारणाणं उक्क० वड्ढी थोवा । हाणी अवढाणं च विसेसाहियं । चदुण्णमाणुपुवीणमुक्क० हाणी अवट्ठाणं च थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । उवसमसेढिम्हि उदयसंभवसंघडणाणं वड्ढी अवट्ठाणं थोवं । हाणी विसे० । सेसाणं संघडणाणं वड्ढी थोवा । हाणी अवट्ठाणं च विसे० । अजसगित्ति-दूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं उक्क० हाणी अवट्ठाणं च थोवे । वड्ढी असंखेज्जगुणा । एवमुक्कस्सप्पाबहु समत्तं । पदेसउदीरणाए मदिआवरणस्स जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि तिणि वि तुल्लाणि । जधा मदिआवरणस्स तधा सव्वकम्माणं पि अप्पाबहुअं अत्थि*, सव्वकम्मजहण्णवड्ढ-हाणि-अवट्ठाणाणं तुल्लत्तुवलंभादो। णवरि सम्मत्त-सम्माच्छित्ताणं जहणिया अरति व शोकका अवस्थान सबमें स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । आयु कर्मोंकी वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनोंही तुल्य व विशेष अधिक हैं। तीन गतियों व चार जातियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक है । मनुष्यजाति नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। अवस्थान असंख्यातगुणा है । वृद्धि असंख्यातगुणी है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात, पांच संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, सुस्वर और दुस्वर; इनकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । अवस्थान असंख्यातगुणा है । वृद्धि असंख्यातगुणी है। वैक्रियिक व आहारक शरीर तथा उनके अंगोपांग, बन्धन व संघात; आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारणकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान विशेष अधिक हैं। चार आनुपूर्वियोंका उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों स्तोक हैं। वृद्धि असंख्यातगुणी है। उपशमश्रेणिमें जिनका उदय सम्भव है उन संहननोंकी वृद्धि और अवस्थान दोनों स्तोक हैं । हानि विशेष अधिक है । शेष संहननोंकी वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान विशेष अधिक हैं। अयशकीति, दुभंग, अनादेय और नीचगोत्रकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान दोनों स्तोक हैं । वृद्धि असंख्यातगुणी है । इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। प्रदेशउदीरणामें मतिज्ञानावरणकी जघन्य द्धि, हानि व अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं । जैसे मतिज्ञानावरणके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की है वैसे ही सभी कर्मों के अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, सब कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानमें तुल्यता पायी जाती है । का-ताप्रत्योः 'पुधअसंभव' इति पाः। * अ-काप्रत्योः ‘णत्यि', तापतौ ‘ण(अ) त्थि' इति पाठः । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा ( २७३ हाणी थोवा । वड्ढी अवठ्ठाणं च दोण्णि वि तुल्लाणि असंखे०गुणाणि । तित्थयरणामाए हाणि-अवट्ठाणाणि णत्थि, वड्ढी एक्का चेव । एत्तो वढिउदीरणा० । तत्थ समुक्कित्तणा- मदिआवरणस्स अत्थि असंखे० भागवड्ढी संखे० भागवड्ढी संखे० गुणवड्ढी असंखे० गुणवड्ढी असंखेज्जभागहाणी संखे० भागहाणी संखे० गुणहाणी असंखे० गुणहाणी अवट्ठाणं चेदि । एवं सव्वकम्माणं । णवरि केसिंचि सादादीणं अवत्तव्वेण सह दस होति । तित्थयरणामाए असंखे० गुणवड्ढी अवट्टिदमवत्तव्वं च तिण्णि चेव होति। समुक्कित्तणा गदा। ___ सामित्तं वुच्चदे । तं जहा- चउविहाए वड्ढीए चउन्विहाए हाणीए अवट्ठाणस्स य को सामी? अण्णदरो । एवं सव्वकम्माणं वत्तन्वं । एयजीवेण कालो- तिण्णिवड्ढि-तिण्णिहाणीणं जह० एगसमओ, उक्क आवलि० असंखे० भागो। असंखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्जगुणहाणोणं जह० * एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं। जाणि कम्माणि उवसामगो उदीरेदि तेसि कम्माणमवट्ठाणस्स उक्कस्सकालो अंतोमहत्तं । जाणि केवली उदीरेदि तेसिमवट्ठियस्स उक्कस्सकालो पुव्वकोडी देसूणा। एयजीवेण अंतरं विशेष इतना है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व असंख्यातगुणे हैं। तीर्थंकर नामकर्मकी हानि व अवस्थान सम्भव नहीं है। उसकी एक मात्र वृद्धि ही होती है। यहां वृद्धिउदीरणाकी प्ररूपणा करते हैं। उसमें समुत्कीर्तना- मतिज्ञानावरणके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवस्थान भी होता है। इसी प्रकार सब कर्मोंके सम्बन्धमें कहना चाहिये। विशेष इतना है कि किन्हीं सातावेदनीय आदि विशेष कर्मोके अवक्तव्यके साथ वे दस पद होते हैं। तीर्थंकर नामकर्मके असंख्यातगुणवृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन ही पद होते हैं। समुत्कीर्तना समाप्त हुई । स्वामित्वका कथन करते हैं । यथा- मतिज्ञानावरणकी चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थानका स्वामी कौन है ? उनका स्वामी अन्यतर जीव है। इसी प्रकार सब कर्मोंके कहना चाहिये। एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं- तीन वृद्धियों और तीन हानियोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलिके असंख्यातवें भाग मात्र है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। जिन कर्मोंकी उपशामक उदीरणा करता है उन कर्मों के अवस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। जिन कर्मोकी केवली उदीरणा करते हैं उनक अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि मात्र ताप्रती ' वड्डिउदीरणा' इति पाठः । * अप्रतौ 'हाणीणं जहण्णीणं' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः 'उवसमगो' इति पाठ:।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ) काले साधेण यव्वं । तो णाणाजीवेहिभंगविचओ कालो अंतरं च भाणियत्वं । एत्तो अप्पाबहुअंमदिआवरणस्स अवट्ठिदउदीरया थोवा । असंखेज्जभागवड्ढि उदीरया असंखेज्जगुणा । असंखे० भागहाणिउदीरया विसेसाहिया । संखे० भागवड्ढिउ० संखे० गुणा । संखे० भागहाणिउ० विसेसा० । संखे० गुणवड्ढि उ० संखे० गुणा । संखेज्जगुणहाणिउदी० विसे० । असंखे० गुणवड्ढिउ० असंखे० गुणा । असंखे० गुणहाणिउदीरया विसेसाहिया । एवं सव्वकम्माणं कायव्वं । छक्खंडागमे संतकम्मं जेसि कम्माणं अवत्तव्वया अणंता तेस अप्पाबहुअं । तं जहा - अवट्ठिदउदीरया थोवा । असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखे० गुणा । असंखेज्जभागहाणिउदीरया विमेाहिया । संखेज्जभागवड्ढिउ० संखेज्जगुणा । संखेज्जभागहाणिउ० विसेसा० । संखेज्जगुणवड्ढि उदीरया संखेज्जगुणा । संखेज्जगुणहाणिउ० विसेसा० । अवत्तव्व० असंखे ० ० गुणा । असंखेज्जगुणवड्ढि उ० असंखे० गुणा । असंखेज्जगुणहाणिउ ० विसेसा० । परित्तजीवियाणं कम्माणं जिया * अत्थि तेसि एसो चेव अप्पाबहुगालावो कायव्वो । जाणि कम्माणि अनंतजीवियाणि परित्ता जेसि अवत्तव्वया तेसिं है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरको कालसे सिद्ध करके ले जाना चाहिये । } यहां नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरका कथन करना चाहिये यहां अल्पबहुत्व - मतिज्ञानावरणके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं । असंख्यातमाग वृद्धिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात भागहानिउदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यात भागवृद्धि उदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यात भागहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यातगुणवृद्धि उदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । असंख्यातगुणवृद्धि उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सब कर्मों के सम्बन्ध में अल्पबहुत्व करना चाहिये । जिन कर्मोंके अवक्तव्य उदीरक अनन्त हैं उनका अल्पबहुत्व कहा जाता है । वह इस प्रकार है- उनके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं । असंख्यात भागवृद्धि उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात भागहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यात भागवृद्धि उदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यात भागहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यातगुणवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात - गुणवृद्धि उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । जिन कर्मोंके उदीरक परीत संख्यावाले जीव हैं उनके यही अल्पबहुत्व आलाप करना चाहिये। जिन कर्मों के उदीरक अनन्त हैं, उनमें भी जिनका अवक्तव्य पद परीतसंख्याक जीवोंके होता है, उन ताप्रती ' भाणियव्को' इति पाठः । * अप्रतौ 'उदीरणा' इति पाठः । * मप्र तिपाठोऽयम् । अ-काप्रतिषु ' जेया ' इति पाठः । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उवसामणाउवक्कमो ( २७५ कम्माणं अवत्तव्वयादिसेसाणं पदाणं जहापरिवाडीए अप्पाबहुअं वत्तन्वं । एवं पदेसउदीरणा समत्ता । एवमुदीरणाउवक्कमो समत्तो। उवसामणाउवक्कमे उवसामणा णिक्खिविदव्वा । तं जहा-णाम-ढवणा-दवियभावुवसामणा चेदि उवसामणा चउव्विहा । णाम-ट्ठवणं गदं । आगमभावुवसामणा च गदा । णोआगमभावुवसामणा उवसंतो कलहो जुद्धं वा इच्चेवमादि। आगमदो दव्वुवसामणा सुगमा, णोआगमदो दव्वुवसामणा दुविहा कम्मउवसामणा गोकम्मउवसामणा चेदि । कम्मउवसामणा दुविहा करणुवसामणा अकरणुवसामणा चेदि । जा सा अकरणुवसामणा तिस्से दुवे णामाणि--अकरणुवसामणा ति च अणुदिण्णोवसामणा ति चळ । सा कम्मपवादे सवित्थरेण परूविदा । जा सा करणुवसामणा सा दुविहा देसकरणुवसामणा सव्वकरणुवसामणा चेदि । तत्थ सव्वकरणुवसामणाए अण्णाणि दुवे णामाणि गुणोवसामणा ति च पसत्थुवसामणा त्ति च । एसा सव्वकरणुवसामणा कसायपाहुडे परूविज्जिहिदि । जा सा देसकरणुवसामणा तिस्से अण्णाणि दुबे णामाणि अगुणोवसामणा कर्मोके अवक्तव्य उदीरक आदि शेष पदोंके अल्पबहुत्वका कथन परिपाटीक्रमके अनुसार करना चाहिये । इस प्रकार प्रदेश उदीरणा समाप्त हुई । इस प्रकार उदीरणा-उपक्रम समाप्त हुआ। उपशामनाउपक्रममें उपशामनाका निक्षेप करते हैं । यथा-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव उपशामनाके भेदसे उपशामना चार प्रकारकी है । उनमें नाम व स्थापना अवगत हैं । आगमभावोपशामना भी अवगत है । नोआगमभावोपशामना--जैसे कलह उपशान्त हो गया, अथवा यद्ध उपशान्त हो गया, इत्यादि । आगमद्रव्योपशामना सुगम है। नोआगमद्रव्योपशामना दो प्रकारकी है-कर्मद्रव्योपशामना और नोकर्मद्रव्योपशामना। इनमें कर्मद्रव्योपशामना दो प्रकारकी है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । जो वह अकरणोपशामना है उसके दो नाम हैं-अकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशामना। उसकी कर्मप्रवादमें विस्तारके साथ प्ररूपणा की गयी है जो वह करणोपशामना है वह दो प्रकार है-देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । उनमें सर्वकरणोपशामनाके दो नाम और है--गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना । इस सर्वकरणोपशामनाकी प्ररूपणा कषायप्राभतमें करेंगे । जो वह देशकरणोपशामना है उसके दो नाम और हैं--अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । 6 करणकया अकरणा वि य दुविहा उवसानण त्थ बिइयाए । अकरण-अणइन्नाए अणुयोगधरे पणिवयामि ।। क. प्र. ५, १ करणकय त्ति-इह द्विविधा उपशमना करगकृताऽकरणकृता च । तत्र करणं क्रिया यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणसाध्यः क्रियाविशेषः, तेन कृता करणकृता । तद्विपरीताऽकरणकृता । या संसारिणां जीवानां गिरि-नदीपाषाण वृत्ततादिसंभववद्यथाप्रवृत्तादिकरण क्रियाविशेषमन्तरेणापि वेदनानुभवनादिभि कारणरुपशमनोपजायते साऽकरणकृतेत्यर्थः । इदं च करणकृताकरणकृतत्वरूपं द्वैविध्यं देशोपशामनाया एव द्रष्टव्यम्। न सर्वोपशामनायाः; तस्याः करणेभ्य एव भावात् । मलय. तापतौ'जा करणवसामणा' इति पाठः ताप्रतौ 'गणोवसामया ति' इति पाठः । For Private & Personal use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ) छक्खंडागमे संतकम्म त्ति च अप्पसत्थुवसामणा ति च। एदाए पयदं । तत्थ अप्पसत्थुवसामणाए अट्टपदं। तं जहा- अप्पसत्थुवसामणाए जमुवसंतं पदेसग्गं तमोकड्डि, पि+ सक्कं, उक्कड्डिदं पि सक्क; पयडीए संकामिदं पि सक्कं, उदयावलियं पवेसि, * ण उ सक्कं । वुत्तं च-- उदए संकम-उदए चदुसु वि दाएं कमेण णो सक्कं । उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्मं ।। ४ ।। एदेण अट्ठपदेण सामित्तं तत्थ पुव्वं गमणिज्जं । सामित्तणिद्देसस्स पयदकरणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वकम्माणि चरित्तमोहणीयक्खत्रग-उवसामगाण*मणियट्टिपढमसमयं पविट्ठस्स चेव अप्पसत्थउवसामणाए अणुवसंताणि । दसणमोहणीयखवगउवसामगाणं अणुयट्टिकरणपढमसमयपविट्ठस्सेव दंसणमोहणीयं अप्पसत्थउवसामणाए अणुवसंतं होदि। सेसाणि सव्वकम्माणि तत्थ उवसंताणि अणुवसंताणि च । अणंताणुबंधिविसंजोयणाए अणुयट्टिपढमसमए पविठंतकाले * चेव अणंताणुबंधिचउक्कमप्पसस्थउवसामणाए अणुवसंतं। सेसाणि सव्वकम्माणि उवसंताणि अणुवसंताणि च । णत्थि यह यहां प्रकृत है। उनमें से अप्रशस्तोपशामनामें अप्रैपदका कथन करते हैं। यथा- अप्रशस्तोपशामनाके द्वारा जो प्रदेशाग्र उपशान्त होता है वह अपकर्षणके लिये भी शक्य है, उत्कर्षणके लिए भी शक्य है, तथा अन्य प्रकृतिमें संक्रमण कराने के लिये भी शक्य है। वह केवल उदयावलीम प्रविष्ट करानेके लिये शक्य नहीं है। कहा भी है जो कर्म उदयमें नहीं दिया जा सकता है वह उपशान्त, जो संक्रमण व उदय दोनोंम नहीं दिया जा सकता है वह निधत्त, तथा जो चारों ( उदय, संक्रमण, अपकर्षण व उत्कर्षण ) में भी नहीं दिया जा सकता है वह निकाचित कहा जाता है ।। ४ ।। __ इस अर्थपदके अनुसार प्रथमतः स्वामित्वका परिज्ञान कराना योग्य है । स्वामित्वनिर्देशपूर्वक प्रकृत करणका कथन करते हैं। यथा- चारित्रमोहनीयके क्षपक व उपशामकोंमेंसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट हुए जीवके ही सब कर्म अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा अनुपशान्त होते हैं। दर्शनमोहनीयके क्षपक व उपशामकोंमेंसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट हुए जीवके ही दर्शनमोहनीयकर्म अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा अनुपशान्त होता है। शेष सब कम वहां उपशान्त और अनुपशान्त भी होते हैं। अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनमें अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट होने के काल में ही अनन्तानुबन्धिचतुष्क अप्रशस्त उपशामनासे अनुपशान्त होता है । शेष सब कर्म उपशान्त और अनुपशान्त होते हैं। किसी भी कर्मका सब प्रदेशाग्र ४ सव्वस्स य देपस्स य करणुवसमगा दुन्नि एविकका। सबस्स गुण पसत्या देसस्स वि तासि विव. रीया।। क. प्र. ५, २. मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिष 'तमोकाइदं वरि' इति पाठः । ताप्रतौ ' उक्कड्डिदं व सक्कं ' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'पदेसिदं ' इति पाठः। । क. ४४०. * अप्रतौ ' -क्खवणउवसामगाण', का-ताश्त्योः 'क्खएण उवसामणाग' इति पा5:। अप्रतौ 'पविठंतक्काले', ताप्रती 'पवितकाले' इति पाठः, काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उवसामणा उवक्कमो ( २७७ कस्स वि कम्मस्स पदेसग्गं सव्वमुवसंतं णाम अधवा सव्वमणुवसंतं णाम, सव्वमुवसंतं च अणुवसंतं च । एदेण पयदकरणेण सामित्तं गदं होदि । . एत्तो एयजीवेण कालो । तं जहा--णाणावरणस्स उवसामगो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो वा । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियढें । सेससत्तण्णं कम्माणं णाणावरणभंगो। एयजीवेण अंतरं जह० * एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमढण्णं पि मूलपयडीणं। णाणाजीवेहि भंगविचओ। संतकम्मिएसु पयदं--णाणारवणस्स सिया सव्वे जीवा उवसामया, सिया उवसामया च अणुवसामया च, सिया उवसामया*च अणुवसामओ च । एवं तिण्णं घादिकम्माणं तिण्णि तिण्णि भंगा । अघादीणं उवसामया अणुवसामया च णियमा अस्थि । __णाणाजीवेहि कालो-- अटण्णं पि पयडीणं उवसामया सव्वद्धा । णाणाजीवेहि णत्थि अंतरं । अप्पाबहुअं--अट्टण्णं पि उवसामया तुल्ला । भुजगारउवसामया णत्थि। पदणिक्खेव-वड्ढिउवसामणा च णत्थि । एवं मूलपयडिउवसामणा समत्ता। उपशान्त अथवा सब अनुपशान्त नहीं होता, किन्तु सब प्रदेशाग्र उपशान्त भी होता है और अनुपशान्त भी होता है । इस प्रकृत करणके साथ स्वामित्व समाप्त होता है। __ यहां एक जीवकी अपेक्षा कालका वर्णन करते हैं। वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणका उपशामक जीव अनादि-अपर्यवसित. अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपयवसित होता है। उनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्थ पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । शेष सात कर्मोकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । इसी प्रकारसे आठों ही मूल प्रकृतियोंके सम्बन्धमें कहना चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविच यकी प्ररूपणा करते हैं। सत्कर्मिक जीव प्रकृत हैं-- ज्ञानावरणके कदाचित् सब जीव उपशामक, कदाचित् बहुत उपशामक व बहुत अनुपशामक, तथा कदाचित् बहुत उपशामक और एक अनुपशामक होता है । इस प्रकार से तीन घातिया कमों के तीन तीन भंग होते हैं । अघातिया कमों के बहुत उपशामक और बहुत अनुपशामक नियमसे होते हैं। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल--आठों ही प्रकृतियोंके उपशामक सर्व काल होते हैं । नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता । अल्पबहुत्व--आठों ही कर्मोंके उपशामक तुल्य होते हैं । भुजाकार उपशामक नहीं होते। पदनिक्षेप व वृद्धि उपशामना भी नहीं है । इस प्रकार मूलप्रकृतिउपशामना समाप्त हुई। * अ-काप्रत्यो: 'अंतरं जहा जह• ' इति पाठः। * प्रतिषु ' उबसामओ ' इति पाठः । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म उत्तरपयडिउवसामणा वुच्चदे । तं जहा-सामित्तं तेणेव पायदकरणेण पुवपरूविदेण परवेयध्वं । तं जहा--सव्वकम्माणमुवसामओ को होदि ? अण्णदरो। एयजीवेण कालो । तं जहा--सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्क० बे-छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणुस-तिरिक्खाउआणं जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं सादिरेय। उक्कस्सेण मणुस्साउअस्स तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, तिरिक्खाउअस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । देव-णिरयाउआणं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । णिरय-मणुसदेवगइ-तदाणुपुवी-वेउव्विय-आहारसरीर-वेउव्विय-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघादतित्थयर-उच्चागोदाणं जहा* संतकम्मियस्स कालो परूविदो तहा परूवेयव्वो। सेसाणं सव्वकम्माणं उवसामयकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो वा । जो* सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । एयजीवेण अंतरं-जेसि कम्माणं अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो वा उवसंतकालो तेसि कम्माणमुवसामयंतरं जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । जेसि उत्तरप्रकृति उपशामनाकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-स्वामित्वकी प्ररूपणा पूर्वप्ररूपित उसी प्रकृत करणके अनुसार करना चाहिये । यथा-सब कर्मोंका उपशामक कौन होता है ? सब कर्मोंका उपशामक अन्यतर जीव होता है। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है । यया-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उपशामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। मनुष्यायु और तिर्यगायुका उक्त काल जघन्यसे साधिक क्षुद्रभवग्रहण मात्र है। उत्कर्षसे वह मनुष्यायुका पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पत्योपम और तिर्यगायुका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । उक्त काल देवायु और नारकायुका जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। नरकगति, मनुष्यगति, देवगन, वे तीनों आनुपूर्वी प्रकृतियां, वैक्रियिक व आहारकशरीर, वैक्रियिक व आहारक शरीरांगोपांग, उनके बन्धन व संघात, तीर्थकर तथा उच्चगोत्र; इनके कालकी प्ररूपणा जैसे सत्कमिकके कालकी की गयी है वैसे करना चाहिये । शेष सब कर्मोंका उपशामककाल अनादि-अपर्यवसित, अनादिसपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित है। जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर-जिन कर्मोंका उपशान्तकाल अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित है उन कर्मोंके उपशामकका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे * मप्रतिपाठोऽयम । अ-का-ता- 'जहाकमेण ' इति पाठः । * ताप्रतौ 'वा। उवसंरकालो तेपि कम्माणं जो' इति पाठः । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उव+माणियोगद्दारे उवसामणा उक्कमो ( २७९ कम्माणं सादियसंतकम्मिओ जीवो तेसि कम्माणमुवसामयंतरं जह० एगसमओ, उक्क० जं जिस्से पयडीए संतकम्मस्स अंतरं उक्कस्सेण परूविदं तं परूवेयव्वं । णवरि देवाउअवज्जाणमाउआणं जह० अंतोमुहुत्तं । पाणाजीवेहि भंगविचओ--मदिआवरणस्स सिया सव्वे जीवा उवसामया' सिया उवसामया च अणुवसामओ च, सिया उवसामया च अणुसामया च । जहा मदिआवरणस्स तिणि भंगा परुविदा तहा सव्वपयडीणं पि तिष्णि तिष्णि भंगा परूवेयव्वा । णरि जासि पयडिसंतं सजोगिम्मि अत्थि तासिमुवसामया अणुवसामया च णियमा अत्थि । कालो -- णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । अंतरं-- णाणाजीवे * पडुच्च णत्थि अंतरं । अप्पा बहुअं । तं जहा -- सवन्त्योवा आहारसरीरणामाए उवसामया । सम्मत्तस्स उवसामया असंखे० गुणा । सम्मामिच्छत्तस्स उव० विसेसाहिया । मणुमाउअस्स असंखेज्जगुणा । णिरयाउअस्स असंखे० गुणा । देवाउअस्स असंखे० गुणा । देवगइणामाए संखे० गुणा । णिरयगइणामाए विसेसा० । वेउव्वियसरीरणामाए त्रिसेसा० वेउब्वियछक्कमुव्वेल्लिऊण पुव्वं देवदुगबंधगेप डुच्चा उच्चागोदस्स अनंतगुणा । मणुसगइणामाए अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। जिन कर्मोंका उपशामक सादिसत्कर्मिक जीव है उन कर्मों के उपशामकका अन्तर जवन्यसे एक समय और उत्कर्ष से जिस प्रकृति के सत्कर्मका जो अन्तर उत्कर्ष से बतलाया गया है उसको कहना चाहिये । विशेष इतना है कि देवायुको छोड़कर शेष आयु कर्मोंके उपशामकका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- मतिज्ञानावरणके कदाचित् सब जीव उपशामक होते हैं, कदाचित् बहुत उपशामक व एक अनुपशामक, तथा कदाचित् बहुत उपशामक व बहुत अनुपशामक होते हैं । जिस प्रकार ये मतिज्ञानावरणके तीन भंग कहे गये हैं उसी प्रकार सब ही प्रकृतियोंके तीन भंग कहना चाहिये । विशेष इतना है कि जिनका प्रकृतिसत्त्व सयोगकेवली में है उनके बहुत उपशामक व बहुत अनुपशामक नियमसे होते हैं । काल - नाना जीवों की अपेक्षा उपशामकोंका काल सर्वकाल है । अन्तर- नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर सम्भव नहीं है । अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - आहारशरीर नामकर्मके उपशामक सबमें स्तोक हैं । सम्यक्त्वके उपशामक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के उपशामक विशेष अधिक हैं । मनुष्यायुके उपशामक असंख्यातगुणे हैं । नारकायके उपशामक असंख्यातगुणे हैं | देवायुके उपशामक असंख्यातगुणे हैं । देवगति नामकर्मके संख्यातगुणे हैं । नरकगति नामकर्मके उपशामक विशेष अधिक हैं । वैक्रियिकशरीर नामकर्मके उपशामक विशेष अधिक हैं । इसका कारण यह है कि वैक्रियिकषट्ककी उद्वेलना करके पहिले देवद्विकके बन्धकोंकी अपेक्षा यह अल्पबहुत्व कहा है । उच्चगोत्र के उपशामक अनन्तगुणे हैं । मनुष्यगति नामकर्मके उपशामक विशेष अधिक हैं । तिर्यगायके उपशामक प्रतिषु 'नागाजीवेण ' इति पाठ: । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ) छक्खंडागमे संतकम्म विसेसा० । तिरिक्खाउअस्स विसेसा० । अणंताणुबंधीणं विसेसा० । मिच्छत्तस्स विसेसा० । सेसाणं कम्माणमुवसामया तुल्ला विसेसाहिया । एत्थ भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी च णत्यि । पयडिट्टाणुवसामणा- णाणावरण-दसणावरण-वेयणीय-अंतराइयाणमेक्कं चेव टाणं । गोदाउआणं दोण्णि द्वाणाणि । मोहणीयस्स अत्थि अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीसपणुवीस-चउवीस-एक्कवीसपयडिउवसामणटाणाणि । एदेसि ढाणाणं एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुरं भुजगारपदणिक्खेववड्ढिउवसामणाओ कायव्वाओ। णामस्स तिउत्तरसदं विउत्तरसदं छण्णवुदिपंचाणउदि-तिणउदि-चउरासीदि-वासीदि ति सत्तण्णं द्वाणाणमुवसामणा अत्थि, सेसाणं णत्थि । एवं पयडिउवसामणा समत्ता। ठिदिउवसामणा दुविहा मूलपयडिदिदिउवसामणा उत्तरपयडिदिदिउवसामणा चेदि । तत्थ मुलपयडिट्रिदिउवसामणाए ताव अद्धाच्छेदो वच्चदे। तं जहा- णाणावरणस्स उक्कस्सटिदिउवसामणा तीससागरोवमकोडाकोडीओ दोहि आवलियाहि ऊणाओ। जट्टिदिउवसामणा तीससागरोवमकोडाकोडीओ आवलियाए ऊणाओ। एवं दसणावरणीय-वेयणीय-अंतराइयाणं । मोहणीयस्स सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ दोहि उपशामक विशेष अधिक हैं । अनन्तानुबन्धी कषायोंके उपशामक विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वके उपशामक विशेष अधिक हैं । शेष कर्मोंके उपशामक तुल्य व विशेष अधिक हैं । यहां भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि की सम्भावना नहीं है। प्रकृतिस्थान उपशामना- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका एक ही उपशामनास्थान है । गोत्र व आयुके दो उपशामनास्थान हैं। मोहनीयके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतियोंके उपशामनास्थान हैं । एक जीवकी अपेक्षा इन स्थानोंके स्वामित्व, काल व अंतर एवं नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल व अन्तर तथा अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप व वृद्धि उपशामनाको करना चाहिये । नामकर्म सम्बन्धी एक सौ तीन, एक सौ दो, छयानवे, पंचानवै, तेरानवै चौरासी और ब्यासी प्रकृतियों रूप इन सात स्थानोंकी उपशामना है । शेष स्थानोंकी उपशामना नहीं है। इस प्रकार प्रकृतिउपशामना समाप्त हुई। स्थितिउपशामना दो प्रकार है- मूलप्रकृतिस्थितिउपशामना और उत्तरप्रकृतिस्थितिउपशामना। उनमें पहिले मलप्रकृतिस्थितिउपशामनाके अद्धाछेदकी प्ररूपणा की जाती वह इस प्रकार है- ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिउपशामना दो आवलियोंसे कम तीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र काल तक होती है । उसकी जस्थितिउपशामना एक आवलीसे कम तीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र काल तक होती है। इसी प्रकार दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थितिउपशामना तथा जस्थि उपशामनाका कथन करना चाहिये। मोह नीयकी उत्कष्ट स्थितिउपशामना दो आवलियोंसे कम सत्तर कोडाकोडि सागरोपम मात्र ने जाती है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवकमाणुयोगद्दारे उवसामणाउवक्कमो ( २८१ आवलियाहि ऊणाओ। आउअस्स पुवकोडितिभागेण सादिरेयतेत्तीसंसागरोवमाणि दोआवलिऊणाणि । जद्विदी आवलिऊणा। णामा-गोदाणं वीससागरोवमकोडाकोडीओ दोहि आवलियाहि ऊणाओ। जहण्णअद्धाच्छेदो--णाणावरण-दंसणावरण-वेयणीय-अंतराइयाणं जहण्णट्ठिदिउवसामणा सागरोवमस्स तिण्णि-सत्तभागा पलिदो० असंखे० भागेण ऊणया ।मोहणी. यस्स सागरोवमं पलिदो० असंखे० भागेण ऊणयं । णामा-गोदाणं सागरोवमस्स बे-सत्तभागा पलिदो० असंखे० भागेण ऊणया। आउअस्स खुद्दाभवग्गहणसंखेज्जदिभागो । एवमद्धाछेदो समत्तो। सामित्तं। तं जहा- सव्वकम्माणं जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए सामित्तं कदं तहा एत्थ वि कायव्वं । जहा अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णट्टिदिउदीरणासामित्तं कदं तहा द्विदिउवसामणासामित्तं ओघजहण्णम्मि कायव्वं । एयजीवेण कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरंसण्णियासो अप्पाबहुअंचेदि एदाणि अणुयोगद्दाराणि जहा अभवसिद्धियपाओग्गदिदिउदीरणाए कदाणि तहा एत्थ कायव्वाणि । भुजगारो* पदणिक्खेवो वड्ढी च जहा ट्ठिदिउदीरणाए कदा तहा टिदिउवसामणाए वि कायव्वा। उत्तरपयडि काल तक होती है। आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति उपशामना दो आवलियोंसे कम और पूर्वकोटित्रिभागसे साधिक तेतीस सागरोपम काल तक होती है। उसकी जस्थिति उपशामना एक आवलीसे कम उतनी मात्र होती है। नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिउपशामना दो आवलियोंसे कम बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र होती है । __ जघन्य अद्धाच्छेद- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकी जघन्य स्थितिउपशामना एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन तीन भाग प्रमाण होती है। वह मोहनीयकी पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम मात्र काल तक होती है। नाम व गोत्र कर्मकी एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन दो भाग मात्र होती है। आयुकी जघन्य स्थितिउपशामना क्षुद्रभवग्रहणके संख्यातवें भाग मात्र होती है। इस प्रकार अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणामें सब कर्मोका स्वामित्व किया गया है वैसे ही उसे यहां भी करना चाहिये। जिस प्रकारसे अभव्य सिद्धिक प्रायोग्य जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामित्व किया गया है उसी प्रकारसे ओघ जघन्यमें स्थितिउपशामनास्वामित्वको करना चाहिये। एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व ; इन अनुयोगद्वारोंको जैसे अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य स्थितिउदीरणामें किया गया है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिय। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा जसे स्थितिउदीरणामें की गयी है वैसे स्थितिउपशामनामें भी करना ० मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'आवलिऊणाणि' इति पाठः । * अप्रतौ ‘तहा कायव्वाणि एत्थ भुजगारो' इति पाठः । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२) छक्खंडागमे संतकम्म ट्ठिदिउवसामणाए जहा उत्तरपयडिट्ठिदिउदीरणाए परूवणा कदा तहा कायव्वा । एवं द्विदिउवसामणा समत्ता। अणुभागउवसामणा दुविहा मूलपयडिअणुभागुवसामणा उत्तरपयडिअणुभागुवसामणा चेदि । मूलपयडिअणुभागुवसामणा सुगमा। उत्तरपयडिअणुभागुवसामणाए पयदं- तत्थ उक्कस्सेण जहा उक्कस्सओ अणुभागसंतकम्मस्स पमाणाणुगमो कदो तहा उक्कस्सओ अणुभागुवसामणापमाणाणुगमो कायव्वो। जहा अक्खवय-अणुवसामयपाओग्गो जहण्णओ अणुभागसंतकम्मपमाणाणुगमो कदो तहा जहण्णगो अणुभागुवसामणापमाणाणुगमो कायव्वो। सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो च जहा अणुभागसंतकम्मस्स परूविदो तहा अणुभागुवसामणाए वि परूवेयव्वो । एत्तो अणुभागुवसामणाए तिव्वं-मंदप्पाबहुअं। तं जहा- उक्कस्सेण चउसद्रुिपदेहि जहा उक्कस्सए अणुभागबंधे अप्पाबहुअं कदं तहा एत्थ वि कायव्वं । एवं जहण्णं पि कायव्वं । एवमणुभागउवसामणा समत्ता । पदेसउवसामणा जाणिदूण परूवेयव्वा । विपरिणामउवक्कमो चउविहो पगदिविपरिणामणा द्विदिविपरिणामणा अणुभागविपरि० पदेसविपरि० चेदि । पयडिविपरिणामणा दुविहार मूलपयडिविपरिणामणा चाहिये । उत्तरप्रकृतिस्थितिउपशामनाकी प्ररूपणा जैसे उत्तरप्रकृतिउदीरणामें की गयी है वैसे ही यहां भी करना चाहिये । इस प्रकार स्थिति उपशामना समाप्त हुई । अनुभाग उपशामना दो प्रकारकी है- मूलप्रकृतिअनुभागउपशामना और उत्तरप्रकृतिअनुभागउपशामना। इनमें मूलप्रकृतिअनुभागउपशामना सुगम है। उत्तरप्रकृतिअनुभागउपशामना प्रकृत है- उसमें उत्कर्षसे जैसे उकृष्ट अनुभागसत्कर्मका प्रमाणानुगम किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट अनुभागउपशामनाके प्रमाणानुगमको करना चाहिये। जिस प्रकार अक्षपक और अनुपशामक प्रायोग्य जघन्य अनुभागसत्कर्मका प्रमाणानुगम किया गया है उसी प्रकारसे जघन्य अनुभागउपशामनाके प्रमाणानुगमको करना चाहिये। स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्षकी प्ररूपणा जैसे अनुभागसत्कर्ममें की गयी है वैसे ही उसे अनुभागउपशामनामें भी करना चाहिये। यहां अनुभागउपशामनामें तीव्र-मन्दताके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- उत्कर्षसे चौसठ पदोंके द्वारा जिस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागबन्धमें अल्पबहुत्व किया गया है वैसे ही यहां भी उसे करना चाहिये । इसी प्रकारसे उसके जघन्य अल्पबहुत्वको भी करना चाहिये । इस प्रकार अनुभागउपशामना समाप्त हुई । प्रदेश उपशामनाकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । विपरिणाम उपक्रम चार प्रकारका है- प्रकृतिविपरिणामना, स्थितिविपरिणामना, अनुभागविपरिणामना और प्रदेशविपरिणामना । इनमें प्रकृतिविपरिणामना दो प्रकार है- मूलप्रकृति 0 अ-का-ताप्रतिषु त्रुटितोऽयं अग्रिम 'दुविहा ' पदपर्यन्तः पाठो मप्रतितोऽत्र योजितः । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे रिपरिणामोववकमो ( २८३ उत्तरपडिविपरिणामणा त्ति । तत्थ मूलपयडिविपरिणामणा दुविहा देसविपरिणामणा सव्वविपरिणामणा चेदि । एत्थ अट्ठपदं--जासि पयडीणं देसो णिज्जरिज्जदि अधट्ठिदिगलणाए सा देसपयडिविपरिणामणा णाम । जा पयडी सव्वणिज्जराए णिज्जरिज्जदि सा सव्वविपरिणामणा णाम। एदेण अट्टपदेण मूलपयडिविपरिणामणाए सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो विपरिणामयाणमप्पाबहुअं च णेयत्वं । भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी च एत्थ णस्थि ।। उत्तरपयडिविपरिणामणाए अट्टपदं । तं जहा--णिज्जिण्णा पयडी देसेण सव्वणिज्जराए वा, अण्णपयडीए देससंकमणेण वा सन्वसंकमणेण वा जा संकमिज्जदि एसा उत्तरपयडिविपरिणामणा णाम । एदेण अट्ठपदेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो विपरिणामयाणमप्पाबहुअं च कायव्वं । भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी च णत्थि । पुणो पयडिठ्ठाणविपरिणामणा परूवेयव्वा । एवं पयडिविपरिणामणा समत्ता। द्विदिविपरिणामणाए अट्ठपदं--द्विदी ओवट्टिज्जमाणा वा उव्वट्टिज्जमाणावा अण्णं पर्याडं संकामिज्जमाणा वा विपरिणामिदा* होदि । एदेण अट्ठपदेण जहा ठिदिसंकमो तहा अविसेसेण द्विदिविपरिणामणा कायव्वा । विपरिणामना और उत्तरप्रकृतिविपरिणामना । उनमें मूलप्रकृतिविपरिणामना दो प्रकार है--देश विपरिणामना और सर्वविपरिणामना । यहां अर्थपद--जिन प्रकृतियोंका अधःस्थितिगलनके द्वारा एक देश निर्जराको प्राप्त होता है वह देशप्रकृतिविपरिणामना कही जाती है । जो प्रकृति सर्वनिर्जराके द्वारा निजराको प्राप्त होती है वह सर्वविपरिणामना कही जाती है । इस अर्थपदके अनुसार मूलप्रकृतिविपरिणामनाके स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और विपरिणामकोंके अल्पबहुत्वको भी ले जाना चाहिये। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि यहां नहीं हैं। उत्तरप्रकृति विपरिणामनामें अर्थपद । यथा-देशनिर्जरा अथवा सर्वनिर्जराके द्वारा निर्जीर्ण प्रकृति अथवा जो प्रकृति देशसंक्रमण या सर्वसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृति में संक्रमणको प्राप्त करायी जाती है यह उत्तरप्रकृतिविपरिणामना कहलाती है । इस अर्थपदके अनुसार स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और विपरिणामकोंके अल्पबहुत्वको भी करना चाहिये । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि यहां नहीं हैं । तत्पश्चात प्रकृतिस्थानविपरिणामनाकी प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार प्रकृतिविपरिणामना समाप्त हुई । स्थितिविपरिणामनामें अर्थपद--अपवर्तमान, उद्वर्तमान अथवा अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण करायी जानेवाली स्थिति विपरिणामिता । स्थितिविपरिणामना ) कहलाती है। इस अर्थपदके अनुसार जैसे स्थितिसंक्रम किया गया है वैसे ही निविशेष स्वरूपसे स्थितिविपरिणामनाको भी करना चाहिये । अ-काप्रत्योः ‘उवट्टिज्जमाणा', ताप्रतौ ' ( उ ) वड्ढि जमागा' इति पाठः । * अप्रतौ ‘विपरिणामदा' इति पाठः । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ) छक्खंडागमे संतकम्म अणुभागविपरिणामाए अट्ठपदं- ओकड्डिदो वि उक्कड्डिदो वि अण्णपडि णीदो वि अणुभागी विपरिणामिदो होदि । एदेण अट्ठपदेण जहा अणुभागसंकमो तहा हिरवयवं अणुभागविपरिणामणा कायव्वा । पदेसविपरिणामणाए अट्ठपदं- जं पदेसग्गं णिज्जिण्णं अण्णपडि वा संकामिदं सा पदेसविपरिणामणा णाम । एदेण अट्ठपदेण जारिसो पदेससंकमो तारिसी पदेसपरिणामणा। णवरि जंणिज्जरिज्जमाणं उदएण तमदिरेगं पदेससंकमादो विपरिणामणाए । एवमुक्कमो त्ति समत्तमणुओगद्दारं । अनुभागविपरिणामनामें अर्थपद- अपकर्षणप्राप्त, उत्कर्षणप्राप्त अथवा अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराया गया भी अनुभाग विपरिणामित होता है। इस अर्थपदके अनुसार जैसे अनुभागसंक्रन किया गया है वैसे ही पूर्णतया अनुभागविपरिणामनाको करना चाहिये । प्रदेशविपरिणामनामें अर्थपद- जो प्रदेशाग्र निर्जराको प्राप्त हुआ है अथवा अन्य प्रकृतिमें संक्रमणको प्राप्त हुआ है वह प्रदेशविपरिणामना कही जाती है। इस अर्थपदके अनुसार जैसे प्रदेशसंक्रम किया गया है वैसे ही प्रदेशविपरिणामनाको करना चाहिये । विशेष इतना है कि जो प्रदेशाग्र उदयके द्वारा निर्जीर्यमाण है वह प्रदेशसंक्रमसे विपरिणामनामें अधिक है। इस प्रकार उपक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारं १० पणमिय संतिजिणिदं घाइयणिस्सेसदोससंघायं । उदयाणुयोगदारं किंचि समासेण वण्णेहं ॥१॥ एत्तो उदओ कायन्वो- णामादिउदएसु एत्थ केण उदएण पयदं ? णोआगमो कम्मदव्वउदएण पयदं । सो कम्मदव्वुदओ चउवि हो। तं जहा- पयडिउदओ दिदिउदओ अणुभागउदओ पदेसउदओ चेदि । तत्थ पयडिउदओ दुविहो मलपयडिउदओ उत्तरपयडिउदओ चेदि । मूलपयडिउदओ चितिय वत्तव्यो। उत्तरपयडिउदए पयदं । तत्थ सामित्तं । तं जहा- पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं को वेदओ? सव्वो छदुमत्थो । पंचण्णं दसणावरणीयाणं को वेदओ? सरीरपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तमादि कादूण उवरिमो अण्णदरो तप्पाओग्गो वेदओ। णवरि थीणगिद्धितियस्स देव-णेरइय-अप्पमत्तसंजदा आहारसरीरमुट्ठावियपमत्तसंजदा च अवेदया। अण्णेसिमुवदेसेण एदे पुव्वुत्ता अवेदया होदण असंखेज्जवस्साउआ च उत्तरविउव्विदतिरिक्ख-मणुस्सा च अवेदया। सादासादाणमण्णदरो संसारत्थो तप्पाओग्गो वेदओ। मिच्छत्तं सव्वो मिच्छाइट्ठी वेदयदि, सम्मामिच्छत्तं सव्वसम्मामिच्छाइट्ठी सम्मत्तं समस्त दोषसंघातको नष्ट कर देनेवाले शांति जिनेन्द्रको नमस्कार करके मैं कुछ संक्षेपसे उदयानुयोगद्वारका वर्णन करता हूं ।। १ ।। यहां उदयकी प्ररूपणा की जाती है-- नाम उदयादिकोंमें यहां कौनसा उदय प्रकृत है ? यहां नोआगमकर्मद्रव्य उदय प्रकृत है । वह कर्मद्रव्य उदय चार प्रकारका है । यथा--प्रकृतिउदय, स्थिति उदय, अनुभागउदय और प्रदेश उदय । उनमें प्रकृतिउदय दो प्रकार है--मूलप्रकृतिउदय और उत्तरप्रकृतिउदय । मूलप्रकृतिउदयका कथन विचार कर करना चाहिये । उत्तरप्रकृतिउदय प्रकृत है । उसमें स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है । यथा--पांच ज्ञानावरण, चक्षु आदि चार दर्शनावरण, और पांच अन्तरायका वेदक कौन होता है ? इनके वेदक सभी छद्मस्थ जीव होते हैं। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका वेदक कौन होता है ? शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके द्वितीय समयवर्तीको आदि करके आगेका कोई भी तत्प्रायोग्य जीव उनका वेदक होता है। विशेष इतना है कि देव, नारकी, अप्रमत्तसंयत तथा आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाले प्रमत्तसंयत भी स्त्यानगद्धित्रिकके अवेदक होते हैं। अन्य आचार्योंके उपदेशके अनुसार ये पूर्वोक्त जीव स्त्यानगृद्धित्रिकके अवेदक होते हैं, इनके अतिरिक्त असंख्यातवर्षायुष्क तथा उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाले तिर्यंच व मनुष्य भी उसके अवदक होते हैं । साता व असाता वेदनीयका वेदक तत्प्रायोग्य अन्यतर संसारी जीव होता है। मिथ्यात्वका वेदन सब ही मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका वेदन सब Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ) छक्खंडागमे संतकम्म वेदयसम्माइट्ठी सव्वो । अणंताणुबंधीणं मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी वा वेदओ। अपच्चक्खाणकसायाणं असंजदो वेदओ। पच्चक्खाणवरणीयस्स को वेदओ? असंजदो संजदासंजदो वा वेदओ। तिण्णं संजलणाणं अप्पप्पणो बंधज्झवसाणेसु वट्टमाणओ। लोहसंजलणाए को वेदओ ? अण्णदरो सकसाओ। छण्णं णोकसायाणं को वेदओ ? अण्णदरो णियट्टिम्ह० वट्टमाणगो। णवरि पढमसमयदेवो णियमा साद-हस्स-रदीणं वेदगो। पढमसमयणेरइओ णियमा असाद-अरदि-सोगाणं वेदओ । पुरिसवेदं पुरिसो, इत्थिवेदमित्थी, णवंसयवेदं णवंसओ वेदेदि । ___ मणुसाउअं सव्वो मणुस्सो, णिरयाउअं सव्वो रइओ, तिरिक्खाउअं सवो तिरिक्खो, देवाउअं सव्वो देवो वेदेदि । मणुसगइं मणुस्सो, णिरयगई णेरइओ, तिरिक्खगई तिरिक्खो, देवगई देवो वेदेदि। जादिणामाणं गदिभंगो। ओरालियसरीरस्स को वेदगो ? ओरालियसरीरो सजोगो।ओरालियसरीरबंधण-संघादाणं ओरालिलयसरीरभंगो। ओरालियसरीरअंगोवंग-वेउव्विय-आहारसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघादाणं को वेदगो ? सत्थाणे आहारओ। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यक्त्वका वेदन सब वेदकसन्यग्दृष्टि करते हैं। अनन्तानुबन्धी कषायोंका वेदक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषायोंका वेदक असंयत होता है । प्रत्याख्यानावरणका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक असंयत और संयतासंयत होता है। तीन संज्वलन कषायोंका वेदक अपने अपने बन्धाध्यवसानोंमें वर्तमान जीव होता है। संज्वलनलोभका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक अन्यतर सकषाय जीव होता है। छह नोकषायोंका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक निवृत्ति अवस्थामें वर्तमान ( मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण तक ) अन्यतर जीव होता है। विशेष इतना है कि प्रथम समयवर्ती देव नियमसे सातावेदनीय, हास्य और रतिका वेदक होता है। प्रथम समयवर्ती नारकी नियमसे असातावेदनीय, अरति और शोकका वेदक होता है। पुरुषवेदका वेदन पुरुष, स्त्रीवेदका वेदन स्त्री, और नपुंसकवेदका वेदन नपुंसक करता है। मनष्यायका वेदन सब मनुष्य, नारकायका वेदन सब नारकी, तिर्यगायुका वेदन सब तिर्यंच और देवायुका वेदन सब देव करते हैं । मनुष्यगतिका वेदन मनुष्य, नरकगतिका वेदन नारकी, तिर्यग्गतिका वेदन तिर्यंच और देवगतिका वेदन देव करता है । जाति नामकर्मोके उदयकी प्ररूपणा गतिनामकर्मोंके समान है। औदारिकशरीरका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक औदारिकशरीरसे संयुक्त सयोग जीव होता है। औदारिकशरीरबन्धन और संघातके उदयकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान है। औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, इन दोनोंके अंगोपांग, बन्धन और संघातका वेदक कौन होता है ? इनका वेदक स्वस्थानमें वर्तमान आहारक जीव होता है। तैजस और ४ अ-ताप्रत्यो: 'अणियट्टिम्हि ' इति पाः । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे सामित्तं ( २८७ तेजा-कम्मइय-तप्पाओग्गबंधण-संघादाणं-को वेदओ? सव्वो सजोगो। छण्णं संठाणाणं को वेदओ? आहारओ* सजोगो । छण्णं संघडणाणं को वेदओ? जो जेण आहारओ सो णियमा वेदओ। वण्ण-गंध-रस-फासाणं को वेदओ? सव्वो सजोगो । तिण्णमाणुपुवीणं को वेदओ ? पढमसमयतब्भवत्थो बिदियसमयतब्भवत्थो त्रा। तिरिख्खाणुपुवीए वेदओ को होदि ? पढमसमय-दुसमय-तिसमयतब्भवत्थो वा । अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिणणामाणं को वेदओ ? सव्वो सजोगो। उवघादस्स को वेदओ ? आहारओ । परघादस्स को वेदओ ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो सजोगो। आदावुज्जोवाणं को वेदओ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो तप्पाओग्गो। उस्सासस्स आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदो जाव चरिमसमयउस्सासणिरोहकारओ त्ति ताव वेदओ।पसत्थापसत्थविहायगईणं को वेदगो? तसो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो सजोगो।तस-बादर-पज्जत्तणामाणं को वेदओ? सजोगो अजोगो वा। पत्तेयसरीरस्स को वेदओ? आहारओ। थावर-सुहुम-अपज्जत्तणामाणं को वेदओ ? थावर-सुहुम कार्मण शरीर तथा तत्प्रायोग्य बन्धन व संघातका वेदक कौन होता है ? इनके वेदक सभी सयोग प्राणी होते हैं। छह संस्थानोंका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक योगसहित आहारक जीव होता है। छह संहननोंका वेदक कौन होता है ? जो जिस संहननसे आहारक है वह नियमसे उसका वेदक होता है । वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शका वेदक कौन होता है ? उनके वेदक योग सहित सब जीव होते हैं। तीन आनुपूर्वी नामकर्मोंका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ अथवा द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ जीव होता है । तिर्यगानुपूर्वीका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक प्रथम समयवर्ती, द्वितीय समयवर्ती अथवा तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ जीव होता है । अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण नामकर्मोका वेदक कौन होता है ? इनके वेदक सब योग सहित प्राणी होते हैं। उपघातका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक आहारक जीव होता है । परघातका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ सयोग प्राणी होता है। आतप और उद्योतका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ तत्प्रायोग्य जीव होता है। उच्छ्वासका वेदक आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ जीव जब तक चरम समयवर्ती उच्छ्वासनिरोधकारक है तब तक होता है। प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतियोंका वेदक कौन होता है? उनका वेदक शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ योगसे संयुक्त त्रस जीव है। त्रस, बादर और पर्याप्त नामकर्मोंका वेदक कौन है? उनका वेदक योगसे सहित और उससे रहित भी जीव होता है। प्रत्येकशरीरका वेदक कौन है ? उसका वेदक आहारक जीव होता है । स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्त नामकर्मोंका वेदक कौन होता है ? उनके वेदक क्रमशः स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्त * ताप्रतौ ' आहारो' इति पाठः । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ) छक्खंडागमे संतकम्म अपज्जत्तया। साहारणसरीरस्स को वेदओ? आहारओ। जसकित्ति -सुभग-आदेज्जाणं को वेदओ ? सजोगो अजोगो वा। अजसकित्ति-भग अणादेज्जाणं को वेदओ ? अगुणपडिवण्णो अण्णदरो तप्पाओग्गो। तित्थयरणामाए को वेदओ ? सजोगो अजोगो वा। उच्चागोदस्स तित्थयरभंगो। णीचागोदस्स अणादेज्जभंगो। सुस्सरदुस्सराणं को वेदओ ? भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदो जाव भासाणिरोहस्स अकारओ त्ति । एवं सामित्तं समत्तं ।। एगजीवेण कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो त्ति एदाणि अणुयोगद्दाराणि सामित्तादो साहेदूण वत्तव्वाणि । एत्तो अप्पाबहुअं पि जहा पयडिउदीरणाए कदं तहा कायव्वं । णवरि णाणत्तं-मणुसगइणामाए मणुस्साउअस्स च तुल्ला वेदया। एवं सेसाणं पि गदि-आउआणं च । पवाइज्जतेण उवएसेण हस्सरदिवेदएहितो सादवेदया जीवा विसेसा० । केत्तियमेत्तेण? संखेज्जजीवमेत्तेण । अण्णेण उवएसेण सादवेदएहितो हस्स-रदिवेदया विसेसा० असंखे० भागमेत्तेण । जुत्तीए च विसेसाहियत्तं णव्वदे। तं जहा--सव्वो आउअघादओ णियमा जेण असादवेदओ हस्स-रदीसु भज्जो तेण सादवेदएहितो हस्स-रदिवेदया असंखेज्जा* भागा जीव होते हैं। साधारणशरीरका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक आहारक जीव होता है । यशकीति, सुभग और आदेयका वेदक कौन होता है ? इनका वेदक योग सहित और उससे रहित भी जीव होता है। अयशकीति, दुर्भग और अनादेयका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक गुणप्रतिपन्नसे भिन्न तत्प्रायोग्य अन्यतर जीव होता है। तीर्थकर नामकर्मका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक सयोग व अयोग जीव होता है। उच्चगोत्रके उदयका कथन तीर्थंकर प्रकृतिके समान है। नीचगोत्रके उदयका कथन अनादेयके समान है। सुस्वर और दुस्वरका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ जीव जब तक भाषाके निरोधको नहीं करता तब तक होता है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिवर्ष; इन अनुयोगद्वारोंका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । अल्पबहुत्व भी जैसे प्रकृतिउदीरणामें किया गया है वैसे ही उसे यहां भी करना चाहिये । परंतु यहां इतनी विशेषता है- मनुष्यगति नामकर्म और मनुष्यायुके वेदकोंकी संख्या समान है। इसी प्रकार शेष भी गतिनामकर्मों और आयु कर्मोके सम्बन्धमें कहना चाहिये । परस्पराप्राप्त उपदेशके अनुसार हास्य और रतिके वेदकोंसे सातावेदनीयके वेदक जीव विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे वे विशेष अधिक हैं ? संख्यात जीव मात्रसे विशेष अधिक हैं। अन्य उपदेशके अनुसार सातावेदनीयके वेदकोंकी अपेक्षा हास्य व रतिके वेदक असंख्यातवें भाग मात्रसे विशेष अधिक हैं। इनकी विशेषाधिकता युक्तिसे भी जानी जाती है। यथा- आयुके घातक सब जीव नियमसे असाता वेदक होकर भी चूंकि हास्य व रतिके वेदनमें भजनीय हैं इसीलिए सातावेदकोंकी + प्रतिष — अजसकित्ति- ' इति पारः। * काप्रती ' असंखेज्जदि' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ‘अणेण' इति पाठः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे ठिदिउदयपमाणाणुगमो ( २८९ विसेसा० । अरदि-सोगवेदया थोवा । असादवेदया विसे० । के० मेत्तेण? पवाइज्जतेण उवदेसेण संखेज्जजीवमेत्तेण विसे० । अण्णण : उवदेसेण असंखे० भागमेत्तेण विसे० । एदाणि पयडिउदीरणअप्पाबहुआदो पयडिउदयअप्पाबहुअस्स णाणताणि । भुजगारपदणिवखेव -वड्ढीओ णत्थि । जहा पयडिट्ठाणउदीरणा तहा पयडिट्ठाणउदओ वि कायव्वो। एवं पयडिउदओ समत्तो। एत्तो टिदिउदओ दुविहो मूलपयडिटिदिउदओ उत्तरपयडिदिदिउदओ चेदि । मूलपयडिटिदिउदए अट्ठपदं--उदओ दुविहो पओअसा टिदिक्खएण चेदि । दिदिक्खओ उदओ सुगमो । जो सो पओअसा उदओ सो दुविही संपत्तीदो सेचीयादो च। संपत्तीदो* एगा दिदी उदिण्णा, संपहि उदिण्णपरमाणू णमेगसमयावट्ठाणं मोत्तूण दुसमयादिअवट्ठाणंतराणुवलंभादो। सेचीयादो अणेगाओ द्विदीओ उदिण्णाओ, एण्हि जं पदेसग्गं उदिण्णं तस्स दव्वट्टियणयं पडुच्च पुब्विल्लभावोवयारसंभवादो। एदेण अट्ठपदेण द्विदिउदयपमाणाणुगमो चउन्विहो उक्कस्सो अणुक्कस्सो जहण्णो अजहण्णो चेदि । णाणावरणस्स उक्कस्सओ टिदिउदओ तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ दोहि आवलियाहि समऊणाहि ऊणाओ। दसणावरण-वेयणीय-अंतराइयाणं णाणा अपेक्षा हास्य व रतिके वेदक असंख्यातवें भागसे विशेष अधिक हैं । अरति व शोकके वेदक स्तोक हैं । उनसे असातावेदनीयके वेदक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे वे अधिक हैं ? पारम्परित उपदेशके अनुसार वे संख्यात जीव मात्रसे विशेष अधिक हैं। अन्य उपदेशके अनुसार वे असंख्यातवें भाग मात्रसे विशेष अधिक हैं । प्रकृति उदीरणा सम्बन्धी अल्पबहुत्वसे प्रकृति उदय सम्बन्धी अल्पबहुत्वमें ये ही कुछ विशेषतायें हैं । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि यहां नहीं हैं। जैसे प्रकृतिस्थान उदीरणा की गयी है वैसे ही प्रकृतिस्थान उदयको भी करना चाहिये । इस प्रकार प्रकति उदय समाप्त हआ। यहां स्थितिउदय दो प्रकारका है-मूलप्रकृतिस्थितिउदय और उत्तरप्रकृतिस्थितिउदय । मूलप्रकृतिस्थितिउदयके विषयमें अर्थपद-प्रयोगजनित और स्थितिक्षयजनितके भेदसे उदय दो प्रकारका है । उनमें स्थितिक्षयजनित उदय सुगम है। जो वह प्रयोगजनित उदय है वह दो प्रकारका है-संप्राप्तिजनित और निषेकजनित । संप्रातिप्की अपेक्षा एक स्थिति उदीर्ण होती है, क्योंकि, इस समय उदयप्राप्त परमाणुओंके एक समय रूप अवस्थानको छोड़कर दो समय आदि रूप अवस्थानांतर पाया नहीं जाता । निषेककी अपेक्षा अनेक स्थितियां उदीर्ण होती हैं, क्योंकि, इस समय जो प्रदेशाग्र उदीर्ण हुआ है उसके द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा पूर्वीयभावके उपचारकी सम्भावना है। इस अर्थदपके अनुसार स्थिति उदयप्रमाणानुगम चार प्रकार है-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य । ज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिउदय एक समय कम दो आवलियोंसे हीन तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है । दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायके स्थितिउदयका प्रमाण ज्ञानावरणके * अ काप्रत्योः 'अणेग' इति पाठः। ४ प्रतिष 'णाणताणं' इति पाठः। अ-काप्रत्यो: •णिक्खेवो' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'चे द्विदिक्खाओदओ' इति पाठः। ताप्रतौ'संपत्ती' इति पाठः। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ) छक्खंडागमे संतकम्म वरणीयभंगो। मोहणीयस्स सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ दोहि आवलियाहि सम - ऊणाहि ऊणाओ। आउअस्स तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊणाए आवलियाए ऊणाणि । णामा-गोदाणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि समऊणाहि ऊणाओ। जहण्ण टिदिउदयपमाणाणुगमो। तं जहा- अण्णं पि? मुलपयडीणं जहण्णओ द्विदिउदओ एगा ट्ठिदी। एत्तो सामित्तं । तं जहा- उक्कस्सट्ठिदिउदयसामित्तं जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए परूविदं तहा परूवेयव्वं । जहण्णद्विदिउद० सामी* उच्चदेणाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयाणं जहण्णढिदिउदओ कस्स? चरिमसमयछदुमत्थमादि कादूण जाव आवलियचरिमसमयछदुमत्थो त्ति । मोहणीयस्स जहण्णट्ठिदिउदओ* कस्स? चरिमसमयसकसायस्स, तमादि काऊण जाव आवलियचरिमसमयसकसाओ ति। णामा-गोदाणं जहण्णढिदिउदओ कस्स? पढमसमयअजोगिस्स, तमादि कादूण जाव चरिमसमयभवसिद्धिओ ति। आउअ-वेदणीयाणं जहण्णट्ठिदिउदओ कस्स ? पढमसमयअप्पमत्तस्स, तमादि कादूण जाव चरिमसमयभवसिद्धिओ त्ति । आउअस्स अण्णो वि जहण्णटिदिउदओ अस्थि जस्स आउअमुदयावलियं पविळं। समान है। मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिउदय एक समय कम दो आवलियोंसे हीन सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। आयुका उत्कृष्ट स्थितिउदय एक समय कम एक आवलीसे हीन तेतीस सागरोपम प्रमाण है। नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थिति उदय एक समय दो आवलियोंसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र है। जघन्य स्थिति उदयके प्रमाणानुगमका कथन करते हैं । यथा- आठों ही मूल प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति उदयका प्रमाण एक स्थिति है। अब यहां स्वामित्वकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- उत्कृष्ट स्थितिउदयके स्वामित्वकी प्ररूपणा जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणामें की गयी है वैसे ही यहां भी करना चाहिये। जघन्य स्थितिउदयके स्वामित्वका कथन करते हैं-- ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका जघन्य स्थितिउदय किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थको आदि लेकर जिसके अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ होने में आवली मात्र काल तक शेष है उसके होता है। मोहनीयका जघन्य स्थिति उदय किसके होता है ? वह अंतिम समयवर्ती सकषाय जीवके तथा उसको आदि लेकर जिसके चरम समयवर्ती सकषाय होने में आवली मात्र काल तक शेष है उसके होता है। नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिउदय किसके होता है ? वह प्रथम समयवर्ती अयोगीके तथा उसको आदि करके चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तकके होता है । आयु और वेदनीयका जघन्य स्थितिउदय किसके होता है ? वह प्रथम समयवर्ती अप्रमत्तके तथा उसको आदि करके चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तकके होता है । आयुका अन्य भी जघन्य स्थितिउदय उसके होता है जिसका आयु कर्म उदयावलीमें प्रविष्ट है । ४ ताप्रती ( सम ) इति पाठः । * 'एतो सामित्तं' इत्यतः प्राकानोऽयं पाठस्ताप्रतौ नास्ति । 0 अप्रतो 'अठं पि' इति पाठः। * अ-का-प्रत्योः '-टिदिउदओ सामी.' इति पाठः । तारती -ट्ठिदि ( ओ ) उदओ' इति पाठः । _Jain Education i Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयानुयोगद्दारे एगजीवेण अंतरं ( २९१ जीवेण कालो । तं जहा जहा उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो परूविदो तहा उक्कस्सट्ठिदिउदयकालो वि परूवेयव्वो । जहण्णट्ठिदिउदओ । तं जहा - णामा- गोदवेदणिज्जाणं जहणट्ठिदिउदओ ! केवचिरं० ? जहण्णुक्क अंतोमुहुत्तं । नवरि वेयणीय० जह० एयसमओ, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । आउअस्स जह० ट्ठिदिउदओ केव० ? जह० एगावलिया, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । चदुष्णं पि घाइकम्माण जह० केवचिरं० ? जहण्णुक्क० आवलिया । सत्तण्णं कम्माणमजहण्णट्ठिदिउदयकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो । मोहणीयं वेयणीयं च पडुच्च सादिओ सपज्जवसिदो । तस्स जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उबड्ढपोग्गलपरियहं । आउअस्स अजहण्णट्ठिदिवेदयकालो जह० अंतमुत्तमेगसमओवा, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि आवलियूणाणि । जीवेण अंतरं । जहा - जहाQ उक्कस्सट्ठिदिउदीरयंतरं परूवियं तहा उक्कस्सट्ठिदिवेदयंतरं परूवेयव्वं । आउअस्स जहण्णद्विदिवेदयंतरं जह० खुद्दाभवग्गहणं आवलियूणं एगसमओ वा, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि । पंचग्ण कम्माणं जहण्णद्विदिवेदयंतरं णत्थि । मोहणीय-वेदणीयाणं जहण्णट्ठिदिवेदयंतरं जह० एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा के कालकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही उत्कृष्ट स्थितिउदय के कालकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । जघन्य स्थितिउदयकी प्ररूपणा की जाती है । यथा नाम, गोत्र और वेदनीयका जघन्य स्थितिउदय कितने काल रहता है ? वह जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त रहता है। विशेष इतना है कि वेदनीयके जघन्य स्थितिउदयका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि मात्र है । आयुकर्मका जघन्य स्थितिउदय कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक आवली और उत्कर्ष से कुछ कम पूर्वकोटि मात्र रहता है। चारों ही घातिया कर्मोंका जघन्य स्थितिउदय कितने काल रहता है ? वह जघन्य व उत्कर्ष से एक आवली मात्र रहता है। सात कर्मोंके अजघन्य स्थितिउदयका काल अनादि अपर्यवसित व अनादि सपर्यवसित है। मोहनीय व वेदनीयकी अपेक्षा वह सादि सपर्यवसित है । उसका जो सादि सपर्यवसित काल है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । आयुकी अजघन्य स्थितिका वेदककाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त अथवा एक समय और उत्कर्ष से आवली कम तेतीस सागरोपम मात्र है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका कथन करते हैं। यथा- जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिउदीरकके अन्तरकी प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिवेदककें अन्तरकी भी प्ररूपणा करना चाहिये | आयुकर्मके जघन्य स्थितिवेदकका अन्तर जघन्यसे आवली कम क्षुद्रभवग्रहण अथवा एक समय और उत्कर्षसे आवली कम तेतीस सागरोपम मात्र होता है। पांच कर्मोंके जघन्य स्थितिवेदकका अन्तर नहीं होता। मोहनीय और वेदनीयके जघन्य स्थितिवेदकका अंतर जघन्य प्रतिष -द्विदिउदीरओ' इति पाठ: । D प्रतिषु अणक्क इति पार: । 'आवलियाए', कापती' आवलिया इति पाठ: । सपज्जवसिदो इत्येतावान् पाठो नोपलभ्यते । T 2 7 " , * अप्रती 4 अ-काप्रत्योः तस्स जो सो सादिओ ) ताप्रती नोपलभ्यते पदमिदम् । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२) छक्खंडागमे संतकम्म अंतोमुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो त्ति एदाणि अणुयोगद्दाराणि जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए कदाणि तहा उक्कस्सटिदिउदए कादध्वाणि । एदाणि चेव जहण्णट्ठिदिउदए वत्तइस्सामो। तं जहा-भंगविचए ताव अद्रुपदं । जो जहण्णट्ठिदीए वेदओ सो अजहण्णद्विदीए णियमा अवेदओ, जो अजहण्णद्विदीए वेदगो सो जहण्णद्विदीए णियमा अवेदओ, । जाओ पयडीओ वेदयदि तासु पयदं, अवेदएसु अब्ववहारो। एदेण अटुपदेण आउअ-वेदणिज्जाणं जहणियाए द्विदीए णाणाजीवा वेदया णियमा अस्थि । सेसाणं कम्माणं जहण्णदिदीए सिया सत्वे जीवा अवेदया, सिया अवेदया च वेदओ च, सिया अवेदया च वेदया च । एवं तिष्णिभंगा। अजहणियाए* द्विदीए वेदयाणं तन्विवरीएण तिण्णिभंगा वत्तव्वा । णाणाजीवेहि कालो-आउअ-वेदणिज्जाणं जहण्णढिदिवेदया केवचिरं०? सव्वद्धा। णामा-गोदाणं जहण्णट्ठिदिवेदया केवचिरं०? णाणाजीवे पडुच्च जहष्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । सेसाणं कम्माणं जहण्णढिदिवेदया जह० आवलिउवसामगं पडुच्च मोहणीयस्स एगसमओ वा, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अढण्णं पि कम्माणं अजहण्णढिदिवेदयाणं णाणा से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष; इन कथन अनुयोगद्वारोंका जैसे उत्कृष्ट स्थिति उदीरणामें किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट स्थितिउदयमें भी करना चाहिये। इन्हींका कथन जघन्य स्थितिउदय में किया जाता है। यथापहिले भंगविचयमें अर्थपद बतलाते हैं। जो जीव जघन्य स्थितिका वेदक होता है वह अजघन्य स्थितिका नियमसे अवेदक होता है. जो अजघन्य स्थितिका वेदक होता है वह जघन्य स्थितिका नियमसे अवेदक होता है। जिन प्रकृतियोंका वेदन करता है वे प्रकृत हैं, अवेदकोंमें व्यवहार नहीं है । इस अर्थपदके अनुसार आयु और वेदनीयकी जघन्य स्थितिके वेदक नाना जीव नियमसे हैं। शेष कर्मोकी जघन्य स्थितिके कदाचित सब जीव अवेदक, कदाचित् बहुत अवेदक व एक वेदक, तथा कदाचित् अवेदक भी बहुत और वेदक भी बहुत ; इस प्रकार तीन भंग हैं। इनकी अजघन्य स्थितिके वेदकोंके तीन भंग पूर्वोक्त भंगोंकी अपेक्षा विपरीत ( कदाचित् सब जीव वेदक, कदाचित् बहुत वेदक व एक अवेदक, तथा कदाचित् बहुत वेदक और बहुत अवेदक भी ) क्रमसे कहने चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा काल-आयु और घेदनीयकी जघन्य स्थितिके वेदक कितने काल रहते हैं ? सर्वकाल रहते हैं। नाम व गोत्र कर्मोकी जघन्य स्थितिके वेदक कितने काल रहते हैं ? वे नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं शेष कर्मोकी जघन्य स्थितिके घेदक जघन्यसे आवली मात्र, अथवा उपशामककी अपेक्षा मोहनीयकी उक्त स्थितिके वेदक जघन्यसे एक समय तथा उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र रहते हैं। आठों ही कर्मों सम्बन्धी ४ अ-काप्रत्यो: 'उदीरणा' इति पाठः। मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-नापतिष 'च तिपिणभंगा अजहणियाए 'इति पार: । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे सण्णियासो ( २९३ जीवे पडुच्च सव्वद्धं । ___णाणाजीवेहि अंतरं- आउअ-वेदणिज्जाणं जहण्णढिदिवेदयाणं णत्थि अंतरं। सेसाणं कम्माणं जहण्णट्ठिदिवेदगंतरं* जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा। सणियासो। तं जहा- णाणावरणस्स जहण्णद्विदिवेदओ मोहणीयस्स अवेदओ, णामा-गोदाणं णियमा अजहण्णढिदिवेदओ, जहण्णादो अजहण्णा असंखेज्जगुणब्भहिया। सेसाणं कम्माणं णियमा जहण्णढिदिवेदओ। दसणावरणंतराइयाणं णाणावरणभंगो। वेदणीयस्स जहण्णद्विदिवेदओ चदुण्णं घादिकम्माणं सिया वेदओ सिया णोवेदओ। जदि वेदओ सिया जहण्णं सिया अजहण्णं वेदेदि। जदि अजहण्णं दुगुणमादि कादूण णिरंतरं जाव असंखे० गुणं वेदेदि। आउअस्स णियमा जहण्णं वेदेदि। णामागोदा जहण्णमजहण्णं वा वेदेदि । जदि अजहण्णं णियमा असंखे० गुणं वेदेदि। जहा वेयणीयं घाइकम्मेहि सण्णिकासिदं तहा आउअं पि घाइकम्मेहि सण्णिकासियव्वं ।। आउअस्स जहणढिदिवेदओ णामा-गोद -वेदणिज्जाणं जहण्णटिदिमजहण्णदिदि वा वेदेदि। जदि अजहण्णं णियमा असंखे० गुणं। णामा-गोदाणं जहण्णट्ठिदिवेदओ अजघन्य स्थितिके वेदकोंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर- आयु और वेदनीयकी जघन्य स्थितिके वेदकोंका अन्तर नहीं होता। शेष कर्मोंकी जघन्य स्थितिके वेदकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास प्रमाण होता है। अब संनिकर्षकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका वेदक मोहनीयका अवेदक तथा नाम व गोत्रकी नियमसे अजघन्य स्थितिका वेदक होता है। जघन्यकी अपेक्षा वह अजघन्य स्थिति असंख्यातगुणी अधिक है। वह शेष कर्मोंकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदक होता है। दर्शनावरण और अन्तरायके संनिकर्षकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । वेदनीयकी जघन्य स्थितिका वेदक चार घाति कर्मोंका कदाचित् वेदक और कदाचित् नोवेदक होता है। यदि वह वेदक होता है तो कदाचित् जघन्य और कदाचित् अजघन्य स्थितिका वेदन करता है। यदि वह अजघन्य स्थितिका वेदन करता है तो दुगुणी स्थितिको आदि करके निरन्तर असंख्यातगुणी तकका वेदन करता है। वह आयु कर्मकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदन करता है, नाम व गोत्रकी जघन्य अथवा अजघन्यका वेदन करता है । यदि वह अजघन्यका वेदन करता है तो नियमसे असंख्यातगुणीका वेदन करता है। जिस प्रकार घातिया कर्मों के साथ वेदनीयका संनिकर्ष बतलाया गया है उसी प्रकारसे घातिया कर्मोंके साथ आयु का भी संनिकर्ष बतलाना चाहिये । आयु कर्मकी जघन्य स्थितिका वेदक जीव नाम, गोत्र और वेदनीयकी जघन्य स्थिति अथवा अजघन्य स्थितिका वेदन करता है। यदि वह अजघन्य स्थितिका वेदन करता है तो नियमसे ४ प्रतिष 'वेदणीयाणं' इति पाठः। * अप्रतौ 'वेदगंतं ' , काप्रतौ ' वेदगं', तापतौ ' वेदगतं' इति पाठः। अ-का-ताप्रतिषु 'जहण्णादो अजहण्णा असंखेज्जगणब्भहिया। सेसाणं कम्पाणं णियमा जहण्णद्विदिवेदओ' इत्ययं पाठो नास्ति, मप्रतितोऽत्र योजितः सः। * अप्रतौ 'गोदाणं ' इति पाठः । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ) छक्खंडागमे संतकम्म आउअ-वेदणिज्जाणं णियमा जहण्णट्टिदि वेदेदि। सेसाणमवेदगो । मोहणिज्जस्स जहण्णट्ठिदिवेदओ आउअ-वेदणिज्जाणं णियमा जहण्णट्ठिदिवेदगो। सेसाणं कम्प्राणं णियमा अजहण्णं असंखेज्जगुणं वेदगो। एवं सण्णियासो समत्तो।। एतो अप्पाबहुअं। तं जहा- जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए अप्पाबहुअं कदं तहा उक्कस्सट्ठिदउदीए कायव्वं । जहण्णढिदिउदए अप्पाबहुअं। तं जहा- अटण्णं पि कम्माणं जहण्णट्ठिदिउदओ तत्तियो* चेव। एवं अप्पाबहुअंगदं। जहा द्विदिउदीरणाए भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी च कदा तहा एत्थ वि द्विदिउदए कायव्वा । एवं मूलपयडिट्ठिदिउदओ समत्तो। एत्तो उत्तरपयडिटिदिउदओ- तत्थ अट्ठपदं पुव्वं व कायव्वं । जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए पमाणाणुगमो कदो तहा उक्कस्सटिदिउदए वि पमाणाणुगमो कायव्वो। णवरि उदयट्टिदीए अब्भहियं । जहण्णट्ठिदिउदयपमाणाणुगमं वत्तइस्सामो । तं जहापंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-सादासादवेदणीय-लोभसंजलण-तिण्णिवेद-सम्मत्तमिच्छत्त-आउचदुक्क--मणुसगइ-पंचिदियजादि-तस-बादर-पज्जत्त-जसकित्ति-सुभगादेज्ज-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं जहण्णछिदिउदओ एगा द्विदी एगसमयकालो। असंख्यातगुणीका वेदन करता है। नाम व गोत्रकी जघन्य स्थितिका वेदक जीव आयु और वेदनीयकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदन करता है, शेष कर्मोंका वह अवेदक है। मोहनीयकी जघन्य स्थितिका वेदक जीव आयु और वेदनीयकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदक तथा शेष कर्मोकी नियमसे असंख्यातगुणी अजघन्य स्थितिका वेदक होता है। इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ । यहां अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। यथा- जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणामें अल्पबहुत्व किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट स्थिति उदयमें भी उसे करना चाहिये। जघन्य स्थितिउदयमें अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। यथा- आठों ही कर्मोंकी जघन्य स्थितिका उदय उतना ही है अर्थात् समान है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिका कथन जैसे स्थिति उदीरणामें किया गया है वैसे ही यहां स्थितिउदयमें भी करना चाहिये। इस प्रकार मूलप्रकृतिस्थितिउदय समाप्त हुआ। यहां उत्तरप्रकृतिस्थितिउदयकी प्ररूपणा की जाती है- उसमें अर्थपद पहिलेके ही समान करना चाहिये। जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणामें प्रमाणानुगम किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट स्थितिउदयमें भी प्रमाणानुगम करना चाहिये । विशेष इतना है कि उदयस्थितिमें अधिक है। जघन्य स्थितिके उदयका प्रमाणानुगम कहते हैं। वह इस प्रकार है-पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, संज्वलनलोभ, तीन वेद, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, चार आयु कर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजा त, त्रस, बादर, पर्याप्त, यशकीति, सुभग, आदेय, तीर्थंकर, उच्चगोत्र ओर पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थितिका उदय एक समय कालवाली एक स्थिति मात्र है। संज्वलनक्रोध। * अ-काप्रन्यो: 'तत्तिया' इति पाठः। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयानुयोगद्दारे अणुभागोदयपरूवणा ( २९५ कोह -माण - मायासंजलणाणं जहण्णट्ठिदिउदओ दोण्णिद्विदीओ। जट्ठिदिउदओ आवलिया समयाहिया । सेसाणं कम्माणं जहा जहण्णद्विदिउदीरणाए पमाणाणुगमो कदो तहा जहणट्ठिदिउदए वि कायव्वो । एवमद्धाछेदो समत्तो । तो सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो अप्पा बहुअं चेदि एदाणि अणुओगद्दाराणि जहा उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाए कदाणि तहा उक्कस्सट्ठिदिउदए वि कायव्वाणि । जहण्णट्ठिदिउदीरणादो जं किंचि णाणत्तं पि समता साधे कायव्वं । भुजगार - पदणिक्खेव वड्ढि उदओ च जहा ट्ठिदिउदीरणाए कदो तहा ट्ठिदिउदए वि कायव्वो । एवं ट्ठिदिउदओ समत्तो । तो अणुभागउदओ दुविहो मूलपयडिउदओ उत्तरपयडिउदओ चेदि । तत्थ मूलपयडिअणुभाग उदए चउव्वीस अणुयोगद्दाराणि परूविय पुणो भुजगार-पदणिक्खेववड्ढी परुविदासु मूलपयडिउदओ समत्तो भवदि । एत्तो उत्तरपयडिअणुभागुदए तत्थ पाणागमो जहा अणुभागुदीरणाए परुविदो तहा एत्थ वि परूवेयव्वो । पच्चयपरूवणा ठाणपरूवणा सुहासुहपरूवणा त्ति एदेहि अणुयोगद्दारेहि अणुभाग परूवणं काऊ तो सामित्तं जहा अणुभागउदीरणाए कदं तहा कायव्वं । णवरि जहण्णसामित णात्तं वत्तस्साम । तं जहा - पंचणाणावरणीय चत्तारिदंसणावरणीय-सम्मत्त मान और मायाकी जघन्य स्थितिका उदय दो स्थिति मात्र होता है । जस्थितिउदय एक समय अधिक आवली मात्र होता है । शेष कर्मोंके प्रमाणानुगमका कथन जैसे जघन्य स्थितिउदीरणा में किया गया है वैसे ही जघन्य स्थितिउदय में भी करना चाहिये । इस प्रकार अद्धाछेद समाप्त हुआ 1 यहां स्वामित्व, काल, अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व; इन अनुयोगद्वारोंका कथन जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा में किया गया है वैसेही उत्कृष्ट स्थितिउदय में भी करना चाहिये । यहां जघन्य स्थितिउदीरणाकी अपेक्षा जो कुछ विशेषता है उसे भी स्वामित्वसे सिद्ध करके कहना चाहिये । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिउदय जैसे स्थितिउदीरणा में किया गया है वैसे ही उसे स्थितिउदय में भी करना चाहिये । इस प्रकार स्थितिउदय समाप्त हुआ । यहां अनुभाग उदय दो प्रकार है- मूलप्रकृतिउदय और उत्तरप्रकृति उदय । उनमें से मूलप्रकृतिअनुभागउदय में चौबीस अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करके पश्चात् भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा कर देनेपर मूलप्रकृतिअनुभाग उदय समाप्त हो जाता है । यहां उत्तरप्रकृतिअनुभागउदयमें उनमेंसे प्रमाणानुगमकी प्ररूपणा जैसे अनुभागउदीरणा में की गयी है वैसे ही यहां भी करना चाहिये । प्रत्ययप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा और शुभाशुभप्ररूपणा इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा अनुभागकी प्ररूपणा करके तलश्चात् स्वामित्व जैसे अनुभाग उदीरणामें किया गया है। वैसे ही उसे यहां अनुभाग उदयमें भी करना चाहिये। बिशेष इतना है कि जघन्य स्वामित्व में कुछ विशेषता है, उसे कहते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सम्यक्त्व, तीन वेद, संज्वलन Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ) छक्खंडागमे संतकम्म तिण्णिवेद-लोहसंजलण-पंचअंतराइणं जहण्णओ अणुभागउदओ कस्स ? जो एदेसि कम्माणं जहण्णअणुभागउदी ओ होदूण तदो आवलियाए अदिक्कंताए सो चेव जहण्णा. णुभागवेदओ होदि । एवं जहण्णाणुभागुदीरणासामित्तादो जहण्णाणुभागउदयस्स सामित्तस्स णाणत्तं । एयजीवेण कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवो वढि त्ति एदेहि अणुयोगद्दारेहि अणुभागउदीरणादो अणुभागउदयस्स णाणत्ताभावादो जहा एदेदि अणियोगद्दारेहि अणुभागउदीरणा परूविदा तहा अणुभागउदओ परूवेयव्वो। एवमणुभागउदओ समत्तो। एत्तो पदेसउदओ दुविहो मूलपयडिपदेस उदओ उत्तरपयडिपदेसउदओ चेदि । तत्थ मूलपयडिपदेसउदओ सव्वाणुओणदारेहि जाणिऊण परवेयव्वो। उत्तरपयडिउदए पयदं । सामित्तं जाणावणठें इमाओ एत्य दस गुणसेडीओ परूवेदव्वाओ । तं जहा-- सम्मत्तुप्पत्तीए सावय विरदे अणंतकम्म्मसे। दसणमोहवखवए कसायउवसामए य उवसंते ॥ १ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा । तव्विवरीओ कालो संखेज्जगुणाए सेडीए ॥ २ ॥ एदाहि दोहि गाहाहि दसण्णं गुणसेडीणं परूवणं णिक्खेवं च परूवेदूण तदो लोभ और पांच अन्तराय, इनका जघन्य अनुभागउदय किसके होता है ? जो जीव इन कर्मोका जघन्य अनुभागउदीरक होकर तत्पश्चात् एक आवलीको बिताता है वही उक्त आवलीके वीतनेपर उनके जघन्य अनुभागका वेदक होता है। इस प्रकार जघन्य अनुभागउदीरणाके स्वामीकी अपेक्षा जघन्य अनुभागउदयके स्वामीमें विशेषता है । एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि; इन अनुयोगद्वारोंमें अनुभागउदीरणाकी अषेक्षा चूंकि अनुभागउदयमें कोई भेद नहीं है, अत एव इन अनुयोगद्वारोंके द्वारा जैसे अनुभागउदीरणाकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही अनुभागउदयकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार अनुभागउदय समाप्त हुआ। यहां प्रदेशउदय दो प्रकारका है-मूलप्रकृतिप्रदेश उदय और उत्तरप्रकृतिप्रदेश उदय । उनमें मूलप्रकृतिप्रदेशउदयकी प्ररूपणा सब अनुयोगद्वारोंके द्वारा जानकर करना चाहिये । उत्तरप्रकृतिउदय प्रकृत है । स्वामित्वके ज्ञापनार्थ यहां इन दस गुणश्रणिर्योंकी प्ररूपणा की जाती हैं। यथा सम्यक्त्वोत्पत्ति, श्रावक, विरत (संयत), अनन्तकांश ( अन्तानुबन्धिविसंयोजक ), दर्शनमोहक्षपक, कषायोपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षोणमाह और जिन; इनके क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । किन्तु इस निर्जराका काल संख्यातगुणित श्रेणि रूपसे विपरीत है। जैसे-जिन भगवानकी गणश्रेणिनिर्जराका जितना काल है उससे क्षीणकषाककी गुणश्रेणिनिर्जराका काल संख्यातगुणा है, इत्यादि ।। १-२ ।। इन दो गाथाओंके द्वारा दस गुणश्रेणियोंकी प्ररूपणा और निक्षेपकी प्ररूपणा करके तत्पश्चात् जो O ष. ख. पु. १२ पृ. ७८. | Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( २९७ जाओ गुणसेडीओ अण्णभवं संकामंति ताओ वत्तइस्सामो । तं जहा- उवसमसम्मत्तगुणसेडी संजदासंजदगुणसेडी अधापमत्तगुणसेडी एदाओ तिण्णिगुणसेडीओ अप्पसत्थमरणेण वि मदस्स परभवे दिस्संति । सेसासु गुणसेडीसु झीणासु अप्पअत्थमरणं भवे । एत्तो सामित्तं कायव्वं । तं जहा- आभिणिबोहियणाणावरणस्स उक्कस्सपदेसउदओ कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ मणुस्सो गब्भादिअट्टवस्सेहि संजमं पडिवण्णो, तत्थ अंतोमुत्तमच्छिय सव्वलहुं चरित्तमोहक्खवणाए उवट्टिदो तस्स चरिमसमयछदुमत्थस्स आभिणिबोहियणाणावरणस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ। सुद-मणपज्जव-केवलणाणावरणाणं चक्खु-अचक्खु-केवलदसणावरणाणं च मदिआवरणभंगो । ओहिणाण-ओहिदसणाणं पि मदिआवरणभंगो चेव । णवरि जस्स ओहिलंभो णत्थि तस्स उक्करसं सामित्तं दादव्वं । णिहा-पयलाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? गुणिदकम्मंसियस्स उवसंतकसायस्स । थीणगिद्धिति यस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? दोण्णिगुणसेडिसीसगगणिद कम्मंसियस्स । __सादासादाणं उक्कस्सपदेसओ कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स । मिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? गुणिदकम्मंसियस्स दोगुणगुणश्रेणियां अन्य भवमें संक्रमणको प्राप्त होती हैं उनको बतलाते हैं । यथा - उपशमसम्यक्त्व गुणश्रेणि, संयतासंयत गुणश्रेणि और अधःप्रमत्त गुणश्रेणि; ये तीन गुणश्रेणियां अप्रशस्त मरणसे भी मृत्युको प्राप्त हुए जीवके परभवमें दिखती हैं । शेष गुणश्रेणियोंके क्षीण होनेपर अप्रशस्त मरण होता है । ___ यहां स्वामित्वका कथन करते हैं । यथा- आभिनिबोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट प्रदेशका उदय किसके है ? जो गुणितकर्माशिक मनुष्य गर्भसे लेकर आठ वर्षों में संयमको प्राप्त हुआ है तथा उस अवस्थामें अन्तर्मुहूर्त रहकर सर्वलघु कालमें चारित्रमोहनीयके क्षपणमें उद्यत हुआ है उस अन्तिम समयवर्ती छदमस्थके आभिनिबोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट प्रदेशका उदय होता है । श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण तथा चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके उत्कृष्ट प्रदेश उदयकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणके भी उत्कृष्ट प्रदेश उदयकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके ही समान है । विशेष इतना है कि जिसके अवधिलब्धि नहीं है उसके उनका उत्कृष्ट स्वामित्व चाहिये । निद्रा और प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता हैं ? वह गुणितकर्मांशिक उपशान्तकषायके होता है। स्त्यानगृद्धि आदि तीनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है? वह दो गुणश्रेणिशीर्षक गुणितकर्माशिकके होता है । साता और असाता वेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है? जो गुणितकर्माशिक जीव अन्तिम समयवर्ती भव्य सिद्धिक है उसके उनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह दो गुणश्रेणिशीर्षवाले गुणितकर्माशिकके होता है । Dक प्र. ५, १०. ० मप्रतिपाठोऽयम् । अप्रतौ 'सी गुणिद', काप्रसौ 'सीस पम्स गुणद', ताप्रतौ 'सीस ( यस्स- ) गणिद ' इति पाठः । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं सेडिसीसयस्स । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स उदिण्णसंजमा संजम - संजमगुण से डिसीसयस्स । सम्मत्तस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? गुणिदकम्मं सियस्स चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । अताणुबंधिचक्कस्स मिच्छत्तभंगो । अट्ठण्णं पि कसायाणमुक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? जो कसाय उवसामओ से काले अंतरं काहिदि त्ति मदो देवो जादो तस्स अंतोमुहुत्तमुववण्णस्स जाधे गुणसे डिसीसय मुदिष्णं ताधे उक्कस्सओ उदओ * । हस्स - रदि - अरदि - सोग - भय - दुगुंछाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? जो कसा उवसामओ से काले अंतरं काहिदि त्ति मदो देवो जादो तस्स जाधे अपच्छिमं गुणसेडिसीसयमुदयमागदं ताधे उक्कस्सओ उदओ । अपज्जत्तपाओग्गजहणिया हस्स~रदिवेदगद्धा थोवा । जेण कालेन गुणसेडिसीसगमुदयमेदि सो कालो संखेज्जगुणो । उक्कस्सिया हस्स- रदिवेदगद्धा सखेज्जगुणा । एदेण कारणेण जस्स हस्स- रदीणमुक्कस्सओ उदओ तस्स चेव अरदि-सोगाणं पि उक्कस्सओ उदओ कायव्वो । अधवा छण्णमेदासि हस्सादियाणं उक्कस्सओ पदेसुदओ चरिमसमयअपुव्वकरणखवयस्स । तिष्णं वेदाणं उक्कस्सओ उदओ कस्स ? चरिमसमयउदए वट्टमाणस्स खवयस्स गुणिदकम्मंसियस्स । तिष्णं संजलणाण सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह संयमासंयम और संयम गुणश्रेणिशीर्षके उदय युक्त गुणितकर्मींशिक के होता है । सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है? जो अन्तिम समयवर्ती अक्षीणदर्शनमोह है ऐसे गुणितकर्माशिक जीवके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी प्ररूपणा मिथ्यात्व के समान है । आठों ही कषायों का उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? जो कषायउपशामक जीव अनन्तर कालमें अन्तरको करेगा, इस स्थिति में वर्तमान रहकर मरणको प्राप्त होता हुआ देव उत्पन्न हुआ है उसके उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त में जब गुणश्रेणिशीर्षक उदीर्ण होता है तब उसके उनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? जो कषाय उपशामक जीव अनन्तर कालमें अन्तरको करेगा, इस स्थितिमें मरणको प्राप्त होकर देव उत्पन्न हुआ है उसके जब अन्तिम गुणश्रेणिशीर्षक उदयको प्राप्त होता है तब उसके उनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । हास्य और रतिका अपर्याप्त योग्य जघन्य वेदककाल स्तोक है । जिस काल में गुणश्रेणिश र्षक उदयको प्राप्त होता है वह संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट हास्य-रतिवेदककाल संख्यातगुणा है । इस कारण जिसके हास्य व रतिका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है उसके ही अरति और शोकका भी उत्कृष्ट उदय करना चाहिये । अथवा इन हास्यादि छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरण क्षपकके होता है। तीन वेदोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह उदय के अन्तिम समय में वर्तमान क्षपक गुणितकर्माशिकके होता है । अप्रत 'गुणसेडीए सीसय-', का-ताप्रत्योः 'गुणसेडीसीसय-' इति पाठः । * अ-काग्त्योः 'उक्कस्सओदइओ' इति पाठः । अत 'असखेज्जगुणो' इति पाठः । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयानुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( २९९ मुक्कस्सओ उदओ कस्स ? सग-सगउदएण खवगसेडिं चडिय सगचरिमोदए वट्टमाणस्स । लोभसंजलणस्स उक्कस्सओ उदओ कस्स ? खवगस्स गुणिदकम्मंसियस्स चरिमसमयस रागस्स । णिरयाउअस्स उक्कस्सओ उदओ कस्स ? सण्णिणा उक्कस्स जोगेण उक्कस्सियाए बंधगद्धाए उक्कस्सआबाधाए दससहस्साणि जेण आउअं णिबद्धं जहणियाए fate कदणिसेगुक्कस्सपदं तस्स पढमसमयणेरइयस्स उक्कस्सओ उदओ । देवाउअस्स निरयाउभंगो । मणुस्स-तिरिक्खाउआणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? उक्कस्सि - याए बंधगद्धाए तप्पाओग्गेण उक्कस्सजोगेण च आउअं बंधिदूण कमेण कालं करिय तिपलिदोवमिसु उववण्णो सव्वलहुं आउअं पभिण्णो सव्वजहण्णगं जीविदव्वं मोत्तूण सेसं ओवट्टिदं, जम्हि समए ओवट्टिज्जमाणमोवट्टिदं तत्थ उक्कस्सओ पदेसउदओ तिरिक्ख मणुस्साउआणं । freeगइणामाए उक्कस्सपदेसउदओ कस्स ? जो संजदासंजदो सव्वुक्कस्स विसोही गुणसेडिणिज्जरं कुणमाणो संजमं पडिवज्जिय संजमगुणसेडिणिज्जरं कार्टु पयट्टो तीन संज्वलन कषायोंका उत्कृष्ट उदय किसके होता है ? अपने अपने उदयके साथ क्षपकश्रेणि चढकर अपने उदयके अन्तिम समय में वर्तमान जीवके उनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । संज्वलनलोभका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती सरागी क्षपक गुणितकर्माशिक होता है । नारकायुका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? उत्कृष्ट योग युक्त जिस संज्ञी जीवने उत्कृष्ट बन्धककालमें उत्कृष्ट आबाधा के साथ दस हजार वर्ष मात्र आयुको बांधकर जघन्य स्थिति निषेकका उत्कृष्ट पद किया है ऐसे उस प्रथम समयवर्ती नारकीके उसका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । देवायुकी प्ररूपणा नारकायुके समान है। मनुष्य व तिर्यच आयुका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? जो उत्कृष्ट बन्धककाल में तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा आयुको बांधकर क्रमसे मृत्युको प्राप्त हो तीन पल्योपम प्रमाण आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न हुआ है तथा जिसने सर्वलघु कालमें आयुको प्रभेद कर सर्वजघन्य जीवितव्य ( अन्तर्मुहूर्त मात्र ) को छोडकर शेषका अपवर्तन किया है उसके जिस समय में अपवर्त्यमान आयु अपवर्तित हो चुकती है उस समय में तिर्यच आयु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । नरकगति नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा निर्जराको करनेवाला जो संयतासंयत जीव संयमको प्राप्त होकर संयमगुणश्रेणिनिर्जराको अ-काप्रत्यो: 'सण्णियासउवकस्स-' इति पाठः । ॐ अद्धा जोगुक्कोसो बंधिता भोगभुमिगेसु लहुं । सव्व प्पजीविमं वज्जहत्तु ओवट्टिया दोहं ॥ क. प्र. ५, १६ अद्ध त्ति उत्कृष्टे बन्धकाले उत्कृष्टे च योगे वर्तमानो भोगभूमिसु तिर्यक्षु मनष्येषु वा विषये कश्चित्तिये गायुः कश्चिन्मन्ध्यायुः उत्कृष्टं त्रिपल्योपमस्थितिकं बध्वा लघु शीघ्रं च मृत्वा त्रिपल्योपमायुष्केष्वेकस्तिर्यक्ष्वपरो मनष्येषु मध्ये समत्पन्नः तत्र च सर्वाल्पजीवितमन्तर्मुहूर्त - प्रमाणं वर्जयित्वाऽन्तर्मुहुर्तमेकं धृत्वेत्यर्थः, शेषमशेषमपि ( तो द्वावपि ) स्व-स्वायुरपवर्तनाकरणेनापवर्तयतः । ततोऽपवर्तनानन्तरं प्रथमसमये तयोस्तिर्यङ्-मनुष्ययोयथासंख्यं तिर्यङ् - मनुष्यायुषोरुत्कृष्टः प्रदेशोदयः । मलय. * ताप्रती 'पविट्ठो' इति पाठः । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ) तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण णिरयाउअं बंधिय सम्मत्तं घेत्तुण पुणो दंसणमोहणीयं खइय अंतोमुहुत्तस्सुवरि संजमासंजम - संजम - दंसणमोहणीयक्खवणगुणसेडीसु उदयमागच्छमाणासु णेरइएसु उववण्णो, तस्स णिरयगइणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ । तिरिक्खगदिणामाए णिरयगदिभंगो । मणुसगदिणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धियस्स । देवर्गादिणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? उवसंतकसायस्स पढमगुणसेडिसीसयस्स से काले उदओ होहिदि त्ति मदस्स देवेसुप्पज्जिय पढमसमयदेवस्स उक्कस्सओ पदेसुदओ । छक्खंडागमे संतकम्मं वेव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग- बंधण-संघादाणं देवगइभंगो । आहारसरीर - आहारसरीरअंगोवंग बंधण-संघादाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? पमत्तसंजदस्स उट्ठाविदआहारसरीरस्स तप्पा ओग्गविसुद्धस्स जाधे गुणसेडिसीसयं उदयं असंपत्तं तातेसि उक्कस्सओ पदेसउदओ, णत्थि अण्णा गुणसेडी | ओरालिय- तेजा - कम्मइयसरीर ओरालिय सरीर अंगोवंग-ओरालिय- तेजा - कम्मइय- सरीरबंधण-संघाद - छठाण - पढमसंघडण -- वण्ण-गंध-रस - फास अगुरुअलहुअ- करने के लिए प्रवृत्त हुआ है, वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो नारकायुको बांधकर व सम्यक्त्वको ग्रहण कर पुनः दर्शनमोहका क्षय करके अन्तर्मुहूर्तके ऊपर संयमासंयम, संयम और दर्शन मोहक्षपक गुणश्रेणियोंसे उदय में आनेपर नारकियों में उत्पन्न हुआ है उसके नरकगतिनामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । तिर्यग्गति नामकर्मके उत्कृष्ट प्रदेश उदयकी प्ररूपणा नरकगति नामकर्मके समान है। मनुष्यगति नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके होता है । देवगतिनामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? अन्यतर कालमें जिसके प्रथम गुणश्रेणिशीर्षकका उदय होगा, इस स्थितिमें वर्तमान जो उपशान्तकषाय मरणको प्राप्त होकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उस प्रथम समयवर्ती देवके देवगति नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग एवं उसके बन्धन और संघातकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग एवं उसके बन्धन व संघातका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? जिसने आहारकशरीरको उत्पादित किया है तथा जो तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे संयुक्त है ऐसे प्रमत्तसंयत जीवके जब गुणश्रेणिशीर्षक उदयको प्राप्त नहीं होता तब उसके उनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है, अन्य गुणश्रेणि नहीं होती । औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, औदारिकशरी रांगोपांग, औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरबन्धन एवं संघात, छहसंस्थान, प्रथम संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, ॐ उवसंतपढमगुणसेढीए निद्दादुगस्स तस्सेव । पावइ सीसगमुदयं ति जाय देवस्स सुरनवगे ॥ क. प्र. ५, १२. x×× तथा तस्यैवोपशान्तकषायस्यात्मीयप्रथमगुणश्रेणीशीर्षकोदयमनन्तरसमये प्राप्स्यतीति तस्मिन् पाश्चात्ये समये जाते देवस्य ततः प्रथमगुणश्रेणी शिरसि वर्तमानस्य सुरनवकस्य वैक्रियिकसप्तक- देवद्विकरूपस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयः । मलय. XXX आहारग उज्जोयाणुत्तरतण अप्पमत्तस्स । क. प्र. ५, १८. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३०१ उवघाद-परघाद-पसत्यापसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुह--1 ह-- णिमिणणामामुक्कस्सओ पदेस उदओ कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । पंचण्णं संघडणाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? संजमासंजम - संजम - अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेडीओ तिण्णि वि एगट्ठे काढूण ट्ठियसंजदस्स जाधे गुणसेडिसीसयाणि तिष्णि वि उदयमागदाणि ताधे पंचणं संघडणाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ । णिरयाणुपुब्वीए णिरयभंगो । तिरिक्खापुव्वीए तिरिक्खगइभंगो । देवाणुपुव्वीए देवगइभंगो । मणुसाणुपुव्वीए उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? संजमासंजम संजम दंसणमोहणीयक्खवणगुणसेडीओ तिणि वि एगट्ठे काढूण मणुस्सेसु विग्गहं कादृणुववण्णस्स । उज्जोवणामा उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? जो संजदो उत्तरसरीरं विउव्विदो अप्पमत्तभावं गदो तस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ आदावणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ • कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ मदो बीइंदिएसु बीइंदियसमगं ठिदिसंतकम्मं कादूण इंदितं गदो, तत्थ वि सव्वलहुअं एइंदियसमगं ठिदिसंतकम्मं काढूण बादरपुढवीजीवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ । उस्सासस्स प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण; इन नामकर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह चरम समयवर्ती सयोगीके होता है । शेष पांच संहननोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? संयमासंयम, संयम और अनन्तानुबंन्धविसंयोजन रूप तीनों ही गुणश्रेणियोंको एकत्र करके स्थित संयतके जब तीनों ही गुणश्रेणिशीर्षक उदयको प्राप्त होते हैं तब उन पांच संहननोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । नारकानुपूर्वीकी प्ररूपणा नरकगति के समान है । तिर्यगानुपूर्वीकी प्ररूपणा तिर्यग्गति के समान है । देवानुपूर्वीकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । मनुष्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयक्षपण स्वरूप तीनों ही गुणश्रेणियोंको एकत्र करके मनुष्यों में विग्रह करके उत्पन्न हुए जीवके उसका उत्कृष्ट प्रदेशउदय होता है । उद्योत नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? जो संयत जीव उत्तर उरीरकी विक्रिया करके अप्रमत्त अवस्थाको प्राप्त हुआ है उसके उसका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । आतप नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशउदय किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक मरणको प्राप्त होकर द्वीन्द्रियों में द्वीन्द्रियके समान स्थितिसत्त्वको करके बादर पृथिवीकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ है, उस प्रथम समयवर्ती पर्याप्तकके उसका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । उच्छ्वासका बेइंदिय थावरगो कम्मं काऊग तस्समं खिष्पं । आयावस्स उ तब्वेइ पढमसमयम्मि वट्टतो ॥ क. प्र ५, १९. गुणितकर्माशः पंचेन्द्रियः सम्प्रदृष्टिर्जातः, ततः सम्यक्त्वनिमित्तां गुणश्रेणि कृतवान् । ततस्तस्या गुणश्रेणीतः प्रतिपतितो मिथ्यात्वं गतः । गत्वा च द्वीन्द्रियमध्ये समुत्पन्नः । तत्र च द्वीन्द्रियप्रायोग्यां स्थिति मुक्त्वा शेषां सर्वामध्यवर्तयति । ततस्ततोऽपि मृत्वा एकेन्द्रियो जातः । तत्रैकेन्द्रियसमां स्थिति करोति । शीघ्रमेव च शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तः, तस्य तद्वेदिन आतपवेदिन खरबादरपृथ्वीकाधिकस्य शरीरपर्याप्त्यनन्तरं प्रथम समय Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२) छक्खंडागमे संतकम्म उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? चरिमसमयउस्सासणिरोहकारयस्स । सुस्सर-दुस्सराणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? चरिमसमयवचिजोगणिरोहकारयस्स। पंचिदियजादि--तस--बादर--पज्जत्त--जसकित्ति-सुभग-आदेज्ज-उच्चागोदाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? चरिमसमयभवसिद्धियस्स । सव्व * कम्माणं पिx जम्हि जम्हि गुणिदकम्मंसिओ त्ति ण भणिदं तम्हि तम्हि गुणिदकम्मंसिओ त्ति वत्तव्वं । चदुजादि-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणमुक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? संजमासंजमसंजमगुणसेडीओ एगळं काढूण अप्पिदेसुप्पण्णस्स। अजसकित्तिदूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणमुक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? संजमासंजम-संजमदसणमोहणीयक्खवगगुणसेडिसीसयाणि तिण्णि वि एगट्ठ कादूण ट्ठियस्स जाधे गुणसेडिसीसयाणि उदयमागदाणि ताधे उक्कस्सओ पदेसउदओ। पंचण्णमंतराइयाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? चरिमसमयछदुमत्थस्स । तित्थयरणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? गुणिदकम्मंसियस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स । एवमुक्कस्सं सामित्तं समत्तं । __ एत्तो जहण्णसामित्तं । तं जहा- मदिआवरणस्स जहण्णओ पदेसउदओ कस्स? जो उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती उच्छवासनिरोधकके होता है। सुस्वर और दुस्वरका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती वचनयोगनिरोधकके होता है। पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, यशकीर्ति, सुभग, आदेय और उच्चगोत्र; इनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है? वह अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके होता है। सभी कर्मोके जहां जहां 'गुणितकर्माशिक ' नहीं कहा है वहां वहां 'गुणितकर्माशिक' कहना चाहिये। चार जाति नामकर्म, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशउदय किसके होता है ? संयमासंयम और संयम गुणश्रेणियोंको एकत्र करके विवक्षित जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उनका उत्कृष्ट प्रदेशउदय होता है। अयशकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका उत्कष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयक्षपक: इन तीनों ही गुणश्रेणिशीर्षकोंको एकत्र करके स्थित जीवके जब गुणश्रेणिशीर्षक उदयको प्राप्त होते हैं तब उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है। पांच अन्तराय कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती छदमस्थके होता है। तीर्थंकर नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह गणितकौशिक अन्तिम समयवर्ती भव्य सिद्धिकके होता है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। यहां जघन्य स्वामित्वका कथन करते हैं। यथा- मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेश उदय आतपनाम्नः उत्कृष्ट: प्रदेशोदयः। एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियस्थिति झटित्येव स्वयोग्यां करोति, न त्रीन्द्रियादिस्थितिमिति द्वीन्द्रियग्रहणम् । मलय. * अ-काप्रत्योः 'भवसिद्धियसव्व' इति पाठः। 8. ताप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । 0 ताप्रतो '-संजमगुण सेडीओ-दसणमोहणीयक्ख वगसीसयाणि' इति पाठः । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३०३ सुहमणिगोदजीवेसु कम्मढिदिमच्छिदाउओ सम्वेहि आवासएहि अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं काऊण तदो संजमासंजमं संजमं च बहुसो लध्दूण चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण एइंदिएसु सुहमेसु गदो, तत्थ य असंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि अच्छिदूण मणुस्सेसु आगदो पुवकोडि* संजममणुपालेदूण अंतोमहत्तावसेसे मिच्छत्तं गदो दसवाससहस्सिएसु देवेसु उववण्णो पुणो तत्थ सम्मत्तं घेत्तूण आउअमणुपालिय अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्तं गदो वियट्टिदाओ द्विदीओ उक्कस्ससंकिलिट्ठो एइंदिएसु गदो तस्स पढमसमयस्स मदिआवरणस्स जहण्णगो पदेसउदओ । सुद-मणपज्जवकेवलणाणावरण-चक्खु-अचक्खु-केवलदसणावरणाणं मदिणाणावरणभंगो। ओहिणाणओहिदंसणावरणाणं जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? जो मदिआवरणस्स अपच्छिमे संजमभवग्गहणे वट्टमाणगो सो चेव अपरिवट्टिदेण सम्मत्तेण वेमाणिएसु उववण्णो मिच्छत्तं गदो अंतोकोडाकोडीदो तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ पबद्धाओ जाधे उक्क० दिदी आवलियपबद्धा ताधे ओहिणाण--ओहिदसणावरणाणं जहण्णओ पदेसउदओ । णिद्दा-पयलाणं जहण्णओ पदेस--- किसके होता है ? जो सूक्ष्म निगोद जीवोंमें कर्मस्थिति मात्र सूक्ष्म निगोदकी आयुके साथ रहकर सब आवासों द्वारा अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य जघन्य करके, तत्पश्चात् संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त करके, चार वार कषायोंको उपशमा कर सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें गया है और वहां असंख्यात हजार वर्ष रहकर मनुष्योंमें आया है, यहां पूर्वकोटि काल तक संयमको पालकर अन्तर्मुहर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर दस हजार वर्ष मात्र आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ है, पुनः वहां सम्यक्त्वको ग्रहणकर आयुको पालकर उसके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर स्थितियोंका विकर्षण करता हुआ उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हो एकेन्द्रियोंमें पहुंचा है उसके प्रथम समयमें मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेश उदय होता है। श्रुतज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जो मतिज्ञानावरणके अन्तिम संयमभवग्रहणमें वर्तमान है वही अपरिवर्तित सम्यक्त्वके साथ वैमानिक देवोंमें उत्पन्न होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो अन्तःकोडाकोडिसे तीस कोडाकोडि सागरोपमोंको बांधता है जब उत्कृष्ट स्थिति आवली समयप्रबद्ध मात्र होती है तब उसके अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणका जघन्य प्रदेश उदय होता है । निद्रा और प्रचलाका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जो जीव *अ-काप्रत्योः 'पुत्वकोडी' इति पाठः। पगयं तु खवियकम्मे जहन्नसामी जहन्नदेवठि । भिन्नमहते सेसे मिच्छतगती अतिकिलिटठो । कालगएगिदियगो पढमे समये व मइ-सुयावरणे । केवलदुग-मणपज्जवचक्ख-अचक्खूण आवरणा।। क. प्र. ५, २०-२१. 0 का-जाप्रत्यो: 'अच्छिम' इति पाठः। * ओहीणसंजमाओ देवत्तगए गयस्स मिच्छत्तं । उक्कोसटिइबंधे विकड्डणा आलिगं गंतु ।। क. प्र. ५, २२. ओहीण त्ति-क्षपितकर्माशः संयम प्रतिपन्नः समुत्पन्नावधि ज्ञानदर्शनोऽप्रतिपतितावधिज्ञानदर्शन एव देवो जातः, तत्र चान्तर्मुहर्त गते मिथ्यात्वं प्रतिपन्नः । ततो मिथ्यात्वप्रत्ययेनोत्कृष्टां स्थिति बद्धमारभते, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४) छक्खंडागमे संतकम्म उदओ कस्स? जो ओहिणाणावरणस्स जहण्णपदेसवेदओ तस्स चेव जाधे उक्कस्सदिदिबं. धगद्धा पुण्णा ताधे जो उक्कस्सदिदिबंधादो पडिभग्गो संतो णिइं पयलं वा पवेदयदि तस्स णिहा-पयलाणं जहण्णओ पदेसउदओ। णिहाणिहा-पयलापयला-थीणगिद्धोणं जहण्णओ पदेसुदओ कस्स ? जो मदिआवरणस्स जहण्णओ पदेसउदओ दिट्ठो सो चेव जाधे पत्ति गो (ताधे) तस्स एइंदियपज्जत्तीए पढमसमयपज्जत्तयस्स थीणगिद्धितियं वेदयमाणस्स जहण्णओ पदेसउदओ+ । सादासादाणं ओहिणाणावरणभंगो । मिच्छत्तस्स जहण्णगो पदेसउदओ कस्स? उदीरणउदयादो* उवरि आवलियं गदस्स। सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्तस्त य मिच्छ तभंगो। अणंताणुबंधोणं जहण्णगो पदेसउदओ कस्स? अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्म कादूण सम्मत्तं संजमासंजमं संजमं च बहुसो लक्ष्ण चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण पुणो विसंजोइदं संजुत्तं कादूण बेछावट्ठीओ सम्मत्तमणुपालिय मिच्छत्तं गदो, तस्स आवलियमिच्छाइट्ठिस्स अणंताणु अवधिज्ञानावरणके जघन्य प्रदेशका वेदक है उसीका जब स्थितिबन्धककाल पूर्ण होता है तब जो उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे प्रतिभग्न होकर निद्रा अथवा प्रचलाका वेदन करता है उसके निद्रा और प्रचलाका जघन्य प्रदेश उदय होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जिसके मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेश उदय कहा गया है वही जब पर्याप्तिको प्राप्त होता है ( तब ) एकेन्द्रिय पर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयमें उसके स्त्यानगद्धित्रिकका वेदन करते हए उनका जघन्य प्रदेश उदय होता है । साता और असाता वेदनीयकी प्ररूपणा अवधिज्ञानावरणके सम मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? उदीरणाउदयसे ऊपर आवलीको प्राप्त हुए जीवके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेश उदय होता है। सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? अभव्यसिद्धिकके योग्य जघन्य सत्कर्मको करके; सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त करके ; चार वार कषायोंको उपशमाकर, फिरसे भी विसंयोजित संयुक्त करके ( अनन्तानुबन्धी कषायोंको बांधकर ) दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वको पालकर जो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उस आवली कालवी मिथ्यादृष्टिके अनंतानुबंधी कषायों प्रभतं च दलिक विकर्षयति उद्वर्तयतीत्यर्थः । तत आवलिकां गत्वाऽतिक्रम्य बन्धावलिकायामतीतायामित्यर्थः' अवध्योरवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणायोजघन्यः प्रदेशोदयः । पलय. ताप्रतौ 'णिहा-पयले ' इति पाठः। निद्रा-प्रचलयोरपि तथन । केवलमत्कृष्टस्थितिबन्धात प्रति भग्नस्य प्रतिपतितस्य निद्रा प्रचलयोरनभवितुं लग्नस्य चेति द्रष्टव्यम् । उस्कृष्टस्थितिवन्धो हि अतिशयेन संक्लिष्टस्य भवति, न चातिसंक्लेशे वर्तमानस्य निद्रोदयसम्भवः । तत उक्तं उत्कृष्टस्थिबन्धा-प्रतिभग्नस्येति । क प्र ५, २३. ( मलय.) निद्रानिद्रादयोऽपि तिस्रः प्रकृतयो जघन्यप्रदेशोदयविषये मतिज्ञानावरणवद्भावनीयाः। नवरमिन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तस्य प्रथमसमये इति द्रष्टव्यम्, ततोऽनन्तरसमये उदीरणाया सम्भवेन जघन्यप्रदेशोदयसम्भबात, क. प्र. ५, २४. ( मलय.). * तापतौ 'उदीर गाउदयादो' इति पाठः। ४ सण मोहे तिविहे उदी रणुदये आलिगं गंतुं । क. प्र. ५, २५. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३०५ बंधीणं जहण्णओ पदेसउदओ*। अटण्णं कसायाणं चदुण्णं संजलणाणं पुरिसवेदहस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? जो उवसंतकसाओ मदो देवो जादो तस्स आवलियतब्भवत्थस्स जहण्णओ पदेसउदओ। अरदि-सोगाणं जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? एदासि पयडीणं जहा ओहिणाणावरणस्स परूवणा कदा तहा कायव्वा । इत्थिवेदस्स जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? जाव अपच्छिमसंजमभवग्गहणे त्ति ताव जहा मदिआवरणस्स परूविदं तहा परूवेयव्वं । तदो अपच्छिमे संजमभवगहणे देसूणपुव्वकोडि संजममणुपालेदूण सव्वजहण्णए जीविदसेसे मिच्छत्तं गदो, तदो देवीसु उववण्णो, उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहत्तं गंतूण अंतोकोडाकोडिबंधादो पण्णारससागरोवमकोडाकोडीओ पबद्धाओ, तदो ताए देवीए जाधे पण्णारससागरोवमकोडाकोडिदिदी पबद्धा तदो* बंधावलियचरिमसमए इथिवेदस्स जहण्णओ पदेसउदओ। गQसय वेदस्स मदिआवरणभंगो । का जघन्य प्रदेश उदय होता है । आठ कषाय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और साका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है? जो उपशान्तकषाय मर करके देव हआ है स आवली कालवर्ती तदभवस्थके उनका जघन्य प्रदेश उदय होता है। अरति और शोकका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा जैसे अवधिज्ञानावरणके सम्बन्धमें की गयी है वैसे करना चाहिये। स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? अन्तिम संयमभवग्रहण तक जैसे मतिज्ञानावरणके सम्बन्धमें प्ररूपणा की गयी प्ररूपणा करना चाहिये। तत्पश्चात अपश्चिम संयमभवग्रहणमें कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमको पालकर जीवितके सबसे जघन्य शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हआ, पश्चात देवियोंमें उत्पन्न हआ, वहां उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर जाकर अंतःकोडाकोडि मात्र बन्धकी अपेक्षा पंद्रह कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण बन्ध किया. पश्चात् उक्त देवीके द्वारा जब पंद्रह कोडाकोडि सागरोपम मात्र स्थिति बांधी जाती है तब बंधावलीके अंतिम समयमें स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेश उदय होता है। नपुंसकवेदको प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। * चउरुवसमित्त पच्छा संजोइय दीहकालसम्मत्ता। मिच्छत्तगए आवलिगाए संजोयणाणं तु ॥ क. प्र. ५, २६. 0 सत्तरसण्ह वि एवं उवसमइत्ता गए देवं ।। क. प्र. ५, २५. तथाऽनन्तानुबन्धिवजंद्वादशकषायपुरुषवेद-हास्य-रति-भय-जुगुप्सारूपा: सप्तदश प्रकृतीरुपशमय्य देवलोकं गतस्य एवमेवेति उदीरणोदयचरमसमये तासां सप्तदशप्रकृतीना जघन्यः प्रदेशोदयः । मलय. *ताप्रतौ'-कोडाकोडीओ पबद्धाओ विदीओ तदो' इति पाठः । इत्थीए संजमभवे सव्वणिरुद्ध म्मि गंतु मिच्छत्तं । देवीए लहुमिच्छी जेठि इ आलिगं गंतुं ॥ क. प्र. ५, २७. xxxx इयमत्र भावना- क्षपितकर्माशा काचित् स्त्री देशोनां पूर्वकोटिं यावत्संयममनुपाल्यान्तर्मुहुर्ते आयुषोऽवशेष मिथ्यात्व गत्वा अननरभवे देवी समुत्पन्ना, शीघ्रमेव च पर्याप्ता ॥ तत उत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमान स्त्रीवेदस्योत्कृष्टां स्थिति बध्नाति, पूर्वबद्धां चोर्तयति । तत उत्कृष्टबन्धारम्भान् परत आवलिकायाश्चरमसमये तस्थ: स्त्रीवेदस्य जयन्यः प्रदेशोदयो भवति । मलय: Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म णिरयाउअस्स जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? जेण तप्पाओग्गजहण्णेहि जोगट्ठाणेहि तप्पाओग्गजहणियाए बंधगद्धाए आउअं पबद्धं, हेढिल्लोणं ट्ठिदीणं णिसेयस्स उकस्सपदं कदं, एवं बंधिदूण मदो* तेत्तीससागरोवमिएसु उववण्णो सव्वमहंतअसादोदए वट्टमाणस्त तस्स चरिमसमयणेरइयस्स: जहण्णपदेसउदओ । मणुस्साउअस्स जहण्णओ पदेसउदओ कस्स? जेण तप्पाओग्गजहण्णजोगट्टाणेहि तप्पाओग्गजहण्णबंधगद्धाए मणुस्साउअं पबद्धं हेडिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदं कदं, एवं बंधिदूण मदो तिपलिदोवमाउद्विदिओ मणुस्सो जादो, असादोदया सव्वबहुआ सव्वचिरं सादोदया वि मंदाणुभागा, तस्स तिपलिदोवमियस्स चरिमसमयतन्भवत्थस्स जहण्णओ पदेसउदओ। तिरिक्खाउअस्स मणुसाउअभंगो । देवाउअस्स वि मणुसाउअभंगो। णवरि देवेसु तेत्तीसंसागरोवमिएसु उववण्णस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स वत्तव्वं । णिरयगइणामाए जाव दसवस्ससहस्सिएसु उववण्णो त्ति ताव मदिआवरणभंगो। तदो दसवस्ससहस्सिएसु उववण्णेण पुणो सम्मत्तं लद्धं, अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदं, अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्तं गदो विकट्टिदाओ द्विदीओ मदो एइंदिएसु उववण्णो, तत्तो नारकायुका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जिसने तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानोंके बन्ध किया है तथा अधस्तन स्थितियों के निषेकका उत्कृष्ट पद किया है, इस प्रकार बांधकर मरणको प्राप्त हो जो तेतीस सागरोपम आयवाले नारकियोंमें उत्पन्न होता हुआ सबसे महान् असाता वेदनीयके उदयमें वर्तमान है ऐसे नारकीके अन्तिम समयमें नारकायुका जवन्य प्रदेश उदय होता है। मनुष्यायुका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जिसने तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानोंके द्वारा तत्प्रायोग्य जघन्य बन्धककालमें मनुष्यायुका बन्ध किया है तथा अवस्तन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद किया है, इस प्रकार बांधकर जो मरणको प्राप्त हो तीन पल्योपम प्रमाण आयवाले मनष्योंमें उत्पन्न हआ है, जिसके असातोदय सबमें बहुत व सर्वचिर काल रहनेवाले तथा सातोदय भी मन्द अनुभागवाले हैं; उस न पल्योपम प्रमाण आयुवाले मनुष्यके तद्भवस्थ रहने के अन्तिम समयमें मनुष्यायका प्रदेश उदय होता है। तिर्यगायुके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा मनष्यायके समान है। देवायुकी भी प्ररूपणा मनुष्यायुके समान है। विशेष इतना है कि तेतीस सागरोपम आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुए उसके तद्भवस्थ रहने के अन्तिम समयमें कहना चाहिये। नरकगति नामकर्मके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा ' दस हजार वर्ष प्रमाण आयुवालोंमें उत्पन्न होने ' तक मतिज्ञानारवणके समान है । तत्पश्चात् दस हजार वर्ष प्रमाण आयुवालोंमें उत्पन्न होकर फिरसे सम्यक्त्वको प्राप्त हो जिसने अनन्तानुबन्धिचतुष्कका विसंयोजन किया है, अन्तर्मुहुर्त शेष रहनेपर जो मिथ्यात्वको प्राप्त हो स्थितियोंको विकर्षित करके मरकर तापतौ 'तदो' इति पाठः । ४ताप्रती 'महत्त ' इति पाठः। अ-ताप्रत्योः 'चारिसमए णेरइयस्स' इति पाठः। ताप्रतौ' सम्वचिरं.' इति पाठः। अप्पद्धा-जोगचियाणाऊगुस्सगठिईणते । उरि थोवनिसेगे चिरतिव्वासायवेईणं ।। क. प्र. ५, २८. तापतौ 'विओकडिडदाओ' इति पाठः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा मदो असण्णीसु उववण्णो, तत्तो अंतोमुत्तेण णेरइओ जादो, तस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदस्स णिरयगइणामाए जहण्णओ पदेसउदओ* । तिरिक्खगइणामाए मदिआवरणभंगो। णवरि इगितीसवेदएसु उववज्जावेदव्वो। मणुसगइणामाए जाव एइंदिएसु उववण्णो त्ति ताव मदिआवरणभंगो। तदो एइंदियभवग्गहणादो मणुस्सो जादो, सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो, तस्स मणुसगइणामाए जहण्णओ पदेसउदओ। देवगदिणामाए ओहिणाणावरणभंगो। णवरि जाधे द्विदीओ विकट्टिदाओ ताधे उत्तरसरीरं विउव्विदो, उज्जोवणामाए वेदओ, तस्स देवगदिणामाए जहण्णओ पदेसुदओ। वेउब्वियसरीरस्स* मदिआवरणभंगो। णवरि सो एइंदिओ सण्णितिरिक्खो होदूण उज्जोवुदएण उत्तरं विउविदो, जाधे द्विदीओ विकट्टिदाओ ताधे जहण्णपदेसुदओ।ओरालियसरीरणामाए जाव एइंदिएसु उववण्णो त्ति ताव मदिआवरणभंगो। पुणो एइंदिएहितो तसेसु उववज्जावेयव्वो जेसु उववण्णो तीसण्णं पयडीणं वेदओ होदि । तदो जाधे तीसं वेदयदि ताधे ओरालियसरीरस्स जहण्णओ पदेसुदओ। चदुजादि-तेजा-कम्मइय एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ है, उनमें से मरकर असंज्ञियों में उत्पन्न हुआ है, पश्चात् अन्तर्मुहुर्तमें नारकी हआ है, उसके सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होनेपर नरकगति नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय होता है। तिर्यग्गति नामकर्मकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि इकतीस सागरोपम प्रमाण आयका वेदन करनेवाले देवोंमें उत्पन्न कराना चाहिये । मनष्यगति नामकर्मकी प्ररूपणा 'एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ' तक मतिज्ञानावरणके समान है। पश्चात् एकेन्द्रिय भवग्रहणसे मनुष्य उत्पन्न हुआ, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ, उसके मनुष्यगति नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय होता है। देवगति नामकर्मकी प्ररूपणा अवधिज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि जब स्थितियां विकर्षित की जाती हैं तब उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त होता हुआ उद्योत नामकर्मका वेदक होता है, तब उसके देवगति नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय होता है। वैक्रियिकशरीर नामकर्मकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि वह एकेन्द्रिय जीव संज्ञी तिर्यंच होकर उद्योतके उदयके साथ उत्तर शरीरकी विक्रिया करता है, वह जब स्थितियोंको विकर्षित करता है तब उसके उनका जघन्य प्रदेश उदय होता है। औदारिक शरीर नामकर्मके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा 'एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ' पर्यन्त मतिज्ञानावरणके समान है। पश्चात् एकेन्द्रियोंमेंसे त्रसोंमें उत्पन्न कराना चाहिये, जिनमें उत्पन्न होकर तीस प्रकृतियोंका वेदक होता है। पश्चात् जब वह तीसंका वेदन करता है तब उसके औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेश उदय होता है। चार जातियां, तैजस व कार्मण शरीर, तेजस * संजोयणा विजोजिय देवभवजहन्नगे अनिरुद्धे । बंधिय उक्स्स ठिई गंतूणेगिदिया सन्नी ।। सव्वलहं नरयगए निरयगई तम्मि सव्वपज्जत्ते । क. प्र. ५, २९-३०. देवगई ओहिसमा नवरि उज्जोववेयगो ताहे ।। क. प्र. ५, ३१. अ-काप्रन्यो: 'वेउव्वियसत्तयस्स' इति पाठः । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८) छक्खंडागमे संतकम्म -सरीर-तेजा-कम्मइयसरीरबंधण-संघाद-छसंठाण-छसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उज्जोव-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणणामाणं ओरालियसरीरभंगो। आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघादणामाणं जहण्णउदओ कस्स? अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं कादूण चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण अपच्छिमे भवग्गहणे देसूणपुवकोडि संजममणुपालेऊण आहारएण उत्तरसरीरं विउव्विदो सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो, तस्स जहण्णओ पदेसउदओ। चदुण्णमाणुपुन्वीणं जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? पढमसमयतब्भवत्थस्स । आदावणामाए जहण्णओ उदओ कस्स ? मदिआवरणस्स खविदकम्मंसियविहाणेण आगंतूण जो आदावणामाए वेदएसु उववण्णो आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदो तस्स पढमसमयपज्जत्तयदस्स जहण्णगो पदेसउदओ। एइंदिय-थावर-अपज्जत्त-णीचागोदाणं मदिआवरणभंगो । णवरि एइंदिय-थावराणं सव्वपज्जत्तयदो। सुहमणामाए जहण्णगो पदेसउदओ कस्स? जो मदिआवरणस्स जहण्णपदेसवेदओ सो तम्हि भवे खुद्दाभवग्गहणं जीविदूण सुहमेइंदिएसु पज्जत्तएसु उववण्णो आणापाणपज्जतीए पज्जत्तयदो, तस्स पढमसमए सुहुमणामाए जहण्णगो पदेसउदओ। साहारणणामाए व कार्मण शरीरों सम्बन्धी बन्धन व संघात, छह संस्थान, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर. पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीति, अयशकीर्ति और निर्माण; इन नामकर्मोंके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान है। आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, आहारकशरीरबन्धन व संघातका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य जघन्य [ सत्कर्म ] को करके, चार वार कषायोंको उपशमा कर अन्तिम भवग्रहणमें कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमका पालन कर आहारकशरीररूपमें उत्तर शरीरकी विक्रिया करके जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है उसके उनका जघन्य प्रदेश उदय होता है। चार आनुपूर्वी नामकर्मोंका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? वह प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थके होता है । आतप नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? मतिज्ञानावरण संबंधी क्षपितकर्माशिकके विधानसे आकर जो आतप नामकर्मके वेदकोंमें उत्पन्न होकर आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ है उस प्रथम समयवर्ती पर्याप्तके उसका जघन्य प्रदेश उदय होता है। एकेन्द्रिय, स्थावर, अपर्याप्त और नीचगोत्रकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि एकेन्द्रिय और स्थावरका जघन्य प्रदेश उदय सर्व पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए जीवके होता है । सूक्ष्म नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जो मतिज्ञानावरणके जघन्य प्रदेशका वेदक उस भवमें क्षुद्रभवग्रहण काल जीवित रहकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ है उसके प्रथम समयमें सूक्ष्म नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय होता है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयानुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३०९ जहण्णगो पदेसउदओ कस्स ? जो मदिआवरणस्स जहण्णपदेसवेदओ खुद्दाभवग्गहणं जीविऊण मदो साहारणकाइएसु उज्जोवणामाए वेदएसु उववण्णो आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदो तस्स पज्जत्तयदस्स पढमसमए साहारणसरीरणामाए जहण्णओ पदेसउदओ । तित्थयरणामाए जहण्णगो पदेसउदओ कस्स ? तप्पा ओग्गेण जहण्णएण जोगेण बंधिय सव्वक्कस्सियाहि गुणसेडिणिज्जराहि गालिय केवलणाणमुप्पाइय सजोगि पढमसम वट्टमाणस्स जहण्णगो पदेसउदओ । उच्चागोद-पंचतराइयाणं ओहिणाणावरणभंगो । एवं सामित्तं समत्तं । एत्तो एयजीवेण कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो चेदि अणुयोगद्दाराणि सामित्तादो साहेदूण भाणियव्वाणि । तो अप्पा बहुअं । घुक्कस्सपदेसुदयदंडओ - मिच्छत्तस्स पदेसुदओ थोवो । सम्मामिच्छत्तस्स विसेसाहिओ । पयलापयलाए संखेज्जगुणो । णिद्दाणिद्दाए विसेसाहिओ । थी गिद्धी विसेसा० । अनंताणुबंधीसु अण्णदरस्त० विसे० । अपच्चक्खाण ० असंखे ० गुण | पच्चक्खाणावरणिज्ज० विसे० । पयलाए असंखे० गुणो । णिद्दाए विसे ० | सम्मत्ते असंखे० गुणो । केवलणाणावरणे संखे० गुणो । केवलदंसणावरणे विसे ० | देवा अस्स अनंतगुणो । णिरयाउ अस्स विसे० । मणुस्लाउअस्स संखे० गुणो । तिरिक्खाउअस्स साधारण नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जो मतिज्ञानावरणके जघन्य प्रदेशका वेदक क्षुद्रभवग्रहण काल जीवित रहकर मृत्युको प्राप्त होता हुआ उद्योत नामकर्म के वेदक साधारणकायिकोंमें उत्पन्न होकर आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्तक हुआ है उसके पर्याप्तक होनेके प्रथम समय में साधारणशरीर नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय होता है । तीर्थंकर नामकर्मका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे उसे बांधकर व सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणिनिर्जराओं द्वारा गलाकर केवलज्ञानको उत्पन्न कर सयोगकेवली के प्रथम समय में वर्तमान जीवके तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य प्रदेश उदय होता है । उच्चगोत्र और पांच अन्तराय कर्मोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानावरण के समान है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । यहां एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष; इन अनुयोगद्वारोंका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । यहां अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । उसमें ओघ उत्कृष्ट प्रदेश उदयका दण्डकमिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलाका संख्यातगुणा है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धिका विशेष अधिक है । अनन्तानुबंधी कषायों में अन्यतरका विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरका असंख्यातगुणा है । प्रत्याख्यानावरण में अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रचलाका असंख्यातगुणा है । निद्राका विशेष अधिक है । सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका संख्यातगुणा है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । देवायुका अनन्तगुणा है । नरकाका विशेष अधिक है । मनुष्यायुका संख्यातगुणा हैं । तिर्यगायुका विशेष अधिक Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ) छक्खंडागमे संतकम्म विसे । आहारसरी णामाए असंखे० गुणो। णिरयगइणामाए असंखे० गुणो। तिरिक्खगइणामाए विसे० । अजसगित्तीए विसे० । णीचागोदस्स संखे० गुणो। वेउव्वियसरीरणामाए असंखे० गुणो । देवगइणामाए संखे० गुणो। दुगुंछाए असंखे० गुणो । भय० तत्तियो चेत्र । हस्स-सोग० विसेसा० । रदि-अरदि० विसे० । इत्थिवेदे० असंखे० गुणो । णवंसयवेदे ४ विसेसा० । पुरिसवेद० असंखे० गुणो। कोधसंजलणाए असंखे० गुणो। माणसंजलणाए असंखे० गुणो। माया० असंखे० गुणो। ओरालियसरीर० असंखे० गुणो । तेजासरीर० विसेसाहिओ । कम्मइयसरीर० विसे० । मगुसगई० असंखे० गुणो। दाणंतराइयस्स असंखे० गुणो। लाहंतराइयस्स विमेसा० भोगतरा० विसे० । परिभोगंतरा० विसे० । विरियंतराइयस्स विसेसा० । ओहिणाणावरण विसे० । मणपज्जवणाणावरण० विसे० । ओहिदसणावरण विसे० । सुदणाणावरण० विसे० । मदिणाणावरण विसे० । अचक्खुदंसणावरण विसे० । जसगित्तिणामाए विसेसा० । उच्चागोदस्स विसे० । लोभसंजलग० विसे० । सादासादाणं विसे० । ओघुक्कस्सपदेसुदयदंडओ समत्तो। णिरयगईए उक्कस्सओ पदेसउदओ सम्मामिच्छत्तस्स थोवो। पयलाए संखेज्ज है। आहारकशरीर नामकर्मका असंख्यातगणा है । नरकगति नामकर्मका असंख्यातगणा है। तिर्यग्गति नामकर्मका विशेष अधिक है । अयशकीर्तिका विशेष अधिक है । नीचगोत्रका संख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीर नामकमका असंख्यातगुणा है। देवगति नामकर्मका संख्यातगुणा है। जुगुप्साका असंख्यातगुणा है। भयका उतना मात्र ही है। हास्य व शोकका विशेष अधिक है। रति व अरतिका विशेष अधिक है । स्त्रीवेदका असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदका विशेष अधिक है । पुरुषवेदका असंख्यातगुणा है । संज्वलनक्रोधका असंख्यात है। संज्वलनमानका असंख्यातगणा है। संज्वलनमायाका असंख्यातगणा है। औदारिकशरीरका असंख्यातगुणा है। तैजसशरीरका विशेष अधिक है । कार्मणशरीरका विशेष अधिक है। मनुष्यगतिका असंख्यातगुणा है । दानान्तरायका असंख्यातगुणा है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्त रायका विशेष अधिक है ।परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मनःपर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । यशकीर्ति नामकर्मका विशेष अधिक है । उच्चगोत्रका विशेष अधिक है। संज्वलनलोभका विशेष अधिक है । साता व असाता वेदनीयका विशेष अधिक है । ओघ-उत्कृष्ट-प्रदेश-उदयदण्डक समाप्त हुआ। नरकगतिमें सम्यम्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय स्तोक है । प्रचलाका संख्यातगुणा है । ४ अ-काप्रन्यो: 'वेदो' इति पाठः । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा गुणो। णिहाए विसे० । मिच्छत्तस्स असंखे० गुणो। अणंताणुबंधि० संखे० गुणो । केवलणाणावरण० असंखे० गुणो । केवलदसणावरण० विसेसा० । अपच्चक्खाणाव० विसेकापच्चक्खाणावरण० विसे० सम्मत्ते असंख० गुणोणिरयाउ० अणंतगुणो समयपबद्धस्स संखे० भागो० । ओहिणाणावरण० संखे० गुणो । ओहिदसणावर० विसे० । वेउव्वियसरीर० असंखे० गुणो। तेजासरीर० विसे० । कम्मइयसरीर० विसे० । णिरयगई० संखे० गुणो । अजसकित्ति० विसेसा० । णवंसयवेद० संखे० गुगो । दाणंतराइय० विसे०। लाहंतराइय० विसे। भोगंतराइय० विसे०। परिभोगंतराइय० विसे० । वीरियंतराइय० विसे० । भय-दुगुंछा० विसे० । हास्स० विसे० । सोग० विसे० । रदि० विसे० । अरदि० विसेसा० । मणपज्जव० विसे० । सुदणाणावरण विसे० । मदिणाणावरण विसे० । अचक्खु० विसे० । ( चक्खु० विसे० । ) संजलणकसाय० अण्णदर० विसे० । णीचागोद० विसे । साद० विसे० । असाद. विसे० । एवं णिरयगईए उक्कस्सओ पदेसउदओ समत्तो। तिरिक्खगईए उक्कस्सओ सम्मामिच्छत्तस्स पदेसउदओ थोवो। पयलाए संखे० गुणो। णिद्दाए विसेसा० । पयलापयला० विसे० । णिद्दाणिद्दा०विसे० । थोणगिद्धीए निद्राका विशेष अधिक है । मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धीका संख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरणका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणका विशेष अधिक है । सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । नारकायुका अनन्तगुणा है जो समयप्रबद्धके संख्यातवें भाग प्रमाण है । अवधिज्ञानावरणका संख्यातगुणा है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । वैक्रियिकशरीरका असंख्यातगुणा है । तैजस शरीरका विशेष अधिक है । कार्मण शरीरका विशेष अधिक है। नरकगतिका संख्यातगुणा है । अयशकीर्तिका विशेष अधिक है । नपुंसकवेदका संख्यातगुणा है । दानान्तरायका विशेष अधिक है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । भय और जुगुप्साका विशेष अधिक है । हास्यका विशेष अधिक है। शोकका विशेष अधिक है। रतिका विशेष अधिक है । अरतिका विशेष अधिक है । मनःपर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । ( चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । ) संज्वलनकषायोंमें अन्यतरका विशेष अधिक है । नीचगोत्रका विशेष अधिक है। सातावेदनीयका विशेष अधिक है। असाता वेदनीयका विशेष अधिक है । इस प्रकार नरकगतिमें उत्कृष्ट प्रदेशउदय समाप्त हुआ। तिर्यग्गतिमें सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय स्तोक है । प्रचलाका संख्यातगुणा है । निद्राका विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलाका विशेष अधिक है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ) छक्खंडागमे संतकम्म विसे। मिच्छत्ते असंखे० गुणो। अणंताणुबंधि० संखे० गुणो। केवलणाणावरण असंखे० गुणो। केवलदसणाव० विसे० । अपच्चक्खाणावर० विसे० । पच्चक्खाण० विसे० । सम्मत्त० असंखे० गुणो। तिरिक्खाउ० अणंतगुणो। वेउव्वियसरीर० असंखे० गुणो । अजसगित्ति० असंखे० गुणो। इत्थि-णवंसयवेद० संखे० गुणो। उच्चागोद० संखे० गुणो । ओरालियसरीर० असंखे० गुणो। तेजासरीर० विसे० । कम्मइय० विसे० । तिरिक्खगदि० संखे० गुणो। जसगित्ति० विसे । पुरिसवेद० संखे० गुणो। दाणंतरइय० विसे० । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे० । परिभोगंतराइय० विसे० । वीरियंतराइय० विसेसा० । भय-दुगुंछा० विसे० । हस्स-सोग० विसे० । रदि-अरदि० विसे० । ओहिणाणावरण. विसे० । मणपज्जव० विसेसाहिओ। ओहिदंसण० विसे० । सुदणाण० विसे० । मदिणाण० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे । संजलणाए अण्णदरिस्से विसे० । णीचागोद० विसे० । सादासाद० दो वि तुल्ला विसे० । एवं तिरिक्खगईए उक्कस्सदंडओ समत्तो। तिरिक्खजोणिणीसु उक्कस्सपदेसउदओ सम्मामिच्छत्ते थोवो। पयलाए संखे० गुणो। णिदाए विसेसाहिओ। पयलापयलाए विसे० । णिहाणिद्दाए विसे० । थीण स्त्यानगृद्धिका विशेष अधिक है। मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी कषायोंमेंसे अन्यतरका संख्यातगुणा है। केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है। केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानवरणका विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरणका विशेष अधिक है। सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । तिर्यगायुका अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीरका असंख्यातगुणा है । अयशकीर्तिका असंख्यातगुणा है । स्त्री व नपुंसकवेदका संख्या नगुणा है । उच्चगोत्रका संख्यातगुणा है । औदारिकशरीरका असंख्यातगुणा है। तैजसशरीरका विशेष अधिक है। कार्मणशरीरका विशेष अधिक है । तिर्यग्गतिका संख्यातगुणा है । यशकीर्तिका विशेष अधिक है। पुरुषवेदका संख्यातगुणा है । दानान्तरायका विशेष अधिक है । लाभान्त रायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । भय व जुगुप्साका विशेष अधिक है। हास्य व शोकका विशेष अधिक है। रति व अरतिका विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मन:पर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । संज्वलन कषायोंमेंसे अन्यतरका विशेष अधिक है । नीचगोत्रका विशेष अधिक है । साता व असाता वेदनीय दोनोंका ही तुल्य व विशेष अधिक है । इस प्रकार तिर्यग्गतिमें उत्कृष्ट दण्डक समाप्त हुआ। तिर्यंच योनिमतियोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय स्तोक है। प्रचलाका संख्यातगुणा है। निद्राका विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलाका विशेष अधिक है । निद्रानिद्राका मप्रति पाठोऽयम् । अ-का त्योः 'सम्मामिच्छत्तादो', तातो 'सम्पामिच्छतादो (तस्स ) इति पाठः । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयानुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३१३ गिद्धीए विसे० । मिच्छत्ते असंखे० गुणो० । अनंताणुबंधी० संखे० गुणो । सम्मत्ते असंखे० गुणो । केवलणाण० संखे० गुणो । केवलदंसण १० विसे० । अपच्चदखाण० विसे० । पच्चक्खाण ० विसे० । तिरिक्खाउ० अनंतगुणो । वेउव्वियसरीर० असंखे ० गुणो । ओरालिय सरीर० असंखे० गुगो | तेजा० विसे० । कम्मइय० विसे०। तिरिक्खइ० संखे० गुणो । जसकित्ति अजसकित्तीणं उदओ तुल्लो विसेसाहिओ । इत्थवेद ० संखे० गुणो । दाणंतराइय विसे० । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे० । परिभोगंतरा ० विसे० । विरियंतरा० विसे० । भय-दुगंछा० विसे० । हस्स - सोग० विसे० ० । रदि-अरदि० विसे० । ओहिणाण० विसे० । मणपज्जव ० विसे० । ओहिदंसण विसे० । सुदणाण० विसे० । मदिणाण० विसे० । अचक्खुदं० विसे० । चक्खु ० विसे० । संजलण० विसे० । उच्च णीच० उदओ तुल्लो विसे० । सादासादाणं विसे० । तिरिक्खजोणिणीसु उक्कस्सओ पदेसुदयदंडओ समत्तो । 2 मईए उक्कसओ पदेसुदओ मिच्छत्ते थोवो । सम्मामिच्छत्ते विसे० । पयलापयला० संखे० गुणो । णिद्दाणिद्दाए विसे० । थीणगिद्धीए विसे० । अनंताणुबंधीणं I विशेष अधिक है । स्त्यानगुद्धिका विशेष अधिक है । मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धिचतुष्क में अन्यतरका संख्यातगुणा है । सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका संख्यातगुणा है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । तिर्यगायुका अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीरका असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरका असंख्यातगुणा है । तं सशरीरका विशेष अधिक है । कार्मणशरीरका विशेष अधिक है । तिर्यग्गतिका संख्यातगुणा है । यशकीर्ति और अयशकीर्तिका उदय तुल्य व विशेष अधिक हैं । स्त्रीवेदका संख्यातगुणा है । दानान्तरायका विशेष अधिक है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । भय और जुगुप्साका विशेष अधिक है । हास्य व शोकका विशेष अधिक है । रति व अरतिका विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मन:पर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । संज्वलनचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । उच्च व नीच गोत्रका उदय तुल्य व विशेष अधिक है । साता व असाता वेदनीयका विशेष अधिक है । तिर्यंच योनिमतियों में उत्कृष्ट प्रदेश उदय- दण्डक समाप्त हुआ । मनुष्यगति में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्व में विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलाका संख्यातगुणा है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धिका विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी कषायों का विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण कषायों में तातो 'अनंताणुबंधी ० संखे० गुणो । केवलदंसण०' इति पाठ: । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४) छक्खंडागमे संतकम्म विसे० । अपच्चक्खाणकसाएसु असंखे० गुणो। पच्चक्खाणकसाएसु विसे० । पयलाए असंखे० गुणो । णिद्दाए विसे० । सम्मत्ते असंखे० गुणो। केवलणाण० संखे० गुणो । केवलदसण विसे० । मणुस्साउ० अणंतगुणो। वेउव्वियसरीरणामाए असंखे० गुणो। आहारसरीरस्स विसे । अजसकित्तीए असंखे० गुणो । णोचागोदे संखे० गुणो। भय-दुगुंछा० असंखे० गुणो। हस्स-सोग विसेसा० । रदि-अरदीसु विसे० । इत्थिवेद० असंखे० गुणो । णवंसयवेद० विसे० । पुरिसवेद० असंखे० गुणो। कोधसंजलणाए असंखे० गुणो । माण० असंखे० गुणो । माया० असंखे० गुणो। ओरालियसरीरणामाए असंखे० गुणो । तेजासरीर० विसे० । कम्मइय० विसे० । मणुसगइ० असंखे० गुणो । दाणंतराइय० संखे० गुणो। लाहंतरा० विसे० । भोगतराइय० विसे० । परिभोगंतराइय० विसे० । वीरियंतराइय० विसे० । ओहिणाण० विसे० । मणपज्जव० विसे० । ओहिदसण. विसे० । सुदणाण. विसे० । मदिणाण. विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । जसकित्ति० विसे० । उच्चागोदे विसे० । लोहसंजलणाए विसे । सादासादाणं विसे । एवं मणुसगदीए उक्कस्सपदेसउदओ समत्तो। देवगदीए उक्कस्सओ पदेसउदओ सम्मामिच्छत्ते थोवो । पयलाए संखे० गुणो । अन्यतरका असंख्यातगुणा है । प्रत्याख्यानावरण कषायोंमें अन्यतरका विशेष अधिक है। प्रचलाका असंख्यातगुणा है । निद्राका विशेष अधिक है। सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है। केवलज्ञानावरणका संख्यातगुणा है । केकलदर्शनावरणका विशेष अधिक है। मनुष्यायुका अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीर नामकर्मका असंख्यातगुणा है । आहारशरीरका विशेष अधिक है। अयशकीर्तिका असंख्यातगुणा है । नीचगोत्रका संख्यातगुणा है। भय और जुगुप्साका असंख्यातगुणा है । हास्य व शोकका विशेष अधिक है। रति व अरतिमें विशेष अधिक है। स्त्रीवेदक असंख्यातगुणा है । नपुंसकवेदका विशेष अधिक है। पुरुषवेदका असंख्यातगुणा है। संज्वलनक्रोधका असंख्यातगुणा है । संज्वलनमानका असंख्यातगुणा है । संज्वलनमायाका असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीर नामकर्मका असंख्यातगुणा है । तैजसशरीर नामकर्मका विशेष अधिक है । कार्मणशरीर नामकर्मका विशेष अधिक है। मनुष्यगति नामकर्मका असंख्यातगुणा है । दानान्तरायका संख्यातगुणा है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है। परिभोगान्त रायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणका विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। यशकीर्तिका विशेष अधिक है। उच्चगोत्रका विशेष अधिक है । संज्वलनलोभका विशेष अधिक है। साता व असाता वेदनीयका विशेष अधिक है। इस प्रकार मनुष्यगतिमें उत्कृष्ट प्रदेश-उदय समाप्त हुआ। देवगतिमें सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदय स्तोक है । प्रचलाका संख्यातगुणा है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३१५ गिद्दाए विसे० । मिच्छत्ते असंखे० गुणो। अणंताणुबंधि० संखे० गुणो। अपच्चक्खाणकसाए असंखे० गुणो। पच्चक्खाणकसाए विसे० । केवलणाण० असंखे० गुणो। केवलदसण. विसे०। सम्मत्ते असंख० गुणो। देवाउ० अणंतगुणो। ओहिणाणावरण. संखे० गुणो। ओहिदंसणाव. विसे० । अजसगित्ति० असंखे० गुणो। इथिवेद० संखे० गुणो। भय-दुगुंछा० असंखे० गुणो । सोग० विसे० । हस्स विसे० । अरदि० विसे । रदि० विसे०। पुरिसवेद० असंखे० गुणो। कोहसंजलगाए असंखे० गुणो । माणस्स असंखे० गुणो। मायस्स असंखे० गुणो। लोभस्स असंखे० गुणो। वेउव्वियसरीर० असंखे० गुणो। तेजा० विसे० । कम्मइय० विसे० । देवगई० संखे० गुणो। जसगित्ति० विसे० । दाणंतराइय० संखे० गुणो। लाहंतराइय०. विसे० । भोगंतराइय० विसे । परिभोगंतरा० विसे० । विरियंतराइय० विसे० । मणपज्जव० विसे० । सुदणाण० विसे०। मदिणाण० विसे०। अचक्खुदं० विसे० । चक्खदं० विसे० । उच्चागोद० विसेसाहिओ । असाद० विसे० । साद० विले० । एवं देवगदीए उक्कस्सओ पदेसुदयदंडओ समत्तो। असण्णीसु उक्कस्सओ पदेसुदओ पयलाए थोवो। णिहाए विसे० । पयलापयलाए निद्राका विशेष अधिक है । मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी कषायोंमें अन्यतरका संख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरणमें अन्यतरका असंख्यातगुणा है। प्रत्याख्यानावरण कषायमें अन्यतरका विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है। केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है। सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है। देवायुका अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरणका संख्यातगुणा है। अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है। अयशकीतिका असंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदका संख्यातगुणा है । भय व जुगुप्साका संख्यातगुणा है। शोकका विशेष अधिक है। हास्यका विशेष अधिक है। अरतिका विशेष अधिक है। रतिका विशेष अधिक है । पुरुषवेदका संख्यातगुणा है । संज्वलनक्रोधका असंख्यातगुणा है । संज्वलनमानका असंख्यातगुणा है। संज्वलनमायाका असंख्यातगुणा है। संज्वलनलोभका असंख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरका असंख्यातगुणा है। तैजसशरीरका विशेष अधिक है। कार्मणशरीरका विशेष अधिक है। देवगतिका संख्यातगुणा है। यशकीर्तिका विशेष अधिक है। दानान्तरायका संख्यातगुणा है। लाभान्तरायका विशेष अधिक है। भोगान्तरायका विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है। वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणा विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावर विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। उच्चगोत्रका विशेष अधिक है। असातावेदनीयका विशेष अधिक है । सातावेदनीयका विशेष अधिक है। इस प्रकार देवगतिमें उत्कृष्ट प्रदेश-उदय दण्डक समाप्त हुआ। असंज्ञियोंमें प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेश उदय स्तोक है । निद्राका विशेष अधिक है । प्रचला * अप्रतौ 'संखे० गुणो' इति पाठः । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ) छक्खंडागमे संतकम्म विसे। णिद्दाणिद्दाए विसे० । थोणगिद्धीए विसेसा० । मिच्छत्ते असंखे० गुणो । केवलणाण० विसे० । केवलदंसण० विसे० । अपच्चवखाण० विसे० । पच्चक्खाण० विसे। अणंताणुबंधि० विसे० । णिरयगई० अणंतगुणो । देवगई विसे०। मणुसगई० विसे० । देवाउ० असंखे० गुणो। णिरयाउ० विसे० । मणुसाउ० संखे० गुणो । उच्चागोद० असंखे० गुणो। तिरिक्खाउ० संखे० गुणो । णिरय-देव-मणुसगईण देव-णिरय-मणुस्साउआणमुच्चागोदस्स य कधमसण्णीसुदओ ? ण, असण्णिपच्छायदाणं णेरइयादीण मुवयारेण असण्णित्तब्भुवगमादो । मणुसगइपदेसोदयादो देवाउआदीणं पदेसोदयस्स कुदो असंखेज्जगुणत्तं ? ण, विलिदिए मोत्तूण पयदअसण्णिपंचिदिएसु चेव संचिददव्वग्गहणे तदविरोहादो । मणुस्साउअउक्कस्सोदयादो उच्चागोद-तिरिक्खाउआणमुक्कस्सोदयस्स कुदो असंखेज्जगुणत्तं ? ण, बंधगद्धाए असंखेज्जगुणत्तेण च आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स अंतोमुहुत्तत्तमसिद्धं, एदम्हादो चेव सुत्तादो तस्स तब्भावसिद्धीदो। प्रचलाका विशेष अधिक है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है । स्त्यानगुद्धिका विशेष अधिक है । मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है। अनन्तानुबंधिचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है। नरकगतिका अनन्तगुणा है । देवगतिका विशेष अधिक है। मनुष्यगतिका विशेष अधिक है। देवायुका असंख्यातगुणा है । नारकायुका अिशेष अधिक है । मनुष्यायुका संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रका असंख्यातगुणा है । तिर्यगायुका संख्यातगुणा है । शंका- नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, देवायु, नारकायु, मनुष्यायु और उच्चगोत्रका उदय असंज्ञी जीवोंमें कैसे सम्भव है ? समाधान- नही, क्योंकि, असंज्ञी जीवोंमेंसे पीछे आये हुए नारकी आदिकोंको उपचारसे असंज्ञी स्वीकार किया गया है। ___ शंका- मनुष्यगतिके प्रदेशोदयकी अपेक्षा देवायु आदिकोंका प्रदेशोदय असंख्यातगुणा कसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, विकलेन्द्रियोंको छोडकर प्रकृत असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें ही संचित द्रव्यका ग्रहण करनेपर उसमें कोई विरोध नहीं है। शंका- मनुष्यायुके उत्कृष्ट प्रदेशोदयसे उच्चगोत्र और तिर्यंचआयुका उत्कृष्ट प्रदेशोदय असंख्यातगुणा कैसे है ? __ समाधान- नहीं, बन्धककालके असंख्यातगुणे होनेसे भी आवलीके असंख्यातवें भागके अन्तर्मुहूर्तता असिद्ध है, इसी सूत्रसे ही उसके असंख्यातगुणत्व सिद्ध है। ० अप्रतौ ‘णिरयगई०' इति पाठः। * अप्रतौ ‘णेरयदीण', काप्रती 'णिरयादीण'. ताप्रती 'णेरयादीण' इति पाठः। *ताप्रती 'असंखेज्जगुणतं ' इति पाठः । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३१७ सव्वमेदं होदु णाम, ण उच्चागोदादो तिरिक्खाउअस्स संखेज्जगुणत्तं; संखेज्जावलियमेत्तुच्चागोदसमयपबद्धेसु दिवड्ढगुणहाणीए छिण्णेसु एगसमयपबद्धस्स असंखे० भागुवलंभादो संखेज्जावलियछिण्णतिरिक्खाउअम्हि समयपबद्धस्स संखेज्जदिभागत्तुवलंभादो। ण च उव्वेलणाचरिमफालिदवे वि गहिदे संखेज्जगुणत्तं जुज्जदे, तिस्से पलिदोवमस्स असंखे० भागपमाणत्तादो। जदि असण्णीसु उच्चागोदस्स उक्कस्ससंचयं करिय वाउक्काइएसुप्पज्जिय अंतोमुहत्तुवेल्लणाए संखेज्जावलियमेत्तट्टिदि ठविय असण्णीसुप्पज्जिय उच्चागोदोदइल्लेसुपप्पज्जदि तो एदं घडदे। ण च उव्वेल्लणकालो जहण्णओ वि अंतोमुत्तमेत्तो अत्थि, एइंदिएहि आढत्तद्विदिखंडयाणमायामस्स पलिदोवमस्स असंखे० भागणियमुवलंभादो त्ति ? ण, सयलसुदविसयावगमे पयडिजीवभेदेण णाणाभेदभिण्णे असंते एदं ण होदि ति वोत्तुमसक्कियत्तादो। तम्हा सुत्ताणुसारिणा सुत्ताविरुद्धं वक्खाणमवलंबेयव्वं ।। __ ओरालिय० संखे० गुणो । तेजा० विसे० । कम्मइय० विसे० । तिरिक्खगइ० संखे० गुणो। जसकित्ति-अजसकित्ति० विसेसा० । अण्णदरवेदे विसे० । दाणंतराइय० विसे । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे० । परिभोगंतरा० विसे० । वरि० शंका-- यह सब वैसा हो, किन्तु उच्चगोत्रकी अपेक्षा तिर्यंच आयके संख्यातगणत्व सम्भव नहीं है; क्योंकि, संख्यात आवलियों मात्र उच्चगोत्रके समयप्रबद्धोंमें डेढ गुणहानिका भाग देनेपर एक समय प्रबद्धका असंख्यातवां भाग पाया जाता है, तथा संख्यात आवलियोंसे भाजित तिर्यच आयुमें समयप्रबद्धका संख्यातवां भाग पाया जाता है। यदि कहा जाय कि उद्वेलनाकी अन्तिम फालिके द्रव्यको ग्रहण करनेपर तिर्यंच आयुके संख्यातगुणत्व बन सकता है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि, वह ( फालि ) पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यदि असंज्ञी जीवोंमें उच्चगोत्रके उत्कृष्ट संचयको करके फिर वायकायिक जीवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहुर्त उद्वेलना द्वारा संख्यात आवली मात्र स्थितिको स्थापित कर असंज्ञियोंमें उत्पन्न होकर उच्चगात्रके उदय युक्त जीवों में उत्पन्न होता है तो यह घटित हो सकता है, परन्तु उद्वेलनाका काल जघन्य भी अन्तर्मुहुर्त मात्र नहीं है; क्योंकि, एकेन्द्रियों के द्वारा प्रारम्भ किये गये स्थितिकाण्डकोंके आयामके पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होनेका नियम पाया जाता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, प्रकृतियों और जीवोंके भेदसे नाना भेदोंको प्राप्त हुए समस्त श्रुतविषयक ज्ञानके न होने पर यह नहीं हो सकता' ऐसा कहना शक्य नहीं है। इस कारण सूत्रका अनुसरण करनेवाले प्राणीको सूत्रसे अविरुद्ध व्याख्यानका अवलम्बन करना चाहिये। __ तिर्यंच आयके उत्कृष्ट प्रदेशोदयकी अपेक्षा औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशोदय संख्यातगुणा है। उससे तैजसशरीरका विशेष अधिक है। कार्मणशरीरका विशेष अधिक है। तिर्यचगतिका संख्यातगुणा है। यशकीर्ति व अयशकीर्तिका विशेष अधिक है। अन्यतर देवका विशेष अधिक है। दानान्तरायका विशेष अधिक है। लाभान्तरायका विशेष अधिक है। 0 अ-काप्रत्योः 'उच्चागोदइल्लेसु-' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः ‘आदत्त' इति पाठः । का-ताप्रत्योर्नोग्लभ्यते वाक्यमिदम् । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ) छक्खंडागमे संतकम्म यंतराइय० विसे० । भय-दुगुंछा० विसे० । हस्स-सोग विसे० । रदि-अरदि० विसे०। मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण० विसे० । सुदणाण. विसे । मदिणाण. विसे । ओहिदसण. विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । संजलणाणं अण्णयरस्स विसे । णीचागोद० विसे० । सादासाद० विसेसाहिओ । एवमसण्णीसुक्कस्सपदेसुदयदंडओ समत्तो। एत्तो जहण्णगो- जहण्णपदेसुदओ मिच्छत्ते थोवो। सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो। सम्मत्ते असंखे० गुणो। अपच्चक्खाण असंख० गुणो। पच्चक्खाण० विसे०। अणंताणुबंधि० असंखे० गुणो। पयलापयला० असंखे० गुणो। णिद्दाणिद्दाए विसे०। थोणगिद्धी० विसे०। केवलणाण० विसे०। पयलाए विसे० । णिद्दाए विसे० । केवलदसण. विसे० । दुगुंछा० अणंतगुणो। भय० विसे०। हस्स० विसे०। रदि० विसे०। पुरिसवेद० विसे। संजलणस्स अण्णदरस्स विसे० । ओहिणाण. असंखे० गुणो ओहिदसण विसे० । णिरयाउ० असंखे० गुणो। णेदं जुज्जदे, एइंदियसमयपबद्धमेत्तओहिदंसणावरण-जहण्णुदयादो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागेणोवट्टिदएगसमयपबद्धमेत्तणिरयाउअजहण्णुदयस्स भोगान्तरायका विशेष अधिक है। परिभोगान्त रायका विशेष अधिक है। वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । भय और जुगुप्साका विशेष अधिक है । हास्य व शोकका विशेष अधिक है। रति व अरतिका विशेष अधिक है । मनःपर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणका विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। संज्वलन कषायोंमें अन्यतरका विशेष अधिक है । नीचगोत्रका विशेष अधिक है । साता व असाता वेदनीयका विशेष अधिक है । इस प्रकार असंज्ञी जीवोंमें उत्कृष्ट प्रदेशोदय-दण्डक समाप्त हुआ। यहां जघन्य प्रदेशोदय दण्डक अधिकार प्राप्त है । वह जघन्य प्रदेशोदय मिथ्यात्वमें स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। सम्यक्त्वमें असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका असंख्यातगुणा है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें अन्यतरका असंख्यातगुणा है । प्रचलाप्रचलाका असंख्यातगणा है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धिका विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणका विशेष अधिक है । प्रचलाका विशेष अधिक है । निद्राका विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । जुगुप्साका अनन्तगुणा है। भयका विशेष अधिक है । हास्यका विशेष अधिक है । रतिका विशेष अधिक है । पुरुषवेदका विशेष अधिक है। संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । नारकायुका असंख्यातगुणा है। शंका- यह योग्य नहीं है, क्योंकि, एकेन्द्रियके समय प्रबद्ध मात्र जो अवधिदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशोदय है उसकी अपेक्षा अंगुलके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित एक समयप्रबद्ध Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३१९ असंखेज्जगुणत्तविरोहादो ? ण ओकड्डुक्कड्डणाए विणा अवट्ठिदट्ठिदिपदेस संतकम्मे aara विड्ढगुणहाणिभागहारुववत्तीए । ण च एसो अत्थो पारमत्थिओ, ओकडुक्कडुणाहि हेट्ठवरि पक्खित्ते पदेसग्गणिसेगस्स असंखेज्जलोगभागहारे संते विरो हाभावादो । तम्हा उभयत्य जदि वि भागहारो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो तो वि भागहारस्स थोवबहुत्तं सुत्तबलेण अत्रगंतव्वं । - । देवाउ ० विसे० । तिरिक्खाउ० असंखे० गुणो । मणुस्साउ० विसे० । ओरालिय० असंखे० गुणो | तेजा० विसे०। कम्मइय० विसे० । वेउव्विय० विसे० । आहार० विसे०। तिरिक्खगइ० संखे० गुणो । जसकित्ति अजसगित्ति० दो वि तुल्ला विसे० । देवगइ० विसे० । मणुसगइ० विसे० । णिरयगइ० विसे० । सोग० संखे० गुणो । अरदि० विसे० । इत्यिवेद० विसे० । णवुंसयवेद० विसे० । दाणंतराइय० विसे० । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतरा० विसे० । परिभोगंतरा ० विसे० । वीरियंतरा० विसे० । मणपज्जव० विसे० । सुदणाण० विसे० । मदिआवरण० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु ० विसे० । उच्चागोदे ० विसे० । णीचागोदे० विसे० । सादासादेसु० विसे० । एवमोघजहणपदे सुदयदंडओ समत्तो । मात्र नारकायुके जघन्य प्रदेशोदय के असंख्यातगुणे होने में विरोध है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, अपकर्षण- उत्कर्षण के विना अवस्थित स्थितिवाले प्रदेशसस्कर्मकी विवक्षा होनेपर डेढ गुणहानि भागहार बन जाता है । परन्तु यह अर्थ पारमार्थिक नहीं है, क्योंकि, अपकर्षण- उत्कर्षण द्वारा नीचे ऊपर प्रक्षेप करनेपर प्रदेशाग्र सम्बन्धी निषेकका असंख्यात लोक भागहार होने में कोई विरोध नहीं है । इस कारण दोनों स्थानों में यद्यपि भागहार अंगुलका असंख्यातवां भाग है तो भी उनमें सूत्रबल से स्तोकता व अधिकता समझनी चाहिये । नारकायुके जघन्य प्रदेशोदयसे देवायुका जघन्य प्रदेशोदय विशेष अधिक है । तिर्यंच आयुका असंख्यातगुणा है । मनुष्यायुका विशेष अधिक है । औदारिकशरीरका असंख्यातगुणा है । तैजस शरीरका विशेष अधिक है । कार्मणशरीरका विशेष अधिक है । वैक्रियिकशरीरका विशेष अधिक है । आहारकशरीरका विशेष अधिक है । तिर्यचगतिका संख्यातगुणा है । यशकीर्ति व अयशकीर्ति दोनोंका तुल्य विशेष अधिक है । देवगतिका विशेष अधिक है । मनुष्यगतिका विशेष अधिक है । नरकगतिका विशेष अधिक है । शोकका संख्यातगुणा है । अरतिका विशेष अधिक है । स्त्रीवेदका विशेष अधिक है । नपुंसकवेदका विशेष अधिक है । दानान्तरायका विशेष अधिक है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । मनः र्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । उच्चगोत्रका विशेष अधिक है । नीचगोत्रका विशेष अधिक है । साता व असाता वेदनीयका विशेष अधिक है । इस प्रकार ओव जघन्य प्रदेशोदय - दण्डक समाप्त हुआ । T Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ) छक्खंडागमे संतकम्म णिरयगईए जहण्णओ पदेसुदओ मिच्छत्ते थोवो । सम्मामिच्छत्ते असंखे०गुणो। सम्मत्ते असं० गुणो। अणंताणुबंधि० असंखे० गुणो । केवलणाण० असंखे० गुणो० । केवलदसणा० विसे० । पयलाए त्रिसे० । णिहाए विसे० । अपच्चक्खाण विसे० । पच्चक्खाण० विसे० । ओहिणाणावरण० अणंतगुणो। ओहिदसणावरण० विमे० । णिरयाउ० असंखे० गुणो। वेउव्विय० असंखे० गुणो। तेजा० विसे० । कम्मइय० विसेसा० । णिरयगइ० संखे० गुणो । अजसकित्ति० विसे० । दुगुंछा० संखे० गुणो । भय० विसे० । सोग विसे०। हस्स० विसे० । अरदि० विसे० । रदि० विसे०। णवूप्सयवेद० विसे० । दाणंतराइय० विसे । लाहंतरा० विसे० । भोगंतरा० विसे। परिभोगंतराइय० विसे० । वीरियंतराइय० विसे० । मणपज्जव० विसे० । सुदणाण० विसे । मदिणाण० विसे० अचक्खुदं० विसेसा० । चक्खुदं० विसे० । संजलण विसे० । णीचागोद० विसे० । असाद० विसे० । साद० विसेसाहिओ। एवं णिरयगईए जहण्णओ पदेसुदयदंडओ समत्तो। तिरिक्खगईए जहण्णगो पदेसुदओ मिच्छत्ते थोवो। सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो । सम्मत्ते असंखे० गुणो । अणंताणुबंधि० असंखे० गुणो। केवलणाण० असंखे० नरकगतिमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशोदय स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबंधिचतुष्कमें अन्यतरका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । प्रचलाका विशेष अधिक है । निद्राका विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणका अनन्तगुणा है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । नरकायुका असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरका असंख्यातगुणा है। तैजसशरीरका विशेष अधिक है। कार्मणशरीरका विशेष अधिक है। नरकगतिका संख्यातगुणा है । अयशकीतिका विशेष अधिक है । जुगुप्साका संख्यातगुणा है । भयका विशेष अधिक है। शोकका विशेष अधिक है। हास्यका विशेष अधिक है । अरतिका विशेष अधिक है। रतिका विशेष अधिक है। नपुंसकवेदका विशेष अधिक है। दानान्तरायका विशेष अधिक है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है। भोगान्तरायका विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणका विशष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है। नीचगोत्रका विशेष अधिक है। असातावेदनीयका विशेष अधिक है । सातावेदनीयका विशेष अधिक है । इस प्रकार नरकगतिमें जघन्य प्रदेशोदयदण्डक समाप्त हुआ। तिर्यंचगतिमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशोदय स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें अन्यतरका असंख्यातगुणा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उदयानुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा (- ३२१ l गुणो । पलाए विसे० । णिद्दा० बिसे० । पयलापयला ० विसे० । णिद्दाणिद्दाए विसे० | थी गिद्धी० विसे० । केवलदं० विसे० । अपच्चक्खाण० विसे० । पच्चवखाण० विसे० । ओहिणाण० अनंतगुणो । ओहिदंस० विसे० । तिरिखखाउ० असंखे ० गुणो । ओरालिय० असंखे० गुणो । तेजा० विसे० । कम्मइय० विसे० । वेउ० विसे० । तिरिक्खगइ० संखे० गुणो । जसकित्ति - अजसगित्ति० विसे० । दुगंछाए संखेज्जगुणो । भये विसे० । हस्स विसे० । सोगे विसे० । रदि-अरदीसु विसे० । सयवेदे विसे ० । इत्थि पुरिसदेवे विसे० । दाणंतराइय० विसेसा । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे० । परिभोगंतरा० विसे० । वीरियंतराइय० विसेसा । मणपज्जव० विसे० । सुदणाण० विसे० । मदिणाण० विसे० । अचक्खु ० विसे० । चक्खु ० विसे० । संजलण० विसे० । णीचागोद० विसे० । उच्चागोद० विसेसा०, खविदकम्मंसियलक्ख गेणागतूण सण्णीसुप्पज्जिय संजमासंजम घेत्तूण पुणा मिच्छत्तं पडिवज्जिय गुणसेडीओ गालिय पुणो वि संजमासंजम पडिवज्जिय आवलियसंजदा 1 है । केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है । प्रचलाका विशेष अधिक है । निद्राका विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलाका विशेष अधिक है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धिका विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । अवधि - ज्ञानावरणका अनन्तगुणा है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । तिर्यंचआयुका असंख्यात - गुणा है । औदारिकशरीरका असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरका विशेष अधिक है । कार्मणशरीरका विशेष अधिक है । वैक्रियिकशरीरका विशेष अधिक है । तिर्यंचगतिका संख्यातगुणा है । यशकीर्ति और अयशकीर्तिका विशेष अधिक है । जुगुप्साका संख्यातगुणा है । भयका विशेष अधिक है । हास्यका विशेष अधिक है । शोकका विशेष अधिक है । रति और अरतिका विशेष अधिक है । नपुंसकवेदका विशेष अधिक है । स्त्री और पुरुष वेदका विशेष अधिक है । दानान्तरायका विशेष अधिक है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । मन:पर्यय ज्ञानावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । संज्वलनचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । नीचगोत्रका विशेष अधिक है । उच्चगोत्रका विशेष अधिक है, क्योंकि क्षपितकर्माशिकस्वरूपसे आकर, संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर, संयमासंयमको ग्रहणकर, फिर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर, गुणश्रेणियोंको गलाकर, फिरसे भी संयमासंयमको प्राप्त होकर आवलि मात्र संयतासंयतकी उदयस्थिति यहां ग्रहण की गयी है । उच्चगोत्रके जघन्य प्रदेशोदयसे साता व असाता वेदनीयका जघन्य प्रदेशोदय विशेष अधिक है । इस प्रकार मप्रतिपाठोऽयम् । अप्रतौ 'दुगंछाए० विसे० सोगे ० ' ताप्रतौ ' दुगंछाए संखेज्जगुणो । सोगे' इति पाठः । و arat 'दुछाए विसेसं गए सोगे ! 3 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं संजदस्स उदयट्ठिदिग्गहणादो। सादासादाणं विसेसाहिओ । एवं तिरिक्खगदीए जहणओ पदेसुदयदंडओ समत्तो । । गदी जहणओ पदेसुदओ मिच्छत्ते थोवो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो । सम्मत्ते असंखे० गुणो । अनंताणुबंधि असंखे० गुणो । केवलणाण० असंखे० गुणो । पयलाए विसे० । बिद्दाए विसे० । पयलापयलाए विसे० । णिद्दाणिद्दाए विसे० । rtofrate विसे० । केवलदंसणावरण ० विसे० । अपच्चक्खाण० विसे० । पच्चवखाण० विसे० ० । ओहिणाण० अनंतगुणो । ओहिदंस० विसे० । मणुस्साउअ० असंखे० गुणो । ओरालियसरीर० असंखे० गुणो । वेउ० विसे० । तेया० विसे० । कम्मइय० विसे० । मईए संखे० गुण । जसकित्ति - अजस कित्ति० विसेसाहियो । दुगंछाए संखे० गुणो । भय० विसे० । हस्स सोगे विसे० । रदि- अरदि० विसे० । अणदरवेदे तुल्ला विसे० । दाणंतराइय० विसे० । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे० | परिभोगंतरा० विसे० । वीरियंतरा ० विमे० । मणपज्जवणाणावरणे विसे० ! सुदणाणावरणे विसे० । मदिआवरणे विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु ० विसे० । उच्चणीच० विसे० । सादासाद० विसे० । आहारसरीर० असंखे० गुणो । तित्थयर० असंखे० गुणो । एवं मणुसगदीए जहण्णओ पदेसुदयदंडओ समत्तो । तिर्यंचगतिमें जघन्य प्रदेशोदयदण्डक समाप्त हुआ । मनुष्यगति में मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशोदय स्तोक है । सन्यमग्मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धि चतुष्कमें अन्यतरका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है । प्रचलाका विशेष अधिक है । निद्राका विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलाका विशेष अधिक है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धिका विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्क में अन्यतरका विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणका अनन्तगुणा है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है । मनुष्यायुका असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरका असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरका विशेष अधिक है । तैजसशरीरका विशेष अधिक है । कार्मणशरीरका विशेष अधिक | मनुष्यगतिका संख्यातगुणा है । यशकीर्ति और अयशकीर्तिका विशेष अधिक है । जुगुप्साका संख्यातगुणा है । भयका विशेष Aafan है | हास्य व शोकका विशेष अधिक है । रति व अरतिका विशेष अधिक है । अन्यतर वेदका तुल्य विशेष अधिक है । दानान्तरायका विशेष अधिक है। लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है । मन:पर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। ऊंच व नीच गोत्रका विशेष अधिक है । साता व असातावेदनीया विशेष अधिक है । आहारकशरीरका असंख्यातगुणा है । तीर्थंकरप्रकृतिका असंख्यातगुणा है । इस प्रकार मनुष्यगति में जघन्य प्रदेशोदयदण्डक समाप्त हुआ । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३२३ देवगदीए जहण्णओ पदेसुदओ मिच्छत्ते थोवो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो। सम्मत्ते असंखे० गुणो । अपच्चक्खाणे असंखे० गुणो । पच्चक्खाणे विसेसा० । अणंताणुबंधि० असंखे० गुणो। केवलणाणावरणे असंखे० गुणो। पयलाए विसे० । णिहाए विसे। केवलदंस० विसे०। दुगुंछाए अणंतगणो। भय० विसे। हस्स० विसे। रदि० विसे० । पुरिसवेदे० विसे० । संजलणाए अण्णदर० विसे० । ओहिणाण. असंखे० गुणो। ओहिदसण० विसे० । देवाउ० असंखे० गुणो। वेउब्वियसरीर० असंखे० गुणो। तेजा० विसे०। कम्मइय० विसे० । देवगइ० असंखे० गुणो । जसकित्तीए विसे०। अजसकित्तीए विसे०। सोगे संखे० गुणो०। अरदि० विसे०। इत्थिवेद० विसे०। दाणंतरा० विसे० । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे० । परिभोगंतराइय० विसे० । वीरियंतराइय० विसे० । मणपज्जव० विसे० । सुदणाण० विसे०। मदि० विसे । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । उच्चागोदे विसे० । सादासाद० तुल्लो विसेसाहिओ। एवं देवगईए जहण्णपदेसुदयदंडओ समत्तो। ___ असण्णीसु जहण्णओ पदेसुदओ मिच्छत्ते थोवो सासणपच्छायदं पडुच्च उदीरणोदओ त्ति । अणंताणुबंधि० असंखे० गुणो। केवलणाण० असंखे० गुणो । पयला० देवगतिमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशोदय स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । सम्यक्त्वका असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका असंख्यातगुणा है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्को अन्यतरका विशेष अधिक है। अनन्तानुबंधिचतुष्कमें अन्यतरका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है। प्रचलाका विशेष अधिक है। निद्राका विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । जुगुप्साका अनन्तगुणा है। भयका विशेष अधिक है। हास्य का विशेष अधिक है। रति का विशेष अधिक है । पुरुषवेदका विशेष अधिक है । संज्वलनचतुष्को अन्यतरका विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है। देवायुका असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरका असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरका विशेष अधिक है। कार्मणशरीरका विशेष अधिक है । देवगतिका असंख्यातगुणा है । यशकीर्तिका विशेष अधिक है । अयशकीतिका विशेष अधिक है । शोक का संख्यातगुणा है। अरतिका विशेष अधिक है । स्त्रीवेदका विशेष अधिक है । दानान्तरायका विशेष अधिक है । लाभान्तरायका विशेष अधिक है। भोगान्तरायका विशेष अधिक है। परिभोगान्त रायका विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। उच्चगोत्रका विशेष अधिक है । साता व असाता वेदनीयका तुल्य विशेष अधिक है । इस प्रकार देवगतिमें जघन्य प्रदेशोदयदण्डक समाप्त हुआ। असंज्ञी जीवोंमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशोदय स्तोक है, यह सासादन गुणस्थानसे पीछे मिथ्यात्व में आये हुए जीवकी अपेक्षा उदीरणोदय स्वरूप है । अनन्तानुबंधिचतुष्कर्म For Private & Personal use only. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४) छक्खंडागमे संतकम्म विसे० । णिद्दाए विसे० । पयलापयलाए विसे० । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धीए विसे०। केवलदसण० विसे० । अपच्चक्खाण० विसे० । पच्चक्खाण० विसे० । णिरयाउ० अणंतगुणो। देवाउ० विमेसा० । तिरिक्खाउ० असंखे० गुणो। मणुसाउ० विसेसा० । ओरालियसरीर० असंखे० गुणो। तेजा० विसेसाहिओ। कम्मइय० विसे। वेउब्विय० विसे० । तिरिक्खगइ० संखे० गुणो। जसकित्ति-अजसकित्ति० विसे० । मणुसगइ० विसे० । देवगई० विसे० । णिरयगई० विसे० । दुगुंछाए संखे० गुणो। भय० विसे० । हस्स-सोगे विसे०। रदि-अरदि० विसेसा०। अण्णदरवेदे विसे० । दाणंतराइय० विसे० । लाहंतरा० विसे० । भोगंतरा० विसे० । परिभोगंतरा०विसे०। वीरियंतरा० विसे । मणपज्ज० विसे । ओहिणाणा० विसे० । सुदणाण० विसे० । मदि० विसेसा० । ओहिदंसग विसे० । अचक्खु० विसे । चक्खु० विसे० । संजलणाए विसे । णीचागोदे० विसे० । उच्चागोदे विसे० । सादासादाणं विसेसा० । एव. मसण्णिचिदिएसु जहण्णओ पदेसुदयदंडओ समत्तो। एत्तो भुजगारपदेसउदओ। तत्थ अट्ठपदं-जमेण्हि पदेसग्गमुदिण्णं तत्तो अन्यतरका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका असंख्यातगुणा है। प्रचलाका विशेष अधिक है । निद्राका विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलाका विशेष अधिक है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धिका विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्को अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है । नारकायुका अनन्तगुणा है । देवायुका विशेष अधिक है। तिर्यंचआयुका असंख्यातगुणा है। मनुष्यायुका विशेष अधिक है। औदारिकशरीरका असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरका विशेष अधिक है । कार्मणशरीरका विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरका विशेष अधिक है । तिर्यंचगतिका संख्यातगुणा है । यशकीर्ति और अयशकीतिका विशेष अधिक है। मनुष्यगतिका विशेष अधिक है । देवगतिका विशेष अधिक है। नरकगतिका विशेष अधिक है । जुगुप्साका संख्यातगुणा है । भयका विशेष अधिक है। हास्य व शोकका विशेष अधिक है। रति व अरतिका विशेष अधिक है। अन्यतर वेदका विशेष अधिक है। दानान्तरायका विशेष अधिक है। लाभान्तरायका विशेष अधिक है । भोगान्तरायका विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायका विशेष अधिक है। वीर्यान्तरायका विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरणका विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणका विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणका विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणका विशेष अधिक है। संज्वलनचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है। नीचगोत्रका विशेष अधिक है । उच्चगोत्रका विशेष अधिक है । साता व असातावेदनीयका विशेष अधिक है । इस प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमें जघन्य प्रदेशोदयदण्डक समाप्त हुआ। .. यहां भुजाकार प्रदेशोदयका अधिकार है। उसमें अर्थपद कहा जाता है- इस समय Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३२५ अतरउवरिमसमए बहुपदेसग्गे उदिदे एसो भुजगारो णाम । जमे हिपदेसग्गमुदिदं अनंतरउवरिमसमए तत्तो थोवदरे पदेसग्गे उदयमागदे एसो अप्पदरउदओ णाम । तत्तिए तत्तिए चेव पदेसग्गे उदयमागदे अवट्टिदउदओ णाम । अणंतरादीदसमए उदएण विणा एण्णिमुदयमागदे एसो अवत्तव्वउदओ णाम । एदेण अट्ठपदेण सामित्तं । तं जहा - मदिआवरणस्स भुजगार - अप्पदर अवट्टिदउदओ कस्स ? अण्णदरस्स । एवं सव्वकम्माणं । णवरि जासि पयडीणमवत्तव्वमत्थि तं जाणिय वत्तव्वं । एयजीवेण कालो । तं जहा - मदिआवरणस्स भुजगारउदओ केवचिरं कालादो अप्पदरउदओ होदि ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । haचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अवट्टिदवेदगो केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । सुद-मणपज्जव ओहि - केवलणाणावरणाणं मदिआवरणभंगो । (चक्खु ) अचक्खु - ओहि केवलदंसणावरणाणं पि मदिआवरणभंगो। णिद्दाए अवट्टिदवेदगो केवचिरं० ? ' जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । भुजगार - अप्पदरवेदगो केवचिरं० ? जो प्रदेशाग्र उदयको प्राप्त है उससे अनन्तर आगे के समय में बहुत प्रदेशाग्र के उदित होनेपर यह भुजाकार प्रदेशोदय कहा जाता है । जो इस समय प्रदेशाग्र उदित है उससे अनन्तर आगे के समयमैं स्तोकतर प्रदेशाग्र के उदयको प्राप्त होनेपर यह अल्पतर प्रदेशोदय कहलाता है। उतने उतने मात्र प्रदेशाग्र के उदयको प्राप्त होनेपर अवस्थित प्रदेशोदय कहलाता है । अनन्तर वीते हुए समयमें उदयके बिना इस समय उदयको प्राप्त होनेपर यह अवक्तव्य उदय कहा जाता है । इस अर्थपदके अनुसार स्वामित्वका कथन किया जाता है । वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणका भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदय किसके होता है ? वह अन्यतर जीवके होता है । इसी प्रकारसे सब सब कर्मोंके सम्बन्धमें स्वामित्वका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि जिन प्रकृतियोंका अवक्तव्य प्रदेशोदय है उसका कथन जानकर करना चाहिये । एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणका भुजाकार उदय कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र रहता है । उसका अल्पतर उदय कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र रहता है । उसका अवस्थितवेदक कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से संख्यात समय मात्र रहता है । श्रुतज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञाना - वरण के समान है | ( चक्षुदर्शनावरण ) अचक्षुदर्शनावरण, अवधिज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी भी प्ररूपणा मतिज्ञानावरण के समान है । निद्राका अवस्थितवेदक कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से संख्यात समय मात्र रहता है। उसका भुजाकार और अल्पतर वेदक कितने काल * ताप्रतौ C मत्थित्तं ' इति पाठः । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ) छक्खंडागमे संतकम्म जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तो। एवं सेसचदुण्णं दंसणावरणीयपयडीणं । सोलसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं णिद्दाभंगो। सादस्स भुजगारअप्पदरउदओ केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क छम्मासा। अवट्टिदउदओ केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क० संखे० समया। असादस्स भुजगार-अप्पदरवेदगो केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवट्ठिद० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर० जहण्णण एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं । अवविद० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। सम्मत्त० भुजगारवेदग० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं। अप्पदर० जह०एगसमओ, उक्क० छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि। मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं । तिष्णं पि वेदाणं मदिआवरणभंगो। णिरयाउअस्स अप्पदर-अवत्तव्वपदाणि अस्थि, सेसपदाणि णत्थि । तेण तत्थ कालो सुगमो। मणुस्साउअस्स भुजगारवेदओ* जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० विसेसाहियं, गोवुच्छरयणाए उक्कस्सियाए वि अंतोमुहुत्तदीहत्तादो। अवट्ठिदवेदगो जह० एगसमओ, उक्क० अट्ठसमया । मणुस्साउअस्स अप्पदरओ जह० रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र रहता है। इसी प्रकार शेष चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके सम्बन्धमें कहना चाहिये। सोलह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी प्ररूपणा निद्राके समान है । सातावेदनीयका भुजाकार व अल्पतर उदय कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास रहता है । उसका अवस्थित उदय कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र रहता है । असाता वेदनीयका भुजाकार व अल्पतर उदय कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र रहता है। उसका अवस्थित उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात समय मात्र होता है । सम्यग्मिथ्यात्वका भुजाकार और अल्पतर उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है। उसका अवस्थित उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र रहता है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भुजाकार उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अंतर्महतं मात्र रहता है। उसका अल्पतर उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम छ्यासठ सागरोपम मात्र होता है । मिथ्यात्वका भुजाकार और अल्पतर उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है। तीनों भी वेदोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। नारकायुके अल्पतर और अवक्तव्य ये दो पद हैं, शेष पद नहीं हैं। इस कारण उसके विषयमें कालप्ररूपणा सुगम है । मनुष्यायुका भुजाकार उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षत: अन्तमुहूर्त विशेष अधिक काल तक रहता है, क्योंकि, उत्कृष्ट भी गोपुच्छरचना अंतर्मुहूर्त दीर्घ होती है। उसका अवस्थित उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आठ समय मात्र रहता है । मनुष्यायु 8 अप्रतौ ' उक्क० अंतोमुहुतं छम्मासा' इति पाठः। * अप्रतौ 'भुजगारउदओ' इति पाठः । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयानुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३२७ एगसमओ, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि समऊणाणि । तिरिक्खाउअस्स मणुसाउअभंगो । देवाउअस्स णिरयाउअभंगो । णिरयगइणामाए भुजगार० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । अवट्ठिद० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । मणुसगइ-तिरिक्खगइ देवगइणामाणं णिरयगइभंगो । ओरालिय-वेउव्विय-तेजा - कम्मइयसरीराणं मदिआवरणभंगो। आहारसरीरस्स गिद्दाए भंगो । समचउरससंठाण वज्जरिसहणारायणसंघडण वण्ण-गंध-रस- फास अगुरुअलहुअ -- उवघाद - परघाद - - उस्सास -- पसत्थापसत्यविहायगइ - - तस -- बादर - पज्जत्तपत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासु ह- सुभग- दूभग-सुस्सर दुस्सर आदेज्ज- अणादेज्ज-जस कित्ति - अजस कित्तिणिमिणुच्चागोद--पंचंतराइयाणं मदिआवरणभंगो। चदुसंठाण-पंच संघडाणं भुजगार - अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । अवट्ठिदं सुगमं । हुंडसंठाण णीचागोदाणं मदिआवरणभंगो । उज्जोवणामाए भुजगार- अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । आदाव-यावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं भुजगारो अप्पदरो वा उक्क० अंतोमुहुत्तं । सेसं सुगमं । एसुवदेसो नागहत्थिसमणा । का अल्पतर उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से एक समय कम तीन पल्योपम मात्र रहता है । तिर्यंच आयुकी प्ररूपणा मनुष्यायुके समान है । देवायुकी प्ररूपणा नारकायुके समान है । नरकगति नामकर्मका भुजाकार उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग रहता है । उसका अल्पतर उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से पल्योपमके असंख्यातवें भाग रहता है । उसका अवस्थित उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय रहता है । मनुष्यगति तिर्यंचगति और देवगति नामकर्मों की प्ररूपणा नरकगतिके समान है । औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीरनामकर्मों की प्ररूपणा मतिज्ञानावरण के समान है । आहारकशरीर की प्ररूपणा निद्राके समान है । समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय; इन प्रकृतियोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। चार संस्थान और पांच संहननोंका भुजाकार और अल्पतर उदय जघन्यसे एक समय उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि मात्र रहता है । उनके अवस्थित उदयकी प्ररूपणा सुगम है । हुण्डकसंस्थान और नीचगोत्रकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । उद्योत नामकर्मका भुजाकार और अल्पतर उदय जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र रहता है। आतप, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण नामकर्मोंका भुजाकार और अल्पतर उदय उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र रहता है । शेष प्ररूपणा सुगम है । यह उपदेश नागहस्ती श्रमणका है । अ-काप्रत्यो: ' खवगाणं ' ताप्रतौ ' खवणाणं ' इति पाठ: Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२८ ) 'छक्खंडागमे संतकम्म अण्णण उवएसेण मदिआवरणस्स भुजगारउदओ तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि सव्वळे*। अप्पदरवेदओ तेत्तीसं सागरोवमाणि संखेज्जवस्सब्भहियाणि णेरइयस्स संकिलेसेण। सुद मणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरणाणं चदुण्णं दसणावरणाणं च मदिआवरणभंगो। असादस्स भुजगारवेदओ तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । अप्पदर० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। णिरयगइणामाए भुजगारवेदओ अप्पदरवेदओ वा तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। णिरयगइणामाए अप्पदरवेदयकालस्स साहणं वुच्चदे। • तं जहा- णिसेयगुणहाणिट्ठाणाणंतरं थोवं। जोगट्ठाणेसु जीवगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । मणुसगइणामाए तिरिक्खगइणामाए च भुजगारो अप्पदरो* च तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि। देवगइणामाए भुजगारो अप्पदरो च तेत्तीसं सागरो० देसू। णाणि। ओरालियसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघादाणं पढमसंघडणस्स मणुसगइभंगो। वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं देवगइभंगो। सव्वासि धुवबंधपयडीणं परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभसुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तीणं च देवगइभंगो। अप्पसत्थविहायगइ--अथिरअसुभ--दुभग---दुस्सर--अणादेज्ज---जसकित्तीणं णिरयगइभंगो । उज्जोव---- णामाए ओरालियसरीरभंगो । उच्चागोद----पंचंतराइयाणं णाणावरण-- ___ अन्य उपदेशके अनुसार मतिज्ञानावरणके भुजाकार वेदकका काल सर्वार्थसिद्धि में कुछ कम । तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उसके अल्पतर वेदकका काल नारकीके संक्लेशके कारण संख्यात वर्ष अधिक तेतीस सागरोपम मात्र है ।श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण और चार दर्शनावरण प्रकृतियोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। असाता: वेदनीयके भुजाकार वेदकका काल कुछ कम तेतीस सागरोपम मात्र है। उसके अल्पतर वेदकका काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। नरकगति नामकर्मके भुजाकारवेदक व अल्पतर वेदकका काल कुछ कम तेतीस सागरोपम मात्र है। नरकगति नामकर्मके अल्पतर वेदकके कालका साधन कहा जाता है। वह इस प्रकार है- निषेकगुणहानिस्थानोंका अन्तर स्तोक है। योगस्थानोंमें जीव• गुणहानिस्थानोंके अंतर असंख्यातगुणे है। मनुष्यगति नामकर्म और तिर्यचगति नामकर्मका भुजाकार और अल्पतर उदय कुछ कम तीन पल्योपम काल मात्र रहता है। देवगति नामकर्मका भुजाकार और अल्पतर उदय कुछ कम तेतीस सागरोपम काल मात्र रहता है। औदारिकशरीर व उसके अंगोपांग, बन्धन और संघातका तथा प्रथम संहननकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरअंगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। सब ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंकी तथा परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, वस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिकी प्ररूपणा भी देवगतिके समान है। अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीतिको प्ररूपणा नरकगतिके समान है। उद्योत नामकर्मकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान OP अप्रतौ 'अणेण' इति पाठः। *ताप्रती 'देसूणाणि। सम्वट्ठे' इति पाठः । ४ताप्रती 'वस्सब्भहियाणि रइयस्स' इति पाठः। मप्रतौ 'साहणं' इति पाठः। * अ-कापत्योः 'भजगारअप्पदरो' इति पाठः । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२९ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा भंगो। णीचागोदस्स भुजगारो अप्पदरो च तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एदम्हि उवदेसे जाणि कम्माणि ण भणिदाणि तेसि कम्माणं णत्थि दो उवदेसा, पढमेण चेव उवदेसेण ताणि यव्वाणि । एयजीवेण अंतरंज पवाइज्जतेण उवएसेण वत्तइस्सामो। तं जहा- णाणावरणस्स भुजगारवेदयंतरं अप्पदरवेदयंतरं वा जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवट्ठिदवेदयंतरं जह० एयसमओ, उक्क० अणंतकालं। चदुण्णं दसणावरणीयाणं णाणावरणभंगो। सव्वकम्माणमवट्टियवेदयंतरस्स वि णाणावरणभंगो । सेसाणं कम्माणं भुजगार-अप्पदरवेदयंतरं पगदिउदयादो भुजगारकालादो च साधेदूण भाणियव्वं । णाणाजीवेहि कालो अंतरं सण्णियासो च एत्थ कायव्वो। एत्तो अप्पाबह। तं जहा- मदिआवरणस्स अवढिदवेदया थोवा। अप्पदरवेदया अणंतगुणा । भुजगारवेदया संखेज्जगुणा । सुद- मणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरणाणं चक्खु-अचक्खु-ओहि-केवलदसणावरणाणं च मदिआवरणभंगो। णिहाए अवट्टिदवेदया थोवा। अवत्तव्ववेदया अणंतगुणा। अप्पदरवेदया असंखे० गुणा । भुजगारवेदया संखे० है। उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। नीचगोत्रका भुजाकार और अल्पतर उदय कुछ कम तेतीस सागरोपम काल मात्र रहता है। इस उपदेशम जिन कर्मोंका कथन नहीं किया गया है उन कर्मोंके विषयमें दो उपदेश नहीं हैं, उनको प्रथम ही उपदेशके अनुसार ले जाना चाहिये ।। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा प्रवाहस्वरूपसे आये हुए उपदेशके अनुसार की जाती है। वह इस प्रकार है-- ज्ञानावरणके भाजकारवेदक और अल्पतरवेदका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है। उसके अवस्थितवेदकका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण होता है। चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके अन्तरकालकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । सब कर्मोके अवस्थितवेदकके अन्तरकालकी भी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। शेषकर्मोंके भुजाकार व अल्पतर वेदकोंके अन्तरकालका कथन प्रकृति उदय और भुजाकारकालसे सिद्ध करके करना चाहिये। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, अन्तर और संनिकर्षका भी कथन यहांपर करना चाहिये । यहां अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-- मतिज्ञानावरणके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अल्पतरवेदक अनन्तगुणे हैं। भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं। श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्राके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक अनन्तगुणे हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं । ४ ताप्रती 'चेव ( दो) उवदेसेण ' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'अंतरे ' इति पाठः । * प्रतिष 'कालो' इति पाठः । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ) छवखंडागमे संतकम्म गुणा। पयला-णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-सादासाद-सोलसकसाय-हस्स-रदिअरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं णिद्दाभंगो। मिच्छत्तस्स अवत्तव्ववेदया थोवा। अवट्टिदवेदया अणंतगणा। अप्पदर० अणंतगणा। भजगार० संखे० गणा। सम्मत्तस्स अवदिदवेदया थोवा। भुजगारवेदया संखे० गुणा । अवत्तव्ववेदया असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा। सम्मामिच्छत्तस्स अवट्ठिद० थोवा। भुजगार० असंखे० गुणा। अवत्तव्व० असंखे० गुणा। अप्पदर० असंखे० गुणा। णवंसयवेदस्स* मिच्छत्तभंगो। इत्थिपुरिसवेदाणं अवट्ठिदवेदया थोवा । अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार० विसेसा० । देव-णेरइयाउआणं अवत्तव्ववेदया थोवा। अप्पदर० असंखे० गुणा। मणुसाउअस्स अवट्ठिद० थोवा । अवत्तव्ववेदया असंखे० गुणा । भुजगार०असंखे० गुणा । अप्पदरवेदया संखे०० गुणा । तिरिक्खाउअस्स अवत्तव्ववेदया थोवा । अवट्ठिदवेदया अणंतगुणा। भुजगारवेदया अणंतगुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । णिरयगइणामाए अवट्ठिद० थोवा। अप्पदर० असंखे० गुणा। अवत्तव्व० असंखे० गुणा । भुजगार० असंखे० गुणा । तिरिक्खगइणामाए अवत्तव्व थोवा । अवट्ठिद० अणंतगुणा। अप्पदर० अणंतगुणा। भुजगार० संखे० गुणा । मणुसगइणामाए अवट्ठिद० भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं । प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, सातावेदनीय असातावेदनीय, सोलह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी प्ररूपणा निद्राके समान है । मिथ्यात्वके अवक्तव्यवेदक स्तोक हैं। अवस्थितवेदक अनन्तगुणे हैं। अल्पतरवेदक अनन्तगुणे हैं । भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्वके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । भुजाकारवेदक, संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। भुजाकारवेदक असंख्यातगुण हैं। अवकाव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे है। नपुंसकवेदकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अवक्तव्यधेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकारवेदक विशेष अधिक है। . देवायु और नारकायुके अवक्तव्यवेदक स्तोक हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यायुके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकारवेदक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतरवेदक संख्यातगुणे हैं। तिर्यंचआयुके अवक्तव्य वेदक स्तोक हैं। अवस्थितवेदक अनन्तगुणे हैं। भुजाकारवेदक अनन्तगुण हैं । अल्पतरवेदक संख्यातगुणे हैं। नरकगति नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अल्पतरवेदक संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकारवेदक असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचगति नामकर्मके अवक्तव्यवेदक स्तोक हैं । अवस्थितवेदक अनन्तगुणे हैं। अल्पतरवेदक अनन्तगुणे हैं। भुजाकार * सत्कर्मपंजिकायां ' असंखेज्जगुणा ' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः ' णवंसयवेदयस्स' इति पाठः । ताप्रतौ ' असंखे० गुणा। .........। मणुसाउअस्स' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'उच्चागोद०', ताप्रतौ 'उच्चागोद० (अवट्टिद०)' इति पाठः। ॐ सत्कर्मपजिकायां ' असं०' इति पाठः । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा थोवा। अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अप्पदर० विसे० । भुजगार० असंखे० गुणा । देवगदिणामाए अवढिद० थोवा । अवत्तव्व० असंखे० गुणा। अप्पदर० असंखे० गुणा। भुजगार० विसे०। ओरालियसरीर-हुंडसंठाण-परघाद-उज्जोव-उस्सास-बादर-सुहुम साहारण-जसकित्ति-अजसकित्तीणं अवट्टिद० थोवा । अवत्तव्व० अणंतगुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा। भुजगार० संखे० गुणा। वेउव्वियसरीर-समचउरससंठाणाणं देवगइभंगो। जाओ पयडीओ धुवबंधीओ ताणमवद्विदवेदया थोवा । अप्पदर० अणंतगुणा । भुजगार० संखे० गुणा । असंपत्तसेवट्ट० अवट्ठिद० थोवा। अप्पदर० असंखे० गुणा। अवतव्व० असंखे० गुणा । भुजगार० असंखे० गुणा । चदुण्णं संठाणाणं पंचण्णं संघडणाणं च अवट्टिय० थोवा। अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार० संखे० गुणा । णिरयाणुपुव्वीणामाए अवट्टिद. थोवा। अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार० विसे० । अवत्तव्व० विसे० । एवं देवगइपाओग्गाणुपुवीणामाए। मणुस्साणुपुवीणामाए अवट्ठिय० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवत्तव्व० विसे० । अप्पदर० विसेसा०। एवं तिरिक्खाणुपुव्वीणामाए । णवरि भुजगार० अणंतगुणा। आदाव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सरणामाणं अवट्ठिदवेदया थोवा । अवत्त० असंखे० वेदक संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक है । अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक विशेष अधिक है । भुजाकारवेदक असंख्यातगुणे हैं। देवगति नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकारवेदक विशेष अधिक हैं । औदारिकशरीर, हुंडक संस्थान, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, बादर, सूक्ष्म, साधारण, यशकीर्ति और अयशकीर्तिके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक अनन्तगुणे हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं । वैक्रियिकशरीर और समचतुरस्रसंस्थानकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । जो प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं उनके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अल्पतरवेदक अनन्तगुण हैं। भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं । असंप्राप्तसृपाटिकासंहननके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं । अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकारवेदक असंख्यातगुणे हैं । चार संस्थानों और पांच संहननोंके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक असंख्यातगुण हैं । भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं। नारकानुपूर्वी के अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकारवेदक विशेष अधिक हैं। अवक्तव्यवेदक विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्ररूपणा करना चाहिये। मनुष्यानुपूर्वी नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। भुजाकारवेदक असंख्यातगुणे हैं । अवक्तव्यवेदक विशेष अधिक हैं । अल्पतरवेदक विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार तिर्यगानपूर्वी नामकर्मकी प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि उसके भुजाकारवेदक अनन्तगुणे हैं। आतप, अप्रशस्त विहायोगति और दुस्वर नामकर्मोके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ) छवखंडागमे संतकम्मं गुणा । अप्पदर असंखे० गुणा । भुजगार० संखे० गुणा । थावर दूभग-अणादेज्जणीचागोदाणं तिरिक्खगइभंगो । अपज्जत्तणामाए अवद्विद० थोवा । अवत्तव्व० अणंतगुणा । भुजगार असंखे० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । सुस्सरणामाए अवट्टिय० थोवा । अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार० संखे ० गुणा । पज्जत्तणामाए अवट्टिद० थोवा । अवत्तव्व० अनंतगुणा । भुजगार० असंखे ० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । द्विदीनं बंधेण ओकड्डुक्कड्डुणाए (च ) पदेसुदयस्स वड्ढी हाणी वा होत्रि, एदेण हेदुणा पदेसुदयभुजगारे अण्णारिसं अप्पाबहुअं भवदि । तं जहा - णिरयगइणामाए थोवा अवट्टिय० । अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । भुजगार असंखे० गुणा । एदेण अणुमाणेण मग्गिदूण सव्वकम्माणं णेयव्वं । एवं पुणो दुणा अप्पाबहुअं ण पवाइज्जदि । एवं पदेसभुजगारो समत्तो । एतो पदणिक्खवो-- मदिणाणावरणस्स उक्क० asढी कस ? जो गुणिदकम्मंसिओ अप्पाए सम्मत्तद्धाए संजमद्धाए च सव्वलहुं चरिमसमयछदुमत्थो जादो तस्स चरिम अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं । स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान है । अपर्याप्त नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक अनन्तगुणे हैं । भुजाकारवेदक असंख्यात हैं । अल्पतरवेदक संख्यातगुणे हैं । सुस्वर नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं । पर्याप्त नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक अनन्तगुणे हैं । भुजाकारवेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक संख्यातगुणे हैं । स्थितियोंके बन्ध, अपकर्षण और उत्कर्षणसे प्रदेशोदयकी वृद्धि और हानि होती है; इस हेतुसे प्रदेशोदय सम्बन्धी भुजाकारके विषय में अन्य प्रकार अल्पबहुत्व होता है । यथानरकगति नामकर्मके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकारवेदक असंख्यातगुणे हैं। इस अनुमान से खोजकर सब कर्मोंके उक्त अल्पबहुत्वको ले जाना चाहिये । परन्तु यह हेतुप्ररूपित अल्पबहुत्व परम्परागत नहीं है । इस प्रकार प्रदेशभुजाकार समाप्त हुआ । यहां पदनिक्षेपकी प्ररूपणा की जाती है- मतिज्ञानावरण की उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक जीव अल्प सम्यक्त्वकालमें और अल्प संयमकालमें शीघ्र ही अन्तिम ताप्रती ' संखे० गुणा । गुणट्ठिदीणं' भुजगार० अण्णासि' इति पाठः । इति पाठ: । पदमुपलभ्यते । " " इति पाठः । * अ-काप्रत्योः ' भुजगारण्णारिसं ' ताप्रतौ अप्रतौ नास्तीदं वाक्यम् । D सत्कर्मपजिकायां तु ' संखे० ' प्रतिषु ' मज्झिदूण' इति पाठः । सत्कर्मपंजिकायामेतस्य स्थाने 'अणुमाणेऊण ' इत्येत " प्रतिषु 'पाविज्जदि ', सत्कर्मपंजिकायां तु वाइज्जदि इति पाठः । " Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३३३ समयछदुमत्थस्स पढमसमयओहिलद्धिस्स उक्क० मदिआवरणस्स पदेसुदयवड्ढी। कुदो? ओहिणाणवुड्ढीए अणहिमुहस्स* गुणसे डिपदेसगुणगारादो तदहिमुहगुणसेडिपदेसगुणगारस्स असंखे० गुणत्तादो। कधमेदं णव्वदे? सुत्तण्णहाणुववत्तीदो। ओहिणाणओहिदसणावरणाणं पुण झीयमाणोहिक्खओवसमाणं*तत्तो तग्गुणयारवड्ढी असंखे० गुणा । एवं सुद-मणपज्जव-केवलणाणावरण-चक्खु-अचक्खु-केवलदंसणावरणाणं च वत्तव्वं । ओहिणाण-ओहिदसणावरणाणं उक्क० वड्ढी कस्स? चरिमसमयछदुमत्थस्स, जस्स पढमसमयणट्ठा ओही, तस्स । णिद्दा-पयलाणमुक्कस्सिया वड्ढी कस्स? उवसंतकसायस्स जाधे सगपढमसमयगुणसेडिसीसयं पवेदेदि* तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । णिद्दाणिद्दा-पयलापयला--थीणगिद्धीणमुक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो अधापवत्तसंजदो तप्पाओग्गसंकिलिट्ठो होदूण से काले सव्वविसुद्धो जादो तस्स सव्वविसुद्धस्स जं गुणसेडिसीसयं तम्हि उदयमागदे जो थीणगिद्धितियस्स अण्णदरिस्से पयडीए पढमसमयवेदगो तस्स समयवर्ती छद्मस्थ हुआ है उस समय प्रथम समयवर्ती अवधिलब्धियुक्त अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके मतिज्ञानावरण सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रदेशोदयवृद्धि होती है । इसका कारण यह है कि जो जीव अवधिज्ञानकी वृद्धिके अभिमुख नहीं है उसके गुणश्रेणि रूप प्रदेशगुणकारकी अपेक्षा तदभिमुख जीवका गुणश्रेणि रूप प्रदेशगुणकार असंख्यातगुणा होता है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- वह सूत्रकी अन्यथानुपत्तिसे जाना जाता है। परन्तु हीयमान अवधिक्षयोपशम युक्त अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उक्त गुणकारवृद्धि उससे असंख्यातगुणी है। इसी प्रकार ( मतिज्ञानावरणके समान ) श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणकी उत्कृष्ट वद्धिके स्वामीका कथन करना चाहिये। ___ अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? उस अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके जिसकी अवधिलब्धि प्रथम समयमें नष्ट हुई है, उसको होती है । द्रा और प्रचलाकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? वह उपशान्तकषाय जीवके होती है, जब वह अपने प्रथम समय संबंधी गुणश्रणिशीषका वेदन करता है, तब उसके उन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि की उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? जो अधःप्रवृत्तसंयत जीव तत्प्रायोग्य संक्लेशसे संयुक्त होकर अनन्तर काल में सर्वविशुद्धिको प्राप्त होता है उस सर्वविशुद्ध जीवका जो गुणश्रेणिशीर्ष है उसके उदयको प्राप्त होनेपर जो स्त्यानगृद्धि आदि तीनमेंसे अन्यतर प्रकृतिका प्रथम समयवर्ती वेदक होता है उसके उनकी उत्कृष्ट * अप्रतौ ' अहिमाहस्स', काप्रती 'अणहिप्पायस्स', ताप्रतौ ' अणहिमा (म) हस्स' इति पाठः । * ताप्रतौ ‘ओहिणाणोहिदसणावर (णा०) णं पुण ज्झीयमाणेहि खओवसमाणं' इति पाठः । ४ ताप्रती 'केवलणाणावर (णा) णं चक्बु' इति पाठः । ताप्रती 'वेदेदि ' इति पाठः । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ) छक्खंडागमे संतकम्म उक्क० वड्डी। ___ चदुण्णं णाणावरणीयाणं तिण्णं दसणावरणीयाणं उक्क० हाणी कस्स ? जो पढमसमयउवसंतकसाओ मदो संतो से काले देवो जादो तस्स अंतोमुहुत्तदेवस्स जाधे गुणसेडिसोसयं पढमसमयणिज्जिण्णं ताधे उक्क० हाणी। ओहिणाण-ओहिदंसणावरणाणं उक्क० हाणी कस्स? परिवदमाणयस्स सुहमसांपराइयस्स जाधे अपच्छिमं उवसंतकसाय गुणसेडिसीसयं णिज्जरिज्जमाणं णिज्जिण्णं ताधे तस्स उक्क० हाणी । णवरि पढमसमयउप्पण्णओहिणाणस्से त्ति वत्तव्वं । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीयाणमुक्कस्समवढाणं कस्स? जो अधापवत्तसंजदो तप्पाओग्गजहण्णसंकिलेसादो तप्पाओग्गमज्झिमपरिणामुक्कस्सविसोहिं गदो से काले वि तारिसिं विसोहि गदो पलिदो० असंखे० भागपडिभागब्भहिया गुणसेडी जादो, जावे एदाणि गुणसेडिसीसयाणि पवेदेदि ताधे तस्स उक्कस्समवढाणं। एवं सेसाणं पि कम्माणं उक्कस्सवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणं सामित्तं जाणिऊण वत्तव्वं । जहणिया वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च सव्वकम्माणमेक्को पदेसो अण्णदरस्स भवे । णवरि देवणिरयाउअं-तित्थयरणामकम्माणि मोत्तूण वत्तव्वं । वृद्धि होती है। चार ज्ञानावरणीय और तीन दर्शनावरणीयकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो प्रथम समयवर्ती उपशान्तकषाय जीव मरकर अनन्तर कालमें देव हो जाता है उस अन्तर्मुहूर्तवर्ती देवका गुणश्रेणिशीर्ष जब प्रथम समय निर्जराप्राप्त होता है तब उसके उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? श्रेणिसे गिरते हुए सूक्ष्मसाम्परायिक जीवका जब निर्जीर्यमाण अन्तिम उपशान्तकषाय गुणश्रेणिशीर्ष निर्जीर्ण हो चुकता है तब उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। विशेष इतना है कि अवधिज्ञान उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें, यह कहना चाहिये । पांच ज्ञानावरणीय और नौ दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो अधःप्रवृत्त संयत जीव तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे तत्प्रायोग मध्यम परिणाम रूप उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होता है व अनन्तर काल में भी वैसी विशुद्धिको प्राप्त होता है जिससे गणश्रेणि पल्योपमके असंख्यातवें भाग रूप प्रतिभागसे अधिक हो जाती है, जब वह इन गणश्रेणिशीर्षकोंका वेदन करता है तब उसके उपर्युक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसी प्रकारसे शेष कर्मोंकी भी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि व अवस्थानके स्वामित्वका जानकर कथन करना चाहिये। सब कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि व अवस्थान एक प्रदेश स्वरूप होकर अन्यतर जीवके होते हैं। विशेष इतना है कि देवायु, नारकायु और तीर्थंकर नामकर्म को छोडकर यह कथन करना चाहिये। ॥ अप्रतौ 'मदो संते से काले देवे' इति पाठः। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयानुयोगद्दारे पदेसोदय परूवणा ( ३३५ एतो अप्पा बहुअं- पंचणाणावरण- चउदंसणावरण-पंचंतराइयाणमुक्कस्समवट्ठाणं थोवं । क्या हाणी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया वड्ढी असंखे ० गुणा । णिद्दा पयलाणं पि उक्कस्तमवद्वाणं थोवं । उक्क० हाणी असं० गुणा । वड्ढी असंखेज्जगुणा । णिद्दाणिद्दा - पयला-पयला-थीणगिद्धि-मिच्छत्ताणताणुबंधिच उक्काणमुक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असं० गुणा । हाणी विसेसा० । अट्ठण्णं कसायाणमुक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे ० गुणा । हाणी विसेसा० । सम्मत्त - णवणोकसाय - चदुसंजलणाणं गाणावरणभंगो। सम्मामिच्छत्तस्स मिच्छत्तभंगो | देव- णिरयाउआणं उक्क० हाणी कस्स? दसवस्ससहस्साउट्ठी देव-रइएस उववण्णस्स दुसमयतन्भवत्थस्स । वड्ढी अवद्वाणं वा णत्थि । मणुस - तिरिक्खाउआणं उक्कस्समवद्वाणं थोवं । हाणी असंखे० गुणा । वड्ढी विसेसासाहिया । तिष्णं गइणामाणमुक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे० गुणा । हाणी विसे० । मणुसगइणामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । हाणी असंखे० गुणा । वड्ढी असंखे० गुणा ओरालिय सरीरणामाए मणुसगइभंगो | तेजा - कम्मइयसरीर छसंठाण- पढमसंघडणवण्ण-गंध-रस-- फास --- अगुरुअलहुअ-:--उवघाद--परघाद -- उस्सास -- पसत्थापसत्थविहायगइ - तस - बादर - पज्जत्त- पत्तेयसरीर--थिराथिर - सुहासुह - जसकित्ति - सुभगआदेज्ज --- सुस्सर --- दुस्सर --- णिमिणुच्चागोदाणं उक्कस्समवद्वाणं थोवं 1 असंखे ० गुणा । वड्ढी असंखे० गुणा 1 वे उब्विय --- आहार हाणी यहां अल्पबहुत्वका कथन करते हैं- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय कर्मोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । उत्कृष्ट वृद्ध असंख्यातगुणी है । निद्रा व प्रचलाका भी उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । उत्कृष्ट हानि असंख्यात - गुण है । उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिचतुष्कका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । आठ कषायोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । सम्यक्त्व, नौ नोकषाय और चार संज्वलन कषायोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा मिथ्यात्व के समान है । देवायु और नारकायुकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? वह दस हजार वर्षकी आयुस्थितिसे युक्त देवों व नारकियोंमें उत्पन्न हुए जीवके तद्भवस्थ होने के द्वितीय समय में होती है । उनकी वृद्धि व अवस्थान नहीं है। मनुष्यायु और तिर्यगायुका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है | वृद्धि विशेष अधिक है । तीन गति नामकर्मोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है | मनुष्यगति नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी हैं । वृद्धि असंख्यातगुणी है । औदारिकशरीर नामकर्मकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, प्रथम संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति, सुभग, आदेय, सुस्सर, दुस्वर, निर्माण और उच्चगोत्र ; इनका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि For Private Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं सरीर -- पंचसंघडण -- चदुआणुपुव्वी - आदावुज्जोव - थावर - सुहुम - - अपज्जत्त-साहारणअजसकित्ति - दूभग अणादेज्ज-णीचागोदाणमुक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे० गुणा । हाणी विसे० । देव- णिरयाउअ-तित्थयरवज्जाणं सव्वकम्माणं पि जहण्णवड्ढि - हाणि - अवट्टणाणि तुल्लाणि, एगपदेसपमाणत्तादो । तित्थयरणामाए जह० हाणी अधापमकेवलगुणसे डिसीसएसु उदयमागदेसु । जह० वड्ढी दुसमयकेवलिस्स । तदो हाणी थोवा । जह० वड्ढी असंखे० गुणा । अवद्वाणं जहण्णमुक्कस्सं वा णत्थि । तित्थयरणामाए जह० हाणी थोवा । उक्क० हाणी विसेसा० । जह० वड्ढी असंखे० गुणा । उक्क० वड्ढी असंखे० गुणा । एवं पदणिक्खेवो समत्तो। एत्तो वड्ढि उदए अप्पाबहुए कदे तदो उदए त्ति अणुयोगद्दारं समत्तं होदि । असंख्यातगुणी है । वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, पांच संहनन, चार आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अयशकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नोचगोत्रका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है। हानि विशेष अधिक है । । देवायु, नारका और तीर्थकर प्रकृतियोंको छोड़कर सभी कर्मोंकी जघन्य वृद्धि हानि और अवस्थान तुल्य हैं; क्योंकि, वे एक प्रदेश प्रमाण हैं । तीर्थंकर नामकर्मकी जघन्य हानि अधःप्रवृत्त केवल गुणश्रेणिशीर्षकोंके उदयप्राप्त होनेपर होती है । उसकी जघन्य वृद्धि द्वितीय समयवर्ती केवली होती है । इस कारण उसकी हानि स्तोक है और जघन्य वृद्धि उससे असंख्यातगुणी है । उसका जघन्य व उत्कृष्ट अवस्थान नहीं है । तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य हानि स्तोक है । उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है । जघन्य वृद्धि असंख्यातगुणी है । उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी । इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ । यहां वृद्धिउदय विषयक अल्पबहुत्व के करनेपर उदय-अनुयोगद्वार समाप्त होता है उदयानुयोगद्वार समाप्त हुआ । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ............. वोच्छामि संतकम्मे पंचि ( जि ) यरूवेण विवरणं सुमहत्थं ।। १ ।। महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदि - वेदणाओ ( इ ) चउव्वीस मणुयोगद्दारेसु तत्थ कदवेदणा त्ति जाणि अणुयोगद्दाराणि वेदणाखंडम्मि, पुणो प ( पस्स-कम्म- पयडि बंधण त्ति ) चत्तारिअणुओगद्दारेसु तत्थ बंध-बंधणिज्जाणामाणुयोगेहि सह वग्गणाखंडम्मि, पुणो बंधविधाणमाणुयोगद्दारो महाबंधम्मि, पुणो बंधगाणुयोगो खुद्द बंधम्मि च सप्पवंचेण परूविदाणि । पुणो तेहित सेसद्वारसाणुयोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुत्थायेण पंजियसरूवेण भण्णिस्सामो । तं जहा -- 1 तत्थ पढमाणुओगद्दारस्स णिबंधण ( स्स ) परूवणा सुगमा । णवरि तस्स णिक्खेओ छव्विहसरूवेण परूविदो । तत्थ तदियस्स दव्वणिक्खेवस्स सरूवपरूवणठ्ठे आइरियो एवमाह जं दव्वं जाणि दव्वाणि अस्सिदूण परिणमदि जस्स वा दव्वस्स सहाओ व्वंतरपडिबद्धो तं दव्वणिबंधणमिदि । पृ० २. एदस्सत्थो उच्चदे - जं दव्वमिदि उत्ते जीव - पोग्गल - धम्माधम्मागास - कालभेदेण छवि दव्वेसु जस्स जस्स दव्वस्स परिणमणणिबंधणं विवक्खिदं तं तं घेत्तूण तस्स तस्स दव्वस्स जाणिदव्वाणि अस्सिऊण परिणमदि त्ति परिणमणविहाणं उत्तं । तं जहा- तत्थ ताव जीवदव्वस्स पोग्गलदव्वमवलंबिय पज्जायेसु परिणमणविहाणं उच्चदे - जीवदव्वं दुविहं संसारिजीवो मुक्खो ( क्को ) चेदि । तत्थ मिच्छत्तासंजम कसाय जोगेहि परिणदसंसारिजीवो जीव-भव - खेत्तपोग्गलविवाइसरूवकम्मपोग्गले बंधिऊण पच्छा तेहितो पुव्वुत्तचउव्विहफलसरूवपज्जायं अयभेभिण्णं संसरंतो जीवो परिणमदि त्ति एदेसि पज्जायाणं परिणमणं पोग्गलणिबंधणं होदि । पुणो मुक्कजीवस एवंविधणिबंधणं णत्थि, किंतु सत्थाणेण पज्जायंतरं गच्छदि । पुणो जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो इदि एदस्सत्थो - एत्थ जीवदव्वस्स सहावो णाणदंसणाणि । पुणो दुविहजीवाणं णाणसहावो विवक्खिदजीवेहिंतो वदिरित्तजीव- पोग्गलादिसव्वदव्वाणं परिच्छेदणसरूवेण पज्जायंतरगमणणिबंधणं होदि । एवं दंसणं पि वत्तव्वं । तं पि कुदो ? विवक्खिदजीवेहिंतो वदिरित्तजीव - पोग्गलादिबाहिरदव्वेसु णिबंधस्स सरूवपरिच्छेदणे ८८ "" णिबद्धत्तादो | पुणो जीवदव्वस्स धम्मत्थिकायादो परिणमणविहाणं उच्चदे । तं जहा - संसारे भमंतजीवाणं आणुपुव्विकम्मोदय - विहायगदिकम्मोदयवसेण मुक्कमारणंतियवसेण च गदिपज्जायेण परिणदाणं गमणस्स संभवो पुणो कम्मविरहिदजीवाणं उड्ढगमणपरिणामसंभवो च धम्मत्थिकायस्स सहावसहाय सरूवणिमित्तभेदेण होदि । तं कथं जाणिज्जदे ? पुह पुह पज्जायपरिणदसंसारिजीवाणं पुह पुह खेत्तसु णिबंधणतिविहसरूवगमणाणं हेदुत्तादो धम्मत्थियविरहिदखेत्ते सु पुव्वत्तच उव्हिसरूवगमणाभावादो च । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ) परिशिष्ट पुणो अधम्मत्थियकायमस्सिय जीवदव्वस्स परिणमणविहाणं उच्चदे- थावरणामकम्मोदयवसेण मारणंतियविरहिदतस-थावरकम्मोदयवसेण आणुपुस्विकम्मोदयविरहिदतस-थावरणामकम्मोदयवसेण मंदाणुभागोदयविहायगदिकम्मवसेण परवसा (सी) भूदांसारिजीवाणं पुणो णिम्मूलकम्मकलंकविरहिदसिद्धजीवाणं च द्विदिपज्जायेण परिणमदि। ... मिच्छत्तपुरिसस्स दिव्वसयणासण-छायादीणि अच्छणणिमित्ताणि होति तहा चेव पुणो कादव्वमस्सिय जि .... णिबंधणं धम्मत्थियकायो त्ति । सद्दव्व ( आगासदव्व ) मस्सिदूण जीवणिबंधणं उच्चदे-संसारि-मुक्कजीवाणं सग-सगोगाहणपमाणम्मि ट्ठिदसग-सगसव्वपदेसु विवक्खिदजीवेहितो पुह पुह अणंताणंतसुहुमजीवाण तत्थ पायोग्गोगाहणसहिदाणंताणंतासंखेज्जबादरजीवाणं कम्ममलविरहिदाणंतसिद्धजीवाणं च ओगासं दादूण ट्ठिदाणमागासदव्वमवट्ठाणसरूवेण णिबंधणं होदि । पुणो एत्तो पोग्गलदव्वमस्सिय णिबंधणत्थो उच्चदे । तं जहा- तत्थ ताव जीवदव्वमस्सिय उच्चदे- संसारिजीवो णोकम्मसरूवेण णाणापयारेण पुव्वगल ( पुग्गल ) दव्वे गहिऊण गंध-धूवदीव-वत्थाभरण-धड-पड-थंभाउह-पासादादिपज्जायंतरसरूवं कुणदि त्ति एदस्स एदेसु पज्जायेसु गमणस्स जीवो चेव णिबंधणं होदि । पुणो मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगपच्चयेहि कम्मसरूवेण गहिदपोग्गलाणं तक्खणे चेव अणंतगुणसत्तिसहिदवण्ण-गंध-रस-फासादिपज्जायगमणं जीवणिबंधणेण होदि । पुणो पोग्गलस्स पोग्गलंतरं पि णिबंधणं होदि। जहा जलवरिसणे सुक्कमट्टियस्स अद्ध (अद्द) भावादिदसणादो। पुणो पोग्गलसहाओ णाम रूव-रस-गंध-फासा तु संसारिजीवम्मि सुह-दुक्खफलुपायणम्मि पडिबद्धा होति। केसि पि खेत्तेसु कालेसु वि सहावपडिबद्धा होति । पुणो धम्मदव्वमस्सिय पुग्गलदव्वस्स परिणमणं उच्चदे। तं जहा- पुग्गलदव्वाणं लहुगगुणं वा गुरुगगुणं वा अगुरुगलहुगगुणं वा वत्तावत्तसरूवाणेयपज्जायपरिणदाणं सग-परपयोगेण गमणपज्जायं होदि । तेसिं णियमिदाणियमिदखेत्तेसु गमणं गमणणि मित्तधम्मदव्वेण होदि त्ति तेसिं पोग्गलाणं गमणपज्जायस्स तण्णिबंधणं होदि । पुणो अधम्मदव्वमस्सिय उच्चदे । तं जहा- गुरुगगुणपज्जायपरिणदाणं अगुरुगलहुगगुणपरिणदाणं च पुग्गलाणं ट्ठिदिपज्जायपरिणदाणं अहवा पयोगवसेण ट्ठिदिपज्जायपरिणदाणं च ट्ठिदी अधम्मदव्वस्स सहावणिबंधणं होदि । पुणो कालागासदव्वाणि अस्सिय पुग्गलदव्वस्स परिणमणविहाणं जहा जीवदव्वमस्सिय उत्तं तहा वत्तव्वं ।। पुणो धम्मदव्वस्स सेसदव्वाणि अस्सिऊण णिबंधणत्थो उच्चदे । तं जहा- "जं दव्वं जाणि दव्वाणि अस्सियूण परिणमदि" त्ति एदसत्थे भण्णमाणे ताव जीव-पोग्गलेहितो एदस्स धम्मदव्वस्स दव्वंतरणिबंधणं परिणामंतरगमणं ण वत्तव्वं, तत्थ तस्सरूवेण गमणासंभावादो । पुणो सहावणिबंधणपरिणामो अत्थि। तं कथं? जीव-पोग्गलाणमणेयपज्जायपरिणदाणं भेदेण णियदाणियदसरूवाणं गमणाणं णिबंधणं धम्मत्थियदव्वस्स सहावो, तं चेव तस्स सहावस्स पज्जायंतरगमणं, तं चेव तस्स दव्वस्स पज्जायंतरगमणं होदि त्ति वत्तव्वं । पुणो अधम्मदव्वमागासदव्वं च अस्सिय णिबंधणं उच्चदे-घणलोगमेत्तधम्मदव्वपदेसाणं मुत्तामुत्तदव्वावगाहे (हि) दाणं? अवट्ठाणावगाहण पज्जायपरिणामो अधम्मत्थिय-आगासदव्वाणं णिबंधणेण होदि । पुणो धम्मदव्वस्स कालदव्व . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया मस्सिय णिबंधणं उच्चदे- धम्मदव्वपदेसाणं अगुरुलहुगादिगुणाणं अविभागपलिच्छेदंतरगमणं कालदव्वणिबंधणं होदि । पुणो अधम्मदव्वस्स पज्जायंतरगमणणिबंधणं 'जं दव्वं जाणि दव्वाणि अस्सिदुणे त्ति' एदं परूवणं णन्थि । पुणो सहावपरूवणमत्थि । तं उच्चदे- जीव पुग्गलदव्वाणमगमणपज्जायपरिणदाणमवट्ठाणस्स अधम्मदव्वस्स सहावो जेण सहाओ होदि तेण अधम्मदव्वस्स ट्ठिदिकरणपज्जायपरिणामणिबंधणमेदेहि दव्वेहि होदि । पुणो अधम्मदव्वस्स धम्मदव्वेहितो णिबंधणपरूवणं णत्थि । कुदो ? सहावदो । गदिलक्खणेण धम्मदव्वेण एदस्स अगुरुलहुगादिपज्जायंतरेसु गमणं होदि त्ति एदम्हादो एदस्स णिबंधणमत्थि त्ति किं ण उच्चदे ? ण, तस्स कालणिबंधणत्तादो। पुणो अधम्मदव्वस्स कालदव्वमस्सिय णि बंधणं उच्चदे- अधम्मदव्वस्स अगुरुलहुगादिगुणाणमविभागपलिच्छेदंतरेसु गमणं कालदव्वसहावणिबंधणं । पुणो एदस्स सहावणिबंधणं लोगागासमेत्तकालदव्वपदेसाणमणेगदव्वमवगाहिदाणमवट्ठाणं होदि । पुणो आगासदव्वमवलंबियूण अधम्मदव्वस्स दव्वणि बंधणं णस्थि । पुणो एदस्स सहावणिबंधणमवगाहिदाणेयदव्वाणं आगासपदेसाणं अवट्ठाणकरणपज्जाए होदि । पुणो एत्थ द्विदअधम्मदव्वं अलोगागासपदेसाणमवट्ठाणणिबंधणं होदि । पुणो कालदव्वस्स णिबंधणं उच्चदे- लोगमेत्तकालाणणं दव्वंतरपडिबद्धणिबंधणं णत्थि । कुदो? सहावदो चेव तहाणुवलंभादो । पुणो कालदव्वस्स सहावणिबंधणं जीवपोग्गलधम्माधम्मागासदवाणमत्थ-वंजणपज्जायेसु गच्छंताणं सहायसरूवेणं णि बंधणं होदि जहा कंभगारहेट्रिमसिलो व्व । णवरि अलोगागासस्स पज्जायंतरगमणं एत्थ दियकालो चेव करेदि । तं कथं ? दूरट्ठियसूरबिंबण पउमविदाणं विकसणं व कडुयपत्थरेण लोहकडणं व तहेवोवलंभादो। पुणो आगासदव्वस्स सरूवणिबंधणं उच्चदे- एदस्स दव्वंतरपडिबद्धस्स णिबंधणं णत्थि । अहवा एवं वा अत्थि त्ति वत्तव्वं । तं जहा- जीव-पुग्गलदव्वाणं गमणागमणच्छणपज्जायपरिणदाणमणंताणंतमुत्तदव्वाणमवगाहंताणमणेयपयारेण अच्छणादिपज्जाएहि आगासदव्वस्स पज्जायंतरगमणणिबंधणं होदि त्ति । पुणो सहावणिबंधणं पि एवं चेव । णवरि आगासदव्वस्स सहावं चेव पहाणं काढूण वत्तव्वं । एवं धम्माधम्म-कालदव्वाणि च अस्सियूण दव्वणिबंधणं सहावणिबंधणं च सग-सगपडिबद्धपायोग्गेण जाणिय वत्तव्वाणि । णवरि आलोगागासस्स अवगाहणलक्खणसत्ती चेव, ण वत्ती; तत्तो गाहिज्जमाणदव्वाणमभावादो। संपहि पक्कभाहियारस्स उक्कस्सपक्कमदव्वस्स उत्तप्पाबहुगम्मि विवरणं कस्सामो। तं जहा अपच्चक्खाणमाणस्स उक्कस्सपक्कमदव्वं थोवं । पृ० ३६. कुदो ? उक्कस्सजोगि-सण्णि-मिच्छाइट्टिणा सत्तविहबंधयेण बद्धमोहणीयउक्कस्सदव्व - मेगसमयपबद्धस्स सत्तमभागो किंचूणो होदि त्ति तं देसघादिफद्दयवग्गणब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाओ देसघादिफद्दयसव्व कम्माणं समाणादो विरलिय विगुणिय अण्णोण्णब्भत्थेणुप्पण्णाणंतरासिणा खंडेदुणेक्कखंडं किंचूर्ण घेत्तव्यं ।। एत्थ चोदगो भणदि- एवं घेप्पमाणे सव्वघादिफद्दयादिवग्गणादो अणंतगुणहाणिफद्दयवग्गणाओ गंतूण मिच्छत्तादिफद्दयवग्गणाए ट्ठिदत्तादो मिच्छत्तदव्वेण सेससव्वघादीणं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ) परिशिष्ट दब्वादो अणंतगुणहीणेण होदव्वं । ण च एवं, तत्तो एदस्स विसेसाहियस्स दंसणादो। तदो तप्पाओग्गाणंतरूवेहि खंडिदेगखंड सवघादिदव्वं होदि त्ति घेत्तव्यमिदि? ण एवं घेप्पमाणे सम्मत्तदेसघादिफद्दयवग्गणाणमणंतगुणसहिदाणं रचणं कादूण तस्स चरिमवग्गणादो तदणतरुवरिमवग्गणप्पहुडिरचिदाणं सम्मामिच्छत्तफद्दयवग्गणदव्वाणमणंतगुणेहि हीणेण होदव्वं । एवं सम्मामिच्छत्तदव्वादो मिच्छत्तदव्वेण अणंतगुणहीणेण होदव्वं । ण च एवं, सम्मत्तदव्वादो तेसिं दवाणमसंखेज्जगणमसंखेज्जगणकमेण अद्ध (व) दाणादो । बंधपयडीणं एस कमो, ण संताणमिति चे-ण, एवं संते मिच्छत्तस्सादिफदयादिवग्गणादो हेटुमसव्वघादि-देसघादिफद्दयाणं अण्णपयडिसंबंधीणं अस्तिऊण उत्तदोसो ण संभवदि तो वि संभवमिच्छिज्जयमाणे सम्मत्त नाणि अस्सिदण उत्तदोसो संभवदि, दोण्ठमण्णपयडिसंबंधेण तवरुवरि तेसि रचणाणं संबंधितणेण च समाणत्तादो। तदो सादिरेयमिच्छत्तदव्वं घेत्तण सेससव्वघादिकम्माण जहण्णवग्गणादो अणंतगुणहाणिमेत्तद्धाणं गंतूण ट्ठिदतेसिं वग्गणेहि सह मिच्छत्तस्सादिवग्गणस्सेगपरमाणुगदाणुभागो जेण सरिसं होदि तेण कारणेण तदणुभागवसेण मिच्छत्तं अप्पणो आदिवग्गणप्पहुडिरचिदे दोसो णत्थि त्ति सिद्धं ।। पुणो पुविल्लकिंचूणगहिदेगखंडमावलियाए असंखेज्जदिभागेण घादिदूण एयखंडमवणिय सेसबहुखंडं मिच्छत्त-सोलसकसाया इदि सत्तारसपयडीहिं खंडिय सत्तारसट्ठाणेसु ठविय पुणो पुव्वगहिदेगखंडं आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदूणेगखंड रहिदबहुखंडे पढमपुंजे पक्खिविय सेसेयखंडं एदेण विधाणेण सेसपुंजेसु सेसं पक्खिवियव्वं जाव सत्तारसमपुंजे त्ति । णवरि सत्तारसमपुंजे एगभागो पक्खिवियव्यो । पुणो केइं एवं भणंति--आवलियाए असंखेज्जदिमभागे ( खंडणभागहारो ) ण होदि, किंतु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं खंडणभागहारमिदि भणंति । तदो उवदेसं लद्धण दोण्हमेक्कदरणिण्णवो कायव्यो । पुणो एवमुप्पण्णपुंजेसु सम्बत्थोवं अपच्चक्खाणमाणे उक्कस्सदव्वं जादं । कुदो ? तत्थं तिमपुंज (प) माणत्तादो । कोहे० विसेसाहियं । पृ ० ३६. कुदो ? पयडिविसेसेण ।। मायाए. विसेसाहियं । लोहे. विसेसाहियं । पच्चक्खाणमाणे. विसेसाहियं । कोहे० विसेसाहियं । माया० विसेसाहियं । लोहे. विसेसाहियं । पृ० ३६. पुणो माण ( ? ) संजलण-कोह-माण-माया-लोहाणं कमेणत्थ विसेमाहिया होति । कथमउत्तसंजलणचउक्काणं एत्थुद्देसे विहंजणं होदि त्ति जाणिज्जदे ? ण, अणुभागमाहप्पादो । तं कथं ? पच्चक्खाणाणुभागादो एदस्स अणुभागस्स अणंतगुणत्तादो णज्जदे । पुणो ताणि एत्थ ण गहिदाणि। कुदो ? उवरिमदेसघादिदव्वेसु पवेसिदत्तादो । णवरि बज्झ माणणोकसायसव्वघादिदव्वाणि एत्थुद्देसे पविट्ठाणि । कुदो ? दोण्हं एगभागत्तादो। अणंताणुबंधिमाणे० विसेसाहियं । कोहे० विसेसाहियं । माया० विसेसाहियं । कोहे विसेसाहियं । ( मिच्छत्ते विसेसाहियं )। केवलदंस० विसेसाहियं । पृ ३६. एत्थ चोदगो भणदि--चउणाणावरण-तिण्णिदसणावरण-च उसंजलण-णवणोकसायाणं अणंतरोवणिदा (धा ) अणुभागवग्गणासु तुम्मेहिं विभंजिदकमेण णेदं ण सक्किज्जदे। कुदो ? एदे ( दा ) सिं पयडीगं सग-सगादिवग्गणादो अगंतभागहीण क्रमेण देसघादिफद्दयवग्गणाण Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया चरिमवग्गणे ति गंतूण सव्वघादिफद्दयादिवग्गणादिम्मि संखेज्जभागहाणीयो संखेज्जगुणहाणीयो जादाओ त्ति अणंतरोवणिधा तत्थ णट्ठा त्ति। तदो एवं विहविभंजणं ण घडदि त्ति? ण एस दोसो। कथं ? मूलपयडिटिदीसु मोहणीयस्सादिगिसेयादो असंखेज्जभागहीणकमेण अणंतरोवणिधा गंतूणेयवारं संखेज्जगणं होदण पूणो वि संखेज्जभागहीणकमेण गंतुण णोकसायट्रिदीसू थक्कासु संखेज्जभागहीणं जादं । तदो णोकसायद्विदीसु थक्कासु अणंतगुणहीणत्तदंसणादो, पुणो णाणावरणदसणावरण-मोहणीयमंतराइयाणं मूलपयडीणं बंधवग्गणासु अणंतभागहीणसरूवेण अणंतरोवणिधा गंतूण पुणो हीणाणुभागपयडीणं वग्गणासु टिदासु तत्थाणंतरोवणिधाए विणासुवलंभादो च। तदो जत्थ जत्थ अविरोधो तत्थ तत्थ तप्पदेसं मोत्तण पूणो उवरि वि अणंतरोवणिधा भवदि । कूदो ? मलत्तरपयडीण अणंतरोवणिधासमाणत्तादो। पुणो एत्थ चोदगो भणदि- एदमप्पाबहुगं ण घडदे। कुदो एदेसि पयडीणं उत्तुक्कस्ससामित्तेण सह विरुद्धत्तादो। कथं सामित्तेण सह विरुद्धमप्पाबहुामिदि चे उच्चदे। तं जहासव्वत्थोवमणंताणुबंधिमाणे० । कुदो ? सासणसम्मादिद्विम्मि बज्झमाणमणंताणुबंधम्मि अवज्ज( ज्झ ) माणमिच्छत्तदव्वं गच्छदि त्ति । कुदो? मोहणीयुक्कस्ससव्वघादिदव्वं पुव्वं व सत्तारसेसु विभंजिय ट्ठियस्स पंचमभागत्तादो । कोहे. विसे० । माया• विसे० । मोहे० विसे० । मिच्छत्ते० विसे० पयडिविसेसेण । अपच्चक्खाणमाणे० विसे० संखेज्ज०। कुदो? असंजद० बंधुक्कस्सदव्वं पुव्वं व बड्ड (बज्झ) माणबारसकसायेसु विभंजिदत्तादो। कोहे० विसे० । माया० विसे० । लोहे विसे० । पचलापचला० विसे० संखेज्जदिभा० । कुदो ? मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि बध्दुक्कस्स दव्वं पुव्वं व विभंजिदे णवमभागत्तादो। णिहाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धीए. विसे० । पच्चक्खाणमाणे० विसे० संखेज्ज० । कुदो ? संजदासंजदबध्दुक्कस्सदव्वं पुव्वं व भज्जमाणट्ठपयडीसु विभंजिदत्तादो । कोहे० विसे । माया० विसे । लोहे. विसे० । पयला० विसे० संखेज्जदि० । कुदो ? सम्मामिच्छादिदि-सम्मादिट्ठी हि बध्दुक्कस्सदव्वस (स्स) छब्भागत्तादो। णिद्दा० विसे० । केवलणाण० विसे० संखेज्जदिभागेण । कुदो ? छविह० णाणावरणदव्वस्स अणंतिमभागस्स पंचमभागत्तादो। एत्थ आइरियदेसियो भणदि- पुग्विल्लदेसघादिफद्दयवग्गणब्भंतरणाणागुण हाणिसलागाणं अण्णोण्णब्भत्तरासीदो तत्तो अणंतगुणहीणेत्थतणदेसघादिफद्दयवग्गणभंतरणाणागुणहाणिसलागाणं अण्णोण्णब्भत्तरासी अणंतगुणहीणो तस्स एत्थ भागहारोवलंभादो केवलणाणावरणदव्वेण अणंतगुणहीणेण होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, पुबिल्लदेसघादिफद्दयवग्गणरचणुद्देसमुल्लंघिय पुव्विल्लसव्वघादिफद्युद्देसे चेव एत्थतणसव्वघादिफद्दयरचणुवलंभादो। पुविल्लण्णोण्णब्भत्थरासी चेव एत्थ वि भागहारोवलंभादो। पुणो केवलदंसणावरणं विसे० । पृ० ३६. संखेज्जदिभागेण। कुदो? छव्विहबंधगस्स दंसणावरणदव्वस्स अणंतिमभागस्स चउत्थभागत्तादो । कथं देसघादिबंधणकरणेण णट्टचक्खु-अचक्खु-ओहिदसणावरणसव्वघादिदव्वाणं एत्थ विभंजणमिदि चे-- ण, बज्झमाणकेवलणाण-केवलदसणावरणाणं पुन्विल्लभागहारपडिभागेण दव्वाणि होति त्ति । अहवा दोण्हं पि समाणा होंति त्ति वा वत्तव्बमेदमविरुद्धमप्पाबहुगमिदि । ण एस दोसो। कुदो ? वीसणं सबघादिपयडीणं जहासरूवेण उक्कस्ससामित्ताणुरूवं अप्पाबहुगमेत्त (त्थ ) ण विवक्खिदं होदि । तं कथमेवां परूविदविधाणागमविरुद्धत्तादो। तुम्हेहिं परूविधं (दं ) कथं सामित्तविरोध ण भवे ? ण, एत्थ एदेसि पयडीणं मिच्छाइट्ठिणा बध्दुक्कस्सदनं घेत्तूण परूविदत्तादो विरोधो पत्थि । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट अहा (ह) वा एदेसि पयडोणं जहासरूवसामित्तमस्सियूण एवं चेवप्पाबहुगं एवं साहेयव्वं । तं जहा- मिच्छाइट्ठिगा बद्धक्कस्सदव्वं पुव्विल्लविभंजणम्हि चेव मिच्छताणताणुबंधीणमुक्कस्सं होदि । किमळं सासणेण बद्धाणताणुबंधीणं दव्वमस्सियूणुक्कस्ससामित्तमणंताणुबंधीणं ण उच्चदे ? दोसु वि गणट्ठाणेसु एदस्स समाणपक्कमदबत्तादो। अहवा एवं वा विहंजणविहाणं वत्तव्वं । तं जहा- मिच्छ इट्ठिम्मि बध्दुक्कस्समोह - णीयदव्वं आवलि० असं० भागेण खंडेदूणेगखंडरहिदे बहुखंडाणि सत्तारसभागं कादव्वाणि । किमह्र बज्झमाणबावीसपयडीओ भागहारो ण दिज्जदे ? ण, संजलणचउक्कभागेसु णोक सायभागाणं संपवेसुवलंभादो। एवं कादूण पुव्वं व सेसेयखंडं पक्खिविय सत्तारसेसु ठाणेसु ठिदेसु सगसगादिवग्गणप्पहुडिवग्गणरचणं काढूण णेदव्वं जाव सग-सगंतिमवग्गणे त्ति । णवरि अपच्चक्खाण माग-कोह-माया-लोह-पच्चक्खाणमाण-कोह-माया-लोह-संजलणमाण-कोह-माया--लोहाणंताणुबंधिमाणकोह-माया-लोह-मिच्छत्ताणं कमेणुक्कस्सबंधवग्गणाओ थवति । पुणो देसघादिसंबंधिसव्वपंतीओ एगठे कदे देसघादिमोहणीयदव्वं होदि । पुणो सव्वघादिसंबंधीणं सत्तारसपयडीणं दव्याणि वग्गणाणुसारीणि मिच्छत्तादिसत्तारसपयडीणं होति । तत्थ मिच्छत्ताणताणुबंधिचउकाणं उक्कस्साणि होति । पुणो असंजदसम्मादिट्ठीण वध्दुक्कस्सदव्वस्स विभंजणविहाणे भण्णमाणे मिच्छाइट्टिम्मि पुव्वविभंजिददव्वम्मि मिच्छत्तदव्वं घेत्तूण देसघादिम्मि पविखविय अणंताणुबंधिचउक्काणं दव्वं घेतूण पुव्विल्लाणंतरूवेण खंडिय तत्थ बहुखंडाणि देसघादीसु पक्खिविय सेसेयखंडं आवलि० असंखे० भागेण खंडेदूणेगखंडरहिदबहुखंडाणि बारसखंडाणि कादूण सेसेयखंडे पुनविहाणेग पविखत्तेसुप्पण्णबारसपुंजाणि घेत्तूण मिच्छाइट्ठिम्मि पुव्व विभंजिदेसु गहिदसेसबारसपुंजेसु संजलणादीसु कमेण पक्खित्तेसु विभंजिदं होदि । एत्थ पुणो अपच्चक्खाण च उक्काणं उक्कस्सं होदि, एत्थतणपुग्विल्लपयडिविसेसादो। संपहि पक्खित्तदव्वमणंतगुणहीणं होदि त्ति पुव्विल्लविसेसाहियकमो चेव अणंताणुबंधिमाणादीणं एदेहितो होदि। एदं विभंजणं होदि त्ति कथं णव्वदे ? ण, सम्माइट्ठिपरिणामेसु सव्वघादिदव्वावट्टाणादो। तं कथं परिच्छिज्जदे ? ण, पमत्तापमत्तसंजदेसु संजलणाणं सव्वघादिदवाणं णिम्मूलोवट्टणदंसणादो। पुणो संजदासंजदेसु वि एदेण कमेग अट्ठकसायाणं विभंजणविहाणं जाणिय वत्तव्यं । पुणो दसणावरणे भण्णमाणे मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठीहिं बध्दुक्कस्सदसणावरणदव्बे पुव्वं व विभंजिदे थीणगिद्धितियाणमुक्कस्सं होदि । पुणो सम्मामिच्छाइट्ठि-सम्माइट्ठीहि बध्दुक्कस्सदव्वे पुवं विभंजिदपयारेणेत्य पायोगं जाणिय विभजिदे पयला-णिद्दाणमुक्कस्सदव्वं होदि । पुणो सुहमसांपरायिगेसु बद्धदसणावरणदव्वस्साणंतिमभागं बेसदबावण्णरूवेहि खंडिय चउव्वीसखंडेसु अणंतभागभहियपमाणेसु गहिदेसु ताणि केवलदसणावरणमुक्कस्सदव्वं होदि । सेसट्ठावीस-बंसदखंडाणि देसूणाणि देसघादिसरूवेण परिणमंति त्ति ताणि तम्मि पक्खिविदव्वाणि। कथमेदं परिच्छिज्जदे ? चक्खु-अचक्खु-ओहिदसणावरणाणमेत्थ भज्झ (ज्ज) माणाणं पुवमेव णट्ठसव्वघादिबंधत्तादो। तेसिं एत्थ भागो णयि त्ति भज्झ ( ज्ज ) माणस्स वि सुठ्ठदबोवट्ठाणादो (?)। पुणो एत्थ पुव्वं व विससे ( विसे ) साहियकमो होदि त्ति वत्तव्यो। ____ पुणो एत्य बद्धणाणावरणदश्वविभंजणे कीरमाणे तत्थतणदव्वस्स अणंतिमभागं पंचतीसखंडाणि कादूण छखंडेसु अणंतभागवहिदे ( ए ) सु गहिदेस् ताणि केवलणाणावरणभागो होदि । सेसकिंचूणुगुतीसखंडाणि देसघादिसरूवेण परिणमंति । कुदो? देसघादिबंधणकरणट्ठाणे चउणाणा Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया वरणं ( वरणाणं ) णट्ठसव्वघादिबंधत्तादो। केवलणाणावरणमेक्क चेव सव्वघाइसरूवेण बज्झइ, तस्स विसुट्ठसव्वघादिदव्वोवट्टणादो। एसो अत्थो उक्कस्ससामित्ताणुसारिकरणळं इठेण परूविदो। अत्थदो पुण पुव्विल्लो व पहाणमिदि गेण्हिदनं । कुदो? एत्थ णाणदंसणावरणाणं छव्विहबंधगुक्कस्सदव्वाणि मिच्छाइट्ठिबंधुक्कस्सदव्वाणुसारीए ओवट्ठणादो । आहारसरीरपक्क० मणंतगुणं । १० ३६. कुदो ? सत्तविहबंधगुक्कस्सदव्वस्स छव्वीसदिमभागस्स चउब्भागत्तादो। तं पि कुदो? अपमत्तापुवकरणसंजदाणं तीसबंधएण बध्दुक्कस्सणामकम्मसमयपबद्धं विभंजमाणे तहोवलंभादो। कथं विभंजिज्जदि? उच्चदे- सव्वुक्कस्ससमयपबद्धमावलियाए असं० भागेण खंडेदुणेगखंडरहिदबहुखंडाणि बज्झमाणतीसपयडीसु चत्तारि सरीराणि एगभागं दोण्णि अंगोवंगाणि एगभागं लहंति त्ति छप्पयडीओ अवणिय सेसच उवीसपयडीसु दोपयडिसंखे पक्खित्ते छन्वीसाओ होति। तेहिं खंडिय छव्वीसट्टाणेसु ठविय सेसेयखंडं पुव्वविहाणेण पविखवियव्वं जाव चरिमखंडादो पड (ढ) मखंडे त्ति। तत्थ पढमखंडो गदिभागो होदि, बिदियखंडं जादिभागो विसेसाहिओ होदि, एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव णिमिणो त्ति । पुणो एत्थ विसेसाहियं होदि त्ति कथं णव्वदे ? तिरिक्खगदीदो उवरि अजसकित्ती विसेसाहिया त्ति उत्तप्पाबहुगादो । पुणो तत्थ सरीरभागं घेत्तूण आवलि० असं० भागेण खंडेदुणेगखंडरहिदबहुखंडाणि चत्तरिखंडाणि कादूण सेसकिरियं पुव्वं व कदे तत्थ सव्वत्थोवं वेगुब्बिय० । आहारसरी० विसे । तेज० विसे । कम्म० विसे० । पुणो एत्यतणआहारसरीरं उक्कस्सं होदि । एवमुवरि वि विभंजविहाणं जाणिय वत्तव्यं । पुणो बेगुम्वियसरीर० विसे० । पृ० ३६. संखेज्जादिभागेण । कुदो? उक्कस्ससमयपबद्धस्स सत्तमभागस्स छव्वीसदिमभागस्स तिभागत्तदो। ओरालिय० विसे० । पृ० ३६. संखे० भागेण । कुदो? समयपबद्धस्स सत्त० एककवीसदिमभागस्स तिभागत्तादो । तेज. विसे० । कम्म० विसे० । पृ० ३७. कुदो? पयडिविसेसेण । आहारसरीरंगोवंग विसे० संखेज्ज० । कुदो? समयपबद्धस्स सत्तम० छब्बीसदिम० दुभागत्तादो। एदीए पयडीए अउत्तमप्पाबहुगं कथमेत्थ परूविज्जदे ? ण, उत्तप्पाबहुगेण सूचिदत्तादो। पुणो मज्झिमचउसंठाणाणं आदिल्लपंज (पंच) संघडणाणं तित्थयरस्स च पक्कम० विसे० संखे० । कुदो ? समय० सत्तमभा० सत्तावीसदिमभागत्तादो। णवरि पुविल्लादो चउठाणाणि सरिसाणि होऊण विसे० । पंच संघडणाणि सरिसाणि होदूण विसे० । तदो तित्थयरं वि० पयडिविसेसेण । पुणो णिरयगदी देवगदी विसे० (मू० संखेज्जगुणं )। पृ० ३७. संखेज्ज०। कुदो? समयपबद्धसत्तमभागस्स छब्बीसदिमभागत्तादो । कथमेत्थ विभंजणं करिदे? अट्ठावीसपयडिबंधम्मि पुव्वं व विभंजणकिरियमचुक्कतेण कीरदे । एत्थ सूचिददसपयडीण अप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा- समचउर० विसेस० । वेगुम्वियसरीरंगोवंगं विसे० । णिरयगदि-देवगदिपाओग्गा० सरिसं होऊण विसे० । पसत्थापसत्थ विहा० सरिसं० विसे० । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सुभग० विसे० । सुस्सर-दुस्सर० सरिसं० विसे । आदेज्ज. विसे० पगदिविसेसेण । कुदो? सह विभंजिदत्तादो। पुणो वि सूचिदाणं उच्चदे- आदाव-उज्जोवाणं दोण्हं सरिस० विसे० संखे० । कुदो ? समयपबद्धस्स सत्तम० चउवीसदिमभागत्तादो। पुणो मणुसगदि० विसे० । पृ० ३७. कुदो? समयप० सत्तम० तेवीस० भागत्तादो । एत्थ सूचिदपयडीणं अप्पाबहुगं०विगलिदिय-सगलिंदियजादीओ सरिसाओ० विसे० । ओरालियंगोवंग० विसे० । असंपत्त० विसे०। मणुसाणु० विसे० । परघाद० विसे० । उस्सास० विसे० । तस० विसे० । पज्जत्त विसे० । थिर० विसे० । सुभ० विसे० । एदाओ सव्वाओ पयडीओ पयडिविसेसेण विसेसाहियाओ। कुदो? सह विभंजिदत्तादो। पुणो तिरिक्खगदि० विसे० । पृ० ३७. संखे० । कुदो? समयप० सत्तमप० ( भा० ) एक्कवीसदिमभागत्तादो। एत्थ सूचिदपयडीणं अप्पाबहुगमुच्चदे- एइंदि० विसे० । हंडसंठाण विसे० । वण्णसामण्णं० विसे० । गंधसामण्णं० विसे० । रससामण्णं० विसे० । फाससामण्णं० विसे० । तिरिक्खगइपा. विसे० । अगुरु० विसे० । उवघाद. विसे०। थावर० विसे । बादर-सुहमाणं पक्कम सरिसं विसे० । अपज्जत्त० विसे०। पत्तेग-साधारणाणं पक्क० सरिस० विसे० । अथिर० विसे०। असुह० विसे०। दूभग० विसे० । अणादे० विसे० । एदासि सव्वासि पयडीणं पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि । पुणो अजसकित्ति० विसे० । पृ० ३७. ___ एदेणप्पाबहुगपदेण जाणिज्जदि णामकम्मपयडीणं पयडिपरिवाडीए विसेसाहियं होदि त्ति । पुणो एदेण सूचिदपयडीणमप्पाबहुगमुच्चदे- णिमिण विसे । पुणो दुगुंछाए संखेज्जगुणं । पृ० ३७. - कुदो ? समय० सत्त० दुभागस्स० पंचमभागत्तादो। भय० विसे० । हस्स-सोग० विसे० । अरदि-रदीणं० विसे० । इत्थि-णउस० सरिस० विसे० । पृ० ३७. पयडिविसेसेण । णवूसयवेदादो मिच्छत्तदव्वस्स संखेज्जदिभागपडिभागलद्धसासणसम्माइट्ठिम्मि बज्झमाणइत्थिवेददव्वं विसेसाहियं कथं ण भवे ? ण, वेदभागेसु मिच्छत्तदव्वपयडिभागं ण गच्छदि त्ति । कय मेदं णव्वदे ? एदम्हादो चेव अप्पाबहुगादो। दाणंतरायियं संखे० गुणं । पृ० ३७. कुदो । छव्विहबंधगेण बद्धंतरायियदव्वस्स पंचमभागत्तादो। लाभांत० विसे० । भोगांत० विसे० । परिभो० विसे० । वोरिया० विसे० । पयडिविसेसेण एदेसि पयडीणं पयडिपरिवाडीए विसेसाहियं जादं । कोधसंज० विसे० । पृ० ३७. संखेज्ज० । कुदो ? समय० सत्तम० चउब्भागत्तादो। मणपज्जव० विसे० । पृ० ३७. __ संखेज्ज० । कुदो? छब्भागस्स चउत्थभागत्तादो। ओहिणा० विसे० । सुदणा० विसे०। मदिणाण. विसे० । पृ० ३७. . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया माणसंज० विसे० । पृ० ३७. संखेज्ज । कुदो ? समय० सत्तम० तदियभाग० । ओहिदं० विसे० । पृ० ३७. संखेज्जदिभागेण । कुदो ? समय० छब्भाग० तदियभागत्तादो । अचक्खुदं० विसे० । चक्खुदं० विसे० । पृ० ३७. पयडिविसेसेण । पुरिस० विसे० । पृ० ३७. __ संखेज्ज० । कुदो ? सत्तम० दुभाग० । माया० संज० विसे० । पृ० ३७. पयडिविसेसेण । चत्तारिआउआणि० विसे० । पृ० ३७. संखेज्ज० । कुदो ? अट्ठमभागत्तादो । णीचागोद० विसे० । पृ० ३७. कुदो ? सत्त० । लोहसंजल० विसे० । पृ० ३७. . पयडिविसेसेण । असादवेद० विसे० । जसकित्ति-उच्चागोदाणं सरिसं० विसे० । पृ० ३७. संखेज्ज० । कुदो ? छट्ठभागत्तादो । सादवे० विसे० । पृ० ३७. पयडिविसेसेण । पुणो वीससव्वघादीणं पणुवीसदेसघादीणं सादासाद०-चत्तारिआउगाणं णीचुच्चागोदाणं पुणो एककारसणामपयडीणं सगसेसछप्पण्णबद्धं (बंघ) पयडिसूचयाणमिदि चउसद्विपयडीणं अप्पाबहुगं गंथयारेहिं परूविदं । अम्हेहि पुणो सूचिदपयडीणमप्पाबहुगं गंथ उत्तप्पाबहुगबले ण परूविदं । कुदो? वीसुत्तरसयबंधपयडीओ इदि विवक्खादो। तं पि कुदो? पंचबंधणपंचसंघादाणं पयडि-द्विदि-अणुभागेहिं पंचसरीरेहिं सरिसाणं पुणो पदेसबंधेण किंचि विसरिसाणं सरीरेसु दव्वट्ठियणयेण पवेसिय संखा अवणिदा। पुणो वण्ण-रस-गंध-फासाणं दव्वट्ठियणयेण सामण्णरूवेण एत्थ गहणादो । तेसि संखम्मि चत्तारि-एगचत्तारि-सत्त चेव संखाणि अवणिदा । पुणो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि च अबद्ध (अबंध) पयडीओ चेव, संतम्हि उप्पण्णत्तादो। ताओ दो वि अवणिदाओ । एवं सव्वाओ अट्ठावीस पयडीओ अवद्ध (अबंध) पयडीओ इदि सव्वपयडीसु अवणिदत्तादो । पुणो छादाल-सयपयडीओ बंधपयडीओ इदि विवक्खाए सूचिदप्पाबहुगं उच्चदेसव्वघादिकम्माणमप्पाबहुगं पुन्वं व परूविय पुणो केवलणाणावरणादो वण्ण-गंध-रस-फासाणं सामण्णभागे घेत्तूण सग-सगुत्तरपयडीणं पुवं व विभंजिदम्मि तत्थ कक्खड० अणंतगुणं । णवरि पयडिट्ठाणमस्सियूण पुव्वुत्तभागहारेसु बंधणसंघादाणमिदि दोण्णिभागहारखाओ पवेसियवाओ। मउगं विसे० । गुरुगं विसे० । लहुगं विसे० । णिदं विसे० । लुक्खं विसे० । सीदं Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ) परिशिष्ट विसे० । वसुणं विसे० पयडिविसेसेण । किण्ण० विसे० संखेज्ज ०। लीण ० ( णील० ) विसे० , रुहिर० विसे० । हलि० विसे० । सेद० विसे० । तित्त० विसे० । कुदो ? सामण्णमूलभागाहियताो । कडुग० विसे० । कसाय० विसे० । आंबल० ( अंबिल० ) विसे० । महुर० विसे० । आहार० विसे० । आहारसरीरबंधन० विसे० । आहारसरीरसंघाद० विसे० । वेगुव्वियसरीर • विसे० । वेगुव्वियसरीरबंध विसे । वेगुव्वियसरीरसंघाद० विसे० । ओरालि० विसे ० । तेज० विसे० । कम्मइयसरी ० विसे । ओरालियबंध० विसे० । तेजइगसरीरबंधण० विसे० । कम्मइयबंधन० विसे० । ओरालियसंघाद० विसे० । तेजइयसंघाद० विसे० । कम्मइयसंघाद० विसे । तत्तो आहारसरीरंगोवंग ० विसे० । सुरभिगंध ० विसे० । दुरभिगंध विसे० । एत्तो चउसंठाणादिउवरिमपदाणि सव्वाणि पुव्वं व वत्तव्वाणि । ० पुणो गंथालावाणं चउसट्ठिपयडीणं गंथे सूचिदावीसुत्तरसयपयडीणं उच्चारणाणं छादालसयपयडीणं उच्चारणाणं च कमेणेदाणि तिणि वि संदिट्ठीओ होंति । आहारस वेगुव्वियसरीर स ३२८ । स ३२८ ७ ख ९१७ ७ ख ९१७ वेदणीय गंथालावं | म ३२८ स ३२ स ३२ ७२६३ ७२१३ स ३२ ७२६ स ३२ ७२६३ नरक - देव | स ७३२ | मणुस | स ३२ | तिरिखखगदि स ३२ स ३२ ७२१ ७२१ ७२६ ७२३ दुगुच्छ । भय । ० हस्स । • सोग । ० रदि- अरदि । इत्थि णउंसय ० भोगं । • उपभोगं । 0 वीरियं कीधसंजलण लाभं । अधिणाणं । ● सुदणाणं । मदिणाणं |स ३२ ७३ म ३२ oooooooooo ७ ख ९ ७ ख ९१७ co स ३२ ७२१३ स ३२ | लोभसंजलणं । स ३२ | असातं | स ३२ | जसकित्ति - उच्चागोदाणं ७ ७ 10 स ३२ स ३२ ७२६२ | ७२७ ओरालियं । तेजयिगं । कम्मइगं अजस कित्ति स ७४ 00000 दंसणं । चक्खुदंसणं | स ३२ | पुरिसवेदं । ० मायासंजलणं | स ३२ | चत्तारिआउगं | स३२ | नीचागोद ७२ ८ ७ स ३२ ६५ स ३२ ૬૪ ०००००००००००० स ३२ ७ ख ५ स ३२ ७ ख ९ माणसंजलणं | स ३२ अधिदंसणं । ० अचक्खु - ६३ ००००० म ३२ ७१० दाणंतरायि० । म ३२ ७२६४ स ३२ ७२६ मणपज्जव । स ३२ ६ णरक-देवगदि समचदुर | स ३२ | वेगुब्वियंगोवंग । जरक देवाणुपुब्वी । ७२४ स ३२ ७ ख ५ स ३२ ७२६४ चउसंठाणाणं । ० पंच संघडणाणं । तित्थयराणं पसत्थगइ । ० सुभगं । सुस्सर दुस्सरं । आदेज्जं स ३२ | आदाउज्जोवं स ३२ ७२६ ७२३ साता 1 o पसत्था - मसदि । विगलिंदिय-सगलिंदियाणि । ० ओरालियंगोवंग । ० मणुस्साणुपुव्वी । ० परघाद । • उस्सासं । • तस - पज्जत्तं । ०थिरं । ० स ३२ तिरिक्खर्गादि । ००००००००००००००००० ७२१ ) सुभं | Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ।७१० स३२ | अजसगित्ति | स३२ | णिमिग | स३२ / दुगुच्छ। उवरि पुव्वं व। एसा वीसुत्तर ( सय ) ७२१ पयडीणं उच्चारण संदिट्ठी | स३२८ ०००००००००००० स ३२००००० स ३२ | स३२ ७ख ९१७ ७ख ९ ७ख५। ७२३८ ००००००० स३२ १०००० स ३२ ००००/ स३२ ००/ स३२ | स३२ |स३२ | स३२ | ७२३५, ७२३५ ७ २८४ । ७२८३ / ७२८३ | ७२८३ | ७२३३ ०० स३२ ००/ स३२ /०० स३२ । स३२ | 0 | णवरि चउसंठा गादीणं पुव्वं व । ७२३३ । ७२३३ ७२८३ । ७२३२ एसा छादाल-सयपयडीणं संदिट्ठी।। एत्तो पयडीसु जहण्णपक्कमदव्वाणं अप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा-- सव्वत्थोवमपच्चक्खाणमाणे पक्कमदव्वं । पृ० ३७. । कुदो? सुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयस्स उप्पण्णपढमसमयजहण्णुववादेणागयसमयपबद्धसत्तकम्माणं विभंजिदे तत्थ मोहणीयलद्धदव्वं पुव्वं व अणंतखंडं कादूण किंचूणेगखंडं घेत्तूण पुव्वं व सत्तारसपयडीणं विभंजिदेसु तत्थंतिमपमाणं अपच्चक्खाणमाणदव्वं होदि । तदो __ कोहे० विसे० । माया० विसे० । लोहे० विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे । कोहे० विसे० । माया० विसे० । लोहे० विसे० । पृ० ३७. ___ एत्थो ( एत्तो ) संजलग माण-कोह-माया-लोहसव्वघादिदव्वं बज्झमाणपंचणोकसायसव्वघादिदव्वसहागदं एत्थेव विसेसाहियकमेण ठिदं पुव्वं व देसघादिदव्वेसु पवेसिदव्वं । _पुणो अणंताणु० माणे० विसे० । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे । मिच्छत्ते० विसे० । पृ० ३८. एदाओ सव्वपयडीओ पयडिविसेसेण विसेसायिाओ। केवलदसण० दव्वं विसे० । पृ० ३८. संखेज्ज० । एत्थ पुव्वं व विभंजिदे पुव्वुत्तसमयपबद्धस्स सत्तरूवेणाहादा (हदा) गंतरूवेण भजिदस्स णवमभागोवलंभादो। पचल० पक्क० विसे० । णिद्दा० विसे० । पचलापचला. विसे। णिद्दाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि० विसे० । केवलणाण० विसे० । पृ० ३८. संखेज्जदि० । कुदो? समय० सत्तम० अणंतिमभागस्स पंचभागोवलंभादो । पुणो एदेसि वीसणं सव्वधादीणं जहण्णुक्कस्सप्पाबहुगालावो मिच्छाइट्ठिम्मि बंध(बद्ध)जहण्णुक्कस्सदव्वं घेतण भणिदमिति सिद्धं । पुणो ओरालियस्स० दव्वमणंतगुणं । पृ० ३८. कुदो? तस्सेव सुहुमेइंदियसमयपबद्धस्स सत्तमभागस्स अट्ठावीसदिमभागस्स तिभागत्तादो। तं पिकूदो? बज्झमाण देसघादीणं पूव्वं व बज्झमाणअघादीणं भागहारोवल तेज० विसे० । कम्म० विसे० । तिरिक्खग० संखेज्जगुणं । पृ० ३८. कुदो ? तिभागाभावादो। एदेण सूचिदपयडीणं अप्पाबहगं उच्चदे- विलिंदिय-सगलिदियजादीणं० सरिसं० विसे० । छस्संठाणाणि सरिसाणि विसे । ओरालियगोवंग० विसे छस्संघड. विसे० । वण्ण० विसे० । गंध० विसे० । रस० विसे । फास० विसे० । तिरिक्ख Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ) परिशिष्ट विसे ० गइआणु० विसे० । अगुरुगलहुग० विसे० । उवघाद ० विसे० । परघाद० विसे० । उस्सास० विसे० ० । उज्जोव० विसे० । दोविहायगदि० विसे० । तस० विसे० । बादर विसे० । पज्जत्त ० ० । पत्तेग० विसे० । थिराथिर० सरिस० विसे० । सुभासुभ० सरिस० विसे० । सुभगदूभग० सरिस० विसे० । सुस्सर दुस्सर० सरिस० विसे० । आदेज्जाणादेज्ज० सरिस० विसे० । एदेसि पयडीणं पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि जाणिदाणि । कुदो ? एदासि तेदालीसपयडीणं जहा संभवेण सह बज्झमाणत्तुवलंभादो । जसाजस० सरिस० विसे० । पृ० ३८. एण सूचिदणिमिण० विसे० । पुणो मणुसगदि० विसे० । पृ० ३८. संखेज्जदिभागेण । कुदो ? पुव्विल्लसमयपबद्धस्स सत्तम० सत्तवीसदिम० । एदेण सूचिदपयडी अप्पा बहुग०- मणुसाणु० विसे० । एइंदिय० विसे० संखेज्ज० । कुदो ? सत्त० चउवीस० । आदाव० विसे० । थावर० विसे० । सुहुम० विसे० संखेज्ज० । कुदो ? सत्त० तेवीसदिमभा० । अपज्ज० विसे० । साधारण० विसे । पुणो दुगंछा० विसे० संखेज्जगुणं । पू० ३८. कुदो ? सत्तम दसमभागत्तादो । भय० विसे० । हस्स - सोगाणं ० विसे० । रदि-अरदीगं० विसे० । इत्थिपुरिस - णपुंसक० विसे० । माणसंज० विसे० । पृ० ३८. संखेज्जदिभा० । कुदो ? सत्तम० दुभागस्स चउत्थभागत्तादो | O कोहे० विसे० । माया ० विसे० । लोहे० विसे० । दाणंतराय० विसे० । पृ० ३८० संखेज्ज० । कुदो ? सत्तमभा० पंचमभागत्तादो । ० लाहांत विसे० । भोगांत ० विसे० । उपभोग० विसे० । वोरिय० विसे० । मणप० विसे० । पृ० ३८. संखेज्ज० । कुदो ? सत्त० चउब्भागत्तादो । ओहि ० विसे० । सुद० विसे० । मदि विसे० । ओहिदंस० विसे० । । संखेज्ज० । कुदो ? सत्तम० तिभागत्तादो | अक्खु ० विसे० । चक्खु ० विसे० । उच्च णीचागोदाणं संखेज्जगु० । पृ० ३८. कुदो ? समय ० सत्तमभागत्तादो । सादासाद० पक्क० विसे० । पृ० ३८. पयडिविसेसेण । वेगुव्वियसरीर असंखेज्जगुणं । पृ० ३८. कुदो ? एइंदियउववादजोगादो असंखेज्जगुणसष्णिपंचिदियपज्जत्तुववादजहण्णजोगेण असंजदसम्माइट्टिणा बद्धसमयप० सत्तम० सत्तावीसदिमभागत्तादो। एत्थ सूचिदप्पा बहुगं उच्चदे-- तित्थयर० संखेज्जगुणं । कुदो ? देवे सुप्पण्णपढमसमये होदिति । देवदि० विसे ० ( मू० संखेज्जगुणं ) । पृ० ३८. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( १३ संखेज्जदिभागेण । कुदो ? दो ( ? ) तित्थयरबंधस्स मणुस्सेसुप्पण्णस्स होदि त्ति । वेगुव्वियअंगोवंग० विसे० । देवगदि० पा. विसे० पयडिविसे० । कुदो? तेण सह बंधत्तादो। मणुस्स-तिरिक्खाउग० असंखेज्जगुणं । पृ० ३८. कुदो? सण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणं जहण्णुववादजोगादो सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तजहण्णपरिणामजोगेण असंखेज्जगुणेणागदत्तादो। पुणो णिरयागदि० दव्वं असंखेज्जगुणं ( मू० असंखेज्जगु०) । पृ० ३८. कुदो? असण्णिपंचिंदियपज्जत्तजहण्णपरिणामजोगेणागददव्वस्स सत्तम० चउवीस ० । एत्थ सूचिदणिरयगइपा० विसे० । पुणो णिरय-देवाउग० संखेज्जगु० ( मू० असंखेज्ज० )। पृ० ३८. कुदो ? अट्ठमभागत्तादो। आहारसरीर० असंखेज्जगुणं । पृ० ३८. कुदो ? सण्णिपंचिदियपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामेणागददव्वस्स सत्तावीसदिमभागस्स चउत्थभागत्तादो। एत्थ सूचिदाहारसरीरंगोवंग० संखेज्ज० । पुणो छादालसयपयडीण अप्पाबहुगं जाणिय वत्तव्वं । तेसिं तिण्णं पि ०००००००००००० स ०००००। ७ ख ९ । ७ ख ५ । की-स ८ ७ ख ९१७ | स |ओरालियसरीरं । ० तेजइयसरीरं । ० कम्मइगं | स | तिरिक्खगदि | स ।७२८३| ७२८ ७२८ जस-अजसकित्ति | स । मणुसगदि | स. | दुगुंछं ।० भयं । ० हस्स-सोग।० रदि-अरदि-इन्थिपुरिस-णपुंसक | स | माणसंजलणं । ० कोधं । ० मायं । ० लोभं । | स | दाणं । ० लाभं । ' भोगं । ० परिभोगं । • वीरियं | स | मण० । • ओधि । • सुद । ० मदिणाणाणं | स | ७१० ।७८ ।७५ ७४ |७३। ओधिदंसणं । ० अचक्खु । ० च वेगविय स । उच्च-णीचागोदं । स | सादासाद| स २ | वेग ७२७३ सरीरं । २॥ देवगदि ।स२२। तिरिक्ख-मणुरसाउअग ।१२। नरकगदि । स २२२२ । ०००००००००००० ख ५। ७२८ |३ ७२८ देव-णिरयाउगं | प २२२२ख | आहारसरीरं गंथालावं | स ८ । ७२७।४ । ७ ख ९१७ | स ००००० । स स.., ओरालियसरीरं तेजइग । • कम्मइग । स... तिरिक्खगदि । ० विगलिंदिय-सगलिंदिय-छस्संठाणाणं । ० ओरालियंगोवंग० । छस्संघडणं । ० वणं । • गंधं । • रसं । ० फासं । ० तिरिक्खाणु० अगुरु० । ० लहुगं । ० उवघादं । ०परघादं । ० उस्सासं। ० उज्जोवं । ० दोविहायगइ। • तस । ० बादर । ० पज्जत्तं । ० पत्तेगं । ० थिराथिरं । • सुभासुभं। • सुभग-दूभगं। ० सुस्सर-दुस्सरं । आदेज्जाणादेज्ज। | स | जसाजसगित्ति । ।७२८ | Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ) परिशिष्ट ० णिमिणं । | स | मणुस्सगदि। ० मणुसाणुपुवी | स । एइंदियं । ० आदावं । ० थावरं |७२४ | स | सुहुमं । ० अपज्जत्त । ० साधारणं | स | दुगुंछा । ० भय । ० हस्स-सोगं । ०रदि ७१० अरदि। • इत्थि-पुरिस-णउंसगं | स | माणसंजलणं । ० कोधं । ० मायं 10 लोहं । | स । ७२३ दाणं । ० लाभं । ० भोगं । ० परिभोगं । ० वीरियं ।। स मण । ० ओधि । सुदं । ० मदि ७४ | स ओधिदसणं । ० अचक्खु । ० चक्खु | स । उच्चा-णीचागोदं | स | सादासादं | स २ । ७२७३ वेगुव्विय | स २ | तित्थयर| स २ | देवगदि । • वेगुब्वियंगोवंग--दवगदिपाओग्ग | स २२ ॥ ७२८ ७२७ तिरिक्ख-मणुस्साउ | स २२२ । णरकगति-तप्पाओग्ग | स २२२ | णिरय-देवाउ | स २२२२ ७२६ ७ ७२२४ २२४ । आहारं स २२२२| अंगोवंग । वीसुत्तरसयपयडीणमुच्चाराणं | स ८०००००००००००० | ७२७२ ७ख ९१७| स ००००० । स स ८००००००० स ००००/ स ०००० | स३ ओरा| ७ ख ९ ७ ख ५ । ७।३० । ।७।३०।५ । ७।३०।५ | ७।३०।५ । लियसरीरं ते जइगं कम्मइगं | स ओरालियसरीरबधणं । ० तेजइगबंधणं । ० कम्मइगं। |७३०३ | स ओरालियसंघाद । ० तेजइगं कम्मइगं । स | उवरितिरिक्खगदिआदीणं पुलां | ७।३०।५। व । एसो छादाल-सरपयडीणं आलावो। पुणो टिदि-अणुभागेसु पक्कमिदकम्मदव्वस्स अप्पाबहुगं गंथसिद्धं सुगममिदि तमपरूविय पुणो ठिदिणिसेयप्पडि पक्कमिदाणुभागम्सप्पाबहुगं णिक्खेवाइरियेण एवं परूविदं -समयाधिकाबाहट्टिदीए ठिदणिसेयस्स अणुभागो थोवो । पुणो तत्तो तदणंतर उवरिमठिदीए णिसेयस्सणुभागो अणंतगुणो । एवं तत्तो उवरिमुवरिमठिदीणं ट्ठिदिणिसेयाणं अणुभागा अणंतगुणाणंतगुणकमेण गच्छंति जा उप्पदिदुक्कस्सटिदिणिसेयस्स अणुभागो त्ति । एदस्स कारणं किंचि वत्तइस्सामो। तं जहा--ट्ठिदिअणुभागाणं बंधस्स कारणं कसायोदयजणिदपरिणामो चेव । स च परिणामो णाण-दसणलक्खणस्स जीवस्स कम्मक्खएण पत्तप्पसरूवस्स सब्बवत्थपरिच्छित्तीए सह जादाणंतसुहस्स तिविहकेवलिरुवस्स उवसंत-खीणकसायरूवस्स च साहावियो वीदरागपरिणामो होदि । तं च विणासियअणादिकम्मसंबंधं जीवस्स कसायोदय मिच्छत्तोदयसहिदो णोइंदियणाणोत्र जोगजत्तपंचिदिये वावारसहियो अणागारोवजोगसहिदो वा असंखेज्जलोगमेत्तसराग-दोस-मोहपरिणामभेदमुप्पाएदि । तं कथं ? मिच्छत्तं चउण्हं कसायचउक्काणं तिण्णं वेदाणं दोण्हं जगलाणं भय-दूगंछाणं पूह-पूहाणं जगलाणं उदयाणमणदयाण मिदि कमेण मोहकूल ठविय अक्खसंचारेण उदयवियप्पेसु उप्पाइदेसु छण्ण उदिमेत्तुदये वियप्पा होति । पुणो तत्तियमेत्तटाणे कसाय-णोकसायोदयपयडिसमूहस्स अणुभागमेगेगपत्तीए ठविय तत्थतणबंधुक्कस्साणुभागस्स अणंताणुबंधिलोभ-माया-लोह-माणपयडीणं कमेणेक्केकाणं च उवीसभेदभिण्णपंतीणमुक्कस्साणु - Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( १५ भागेहितो कमेणातगुणहीणाणि संजलणलोभ- माया कोह- माणाण बंधेण जादाणुभागा होंति । तेहितो कमेणानंतगुणहीणा पच्चक्खाण लोह-माया कोह- माणाणमणुभागा होंति । तेहितो अपच्चक्खाणलोह-माया कोह- माणाणं च अनंतगुणहीणा होंति । पुणो तेहिंतो जहण्णा इच्छावणमेतं हेट्ठा ओसरिय ट्ठदाणुभागोदयो सग-सगपढमकसायोदयो होदि । कुदो ? उदयाणुसारी उदीरणा होदित्ति गुरूवदेसादो । उक्काणुभागादो संजलण - णोकसायाणं आदिवग्गणा ति एगपंतीए अभिण्ण.... दत्तादो...... णोकसायोदयाणि मिच्छत्तोदयसहिदाणि गोइंदियणाणोवजोग जुत्तपंचिदिएहि सह वीदरागभावं णासिय अदीव विवरि ( री ) दतमभावमुप्पादेति त्ति ते संकिलेस्सा इदि भणिज्जंति । तं कथं णव्वदे ? सष्णिपंचिदियपज्जत्तमिच्छाइट्ठी सव्वसंकि लिट्ठो उक्कस्सट्ठिदि वंधदित्ति आरसादो । हितो कमेण छव्विहहाणीए पुव्वत्तकमेण संकिलेसा असंखेज्जलोगमेत्ता असादादिअप्पत्त (त्थ ) परावत्तणपयडिबंधकारणा होंति । पुणो तेहितो हेट्ठा केसि पि जीवाणं पुव्वुत्तकारणसामग्गीए वीरागभावं णासिय अदीय ( व ) ववरि ( री ) यभावमुप्पाययंति । तदो सि परिमाणा ( णामाणं ) कमेण संकिलेस - विसोहि त्ति सण्णा । एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्तद्वाणाणि गच्छति । पुणो तत्तो परं अणताणुबंधीणं उदयविरहिदअ संखेज्जलोग मेत्तसं किलेसट्टाणाणि आवलियकालपडिबद्धाणि होंति । पुणो तत्तो परं अनंताणुबंधीणमुदयस हिदाणि पाओग्गकारणसमवेदाणि संकिलेस - विसोधिणिबंधणाणि असंखेज्जलोगमेत्तद्वाणाणि होंति । पि सुभाणि असंखे लोगमेत्तविसोहिद्वाणाणि च पुणो कहिं पि सुक्क ( संकि ) लेसट्टाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि होंति । पुणो मिच्छत्तविरहिदाणि सासणसम्मादिट्ठि ( म्ह) मिच्छत्ताणताणुबंधिविरहिदाणि सम्मामिच्छाइट्ठी (ट्ठि) असंजदसम्माइट्ठीसु, पुणो तेहिं सहापच्चक्खाणविरहिदाणि संजदासंजदम्मि, पुणो पुव्वत्तहिं सह पच्चक्खाणविरहिदाणि वि पमत्तमंजदम्मि पुह पुह संकिलेसविसोहिद्वाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि होंति । पुणो अप्पमत्त - अपूव- ( अपुव्व ) करणसुद्धिसंजदेसु विसोअसंखेज्जलोगमेत्ताणि होंति । पुणो अणियट्टिम्मि उभयसेढीसु सवेदिचरिमसमयोत्त पुत्रयपय विद्धद्वाणाणि बारसपंतीसु पुह पुह अंतोमुहुत्तानि होंति । णवरि उवसमसेढीए चरिसमयअणि ट्टि पज्जवसाणं जाव पुव्वफद्दयपडिबद्धद्वाणाणि होति । पुणो तत्तो परं खवगसेढीए अपुव्वफद्दयवग्गण-बादर किट्टि सुहुम किट्टिपडिबद्धट्ठाणाणि कमेण चदुचदु-तिग-दुग- एगपंतीसु अंतोमुत्तमेत्ताणिहोंति । पुणो एवमुप्पण्णाणि एत्तियमेत्ताणि सव्वपरिणामट्ठाणाणि होंति । णवरि मिच्छत्तसहगदचरिमसंकिलेस - विसोहिट्ठाणेसु सष्णिपंचिदिय मिच्छा इट्ठि असणिपंचिदिएसु चउरिंदिसु तीइंदिए बीइंदिएसु एइंदिए (य) जीवेसु च उप्पण्णेसु कमेण णोइंदिय-सोइंदियचक्खि दियघाणिदिय जिब्भिदिय ( - तुगंदिय । णाणगदा, एग-दो- तिणि चत्तारि-पंच-सहाय वि. हित्तदो । अष्पष्पकसायोदयट्ठाणाणि पुह् पुह असंखेज्जलोग मेत्ताणि । ताणि संकिलेसविसोहिनामधेयेसु पविद्वानि होंति । पुणो एवमुप्पण्णच उकसायपडि बद्धछण्ण उदिपंतीयो सग-सगपाओग्गद्वाणे पविसिय एगपंती कायव्वा । एवमुप्पा इदकसायोदयट्ठाणेसु उक्कस्सट्ठिदिबंधमादि काढूण समयूणादिकमेण अंतोकोडा कोडिमेत्तधुवट्ठिदिबंधो त्ति पुह पुह असंखेज्जलोगमेत्ताणि कसायोदय संकिलेसणामधेयाणि विसेसहीणाणि कमेण होंति । णवरि विसोहिणामधेयकसायोदयणि सादुक्सट्ठिदिबंधपायोग्गप्पहु डिविसे साहियकमेण गच्छति जाव सगधुवट्ठदिति । तत्तो मिट्ठदिवियप्पेसु वि मिच्छा० -सासण० - सम्मामिच्छा० - असंजद०-संजदासंजद० - पमत्तापमत्त० अपुव्वेसु लब्भमाणाणि असंखेज्जलोगमेत्तद्वाणाणि होंति । णवरि मिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद पमत्तापमत्तसंजदगुणट्ठाणेसु अधापवत्त-अव्वाणि यट्टिकरणा... Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट कीरमाणेसुजं तत्थाणियट्टिकरणाणि बंदण ( ? ) ठिदिबंधेसु अंतोमुत्तमेत्तकसायोदयट्ठाणाणि होति । गवरि जत्थ संखेज्जभागहीणं-संखे० गुणहीण-असंखेज्जगुणहीणेसु णियमेण ठदिबंधोसरणेण ठिदिबंधेसु जादेसु तत्थ तेसिमंतरालणिसेयाणं वत्ति (त्त) ठिदिबंधाणं (बंधा ण)संति । किंतु अण्णठिदिबंधेहि सह अव्वत्तठिदिबंधत्तणेण । तेसिं कारणभूदकसायोदयट्ठाणाणि पुव्वुप्पाइदट्ठाणेसु उप्पण्णाणि संति, किंतु तेसि वत्तिसरूवोदया ण सति । अण्णकसायोदयभंतरेसु पवेसिय उदयं देंति त्ति । णवरि असंखेज्जगुणहीणठिदिबंधोसरणमणियट्टिम्मि चेव संभवदि । पुणो एवमुप्पण्णकसायोदयट्ठाणेसु उक्कस्सठिदिबंधहेदुभूदाणि कसायोदयट्ठाणाणि सहायसव्वपेक्खाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि होति । जदि एवं (तो) तेहि उक्कस्सठिदिम्मि बज्झमाणम्मि तत्थ बद्धसमयपबद्धपरमाणूणं सव्वेसिमुक्कस्सट्ठिदिबंधसंभवे संते कथं तस्स समयपबद्धस्सब्भंतरपरमाणूणं समयूणादिट्ठिदिबंधाणं संभवो? ण एस दोसो। कथं? उक्कस्सकसायोदयस्स आदिवग्गणआदिप(फ)द्दयप्पहुडिं असंखेज्जलोगमेत्तकसायोदयट्ठाणाणं अभिण्णसरूवेण एगपंतीए रचणा कायया जा उक्कस्सप(फोदय उक्कस्सवग्गणे त्ति । एदाणि सव्वाणि एक्कसमये ण उदयं करेंति । पुणो तत्थ उक्कस्सवग्गणप्पहुडि हेट्ठिमाणं असंखेज्जलोगमेत्तकसायोदयट्ठाणाणं वग्गणेहि उक्कस्सट्ठिदि बंधदि । तत्तो हेट्ठिमाणं असंखेज्जलोगमेत्तकसायोदयट्ठाणाणं वग्गणेहि समऊणहिदि बंधदि । एवं हेट्ठा वि जाणियूण कसायोदयट्ठाणाणि वत्तव्वाणि जाव सगसमयाहियाबाहा त्ति । पुणो एवं समयूण-दुसमयूणादिट्ठिदीयो अवलंबिय णेदव्वं जाव सवेदिचरिमसमयकसायोदयो त्ति । एवं बंधे समयाधिकआबाहापज्जवसाणसव्व ट्ठिदीयो वि उप्पण्णाओ होति । पुणो तत्थ हेट्ठिमट्ठिदीयो किण्ण बझंति? ण, अपुव्वप[फयवग्गणकिट्टिसरूवेण णोकसायोदयविरहिदकसायोदयेण च उप्पण्ण(ज्ज) माणकज्जाणं मिच्छत्त-णोकसायोदयसहिदतिव्वकसायोदएण संभवाभावादो। तेसिं संभवाभावे कथं आबाहखंडयेणूण उक्कस्सट्ठिदिबंधपहुडि हेट्ठिमद्विदिबंधट्ठाणाणं उक्कस्सबाधप्पहुडि समयूणादिकमेण जावंतोमुहुत्तमेत्ताओ ठिदीयो त्ति पढमणिसेयाणमुवलंभणियमो? तेसिं ठिदीणमुप्पत्तीए णियमस्स अण्णं कारणमस्थि । तं कथं ? उक्कस्सादिद्विदिट्ठाणेसु पत्तेयं पत्तेयं असंखेज्जलोगमेतभिण्णमभिण्णसरूवकसायोदयट्ठाणाणि संति । तेसि ठिदि पडिट्ठिदिं पडि ट्ठिदाणं पुह पुह अणुक्कड्डि ( कट्ठि अद्धाणमेत्तखंडगदाणं विसेसाहियकमेण गदाणं तत्तु (त्थु) क्कस्सखंडं मोत्तूण सेसखंडेहि समयूणुक्कस्सटिदिप्पहुडि समऊणाबाहाखंडयेणूणुक्कस्सट्ठिदि त्ति एगेगखंडपरिहीणेहि बज्झमाणट्ठिदीयो होति । एदेहि चेव उवरिमुवरिमट्टिदीयो किमळं ण बज्जति समाणट्ठिदिबंध कारणेसु सव्वेसु संतेसु ? ण एस दोसो । एत्थ तस्स कारणं उच्चदे- मिच्छत्ततिव्वोदएण अदीवमण्णाणसरूवणोइंदिय-पंचिंदियणाणासहाएण उक्कस्सखंडप्पहुडि सव्वांडे हि उक्स्सट्ठिदि बंधदि । पुणो उक्कस्सखंडं मोत्तूण सेसखंडेहि मंदसरूवेहि परिणदपुव्वुत्तकारणसहाएहि समयूणट्ठिदि बंधदि त्ति । एवमेगेगखंडेणूणसेसासेसखंडेहि पुवुत्तकारणाणं मंद-मंदादिकमेहि जुत्तेहि ऊणट्ठिदीयो बद्ध (ज्झं)ति जाव समयूणाबाहलंडमेत्तचरिमहेट्ठिमट्ठिदि त्ति । तदो हेट्ठिमट्ठिदीयो ण बज्झांति । कुदो ? कारणाणं तत्तियमेत्तकज्जुप्पायणसत्तीदो, अधियकज्जुप्पायणसत्तीए अभावादो। पुणो हेट्ठिम हेट्ठिमअणुक्कड्डि (कहि) वियप्पेसु एवं चेव कारणं वत्तव्वं जाव अणुक्कड्डिसंभवो अस्थि ताव । पुणो तत्तो हेट्ठिमाणं उवरिमेगेगेणाबाधखंडएणणजादपदेसट्ठिदीओ अवलंबिय आबाहाए एगेगट्ठिदीओ होंति पुवुत्तकारणवसेण। कथं मिच्छत्तोदय-णोइंदिय-पंचिदियणाणसहाएण Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( १७ कसायोदयेण एवं विहकज्जमुप्पज्जदि त्ति णज्ज (व्व )दे ? दस-णवपुवधारिजीवस्स झाणमुप्पज्जदि त्ति आरिसादो णिम्मणाणेण विसोही होदि त्ति णव्वदे । तदो समयूणादिहेटिमट्ठिदीओ उप्पज्जति त्ति सिद्धं । पुणो जाणि जाणि वग्गणप (फ) द्दयाणि पुह पुह पुविल्लट्ठिदिकज्जाणि करेंति ताणि ताणि कारणसामग्गीए करेंति त्ति गेण्हिदव्वाणि । पुणो अणुक्कड्डिपरिणामे समाणे संते वि अणुभागाणं सरिसं णत्थि । कुदो ? उवरिमद्विदिम्मि बज्झमाणे तस्संबंधिट्ठिदिबंधज्झवसाणाणं संबंधिअणुभागं बंधदि, तक्काले अणुक्कड्डिपरिणामेहि हेट्टिमट्टिदीणं पुह पुह बंधाभावादो। पुव्वं व पुव्विल्लकसायोदयस्स वग्गणादिभेदेण हेट्ठिम-हेट्ठिमट्ठिदीसु बज्झमाणेसु बज्झवसाणसंबंधिअणुभागं बंधति । तदो चेव उवरिमादो हेट्ठिम-हेट्ठिमाणंतगुणहीणाणंतगुणसरूवेण अणुभागा जादा । पुणो हेट्ठिम-हेट्ठिमट्ठिदीयो बज्झमाणकाले उवरिम-उवरिमठिदीओ ण बज्झंति त्ति वा अणुक्कड्डिअणुभागा ण संति । पुणो उक्कस्सट्ठिदिबंधकाले उक्कस्साणभागं बंधदि । पुणो तककाले समयूणट्ठिदिसंबंधिवग्गण-फद्दयठाणेहि उत्तेहि अणंतगुणहीणं बंधदि । एवं ठिदिअणुसारेण अणुभागा अणंतगुणहीणसरूवेण बझंति त्ति णिक्खेवारियवयणं सिद्धं । कुदो ? ठिदिबंधज्झवसाणेसु अणुभागबंधज्झवसाणाणि अवस्सं संति त्ति अभिप्पायेण । किंतु अणुभागवग्गणाणं एत्य अणंतरोवणिधा असंखे० ट्ठाणेसु असंखे० भागहीणेण, संखे० ट्ठाणेसु संखेज्जभागहीणेण, एक्कम्मि ठाणे संखेज्णगुणहीणेण, अहवा असंखेज्जेसु ठाणेसु अणंतगुण-अणंतगुणहीणेण, खलितं ( खलिदं ) होदूण गच्छदि । कुदो एवं ? जत्थ पढमादिणिसेयवग्गणाओ थक्कंति तत्थ असंखेज्जभागहीणेणंतरदि जाव संखेज्जा णिसेया अवसेसा त्ति । तदो संखेज्जभागहीणेणंतरदि । चरिमणिसेये संखेज्जगुणेणंतरदि । जदि पुण अभावणिसेयाणं दव्वाणि सग-सगचरिमवग्गणाए णिक्खिविज्जंति तो अणंतगुण-अणंतगुणेणंतरिदूण गच्छदि । णेदं पि, सुत्तविरुद्धत्तादो। सेसाइरियाणमभिप्पायेण पढमादिणिसेएसु पक्कमिदणुभागो समयाधिकाबाहप्पहुडि उक्कस्सट्ठिदि त्ति ट्ठिदणिसेयाणं संबंधीयो सव्वत्थ सरिसो। तस्स किंचि कारणं वत्तइस्सामो। तं जहा--उक्स्सट्ठिदिसंबंधियसमयपबद्धम्मि समयूणादिट्ठिदीणं संभवे कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । पुणो उक्कस्सटिदिबंधहेदुभूदुक्कस्सकसायोदए असंखेज्जलोयभेदभिण्णाणि अणुभागबंधज्झवसाणाणि होति । पुणो तत्थतणुक्कस्साणुभागबंधज्झवसाणादो उक्कस्साट्ठिदि (स्सठिदि) संबंधिअणुभागबंधज्झवसाणढाणाणि छविवहहाणीहिं असंखे० लोगमेत्तट्ठाणाणि गंतूण समयूणट्ठिदिसंबंधिअणुभागबंधज्जवमाणट्ठाणाणि असंखे० लोगमेत्ताणि होति । एवं दुसमयूणादिट्ठिदिसंबंधीणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि पुह पुह अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि गच्छंति जाव जहण्णढिदिसंबंधिजहण्णाणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणे त्ति । एदाणि पुणो उक्कस्साणुभागबंधज्झवसाण सव्वहेट्ठिमट्ठाणाणि अवगाहिय एगपंतीए ट्ठिदत्तादो अभिण्णरूवेण एगं होदि त्ति । तेण बज्झमाणसमयपबद्धस्स उक्कस्साणुभागुक्कस्सवग्गणप्पहुडि जहण्णवग्गणे त्ति बद्धाओ तदो सव्वट्ठिदीसु ट्ठिदणि सेयाणं अभिण्णपरिणामत्तादो सरिसाणुभागो होदि । समयूणादिदिठदीणं अणुभागबंधज्झवसाणाणं तत्थ संभवो पत्थि, तत्थ तेसि भिण्णपरिणामाणमेगसमए संभवाभावादो । तदो सव्वणिसेयट्ठिदीसु उक्कस्साणुभागो त्ति सिद्धं । पुणो एत्थ वग्गणाणमणंतरोवणिधा संभवदि, सुभपयडीणं उक्कस्साणुभागसंतस्स कालपमाणपरूवणा वि संभवदि । एवं पक्कमणियोगी गदो। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ) परिशिष्ट उवक्कमो चउम्विहो- बंधणोवक्कमो उदीरणोवक्कमो उवसामणोवक्कमो विपरिणामोवक्कमो चेदि । x x x x तत्थ बंधणोवक्कमो चउविहो पयडि-द्विदिअणुभागप्पदेसबंधणोवक्कमणभेदेण । x x x x पुणो एदेसि चउण्हं पि बंधणोवक्कमाणं अत्थो जहा संतकम्मपाहुडम्मि उत्तो तहा वत्तव्वो । पृ० ४२. संतकम्मपाहुडं णाम तं कध (द) मं? महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउवीसमणुयोगद्दारेसु बिदियाहियारो वेदणा णाम । तस्स सोलसअणुयोगद्दारेसु चउत्थ-छ?म-सत्तमाणुयोगद्दाराणि दव्व-काल-भावविहाणणामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्मपयडिपाहुडस्स पंचमो पयडी णामहियारो । तत्थ चत्तारि अणुयोगद्दाराणि अटुकम्माणं पयडि-ट्ठिदि-अणुभागप्पदेससत्ताणि परूविय सूचिदुत्तरपयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-प्पदेससत्तत्तादो । एदाणि सत्त (संत) कम्मपाहुडं णाम । मोहणीयं पडुच्च कसायपाहुडं पि होदि । पुणो उदीरणोवक्कमो पयडि-द्विदि-अणुभाग-प्पदेसउदीरणोवक्कमणभेदेण चउविहो । तत्थ पयडि उदीरणोवक्कमो दुविहो मलुत्तरपयडिउदीरणोवक्कमणभेदेण । x x x x तत्थ मूलपयडिउदीरणोवक्कमो दुविहो- एगेगपयडिउदीरणोवक्कमो पयडिट्ठाणोदीरणोवक्कमो चेदि । पृ० ४३. तत्थ एगेगपयडिउदीरणोवक्कमणम्मि सामित्तपरूवणं सुगमं । एगजी वकालपरूवणं पि सुगमं । णवरि आउगस्स उदीरणकालो जहण्णण एगसमओ दोसमओ वा त्ति परूविदो । तं कथं ? एगसमयाधिकावलियमेत्तं वा धुव (दु)समयाधिकावलियमेत्तं वा आउगे सेसे अपमत्तो (त्ते) पमत्तगुणट्ठाणं गदे होदि । एदस्स अत्थो तत्थ गंथे आइरियाणमभिप्यायंतरमिदि मुत्तकंठं भणिदो। तदो वियप्पट्ठो इदि ण भाणिदवो । जदि वियप्पट्ठो भणिज्जदि तो एगसमयाधिकमावलियं वा दुसमयाधिकमावलियं वा एवं तिसमयाधिकमावलियं वा आदि कादूण णेदव्वं जाव आवलियूणपमत्तजहण्णद्धेणब्भहियआवलिया त्ति भणेज्ज । ण च एवं भणिदं, तदो अभिप्पायंतरमिदि सिद्धं । पूणो एदाए परूवणाए पमत्तगणदाणकालो समयाधिकावलियमेत्तो वा दुसमयाधिकावलियमेत्तो वा होदि त्ति सिद्धं । एवं संत्ते एवं जीवदाणस्स कालाहियारेण उत्तपमत्तजहण्णकालेण अ . . . . . सह विरुज्झदे । एदं पि अंतोमुहुत्तमिदि चे- ण, तत्थ संखेज्जावलिमेत्तकालो अंतोमुहुत्तमिदि परूवणोवलंभादो । तं पि कथं णव्वदे? एदेण कसायपाहुडगाहासुत्तेण ( क० पा० १५-१७ ) संजदाणं जहण्णद्धा अंतोमुहुत्तमिदि परूवयेण तं । जहा आवलियमणायारे चक्खि दिय-सोद-घाण-जिब्भाए। मण-वयण-काय-फासे अवाय-ईहा-सुदुस्सासे ॥ १ ॥ केवलदसण-णाणे कसासुक्केक्कए पुधत्ते य । पडिवादुवसातय खतए संपराए य ।। २ ॥ माणद्धा कोहद्धा मायद्धा तह य चेव लोहद्धा । खुद्दभवग्गहणं पि य (पुण) किट्टीकरणं च बोद्धव्वा ।। ३ ।। इदि एत्त (त्थ) तणतदियगाहाए उत्तखुद्दाभवग्गहणं संखेज्जावलियमिदि उत्तत्तादो, सासणसम्मादिट्ठिअद्धादो खुद्दाभवग्गहणं संखेज्जगुणमिदि परूवयसुत्तादो, आइरियाणं संखेज्जावलिय Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया यंतोमुत्तमिदि तदुप्पायिय परूवयवियप्पदंसणादो च स णव्वदे । “ तत्तो किट्टिकरणद्धा दुगुणा। तत्तो अणियट्टिअद्धा संखेज्जगुणा। तत्तो अपुवकरणद्धा संखेज्जगुणा। तत्तो अप्पमत्ताद्धा संखेज्जगुणा। तत्तो पमत्तद्धा दुगुणा।" इदि आइरियेहि परूविदत्तादो, पुणो मिच्छित्तद्धा सम्मामिच्छत्तद्धा सम्मत्तद्धा असंजमद्धा संजमासंजमद्धा संजमद्धा इदि छण्णं पि अद्धाणं जहण्णकालो समाणो होदूण अंतोमुहुत्तपमाणमिदि परूवणाए विरोहोवलंभादो च । सच्चं विरोहो चेव, किंतु अभिप्पायंतरेण परूविज्जमाणे विरोधो णत्थि । कुदो ? पमत्तापमत्तसंजदाणं वाघादविसए णं व एगसमयोवलंभादो। पूणो णिव्वाघादविसयम्मि एदेसि संजदाणं अंतोमहत्तद्धा रूविदा । त कथ ! असजदो सजदासजदो वा सजम पडिवज्जिय संजमदाए अतोमहत्तकाल पमत्तापमत्तद्धा परावतणसरूवेण छण्णं पुणो दीहाउएण संजदेण पमत्तापमत्तद्धासरूवेण छण्णं च णिच्चयेण अंतोमुहुत्तं होदि । (पृ० ४६) पुणो एगजीवंतरपरूवणं पि सुगमं । णवरि वेदणीयकम्मस्स उदीरणंतरं एगसमयमिदि परूविदं । तेण जाणिज्जदि अपमत्तकालो वावादविसयो एगसमयो होदि, णिव्वाघादविसयो अंतोमुहुत्तो त्ति। पुणो णाणाजीवभंगविचय-कालंतरप्पाबहुगाणि सुगमाणि । पुणो पयडिट्ठाणउदीरणा दुविहा- अब्भो (अव्वो) गाढ उदीरणा भुजगारपयडिउदीरणा चेदि । तत्थ अव्वोघा (गा) ढपयडिउदीरणम्मि समुक्कित्तण-सामित्त-एगजीवकालंतर-णाणाजीवभंगविचयादीणं अप्पाबहुगाणुयोगद्दारपज्जवसाणाणं परूवणा सुगमा । पुणो भुजगारट्ठाणुदीरणाए सामित्त-कालंतरणाणाजीवभंगविचयादीणि अप्पाबहुगपज्जवसाणाणि भुजगारेण सूचिदपदणिक्खेव-वड्ढीणं कमेण तिणि तेरसाणुयोगद्दाराणि च सुगमाणि । ( प० ५४-५५ ) पुणो उत्तरपयडीणं एगेगपयडिदीरणाए मामित्तपरूवणा सुगमा। णवरि थीणगिद्धितियाणं उदीरणासामित्तस्स जो इंदियपज्जत्तयददुसमयप्पहु डि जाव पमत्तसंजदो ताव ते पाओग्गा होति । णवरि विगुव्वणाहिमुहचरिमावलियपमत्तसंजदे मोत्तूण । पुणो आहारसरीरं उट्ठाविदपमत्तो विगुव्वणमुट्ठा विदतिरिक्ख-मणुस्सो असंखेज्जवस्साउगतिरिक्ख-मणुस्सो देव-णेरयिगे च अणदीरगो इदि । किमळं एसो णियमो करिदे पंचविधणिद्दादिदंसणावरणस्स ? तेहि किं चक्खुदंसणं पच्छाइज्जदि किं अचखुदंसणं पच्छाइज्जदि किं ओहिदसणं पच्छाइज्जदि किं तिणि वि दसणाणणि पच्छाइज्जति आहो किं ताणि ण पच्छाइज्जति ? कि चादो जइ ताणि पच्छाइज्झं ( ज्जं )ति तो तिणि वि दंसणावरणाणि तक्काले णिप्प (प्फ)लाणि होति, एदाणं कज्जाणं अण्णेहि कीरमाणत्तादो। अह ण पच्छाइज्जति तो दसणावरणे एदाणि ण पडि ( ढि)ज्जंतु, ताणं अण्णकज्जस्साणुवलंभादो त्ति? ण एस दोसो, सणावरणभंतरे तेसिं पादे (ढ) ण्णहाणुववत्तीदो ताणि तत्थ कज्जं करेंति त्ति जाणिज्जदि । तं जहा- तिविहाणि वि दंसणाणि पत्तेयं पत्तेयं दुविहाणि खओवमगदसणं-उवजोगगददंसणमिदि । तत्थ खओवसमगददंसणाणि तिण्णि वि तिहि दंसणावरणीएहिं पच्छाइज्जति, उवजोगगददंसणाणि पुणो कहि पिपंचविहणिद्दाहि पच्छाइज्जति। कथमेदं णव्वदे? अद्धवोदयत्तादो दसणावरणत्तण्णहाणुववत्तीदो च। तदो त्थीणगिध्दितियाणं उदीरणाओ तिण्णं पि दंसणाणं सध्दतोवजोगं पच्छादेत्ति (देंति) । पच्छादेंतो वि णिम्मूलं पच्छादेति । कुदो? मिच्छत्तोदयं व सव्व Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०) परिशिष्ट घादित्तादो। सो च सुद्धत्तोवजोगो इंदियपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स होदि त्ति तप्पडि (तं पडि)सामित्त दिण्णं । पुणो एदाओ पच्छालि (दि) ददसणोवजोगं पुव्वं क (का) ऊणुप्पज्जमाणणाणोवजोगसुद्धि पि णासेंति । ण च णिम्मूलं विणासेंति, तहा जीवस्सभावप्पसंगादो । पुणो णिद्दा-पयलाणमुदीरणाओ वत्तावत्तदंसणोवजोगं सव्वत्थ जायमाणं कहिं पि कहिं पि पच्छादेति । पच्छादेंता वि दसणोवयोगसुद्धि पच्छादेंति, ण णिम्मूलं पच्छादेंति । तथा सति कथं सव्वधादिमिदि चे- ण, सव्वघादिसम्मामिच्छत्तोदयो व्व संपुण्णत्तघादणं पडि सव्वघादिदत्तादो। एवं संते णिद्दा-पयलाण परावत्तोदयाणं उदीरणाकाला दिवसो (सा)दयो दिस्समाणा उवलंभंति। कुदो? दोण्हं उवजोगाण तत्थ उवलंभादो। कथमेदं णव्वदे ? झाणकाले वि णिद्दा-पयलाणं उदीरणसंभवलंभादो। पूणो किमळं स्थीणतियाणं उदीरणा अप्पमत्तसंजदेसु तिविहकारणाणुप्पण्णाहारदिदी(रिद्धि) एसु पमत्तेसु विगुव्वणमुट्ठाविदेसु असंखेज्जवस्साउगतिरिक्ख-मणुस्सेसु देव-णेरइएसु च णत्थि ? ण, णाणेण बहिरंगत्थोवजोगेण कसाय ( ? ) मंदकसाएणुप्पण्णविसोहीए जादअप्पमत्तपमत्तविगुव्वगाहारट्ठिदी (रिद्धी)सु तदत्थित्तविरोहादो, असंखेज्जवस्साउगतिरिक्ख-मणुस्सेसु सव्वहा सुहीसु सुहबहुलदेवेसु दुक्खबहुलणारएसु च तदस्थित्तविरोहादो। एदेसिमेसा णत्थि त्ति तं पि अस्थि । तं कथं? तिकरणपरिणामाणं विसोहिसरूवाणं पारंभणियमा सुदोतजोगो जागारो त्ति परूवयाणमुवलंभादो । पुणो विगुव्वणाहाररिद्धिउट्ठावणाहिमुहाणं चरिमावलिम्मि वि उदीरणा णत्थि चेव । कुदो ? तेण उप्पज्जमाणकारणपयत्तेण । पुणो सादासादवेदणीय-मणुसाउगाणं च मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो ताव उदीरणा होदि, उवरि णस्थि त्ति। कुदो णियमो? उच्चदे- दाण-लाभ-भोगोपभोग-वीरियंतरायाणं खओवसमाविसेसमाहप्पेण बाहिरभंतरवत्थुपज्जायाणं पंचिदिय-णोइंदियाणं पल्हादकरणसमत्थाणं संपादणेणुप्पण्णं जीवस्स जं सुहं तं सादावेदणीयस्स फलं । पुणो तेसिं चेव खओवसमविसेसहाणीए बाहिरब्भंतरे (र)वत्थुपज्जायाणं इंदियपल्हादकरणसमत्थाणं संपादणविगमेहि जीवस्स जमुप्पणं दुक्खं तं असादवेदणीयफलं । एवंविहदोण्हं कम्माणं फलाणि रागिस्स दोसिस्स होति । कुदो ? परिणामायत्तादो । अप्पमत्तादि-उवरिमगुणट्ठाणजीवाणं तिव्वविसोहिपरिणदाणं चित्तसंतोसमसंतोसं च काउं तेसिं दोण्ह फलाणं सामत्थियाभावादो। कदो? तेस उवजोग जादे झाणाणववत्तीदो तत्थ तेसिमदयाण फलं णिप्फलं जादं । पूणो उदयस्स फलविरोडिजादविसोहि (ही) उदयाणुसारिउदीरणस्स विरोही किण्ण भवे ? भवदि चेव । तदो चेव कारणादो ओकड्डिदपरमाणूणं उदयावलियम्भंतरे पवेसिदं ण दिण्णं । एवं णवणोकसाय-चदुसंलणोदय-उदीरणाणं पुव्वं फलभावो वत्तबो। तेसिमुदीरणा एवं संते तत्थ किं ण पलि (डि)सेहिज्जदि ? ण, तेसिमुदय-उदीरणाण फलाणि सादासादोदएसु उप्पज्जति । तत्थुप्पण्णोदीरणकज्जं ण परिणामाणं विरोहित्तं जादं । पुणो असादस्स उदीरणेण वि सवेदणरत्तक्खयादिदुक्खसरूवेण तिव्व-तिव्वतमादिसंकिलेसाविणाभाविणा आउगस्स कदलीघादो उप्पज्जदि । पुणो असादस्स उदीरणेण सामण्णदुक्खसरूवेण मंद-मंदतमादिसंकिलेसाविणाभाविणा तिव्व (मंद)-मंदतमादिउदीरणा होति । पुणो सादस्स उदीरणाए सुहसरूवाए मंदमंदतमविसोहीए मंद-मंदतमउदीरणाओ होति । पुणो अप्पामत्तादीणं तिव्वविसोहीए तदो चेव कारणादो णिम्मूलउदीरणा गट्ठा । पुणो आहारदंसणेण य तस्सुवजोगेण ओव (म) कोट्ठाए। सादिदरुदीरणाए हवदि दु आहारसण्णा य ।। ४ ॥ [ गो. जी. १३४ ] Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( २१ इदि किमळं उदय-उदीरणाणं एगरूवो(वे) अणुभागे संते उदीरणाए आहारसण्णा होदि त्ति णियमो? उच्चदे- उदयो दुविहो द्विदिक्खयोदय-स्थिउक्कोदयभेदेण । तत्थ थिउक्कोदयफलं सगसरूवेण णत्थि त्ति णिफलं जादं । पुणो ट्ठिदिखयोदयफलं सगसरूवफलत्तादो सफलं । तस्स उदयाणुरूव उदीरणा वि होदि । बिदियमुदयाणुरूवा, तदो दो वि अविणाभावियो इदि एत्थ कटु तस्स पहाणत्तं दिण्णं । (पृ० ५९) पुणो उवघादणामस्स उदीरणा सरीरगहिदपढमसमयप्पहुडि होदि त्ति। कुदो एस णियमो ? ण, अमुत्तस्स जीवस्स अणादिकम्मसंबंधेण मुत्तत्तमुवगयस्स कम्मइयसरीरोदयसंबंधेण पुणो अदीव सुहुमत्तमुवगयस्स तदो चेव बाधावज्जिदस्स पुणो णोकम्मसरीरोदयसंबंधेण बाधासहगदं तस्स सरीरं जादं । तदो तथ उवघादकम्मस्स उदीरणा होदि त्ति सामित्रं दिण्णं । तस्स फलं वत्तावत्तसरूवेण वाद-पइत्त-सेम्हादिबाधाओ? उवचिदावयवपरेहिं घादहेदभूदपोग्गलोवचओ होदि । पुणो परघादणामस्स उदीरणा सरीरपज्जत्तयस्स होदि त्ति । कुदो एस णियमो ? ण, पज्जत्तावयवेहि परघाहेदुभूदपोग्गलोवचयाणं एत्थ दिस्समाणत्तादो । पुणो उस्सासणामस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमयो त्ति उदीरणा । णवरि आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदो संतो सजोगो उदीरेदि इदि । पृ० ५९. एदस्स अत्यो उच्चदे । तं जहा- एत्थ जाव सजोगिकेवसिचरिमसमयो ताउस्सासमुदीरेदि त्ति उत्ते उस्सासणिरोहं करेंतकेवलिचरिमसमओ जाव तावेदस्सुस्सास्सुदीणा जीवपदेसाण परिप्फंदमुस्सासरूवं च करेदि । तत्तो परं ते दोण्णि वि कज्जाणि करेदुमसत्था होदूण तत्थ फल सगरूवेण पदेसणिज्जरं ण करेदि त्ति वत्तव्वं । एवं भासाकम्मुदीरणाफलं पि वत्तव्वं । पुणो केवलिसमुग्धादं करेंतकेंवलिस्स कवाड-पदर-लोगपूरणासु ट्ठिदस्स उदयं णागच्छंतपयडीणमेवं चेव कमो होदि त्ति जाणिय वत्तव्यो । तेसिमंतदीवय त्ति वा घेत्तव्वं । पुणो उस्सासणामस्स उदीरणा आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदमिच्छाइटिप्पहुडि सजोगिकेवलि त्ति । कुदो एसो णियमो ? ण, जीवविवाइसुहपयडिउस्सासस्स उदीरणा जीवपदेसपरिप्फंदस्स कारणं होदूण तत्थ पदेसपरिप्फंदयम्मि तप्पदेसट्ठियकम्म-णोकम्माणं विस्सासपरमाणूणं वत्तावत्तसरूवेण गालणं करेदि त्ति जाणावणठं णियमो कदो। मारणंतियादिकिरियाहि जीवपदेसपरिप्फंदणिबंधणाहि विणा संतट्ठियजीवाणं पदेसारप्फंदो होदि त्ति कथं णव्वदे ? ण, सिया ठिया सिया अट्ठिया सिया ट्ठियाट्ठिया त्ति आरिसादो। पुणो पदेसपरिप्फंदो विस्सासपरमाणणं गालणं करेदि त्ति कुदो णव्वदे ? ण, दंड-कवाड (पदर-)लोगपूरणेसु जादजीवपदेसपरिप्फंदो जहा असंखेज्जगणसेढीए कम्मणिज्जरण हेद जादो तहा एत्थ वि होदि त्ति णव्वदे। कथं वीयराएहि कदकज्जेण सरागेहि कदकज्जस्स समाणत्तं ? ण, विस्सासपरमाणगालणादो कम्मपरमाणगालणाणं समाणत्ताभावादो। कथं वत्तसरूवेण गालणं? उस्सासादिवादसरूवेण खेदमुप्पाइय गलतविस्सासपरमाणूणं पाससरूवेणुवलंभादो। एदं खेदो इदि कुदो णव्वदे ? सुही (हि) देवेसु चिरकालेणुस्सासोवलंभादो कम्म-णोकम्माणं सम्मिस्सिदविस्सासपरमाणूणं फलत्तादो वा। पुणो एवं विहपरिप्फंदो तसकम्मोदीरणाए होदि त्ति चे- ण, तसेसु पदेसपरिप्फंदणियमे संते थावरजीवपदेसपरिप्फंदाभावो पसज्जदे । ण च एवं, तत्थ वि पदेसपरिप्फंदुवलंभादो। तदो तसकम्मोदीरणाए ठाणचलणादि (दी) होदि त्ति घेत्तव्यं । जदि एवं (तो) उस्सासोदएहिं पदेस Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२) परिशिष्ट परिप्फंदणियमे संते उस्सासोदीरणाविरहिदजीवाणं जीवपदेसाणं परिप्फंदो कथं होदि त्ति चेण, पोग्गलविवाइसरीरकम्मोदएण तेणुप्पाइदणोकम्मोदयेण तेहिं समुप्पाइदपज्जत्तणिप्पत्तीए च इदि तिहिं वि कारणेहिं जीवपदेसाणं परिप्फंदेणस्स तत्थ उस्सासोदीरणादिउवरमेसु वि उबलंभादो। तं कथं उवलब्भदि ( त्ति ) चे उच्चदे- विग्गहगहि (इ)म्मि ट्ठिदचोदसजीवसमासाणं कम्मइगसरीरोदीरणा होदि । तीए उदीरणाए सह जेसि जीवसमासाणं उदीरणापाओग्गणामपयडीओ होंति तासिं पयडीणमुदीरणाए सहकारिकारणत्तेणुप्पाइदसग-सगपायोग्गजीवसमासाणं जहण्णपदेसपरिप्फंदो होदि । पुणो तत्थो (त्तो)कमेण जावो[ओ]जावो (ओ) जीवसमासपडिबद्धपयडिउदीरणाओ जाद (दा)ओ तासि तासि पयडीणं जादिविसेसेणुप्पाइदजोगवड्ढिणिबंधणजीवपदेसाणं परिप्फंदेणुत्तरं होदूण चोदसपंतीओ गच्छंति जाव सग-सगजीवसमासाणं रिजुगदीए उप्पण्णाणं जहण्णपदेसपरिप्फंदो होदि त्ति । पुणो वि वड्ढीहि उत्तरं होदूण गच्छंत जाव सगसगपंतीणमुक्कस्सजीवपदेसपरिप्फंदो त्ति । पुणो एदे उववादजोगट्ठाणणिबंधणपदेसपरिप्फंदणाणि । पुणो एदाणमेगपंतीए रचणा अप्पाबहुगाणि च जहा उववादजोगट्ठाणे डत्ताणि तहा वत्तव्वाणि । पुणो चोदसजीवसमासाणं विग्गहगदीए उप्पण्णाणं बिदियसमये सग-सगजासडिबद्धपयडि उदीरणासहकारिकारणत्तणेण सहिदसरीरकम्मुदीरणाए सग-सगजीवपदेसपडिबद्धजहण्णपदेसपरिप्फंदो उप्पज्जंति । णवरि पुबिल्लेहितो बहुगाओ होति । पुणो तत्तो वड्ढी हिं उत्तरा होदूण गच्छंति जाव रिजुगदीए उप्पण्णाणं बिदियसमए सरीरकम्म-णोकम्मुदीरणाहिं सहकारिपयडि उदीरणावेक्खाहिं उप्पाइदजहण्णपदेसपरिप्फंदो त्ति । एवं एत्तो उवरी वि वड्ढीहिं वड्ढाविय णेदव्वा जाव चोद्दसपंतीणं सग-सगुक्कस्सपदेसपरिप्फंदो त्ति । एदे एयंताणुवड्ढि जोगट्ठाणणिबंधणा, एदाणं पुण रचणादी च अप्पाबहुगाणि च एयंताणुवड्ढिजोगट्ठाणेसु उत्तकमेण वत्तव्वाणि । पुणो सत्ता जीवसमासेसु सग-सगाउगबंधपरिणामेणुप्पाइदसग-सगजीवसमासपडिबद्ध - पयडिअणुभागवड्ढि उदीरणेहिं पुणो सत्त-पज्जत्तजोवसमासाणं आहारपज्जत्तीए पज्जत्तयदम्मि पुव्वं व सग-सगजादीए पडिबद्धपयडीणं उदीरणाए पज्जत्तणिवत्तीए उप्पाइद-सग-सगजाईए जहण्णपदेसपरिप्फंदं होदि। पुणो तत्तो पुव्वं व चोद्दसपंतीयो वड्डि उत्तरं कादूण णेदव्वं जाव सग-सगपंतीए उक्कस्सपदेसपरिप्फंदो त्ति । णवरि सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणापाणपज्जत्तीए भासापज्जत्तीए मणपज्जत्तीए पज्जत्तयदट्ठाणेसु पुह पुह पदेसपरिप्फंदो बहुगो होदि त्ति गेहिण (गेण्हि) दव्वं । पुणो आउगबंधपरिणामेणुप्पाइदसत्त-अपज्जत्तजीवसमासपदेसपरिप्फंदप्पहुडि उक्कस्सपदेसपरिप्फंदो त्ति एदाणि परिणामजोगट्ठाणा (ण) णिबंधणाणि । एदाणं रचणाणं अप्पाबहुगाणं सरूवपरिणामजोगट्ठाणाणं वत्तव्वं । पुणो उत्तसव्वपदेसपरिफंदाणं रचणाणं अप्पाबहुगं सव्वजोगट्ठाणेसु उत्तकमेण वत्तव्वं ।। पुणो एवमुप्पण्णपदेसपरिप्फंदेणुप्पाइदजीवपदेसाणं कम्मादाणसत्ती जोगं णाम । ण च एस सत्ती कम्माणं खओवसमेण खएण वा जादा, किंतु कम्माणमुदएणुप्पण्णा। तदो चेव कारणादो कम्मादाणसत्ती जादा । तेसिं सत्तीणं उववादेयंताणुवड्ढि-परिणामजोगट्टाणणामधेयमिदि गुणाणुसारिणामाणि जादाणि । पुणो उस्सास-भासापज्जत्ती हि पज्जत्तयदम्मि कमेण उस्सास-भासकम्मदएण पुणो मणपज्जत्तीए मणपज्जत्तयदे च जीवपदेसाणं बहुगो परिफंदो होदि त्ति कथं णव्वदे ? जोगणिरोधकेवलिम्मि मण-वचिजोगाणं च उस्सास-कायजोगाणं च बहुगादो अप्पप्पकमेण गदाण णिरोधण्णहाणुववत्तीदो णव्वदे। तोक्खइ पंचिंदियादि तत्थ संभवंतपयडीणं Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( २३ पदेसपरिप्फंदणिबंधणाणं तेसिं णिरोधो किण्ण कीरदे ? ण, परिप्फंदस्स उपादाणकारणसरीरोदयादो तेसिमुदीरणाणं पुवं विणासाभावादो। सरीरोदए णठे तेसि परिप्फंदसहकारिकारणाणं तेसिमुदीरणेहितो परिप्फंदुप्पायणसत्तीए अभावादो। ( पृ० ६० ) पुणो जसकित्तीए बादरेइंदियपज्जत्तप्पहुडि जाव' असंजदसम्मादिट्ठि त्ति सिया उदीरया, उवरि सजोगिकेवलि त्ति णियमा उदीरया । णवरि अजसकित्तिवेदयमाणमिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो संजमासंजमं संजमं च पडिवण्णे णिय मा जासकित्ति वेदयंति त्ति। किमट्ठ मेस गियमो कदो ? उच्चदे- जसस्स कित्तणं जसकित्तणं । तं च जसं दुविहं व (वा)वहारियं पारमत्यियं चेदि। तत्थ वावहारियं जसं धम्म दाणं सच्चं सौचं (सउचं) उदारं अभिमाणं णिब्भयंता(यत्ता) दिगुणाणि सम (म्म)त्तरहिहाणि अविसिट्ठलोयजणपूजणिज्जाणि जदा तदा होदि । पुणो ते चेव गुणाणि सम्मत्तहिदाणि होदूण जदा विसट्ठिजणपूजणीयं संजमासंजम-जमाण आविब्भावं करेंति तदा पारमत्थियं जसं होदि । तदो तत्थ णियम, सेसेसु भयणिज्जत्तं भणिदं । ( पृ० ६० ) पुणो सुभगादेज्जपयडीणं सण्णिपंचिदिय-गब्भजमिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति सिया उदीरया, उवरि सजोगिकेवलि त्ति णियमा उदीरया। देवा देवी (ओ) च णियमा उदीरया इदि । कुदो णियमो ? ण, सम्मुच्छिमेसु णपुंसकवेदेसु सुभगादेज्जाणं संभवाभावादो। जदि संभवाभावो तो सम्मुच्छिमतिरिक्खेसु कथं संजमासंजमाणं उवलंभो ? ण, संजमासंजमगुण णिबंधणसुभगादेज्जाणमुवलंभादो। पुणो गब्भोवक्कंतियत्थी-पुरिसवेदेसु असंजदेसु सिया उदीरणा। णवरि दूभगणादेज्जवेदयाणं मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं पुव्वं व संजमासंजमं संजमं च पडिवण्णेसु तेसिं उदीरणाणं णियमुवलंभादो । पुणो दुस्सर-सुस्सराणं भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदाणं बीइंदिय-सण्णिपंचिदियमिच्छाइट्रिप्पहडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताउदीरगो होदि त्ति कुदो णव्वदे? ण, जीवविहाइसुहासुहसरकम्मोदएण भातापज्जत्तिणिप्पत्तिसहाएण जीवपदेसाणं महापरिप्फंदं कुणदि । तेण परिप्फंदेण भासावग्गणसरूवस्स विस्सासपरमाणूणं कहिं पि कहिं पि काले मण-वचि-कायजोगेसु अण्णदरजोगपरिणदो होदूण भासाउप्पत्तीए वचिजोगपरिणमणवेलाए गहिदूणद्वारसदेसभास-सत्तदस(सद) कुभाससरूवेण परिणमाविय तक्खणे गालणं कुव्वं ति त्ति णियमो कदो। तदो चेव तप्पहडि वचिजोगणिबंधणजोगपरिप्फंदो वि पाओग्गो होदि त्ति सिद्धं । पुणो मणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स मणपज्जत्तिसरूवेण णिप्पण्णणोकम्मोदएहि जीवपदेसपरिप्फंदं महदमुप्पज्जदि । तदो चेव एत्थुद्देसे सव्वुक्कस्सपरिणामजोगसंभवो होदि । तदो एत्तो प्पहुडि तिण्णि वि जोगणं संभवो होदि तहा उवजोगं च । पुणो एगजीवकालाणियोगद्दारपरूवणा सुगमा । णवरि णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धोणं उदीरणकालो जहण्णण एगसमयो। कुदो ? अदुवोदयत्तादो। पृ० ६१. इदि कारणं भणिदं । अदुवोदयं णाम किं? कारणणिरवेक्खेण उदीरणकालस्स अवट्ठाणं एगसमयादिअंतोमुहुत्तमेत्तुवलंभादो। अहवा, कारणसहाय (या)वेक्खाए एदेसिमुदीरणकालो जहणेण एगसमयो होदि । तं कथं ? एदाणमुदीरगजीवो पुण एदेसिमुदीरमो होदूण एगसमयं Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४) परिशिष्ट दिळं, बिदियसमए मुदस्स अपज्जत्तकाले वि णटुंदीरणत्तादो। एवं बिसमय-तिसमयादिअंतोमुत्तकालावट्ठाणं सकारणावेक्खाए वि वत्तव्वं । एवं संते मिच्छत्त-णउंसयवेद-इत्थिवेदादि केसि पि पयडीणं अंतोमुत्तमेगसमयादि (समयमादि)कादूण (जाव) सग-सगुक्कस्सकालो त्ति उदीरणाणुवलंभादो एदेसिमडुवोदयत्तं पावदे ? ण, एगसमयादिअंतोमुत्तमेत्तकालावट्ठाणस्सेव अर्धवोदयविवक्खादो। पुणो सादस्स उदीरणकालो जहण्णण एगसमयो। पृ० ६२. कथं ? मरणेण गुणपरावत्तणेण कारणणिरवेक्ख वोदएण च इदि तिविहपयारेणेगसमयं लब्भदि । तं कथं ? सादस्स अणुदीरगो संतो पुणो उदीरयबिदियसमए णिरयगदि गदो, असादुदीरगो जादो। एदं कारणावेक्खाए एगसमयो जादो। अहवा, पमत्तादिहेट्ठिमगुणट्ठाणट्ठियो असादुदीरगो सादमुदीरिय बिदियसमए अप्पमत्तो जादो, जादे णट्ठ (ट्ठा) उदीरणा त्ति एगसमयो जादो गुणपरावत्तीयो। अहवा, गदि पडुच्च सादस्सुदीरणमधुवोदयत्तादो एगसमयं वत्तब्वं । तं कथं ? उच्चदे- सादस्सुदीरणंतरं गदि पडुच्च भण्णमाणे दुविहमुवदेसं होदि । तत्थेक्कुवदेसेण मणुसगदीए सादस्सुदी रणंतरं एगसमयमिदि गंथे परूविदत्तादो अंतरभूदेगसमयं सादुदीरणकालो होदि त्ति णव्वदे । अण्णेक्कुवदेसेण णिरय-तिरिय-मणुसगदीए एगसमयं वत्तव्वं । तत्थ असादस्सेगसमययंतरपरूवणादो सादस्सुदीरणं एगसमयं होदि, तत्थेदस्स अर्धवोदयत्तादो। एदेसि दोण्हमुवदेसेसु कधमविसिट्ठमिदि चे- णेवं जाणिज्जदे, तं सुदकेवली जाणिज्जदि। किंतु पढमंतरपरूवणाए बिदियंतरपरूवणं अत्थविवरणमिदि मम मइणा पडिभासदि। उक्कस्सेण छम्मासं। पृ० ६२. कुदो सादस्सुदीरणकालस्सुक्कस्सेण छम्मासणियमो? उच्चदे- इंदियसुहावेक्खाए संसारिजीवेसु सुही देवा चेव, तत्थ वि सदर-सहस्सारदेवा चेव अदीव सुही होति । कुदो ? तत्तो उवरिमकप्पट्ठियदेवाणं सुक्कलेस्सियाणं वीयरायसुहाणुरत्ताणं सादोदएण जाददव्विसुहाभावादो, पुणो हेट्ठिमकप्पट्ठियदेवाणं तारिसपुण्णाभावादो। तदो तत्थ सदर-सहस्सार इंदा चेव सुही होति । तदो इंदाणं पुण्णम (मा)हप्पेण जाददाण-लाभ-भोगोवभोग-बीरियंतरायकम्माणं खओवसमिय (समा)सविदियाणं पल्हादकरणसमत्थाणं दव्वपज्जायाणं संपादणं करेंति । कथं जीवविवाइकम्माणि बाहिरवत्थुसंपादणं करेंति ? ण कम्मोदएण एदाओ जादाओ, किंतु तेसिं खओवसमेण जादाओ होति । पुणो तत्थ दव्वं दुविहं सचित्तमचित्तमिदि । तत्थ सचित्तसंपादिददव्वमवट्ठाणं होदि कथं ? पदि (डि) द-समाणिग-तेत्तीससंखातायतीस-लोगपाल-पारिसदेव-अंगरक्ख-सत्ताणीगकिब्भिस-पदाति-अट्ठमहादेवी-सेससव्वदेवी-सेससव्वदेवसमूहं तित्थयरसंतकम्मियत्तादो सगकप्पादो तत्तो हेट्रिम-उवरिमदेवाणं पूजाणिमित्तमागदाणमिदि। पूणो अचेदणाणमेगं, विगवणादिपज्जायाण एगं, एवं सव्वाणि सट्रिसंखाणि होति । एदाणि एगेगसमयोवसमयपडिबद्धाणि उप्पादिदाणि होति । तं कथं ? एदेसि संतोस-दाणादीणं उवलंभादो एदेसि आगमणलाभादो पुणो एदेसि पासे केइ केइं पयारएण एगवारेण संतोसमप्पाइज्जमाणत्तादो एदेसि पासे जेसिं जेसि पयारे उप्पण्णसंतोसं पुण्णो पुणोतेसिंतेसि पयारेहिं उप्पज्जमाणत्तादो दाणादिसत्तीणं उवलंभादो च । पुणो एदाणि पंचविहखओवसमेण गुणिदाणि तिण्णिसयाणि होति । एदाणि एक्केक्किदियाणं पल्हादयंति Jain Education international Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( २५ त्ति छहि इंदिएहि गुणिदे अट्ठारससयं होदि । ताणि मण वचि कायाणं पुह पुह संतोसं कति तितिगुणिदे चउवण्णसयं दोदि । पुणो एदाणि णाण दंसणोवजोगेण वि लब्भंति त्ति ताणं परावत्तणसंखेज्जवारं अणुसंघाणं होदित्ति संखेज्जरूवेहि गुणिदव्वाणि । पुणो एदाणमेक्के - क्काणं कालो मुहुत्तस्स असंखेज्जदिभागो होदि त्ति तेहिं गुणिदे तेसि सव्वकालसमूहो होदि । पुणो ताणि मुहुत्ते कदे चउवण्णसयमुहुत्ताणि होदि । ताणि णवसएहिं भागे हिदे छम्मासाणि तित्तिनियमो दो। एत्तो उवरिमेदेसि संघाणं ण लब्भदित्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव आरिसवयणादो । एदं परूवणमुदाहरणमेत्तं छम्माससाधणट्ठे परूविदं । तदो एवं चेव होदित्तिणाग्गहो कायव्वो । अहवा, सट्टसंखं एवं वत्तव्वं । तं जहा -- सदर सहस्सारइंदो होदून उप्पण्णस्स सादोदयनियमो अपज्जत्तद्धमंतोमुहुत्तेण समाणिय १ अवधिणाणेण अंतोमुहुत्तकालं परिणा (ण) - मिय २ तत्थ पुट्ठिय देवेहिं पुण्णपहकहणेण अंतोमुहुत्तं गमिय ३ एवं अभिसेयकरणेण ४ जिणाहिसे करणेण ५ पसाहणगहणेण ६ तस्स पट्टबंधकरणेण ७ तम्मि ओलग्गंत दिपदि (डिं) दस्स संतोसकरणेण ८ एवं सामाणियस्स ९ तायत्तीसदेवाणं पुह पुह पीदिमुप्पायंतेण ४२ एवं लोगपाल ४३ पारिसदेव ४४ अंगरक्ख ४५ आभियोग ४६ किब्भिस ४७ पदाति ४८ अट्ठमहादेवपमुहदेवी ५६ तित्थयरसंतकम्ममाहप्पेणाकडिदसगकप्पादो हेट्ठिम उवरिमकप्पदेवाणं पूजाकरण मागदाणं ५७ आभरणसहिदसगदेहाणं ५८ अच्चित्तदव्वाणं ५९ विउब्वणादिपज्जा - याणं च ६० इदि सट्ठिसंखाणि उप्पज्जंति । एत्तो उवरिमकिरियं पुव्वं व वत्तव्वं । एवमण्णेहि विपयारेहि जाणवत्तव्त्रं । एवं हस्स - रदीणं पिवत्तव्वं । पुणो असादस्सुदीरणाए जहण्णकालो एगसमयो । पृ० ६२. कथं ? मरणेण गुणपरावत्तणेण कारणणिरवेक्खाणमध्दुवोदएण इदि तिविपयारेण लब्भदि । तं कथं ? असादस्स वेदगो तिरिक्ख मणुस्सो होढूण बिदियसमए देवलोगं गदस्स होदि, तत्थ सादावेदणीयोदयणियमादो | अहवा, असादस्स वेदगो मणुस्सो वेदगो होदूण बिदियसमए अप्पमत्तगुणं गदो । तत्थ उदीरणाणवृत्तादो होदि । अहवा, देवगदीए असादमध्दुवोदयत्तादो एगसमयं वत्तत्व्वं । तं कथं ? गदिं पडुच्च अंतरपरूवणाए परुविदत्तादो । पुणो असादस्सुक्कस्सुढीरणाए कालो तेत्तीसं सागरोवमं साधि (दि) रेयं होदि । कुदो ? पाविट्ठ जीवाणं अंतरायियकम्मोदएण इंदियदुक्खुप्पादयदव्वपज्जायाणं संपादणाणुवसंधाणकालस्स तेत्तियमेत्तपमाणाणमुवलंभादो । ( पृ० ६२ ) तबंधक-माण- माया लोहाणं उदीरणकालो जहणणेण एगसमयो । कुदो ? एसि वेदगो वेदगो होदूण बिदियसमये सम्मामिच्छत्तं सम्मत्तं संजमासंजम संजमं च पडिवणे ठुदीरणत्तादो। एवमपच्चक्खाणाणं च वत्तव्वं । णवरि संजमासंजमं संजमं च पडिवज्जावेयव्वं । एवं पच्चक्खाणाणं च । णरि संजमं पडिवज्जावेयव्वं । अहवा मरणेण वि वाघादेण वि संभव जाणिवत्तां । पुणो संजलणाणं एगसमयं मरणेण वि वाघादेण वि संभवं जाणिय वत्तां । पुणो णीचा गोदस्मुदीरणकालो जहण्णेण एगसमयो । पृ० ६७. कुदो? णीचागोवेदगो अपच्चक्खाणं पच्चक्खाणं च पडिवण्णे उत्तरसरीरं विउब्विदे च Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ) परिशिष्ट उच्चागोदस्स उदीरणं होदि । पुणो ते कमेण सासणगुणं पडिवण्णे व (वा) मलसरीरं पविठे व (वा) एगसमयं दिळें । बिदियसमए कालं कादूण पडिवक्खोदये उप्पण्णस्स होदि । पुणो उच्चागोदस्स उदीरणकालो जहण्णण एगसमयो । पृ० ६७. कथं ? पुवमवेदगो उत्तरसरीरं विगुव्विदे उच्चागोदवेदगो जादो। जादबिदियसमए मूलसरीरं पविट्ठस्स वा मुदस्स वा होदि । (पृ० ६८) पुणो अंतराणुगमो सुगमो। णवरि सादस्सुदीरणंतरं गदि पडुच्च जहण्णुक्कस्सं अंतोमुहुत्तमिदि भणिदं। एदमंगाभिप्पायं अण्णेकाभिप्पायेण णिरय-तिरिक्ख-मणुसगदीए जहण्णुक्कस्समंतोमुहुत्तं देवगदीए जहण्णमेगसमयं उक्कस्समंतोमुहुत्तं । पुणो असादस्संतरं गर्दि पडुच्च भण्णमाणे मणुसगदीए जहण्णमेगसमयं, अदुवोदयत्तादो। उक्कस्समतोमुहुत्तं । . . . . . . . . . . (पृ० ६८ ) एण णिरय-तिरिक्ख-मणुसगदीएसु च जहण्णेणेगसमयो, उक्कस्सेणंतोमुहुत्तो। देवगदीए जहण्णुक्कस्समंतोमुहुत्तं । कुदो ? सदर-सहस्सारेस्सु (सु)प्पण्णस्स इंदस्स पढमसमयप्पहुडि सादस्सुदीरणकालस्स छम्मासणियमादो। अण्णहा उक्कस्संतरं छम्मासं होदि । एदाणं दोण्हमभिप्पायाणं पुव्वं व कारणं वत्तव्वं । पुणो भय-दुगुंछाणं अंतरं जहणेणेगसमयमुक्कस्सेणंतोमुहत्तं । कथमेग ( समओ ? चरिम ) समयणियट्टिभयवेदगो से काले उवसामयअणियट्टिगुणं पविट्ठो अवेदगो जादो। तदो से काले वेदगो देवो जादो होदि त्ति गंथे भणिदं । एदेण जाणज्जदि एदमधुवोदयं ण होदि त्ति । पृ० ६९. (पृ० ७० ) पुणो छस्संठाणाणं एगसमयमंतरं विग्गहे वा विउव्वणाए वा जाणिय वत्तव्वं । ( पृ० ७१ ) पुणो पत्तेग-साधारणाणं एगसमयियं विग्गहे चेव वत्तव्यं । दूभगाणादेज्ज-अजसगित्तिणीचागोदाणमेगसमयं विगुव्वणाए वत्तव्वं । पुणो सुभगादेज्ज-जसगित्ति-उच्चागोदाणं विगुव्वणाए वा एदेसि पडिवक्खोदयसंजदो जीवो संजमासंजमं पडिवज्जिय पुणो सासणगुणे पडिवण्णे वा बिदियसमए कालं काढूण एदेसि उदएसु उप्पण्णे एगसमयो होदि । ( पृ० ७२-७३ ) पुणो णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो सुगमो। णवरि चउण्हमाउगाणं उदीरयाणमणुदीरयाण णियमा अत्थि। तं कुदो इदि उत्ते उच्चदे . आउगं दुप्पयारं परभवियबद्धाउगं भुंजमाणाउगं चेदि । तत्थ भुंजमाणआउगं दुविहं उदीरिज्जमाणमणुदीरिज्जमाणमिदि। तत्थ उदीरिज्जमाणबद्धपरभवियाउगाणं चउण्हं पि पुणो मणुस्स-तिरिक्खाउगाणं अणुदीरिज्जमाणाणं च संतकम्मेण णियमेण अत्थि त्ति णियमो कदो। देव-णेरइयाउगाणं अणुदीरिज्जमाणं (माणाणं) भयणिज्जत्तमत्थि । तमप्पहाणं । तो वि ताणि विवक्खिज्जमाणे तिण्णि भंगा वत्तब्वा, तहा कहिं वि पुत्थए दिद्वत्तादो। पुणो णाणाजीवकालाणुगमो सुगमो। णवरि सम्मामिच्छत्तुदीरणेसु णाणाजीवाणं जहण्णकालो थोवो त्ति उत्ते तमंतोमुहुत्तमिदि घेत्तव्वं ।२७। तस्सेउ[व]क्कस्सदव्वमसंखेज्जगुणो त्ति - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( २७ उत्ते पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तस्स उवसमसम्मादिट्ठि उक्कस्सरासिपमाणस्स असंखेज्जदिभागपमाणमिदि घेत्तव्वं ।तं चेदं प ।। एदाणि दो वि वयणाइं सुगमाणि । पुणो णाणाजीवउक्कस्सकालो असंखेज्जगुणो।। २७२२ । इदि कथमेदं परिच्छिज्जदे ? ण, वेदगसम्मत्तपाओग्गमिच्छाइट्ठीदो वा वेदगसम्माइट्ठीदो वा कदाचि उवसमसम्मादिट्ठीणं संभवे संते तेसिं उवसमसम्मादिट्ठीदो वा सम्मामिच्छत्तगहणद्धमंतोमुत्तमंतरिय एगादिए गुत्तरकमेण जीवा णिस्सरंति जाव सम्मामिच्छत्तुक्कस्सदव्वं सगुवक्कमणकालेण खंडिदेयखंडमेतपमाणं तिसु वि पंतीसु पत्तो त्ति । णवरि एगसमयादिअंतोमुत्तमेत्तरं पि संभवदि । किंतु एत्थतणुक्कस्संतरं गहिदं । पुणो एगसमयादुक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालस्स संभवे संते एत्थतणुक्कस्सुवक्क्रमणकालवियप्पं पडिगहिदं। पूणो ताणि परावत्तणसरूवेण णिस्सरिदण सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जति । पूणो एगादिएगत्तरवडिढकमेण सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णवाराणि वि तेत्तियाणि चेव होति । तदो एदाणि वाराणि तेरासिएण अंतोमहत्तण गणिदे णाणाजीव उक्कस्सकालं सगजीवदव्वपमाणादो असंखेज्जगुणमेत्तपमाणं होदि त्ति संदेहाभावादो। तं चेदं |प २७ । २७२२२ पुणो णाणाजीवउक्कस्संतर असंखेज्जगुणमिदि। कुदो ? वेदगसम्मत्तपाओग्गमिच्छाइट्ठिरासीदो एगादिएगुत्तरकमेण ण वेदगसम्मत्तरासिं सगुवक्कमणकाले ण खंडिदेयखंडमेत्तजीवा णिस्सरिदूण वेदगसम्मत्तं पडिवज्जति । पुणो आयाणुसारी वयो होदि त्ति णायादो सम्मत्तादो तेत्तियमेत्ताणि णिस्सरिदूण मिच्छत्तं पडिवज्जति। णवरि दो वि पंतीओ एगादेगुत्तरकमेण जाव सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणरासिपमाणं ताव पत्ता ति । एदाणि कमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त (?) पुणो मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं साधरणाणि होति । पुणो एत्थतणसम्मत्त-मिच्छत्तपाओग्गजीवाणि सम्मामिच्छत्तगहणपाओग्गजीवसंखादो उवरिमसंखहि णिस्सरिदूण विदजीवेहिं सह परावत्तणसरूवेहि ण बहुवारं पल्लट्ठिय सम्मत्त-मिच्छत्तपडिवज्जणवारकालाणि ताणि होति त्ति । तदो पडिवज्जणवारं तेरासिएण अंतोमुहुतेण गुणिदे सम्मामिच्छत्तविरहिदवेदगसम्मत्त-मिच्छत्ताणं कालाणि होति । तदो ताणि तस्संतरपमाणं होति । पुणो पुव्वुत्तकालादो एदमसंखेज्जगुणपमाणत्तादो | प २७ ।। | २३३ ( पृ० ७४ ) पुणो अंतराणुगमो सुगमो। सण्णिकासाणुगमो वि सुममो। णवरि सत्थाणसण्णिकासेसु वण्ण-गंध-रसफासाणं सगभेदेसु अण्णदरमुदीरेंतो सेसाणं सिया उदीरयो बिरोहाभावाद्दो, इदि गंथे भणिदं । ( पृ० ७९) एदेण अण्णदरउदीरणे संते सेसाणं उदीरणं पडिसेहापडिसेहाभावेण किमळं जाणाविदं? उच्चदे- वण्ण-गंध-रस-फासणामकम्माणि स (सा) मण्णावेक्खाए धुवोदयाणि । पुणो तेसिं विसेसावेक्खाए वण्ण-गंध-रसकम्मेसु पुह पुह सग-सगभेदेसु एगेगं पि उदीरिज्जदि, पुणो सगसगसेसपयडीणं एगादिसंजोगेण वि उदीरिज्जति । एवमुदीरणसव्ववियप्पाणिकमेण एक्कत्तीसाणि तिणि एक्कत्तीसाणि होति त्ति जाणविदं । पुणो वि फासस्स चत्तारि जुगलाणि होति त्ति तत्थ एगेगजुगलस्स पुह पुह जोइज्जमाणे एगेगपयडीणं वा दोपयडीणं वा संजोगेहि Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८) परिशिष्ट उदीरेंति त्ति तिणि उदीरणभंगाणि होति त्ति । अहवा चत्तारिजगलाणं संजोगेण सोलसाणि उदीरणभंगाणि होति त्ति वा जाणाविदं । ण केवलमेदं वयणमेत्तं चेव, किंतु सुहुमदिट्ठीए जोइज्जमाणे एग-दु-तिसंजोगादिपयडीणमुदीरणाणं एग-दु-ति-चउ-पंचिदियजादीसु दिस्सदि, जहा देवाणं तित्थयरकुमाराणं च सुरभिगंधो णेरइएसु दुरभिगंधो आगमभेदेण दिस्सदि । __णेदं सण्णिकासं घडदे । कुदो ? अणुभागुदीरणाए एगजीवकालाणुगमेण सह विरुद्धत्तादो। तं कथं ? पसत्थवण्ण-गंध-रसाणं णिध्दण्णाणमुक्कस्साणुभागाणं उदीरणकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमयो । कुदो ? सजोगिचरिमसमए उक्कस्साणुभागउदीरणं जादं । तदो अणुवकस्साणुभागस्स उदीरणकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो इदि उत्तं । पुणो मउग-लहुगाणमुक्कस्साणुभागुदीरणकालो केवचिरं? जहण्णेणेगसमयमुक्कस्सेण बेसमयमिदि उत्तं। तं कुदो? आहाररिद्धीए जादत्तादो। अणुक्कस्साणुभागस्सुदीरणकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादि-सपज्जवसिदो इदि परूविदं । पुणो काल-पील-तित्त-कडुग-दुग्गधसीदुल्लु- (दल्हु) क्खाणं जहण्णाणुभागस्सुदीरणकालो जहण्णुक्कस्सेणेगसमयो । कुदो ? सजोगिचरिमसमये जहण्णाणुभागुदीरणं जादत्तादो। अजहण्णाणुभागुदीरणकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो च । पुणो कक्खड-गरुवाणं जहण्णाणुभागुदीरणकालो जहण्णुक्कस्सेणेगस(म) यो। कुदो ? मत्थे (मंथे) जहण्णुदीरणं जादत्तादो । अजहण्णाणुभागुदीरणकालो अण्णादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो इदि परूविदं । पुणो एदेहि वयणेहिं वण्ण-गंध-रस-फासाणं सग-सगभेदेसु अण्णदरस्स एगमुदीरिज्जमाणे सेसाणि णियमेणुप्पज्जति त्ति सिद्धं । तदो एदेसि धुवोदएण होदव्वमिदि सिद्धं । विरुद्धं चेव तोक्खहि । कथं विरुद्धाणं दोण्हं परूवणा करिदे ? ण, भिण्णाभिप्पायत्तादो। तं कथं ? पंचसरीराणमकम्माणि पोग्गलविवाई चेव । तदो सग-सगोदयएण णोकम्मपरमाणूणं सविस्सासोवचयाणं च आगमणं करेंति । पुणो विस्सासोवचयसहगदणोकम्मपरमाणूणं बंधण-संघादगुणे पोग्गलविवाई (इ) बंधण-संघादणामकम्माणि करेंति । विस्सासोवचयाणि वि करेंति त्ति कुदो णव्वदे ? तेसि बांधण-संघादगुणाणमगहाणुववत्तीदो। पुणो ओरालियसरीरविस्सासोवचयणोकम्मपरमाणूणं चेव संठाणंगोवगं-संघडणाणं जादिवसेणाणेयभेदभिण्णणिबंधणाणं पोग्गलविवाइसंठाणंगोवंग-संघडणणामकम्माणि णिप्पज्जणवावारं करेंति । पुणो वेउव्वियआहारसरीरणोकम्मपरमाणणं सविस्सासोवचयाणं संठाणंगोवंगणामकम्माणि पुव्वं व जोग्गसंठाणंगोवंगाणं वावारं करेंति। पुणो तेजा-कम्मइयाग णोकम्मपरमाणणं सविस्सासोवचयाणं संठाणादिसरूवुप्पायणवावारमेदाणि ण करेंति । पुणो पोग्गलविवाइवण्ण-गंध-रस-फासकम्माणि ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीरणोकम्मपरमाणणं सविस्ससोवचयाणं जादिपडिबद्धाणं वण्ण-गंध-रस-फासाणं पुव्वुत्तकमेणुप्पायणं करेंति । पुणो तेजाकम्मइयसरीरणोकम्मपरमाणूणं सविस्ससोवचयाणं जहासंभवेण पंचवण्ण-दोगंध-पंचरस-अट्टफासाणं णिप्पत्तीए सव्वकालं करेंति । कुदो एवं णव्वदे ? विग्गहे वि तदुदयाणं अत्थित्तदसणादो । तम्हा ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीरणोकम्मपरमाणूणं सविस्ससोवचयाणं वप्णगंध-रस-फाससरूवफलाणि कम्मेणुप्पाइदाणि । जोयियसण्णि कासपरूवणा कदा, पुणो तेजाकम्मइयसरीरणोकम्मपरमाणूणं सविस्ससोवचयाणं वण्ण-गंध-रस-फासफलदायिकम्मावेक्खाए कालाणुयोगद्दारो परूविदो। तदो ण दोसो त्ति सिद्धं । तदो अभिप्पायंतरमिदि वत्तव्वं । कथं विग्गहावत्थाए कम्मयियसरीरणोकम्मपरमाणूणं सविस्ससोवचयाणं पंचवण्ण Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( २९ संजुत्ताणं धवलत्तं ? ण, कम्माणं विस्ससोवचएणवगाहिदाणं धवलत्तुवलंभादो। कथं सरीरगहिदपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तमेत्तमपज्जत्तकाले सरीरस्स कवोदवण्णणियमो? ण, तेजाकम्मइयसरीरणोकम्मपरमाणूणं सविस्ससोवचयाणं संजुत्तकम्मपरमाणूणं सविस्सासोवचएण सहिदसेससरीरणोकम्मपरमाणूणं सविस्सासोवचयेण संपुण्णत्ताभावादो। संपुण्णत्ते जादे सगसगोदयसरूवं उप्पायं (एं) ति त्ति । ( पृ० ८० ) पुणो अप्पाबहुगाणुगमो सुगमो । णवरि स्थीणगिद्धीए उदीरया थोवा। णिहाणिद्दाए उदीरया संखेज्जगुणा । पयलापयलाए उदीरया संखेज्जगुणा। णिद्दाए उदीरया संखेज्जगुणा । पयलाए उदीरया संखेज्जगुणा । सेसेचउण्हं पि दंसणावरणीयाणं उदीरया सरिसा संखेज्जगुणा त्ति भणिदे एत्थ संखेज्जगुणस्स कारणं उदीरणद्धाविसेसेणाणुगंतव्वं । (पृ० ८०) तं पि कथं ? उच्चदे- थीणगिद्धीए उदीरणं दंसणोवजोगं पच्छादिय किं व (?) कसाओ व्व विवरीदणाणुप्पायणा करेदि, तदो सिथिलफलत्तादो तस्स उदीरणत्थो (द्धो) थोवा जादो । पुणो णिद्दाणिद्दाए तिव्वाणुभागादएण दसणोवजोगं पच्छादिय अट्ठ (व)त्ततमं णाणोवजोगं करेदि त्ति तदद्धा संखेज्जगुणा जादा । पुणो पयलापयलाए णिहाणि हाणुभागादो मंदाणुभागाए दंसणं पच्छादिय अव्वत्ततरं णाणोवजोगं करेदि त्ति तदद्धा संखेज्जगणा जादा । पूणो णिहाए पूव्विल्लादो मंदाणभागाए दसणस्स अंसं ण णासंतो दंसणं पच्छादयदि ि संखेज्जगुणा जादा । पुणो तत्तो पयलाए मंदाणुभागाए दंसणस्स अंसं ण णासंतो तत्तो त्थोवयरं पच्छादयदि त्ति तदद्धा संखेज्जगुणा जादा । पुणो सेसं चदुण्हं पि दंसणाणं ( दंसणावरणीयाणं ) उदीरणद्धा दोण्हमुवजोगाणं परावत्तणसरूवेण . . . . . . . . . दमिदि संखेज्जगुणं जादं । ( पृ० ८१) पुणो एत्तो ढाणपरूवणदाए सव्वो पवंचो सुगमो । (पृ० ८८ ) णवरि णामकम्मस्स द्वाणपरूवणदाए एइंदियस्स आदाउज्जोवोदयविरहिदुदयट्ठाणाणि एक्कवीसच उव्वीस-पंचवीस-छब्बीसटाणाणि होति । आदाउज्जोवोदयसहिदाणमेक्कवीस-चउव्वीस छव्वीस-सत्तावीसट्ठाणाणि होति । एदेसि पयडीणं परूवणा . . . सि कमेणुदीरणभंगाणि एत्तियाणि-। ५ । ९ । ५ । ५ । २ । २ ४ । ४ ।। पुणो विउठवणमुट्ठाविय एइंदिएसु विगुव्वणप्पयमोरालियसरीरं चेवे त्ति एदेहितो पुधभूदट्ठाणाणि णत्थि त्ति एत्तियाणं चेव परूवणा कदा । पुणो एयजीवकालाणुगमेण वेउब्वियसरी रस्स एइं दिएसु वि उदीरणासामित्तं दिण्णं । तदो एइंदिएसु अण्णाणि टाणाणि संभवंति त्ति णव्वदे । तं कथं ? वेउव्वियमुट्ठाविदएइंदिएसु पुबिल्लच उव्वीस-पंचवीस-च्छव्वीसुदीरणट्ठाणेसु पुणो चउवीस-छव्वीस-सत्तावीसुदीरणट्ठाणेसु च ओरालियमवणिय वेउव्वियसरीरं पक्खिविय ह्याणपरूवणा पयडियदेण वत्तव्वा। णवरि आदाव-सुहुम-पज्जत्त-साधारण-जसकित्तिणामाणि एत्थ णत्थि त्ति वत्तव्वं । तदो चेव कारणादो कमेण भंगाणि एत्तियाणि । १ । १ । १ । १ । १ । १ ।। (पृ० ९२ ) पुणो पंचिदियतिरिक्खाणं एक्कवीस-छव्वीस अट्ठावीस-एगूणतीस-तीस-एक्कत्तीसपयडि Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ) परिशिष्ट उदीरणट्ठाणाणं उज्जोवस्सणुदय-उदयसरूवेण पडिपरूवणा गंथसिद्धा चेव । एदेसि ट्ठाणाणमुज्जोवरहिद-सहिदाणमुदीरणभंगाणि कमेण एत्तियाणि होति । ९ । २८९ । ५७६ । ५७६ । ११५२ । ८ । २८८ । ५७६ । ५७६ । २७६ । ११५२ । पुणो उदीरणकालाणुगमबलेण विगुव्वणमुट्ठाविदस्स पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदछन्वीसादिट्ठाणेसु उज्जोवोदयरहिद-सहिदाणमोरालियदुगं संघडणं च अवणिय वेउव्वियदुगं पविखविय पयडिट्ठाणाण परूवणा कायव्वा । तेसि कमेणुदीरणभंगाणि एत्तियाणि होति । ४८ । ९६ । - ९६ । १९२ । ४८ । ९६ । ९६ । १९२ ।। ... (पृ० ९३ ) एत्थ मणुस्सगदिस्सुदीरणट्ठाणाणि एक्कवीस-पंचवीसादिएककत्तीसढाणे त्ति अट्ठ द्वाणाणि होंति । पुणो सामण्णमणुस्सेसु विसेसमणुस्स-विसेसविसेसमणुस्साणां च उदीरणट्ठाणाणि । पुणो सामण्णमणुस्साणं विगुव्वणुट्ठाविदेणुप्पण्णट्ठाणेहिं पयडिभेदेण सह गदेहिमुवरिमट्ठिदिसामित्तबलेण वत्तव्वं । पुणो सामण्णमणुस्साणं अविउव्वणा-विगुव्वणाणमुदीरणट्ठाणभंगाणि कमेणेदाणि । ९ । २८९ । ५७६ । ५७६ । ११५२ । ४८ । ९६ । ९६ । १९२ । । (पृ० ९६ ) पुणो देवगदीए पंच उदीरणट्ठाणाणि । पुणो विउव्वणमुज्जोवेण सह उट्ठाविदस्स अट्ठावीस-एगूणतीसमेत्तट्ठाणेहिं सह वत्तव्वं ।। (पृ० १०० ) पुणो ठिदिउदीरणाए मूलुत्तरट्ठिदिअद्धच्छेदो सुगमो । ( पृ० १०४ ) उक्कस्सउदीरणासामित्तं पि सुगमं। णवरि सुहुमापज्जत्त-साहारणाणं उक्कस्सदिदिउदीरगो को होदि? जो वीससागरोवमकोडाकोडीओ बंधिऊण पडिभग्गो संतो अप्पिदपयडीओ बंधिय उक्कस्सदिदि पडिच्छिय तत्तं (त्थं)तोमुत्तमच्छिय सव्वलहुं सुहुमापज्जत्तसाधारणसरीरेसुप्पण्णपढमसमयतब्भवत्थो उक्कस्सटिदिउदीरओ त्ति भणिदं । पृ १०९. एत्तु (त्थु ) कस्सट्ठिदि पडिच्छिय अंतोमुहुत्तच्छणणियमो। कुदो? उक्कस्सट्ठिदिसंकिलेसेण सह मुदतिरिक्ख-मणुस्साणं णिरएसुप्पत्तिणियमादो। तदो संकिलेसादो पडिभग्गो होणंतोमुहुत्तमच्छिय मदो (दे)चेव एदेसिमुप्पत्तिसंभवो होदि त्ति जाणावणठें णियमो कदो। (पृ० ११० ) पुणो जहण्णट्ठिदिउदीरणा सुगमा । णवरि तिरिक्खगदिणामाए जहण्णदिदिउदीरणा कस्स ? जो तेउकायिओ वाउकायिओ वा हदसमुप्पत्तियकमेण सव्वचिरं जहण्णटिदिसंतकम्मस्स हेट्ठा बंधिदूण सण्णि-पंचिदिएसुववण्णो, उववण्णपढमसमए चेव मणुसगदिबंधगो जादो, तं सव्वचिरं बंधिदूण तदो तिरिक्खगइ बंधतस्सावलियकालं बंधमाणस्स इदि । पृ० ११४. एत्थ तेउ-वाउकायिएसु चेव कुदो हदसमुप्पत्तिणियमो ? ण, अण्णकायिएसु हदसमुप्पत्तिय Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया त्तियं कादूण संतस्स हेवा विसोहीए बंधमाणे मणुसगइं सुहपडि अदीव णोवट्टतो बंधदि, मणुसगइं बज्झ (बंध) माणो सण्णिपंचिंदियतिरिक्खेसु ण उपज्जति त्ति वा जाणावणठें, जदि उप्पज्जति त्ति विवक्खा अत्थि तो सद्धसण्णिपंचिदिएसु मणुसगदिबंधगद्धादो एइंदियसण्णिपंचिदिएसु मणुसगदिबंधगद्धा थोवा, तं गालिज्जमाणे जहण्ण ट्ठिदी ण होदि त्ति जाणावणटुं वा । कथं तेउ-वाउकाइएहिंतो सेसतिरिक्खेसुप्पण्णाणं पढमसमयादिअंतोमुत्तकालभंतरे मणुसगदिबंधसंभवो? ण, गंथे तस्स परिहारं दिण्णत्तादो। पुणो वगेव्वियंगोवंगस्स णिरयगदिभंगो इदि । पृ० ११६. कूदो णियमो ? ण, असणिपंचिदिएहितो देवेसुप्पण्णमाउआदो णिरएसुप्पण्णमाउगं विसेसाहियं, देवगदिणामकम्मस्स हदसमुप्पत्तियट्ठिदीदो णिरयगदिणामकम्माणं वेगुम्वियंगोवंगांण हदसमुप्पत्तियट्ठिदीयो बहुगाओ इदि जाणावणठें । ( पृ० ११९. ) पुणो उक्कस्सट्ठिदिउदीरणकालपरूवणा सुगमा। णवरि दंसणावरणपच्च (पंच) यस्स अणुक्कस्सुदीरणकालो जहण्णेणेगसमओ इदि । कुदो ? ण, अणुक्कस्समुदीरिय बिदियसमए मुदस्स वा बिदियसमए उक्कस्सट्ठिदिमुदीरिदे वा होदि त्ति जाणाविदं । पुणो उवघाद-परघादुस्सास-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगदि-तस-पत्तेयसरीर-दूभगअणादेज्ज-दुस्सर (णामाणं) णीचागोदस्स य उक्कस्सटिदिउदीरणकालो जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेणंतोमुहत्तं । पृ० १२३. सुगममेदं । अणुक्कस्सटिदिउदीरणकालो जहण्णेण एगसमओ। पृ० १२३. कुदो ? उच्चदे- उवघाद-पत्तेयसरीरांणं पुवमुक्स्सट्ठिदिमुदीरेदूण अणुक्कस्समेगसमयमुदीर[रिय कालं काऊण विग्गहगदस्स । एवं परघादुस्सास-अप्पसत्थविहायगदीणं । णवरि कालगदस्से त्ति भाणिदव्वं । पुणो दूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणमुत्तरं विगुम्बिदस्प वत्तव्यं । णवरि तसणामाए अंतोमहत्तमिदि भाणिदव्वं । तं कुदो ? तिरिक्ख-मणस्समिच्छाइट्रिणो तसणाम णिरयगदिसंजुत्तं उकस्सट्ठिदि बंधिय पुणो उक्कस्सट्ठिदिमुदीरिय पडिभग्गो होदुण संखेज्जावलियमेत्तकाले गदे चेव उक्कासहिदि बंधदि थावरेसु च उप्पज्जदि त्ति वा णियमादो। (पृ० १२५. ) पुणो जहण्ण ट्ठिदीए उदीरणकालपरूवणा सुगमा । ( पृ० १२९. ) णवरि परघादणामाए अजहण्ण ट्ठिदि उदीरणकालो जहण्णेण एगसमयमिदि उत्ते उत्तरसरीरं विगुम्विय पज्जत्तीए पज्जतयदस्स एगसमयं दिळें बिदियसमए कालं कादूण अणुदीरगो जादो त्ति वत्तव्वं । (पृ० १३०. ) पुणो उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं सुगमं । ( पृ० १३७. ) जहण्णट्ठिदिउदीरणं (तरं) पि सुगमं । (पृ० १३८.) णवरि वेगुब्वियसरीरस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरस्स जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि | Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ) परिशिष्ट भागो इदि उत्तं । तं किमळं ? उच्चदे-तेउ-वाउकाइएसु हदसमुप्पत्तियं काऊण वेगुब्वियसरीरस्स जहण्णट्ठिदि करिय विगुब्वणमुट्ठविय चिरकालेण मूलसरीरं पविस्संतचरिमसमए जहण्णटिठदिउदीरणं होदि । पुणो ते असण्णिपंचिदिएसुष्पज्जिय वेगुब्वियसरीरं बंधिय पुणो वि तेउ-वाउकायिएसुप्पज्जिय हदसमुप्पत्तियं करेंतस्स तेत्तियमेत्तरकालुवलंभादो । पुणो एदेण जाणिज्जदि ओरालियसरीर (रं) विगुब्बणप्पयं ण होदि त्ति। (पृ० १३९. ) पुणो णाणाजीवभंगविचयाणुगमो दुविहो उक्कस्सए जहण्णए चेदि । ते (तं) दुविहं पि सुगमं । (पृ० १४१. ) णाणाजीवकालंतराणुगमं पि सुगमं । संणिकासं पि सुगमं । ( पृ० १४७. ) उक्कस्सट्ठिदिउदीरणप्पाबहुगं पि सुगमं । ( पृ० १४८. ) पुणो जहण्णढिदिउदीरणप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा- तत्थ ताव जहण्णढिदिउदीरणप्पाबहुगावगमणठें परावत्त . . . . . . . मायपयडीणं बंधगद्धाप्पाबहुगं उच्चदे- जहण्ण बंधगद्धा देवगदिआदिसत्तरसण्णं पयडीणं थोवं । २ ।। आउचउक्काणं संखेज्जगुणं । ४ ।। आउआणं चेव उक्कस्स संखेज्जगुणं । ८ ।। देवगदि संखेज्जगुणं । १६ ।। उच्चागोदं संखेज्जगण । ३२ । । मणुसगदीए संखेज्जगुणं । ६४ ।। पुरिसवेदे संखेज्जगुणं । १२८ । । इत्थिवेदे संखेज्जगुणं । २५६ । । साद-हस्स-रदि-जसकित्ति संखेज्जगुणं । ५१२ ।। तिरिक्खगदि संखेज्जगुणं । १०२४ । । णिरयगदि संखेज्जगुणं । २९९२ ।। असादावेदणीय-सोग-अरदि-अजसकित्ति विसेसाहिया ।। ३५८४ ।। णउंसकवेदे विसेसाहिया । ३७१२ । । णीचागोदे विसेसाहिया। ४०६४ ।। परावत्तमाणपयडिबंधसमासो एसो । ४०९६ ।। पुंवेदबंधगद्धा ५ )। इत्थिवेदबंधगद्धा ।। णउसकवेदबंधगद्धा १० । भोगभूमीसु पुंवेदबंधगद्धा । इत्थिवेदबंधगद्धा. " । अथवा पुरिसवेदबंधगद्धा ४ । इत्थिवेदबंधगद्धा १० । हस्स-रदिबंधगद्धा ३ । अरदि-सोगबंध० ११ । तसबंधगद्धा १४ । थावरबंधगद्धा ५६ । एवं बंधगद्धाप्पाबहुगं जहाजोग्गं जोजिय पयदजहण्णट्ठिदिअप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा _पंचणाणावरण-चउदंसणावरण-सम्मत्त-मिच्छत्त-चदुसंजलण-तिण्णिवेद-चत्तारिआउगं पंचंतराइयाणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा त्थोवा । पृ० १४८. कुदो ? एगट्ठिदित्तदो।। जहण्णढिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा । पृ० १४८. कुदो ? समयाधियावलियपमाणत्तादो । मणुसगइ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-जसगित्ति-उच्चागोदाणं जहण्णदिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । पृ० १४८. कुदो ? संखेज्जावलियपमाणत्तादो । पुणो एदेहिं सूचिदपयडीणं समाणासमाण ट्ठिदीण मज्झे ताव समाणट्ठिदिपयडीओ उच्चदे । तं जहा-पंचिदिय-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरबंधणसंघादाणं छस्संठाणाणं ओरालियंगोवंग-बज्जरिसहसहड (संहडण-)वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलग-उवघाद-परघाद-दोविहायगदि-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभगादेज्जणिमिण-तित्थयरमिदि एदेसि पणतीससंखा एक्कावण्णं वा पयडीओ होति । एदेसिमप्पाबहुगं पुव्विल्लेहि सह वत्तव्वं ।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया जटिदिउदीरणा विसेसाहिया। पृ० १४८. आवलियमेत्तेण । पुणो सूचिदपयडीणं असामण्णट्ठिदीए सहिदाणमप्पाबहुगं उच्चदे-- उस्सासस्स जहण्ण ट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा। कुदो? सजोगिचरिमसमयादो हेट्ठा संखेज्जट्ठिदिखंडयमेतद्धाणं उदीरणं णद्वत्तादो। जटिदिउदीरणा विसेसाहिया । पुणो वि सूचिदसुस्सरदुस्सराणं जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । कुदो? तत्तो हेट्ठा पुव्वं व झोदरिदस्स उदीरणं णद्वत्तादो। जट्टि दिउदी० विसेसाहिया । वेगुम्वियसरीरस्स जहण्णढिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा । पृ० १४८. कुदो? पल्लासंखेज्जदिभागूणसागरोवम-बे-सत्तभागमेत्तमेइंदियाणं सेसपयडिबंधट्ठिदिसमाणाणमुव्वेल्लणट्ठिदिगहिदत्तादो। जढिदिउदी० विसेसाहिया । अजसगित्तीए जहण्णढिदि० विसेसाहिया । कुदो ? अणुव्वेल्लिज्जमाणपयडित्तादो। पुणो एदेण सूचिदभगाणादेज्जपयडीणं अजसगित्तीए समाणप्पाबहुगं होदि त्ति वत्तव्वं ।। जट्ठिदिउदो० विसेसाहिया । तिरिक्खगदीए जहण्णट्ठिदि० विसेसाहिया । कुदो ? हदसमुप्पत्तिए कदे तेउ-वाउकाइयपच्छायदसण्णिपंचिदिएण मणुसगदिबंधेण मणुसगदिबंधंगालिऊण ट्ठिदितिरिक्खगदिस्स जहण्णट्ठिदीदो तत्थतणजसगित्तिबंधगद्धं पुश्विल्लबंधगद्धादो बहुगं गालिऊण ट्ठिदिबंधगद्धादो अजसगित्तीए जहण्णट्ठिदीए पमाणं थोवत्तादो। जद्विदिउदी० विसेसाहिया। पुणो णीचागोदजहण्णढिदिउदी० विसेसाहिया। कुदो? मणुसगदिबंधगद्धादो उच्चागोदबंधगध्दाए थोवाए गालिऊण छिदत्तादो । जढिदिउदी० विसेसाहिया। पृ० १४८. पुणो एत्थ सूचिदपयडीओ उच्चदे। तं जहा- थावर-सुहुम-साधारणसरीराणं जहण्णिया ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। कुदो ? थावरकाइयेसु चेव गालिदपडिवक्खबंधगध्दादो । जट्ठिदिउदी० विसेसाहिया। अपज्जत्तद्विदिउदीरणा विसेसाहिया । कुदो ? सुठ्ठ अप्पसत्थत्तादो। जट्ठिदिउदी० विसेसाहिया । पुणो तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवीए जहणिया ट्ठिदिउदी० विसेसाहिया । कुदो ? अगालिदबंधगध्दादो। जट्ठिदिउदी० विसेसाहिया । मणु - सगदिपाओग्गाणुपुवीए जहणिया ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। कुदो ? पसत्थपयडित्तादो। जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। सादस्स जहण्णद्विदिउदोरणा विसेसाहिया। पृ० १४८. कुदो ? हदसमुप्पत्तीएणुप्पण्णसागरोवम-ति-सत्तमभागपमाणस्स किंचूणस्स गालियसण्णीणमसादबंधगध्दादो। जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। असादस्स जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया। कुदो ? हदसमुप्पत्तियट्ठिदिम्मि गालिदसण्णिसादबंधगध्दत्तादो । जदिदिउदीरणा विसेसाहिया । पुणो पंचण्णं दंसणावरणाणं जहण्णदिदिउदीरणा विसेसाहिया। पृ० १४८. कुदो? अगालिदट्ठिदिबंधगध्दत्तादो। कधं णिद्दा-पयलाणं पयडिसामित्तेण णाणावरणेण समाणाणं थीणगिध्दीए सह जहण्ण ट्ठिदिउदीरणप्पाबहुगं उत्तं ? ण, णिद्दा-पयलाणं उदीरणम्मि Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ) परिशिष्ट दुविहो उवदेसो। तत्थेक्कोवएसो- खीणकसायावलियवज्जसेसव्वे च (छ) दुमत्थाण संभवो। अण्णेक्केणोवएसेण सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदबिदियसमयप्पहुडिथीणगिद्धितियाणं व होदि । णवरि देव-णेरइय-भोगभूमिजमणुव-तिरिक्खाणं विगुव्वणमुट्ठाविदमणुसाणं तिरिक्खाणं आहाररिद्धीएसु च वारणा णत्थि । तत्थ बिदियोवएसेणेदं परूविदं । उवरिमचउगइअप्पाबहुगमिदि अवलंबिदं। पुणो हस्स-रदीणं जहणिया दिदिउदीरणा विसेसाहिया । जटिदिउदीरणा विसेसाहिया। अरदि-सोगाणं जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया। जट्टिदिउदीरणा विसेसाहिया। भय-दुगुंछाणं जहण्ण ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। बारसकसायाणं जहण्णढिदिउदीरणा तत्तिया चेव । जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। सम्मामिच्छत्तजहण्णद्विदिउदीरणा विसेसाहिया। जढिदिउदीरणा विसेसाहिया । पुणो देवगदीए जहण्णट्ठिदिउदीरया (णा) संखेज्जगुणा । पृ० १४८. ___ कुदो ? हदसमुप्पत्तियसंतकम्मियअसण्णिपंचिदियपच्छायदतप्पाओग्गुक्कस्सदेवाउगचरिमसमयट्ठिदित्तादो। जट्टिदिउदीरणा विसेसाहिया। देवगइपाओग्गाणुपुवीए जहण्णट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया । पृ० १४९. कुदो ? उप्पण्णबिदियसमयम्मि ट्ठिददेवस्स ट्ठिदित्तादो। जट्ठिदिउदोरणा विसेसाहिया। णिरयगदीए जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया। कुदो ? हदसमुप्पत्तियअसण्णिपच्छायददेवगदस्स जहण्णट्ठिदिसंतादो पुणो हदसमुप्पत्तियणिरयगदिस्स जहण्णट्ठिदिसंतं विसेसाहियं, अप्पसत्थत्तादो। केत्तियमेत्तेण विसेसाहियं ? एत्थतणदेवाउगेहितो णिरयाउगं विसेसाहियं । तत्तो एवं अब्भहिय त्ति घेत्तव्यं । कथमेदं परिच्छिज्जदे ? एदम्हादो चेवप्पाबहुगादो परिच्छिज्जदे । एत्थ सूचिदवेगुम्वियंगोवंगं पि एदेण सरिसं ति वत्तव्यं । कधमेद णव्वदे ? ण, जहण्णट्ठिदिसामित्तेण दोण्हं समाणसामित्तादो। ____ जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया । णिरयगइपाओग्गाणुपुवीए जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया। पृ० १४९. सुगमं । जद्विदिउदीरणा विसेसाहिया । पृ० १४९. सुगमं । आहारसरीरजहण्णढिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । पृ० १४९. सुगमेदं ( सुगममेदं ) । एदेण सूचिदतदंगोवंगस्स वि एत्थेव वत्तव्वं । जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। पृ० १४९. पुणो णिरयगदीए जहण्णप्पाबहुगं सुगमं । णवरि गंथुत्तपयडीओ अवणिय सेसोदइल्लसूचिदच उव्वीसपयडीणमप्पाबहुगं जम्मि जम्मि उद्देसे संभवदि तम्मि तम्मि उद्देस जाणिय वत्तव्वं । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ३५ ( पृ० १५०. ) किमट्ठमेत्त (त्य) णिहा-पयलाणजहण्णदिदि उदीरगा सव्वप्पाबहुगपदेहितो बहुगं जादं? ण, तप्पाओग्गजहण्ण टिदिसंजुत्ता खइयसम्माइट्ठीणं णिरएसुप्पज्जिय तप्पाओग्गुक्कस्सणिरयाउगचरिमसमए ट्ठिदस्संतोकोडाकोडिमेत्तट्ठिदीए गहणादो। तं पि कुदो? सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तकाले एदेसिमुदीरणा णत्थि त्ति अभिप्पाएण तत्थतणजहण्णट्ठिदी ण गहिदा । पुणो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स वि बंधट्ठिदीदो संतट्ठिदी बहुगी होदि । सा पुण गालिदउक्कस्साउगपमाणादो णेरइयचरिमसमए वट्टमाणख इयसम्मादिट्ठिद्विदीदो सगुक्कस्साउगपमाणेणब्भहियत्तादो ण गहिदा । पुणो पज्जत्ताणं जहण्णट्ठिदीदो खइयसम्मादिट्ठीणं जहण्णट्ठिदी संखेज्जगुणा होदि त्ति गहिदा । (पृ० १५०-५२ ) ___ पुणो तिरिक्खगदीए तिरिक्खजोणिणिए च अप्पाबहुगं सुगमं । णवरि सूचिदणामकम्मपयडीणमप्पाबहुगं जाणिय वत्तव्वं । ( पृ० १५४ ) पुणो मणुसगदीए अप्पाबहुगं जाणियूण वत्तव्वं जाव सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणं पत्ता त्ति। णवरि सूचिदपयडीणमप्पाबहुगं पि जाणिय वत्तव्वं । पुणो तत्तो दंसणावरण-पच्च (पंच) यस्स जहण्णटिदिउदीरणा संखेज्जगुणा त्ति । पृ० १५४. कुदो ? चत्तारिवारमुवसमसेढिं चडिय तेत्तीसाउगदेवेसुप्पज्जिय अधद्विदीयो गालिय पच्छा मणुस्सेसुप्पज्जिय खइयसम्माइट्ठी होऊणंतोमुहुत्तेण खवगसेढिं (ढि ) चढणपाओग्गो होहदि त्ति ट्ठिदस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणं जादं । तदो जढिदिउदीरणा विसेसाहिया। आहारसरीरस्स जहण्णढिदिउदीरणा संखेज्जगुणा। कुदो? दोण्हं समाणसामित्ते संते वि विसोहिणा अप्पसत्थाणं कम्माणं ट्ठिदिसंत बहुगं घादिज्जदि, पसत्थाणं थोवं घादिज्जदि त्ति णायादो संखेज्जगुणं जादं । पुणो जट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया। पुणो वेगुब्वियसरीरस्स जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया। पृ० १५४. कुदो ? समाणसामित्ते संते वि खवगसेढिचडणपाओग्गकालादो हेट्ठा पुव्वमेव अंतोमुहुत्तकाले विगुव्वणपाओग्गे विगुव्वणमुट्ठाविय पच्छा तत्तो उवरि अंतोमुहुत्तकालेण आहारसरीरमुट्ठाविदत्तादो अंतोमुहुत्तेण विसेसाहियं जादं । पुणो देवगदीए अप्पाबहुगं सूचिदपयडीए सह जाणिय वत्तव्वं । ( पृ० १५७ ) पुणो भुजगारुदीरणाए सामित्तपरूवणा सुगमा। तस्स कालाणुगम पि सुगमं । (पृ० १५८ ) णवरि पंचदंसणावरणाणं उदीरणकालो जहणेणेगसमओ। सुगममेदं । उक्कस्सेण णव समया । पृ० १५८.. तं कथं ? उच्चदे- ठिदीए भुजगारस्स कारणं दुविहं अद्धाखयं संकिलेसखयं चेदि । तत्थ अद्धाखयं णाम एगट्ठिदिबंधकालो एगसमयमादि कादूण जाउक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तं होदि । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट तेसिं खओ अद्धाखओ णाम । एदमेगसमयमादि कादूण जाव आबाधाखंडयमेत्तसमयाणं टिदिबंधसरूवेण वड्ढीए हाणीए वा कारणं होदि। एवं संते कधं तिकरणपरिणामपरिणदकाले अंतोमुत्तपरिणदमेत्तट्ठिदिबंधकालणियमो? ण, भिण्णजादित्तादो। अहवा, एगढिदिबंधकालो जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तं चेव। तथा सदि कथमेगसमयादिद्विबंधकाल (ला) णं संभवो ? ण, मिच्छत्तुदीरणसहिदअण्णोण्णपज्जयभेदेण बंधगद्धाखयसंभवादो एकसमयादिकालो संभवदि।। पुणो वि विवक्खिदट्ठिदीए असंखेज्जलोगमेत्तकसायपरिणामेसु तत्थ जं परिणामिज्जमाणं खओ संकिलेसखवो णाम । एदम्मि दिदिबंधउड्ढीए हाणीए एगसमयमादि कादूण जाव संखेज्जगुणपमाणद्विदीए कारणं होदि त्ति तत्थ अद्धाखए जादे संकिलेसखवोण होदि । कुदो ? तत्थ अणुकढिपरिणामाणमुवलंभादो । पुणो संकिलेसखए जाने अवस्समद्धाखवो होदि । कुदो? विवक्खिदह्रिदीए सव्वपरिणामखये संते तस्स बंधट्ठिदीए बंधइयं होदि त्ति णायादो। एवं संते विवक्खिदपयडीदो सेसटुपयडीओ एगेगवारं कमेण अद्धाक्खएण वढियण बंधिय आवलियमेत्तकाले गदे कमेण विवक्खिदपयडिम्मि संकामिय पुणो सव्वपयडीणमद्धाक्खयाविणाभाविसंकिलेसखए जादे णव भुजगारुदीरणसमया होति त्ति एत्थ विवक्खिदं । कधं एदाए पुणो अद्धाक्खयेण वड्ढी ण गहिदा ? दोसमयेसु अणुसंधाणेण एगपयडीए अद्धाक्खओ ण होदि त्ति ण गहिदा । कधमेदं णव्वदे। एदम्हादो चेव आरिसादो। अण्णहा पुण विवक्खिदपयडीए सेस?पयडीओ पुव्वं व अद्धाक्खएण वड्ढियूण बंधिय संकामिय पुणो विवक्खिदपयडीए अद्धाखएण वड्ढिय सव्वपयडीणं अद्धाखएण सह संकिलेसखये वढिदे भुजगारुदीरणसमया दस होति । एदं पुन्विल्लणियमेण कधं ण विरोहो ? ण, एत्थ एवंविहअद्धाखयाणं दोण्हं समए अणुसंधाणउड्ढी ण दोसो त्ति विवक्खिदत्तादो।। अत्थदो दस समया त्ति उत्तं । तं सुगम ।। पुणो णवणोकसायाणं भुजगारुदीरणकालो जहण्णेणेगसमयो । पृ० १५८. सुगममेदं । उक्कस्सेण अट्ठावीस समया। पृ० १५८. तं कथं ? उच्चदे- सोलसकसायाणि कमेण अद्धाखयेण वढियूण बज्झमाणे सोलस समया हवंति । पुणो ट्ठिदिबंधगद्धाखयेण वड्ढिदूण बंधपुबिल्लसोलसपयडोणं मज्झे चरिमपयडिं मोत्तूण सेसपण्णा रसपयडीसु अण्णदरदसपयडीओ वड्ढिदूण बंधिदे सेसकसाएसु तप्पाओग्गट्टि दबंधगद्धाए परिणमिय बंधेसु[बद्धे सुदस समया लब्भंति । पुणो बंधावलियकाले गदे विवक्खिदणोकसायस्सुवरि जहाकमेण पुव्वुत्तसोलस-दसकसायट्ठिदीयो संकामिय सण्णीसु एगविग्गहं कादूणुप्पज्जिय उप्पण्णपढमसमए असण्णिपडिभागिगं ट्ठिदि बंधिय सरीरगहिदपढमसमए सण्णिपडिभागिगट्ठिदिं बंधिऊण पुणो उप्पण्ण पढमसमयप्पहुडि छब्बीससमयूणावलियकालं बोलाविय पुबुत्तहिदीसु कमेणुदीरिज्जमाणिगासु विवक्खिदणोकसायास भुजगारढिदिउदीरणसमया अट्ठावीसा लब्भंति । पुणो ट्ठिदिबंधगध्दासु अणेयपयारेहि लब्भमाणासु भुजगारसमया अट्ठावीसेहितो बहुगा किण्ण होदि त्ति उत्ते- ण, सहावदो चेव । जहा किंचूणपुव्वकोडिमेत्तसंचयणिमित्तकाले संतो ते (वि) सजोगिभडारयस्स तक्कालसंचओ ण लहदि तहा एत्थ वि अट्ठावीससमयपमाणादो अहियसमया ण तक्कालसंचयेण लब्मति त्ति उत्तं होइ । अहवा णोकसायाणं सगसगुक्कस्सट्ठिदिबंधादो उक्कस्सठिदिबंधादो च हेट्टिमट्टिदिबंधमाणकसाय-णोकसायबंध-संतेहितो जादिवसेण एइंदिसु www.jalitelibrary.org Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ३७ कारणवसेण सामग्गीए कसाय णोकसाया पुतणो कसायट्ठदिबंध संतादो वड्ढिदूण बंधं लहंति । जहा पुरदो भण्णमाणउच्चागोदट्ठदिबंधो व्व इदि अहिप्पारण उत्तं । पुणो देहिप्पारण अट्ठावीसभुजगारसमयाणं पउत्ती उच्चदे । तं जहा- विवक्खिदगोम्मट्ठदिबंध संतादो हेट्ठा सेसदृणोकसाय - सोलसकसायाणं ट्ठिदि बंधमाणो जो जीवो सो विवक्खिदणोकसायट्ठिदिबंध संतादो उवरि सेसट्टणोकसाए सोलसकसाए च कमेण अद्धाक्खयेण वड्ढियूण बंधिय बंधावलियं बोलाविय विवक्खिदणोकसायस्सुवरि जहाकमेण संकामिय विवक्खिदणोकसायं पि अद्धाक्खएण वड्ढियूण बंधिय पुणो संकिलेसखयेण सव्वेसि पि कसाय - णोकसायाणं द्विदीए वड्डियूण बंधिय कालं काऊण एगविग्गहेण सण्णीसुप्पज्जिय असण्णिपडिभागट्ठिदि बंधिय सरीरमहिदपढमसमए सण्णिपडिभागट्ठिदि बंधिय छव्वीससमयूणावलियमेत्त कालमदिच्छिदूण विवक्खिदणोकसायट्ठिदि कमेणोकड्ढिदून उदीरेमाणस्स अट्ठावीस भुजना रुदीरणकाला लब्भंति । अत्थदो पुण एगूणवीस समया । पृ० १५८. कुदो ? कसायट्ठिदिबंधादो समाणकाले बज्झमाणणोकसायट्ठिदिसव्वकालं दुगुणहीणं बंधदिति णायादो । तेसिं भुजगारसमयाणं उष्पत्तिविहाणमेवं वत्तां । तं जहा - सोलसकसाए अद्धाक्खएण वड्ढिदूण बंधिय पुणो तदनंतरसमए संकिलेसक्खएण सव्वे वि कसाए एक्कसराहे as बंधि बंधावलियं बोलाविय विवक्खिदणोकसायस्सुवरि ताणं कसायाणं द्विदीयो कमेण संकामिय तदणंतरसमए एगविग्गहं काऊण सण्णीसुप्पज्जिय विग्गहगदीए असण्णिपडिभागट्ठिदि बंधिय सरीरगहिदपढमसमए सण्णिपडिभागट्ठिदि बंधिय सत्तारससमएहि सोलसकसाएहि अद्धक्खयेण निरंतरं वड्ढिदूण बंधतो तदनंतरसमए संकिलेसक्खएण वड्ढिदूण बंधेदित्ति अहिप्पाएण लब्भदि । पुणो णीचुच्चागोदाणं भुजगारुदीरणकालो जहणेणेगसमयो । पृ० १५९. सुगममेदं । उक्कस्सेण पंचसमओ । पृ० १५९. तं कथं ? उच्चागोदस्सुक्कस्सट्ठिदिबंधादो हेट्ठिमतप्पा ओग्गठ्ठिदिबंध संत संजुत्तणीचागोदस्सुवरि वड्ढिदून ठिदउच्चागोदस्स ठिदिसंतं संकामिय तदणंतरसमए णीचागोदं अद्धाक्खएण तप्पाओग्गठिदिं उच्चागोदसंतस्सुवरि वड्ढिदूण बंधिय पुणो संकिलेसक्खएण तत्तो उवरि जय सणीसु एगविग्रहेण विग्गहगदीए असष्णिपडिभागट्ठिदि बंधिय सरीरगहिदपढमसमए सणिपडिभागट्ठिदि बंधिय दुसमयूणावलियमेत्तकालं बोलाविय पुणो पुव्वत्तट्ठिदी उदीरिज्जमाणासु णीचागोदस्स पंच भुजगारसमया लब्भंति । एवं उच्चागोदस्स वि पंच भुजगारसमया चितिया वत्तव्वा । अत्थदो दोन्हं पि चत्तारि समया । पृ० १५९. तं च सुगमं । पुणो मिच्छत्तस्स अप्पदरुदीरणकालो जहण्णेण एगसमओ । पृ० १५९. सुगममेदं । उक्कस्सेण पदिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । पृ० १५९. दो? एइंदिए हदसमुप्पत्तियकरणका लग्गहणादो । तं पि कुदो ? भुजगारपदरावदि Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८) परिशिष्ट पदाणि तिण्णि वि जम्मि मग्गणाए संभवंति तम्मि उत्तमेदं । अण्णहा एक्कत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि संकिलेंसियकालं उवरिमगेवेज्जदेवेसु मिच्छस्सुक्कस्सप्पदरुदीरणकालो लब्भइ । सो च एत्थ ण विवक्खियो। (पृ० १६२ ) पुणो अप्पाबहुगाणुगमो सुगमो । णवरि सव्वत्थोवा णिहाए भजगारुदीरया त्ति उत्ते एवं वत्तव्वं । तं जहा- थीणगिद्धितियस्स ताव अणदीरगासंभवे सहमेइंदिया देवा रइया भोगभमिजतिरिक्खा मणुस्सा बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्ता तसकाइयलद्धिअपज्जत्ता च पुणो एदे सव्वे वि एक्कदो मिलिदे सुहुमेइंदियरासिपमाणादो सादिरेयमेत्ता होत्ति (होति।। ते वि णिद्दापयलाणं चेव उदीरणपाओग्गा होति । तदो तं रासि | १३८ । सव्वत्थोवा णिद्दा-पयलाणमुदी रणद्धा । २७ । २ । अणुदीरणद्धा संखेज्जगुणा । २७ । ४ । । पुणो एदासिं दोण्हमद्धाणं समासेण । २७ । ५ । भागं घेत्तूण लद्धं णिद्दा-पयलाणं उदीरणद्धाए गुणिदे सुहुमेइंदियरासिस्स संखेज्जदिभागो होदि । तस्स पमाणमेदं | १२८ । पुणो सव्वत्थोवा णिद्दाए उदीरणद्धा । पयलाए उदीर (ण) द्धा संखेज्जगुणा त्ति । एदासि दोण्हमद्धासमासेणेदस्स रासिस्स भागं घेत्तूण णिद्दुदीरणाए गुणिए पुव्वुत्तसंखेज्जदिभागरासिस्स' संखेज्जदिभागो होदि । सो च एसो | १३८ । एदस्सुवरि बादरेइंदियपज्जत्तरासि (सिं) कम्मभूमिजतिरिक्ख-मणुस्सपज्जत्तरासि | ८५५ च एक्क दो कादूण एदस्स रासिस्स सव्वत्थोवा णिहापंचयस्स उदीरणध्दा. अणदीरणध्दा संखेज्जगणा त्ति । एदेसिं दोण्हमध्दाणं समासेण भागं घेतूण लध्दं णिद्दापच्च (पंच) यस्स उदीरणध्दाहि गुणिदे बज्झमाणरासिस्स संखेज्जदिभागो होदि । तस्स पमाणमेदं | १३ ।। ____ सव्वत्थोवा थीणगिध्दीए उदीरणध्दा। गिद्दाणिदाए उदी रणद्धा संखेज्जगुणा । पयलापयलाए उदीरणद्धा संखेज्जगुणा । णिद्दाए उदीरणध्दा संखेज्जगुणा । पयलाए उदीरणध्दा संखेज्जगुणा त्ति | २७२५६ | । एदासि पंचण्हमद्धाण समासेण । २७ । ३४२ । एत्तियमेत्तेण पुव्वुत्त एक्कदो कदरासि | २७६४ | भागं घेत्तूण णिदुदीरणद्धाए गुणिय पुव्वाणिदणिद्दुदीरणरासिस्सुवरि पक्खित्ते | २७१६ | सव्वो णिदुदीरगरासी एत्तियो होदि | १३८ | णिद्ददीरएरारासी २७४ २७१ पुणो सव्वत्थोवा णिद्दाए भुजगारुदी रणद्धा। अवट्ठिदउदीरणद्धा असंखेज्जगुणा । २७ ।। अप्परद्धा संखेज्जगुणा त्ति । २७४ । । एदासिं तिण्हमद्धाणं समासेण एत्तिएण । २ । पुव्वुत्तणि दुदीरणरासि भागं घेत्तूण लद्धं पुवुत्तभुजगारावट्ठिदप्पदरद्वाहि गुणिदे भुजगारावट्ठिदप्पदररासयो आगच्छति । ___ पुणो एत्थ सव्वत्योवा णिहाए भुजगारुदीरया त्ति ( पृ० १६२. ) __ अप्पाबहुगपदेण एत्ता (त्था)णिदभुजगाररासी (सु) गहिदेसु।१३८।३ ।। पुणो अवत्तव्वुदीरया संखज्जगुणा त्ति ( पृ० १६२ ) भणिदे णिदुदीरग-९५९२७५ सव्वजीवाण णिद्ददीरणसव्वद्धाए भागे हिदे भागलद्धमत्ता त्ति वत्तव्वं । तं चेद| १३८ ।। एत्थ दुसमयसंचिदभुजगाररासीदो एगसमयसंचिदअवत्तवरासी कधं संखेज्ज-९५५२७/ गुणा ? ण एस दोसो, भुजगाररासि आगमणठं णिद्ददीरणरासिस्स भागहारत्तेण ठविदउक्कस्सभागहारावद्विद Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ३९ ४६ ५७/ २४ अप्पदरद्धाणं समासदो अवत्तव्बरासिआगमणठें णिदुदोरगरासिस्स भुजगारत्तणेण दृविदजहण्णणिद्दुदीरणद्धाए संखेज्जगुणहीणत्तादो। कुदो एवं घेप्पदे ? अवत्तव्वरासिस्स उक्कस्सभावपदुप्पायणटुं अवट्टिदपदरासीणं उक्कस्सभावपदुप्पायणठं च । एवं च संते अवतव्वपुव्वभुजगाररासी किण्ण घेप्पदे ? ण, सव्वे अवत्तव्यं करेंतजीवा भुजगारं चेव कुणंति त्ति णियमाभावादो। एवं चेव घेप्पदि त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेवप्पाबहुगादो । (पृ० १६२ ) पुणो उवरिम-दो-पदाणि सुगमाणि । एवमसादमरदि-सोगाणं वत्तव्वं । णवरि एत्थ सादासादाणं उदीरणध्दाणाणं भुजगारादिपदाणं उदीरणद्धाणाणं च कमेणेसा संदिट्ठी | २७४ । २७ । ४ || सेसे किरियं जाणिय वत्तव्वं । पुणो इत्थि-पुरिस-वेदाणं सव्व- २० ० । त्थोवा अवत्तव्वउदीरगा (पृ० १६२ ) त्ति उत्ते संखेज्जयस्साउगदेवित्थि-पुरिसवेदरासीओ संखेज्जवस्साउगम्भंतरउवक्कमणकालेणोवट्टिदे इत्थि-पुरिसवेदेसुप्पज्जमाणरासीयो आगच्छंति । पुणो एदासु इत्थिवेदेहितो इत्थिवेदेसुप्पज्जमाणपुरिसवेदेहितो पुरिसवेदेसुप्पज्जमाणा अवत्तव्वं ण करेंति त्ति तेसिमवणयणटुं किंचूणीकदासु इत्थि-पुरिसवेदवत्तव्वुदीरगरासीयो होति । तेसि पमाणमेदं | = ३२ % ४६ । तदो भुजगारुदीरगा संखेज्जगुणा । पृ० १६३. तं कुदो ? इत्थि-पुरिसवेदरासिं भुजगारावट्ठिदप्पदरद्धेहि | ३३ | ३३ कमेण बेसमयावलियाए असंखेज्जदिभागं, तत्तो संखेज्जगुणमेत्ताणमेत्तियाणं २७ २७ पक्खेवसंखेवेहि भजिय सग-सगसंभवेहि गुणिदमेत्ता त्ति गेण्हिदव्वं । कथं भुजगारादीणमेवमध्दाणाणि होति त्ति णव्वदे ? मज्झिमध्दाणाणं विवक्खादो उच्चागोदादि उवरि उच्चमाणपयडीणमप्पाबहुगण्णहाणुववत्तीदो च णव्वदे। अहवा, एइंदिय-विगलिंदिएसु अद्धाक्खएण संकिलेसक्खवणविग्गहे वा सरीरगहिदे च वड्ढदि त्ति भुजगारसंचयकालो चत्तारिसमया होति चउग्गुणं वत्तव्वं । पुणो णिरयगदिणामाए सव्वत्थोवा भुजगारुदीरया । पृ० १६३. कुदो ? भुजगारट्टिदिबंधया पंचिंदियपज्जत्ततिरिक्खेहितो णिरएसुप्पण्णपढमावलियमेत्तकाले ट्ठिदजीवस्स दोसमयसंचयगहणादो । अव्वत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६३. त्ति भणिदे भुजगारावट्ठिदप्पदरट्ठिदिबंधयाणं पंचिंदियतिरिक्खजीवाणमेत्तु (त्थु)प्पण्णाणं गहणादो। अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा त्ति (पृ० १६३ ) उत्ते आवलियकालभंतरसंचयगहणादो। अप्पदरउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६३. कुदो ? सव्वणेरइयरासिगहणादो। तं पि कुदो णव्वदे ? णिरएसुप्पज्जमाणतिरिक्खाणं बेसमए गालिय संखेज्जावलियमेत्तभुजगारावट्ठिदप्पदरद्धाणं गहणादो। रइएसु सत्थाणे चेव णिरयगदिणामाए भुजगारावट्ठिदप्पदररासीओ कि ण गहिदाओ ? ण, रइएसु णिरयगदिणामाए बंधाभावेण भुजगारावट्टिदप्पदरपदाणं संभवाभावादो। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ) परिशिष्ट पुणो तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वीए सव्वत्थोवा भुजगारुदीरगे त्ति उत्तं । पृ० १६३. कुदो? तिरिक्खभुजगाररासीए सगाउएण खंडिदेयखंडस्स तिरिक्खेसुप्पज्जमाणदेवणेरइय-मणुस्सेहि सादिरेयस्स गहणादो। अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६३. कुदो? अवट्ठिदट्ठिदिबंधगतिरिक्खरासिं सगाउएण खंडिदेयखंडस्स सादिरेयस्स गहणादो। अवत्तव्वउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६३. कुदो ? भुजगारावट्ठिदप्पदररासिसमूहं सगाउएण खंडिय विसेसाहियकयमेत्तत्तदो। अप्पदरउदीरया विसेसाहिया। पृ० १६३. कुदो ? अप्पदरदिदिबंधयतिरिक्खरासिं सगाउएण खंडिय दोसंचयगहणठं दुगुणि(य) सादिरेयकयपमाणत्तादो । कुदो सादिरेयत्तं ? दुगुणिदरासिस्स गुणगारभूदअप्पपरध्दं गुणिय हेट्ठिमभागहारभूदभुजगारावट्ठिदप्पदरध्दाणं समूहेणोवट्टिदे किंचूणदोरूवमेत्तगुणगारुवलंभादो । पुणो उवघाद-परघादुस्सास--आदावुज्जोव--दोविहायगदि--तस--बादर--सुहमपज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-सुहदुहपंचय-उच्चागोदाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया । पृ० १६३. एत्थ सुहदुहपंचए त्ति उत्ते सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसगित्तीणं गहणं कायव्वं । एदेसि पयडीणमवत्तव्वउदीरयाणं कुदो त्थोवत्तं ? सग-सगउदीरणाण सुलहकालेण भजिदसगसगुदीरणपाओग्गजीवगहणादो। णवरि आदावुज्जोव-दोविहायर्गाद-सुहदुहपंचय-उच्चागोदाणं सग-सगुवक्कमणकालेण खंडिदसग-सगरासिमेत्तं होदि । (पृ० १६४) पुणो उवरिमभुजगारादिपदाणि सुगमाणि । णवरि आदावुज्जोवादीणं भुजगारादिपदाणं अदाओ मेकण बेसमयाओ, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ, तत्तो संखेज्जगुणमेत्ताओ च गहेयव्वाओ; अण्णहा एदेसि पयडीणं णिरयगदिभंगप्पसंगादो। पुणो जत्थ जत्थ णामपयडीणमवत्तव्व उदीरगादो भुजगारुदीरगा संखेज्जगुणा त्ति उत्तं तत्थ तत्थ असंखेज्जमेत्ताणुपुव्वीपयडीसु संखेज्जसहस्समेत्तपयडीयो कमेण भुजगारहिदि बंधाविय विवक्खिदपयडीए उवरि बंधावलियाधि (दि)क्कतं जहाकमेण संकामिय संकमणावलियाधि (दि)कंतं कमेणुदीरेमाणस्स संखेज्जसहस्समेत्ता गुणगारभूदभुजगारसमया लब्भंति । ( पृ० १६४ ) पुणो पदणिक्खेवाणुगमो सुगमो । वड्ढिअणुयोगद्दास्स तेरसअणुयोगद्दारसहगदस्स परूवणा सुगमा । णवरि तत्थप्पाबहुगम्मि अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा पंचणाणावरणस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिउदीरया [ पृ० १६४. ] त्ति उत्त बं कथं ? खवगसेढीए असंखेज्जगुणहाणिउदीरणं करेंतजीवाणमट्ठसमयाणं गहणादो । पुणो संखेज्जगुणहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६४. कुदो ? सण्णिपंचिदिएहितो आगंतूण एइंदिय-विगलिंदिय-असण्णिपंचिदिएसु चउपंचिंदिय (?) तत्थ संखेज्जवारं संखेज्जगुणं करेंति त्ति । एदं पि कुदो णबदे ? उच्चदे - सण्णि - Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम् पंजिया ( ४१ संखेज्जवस्साउगउवक्कमणकालेण संखेज्जवस्सा उगसण्णिजीवे खंडिदेगखंडं सादिरेयं तत्तो निस्सतजीवा होंति, तस्स असंखेज्जा भागा इगि विगलिंदिय असण्णी सुप्पज्ज माणजीवा होंति । पुणो उप्पण्णपढमसमय पहुडि तिविहसरूवट्ठिदिखंडयपडिबद्धअंतोमुहुत्त संचयगहणट्ठे तत्थतणउवक्कमणकालेंण उप्पज्जमाणजीवा गुणिज्जंति । किम मतो मुहुत्त कालब्भंतरे चैव संचयं घेप्पदि ? ण, तप्पा ओग्गसण्णिपंचिदियपज्जत्तसत्थाणट्ठिदमिच्छ। इट्ठि उक्कस्सट्ठिदिबंधेणुप्पण्णुक्क स्सट्ठिदिसंतं तिविहसरूवट्ठिदिखंडयघादेणंतो मुहुत्तकालेण तप्पाओग्गंतोकोडा कोडिमेत्तं जहण्णट्ठिदिसंतं वेदि । पुणो तं जहणमंतोकोडाको - डिट्ठिदिसतं तेत्तिएण कालेण द्विदिबंधउड्ढीए उक्कस्तद्विदितं करेदित्ति आइरियाणमुवदेसो अत्थि । तदो सत्थाणसण्णिजीवेसु जहा तिविहसरूवेण द्विदिखंडयघादणियमो अत्थि तहा इंदियादिणाणतो मुहुत्तमेतकालब्भंतरे संभवंति त्ति आइरियाणमभिप्पायो जाणाविय तदो तप्पा ओग्गुक्कस्सट्ठिदिसतं संखेज्जगुणहाणिखंडयघादेण पहाणीभूदेण अंतोमुहुत्तकालेन अंतोकोडिट्ठिदिसंतकरणं संभवदित्ति अंतोमुहुत्तकालब्भंतरसंचयगहणं कदं । १ पुण सव्वत्थोवा संखेज्जगुणहाणिखंडयसलागाओ, संखेज्जभागहाणिखंडयस लागाओ संखेज्जगुणाओ, असंखेज्जभागहाणिखंडयसलागाओ संखेज्जगुणाओ त्ति एदासि तिन्हं सलागाणं पक्खेवे संखेवेण पुव्वृत्तंतोमुहुत्त सूचिदरासिभागं घेत्तूण लद्धं संखेज्जगुणहाणि खंडयसलागाहि गुणिदे संखेज्जगुणहाणिउदीरगरासी होदि । तस्सेसा संदिट्ठी | २७ 1 णवरि एगुवक्कमणखंडयकालपमाणं आवलियं सगच्छेदणएहि खंडिय- ४६५५२७७२१२७ मेत्तो त्ति घेत्तव्व | अहवा इगि विगलिंदिय असण्णीसु सत्थाणेण संखेज्जगुणहाणी णत्थि त्ति भणताणमभिप्पाएण सणिपंचिदियपज्जत्तरासिभुजगा रावद्विदअप्पदरद्वाणं समूहेहिं भजिय सग-सगद्धाहि गुणिय तत्थ भुजगाररासि संखेज्जगुणवड्ढि -संखे ज्ज भागवड्ढि असंखेज्जभागवड्ढीणं वा द्वाणं समूहेण भजिय तत्थ सग-सगवारेहि गुणिय तत्य संखेज्जगुणवड्ढीहिं संखेज्जगुणहाणीयो सरिसा ति एदं वदिहाणि त्ति ट्ठविय पुणो उक्कीरणद्धा विसेसब्भंतरउवक्कमणकालेहि गुणिदे संखेज्जगुणहाणि उदीरगा होंति । तस्स ट्ठवणा २२७२ ४६५२७५२१ पुणो संखेज्जभागहाणिउदीरगा संखेज्जगुणा । पृ० १६४. कुदो? बि-ति चउरिदिय असण्णिपंचिदियपज्जत्ताणं सग-सगपाओग्गुक्कस्सट्ठिदिबंधसमाणद्विदितकम्मं संखेज्जभागहाणिखंडे घादेण (खंडयघादेण) पुव्वं व अंतोमुहुत्तकालेण सग-सगपाओग्गजहणद्विदिताणि करेंति । पुणो तं जहण्णद्विदितं पुव्वं व अंतोमुहुत्तकालेण तप्पाओदिबंध उड्ढी उक्कस्सट्ठिदिसंतमुप्पायंति । एत्थ वि तण्णियमो अत्थि, पुव्वं व तसपज्जत्तरास सगुवक्कमणकालेण खंडिदेगखंडमेत्तं एइंदिएसुप्पज्जिय तत्थ वि पुव्विल्लखंडयघादण - नियमो संभवदिति । तदो संखेज्जभागहाणिखंडयघादेण तत्थ बि-ति चउरिदिय असणसणी पाओग्गजहणट्ठिदिसंतकम्मं होदि । तत्तो हेट्ठा उव्वेलणपारंभी होदि । पुणो तक्कालब्भंतरुवक्क्रमणकालेण तक्कालसंचयागमणट्ठं गुणिय पुणो जहण्णुक्कस्सुक्कीरणद्धाविसेसब्भंतरुवक्क्रमणकालेण भजिदे संखेज्जभागहाणिउदींरया होंति । तेसिं संदिट्ठी- = २२७ ।। अथवा खेज्जगुणहाणि उदीरयाणं व संखेज्जभागहाणि उदीरयाणं च सत्थाणे ४२७७७५२७ चेव वत्तव्वं । तस्स ट्ठवणा = २२७ ४२७७५ ५ I Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ) परिशिष्ट पुणो संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६४. कुदो? उच्चदे- तसरासिमंतोमहत्तब्भतरुवक्कमणकालेण खंडिदेयखंडमेत्ता मरंतजीवा होति । तेसि पि असंखेज्जा भागा एइंदिएसुप्पज्जिय तत्तं (त्थं) तोमहुत्ते काले गदे हदसमुप्पत्तियं पारंभिय द्विदि घादिज्जमाणे जम्मि जम्मि घादिदसेससंतेण सह तसे सुप्पण्णे संते असंखेज्जभागवढिविसओ होदि । तम्मि तिण्णिबंधणदिदीणं घादेणुप्पण्णहदसमुप्पत्तियकालो त्थोवो। पुणो जम्मि जम्मि घादिदसेसट्टिदीहि सह णिस्सरिय तसेसुप्पण्णेसु संखेज्जभागवड्ढिट्ठिदी होदि, तम्मि तण्णिबंधणट्टिदिघादेणुप्पण्णहदसमुप्पत्तियकालो तत्तो संखेज्जगुणो होदि। पुणो जम्मि जम्मि घादिसेसट्ठिदीहि सह पुव्वं व णिस्सरिय तसेसुप्पण्णे संते संखेज्जगुणवड्डिउदीरणं होदि, तम्मि तण्णिबंधणट्ठिदिघादेणुप्पण्णहदसमुप्पत्तियकालं पच्छिल्लाणंतरकालादो विसेसहीणं होदि । - पुणो अंतोमुत्तकालब्भंतरे दि आवलियाए असंखेज्जभागमेत्तुवक्कमणकालं लब्भदि तो पुव्वुत्ततिविहहदसमुप्पत्तियकाले किं लभामो त्ति तेरासिए कदे तिप्पयाराणमुवक्कमणकालो कमेण लब्भदि । पूणो ताणि तिण्णि वि कालाणि एगपंतीए रचिय पूणो वि तत्थ सग-सगपतीए पमाणं पहपर टविय जिणदिदसंखेज्जसरूवेहि खंडिदे सग-सगेगगण हाणीणं अद्धाणमप्पज्जदि । पुणो पुव्विल्लसमयपंतीणं पढमसमयप्पहडि जाव चरिमसमयो त्ति ताव जीवाणमवट्ठिदकमो उच्चदे। तं जहा- तसजीवेहिंतो एइंदिएसुप्पज्जिय अंतोमुत्तकाले गदे हदसमुप्पत्तियं पारभदि। पारद्ध संते तं दोगुणहाणीए खडिदेसु विसेसो आगच्छदि। तं दोगुणहाणीए गुणिदे पढमसमयट्ठिदजीवा होति । तं पडिरासि ट्रविय विसेसे अवणिदे बिदियसमयणिसेयं होदि। पुणो तं पडिरासिं द्वविय एगविसेसमवणिदे तदियसमयणिसेयं हीदि । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं होदूण कमेण रचिदसमयं पडि णिसेयो(या)आगच्छंति जाव एगगुणहाणिमेत्तद्धाणेसु रचिदसमएसु गदो त्ति । पुणो पढमणिसेयादो एगमद्धं होदि एवमुवरुवरि जाणिय वत्तव्यं जाव संखेज्जभागवड्ढि उदीरणसमयहदसमुप्पत्तियकालमपढमसमयो त्ति । तमादिमणिसेयादो संखेज्जगुणहीणं होदि । पुणो तं तत्थतणदोगणहाणीए खडिय विसेसमप्पाइय पणो दोगणहाणीए गणिय तत्थतणपढमणिसेयमप्पाइय पुणो तत्तो उवरिमणिसेयाणं रचिदसमयं पडि पुां व विसेसहीण-विसेसहीणकमेण णेदव्यं जाव संखेज्जगणवडिढविसयहदसमप्पत्तियकालपढमणिसेयो त्ति । एदं णिसेयं संखज्जभागवडिढणिबंधणहदसमप्पत्तियकालपढमणिसेयादो संखेज्जगणहीणं होदि । - पुणो एत्थ वि दोगुणहाणीयो ढविय पुष्वं व रचिदसमएसु णिसेयाणि उप्पाइय णेदव्वाणि जाव हदसमुप्पत्तिएण णिप्पण्णकालचरिमसमयादो अणंतरस्स अणुवेल्लिज्जमाणकालपढमसमयो त्ति । पुणो एवं णिसेयं पुव्वं व पुग्विल्लपढमसमर्याणसेयादो खेज्जगुणहीणो त्ति वत्तव्वं । पुणो एवं द्विदितिप्पयाराणं हदसमुप्पत्तियकालपडिबद्धणि सेएसु सव्वेसु वि पुह पुह एगेगविसेसा एईदिएहितो णिस्सरिय तसेसुप्पज्जति त्ति । तदो ताणि तिण्णि वि हदसमुप्पत्तियकालपडिबंधा[बद्धा]णि पुह पुह मेलाविदे संखेज्जगुणहीणकमेणेइंदियादो णिस्सरंति। ताणि संदिट्ठिए एत्तियाणि होति | = | = | ।। | ४३ | ४३७४३७७ पुणो तिविहेसु हदसमुप्पत्तियकालपडिबद्धणिसेएसु समयं पडि समयं पडि पुह पुह आदिणिसेयं पविसरंति। चरिमणिसेया पुण पुविल्ला णिस्सरियूण गच्छंति, अण्णा अपुब्बा पविसंति। तदो ते सव्वे मेलाविदे दिवड्ढगुणहाणिमेत्तसग-सगपढमणिसेया धुवरूवेण सव्वकालं होंति त्ति Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ४३ गेण्णियव्वं । कथमेदं णव्वदे ? एदम्हादो चेवप्पाबहुगवयणादो णव्वदे। पुणो एवं द्विदहदसमुप्पत्तियजीवेसु तसेसुप्पण्णणेसु संखेज्जगुणवड्ढि करेंतत्थ जीवा एत्थ होंति त्ति गेण्हियव्वं । तस्ससंदिट ! = ४२७७ || [४३७ पुणो संखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा (मू०असंखेज्जगुणा)।पृ० १६४. कुदो? संखेज्जभागवड्ढिविसयहदसमुप्पत्तियकालम्मि ट्ठिदिपुब्विल्लकमेण बहुधा एइंदियादो अविण?तससंसकारादो पुव्वं व णिस्सरिय तसेसुप्पज्जमाणरासी संखेज्जभागवड्ढि करेंति त्ति गेण्हिदव्वमिदि उत्तं होदि । तं चेत्तियं । ३ = || पुणो उवग्मितिण्णिपदाणि | ३ । सुगमाणि । अहवा ट्ठिदिखंडयं दुविहपयारं लच्छियण द्विदतसजीवे एइंदिएसुप्पण्णे मोत्तूण सेसे एइंदिएसु संखेज्जभागहाणी णत्थि त्ति अभिप्पायेण सत्थाणेण सण्णीसु संखेज्जगुणहाणिउदीरयाणं संखेज्जभागहाणिउदीरयाण पमाणं एवं वत्तव्वं । तं जहा- तत्थ सण्णिपंचिंदियपज्जत्तजीवा पहाणा त्ति कट्ट तं रासि छविय अवट्ठिदिसंतादो हेट्ठिमट्ठिदिबंधंतसादासादबंधगजीवा (वि) संखमवणिय पुणो भुजगारवट्ठिदप्पदरद्धाणाणं पक्खेवाणं संखेवेहि भजिय भुजगारपक्खेवेण गुणिय पुणो वट्टमाणसमए जीवेहि संकिलेसक्खएण संखेज्जगुणवढिपरिणामपरिणदा ते थोवा, तत्तो संखेज्जभावढि उदीरणणिबंधणपरिणामपरिणदा संखेज्जगुणा, तत्तो असंखेज्जभागवड्ढि उदीरणणिबंधणपरिणामपरिणदा ते संखेज्जगुणा होंति। तेहिं पक्खेवसंखेवेहिं भजिय तेहिं चेव पक्खेवेहि गणिदे सग-सगरासयो आगच्छति । पुणो तत्थ संखेज्जगुणवढि-संखेज्जभागवढि उदीरयाणं दुप्पडरासिं पुह पुह ठुविय जहण्णुक्कस्सुक्कीरणद्धाविसेसभंतरुवक्कमणकालेण भजिदे दोण्हं हाणिउदीस्या होति । तेसिं ट्ठवणा । = २२ । २ २ ४ । पुणो संखेज्जगुणवड्ढिखेज्जभागवड्ढिउदीरया । एत्तो उव-|४६५२२५२१३७/४६५२७५२१३७ | रि पूर्व व वत्तव्वं । अहवा एत्थतणसखेज्जगुणवड्ढी संखज्जभावड्ढी च घेत्तव्वाओ। उवरिपदाणि पुव्वं व वत्तव्वाणि अहवा वाराणि धरिय आणेदवाओ। तं जहा- पुव्वाणिदभुजगाररासिं ठविय पुणो गोवा संखेज्जगणवढि उदीरणवाराओ, संखेज्जभागवडिढउदीरणाओ संखेज्जगणाओ, असंखेज्जभागवडिढउदीरणवाराओ संखेज्जगणाओ इदि । एदेहिं पक्खेव-संखेवेहि भजिय सगसगपक्खेवेहिं गुणिय पुणो संखज्जगुणहाणि-संखेज्जभागहाणि उदीरया सग-सगवड्ढि उदीरएहिं अणुसरिसाओ होति त्ति कारणं । एदेसि ट्ठवणा एत्तिया । = २ २ । = २ २ ४ । एत्तो उवरिमपदाणं किरिया पुव्वं व जाणिय वत्तव्वं । ४६५२७५२१ | ४६५२७५२१ ! पुणो णिद्दाए वेदगो टिदिघादं ण करेदि। ( पृ० १६५ ) त्ति उत्ते एत्थ ट्ठिदिघादं णाम संखेज्जभागहाणीए णिबंधणट्टिदीणं संखेज्जगुणहाणीए णिबंधणदिदीणं च घादो द्विदिघादो णाम । ताणि णिद्दोदए णत्थि ति उत्तं होदि। किमळं ते तत्थ णस्थि ? पुवुत्तदुविहपयारखंडयधादणिबंधणतिव्वविसोहीणं णिहोदयेण संभवंति त्ति । पुणो एदं खवगुवसमसेडीए णिहाए उदए णत्थि ति भणंताभिप्पाएण उत्तं, अण्णहा जहण्णाणुभागउदीरणासामित्तेण विरोहप्पसंगादो। पुणो असंखेज्जभागहाणिणिबंधणट्ठिदिखंडयघादो अस्थि त्ति (तं ? ) कुदो णव्वदे? हद__ समुप्पत्तियं करेंतट्ठिदएइंदिएसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेसु णिद्दुदीरणाए पडिसेहाanelibrary.org Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४) परिशिष्ट भावादो, णिदीरणाए संभवे संते तत्थ हदसमुप्पत्तियकिरियपडिसेहाणुवलंभादो च । पुणो दिदिबंधं बंधदि । पृ० १६५. त्ति उत्ते तिव्वसंकिलेसणिबंधणभुजगारप्पदरावट्टिददिदिबंधं मोत्तण सेसपरिणामणिबंधणभुजगारप्पदरावट्ठिदसरूवदिदि संतस्स तिविहसरूववढिणिबंधणं णिदुदीरणाए संभवदि त्ति उत्तं होदि। तं कुदो णव्वदे? ण, तेसि णिबंधणमंदसंकिलेसाणं णिदुदीरणाए संभवोवलंभादो। पुणो बज्झमाणट्ठिदिपमाणपरूवणठं वड्ढीणं संभवविहाणपरूवणठं च उत्तरगंथमाह-- पुणो असादस्स चउट्ठाणियजवमज्झादो संखेज्जगुणहीणो त्ति । पृ० १६५. एदस्सत्यो उच्चदे- असादस्स चउट्ठाणजवमज्झमज्झिमजीवणि सेयट्टिदद्विदीदो संखेज्जगुणहीणं होदूण ट्ठिदअसादबिट्ठाणियजवमज्झणिबंधणट्ठिदिबंधाणि बंधदि त्ति उत्तं होदि । णवरि एदेण वयणेण असादबिट्ठाणियजवमज्झमज्झिमणिसेयादो हेट्ठा गुणहाणीए अांखेज्जभागमेत्तमोसरियूण ट्ठिदअसादट्ठिदिसंतादो समाणट्ठिदिबंधट्ठिदजीवणिसेयप्पहुडि जाव जवमज्झादो उवरि वि गुणहाणीए असंखेज्जभागमेत्ताणं असादबिट्ठाणजवमज्झट्ठिदीणं बझंतरिदो असंखेज्जभागवड्ढि-संखेज्जभागवड्ढिणिबंधणाणं उरिमट्ठिदीयो बंधति । तत्तो उवरिमट्ठिदीयो बंधतो असंखेज्जभागवड्ढिबंधणट्ठिदीयो बंधति, ण संखेज्जभागवड्ढिणिबंधणट्ठिदीयो बंधदि । कुदो ? तत्तो उवरिमट्ठिदिबंधणिबंधणपरिणामविवेगसहायसुहसरूवणिद्दोदयम्मि ण संभवंति । तत्तो उवरिमट्ठिदिबंधाणि असादस्स णत्थि त्ति णवदे। एत्थ चोदगो भणदि- असादचउट्ठाणजवमज्झादो हेट्ठिमट्ठाणाणि सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताणि । पुणो तस्स तिट्ठाणजवमज्झस्स हेटुवरिमट्ठाणाणि कमेण सागरोवमपुधत्तं २ चेव । एवं बिट्ठाणियाणं पि। एवं संते एदेसि समूहं पि सागरोवमसदपुधत्तं चेव होदि । होतो वि धुवट्टिदीए संखेज्जभागमेत्ताणि होति । पुणो ताणि धुवट्ठिदिम्मि संजोइहे सादिरेयं होदि ताणि चेवावणिदे कथं संखेज्जगुणहीणं होदि त्ति? ण, असादच उट्ठाणजवमज्झादो हेट्ठिमट्ठाणाणि वि इच्छाणिद्देसेण संखेज्जसागरोवमसदपुधत्तमेत्ताणि त्ति गंयकत्ताराभिप्पायेण गहिदत्तादो। पूणो अंतोकोडाकोडीए हेटादो त्ति । पृ० १६५. एदमेव संबंधेयव्वं-- सादं बंधतो तप्पाओग्गुक्कस्संतोकोडाकोडीए हेट्ठदो चेव दिदिबंधं बंधदि, ण उवरिममिदि। पुणो बंधंतो सादस्स तिहाणिय-चउढाणियं ण बंधदि त्ति । पृ० १६५. एदस्सत्थो-- णिहस्सुदीरणाए विवेगविरहिदाए तिव्वविसोही ण संभवदि त्ति एदेण असादस्स धुवट्टिदिसंतादो हेट्ठिमाणि जाणि सादस्स बिठ्ठाणियाणं द्विदीयो ताणि ण बंधदि त्ति एदं पि सूचिदं । कधमेदं णव्वदे ? जिद्दोदएण संतस्स हेट्ठिमट्ठिदिबंधकारणविसोहीए (ओ)मिच्छाइट्ठिस्स ण होति त्ति । पुणो सादस्स दुढाणिया ण (-णि) बज्झदि । पृ० १६५ः एदस्सत्थो उच्चदे-- सादस्स बिट्ठाणियजवमज्झाणि मज्झिमविसोहिणिबंधणतिविहवढिसरूवेण बज्झदि त्ति उत्तं होदि । पुणो एवं णिहाढिदिउदीरणवड्ढि अप्पाबहुगस्स सहाणं (साहणं)भणिदापृ०१६५. एवं सुगमं । कथमसादस्स ट्ठिदिबंधे असंखेज्जभागवड्ढि संखेज्जभागवड्ढीए बिट्टाणियजवमझंब्भंतरे चेव सादस्स ट्ठिदिबंधे तिविहसरूववड्ढीए सगबिट्टाणियजवमज्झभंतरे चेव होदि त्ति परूवणादो। For Private & Personal use only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ४५ अप्पा बहुगं । तं जहा - सव्वत्थोवा णिद्दाए संखेज्जगुणवड्ढि उदीरया । पृ० १६५. कुदो ? असादस्स बिट्ठाणियजवमज्झमज्झिमणिसेयादो हेट्ठा उवरि च गुणहाणीए असंखेज्जभागमेत्तणिसेयट्ठिदीसु द्विदणिदुदीरयजीवो तस्स सव्वद्वाणियजीवाणमसंखेज्जदिभागत्ता होदि । तत्थ जदि बिट्टाणियजवमज्झजीवपमाणं जाणिज्जदि । णवरि एत्थ ताव जवमज्झजीवपमाणं चेव ण जाणिज्जदि । पुणो तस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीत्रपमाणं सुतरामेव जाणिज्जदि । तं पुणो एत्थुद्दे से सादासादाणं तिष्णं जवमज्झाणं जीवणिसेयरचणं अप्पाबहुगसाहट्टं वत्तइस्सामा । तं जहा- सव्वत्थोवा सादबंधगा । २७ ।। असादबंधगद्धा संखेज्जगुणा । २७४ । । पुणो एदासि दोन्ह अद्धाणं पक्खेवसंखेवेणेत्तियमेत्तेण । ३७५ । सण्णिपंचिदियपज्जत्तरासिमोवट्टिय अप्पप्पणी अद्धाहि गुणिय सरिसगुणगार-भागहाराणं अवणयणे कदे सादासादाण बंधरासीयो होंति । तेसिमेसा असाद । चउ टुवणा = = ट्ठाण ४६५५ | ४६५५ जोवा संखेज्जगुणा ४। पुणो एदेसि दोण्हें पक्खेबसंखेवेणेत्तियमेत्तेर्ण ५ पुव्वा दि- असाधगरासिमोवट्टिय अप्पप्पणी पक्खेवेहि गुणिदे बिट्ठाणजव मज्झ तिट्ठाणजवमज्झजीवा होंति । ते सिमेसा टूवणा | = मस्स असंखेज्ज- |४६५५५ ४६५५५ ! दिभागेण खंडेदूणेगखंडं पुह ट्ठविय बहुखंडाणि सरिसबेपुंजे = ४४ | | पुणो एदं तिट्ठाण - चउद्वाणजवमज्झजीवाणं पमाणं पलिदोव५६५ ४६५५५ । करिय अवणिदेयखंडं पढमपुंजे पक्खित्ते तिट्ठाणजवमज्झजीवपमाणं होदि । बिदियपुंजा ( जो ) वि च उट्ठाणजवमज्झजीवपमाणं होदि । तेसि दृवणा | ८६५५५९२ | ४६५५५९२ = = ४४ ८ 1 पुणो एत्थ ताव बिट्ठाणियजवमज्झजीवाणं जवमज्झागारेण णिसेगरचणं भणिस्सामो । तं जहा - एदे सव्वे वि बिट्ठाणियजव मज्झजीवा जवमज्झमज्झिमणिसे पमाणेण कदे तिण्णिगुणहाणिमेत्ता जवमज्झमज्झिमणिसेया होंति त्ति तीहि गुणहाणीहि एदेसि जीवाणं भागे हिदे जव - मज्झमज्झिमजीवणिसेयपमाणं होइ । पुणो जवमज्झट्ठिमणाणागुणहाजिस लागाणमण्णोण्णब्भत्तरासिणा भागे हिदे जवमज्झजहण्णट्ठिदिपडिबद्धजीवपमाणं होइ । पुणो गुणहाणि विरलिय जवमज्झजहण्णट्ठिदिपडिबद्धजीवपमाणं समखंड करिय दिपणे रूवं पडि एगेगविसेसपमाणं पावदि । तत्थ पढमरूवद (ध) रिदं घेत्तूण पडिरासिदजवमज्झ जहणद्वाणजीवपमाणम्हि पक्खित्ते पिबद्धट्ठाणजीवपमाणं होदि । तं पि पडिरासिय बिदियरूवधरिदे पक्खित्ते तदियट्ठाणजीवमाणं होदि । एवमुप्पण्णुप्पण्णरासि पडिरासि करिय तदियादिरूवधरिदाणि पक्खित्रिय दव्वं जाव सयलरूवधरिदाणि णिट्ठिदाणिति । एवं कदे पढमगुणहाणि बोलाविय बिदिय गुणहाणिआदिणिसेगो त्ति रचणा जादा । पुणो तिस्से चेव अवद्विदविरलणाए बिदिय - गुहा पिढमणियमाणं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि बिदियगुणहाणिपडिबद्ध पक्खेपमा पढमगुण (हाणि) पक्खेवपमाणादो दुगुणमेत्तं होदूण पावदि । तदो बिदियगुणहाणिपढमणिसेयं पडिसिय विरलणाए पढमरूवधरिदं पक्खित्ते बिदियगुणहाणिबिदियणिसेयपमाणं पावदि । तं पिपरासिय बिदियरूपधरिदे पक्खित्ते तदियणिसेयं होदि । एवमुप्पण्णुप्पण्णणिसेगे पडिरासिय तदियादिसव्वविरलणरूवधरिदपक्खेवरूवाणि जहाकमेण पक्खित्ते बिदियगुणहाणि बोलियूण तदियगुणहाणिपढमणिसेया त्ति सव्वाणिसेगाणं रचणा समुप्पण्णा भवदि । पुणो एदेणुवायेण उवरिमसव्वगुणहाणीणं णिसेयरचणा अव्वामोहेण कायव्वा जाव जवमज्झमज्झिमणिसेगं पत्ता त्ति | पुणो जवमज्झादो उवरि णिसेगरचणे कीरमाणे दोगुणहाणीओ विरलिय जवमज्झमज्झिम Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट णिसेगस्स समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि जवमज्झउरिमपढमगुणहाणिपक्खेवं पावदि । पुणो जवमज्झमज्झिमणिसेगं पडिरासिय विरलणपढमरूवधरिदे अवणिदे तदणंतरउवरिमणिसेगो होइ । तं पि पडिरासिय विरलणबिदियरूवधरिदे अवणिदे तदियणिसेगो होइ । एवमुप्पण्णुप्पण्णरासिं पडिरासिय विरलणतदियादिरूवधरिदाणि अवणेदव्वाणि जाव विरलणाए अद्धं गदं ति । ताहे जवमज्झउवरिमपढमगुणहाणिपढमणिसेगो उप्पण्णो पुणो गुणहाणिमेत्तउव्वरिदविलणाए उपरि ट्ठिदिरूवाणि अच्छिय अणादेयविरलणरूवेसु दिण्णेसु सव्वविरलणाए जवमज्झपक्खेवस्स अद्धपमाणं पावदि। पुणो बिदियगुणहाणिपढमणिसेयं पडिरासिय विरलणाए पढमरूवधरिदे अवणिदे बिदियगुणहाणिबिदियणिसेगो उप्पज्जेज । तं पि पडिरासिय विरलणबिदियरूवधरिदे ( अवणिदे। तदियणिसेगो होइ । एवमुप्पण्णुप्पण्ण रासि पडिरासिय तदियादिविरलणारूवधरिदाणि अवणेदव्वाणि जाव विरलणाए अद्धमेत्तं गदा त्ति । ताहे बिदियगुणहाणि बोलियूण तदियगुणहाणीए पढमणिसेगो उम्पज्जदि । एवं तदियगुणहाणिप्पहुडि जाव चरिमगुणहाणि त्ति उवरिमसव्वगुणहाणीणं णिसेगरचणा जाणिदूण कायव्वा । तदो तिढाणिय-चउढाणियजवमज्झाणं पि एदेण कमेण अप्पप्पणो पडिबद्धजीवरासिं णिरूंभिय णिसेगरचणा कायव्वा । सादस्स वि एवं चेव जवमज्झणिसेगपरूवणा कायव्वा । णवरि चउढाणिय-तिहाणियबिढाणियजवमज्झसरूवेण उवरुवरि परूवणा कायव्वा । जीवरासिविभंजणमेवं कायव्वं । तं जहा. सव्वत्थोवा सादस्स चउट्ठाणबंधया जीवा। १ ।। तिट्ठाणबंधया जीवा संखेज्ज संखेज्जगुणा । ४ ।। बिट्ठाणबंधया जीवा संखेज्जगुणा । १६ । । एदेसि तिण्हं पक्खेवाणं संखेवेण सादबंधगरासिमोवट्टिय लद्धमप्पप्पणो पक्खेवेहिं गुणिदे जहाकमेण चउट्ठाण-तिट्ठाण-बिट्ठाणबंध (य) जीवा होति । एदेसि तिण्हं पि जवमज्झजीवाणं जवमज्झागारेण णिसेगरचणं जहा असादस्स परूविदं तहा वत्तव्यं । पुणो पच्छा सादासादपडिबद्धछण्णं जवमज्झाणं संदिट्ठियादिरचणं सव्वं कालविहाणम्मि उत्तकमेण वत्तव्वं । पुणो एवमाणिदसादबिट्ठाणियजवमज्जीवरासिं पुष छविय असादबिट्ठाणिय जीवरासि तिण्णिगुणहाणीहिमोवट्टिदे जवमज्झमज्झिमजीवणिसेयपमाणं होदि । एदम्हादो हेट्ठा उवरि च गुणहाणीए असंखेज्जभागमेत्तजीवणिसेगाणमागमण8 गुणहाणीए असंखेज्जदिभागेण किंचूणेण जवमज्झमज्झिमजीवणिसेगं गुणिदे एत्थतणणिदुदीरयभुजगारप्पदराव टुदरासिपमाणं होदि । तस्सेसा संदिट्ठी। ४ ।। पुणो सव्वत्थोवा भुजगारुदीरणद्धा । २ ।। अवट्ठिद उदीरणद्धा ४६५५५३३॥ असंखेज्जगुणा । २७ । । अप्पदरुदीरणद्धा संखेज्जगुणात्ति । २७४ । । एदासि तिण्हमद्धाणं पक्खेवसंखेवेणेत्तिमेतेण । २७५ । । पुव्वाणिदरासिं भागं घेत्तूण अप्पप्पणो पक्खेहिंगुणिदे भुजगारवट्ठिदपदररासयो हवंति । तेसिमेसा ढवणा - ४ | २२ / % २७ ४| २ | = २७४४| २ || |४६५५५३२/२२५/४६५५५३०/२७५७६५५५३३| २७५/ पुणो भुजगाररासिं ठविय तस्स सव्वत्थोवाओ संखेज्जभागवड्ढिउदीरणवाराओ। संखेज्जभागवड्ढिउदीरणवारा (ओ) संखेज्जगुण (णा)ओ। ४ ।। एदेसिं पक्खेवसंखेवेण भागं घेत्तूण लद्धं दुप्पडिरासिं करिय अप्पप्पणो पक्खेवेहिं गुणिदे तत्वेगभागो संखेज्जभागवड्ढि उदीरया होति। तेणेदे उवरि उच्चमाणअप्पाबहुगपदेहितो थोवो त्ति सुभणिदं । तेसिं पमाणमेदं - ४ । २२ ।। ४६५५५३२ २७५५ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७। संतकम्मपंजिया ( ४७ पुणो सव्वत्थोवा भुजगारबंधगद्धा। २ ।। अवट्ठिद० । २७ । । अप्पदर० | ४ || एदेसि तिण्हं पक्खेव-संखेवेणेत्तियमेत्तेण - तस्स पुह विदरासिस्स भागं घेत्तूण लद्धमप्पणो पक्खेवद्धाहि गुणिदे भुजगारादिरासयो होति ॥ २७५ तेसिमेसा ढवणा = १६ २२ | २७ १६ २०%२२४२६२२|| पुणो एत्थतणभुजगाररासि तप्पाओग्गं(ग्ग-)असंखेज्ज-४६५५२१२७५/०६५५२१२७५४६५५२१२७५/ रूवेहि खंडिदे बहुखंडाणि संखेज्जगुणवड्ढि उदीरया होति । कुदो ? मंदविसोहिणा जादत्तादो। तेसिं संदिट्ठी | = ५ १६२२० पुणो सेसेगखंड पि संखेज्जरूवेहि खंडिय तस्स बहुखंडाणि संखेज्जभागवडिढ- | ४६४५२१२७५६ उदीरया होति। सेसेगखंडं पि असंखेज्जभागवडिढउदीरया होति । कथमे थोवत्तं? ण, णिद्दोदएण सुहसरूवपरिणयजीवेहि सादबिढाणियजवमज्झट्टिदीयो बंधमाणेहिं परिणदपरिणामा जेण मंदविसोहीयो भणंति तेण कारणेग सादस्स तिढाण-चउढाणाणि णिद्दोदएण बज्झंति, तेसिं तिव्वविसोहीए बज्झमाणत्तादो। अदो चेव कारणादो संखेज्जगुणवढिपाओग्गउवरिममंदविसोहीहितो हेट्ठिमसुद्ध-सुद्धतरपरिणामणिबंधणाणं दो वड्ढीयो करेंतजीवाणं अदीव त्थोवत्तं जादं । कथमेदं णव्वदे ? अप्पाबहुगसाहणपरूवणादो अप्पाबहुगादो च। तेसिं दोण्हं पि संदिट्ठी | = १६ २ २ ४] = १६ २२ ।। ४६५५२१२७५९५ | ४४५५२१२७५९५ । एदमणेणावहारिय अग्पाबहुगं (ग) सुत्ता (व)यारो भणदि । तं जहा सव्वत्थोवा संखेज्जभागवड्ढिउदीरया। संखेज्जगुणवा (व)ड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६५. सुगमं । अण्णत्थ सम्वत्थ वि संखेज्जभागवड्ढिउदीरएहितो संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणहीणा त्ति उत्तं । कथमेत्थ तेहितो असंखेज्जगुणा जादा ? ण, सुहसरूवणिद्दोदयसहगदबंधजोग्गविसोहिपरिणामेसु परिणमिय साद (दं) बंधमाणाणं गहणादो । ( पृ० १६५ ) पुणो उवरिमअसंखेज्जभागवड्ढि-अवत्तव्व-अवट्ठिदप्पदरादीणं उदीरणप्पाबहुगपदाणि सुगमाणि। पुणो मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्वउदीरया। पृ० १६६. कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो। तं कथं णव्वदे ? आवलि. असंखेज्जभागमेत्तअप्पणो उवक्कमणकालेहिं उववट्ठिद (ओवट्टिद)सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिदि-असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासजदरासीणं समूहस्स पमत्तसंजदरासीए संखेज्जदिभागहियस्स सह गहणादो। पुणो संखेज्जगुहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६६. ____ कुदो ? सण्णिपंचिंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं सत्थाणेण ट्ठिदाणं संखेज्जगुणहाणि करेंताणं इह गहणादो। तं कधं? सण्णिपंचिंदियरासिं ठुविय । ४६५ । एदं भुजगारावट्ठिदप्पदरद्धाहि एत्तियमेत्ताहिं | २ | भागं घेत्तूण लद्धमप्पप्पणो अद्धाहि गुणिदे भुजगारादिरासियो होति । तेसिमेसा ट्रवणा | २७५ % २२% २७ २] = २७४२ ।। |४६५२७५४६५२७५/४६५२७५ | पुणो सत्थाणे सण्णिपंचिंदियपज्जत्तजीवाणं संखेज्जगुणहाणिखंडयवाराओ थोवाओ। १ ।। सांखेज्जभागहाणिखंडयवाराओ संखेज्जगुणाओ। ४ ।। असंखेज्जभागहाणिखंडयवाराओ संखेज्ज Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ) परिशिष्ट गुणाओ त्ति । १६ । । एदासि तिन्हं बारसलागाणं पवखेव-संखेवेण पुव्वाणिदभुजगाररासि भाग घेत्तूण लद्धमप्पप्पणी सलागाहिं गुणिदे तिणि वि रासओ होंति । तेसिमेसा ट्ठवणा = २२ | = २२४ = २ २ २६| | पुणो एत्थ संखेज्जगुणहाणि खंडयघादं करें जीव (वा) | ४६५२७५२१ | ४६५२७५२१ । ४६५२७५२१ संखेज्जगुणहाणि उदीरयो (या) त्ति घेत्तव्त्रं । तेसि पमाण= २ २ १ | मेदं । पुणो पदरस्स संखेज्जदिभागमेत्त (त्ता) एस रासी पुव्वुत्तपलिदोवमस्स असं४६५२७५२१ | खेज्जदिभागमेत्तावत्तव्वुदीरगरासी दो असंखेज्जगुणा त्ति णत्थि संदेहो । पुणो संखेज्जभागहाणिउदीरया (अ) संखेज्जगुणा । पृ० १६६. कुदो ? सत्थाणट्ठिदस कसाइयपज्जत्तापज्जत्तरासिम्मि संखेज्जभागहाणि कुणंतजीवाणं पहाणभावेण भुवगमादो । तं कथं ? भुजगारावद्विदप्पदरद्धाहिं स (सा) मण्णतसरासिं भागं घेत्तूण लद्धमप्पप्पणी अद्धाहि गुणिदे भुजगारादिरासयो होंति । पुणो सव्वत्थोवाओ संखेज्जभागहाणिखंडयसलागाओ । १ । । असंखेज्जभागहाणिखंडयघादसलागाओ संखेज्जगुणाओ ति । ४ ।। एदासि सलागाणं पक्खेव संखेवेण पुव्वाणिदभुजगाररासि भागं घेत्तूण लद्धमप्पप्पणी सलागाहि गुणसंखेज्जभागहाण असंखेज्जभागहाणि रासीओ होंति । तेसिमेसा ट्ठवणा = २२ | = २२४|| पुणो एत्थ पढमरासि (सी) संखेज्जभागहाणिउदी रंगरासिपमाणं होंति त्ति ४२७५५ ४२७५५ घेत्तव्वं । पुणो एसो रासी पुव्वत्तसण्णिपज्जत्तरासिस्स असंखेज्जभागमेत्तसंखेज्जगुणहाणि (णि) उदीगररासीदो असंखेज्जगुणो त्ति णत्थि एत्थ संदेहो । जदि एवं घेप्पदि तो णाणावरणादीनं पि एसत्थो किं ण परूविदो ? ण, तत्थ वि एसत्यो परूवेदव्वो । | ३ ४३ ( पृ० १६६ ) तदो उवरिमप्पा बहुगपदाणि जाणिय पुव्वं व वत्तव्वाणि । पुणो सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिउदीरया । पृ० १६६. कुदो ? दंसणमोहक्खवय संखेज्जजीवगहणादो | पुणो अवद्विदउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६६. कुदो ? वेदगसम्मत्तस्स द्विदीदो समउत्तरं बद्धमिच्छत्तद्विदीए घादेणुप्पण्ण तद्विदीए वा धरिय द्विदजीवाणं सम्मत्ते पडिवण्णे अवट्ठिदउदीरया होंति । तदो तेण सरूवेण सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं असंखेज्जवियप्पाणं असंखेज्जपमाणाणं मज्झे ताव मिच्छत्तमवट्ठिदीए समाणसम्मत्तसम्मामिच्छत्तट्ठिदी हि सह सम्मत्तं पडिवज्जमाणजीवपमाणं ताव उच्चदे । तं जहा - अंतोमुहुतब्भंतरे जदि आवलियाए असंखेज्जदिभागं उवक्कमणकालं लब्भदि तो असंखे० आवलियमेत्तसम्माइट्ठिसंचयकालब्भंतरे किं लभामो त्ति तेरासिएणाणिदावलियाए असंखेज्जदिभागेण वेद सम्मादिट्ठिरासि खंडिदे तत्थेगखंडं मिच्छत्तं गच्छमाणजीवपमाणं होदि । ते च मिच्छत्तं गंतूणंतोमुहुत्तकालमुव्वेल्लणाए अप्पाओग्गा होदूण अच्छमाणे कहिं संखेज्जगुणहाणीए कहि संखेज्जभागहाणीए कहिं असंखेज्जभागहाणीए चट्ठिदिखंडयाणि अच्छिऊण सम्मत्ते पडिवण्णे तिविहहाणीए सम्मत्तस्स उदीरया होंति । पुणो सत्याणेण मिच्छाइट्ठिणा तिविहकम्माणं तिविहहाणीए ट्ठदिखंड घादिय सम्मत्ते पडिवण्णे अवट्ठिदउदीरया होंति । पुणो सम्मत्त सम्म मिच्छत्ताणं द्विदीहितो मिच्छत्तट्ठिदिं तिविहसरूवेण वड्ढियूण बंधिय ट्ठिदो संतो सम्मत्ते पडिवण्णे तिविहवड्ढिसरूवेण सम्मत्तस्सुदीरया होंति । एवं अंतोमुहुत्ते काले गदे उव्वेल्लणकिरियं पारभदि । पुणो पारभिय पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण कालेण पुव्विल्लघादिदसेसाणमंतोकोडाकोडिआदिट्ठिदीए उष्वेल्लिज्जति । तं जहा -- पलिदोवमद्धच्छेदणयस्स Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ४९ असंखेज्जदिभागमेत्तुव्वेल्लणट्ठिदिखंडएण अंतोमुहुत्तद्ध(ब्भ)हिएण ताव सम्मत्तमवट्ठिदिमेव अवट्ठिय अंतोमुहुत्तेण गुणिदे उव्वेल्लणकालो एत्तियो होज्ज ! अ२७|| ो एदं उव्वेलणखंडयपमाणं |छे | पल्लासंखेज्जदिभागमेत्तं उव्वेल्लणखंडयं| प। २७] इदि परूवयगंथेण सह विरुज्झदि । _I किंतु गंथंतराभिप्पायमिदि परूवेदव्वं । २ | पुणो एदम्मि काले सम्मत्तादो मिच्छत्तमुवक्कमिय उज्वेल्लिज्जमाणजोवपमाणमाणिज्जते। तं जहा- अंतोमुत्तकाले जदि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तउवक्कमणकालो लब्भदि तो पुवुत्तुव्वेलणकालम्मि किं लभामो त्ति तेरासिएणाणिदे एत्तिंयमवक्कमणकालं होदि | अ || पुणो एदं तेरासिएणेगसमय उवक्कमंतपल्लासंखेज्जदिभागेण गुणिदे एत्तियं होदि | छे | प अ । एदमंतोकोडाकोडिमेत्तट्टिदिवियव्वे(प्पे)हिं भागे हिदे तत्थ लद्धमेत्तमेगेग-| २२२ळे २२ ट्रिदीए ट्रिदजीवा होति। ते चेत्तिया । प | छ।। पूणो एत्तिया चेव । र मिच्छत्तधुवट्टिदीए समाणसम्मत्तट्टिदीए द्विदजीवा|२२२।२२। होति । पुणो उव्वेलणकिरियमप..... ध अंतोमुत्तकालेण संचिदमिच्छाइटिजीवा एत्तिया होति । प ।२७। । पुणो एदेहिं जीवेहि असुण्णं होदूग द्विददिदिपमाणं उक्कस्सेण एत्थ संचिदजीव- २२२। पमाणमेत्तं होदि । एदमसा (म) ण्णसरूवं चेव। पुणो सरिसट्ठिदीए ह्रिदजीवा सामण्णा णाम । ते एत्थ णत्थि । पुणो दोसामण्णट्ठिदीए संते सेसा दुरूऊणमसामण्णा ट्ठिदी होदि । पुणो सामण्णट्ठिदीए एगेगुत्तरं कादूण वड्ढावियमसामण्णट्ठिदीयो एगेगहीणं करिय णेदव्वं जाव' सामण्णट्ठिदि (दी)तप्पाओग्गुक्कस्सपमाणं पत्ता त्ति। ते च केत्तिया ? धुवट्ठिदीए द्विदजीवसंखादो थोवमेत्ता होंति। तं कुदो णव्वदे ? ण, तत्तु (त्थु )व्वेल्लणट्ठिदजीवसंखादो एत्थतणजीवसंखाए त्थोवत्तादो पुणो तत्थतणट्ठिदिसंताणं बहुत्तुवलंभादो। तदो तत्यतगजीवसंखं अप्पाबहुगेण असंखेज्जरूवेण खंडिदमेत्तं होति । पुणो.. .... ण द्विदीए ट्ठिदजीवेण सादिरेयं करिय पुणो एदं पुव्वाणिदुवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण डिदेगखंडमेतं अवट्टिदउदीरया होति । तं चेदं। प ।छे २ | २२२/ २२ पुणो असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६६. कुदो? उच्चदे- धुवट्ठिदीदो हेट्टिमट्ठिदीसु टिदासेसजीवा मज्झे ?विय तेरासियमेवं कायव्वंपुव्वुत्तुव्वेल्लणकालेण जदि हेट्ठिमट्टिदीसु द्विदजीवपमाणं लब्भदि तो धुवट्टिदीए असखेज्जभागवड्ढि-संखेज्जभागवडिढ-खेज्जगुणवड्ढीणं विसयभूदधुवट्टिदीए जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदेगखंडस्स उव्वेल्लणकालेण धुवट्ठिदीए अद्धस्स उव्वेल्लणकालेण पुणो धुवट्ठिदीए उव्वेल्लणकालेण च पुह पुह कि लभामो त्ति तेरासियं काऊण आणिदे सग-सगविसयरासयो आगच्छंति। तेसिं पमाणमेदाणि | प अ प अ | प |अछे | । पुणो एदाणि तप्पाओग्गुवक्कमणकालेण पलिदोवमस्स | २ख छ १६ २२२| छे | २२२॥ २२ असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे सम्मत्तं पडिवज्जमाणतिविह । २२ . । २२ वढिसरूवेण रासपो होति। णवरि संखेज्जगुणवड्ढि-संखेज्जभागवड्ढीणं एत्थ संखेज्जगुणं कायव्वं । तं किमळं ? ण, धुवट्ठिदीए अभंतरट्ठिदीयो ताओ धरिय धुवट्ठिदीए उवरिमट्ठिदिवियप्पाओ अवलंभि (बि)य एदेसि दोण्हं जोइज्जमाणे बहुविसयोवलंभादो, पुणो एत्थ असंखेज्जवड्ढिविसयजीवाणं गहणादो| प अ | १६२/ पुणो संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६६. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ) परिशिष्ट कुदो ? एत्थ पुव्वुत्तसंखेज्जगुणवड्ढिविसयजीवगहणादो। पुणो संखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६६. कूदो ? पुव्वुत्तरासिगहणादो || अ७७ ।। पणो संखेज्जगुणहाणिउदीरया | ३२३ | छे २२ असंखेज्जगुणा।कुदो? आवलियाए २२ असंखेज्जभागच्छेदणेहि उवज्जिद (ओवट्टिद)सम्मत्तपवेसणरासिमाणत्तादो ।पृ०१६६. ___ तं पि कुदो ? उच्चदे । तं जहा- अंतोमुत्तकालब्भांतरे आवलियं सगच्छेदणएहिं भजियमेत्तविवक्खिदमावलियाए असंखेज्जदिभागमवक्कमणकालं लब्भदि तो असंखेज्जावलियमेत्तअसंजदसम्मादिहिरासिस्स संचयकालम्मि कि लभामो त्ति तेरासिएण गुणिय आणिदे एत्तियं होदि | २२ । पुणो एदेण सम्मत्तरासिं खंडिदे मिच्छत्तं पडिवज्जमाणरासी आगच्छदि। ते चेत्तिया छे । होदि त्ति | प छ । इदं मिच्छादिट्ठिरासिं भुजगारावट्ठिदप्पदरबंधगद्धासमूहेण भजिय सग-सगपक्खे। वे)- | २२ २ | हिं गुणिदे मिच्छत्तस्स तिविहपयारढिदिवड्डिपरिणदजीवा होति । पुणो एदेहिंतो सम्मत्तं पडिवज्जिय सम्मत्तस्स तिविहट्ठिदिवढि काऊण किं ण गहिदो? ण, तहा परिणयजीवाणमदीव दुल्लहत्तादो। तं पि कुदो णव्वदे ? ण, सांकिलेसेण परिणमियूण दिदिवड्ढि बंधिय तप्परिणयकिलेसखयेण पुणो अणंतरम विस्समिय विसोहीए परिणमंताण अदीव दुल्लहत्तादो। पुणो विसोहिं परिणमिय मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिखंडयघादेण घादिज्जमाणजीवा बहुधा होति । तदो तत्थ भुजगाररासि संखेज्जगुणवड्ढियादीणं वारसलागाणं पक्खेव-खेवेहिं भजिय सग-सगपक्खेवेहिं गुणिदे सग-सगरासयो आगच्छति । पुणो तत्थ लद्धसंखेज्जगुणवड्ढीणं अणुसारी संखेज्जगुणहाणिउदीरया होति । तं रासिं ह्रविय अणुवेल्लिज्जमाणंतोमुत्तकालभंतरुवक्कमणकालेणेत्तिएण | २७ | संचयगहणटुं गुणिदे एत्तियं होदि |प २२ २७ ।। छे २३२७५२१छे पुणो एत्थ सरिसगुणगार-भागहारे अवणिदे एत्तियं होदि त्ति गंथे उत्तं | प ।। पुणो अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। कुदो ? सम्मत्तपवेसय- | छे ७ सव्वरासीणं गहणादो । पुणो संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा (मू०असंखेज्जगुणा)। कुदो? वेदगसम्मत्तपविजेंतोमुहुत्तमुहुत्त (? , कालब्भंतरे विसोहिपरिणामेण संखेज्जवारं संखेज्जभागहाणि करेंति त्ति । तदो अवत्तव्वुदीरयरासिं ठुविय अंतोमुहुत्तभंतरुवक्कमणकालेणेत्तियमेत्तेण | २७ । गुणिदे एत्तियं होदि | प २७ ।। २२३छे पणो असंखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा। पृ० १६६. कुदो ? वेदगसम्मत्तुदीरयसव्वजीवगहणादो | प ।। पणो इत्थिवेदस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिउदीरया। पृ० १६७. कुदो ? खवगुवसामगसंखेज्जजीवगहणादो। पुणो अव्वत्तव्वुदीरया असंखे०गुणा । पृ० १६७. For Private & Personal use only : Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया कुदो? इत्थिवेदसंखेज्जवस्साउगरासि टुविय संखेज्जवस्साउगम्भंतरुवक्कमणकालेण खंडिदे तत्थेगखंडं संखेज्जवस्साउगइत्थिवेदेसुप्पज्जमाणजीवा होति । पुणो एवं तिरिक्खि त्थिरासि सगासंखेज्जदिभागेण सादिरेयमप्पणो पमाणेणेगसलागं करिय एदेण पमाणेण पुरिसवेदेणब्भहियपंचिदियपज्जत्तणउंयवेदरासिखेज्जसलागं होदि त्ति एदाणं (सिं) सलागाणं पक्खेव-संखेवेण भागं घेतूण संखेज्जसलागाहिं गुणिय असंखेज्जवासाउगभंतरअवत्तव्वइत्थिरासीहिं सादिरेय करिय पमाणत्तादो । तं चेदं ........। पुणो संखेज्जभागवड्ढिउदीरयं (या) संखेज्जगुणं (णा)। पृ० १६७. । कुदो? अवत्तव्वुदीरयाणं असंखेज्जाणि भागाणि असण्णीहिंतो देवीसुप्पज्जमाणा होति' ते चे उप्पण्णसमयप्पहुडि अंतोमुत्तकालभतरे संखेज्जवारं खेज्जगुणवड्ढि करिय सहिं संखेज्जभागवड्डि करेंति। पुणो एदेण कमे ग सखेज्ज भागवड्डी वि संखेजवारं करेंति त्ति । णवरि सण्णिपंचिंदियपज्जतएसु इत्यिवेदरासि (सी) सत्थाणण संखेज्ज भागड्डि करेंता वि राद्धि (अत्थि), तेच थोवा होति । तदो ते एत्थ पहाणा ण होति । तदो सादिरेयं करिय घेत्तां । ते चेत्तिया |४६५८११०२७८ पूणो संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा। पृ० १६७. कथं सव्वत्थ संखेज्जभागवड्ढि उदीरयादो संखेज्जगुणवड्ढि उदीरया संखेज्जगुणहीणा होता ते एत्थ संखेज्जगुणा जादा? ण, असण्णिपंचिंदियपज्जत्तेहितो देवीसुप्पण्णंतोमुहुत्त कालेसु एग वारं संखेज्जभागवढि करिय बहुवारं संखेज्जगुणवड्डि करेंति ति पुव्वं उत्तत्तादो। ते च पुण सादिरेयं करिय गेण्हिदव्वं । ते चेत्तियं | ........१०।। णो खेज्जगुणहाणिउदीरया संखेज्जगुणा। पृ० १६७. कुदो ? सत्थाणट्टिदसण्णिस्थिवेदरासि भुजगारावट्ठिदप्पदरबंधगद्धासमूहेण भजिय सगसगपवखेवेहिं गुणिय पुणो तत्थ भुजगाररासि संखेज्जगुणवड्ढि-संखेज्जभागवटि-असंखेज्ज मागवड्डिवाराणं समूहेण भजिय-सग-सगवाराणं पक्खेवेहिं गुणिदे सग-सगपडिबद्धवड्ढि उदीरणरासयो आगच्छंति। तत्थ खेज्जगुणड्डि-असंखेज्जभागवड्ढि उदीरयरासओ टुविय अंतोमुहुत्तुक्कीरणद्धाविसेसब्भंतरुवक्कमणकालेण गुणिदे कमेण संखेज्जगुणहाणि-सांखेज्जभागहाणिउदीरया उप्पज्जति । तं कथं? विसोहियद्धादो संकिलेसद्धा संखेज्जगणा। तदो संकिलेसद्धाए तिविहवड्ढीणं संचयं कादूण एगवारेण विसोहिवागए तिविहहाणीए करेंति त्ति । पुणो तत्थ संखेज्जगुणहाणिउदीरया एत्तिया होति । = ३२२ २३७ ।। पुणो एत्थ भागहारगदविसेसो जाणियव्वो। एत्थावलियपढमवग्ग| ४६५३३२७५२१ । मूलमुवक्कमणकालं होदि । पुणो संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा। पृ० १६७. कुदो? सत्थाणट्ठिदसण्णिपंचिदियपज्जत्तरासिस्स संज्जभागवढ्ढिरासिं पुव्वं व ढविय पुवं व उवक्कमणकालमाणिय गुणिदेणुप्पण्णेत्तियमेत्तरासिगहणादो | = ३२ २ ०४२७ | । अहवा, । ४६३३२७५२१ पुव्वुत्तसंखेज्जगुणवड्ढि उदीरयवारादो पुव्वुत्तकमेण संखेज्जगुणहाणिउदी रयवावा संखेज्जगुणा, Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२) परिशिष्ट तत्तो संखेज्जभागहाणिउदीरणवारा संखेज्जगुणा, असंखेज्जभागहाणिउदीरणवारा संखेज्जगुणा त्ति । एदमत्थपदं धरिय पुव्वं व संखेज्जवस्साउगं च धरिय आणेदव्वं । पुणो असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६७. कुदो? असंखेज्जभागवड्ढि बहुवारं करिय सहिं (सई संखेज्जभागवड्ढि संखेज्जवस्साउलम्मि करेंति त्ति घेत्तव्वं । तस्स पमाणमेत्तियं 3 ० ३२४४८।। ४६५८११०३३२७९ पुणो अवट्टिदउदीरया असंखेज्जगुणा। पृ० १६७. कुदो ? सव्वित्थिवेदरासिस्स संखेज्जदिभागत्तादो | = ३ २२२२ ७ । | ४६५३३२७९ । पुणो असंखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६७. कुदो ? सव्वित्थिवेदरासिस्स संखेज्जदिभागत्तादो | = ३२२२७४ | । ४६५३३२७५ । पुणो णव॑सयवेदस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिउदीरया। पृ ०१६७. सुगममेदं । संखेज्जगुणहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६७. कुदो? सण्णिपंचिदिएण संखेज्जगुगहाणीए खंडयं अच्छियूणेइंदिएसुप्पज्जिय उक्कीरणद्धाविसेसंतोमुहुत्तकालम्मि संचिदत्तादो। = ० २२ २७ । । अहवा सत्थाण ट्ठिदसण्णिपंचिदियपज्जत्तणउंसयवेदतिरिक्खेण | ४६५८११० २७५२१७७७ सबविसुद्धणसंखेज्जगुणहाणिखंडयं घालियूण ट्ठिदजीवाणं गहणं कायळां । = २२ ।। । ४६५३२४१०७७७पु२२७५२१ । पुणो अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। पृ० १६७. कुदो? संखेज्जवस्साउगपुरुसित्थिवेदगरासि टुविय संखज्जवस्साउगभंतरुवक्कमणकालेण खंडिदेगखंडस्स सादिरेयअसंखेज्जभागपमाणत्तादो | = १० २१ ।। | ४६५८१०२७७२ पुणो संखेज्जभागहाणिए उदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६७. कुदो ? असणिपंचिंदिय-बि-ति-चउरिदियसण्णिपंचिदिएसु च खेज्जभागहाणीण संभवलंभादो। तं पि कुदो णव्वदे? एदे पंचविह उत्ततसरासीसु पज्जत्तरासि भुजगारावट्ठिदापदरद्धाहिं आवलियाए असंखेज्जभागपडिबद्धं वा (हि) पक्खेवसंखेवेहिं भजिय सग-सगद्वाहि गुणिय पुळ व आणि दत्तादो | = २२|| अहवा तेसिं पज्जत्तापज्जत्तजीवेसु संखेज्जभागहाणिमंतोमुहुत्तद्धाहि पुनं व ४२५५ | आणिदे एत्तियं होदि । | = २२।। णवरि एत्थ भागहारगदविसेसो जाणियव्वो।।५। ४२७५५ पुणो तिरिक्ख-मणुस्साउगाणं चत्तारि पदाणि, तेसिं जाणिय वत्तव्वाणि । तत्थ ताव तिरिक्खाउवस्स उच्चदे। तं जहा- तिरिक्खाउवस्स सव्वत्थोवा संखेज्जगुणहाणि उदीरया । कुदो ? संखेज्जगुणहाणिउदीरणाए णिमित्तभूदपरिणामाणमईव दुल्लहत्तादो, पुणो : Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ५३ तेसि पमाणं सव्वजीवाणमसंखेज्जदिभागत्तादो | १३ ||अखेज्ज भागहाणि उदीरया असंखज्जगुणा। कुदो? तग्घादकरणपरिणामाणं सुलहत्तुवलंभादो । २२। | १३ | अवत्तव उदीरया असंखेज्जगुणा । कुदो ? तिरिक्खारा सिमतोमुत्तेण खंडिदेगखंडपमाण- । २। तादो | १ ।। असांखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । कुदो ? किंचूणतिरिक्खरासिगहणादो' २७ । । १३ १ | । एवं मणुस्साउगस्स जाणिय वत्तव्यं । पुणो णिरयगदीए सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया। पृ० १६७. कुदो? सण्णिपंचिदियपज्जत्ततिरिक्खमिच्छाइट्ठीणं णि रएसुप्पज्जमाणाणं चरिमावलियकालभंतरे संखेज्जगुणवड्ढीयो बंधिय णिरएसुप्पण्णाणं समयणपढमावलियकालभंतरे संचयगहणादो। कथं थोवत्तं ? ण, सणिपंचिदियपज्जत्ततिरिक्खा संखेज्जगुणवड्ढि करेंति । तदो सण्णिपचिदिएहितो उप्पज्जमाणकारणाणुसारी त्थोवा होति त्ति। ते चेत्तिया होंति २ । | १२२७५ | २१२७७७ २९ पुणो संखेज्जगुणहाणिउदीरया संखेज्जगुणा। पृ० १६७. कुदो? णेरइएसुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि संखेज्जावलियमेत्तकालभंतरे सइं खेज्जगुणहाणि करिय बहुवारं संखेज्जभागहाणिं करेंति । एवं करेंतेण बहुवा संखेज्जगुणहाणिवारा जादे त्ति। तेसि ढवणा २४२७ ।। पुणो | प२२७५२ १२७७ | संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा। पृ० १६७. ___ कुदो ? पुवुत्तकमेणेदस्स सुलहत्तुवलंभादो, तत्तु (त्थु)पण्णासण्णीणं संखेज्जभागहाणी णत्थि ति कारणादो। ते चेत्तिया २२७४१ ।। | प २२७२५२१२७७ संखेज्जभागवड्ढिउदीरया | २ असंखेज्जगुणा । पृ० १६७. कुदो ? असण्णिपंचिदियतिरिक्खाणं संखेज्जभागवड्ढि दिदि बंधिय णिरएसुप्पण्णाणं गहणादो ते चेत्तिया - २२ २७ || २७५५२७७ असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६७. कुदो ? सुलहत्तादो। - २२२४२७७ अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। पृ० १६८. कुदो ? उप्पण्णपढमसमयसव्वजीवाणं गहणादो, ते च अप्पदर-अवट्ठिदपहाणत्तादो एत्तिया | -२ अवटिदउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६८. ___ कुदो? असण्णिपंचिदियाणं अवट्ठिदबंधगाणं णिरएसुप्पण्णाणमावलियकालभंतरे चिदाणं गहणादो - २२२७२७ । २७५२७७. असंखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६८. कुदो ? किंचूणसव्वणेरइयरासिग्गहणादो। - २।।। ( पृ० १६८ ) Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ) परिशिष्ट ओरालि यसरी रस्सप्पाबहुगपरूवणा सुगमा । णवरि संखेज्जगुणहाणि उदीरगेहितो संखेज्जभागहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा त्ति उत्ते सण्णिपंचिदियकम्मभूमितिरिक्खरासीहिंतो असण्णिपंचिदियरासीणं असंखेज्जगुणकारणत्तादो होंति त्ति जाणिज्जदि। पुणो देवेसु दुविहसरूवखंडयं अच्छिय एइंदिएसुप्पण्णाणं घेत्तूण संखेज्जगुण हाणिउदीरहितो खेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा त्ति किं ण परूविदं ? (ण,) सत्थाणखंडयविववखादो, अण्णहा तहा चेव होति । अहवा तेसि अही दी व थोव (त्त विवक्खादो वा । सेसाणि सुगमाणि । पुणो समचउरससंठ्ठाणस्स सम्वत्थोवा असंखेज्जभागहाणिउदीरया। पृ०१६९. कुदो ? खवगे पडुच्च । ( संखेज्ज० )गृणहाणिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६९. कुदो? विगुव्वणमुवट्ठातपंचिदियतिरिक्खाणं असंखेज्जभागमेत्ताणं संखेज्जगुणहाणिखंडयघादकारणविसुद्धपरिणामेण परिणदाणमेत्थ एत्तियमेत्ताणं चेव उवलंभादो त्ति विप्पण्णंतरे * उत्तत्तादो गुरुवदेसादो च १२६५ | अथवा, वीससागरोवमदिदि बधिय समसेसणामपयडीहिंतो समचउरस संठाणम्मि संकामिदे! तस्सुकिस्सट्ठिदिसंतं होदि। तारिससणिपंचिदियपज्जत्ताणं पमाणं द्विदिभुज. गारं तक्खरेंत(?)सण्णिपंचिंदियपज्जत्त जीवरासि उवक्कम गकालेण खंडिदेगखंडयमेतदिदिकमेतजीवसंखं होदि। पुणो एदेहि जीवेहि सगुक्कस्सदिदिबंधादो अहियसंतं लहं बहुअंच घादेदि त्ति तेसि झवणा | = २ २ ।। किमळं सत्थाणवड्ढिमस्सियूण संखेज्जगणहाणिपरूवणा ण कदा ? |४६५७५२ १ २७७, ण, तेसिं अही (दी व दुल्लहत्तादो । पुणो संखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६९. __ कुदो? सत्थाणट्ठिदसण्णिपज्जत्तजीवरासि समचउरससंठाणटिदिसंतादो भुजगारटिदिबंध वड्ढिवारेहिं भजिय सग-सगपक्खेवेहिं गुणिय छस्संटाणाणं समचउरससंढाणादिकमेण संखेज्जगुगाणं बंधगद्धासमूहेण भजिय सग-सगपक्खेवेहि गुणिदे तत्थ लद्धं समचउग्ससंढाणाणं एत्तिय संखं होदि | = २ २ ४ ।। किमळं परपयडीणं पलिच्छेदणे संखेज्जभागवड्ढी ण कीरदे? ण, तेसिं । ४६५२७५२११३६५ | अदीव त्थोवत्तादो। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा। पृ० १६९. कुदो ? देवेसुप्पण्णसव्वजीवाणं सादिरेयमेत्ताणं गहणादो | =.......।। संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा। पृ० १६९. कुदो ? असण्णिपच्छायदसण्णिजीवेसुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि संखेज्जवारं संखेज्जगुणदड्ढिउदीरणं करेंतजीवा होति । तेसि ट्ठवणा | ....... पुणो संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । पुबुत्तजीवा चेव सई संखेज्जगुणवड्ढि करिय असई खेज्जभागहाणि करेंति त्ति तेसि ढवणा | = ० ४४ ।। |४६५८११०२७७ * मप्रतित: संशोधितोऽयं पाठः, प्रतौ तु ' उप्पण्णंतरे' इति पाठोऽस्ति । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६९. एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तव्वं | ०४४ || पुणो उवरिमपदाणि सुगमाणि । पुणो णग्गोद (ह) परिमंड- |४६८५११०२७७ | लसरीरसंठ्ठाणस्स सव्वत्थोवा (अ) संखेज्जगुणहाणिउदीरया। पृ० १६९. सुगममेदं। अवत्तव्वउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १६९. कुदो ? सण्णिपंचिदियपज्जत्तकम्मभूमियजीवाणं असण्णिपंचिंदियजीवाणं अण्णसंढाणट्ठियाणं एइंदिय-विगलिंदियाणं णग्गोदपरिमंडलसंट्ठाणेसु सण्णि-असण्णीसुप्पण्णाणं पढमसमए गहगहणादो । तं चेसा | = ४६५३२४१०७७७५२७७ | । एत्थ सण्णिजीवा चेव पह (हा) णा, असण्णिपंचिदिएसु हुंड-___ _सट्टाणा चेव बहुवा होंति त्ति गुरूवदेसादो। संखेज्जभागवड्ढि उदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६९. णणग्गोदपरिमंडल संट्ठाणउदयसंजुदअसण्णीहितो तदुदयसंजुदसण्णी संखेज्जगुणा । कुदो ? तत्थ सण्णीसुप्पण्णंतोमुहुत्तकालब्भंतरे असण्णी बहुवारं संखेज्जगुणवड्डि करिय सई संखेज्जभागवढि करेंति । एदेण कमेण संखेज्जभागवड्ढी वि संखेवारं लब्भत्ति त्ति । असण्णीसु वि संखेज्जभागवड्ढी लब्भंति । ते वि तत्थ पक्खित्तमेत्ता होंति । ते चेसा | ४ संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६९. ४६५३२४१०७७७५२२७७ कुदो ? पुबुत्तकारणत्तादो | = ४४ ।। | ४६५३२४१०७७७५२७७ ०२ संखेज्जगुणहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६९. कुदो ? संखेज्जगुणवड्डिवारेहितो संखेज्जगुणहाणिवारा संखेज्जगुणा त्ति । अहवा सत्थाणेण संखेज्जगुणवड्ढि करेंतजीवा टुविय पुणो जहण्णुक्कस्सुक्कीरणद्धाविसेसब्भंतरुवक्कमणकालेण गुणिदमेत्तत्तादो बा ४४४ | ४६५३२४१०७७७१२७७ संखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६९. सुगममेदं । कुदो ? पुव्वं परूविदकमत्तादो। पुणो असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ० १६९. कुदो ? सण्णीसुप्पण्णंतोमुहुत्तकालब्भंतरे असण्णीसु संखेज्जवारं असंखेज्जभागवड्ढि करिय सइं संखेज्जभागहाणि करेंति त्ति । उवरिम-दो-पा(प) दाणि सुगमाणि । पुणो णिरयगदि-देवगदिपाओग्गाणुपुवीणं सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्ढिउदोरया । पृ० १७०. कुदो ? सण्णिपंचिंदियएण संखेज्जगुणट्ठिदि बंधि तेसु दोसु वि गदीसु दोविग्गहेणुप्पण्णाणं बिदियसमए होंति त्ति । तेसि संदिट्ठी | - २२२ = ० २२ प २७५२१२७७|४६५८११०५२७५२१२७७ २ For Private &mercemeindse-only -ww.jainelibrary.org Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ) पुणो संखेज्जभागवड्ढि उदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १७०. कुदो ? असणिपंचिदियपज्जत्तेण संखेज्जवढि करिय णिरय- देवे सुप्पण्णाणं बिदियसमए होंतिति । ते चेदाओ - २२ 1 पुणो असंखेज्ज- २७०५५२७२ ४६५२११०२७५५२७७ १ | ४६५२११०२७५५२७७ || भागवड्ढिउदी– o परिशिष्ट या ( अ ) संखेज्जगुणा हेदुणा । पृ० १७०. तं कथं ? जे मंदपरिणामा जीवा ते बहुवा, तिव्वपरिणामा जीवा तं त्थोवा होंति त्ति । पुणो जवमज्झपरूवणावलंभि (वि)य जोइज्जमाणे असंखेज्जगुणमेत्तं णायो ( व ) गदत्तादो | उवदेसेण पुणा (पुण) संखेज्जगुणा । पृ० १७०. तं कथं ? सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्ढिवारा, संखेज्जभागवड्ढिवारा संखेज्जगुणा, असंखेज्जभागवड्ढिवारा संखेज्जगुणेत्ति उवदेसादो । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १७०. सुगममेदं । असंखेज्जभागहाणिउदीरया संखेज्जगुणा । पृ. १७०. कुदो? अद्धासमासेण भजियसगपक्खेवेण गुणिय पुणो उववकमणकालं भजियपमाणत्तादो । अवत्तव्वउदीरया विसेसाहिया । पृ. १७०. कुदो ? वड्ढिअवट्ठिदउदीरएहि अहियत्तदंसणादो । पुणो तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणामाए सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया । पृ. १७०. चेदं कुदो? सणिपंचिदिएण संखेज्जगुणवड्ढिबंधं काऊण एइंदिए सुप्पज्जिदस्स होदिति । तं | ४६५२११०२७५२१२७७ || पुणो संखेज्जभागवड्ढि उदीरया असंखेज्जगुणा । पृ० १७०. कुदो? विगलिदिय-असण्णि-सण्णिपंचिदियज्जत्तापज्जत्तजीवाणि ( ? ) संखेज्जभागवड्डिकाऊ एवं दिए सुपणे होदि । ते तं ) चेदं - २२२ । एत्तो उवरिमपदाणि सगमाणि । वरि अवत्तव्वउदीरगेहिंतो असंखेज्ज- ४२७५५६७७ भागहाणिउदीरया दुसमयसंचिदत्तादो विसेसाहियं जादो (दा) त्ति वत्तव्वं । २ ( पृ० १७० ) अणुभाग उदीरणपरूवणाए मूलपयडिपरूवणा सुगमा । पुगो उत्तरपयडिपरूवणाए चवीस अणुयोगद्दाराणि होंति त्ति । तेसि परूवणा सुगमा । णवरि तत्थ घादिसण्णपरूवणाए आभिणिबोहियणाणावरणीय सुदणाणावरणीयाणं उक्कस्साणुभागउदीरणा सव्वघादा ( पृ० १७१ ) तिरूविदं । दं घडदे | तं जहा- सव्वं घादेदित्ति सव्वषादी णाम, आभिणिबोहिय मूलग्रन्थे ' असखेज्जगुणा' इति पाठः । ॐ मूलग्रन्थे 'संखेज्जभागहाणिउदीरया' इति पाठः । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (५७ सुदणाणावरणाणं णत्थि । कुदो ? एदेसि दोण्हं उक्कस्सुदीरणं सण्णिपंचिदियपज्जत्ताणं सव्वसंकिलिढाणं होदि त्ति सामित्त भणित्तादो। एवं भणिदे किमळं जादमिदि चे ण, सण्णिपंचिदियपज्जत्तेसु पंचिदिय-णोइंदियाणं खओवसममत्थि, तेसिमेगदराणं उवजोगे वि दिस्सदि । एवं संते एदेसि उक्कस्साणुभागउदीरणं देसघादी होदि । एवं संते पुवावरविहो होदि ? ण, एदस्सत्थो एवं भणिज्जदि- दोण्हमावरणाणं उकस्साणुभागाणं सव्वघादणसत्ती पंचिंदियजादिकम्मोदएण पडिहयं होदूण गट्ठा, णठे वि सव्वघादित्तं ण णस्सदि । जहा अग्गिस्स दहणगुणमंतोसहपहावेण पच्छादिदे संते वि अग्गिस्स दहणगुणं ण णस्सदि, तहा चेव एत्थ वि । सम्मामिच्छत्तस्सेव सव्वघादित्तं किं ण उत्तं? ण, एवं संते अणुक्कस्ससव्वस्स वि सव्वधादित्तं पावदि । पुणो अणुक्कस्सुदीरणा एदेण कमेण सव्वघादी होदूण गच्छदि जाव ओघि-मणपज्जवणाणावरणाणं सव्वघादिजहण्णाणुभागेण अणुसरिसं जादे ति। तत्तो परं देसघादि होदि । णवरि एत्थ अणुक्कस्सदीरणा देसघादि-सव्वघादि त्ति उत्तकम्म (म)स्स अत्थं एवं होदि । तं जहा- कम्मेहि अवहरिज्जमाणगुणाणं दिस्समाणत्तादो अणुक्कस्सुदीरणं देसघादी होदूण गच्छदि जाव लद्धिअक्खरं ण पावदि ताव । पुणो पत्ते य सव्वघादित्तं होदि, खओवसमपहाणत्तेण विवक्खिदत्तादो त्ति । एदमत्थं जाणाविदं । अणुभागाणं कमो पुव्विल्लो चेव । पुणो अचक्खुदंसणावरणस्स उक्कस्साणुक्कस्सुदीरणं देसघादि त्ति । पृ०१७१. कथमेदं घडदे ? कधं ण घडदे ? उच्चदे- मिच्छत्तासंजम-कसायसरूवपरिणामपच्चइयस्स णाणाणुसारिदसणं पच्छा द) यंतस्स अचक्खुदंसणावरणस्स मदिणाणावरणपरूवणाए समाणेण होदव्वमिदि ? ण, जमणभागुदीरणं जम्मि पडिवक्खं सव्वं घादयदि तमणुभागं तं पडुच्च उक्कस्सं सव्वघादित्तं च होदि । एत्थ पुण तं त्थि । कुदो ? सण्णिपंचिदिएण बध्दुकस्साणुभागं तं चेवुदीरिज्जमाणे खओवसमविसेसेण पंचिदियोदएण पडिहयं होदूण अणंतगुणहीणसरूवेण उदयावलियं पविसदि, मदिणाणावरणं व थिरं ण होदि । पूणो जादिवसेण खओवसमहाणीए च एदस्सणुभागउदीरणा वड्ढदि जाव सुहुमेइंदियजीवस्स लद्धियक्खरखओवसमे त्ति। णवरि जम्मि जम्मि जादिम्मि तम्मि पडिबद्धपरिणामपच्चएणुक्कस्सं होदि, बहिरंतरंगुवओगाणं छदुमत्थेसु समाणत्ताभावादो कज्जस्स त्थोवबहुत्तादो कारणस्स बहुत्त (त्तं)त्थोवत्तं च ण जाणिज्जदि त्ति दोण्हं सरिसपरूवणा ण होदि त्ति सिद्धं । पुणो चक्खुदंसणावरणस्स उक्कस्साणुभागस्सुदीरणा सव्वघादि (पृ १७१) त्ति उत्ते सव्वं एदस्सत्थं घादेदि त्ति सवधादि त्ति गेण्हिदव्वं । कधं ? तीइंदियस्स तत्थतणसव्वसंकिलिट्ठणिबंधणपच्चएण परिणदस्स उदीरज्जमाणचक्खुदंसणावरणेण णासिदचक्खुदंसणावरणखओवसमत्तादो सव्वघादि होदि त्ति । पुणो सण्णीसु किमट्ठमुक्कस्ससामित्तं ण दिण्णं ? ण, एदस्स पंचिदिय-चरिदिएसु खओवसमजादिवसेण च अणंतगुणहाणिसरूवेण अणुभागाणमुदयावलियाए पवेसुवलंभादो। पुणो सादासाद-आउचउक्क-सव्वणाम-(उच्च-)णीचागोदाणं उक्कस्साणुभागउदीरणा धादियाघादीणं पडिभागिया इदि उत्तं । पृ० १७१. मलग्रन्थे त्वेवंविधोऽस्ति पाठ:-- सादासादाउचउक्स्स सधणामपयडीणं उच्चाणीचागोदाणं उक्कस्सा अणुक्कस्सा च उदीरणा अघादी सव्वघादिपडिभागो। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ) परिशिष्ट तं कथं ? घादिकम्माणि दुविधाणि होति देसघादि सव्वधादि त्ति । तत्थ लता-दारुअट्टिसेलसमाणप्फद्दयाणि सव्वाणि वा लता-दारुसमाणस्सणंतिमभागाणि वा जेसिमत्थि तेसिं देसघादि त्ति सण्णा । जेसिं दारुगसमाणस्साणंतिमभागप्पहुडि उवरिमप्फद्दयाणि अस्थि तेसिं सव्वघादि त्ति सण्णा । एदाणं लदादिसव्वफद्दयाणि आदिवग्गण्णप्पहुडिसव्वफद्दयाणं आदि (अवि)भागपलिच्छेदसंखाए पुवुत्ते उत्तर ( ? ) सदमेत्ताणं अघादिपयडीणमादि (मवि) भागपलिच्छेदसंखा समाणा होंति, ण गुणणे त्ति उत्तं होदि । जहा तुलाए तोलिज्जमाणदव्वावसेस व । " (पृ० १७२ ) पुणो पच्चयपरूवणाए तिविहपच्चया होंति परिणामपच्चया भवपच्चया तदुभपच्चया चेदि । तत्थ चउदालपयडीणं अणुभागुदीरणट्ठाणाणं वड्ढि-हाणीए केसि केसि चापुवपयडीणमुदयस्सुप्पादणे उप्पण्णपयडीणं अणुभागुदीरणवड्ढि-हाणीए केसि पयडीणं अवट्ठिदाणुभागुदीरणाए च कारणभूदाणि जादिकम्मोदयसव्वपेवखाणि मिच्छत्तासंजम-कसायजणिदपरिणाम (मा) सरागसंजमपरिणामा वीदरागपरिणामा च परिणामपच्चया णाम । एदेहि परिणामेहि जदि (जाओ) उदीरिज्जति ताओ परिणामपच्चइयाओ । ४४ । । पुणो बावण्णपयडीणं अणुभागाणं वड्ढि-हाणीए कारणभूदसामण्णभवा णारय-तिरिय-मणुस-देवभवेसु णियमिदेग-दो वा भवा परिणामसव्वपेक्खा वा असव्वपेक्खा वा जाणि ताणि भवपच्चइयाणि होति । पुणो बावण्णपयडीणं कहिं कहिं अणुभागाणं वड्ढि-हाणिउदीरणाए भवाणि चेव कारणाणि होति, कहिं कहिं परिणामाणि कारणाणि जाणि ताणि तदुभयपच्चया। एदाणं सब्भावं गंथस्सुवरि वत्तव्वं । (पृ० १७४ ) पुणो द्वाणपरूवणदाए चउढाण-तिट्ठाण-बिट्ठाण-एगट्ठाणुदीरणपयडीणं संखा णव होति । पुणो चउट्ठाण-तिट्ठाण-बिट्ठाणुदीरणपयडीणं संखा चउणउदी होति । बिट्ठाणेगट्ठाणुदीरणपयडीओ दस संखा होति । बिट्ठाणुदीरणपयडीणं संखा चउतीसाणि होति । एगा चउट्ठाणिया । एदेसिमत्थो सुगमो। णवरि चक्खुदंसण-अचक्खुदंसणाणमुदयो जस्स वि एक्कमक्खरमत्थि तस्स णियमा एगठ्ठाणिया उदीरणा । पृ० १७५. त्ति उत्ते एदस्सत्थो- चक्खु-वचक्खुदंसणाणमुदएण खओवसमेण वा उवजोगो जस्स पयत्तापमत्तादीणं एगक्खरसंबंधियो जइ संपुण्णमत्थि तस्स जीवस्स एदेसिमुदीरणा एगट्ठाणिया होति, ण इदरेसु। कथमेदं णव्वदे ? ण, भवणवासियदेवाणं जहण्णाप्पबहुगम्मि बिट्ठाणियसम्मत्ताणुभागादो चक्खु-वचक्खुदंसणावरणाणुभागमणंतगुणा त्ति उत्तत्तादो । (पृ० १७६ ) पुणो सामित्तं सुगमं। ( पृ० १९१ ) एगजीवकालपरूवणं पि सुगमं । णवरि जहण्णाणुभागोदीरणकालपरूवणाए (पृ० १९४.) णिहा-पयलाणं जह० एगसमयो त्ति उत्तं। कथं ? एत्थुवसमसेढीए एदेसिमुदयो अत्थित्ताभिप्पाएण उवसंतकसाए एगसमयमुदीरिय बिदियसमए देवलोयं गयस्स होदि त्ति । पुणो उक्कस्संतोमुहुत्तं । कुदो? परिणामपच्चइयाणमेदेसिं अवट्ठिदपरिणामेणुवसंतकसाएणुद्दिट्टत्तादो। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया पुणो थीणगिद्धितियाणं जहण्णेणेगं वा दो वा समया ( पृ० १९४. ) त्ति उत्तं । तं कथं ? एदाणि जहण्णाणुभागुदीरणपाओग्गविसोहीणं काले णिद्दावस्थाए एगदोणिसमयं होंति त्ति। (पृ० १९९) पुणो अंतरं पि सुगमं । णवरि मणुस्साणुपुवीए उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं वासपुधत्तमिदि उत्तं* (पृ० २०० )। ( तं ) कथं ? तिपलिदोवमिएसु मणुस्सेसु दोविग्गहं कादूण उप्पज्जिय दोसु समएसु उक्कस्समुदीर (रि य तिसमयप्पहुडि अंतरिय पज्जत्तीओ समाणिय अवमिच्छु (च्चु ) णा चुदो, पुणो वासपुधत्ताउगमणुस्सेसुप्पज्जिय कमेण तत्थाउक्खएण मदो तिपलिदोवमिगेसु विग्गहेणुववण्णो। लद्धमंतरं। जादत्तादो ( ? || कधं भोगभूमीणं कदलीघादस्स संभवो ? सच्चं संभवो णत्थि त्ति आइरिया परूवयंति । किंतु एदं केइमाइरियाणमभिप्पायंतरेण आउवघादपरिणामा संभवंति त्ति तं जाणाविदं । पुणो अचक्खुदंसणावरणस्स उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं ( जह० ) खुद्दाभवग्गहर्ण समऊणे त्ति उत्तं ( पृ० २०० ) कुदो ? णिगोदेसुप्पण्णपढमसमए उक्कस्सुदीरणं जादे त्ति । पुणो उक्कस्संतरं असंखेज्जा लोगा। पृ० २००. कुदो ? पुढविकायादिसु भवं ( मं )ताणं तण्णिबंधणपरिणामाभावादो, सुहुमणिगोदेसु तस्स णिबंधणपरिणामाणं चेव बहुत्तुवलंभादो वा । (पृ० २०३, २०५, २०८, २१०. ) पुणो णाणाजीव ( भंगविचय-) कालंतर-स पिणयासाणं परूवणा सुगमा ।। णवरि जहण्णसण्णियासे ओहिणाणावरणजहण्णाणुभागमुदीरंतो मदि-सुदणाणावरणाणं सिया जहण्णं वा अजहण्णं वा उदीरेदि। जदि अजहण्णं तो णियमा अणंतगुणं उदीरयदि त्ति उत्तं । पृ० २१४. एदस्सत्थो एवं वत्तव्वो- लद्धिअक्खरप्पहुडि जावेगक्खरसुदणाणखओवसमं पावदि ताव सुदणाणक्खओवसमो छवड्डिकमेण ट्ठिदो। तत्तो परमक्खरवड्ढीए खओवसमं गंतूण सयलसुदणाणखओवसमपमाणं पावदि। पुणो तेसिं संबंधिसुदणाणावरणस्स अणुभागट्ठाणउदीरणा वि कमेण छविहहाणीए एइंदियसमं ( संबं धीसु गंतूण बेइंदियसमं । संबं धीसु एइंदिएहितो अणंतगुणेसु खओवसमिएसु पडिबद्धअणुभागउदीरणम्मि एइंदियादो अणंतगुणहीणं होदूण छविहहाणीए बेइंदिएसु गच्छदि । एवं तेइंदिय-चउरिदिय-असण्णि-सण्णिपंचिदिरसु वि वत्तव्वं जावेगक्खरसुदणाणे त्ति । तत्तो परमाणुभागुदीरणमणंतगुणहाणीए गंतूण जहण्णाणुभागुदीरणं जादे त्ति । (पृ० २१६ ) पुणो अप्पाबहुगपरूवणम्मि किंचि अत्थं भणिस्सामो। तं जहा - तत्थ उक्कस्सप्पाबहुगं भण्णमाणे सव्वतिव्वाणुभागं सादावेदणीयस्स उदीरणा । पृ० २१६. कुदो ? उवसामयसुहुमसांपराइएण जं बंधा बद्धा, णुभागं तेत्तीससागरोवमाउगदेवेसु भवपच्चयेण उदीरित्तादो। कथं बहुत्तं णव्वदे ? जीवविवागित्तादो सजोगिपज्जवसाणबंध* मूलग्रन्थपाठस्त्वेवंविघोऽस्ति- मणुसागुपुबीए तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । उक्कस्सं तिण्णं पि एइंदियट्ठिदी । पृ० २०.-२०१. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट संभवेण विसिट्टत्तादो सुहमुप्पाययसुहपयडित्तादो च । पुणो जसगित्ति-उचागोदाणं उक्क० उदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ० २१६. कुदो ? उवसामगसुहुमसांपराइगेण बद्धस्सादाणुभागादो खवगसुहुमसांपराइगेण बद्धजस गित्तिउच्चागोदाणमणंतगुणहीणत्तादो तदो चेव जीवविवाई सुहपयडी होदूण गुणं पडुच्च परिणामपच्चयादिविसेसेण सजोगिम्मि उदीरिदे त्थोवं जादं । पुणो कम्मइयमणंतगुणहीणं । पृ० २१६. कुदो ? अपुव्वखवगम्मि बध्दुक्कस्साणुभागपोग्गलविवाइकम्मइयस्स परिणामपच्चएण सजोगिम्मि उदीरिदत्तादो। पुणो एत्थ सूचिदपयडीणमणुमाणेणप्पाबहुगं उच्चदे- कम्मइयबंधणसंघादाणं दोण्हं । २ । पयडीणमुदीरणा कम्मइयेण समाणा भवंति । पुणो सुभगसुस्सरादेज्ज-तित्थयरमिदि चत्तारिपयडीणं । ४ । उदीरणा कम्मइयेण समाणं वा अधियं वा हीदि त्ति वत्तव्वं । पुणो अपुव्वखवगेण बज्झमाणतणेण जीवविवाइत्तणेण सुहपयडित्तणेण परिणामपच्चयेण सजोगिम्मि उदीरिदत्तादो । विसेसं जाणिय वत्तव्वं । पुणो रत्त--पीद-सेदसुगंध-कसायंबिल-महुर-णिदु (ध्दु) ण्णअगुरुगलहुग-थिर-सुभ-णिमिणमिदि तेरसपयडीणं । १३ । उदीरणा पोग्गलविवाइत्तणेण सुहपयडितणेण बज्झमाणगुणट्ठाणाणमेयत्तणेण परिणामपच्चयत्तणण कम्मइयेण समाणं वा हीणं वा होदि त्ति वत्तव्यं । सूचिदं गदं । पुणो तेजइग० अणंतगुणहीणं । पृ० २१६. कुदो ? दो वि पोग्गलविदाइत्तादिकारणेहि समाणते वि किंतु तेजइगादो कम्मइगमणंतगुणाणुबंधेण सव्वकम्माणमावारत्तणेण च अधियं जादे त्ति वत्तव्वं । पुणो सूचिदपयडीयो तब्बंधण-संहा (घा) दा दो वि । २ । तेजइगण समाणाओ होति । पुणो आहारसरीर० अणंतगुणहीणं । पृ० २१६. कुदो ? तेजइगाणुभागबंधादो उवसमसेढीए बंधा (बद्धा) णुभागमणंतगुणहीणं होदूण पोग्गलविवाइपरिणामपच्चएण समाणं होदूण पमत्तेणुदीरिदत्तादो थोवं जादं । पुणो सूचिदपयडीयो तब्बंधण-संघादंगोवंगओ तिण्णिपयडीणं। ३ । उदीरणा आहारसरीरपमाणओ समाणाओ होति । पुणो वि समचउरससरीरसंढाण-महुग-लहुग-परघाद-पसत्थविहायगदी-पत्तेगसरीरमिदि छप्पयडीणं । ६ । उवसमसेढीए बंधा (बद्धा ) णुभागपोग्गलविवाइत्तणेण परिणामपच्चएण पमत्तेण आहारसरीरेण सह उदीरिदत्तादो आहारसरीरेण सरिसं वा हीणं वा होदि त्ति जाणिय वत्तव्वं । खवगसेढीए बंधा (बद्धा ) णुभागं सजोगिम्मि उदीरज्जमाणं किं ण घे'पदे ? ण, भवपच्चइयाणमेदेसिं तत्थुदीरणं थोवं होदि त्ति ण घेप्पदे । णवरि आहारसरीरेण सह पसत्थविहायगदी सरिस वा अहियं वा होदि त्ति वत्तव्वं । कुदो ? जीवविवा इत्तादो। सूचिदं गदं । पुणो वेगुब्वियसरीरमणंतगुणहीणं । पृ० २१६. कुदो ? एदेण सूचिदवेगुम्वियबंधण-संघादंगोवंगमिदि तिण्णि । ३ । सह अप्पुव्वुवसामगेण बद्धाणुभागादो पसत्थगुणपयडिभेदेण अणंतगुणहीणेण तम्मि बंध (बद्ध ) वेगुब्वियसरीरपोग्गलविवाइपरिणामपच्चएण उदीरिदत्तादो भवपच्चएण तेत्तीससागरोवमाउअदेवेणवे ( ? ) उदीरिदत्तादो वा। पुणो सूचिदुस्सास-तस-बादर-पज्जत्ताणमिदि चत्तारिपयडीणं । ४ । उदी रणा वेउव्विएण बंधादिकारणेहिं सरिसत्ते संते वि एगंतभवपच्चइयत्तादो समाणं वा हीणं वा Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया होदि त्ति वत्तव्वं । पुणो वि सूचिदउज्जोवणाजाए. अणंतगुण हीणा । कुदो ? मिच्छाइट्ठिणा बद्धाणुभागं पमत्तसंजदेणुदीरिदत्तादो। मिच्छत्तस्स० उदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ० २१६. कुदो ? वेगुब्वियसरीरबंधुक्कस्साणुभागादो उक्कस्ससंकिलिटुमिच्छाइट्ठिणा बध्दुक्कस्समिच्छत्ताणुभागस्स अणंतगुणहीणत्तादो सव्वदव्वपडिबद्धस्स असुहपयडिस्स परिणामपच्चएणु- . दीरिदे वि थोवं चेव जादं । पुणो केवलणाणावरण-केवलदसणावरण-असादवेदणीयाणं उदीरणा अणंतगुणहीणा। पृ० २१६. कुदो ? उक्कस्ससंकिलिट्ठादिकारणेहि मिच्छत्तेण समाणाणि होदूण मिच्छत्ताणुभागबंधादो एदेसिं तिण्हं पि बंधा बद्धा णुभागाणंतगुणहीणं होदूण टिदउदीरिदत्तादो । मिच्छत्तेण जहाणंतसंसारं होदि तहा एदेहिंतो अणंतसंसारं ण होदि त्ति अप्पस त्तिजुत्तो त्ति जाणिज्जदे च । पुणो अणंताणुबंधीणमण्णदरुदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ० २१६. कुदो ? जीवलक्खणणाणपयडिबंधयादो अप्पाणम्मि णिबंध (णिबद्ध) चरित्तपरिणामपडिबद्धयस्स थोवत्तं णाइयत्तादो। पुणो संजलणेसु अण्णदर उदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ० २१६. कुदो ? सम्मत्त-देस-सयलखओवसमचारित्तपडिबंधयादो तम्मिमणुप्पाइय उवसमखइयचारित्तपडिबद्ध बंध) यस्स थोवत्तं णायसिद्धत्तादो। पुणो पच्चक्खाणावरणेसु अण्णदरउदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ० २१६. कुदो ? अपसत्थपय डिविसेसेण अप्पाणुभागबंधित्तादो खओवसमचारित्तपडडिबद्ध(बंध) यत्तादो च अप्पसत्थविहायं जादमिति । पुणो अपच्चक्खाणावरणेसु वि अण्णदरउदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ०२१६. कुदो ? खओवसमचारित्तावरणादो देसचारित्तावरणस्स थोवत्तं णायादो। पुणो मदिणाणावरणस्स अणुभागउदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ० २१६. कुदो ? पुव्विल्लपय डिस्स उत्तसामग्गीहि सह एत्थ वि बंधतो वि तेहिंतो अणंतगुणहीणा अणुभागा बंधा (बद्धा । तदो सव्वदश्वपज्जयाणं देसघादिपडिबद्ध मणुभागमुदीरयंतो वि थोवं जादं । पुणो सुदणाणावरणीयस्स अणुभागउदीरणा अणंतगुणहीणा । पृ० २१६. कुदो ? मदिपुव्वं सुदणाणुप्पत्तीदो, दोण्हं समाणसंखे जादे वि कारणजादमाहप्पेण मदिणाहमधियं इदरमप्पं जादं । तदो तेसिमावरणाणं पि तदणुसारियो होति त्ति । पुणो ओहिणाणावरण-ओहिदसणावरण०अणुउदी०अणंतगुणहीणं । पृ.२१७. कुदो ? सुदणाणावरणाणुभागबंधो अणंतगुणहीणाणुभागबंधत्तादो सेसासेससव्वपयारेण दो वि समाणे संते वि रूविदव्वपडिबद्धत्तणेण च अणंतगुणहीणं जादे त्ति वा वत्तव्यं । पुणो मणपज्जवणा० अणंतगुणहीणं । पृ० २१७. । कुदो ? एदं पि रूविदव्वविसयं चेव, किंतु एदं तत्तो अप्पविसयत्तं आगमेण सिद्धो त्ति अणुभागुदीरणं पि तदणुसारी होदि त्ति । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ६२ ) परिशिष्ट पुणो णउंस वेदस्स अणु० उदी० अनंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? णाणसत्तिपच्चा (च्छा) दयअणुभागादो चारित्तस्स पच्छादयमाणाणुभाग थोवत्तं णायगदत्तादो । एत्थ सूचिदपयडीणं काल-णील-दुगंध - तित्त- कडुग-सीद लुक्ख उवघादअथिरासुभामिदि दसपयडीणं । १० । परिणामपच्चएणुदीरिज्जमाणाण मेदेसि णउंसयुदीरणाए समाणुदीरणकारणे संते वि पोग्गलविवाइत्तणेण अप्पं जादमिदि वत्तव्वं । पुणो हुंडसंठाण० अणु० उदी० अनंतगुणहीणं होदि । एदमेगं । १ । पोग्गलविवाइ भवपच्चयित्तादो | सूचिदं गदं । पुणो थीण गिद्धिउदीरणमणंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? इट्ठावागग्गिस माणसंतावमुप्पाययणउंसयवेदाणुभागादो दंसणखओवसमं मोत्तूण दंसणोवजोगं थोवकालं पच्छादयंतस्स उदयावलियमणंतगुणहीणेण पविस्समाणस्स अणुभागुदीरणस्स बंध संतेहि वि थोवं जादं । पुणो अरदि० अनंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? थी गिद्धअणुभागादो दंसणोवजोगं विणासिय अवत्तव्वजीवगुणमविणासयादो गुणहीणाणुभागस्स चारितपरिणामम्मि अरदिं उप्पादयअरदिअणुभागस्स थोवत्तं णायसिद्धत्तादो । पुणो सोगस्स अणु० उदी० अनंतगुणही० । पृ० २१७. कुढो ? चारितविसएस इंदियविसएसु अरदिउप्पाययअरदिअणुभागादो इट्ठजण विगमेण विसयविगमेण च अरदिपुव्वं सोगमुप्पायय सोगाणुभागं थोवत्ता दो । पुणो भयं० अनंतगुणहोणं । पृ० २१७. कुदो ? दो वि परावत्तणोदएण समाणत्ते संते सोगाणुभागुदी रणकालादो भयाणुभागुदीरणकालमसंखेज्जगुणहीणं जादे तस्संबंधी संते वि अनंतगुणहीणं होदिति णव्वदे | पुणो दुगंछाए उदीरणा अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो ? भयादो उप्पज्जमाणदुक्खादो दुगुंछाए उपज्जमानं णं, किलच्छापुव्वं व दुक्खमपमिदि पडिविसेसेण थोवं जादं । पुणो णिद्दाणिद्दाए० उदीरणाणंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो ? दुक्खुप्पाययादो दुगंछाणुभागादो दुक्खभावेण दंसणोवजोगमप्पं पच्छादयं तस्स अणुभागस्स थोवत्तणायसिद्धत्तादो । पुणो पयलापयलाए० अनंतगुणहीणं । पुणो णिद्दाए० अनंतगुणहीणा । पुणो पयलाए० अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. एदाणि तिणि वि अप्पाबहुगपदाणि सुगमाणि पयडिविसेसावेक्खाए थोवथोवाणि जादाणि त्ति । पुणो अजसगित्ति-णीचागोदाणं उदीरणा अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो ? दंसणोवजोगपच्छादण य पचलादो उवजोगपुव्वमाणोदएण परिणदजीवस्स अजगत्ति-णीचा गोदाणुभागं दुक्खमुग्पादयत्तादो थोवं जादं । एत्य सूचिदप्पसत्थविहायगदिदुभग दुस्सर-अणादेज्जमिदि चत्तारि पयडीणं । ४ । उदीरणाए पुत्रवत्तदोन्हं पयडीणमुदीरणाए एयंतरभवपच्चयादिकारणसामग्गीए समाणं वा होणं वा होदि त्ति वत्तव्वं, एगदरस्स णिण्णयकरणोवायाभावादो । ० Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया पुणो णिरयगदीए० उदीरया अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो ? अजसगित्ति-णीचा गोदाणुभागबंधादो अनंतगुणहीणस्सेदस्स बंधस्स णिरयमत्तकज्जस्स अप्पत्तसिद्धीए । देवगदीए० उदीरणा अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कथं कम्मइयाणुभागबंधादो अनंतगुणाणुभागबंधदेवग दिउदीरणं णिरयगदीदो अनंतगुणहीणं जादं ? ण, भवपच्चइयेण दो वि सामण्णे संते संकिलेस - मज्झिमपरिणामे णुदीरणकयविसेसत्तादो | पुणो रदीए० उदीरणा अनंतगुणहीण । । पृ० २१७. कुदो ? पंचाणुत्तर - सदर सहस्सारदेवेसु कमेण सामित्तसंभवादो सुभपयडीण मणुभागादो असुहपयडीण मणुभागस्स थोवत्तं णायगदत्तादो । हस्सस्स उक्क० अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो? देसघादि - अघादिपयडीणं परिणामपच्चइय-भवपच्चइयाणं कयपयडिविसेसत्तादो । णिरयाउगस्सुदीरणा अनंतगुणहीणा । पृ० २१७ कुदो ? सुहासुहपयडिविसेसादो मिच्छाइट्टिणा बद्धाणुभागत्तादो वा अप्पं जादं । पुणो मणुसगदीए उदीरणा अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कथं बंधेण णिरयगदिअणुभागादो अनंतगुणभूदकेवलणाणावरणभागादो अनंतगुणस्स मणुसग दिउदीरणा अनंतगुणहीणं जादं ? ण, भवपच्चइएण जादिवसेण बिट्ठाणाणुभागुदीरणं जादत्तादो | पुणो एत्थ सूचिदपंचिदिय- वज्जरि सहसंघडणाणं दोन्हं पयडीणं । २ । उदीरणा मणुस - गदिउदीरणाए समाणं वा हीणं वा होदित्ति वत्तव्वं भवपच्चयादिसमाणकारणोवलंभादो । ओरालियसरीर० अनंतगुणहीणा । पृ० २१७ कथं मणुसदिअणुभागबंधादी अणंदगुणहीणबंधाणुभागस्सेदस्स अदीव थोवत्तं ? जादिवसेण सुभतरपयडिविसेसेण बिट्ठाणियउदीरणाजादत्तादो । एत्थ सूचिदतब्बंधण संघादगोवंगमिदि तिहं पयडीणं । ३ । उदीरणा सरिसादो सरिसा त्ति वत्तव्वं । ( ६३ मनुस्सा उगं० अनंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? सम्मादिट्ठिओरालियस रीराणुभागादो मिच्छादिट्ठिणा बद्धमणुस्सा उगमणंगुणही होदिति । तिरिक्खाउग० उदीरणमणंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? सुभतर - सुभपय डिविसेसादो । पुणो इत्थिवेदस्स० अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो ? अप्पसत्यत्तादो कम्मभूमियतिरिक्खेसु भवपच्चइएण उदीरिदत्तादो । पुरिसवेदस्स० उदीरणा अनंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो ? तत्तो एदस्स अदीव अप्पसत्तिजुत्ताणुभागत्तादो । ४४ मलग्रन्थेऽतः प्राक् देवाउ० अणं ० ग० हीणा ' इत्येतदधिकं वाक्यं समुपलभ्यते । Jain Education international " Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट पुणो तिरिक्खगदीए० अणंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो ? समाणसामित्ते संते वि देसघादि-अघादिपयडिविसेसणादो। पुणो एत्थ सूचिदकक्क (क्ख ) ड-गरुवाणं दोण्हं । २ । पयडीणमुदीरणा अणंतगुणहीणा । कुदो ? एयंतभवपच्चइयत्तादो। पुणो वि सूचिदमदमज्झिमच असंठाण-पंचंतिमसंहडणाणमिदि । ९ । णवपयडीणं उदीरणा तत्तो समाणं वा हीणं वा होदि त्ति वत्तव्यं, भवपच्चइयादिकारणेहि समात्तादो। पुणो कमेण णिरय-देव-मणुस-तिरिक्खाणुपुब्बी इदि चत्तारि । ४ । वि अणंतगुणहीणाणि होति त्ति वत्तवाणि। तत्तो चरिंदियजादी। १_1 अणंतगुणहीणं जादिवसेण होदि त्ति वत्तव्यं । पुणो चक्खुदंसण०उदीरणमणंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो सुदणाणावरणबंधाणुभागादो अणंतगुणभूदचक्खुदंसणस्स बंधाणुभागं तिरिक्खगदीदो अणंतगुणहीणं जादं ? ण, चक्खुदंसणावरणखओवसमजुत्तजीवस्स तक्खयोवसममाहप्पेण उदयावलियं पविस्समाणाणुभागं अग्गीए दाविदपिछोक्ख (पिंडो व्व ) अदीव ओहट्टदि त्ति तं थोवं जइ वि तक्खयोवसमविरहिदतीइंदिएण उदीरिदअणुभागमुक्कस्स जादं तो वि तं थोवं जादिवसेण जादं । तत्तो आदावमणंतगुणगुणहीणं । तत्तो एइंदिया (य-) थावराणि सरिसाणि अणंतगुणाणि । पुणो सूचिदपयडि तीइंदियकम्म चक्खुदंसणेण सरिसं। तत्तो बेइंदियमणंतगुणहीणं । तत्तो कमेण सुहम-साहारण-अपज्जत्ता च हीणाओ होंति त्ति वत्तव्वं । एवं एत्थ अट्ठ पयडीयो होति । ८ ।। पुणो सम्मामिच्छत्तुक्क० अणंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? मिच्छत्तजहण्णाणुभागादो चक्खुदंसणावरणमणंतगुणमुदी रेदि, सम्मामिच्छतं पुण तत्तो अणंतगुणहीणं सव्वघादु (सव्वदा उ-) दीरेदि त्ति। पुणो दाणंतराइय० अणंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? खओवसमपयडीणं जम्मि जादिम्मि खओवसमो वड्ढि तम्मि जादिम्मि अणुभागो वड्ढदि । णवरि मदि-सुदावरणं मोत्तूण तदो एइंदिएसु उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो वि देसघादिबिट्ठाणियाणुभागं चेव जादत्तादो । पुणो लाभांतराइयमणंतगुणहीर्ण । भोगांतराइयमणंतगुणहीणं । परिभोगांतराइयमणंतगुणहीणं । पृ० २१७. ___ कुदो ? दाण-लाभ-भोग-परिभोगाणं माहप्पणि विचारिज्जमाणे संसारिजीवेसु कमेण थोव-थोवमाहप्पदंसणादो। तदो तदणुसारिपयडी वि होंति त्ति वत्तव्वं । पुणो अचक्खुदंसणस्स० अणंतगुणहीणा । पृ० २१७. कुदो? परिभोगांतराइय-अचक्खुदंसणाणि दो वि सुहुमेइंदिएसुप्पम्णपढमसमए लद्धियक्खरं जादं तो वि पयडिविसेसेणप्पं जादं । पुणो वीरियंतराइयमणंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो? पर्याडविसेसेण थोवं जादं। अहवा दसणं जीवस्स लक्खणभूदं, वीरियस्स तदभावादो अप्पं जादं । तदो तदणुसारि तेसिं ...धि कम्मं पि होदि त्ति वत्तव्यं । पुणो वेदगसम्मत्तमणंतगुणहीणं । पृ० २१७. कुदो ? देसघादिप्फद्दयाणं सम्मादिट्ठीहिं उदीरिदत्तादो । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (६५) पुणो णिरयगदीए एक्कवचासपयडीणं उत्तप्पा बहुगेण सूचिदेक त्तीसपयडीणं, पुणो तिरिक्खगदी गूणसपिडीणं उत्तप्पाहुगेण सूचिदपंचहत्तरिपयडीणं, पुणो मणुसगदीसु सट्ठिपयडी उत्तप्पा बहुगेण सूचिदसत्तसट्ठिपयडीणं, देवगदी सुत्त चडवण्गपय डीणमप्पाबहुगेण सूचिदबत्तीसपाबहुगेण च परिणाम-भवपञ्च इयादिकारणेहि जासिं जम्मि जम्मि पयडीए संबंधमत्थि तम्मि तम्मि तेसिं तेसिं पवेसिय वत्तव्वाओ । णवरि भगदीसु सुभपयडीगं अणुभागाणं वड्डीए कारणं असुभपयडीए(णं) ओवड (दृ) णाए च कारणं, पुणो असुभगदीसु एदेसिं विवज्जासाणं च कारणं, अधिणाण-ओधिदंसणावरणाणं खओवसम सहगद्गदीसु ओवट्टणमिदरगदीसु वड्डीए च कारणं जाणिय वतव्वं । ( पृ० २२६ ) पुणो जहण्णाणुभागउदीरणप्पा बहुगम्मि लोभसंजलणप्पहुडि जाव णउंसगवेदत्ता वेग (वेदं तावेग) हाणियाणं, मणपज्जवणाणावरणप्पहुडिबिट्ठाणियाणं जाव मिच्छत्ता त्ति ताव कारणं सुगमं । तत्तो ओरालिय० अनंतगुणं । पृ० २२७. कुदो ? सुहत्तादो । वेव्विय० अणंतगुणा । पृ० २२७. कुदो ? तत्तो वेगुव्वियं होदूण द्विदो वि सुहयरत्तादो अनंतगुणं जादं । एवं उवरि वि दव्वं जाव तिरिक्खगदीदो गिरयगदि अनंतगुणं जादेति । एत्थ तिरिक्खगदीदो णिरयगदिसंतमणंतगुणं चैव कारणं तो वि भवपश्चइयसंबंधिअंतरंगकारणसण्गिहाणबलेण तहाभावविरोहादो । तदो उवरि देवगदि त्ति वत्तव्वं, सुगमकारणतादो । वरि पुत्तप्पा बहुगेसु गुणट्ठाण | णमघादि घादिकम्माणं परिणामपश्चयाणं सुहासुहपयडी चयविसेसेण जाणिय वत्तव्वं । दो णीचागोदाणं अजसगित्तीए च अनंतगुणा । पृ० २२७. कुदो ? संतबहुत्तादो । पुण असादमणंतगुणं । पृ० २२७. कुदो ? पुव्युत्तकारणत्तादो । पुणो उच्चागोदमणंतगुणं । पृ० २२७. कुदो ? जदिवि संतं थोवं तो वि असादमेइंदियादिसु सव्वत्यमुदीरेदि, उद्यागोदाणं पुण पंचिदिए चेव उदीरेदि त्ति अनंतगुणं जादं । पुणो जसगित्ति अणंतगुणं । पृ० २२७. कुदो ? सत्ता (संता) णुसारित्तणेण जादं । पुण सादमणंतगुणं । पृ० २२७. कुदो ? पुव्युत्तकारणत्तादो । पुणो रिया उगमणंतगुणं । देवाउगमणंतगुणं । पृ० २२७. कुदो ? संतबहुत्तावेक्खत्तादो । एवमोघपरूवणा गदा । तदो अणंतरमादेसपरूवणं गदीसु ओघं चेव अणुमणिय वक्तव्वं । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ (६६) परिशिष्ट पुणो भुजगारपरूवणा सुगमा । पृ० २३१. पुणे। वि अप्पाबहुगम्मि ( पृ० २३६ ) किंचि अत्थं भणिस्सामो । तं जहा आभिणिबोहिय० अवहिदउदीरया थोवा । पृ० २३६. फुदो ? एवं वेदगसव्वजीवरासिम्सासंखेजलोगमेत्तपडिभागियत्तादो। तं कुदो ? अणुदीरणकालभजिदवेदगरासिस्स अवदिउदीरणकालगुणिदमेत्तत्तादो । अप्पदरउदी० असंखेजगुणा । पृ० २३६. कुदो ? विसोहिअद्धाए हिदकिंचूणदुभागमेत्तसव्वजीवरासिपमाणत्तादो। पुणो भुजगारुदीरणा विसेसाहिया। पृ० २३६. कुदो ? संकिलेसाए संचिदूट्टिदजीवरासिम्स सादिने यदुभागपमाणत्तादो । केत्ति यमेत्तेण सादिरेयं ? संखेजभागमेत्तेण । तेसिं हवणा १३।५।। एवं सुदणाणावरणादिसत्तपयडीणं ९ वत्तव्यं । पृ० २३६. तदो दंसणावरणीयं-सादासाद- १३४ सोलसकसाय-अट्ठणोकसायाणं सव्वत्थोवमवद्विदउदीरया । पृ० २३६. सुगममेदं। 221 अवत्तव्वउदी० असंखेजगुणा । पृ० २३६. कुदो ? अंतोमुहुत्तपडिभागियत्तादो । तदो उवरिमदोपा(प)दाणि (पृ० २३६) सुगमाणि । पुणो उवरि उच्चमाणपयडीणं अप्पाबहुगाणि सुगमाणि । पुणो पदणिक्खेवाणं परूवणा सुगमा (पृ० २३७ ) । णवरि जहण्णवडिसामित्ते (पृ० २४४) वेगुम्वियजहण्णाणुभागुदीरणवड्डी कस्स ? बादरवाउजीवस्स बहुसमयं उत्तरं विगुविदस्से त्ति (पृ० २४८) उत्तं । __ किमढे दुसमउत्तरविगुश्विदस्स ण दिजदे, जहण्णवडि तम्मि चेव दिस्समाणत्तादो ? सञ्च मेवं होदि, किंतु बहुसमयं विगुश्वियम्स मंदपरिणामत्तादो एत्थतणदु समयवद्धिं घेत्तव्वं ति उत्तत्तादो। एवं अणुभागुदीरणा गदा।। पुणो एदस्सु( पदेसु )दीरणाए (पृ० २५३) मूलपयडिउदीरणपरूवणा सुगमा । (पृ०२५३) उत्तरपयडिउदीरणाए उकस्ससामित्तं परविदसुत्ते पंचणाणावरण-छदसणावरण-सम्मत्तचउसंजलण-तिण्णिवेद - मणुसगदि-पंचिंदियजादि - आरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघादछस्संठाणाणं ओरालियंगोवंग-बजरिसहादितिण्णिसंघडण-पंचवण्ण-दोगंध-पंचरस-अट्टफास-अगुरुग. लहुगचउक्क-दोविहायगदि-तस-बादर-पज्जत पत्तयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-दुस्सरआदेज-जसगित्ति-णिमिण-तित्थयर-उञ्चागोद-पंचतराइयाणं उक्करसुदीरणदव्वं असंखेजसमयपबद्धपमाणमिदि घेत्तव्वं । सेसाणं पयडीणमसंखेजलोगतप्पडिभागियं उदीरणदव्वमिदि वत्तव्वं । एवं उदीरिददव्वं चेव पहाणभावेण भणिदमण्णहा ओहिणाणं ओहिदसणावरणं व उदयगोउच्छसहिदुदीरणदव्वग्गहणं पावदि । तं कथं ? एदेसिं दोण्हमुक्कस्सुदीरणमोहिलाभे ण होदि त्ति उत्तं' । तस्स कारणं भणिदं । , मूलमन्थे 'णवरि विणा श्रोहिलंभेण' इति पाठोऽस्ति । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (६७) पमसापमनद्धाम ओहिणाणमहेदु(ब्रु)कम्मविमोहीहि ओकड्डिय मुट्ठमीकय[उदय]गोउच्छत्तादो इदि । पृ. २५३. एदम्मथो- ओकट्टिददव्वं परिणामयनं (यं, नं) पहागणं 'पा कद, मंगो उच्छं चेव पहाणं कदं । एवं संत सव्वेसि कम्माणं आउचकामा उन्नाववजाणं मेसाणमसंग्जसमयपवद्धदारणं पावेदि । कुदो ? अप्पसत्यमरणेण सव्वेसि कामाणं गुणमेदि उदयदंगणादी । पुणो भुजगारपरूयणा सुगमा । गरि अपाबहुगम्मि किचियत्वं भणिस्मामी । नं जहामदिआवरणस्स अवहिद उदीरया थोवा इदि उत्तं । पृ. २६१. तं कधं ? असंखजलोगपरिणामपडिभागियत्तादो। कथं निण्णमद्धाणं समासपडिभागियमिदि ण घेपदे ? ण, तहा घेप्पमाणे सादादिपरावत्तोदये पय डोणं पुरदो भागमाणप्पाबहुगाणं विघडणादो। भुजगारुदीरया असंखेजगुणा । पृ० २६१. कुदो ? मदिआवरणवेदगसव्वगसिस्स किंचूणदुभामेत्तादो। तं पि कुदो ? विसोधिअद्धा वि संचिदत्तादो। पुणो अप्पदरउदीरया विसेसाहिया । पृ० २६१. कुदो ? एदस्स पाओग्गसव्व जीवगसिम्स सादिरेयदुभागनादो। पदं पि संकिलेसद्धासंचिदमिदि घेत्तव्यं । तसिं दृव गा| १३=५| पुणो पचण्हं दंसणा- 2 वरणाणं एवं चेव वत्तव्यं । णवरि अवाहिदउदीरया थोवा । अवत्तव्य- ९| उदीरया असं०गुणा । पृ० २६१. उवरि दो पदाणि पुव्वं व|_ १३७ | व |.१२७१३ | १३४ | १३५ , एदं गंथे उत्तं । 2 |५=2/२७ ५९] ५९ । अथवा अवत्तव्य उदीरया थोवा । अट्ठिद उदीरया असंखेज गुणा । कुदो ? अद्विद-भुजगारप्पदरअद्धाभो कमेण सत्तसमय(या) आवलियाए असंखेजदिभागो। तत्तो संखेजभागुत्तराओध(द)रिय पुवं व पुह पुह् पंचणिोदयजावगसिपमाणम्मि आणिय तिविहरासिं हविय पुणो सगसगसव्वद्धाहि पुह पुह पंचणिदुदीरणरासिओवट्टिदे अवत्तव्व उदीरया हांति, ते पुश्विल्ल रामीण पुह पह हेट्ठा हविय जोइदे तहोवलंभादो । ते चेदे |१२२५ । कथमेत्य अवविद उदीरयाणं मग्गणटुं असंखेजलोगपडिभागो ण लद्धो ? ण, णिद्दोदएण । ७२९ परवसीभदाणं मंदपरिमाणं नारिमणियमस्सेदेसि कम्माणमभावादो। पुणो सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा अवहिद- उदीरया। पृ० २६१. कुदो ? असंखेजलोगपडिभागियतप्पा- ओग्गासंखेजभागहारम्स वेदगसम्मा दिदिरासिम्मि उवलंभादो। पुणो अवत्तव्य उदीरया असंखेजगुणा १३) इदि । पृ. २६२. कुदो ? सगुवक्कमणकालेणीवधि(ट्रि)द- - वेदगमम्मत्तगसिपमाणत्तादो। उवरिमदोपदाणि पुव्वं व । णवरि भुजगारपदमुवरि कादव्वं । कुदो ? सम्मादिट्ठीसु १३. श Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. (६८) परिशिष्ट संकिलेसद्धादो विसोहिअद्धा विसेसाव्हियत्तवलंभादो । नेमि मंदिट्ठीप, 24/। पुणो सम्मामिच्छत्तस्स अवविदउदीग्या थोबा ।। 22 अवतव्य उदीरया असंखेजगुणा । पृ० २६२. सुगममेदं। पुणो भुजगारउदी० अप्पदरउदी. तुल्ला असंग्वेज- | ३३९ गुणा । पृ० २६२. कुदो सरिसत्तं ? मिच्छत्त-सम्मत्तपरिणामाणं मझे हिद-। प३ परिणामाणं परिणामस्सेदस्सुकलंभादो, तदो नत्य ट्ठिददीहं किरियापरिणदर्जीवाणं । ३०३ मरिमनवलंभाद।। (पृ. २६२) पुणो सादासाद-मोलसकसायादिपरूविदगत्तरियपयडीणमट्टिदउदीरया थोवा । कुदो ? असंखेजलोगमेत्तरकालम्स भागहारत्तु वलंभादो । पुणो अवत्तव्यउदीरया असंखे-गुणा । पृ० २६३. कुदो ? सग-सगपाओग्गंतोमुहुत्तावलियाए असंखेजदिभागमेत्तं वा उवक्कमणकालपटिभागियत्तादो। उवरिमदोपदाणि (पृ. २६३ ) सुगमाणि । कथं परावतोदयपयडीणं अवहिदपमाणसंखेज्जलोगमेत्तरं संभवो ? ण, परावत्तोदयाणं उदयाणुदयसरूवहिदाणमवहिदपदाणं चेवंतरविवक्खादो। पुणो मिच्छत्तादिपरू विदट्ठपयडीणं णामस्स धुवोदयबारसपयडीणं पृ. २६३) अप्पाबहुगाणि सुगमाणि । ____पुणो चउण्णमाउगाणमवद्विदा० थोवा । अवत्तव्यउदी. असंखेजगुणा। अप्पदरउदीर० असंखे०गुणा । भुजगारउदो० विसेसाहिया । पृ० २६३. एदेसिमत्थो सुगमो। केण कारणेण आउगाणं भुजगार० बहुवा ? पृ० २६३. एदिस्से पुच्छाए अत्थो उच्चदे-मिच्छाइट्टिम्मि उदीरिज्जमाणसव्वकम्माणमाउगवजाणं भुजगारुदीरगादो अप्पदरुदीरगा विसेसाहिया जादा । आ उगाणं पुण अप्पदरादो भुजगारा बहुवा केण कोरणेण जादा इदि पुच्छिदं हादि । पुणो तस्स उत्तरमाह जे असादा अपज्जत्ता ते असादोदएण बहुवयरवदे त्ति (बहुवयरा बटुंति )। जे साद(साद।) अप[ज]त्ता ते बहुवयरा सादोदएण परिहायंति, थोवयरा वडति ति । _____एदस्सत्थो उच्चदे- जे जीवा असादा असादसंकिलेसपरिणदा अपजत्त(त्ता) पज्जत्तीहिं असंपुण्णा होदूण ढिदा मज्झिमसंकिलेसपरिणदा ते जीवा असादोदएण दुक्खाणुभवणरूवेग विदा बहुवयरा बहुजीवा वढंति आउगस्स भुजगारं कुवंनि । पुणो एदेण उवरिमसादोदयपरूवर्णाम्म थोवा वडति त्ति उत्तवयगेग सूचिदत्यो उच्चदे-थोवा जोवा विसोहिपरिणदा असादोदयमझिमविसोहिपरिणद(दा) अपजत्ता च अप्पदरं कुवंति त्ति । पुणो जे जीवा साद(दा) विसोहिपरिणाममज्झिमविसोहिपरिणद(दा) अपज्जत्ता च ते जीवा बहयरा बहधा(वा) जीवा सादोदएण सुहाणुभवणरूवेण हिदा परिहायंति- अप्पदरं कुव्वंति, थोवयरा वइंति-थोवा जीवा संकिलेसपरिणद(दा) अपज्जत्ता च भुजगारं कुर्वनि त्ति भणिदं होदि । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (६९) एदस्स भावत्थो- असादोदयम्मि विसोहिअद्धादो संकिलेसद्धा सादिरेया, सादोदयम्मि विसोधिअद्धादो संकिलेसद्धा विसेसहीणा । चरिमावलियाए आउवउदीरणा णत्थि त्ति संकिलेसभागाउघउदीरया होंति, तेसिं पि संखेज्जा भागा असादोदइल्ला होति, संखेजदिभागो सादोदइल्ला होति । अपज्जत्तद्धादो संखेजगुणाओ पजत्तद्धाओ होति । अपज्जत्तगहणं मज्झिमविसोहिसंकिलेसाणं च गहणटुं उवलक्खणं भणिदं । पुणो तत्थ तिरिक्खाउगस्स उत्तचउव्विहरासिपंतीणं संदिट्ठी एसो(सा) १३८७७५] १३८७५|१३८७५ | १३८५ अ १३८७४५ ९७७९भ |भ ७७५ अ ९७७९/ ९७७१ । ९७९ | १३८७७४|१३८७४ १३८७४|१३८४ भा१३८७४ ९७७९ अ अ ९७७९भ ९७७९] ९७७९ । ९७९ १३८७७ १३८७ | १३८७ । १३८ १३८ ९७७२७९७७२७|९७७२७ / ९७७२७ ९२७ १३८७७ । १३८७ | १३८७ १३८ । १३८ ९७७ =2९७७=2|९७७=2९७७ =2 | ९=2 एदेण कारणेण आउवाणं अप्पदरउदीरगादो भुजगारा बहुवा जादा। एवं सेसतिण्णमाउगाणं संदिट्ठी वत्तव्वं (वा)। पुणो चउण्णमाणुपुव्वीणं अपट्ठिदउदी० थोवा । पृ० २६३. कुदो ? दोसमयसंचिदरासिस्स तप्पाओग्गअसंखेजस्वो वा असंखेजलोगो वा भागहारोवलभादो।" भुजगार० असंखेजगुणा । पृ० २६३. कुदो ? दोसमयसंचिदरासिस्स किंचूणदुभागत्तादो । अवत्तव्व. विसेसाहिया । पृ० २६३. कुदो ? एगसम-[य] संचिदरासिपमाणत्तादो । अप्पदर० विसेसाहिया। पृ० २६३. कुदो ? दुसमयसंचिदरासिस्स सादिरेयदुभागत्तादो। एत्थ चोदगो भणदि- एदमप्पाबहुगं तिरिक्खाणुपुव्वीए चेव घडदे, ण सेसाणं । कुदो ? पुव्वुत्तप्पाबहुगं तिविग्गहेण विणा ण घडदि त्ति ? ण, तिण्णं विग्गहाणं सव्वेसिमाणुपुत्वीणं अत्थित्ताभिप्पाएण उत्तत्तादो । अण्णहा सेसं(सेस-) तिण्णमाणुपुव्वीणं अवत्तव्वउदीरया अप्पदरउदीरयाणं उवरि विसेसाहियं होज । पुणो आदेज-जसगित्ति-तित्थयराणं च परूवणा सुगमा । (पृ०२६४) पुणो पदणिक्खेवस्स परूवणा सुगमा । णवरि अप्पाबहुगम्मि (पृ० २७१ ) किंचि भत्थं भणिस्सामो । तं जहा मदिआवरणस्स उक्कस्सहाणि(णी)अवट्ठाणं दो वि सरिसाणि थोवाणि । पृ० २७१. कुदो ? उवसंतकसारण उदीरिददव्वम्मि पुणो देवेसुप्पण्णदेवेसुदीरिदतत्थतणदव्वे अवणिदे सेसमुदीरणविरहियदव्वं हाणी अवट्ठाणं च होदि । तं चेदं स ३२१२३ || उकस्सिया वड्डी असंखेअगुणा । पृ० २७१. |७४ ओ 24 । मप्रतितः संशोधितोऽयं पाठोऽस्ति । तत्संशोधनात् प्राक् स एवंविष मासीत्- दोसमयसंचिदरासिरस किंचूणदुभागत्तादो। तप्पाओग्गअसंखेजरूवो ओ वा..." Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) परिशिष्ट कुदो ? समयाहियावलियम्बोणकसाएणु दीरितकि चूणदव्वगहणादो |स ३२१२३१ । । एवं सुदणाणावरणादिपरूविदे ऊणासीदिपयडीनं ७ सग-सगपाओग्गदत्रपरिबद्धप्पा बहुगं वत्तव्यं । ७५ भ 22 पुणो असादस्स उक्कस्सिया हाणी अवद्वाणं च दो वि सरिमाणि थोवाणि । कुदो ? सत्थाणपमत्तसजदेणुक्करस विसोईीण (हिणा) उदीरिददव्वं किंचूणीक दउदीरणविरहिददव्यमाणत्ताद । तं चेदं । स ३२९२४२ | ओ 2 = 2४२ उक्कस्सिया वड्डी असंखेअगुणा । पृ० २७१. कुदो ? अप्पमत्ताहिमुहचरिमसमयपमत्तेणुदीरिद किंचूणमेत्त वढिदव्त्रगहणादो स ३२१२४२ । । ७५ ओ = 28 पुणो दंसणावरणपंचयस्स उक्कस्सिया वड्डी थोवा । पृ० २७१. कुदो ! सद्वाणद्विदपमत्तसजदेण विसोहीदि उदीरिदेत्तिय । स ३२१२ गहणादो । 42=28 पुणो हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । पृ० २७१. कुदो ? तपाओग्गुक्करससंकिले सेणुदारिव्वेणेत्तिएण | स ३२२२ तप्पा ओग्गजहणवि सोहीहि उदीरिददव्वादो एत्तियमेत्तादी ७ ख ९ ओ = 228 स ३२१२ असंखेज्जगुणहीणेण परिहीणपुल्लितप्पा ओग्गुक्कस विसोही हिंउदी७ ख ९ ओ 2 = 2४ |रिदेत्तियमेत्तपमागत्तादो स ३२१२ ७ ख ९ ओ 2 = 28 I पुसादस्स हाणी अवद्वाणं च थोवाणि । पृ० २७१. कुदो ? अप्पमत्ताहि मुहचरिमसमयपमत्तेणुदीरिद किं चूदव्यमाणत्तादो । केतिएणूणं ? तेण चेव पमत्तेण देवेसुप्पण्णपढ म समएणुदीरिददव्वमेत्तेण । तं चक्खुस्स दव्वमेत्तियं स ३०१२ |७५ ओ 2 = 22४ | पुणो वड्डी असंखेज्जगुणा । पृ० २७१. मेतदव्य कुदो ? खवगसेढिपाओग्गअप्पमत्ताहिमुहचरिमसमयपमत्तेणुदीरि दकिं चूणदव्वमेत्तत्तादो । तं चेदं | स ३२१२ ७५ ओ 2=2४ पुणो इत्थि - उंसय वेद- अरदि-सोगाणं सव्वत्थोवं अवट्ठाणं । पृ० २७१. कुदो ? सत्थाणसंजदेणुक्कसविसो [ही] हिमुदीरि ददव्वगहणादो । पुणो हाणी असंखेजगुणा । पृ० २७२. कुदो ? उवसमसेढीए आंदरमाणेण पढमसमयवेदगेणुदीरिद किंचूणदव्वपमाणत्तादो । बड्डी असंखेजगुणा । पृ० २७२. कुदो ? खवगसेढीए चरिमसमयवेदगेणुदीरिदकिंनूणदव्वत्तादो । पुणो आउगाणं वड्डी थोवा । पृ० २७२. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (७१) कुदो ? सग-सगगदीणं उक्कस्साणुभागवडूिं करेमाणेणुदीरिदसग-सगाउगदव्वाणं किंचूणमेत्ताणं गहणादो। पुणो हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । पृ० २७२. कुदो ? सग सगगदोणं उनकस्साणुभागुदीरणं हाणी(-दीरणहाणि) कदेणुदीरिदकिंचूणदब्वपमाणत्तादोस३२२७ ।। |८ ज2 पुणो तिण्णं गदीणं चउण्णं जादीणं च परूवणा सुगमा । पृ० २७२. पुणो मणुसगदि-ओरालियसरीरादीणं सत्तरसपयडीणं वेगुब्बियसरीरादिचोदसपयडीणं च परूवणा सुगमा । ३१ । । पृ० २७२. पुणो चउण्णमाणुपुवीणं उक्कस्सिया हाणी अवट्ठाणं च थोवा । पृ० २७२. कुदो ? पढमविग्गहे तप्पाओग्गविसोहीए उदीरिददव्वम्मि बिदिविग्गहे तप्पाओग्गसंकिलेसेणुदीरिदजहणणदवेणूणीकयमेत्तत्तादो। एत्थ तिगमाणुपुठवीणं अवठ्ठाणं तिण्णिविग्गण विणा ण संभवदि त्ति अभिप्पापण वत्तव्यं । वड्डी असंखेजगुणा । पृ० २७२. कुदो ? कदकर्राणजाण बिदियविग्गम्मि उदीरिदकिंचूगदव्वगणादो। तं पि कुदो ? जाव समयाहियावलियकदकरणिज्जो ताव असंखेजगुणदव्वमाकडुदि त्ति । तेसिं चउण्णं पि कमेण ढवणा एसा स ३२१२३ । स ३२१२३ । स ३२१२३ | स ३२१२३ ७२.६ ओ= 2४ | ७२३ ओ = 2४ | ७२३ ओ= 2४ | ७२६ ओ = 2४ स ३२१२ स ३२१२ स ३२१२ | ७२६ ओ = 2४ | ७२३ ओ = 2४ ! ७२७३ = 2५ । ७२६७ = 2४. पुणी उवसमसेढिम्मि उदयसंभवंतसंहद(ड)णाणं अवट्ठाणं थोवं । पृ० २७२. कुदो सत्थाणसंजदम्मि उक्तस्सवद्धिं कुदो (?)? ण, बिदियसमयावट्ठिद(द) करेंतस्स उकस्सदव्वगहणादो। किमहमुवसंतकसायम्मि ण घेापदि ? ण, जम्मि वडि-हाणि-अवट्ठाणाणि तिणि वि संभवंति तम्मि चेव अवठ्ठाणगहणमिदि अभिप्पायादो। पुणो हाणी असंखेजगुणा । कुदो ? ओदरमाणुवसंतकसारण सुहुमसांपराइए जादेणुदीरिददव्वम्मि हाणिदव्वं मोत्तूण उदीरिजमाणदव्वं चेव गहणादो। वड्डी असंखेजगुणा। कुदो ? उवसंतेणुदीरिजमाणदव्वम्मि वविददव्वस्सेव गहणादो । पुणो सेसाणं हाणी थोवा । पृ० २७२. कुदो ? सेसं (सेस-)तिण्णं संघा(घ)डणाणं सत्थाणसंजदम्मि उक्करसहाणिगहणादो। पुणो वड्डी अवट्ठाणं च दो वि विसेसाहियाणि' । पृ० २७२. १ मूलग्रन्थपाठस्त्वत्रैवंविधोऽस्ति- उवसमसेढिम्हि उदयसंभवसंघडणाणं वड्डी अवट्ठाणं थोवं । हाणी विसे। सेसाणं संघडणाणं वडी थोवा । हाणी अवठ्ठाणं च विसे । छ. प. १० Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२ ) परिशिष्ट ___ कुदो ? उक्कस्सहाणीए णिबंधणं होदूण हिदहेट्टिमपरिणामादो अणंतगुणहीणपरिणामे हाइदूण उक्करसवड्डीए वडिदूण उदीरिदत्तादो विसेसाहियं जादं । पुणो अजसगित्ति-भग-अणादेजाणं (अणादेज-णीचागोदाणं) उकस्सिया हाणी अवट्ठाणं च थोवाणि । पृ० २७२. कुदो ? सत्थाग विसोहीए ट्ठिदअसंजदसम्मादिट्ठीहिं उदी रिदुक्कस्सदव्यत्तादो। पुणो वड्डी असंखेजगुणा । पृ० २७२. ___ कुदो ? दंसणमोहक्खवणम्मि उदीरिदुक्कस्सदव्वगहण्णादो, अहवा अपमत्ताहिमुहाणं चरिमसमए उदीरिददव्वगहणादो। पुणो वडिउदीरणप्पाबहुगम्मि (पृ० २७४ ) किंचियत्थं भणिस्सामो। तं जहामदिआवरणस्स अवडिदउदीरया थोवा इदि । पृ० २७४. कुदो ? असंखेजलोगमेत्ताणं असमाणपदेसुदीरणणिबंधणाणं सादासादबंधकारणपरिणामाणं छवडिकमेण ट्ठिदाणं रचणं कादूण पुणो तेहिं सव्व जीवरासिपमाणं एत्थ पाओग्गाणं भागे हिदे एगेगपरिणामम्मि हिदजीवा थोरुच्चएण आगच्छति । पुणो तत्थ एगपरिणामट्ठिद. जीवे ताव धरिय आणिजमाणे अवटिदुदीरणविसयो एगपरिणामो १ होदि । पुणो तप्परिणामप्पहुडि एगखंडयं दुरूवाहियखंडेण गुणिदमेत्तपरिणामट्ठाणाणि असंखेज्जभागवट्टि उदीरणविसयाणि होति ४६ । पुणो तत्तो उवरि तमद्धाणं रूवाहियं करिय जहण्णपरित्तासंखेजयस्स तिष्णिचउभागेण गुणिदमेत्ताणं संखेजदिभागवटि उदीरणविसयं होदि|_ ।। पुणो तत्तो उवरि एदमद्धाणं जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूऊणछेदणेहि गुणिदमेत्तपमाणं ४६१६३ संखेजगुणवदिउदीरणविसयं होदि ४६१६३ च्छे । पुणो तत्तो उवरि हेट्ठिमसयल-| | द्धाणेणूणविवक्खिदेगपरिणामादो अ- ४१ । संखेजगुणवडिकारणत्तेण वडिदुक्कस्सट्ठाणाणमसंखेजलोगमेत्ताणं असंखेजगुणवडिविसयद्धाणं पमाणं होदि =३। पुणो एदेसिमद्धाणाणं पक्खेवसंखेवेण एगपरिणामट्ठिदजीवस्स अद्धं किंचूणविसोहिपरिणदमंदसादिरेयं संकिलेसपरिणदमिांद । तदो (ते दो) वि रासयो पुह पुह द्वविय भागे हिदे तत्थ लद्धं पुह पुह पंचट्ठाणेसु पडिरासिं ठविय सग-सगपक्खेवेहिं गुणिदे सग-सगविसयरासयो आगच्छंति । तेसिं सदिट्ठी। १३=५ । १३=2४ |एदाणि तेरासिएण असंखेज लोगेहि गुणिदे सव्वपरिणामेसु । =2=2९ / ९E2=2 ! ट्ठिदअवहिदादिउदीरया होति । तत्थ दोसु पंतीसु ट्रिद-१३५४६१६३ छ।१३४४६१६३२ अवट्ठिदं मेलाविय हेट्ठा ढविय 22:2९४ | ९:2328 पुणो तदुवरिमरासिमाह १३४६१६३५ । १३४६१६३४ | प्पेण कमेण ह्रविय अप्पाबहुगं भण्णमाणे अवट्ठिदउदीरया == 2९४ | ९228 | थोवा जादा त्ति। पुणो असंखेज-| १३४६५० । १३४६४ भागवड्ढिउदीरया असंखेजगुणा । पृ० २७४. १३१५ १३१४ कुदो ? विसय-| =2=2९ । ९=2E2 गुणगारमाहप्पादो। असंखेजभागहाणिउदीरया विसेसाहिया। पृ० २७४. गुणगारमाहप्पे दोण्हं सरिसत्ते संते गुणिजमाणरासिमाहप्पादो। एवं संखेजभागवड्डिउदीरया संखेजगुणा । संखेजभागहाणिउदीरया विसेसाहिया । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ७३ संखेज्जगुणवड्ढिउदीरया संखेज्जगुणा। संखेज्जगुणहाणिउदीरया विसेसाहिया । असंखेज्जगुणवड्ढिउदीरया असंखेज्जगुणा । असंखेज्जगुणहाणिउदीरया विसेसाहिया इदि । पृ० २७४. एत्थ कारणं जाणिय वत्तव्वं, सुगमत्तादो । पुणो केसु वि पुत्थएसु मदिआवरणस्स अवट्टिदउदीरया थोवा, असंखेज्जभागवड्ढि-असंखेज्जभागहाणिउदीरया विसेसाहिया, संखेज्जभागवड्ढि-संखेज्जभागहाणिउदीरया विसेसाहिया । संखेज्जगुणवड्ढि-संखेज्जगुणहाणिउदीरया विसेसाहिया। असंखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्जगुणहाणिउदीरया विसेसाहिया त्ति भणिदं । __ कथं एदस्सत्थो उच्चदे ? एवमुच्चदे- असंखेज्जभागवड्ढिसहस्संतोट्ठिद अदीयो विहंतादिस्स ट्ठिदा (?) तदो तम्मि आदि दुविय तेसु सूचिदक्खराणि एवं भ (भा) णिदव्वाणि 'उदी- . रगा अांखेज्जगुणा' इदि । एवं संखेज्जभागवढि-सांखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्जगुणव ड्ढिसद्दाणं अंतोआदिल्लच्छणं ढविय तेण सूचिदाणि उदीरणसद्दपुव्वाणि कमेण संखेज्जगुणं असंखेज्जगुणमिदि घेत्तव्यं । उवरिमपदाणि सुगमाणि । एवं भण्णमाणे अत्थो घडदे । एदस्स एसो चेव अत्थो होदि त्ति कुदो णबदे ? ण, जहासरूवेण अत्थे भण्णमाणे पुवावरविरोहो होदि त्ति । तं कथं ? उच्चदे-- जेसि कम्माणं अवत्तव्वया अणंता तेसिमप्पाबहुगं-- अवट्ठिदादो विसेसाहियं पुव्वं व भणिय णेयव्वं जाव खेज्जगुणहीण (हाणि ) उदीरया विसेसाहिया त्ति ताव । तत्तो अवत्तव्वं असंखेज्जगुणं । तत्तो असंखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्जगुणहाणिउदीरया विसेसाहिया त्ति भणिदं । पृ० २७४. एत्थ संखेज्जगुणहाणिउदीरएहितो विसेसाहियाणं अवत्तव्वादो विसेसाहियाणं असंखेज्जगुणवड्ढि-हाणिउदीयाणं कथमसंखेज्जगुणत्तं जुज्जदे ? ण, जदि असंखेज्जगुणत्तमेत्थ जुज्जदि तो पुव्विल्लम्मि किमठें विसेसाहियत्तं भणिदं, दोण्हमप्पाबहुगपंतीणं समाणत्तं सदिस्स (-त्तस्स दिस्स) माणत्तादो। एवं पुवावरविरोधो अण्णेहि वि पयारेहि आणिज्जमाणे दोसा चेव पुब्वावरेण दिसदि। पुणो एवं सव्वकम्माणं काथव्वमिदि ( पृ० २७४ ) उत्ते चउणाणावरणचउदसणावरण-तेजा-कम्मइय-तब्बंधण-संघाद-पंचवण्ण-दोगंध-पंचरस-अट्ठफास-अगुरुगलहुग-थिराथिर-सुभासुभ-णिमिण-पंचंतराइयाणं वत्तव्वं । एत्तो उवरिमपयडीणमप्पाबहुगाणि सुगमाणि । एवं पदेसुदीरणा गदा । (पृ. २७५ ) पुणो उवसामणोवक्कमो सगभेदगदो सुगमो । णवरि पयडिउवसामयअप्पाबहुगम्मि ( २७९ ) किंचियत्थं भणिस्सामो। तं जहा-- सव्वत्थोवा आहारसरीरणामाए उवसामया। पृ० २७९. कुदो? वासपुधत्तमंतरिय संखेज्जणमवसामयजीवाणं पमाणं लब्भदि तो पलिदोवमवच्छेदणयस्स असंखेज्जदिभागेणोवड्डि (ट्टि) दपलिदोवममेत्तुब्वेलणकालम्मि किं लभामो त्ति तेरासिएण Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ) आणि एत्तियमेत्तं जादत्तादो | प ७ छे २७७ २ २७७ | असंखेज्जगुणा । पृ० २७९ परिशिष्ट पुणो सम्मत्तुवसामया कुदो ? अंतमुत्तमं तरिय पल्लद्वच्छेदणयस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवा वा सामण्णपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवा वा लब्पदि तो पुव्वुत्तुब्वेल्लणकालादो असंखेज्ज (दिभाग ) मेव्वेल्लकालम्हि किं लभामो त्ति तेरासिएण लदुब्वेल्लणजा जी ) वा सम्माइट्टि - सम्मामिच्छाइट्ठिजींवा च होंति त्ति । ते चेदा | प 1 सम्मामिच्छत्तस्स उवसामगा छे २७ छे २३२७७२२ पृ० २७९. | अहवा प छे २७ विसेसा- २२२७७ कुदो ? उब्वेल्लणकालविसेसाहियत्तादो । मणुसाउगस्स उवसामगा असंखेज्जगुणा । पृ० २७९. कुदो? सामण्णमणुसरा सोए सगसंखेज्जदिभागेण अण्णगदीए द्विदजीवाणं मणुसा उगबंधेण बंधे अहियत्तादो | १३७ ।। = ७ पुणो णिरयाउवस्स उवसामया असंखेज्जगुणा । देवाउवस्म उवसामया असंखेज्जगुणा । पृ० २७९. सुगमाणि दाणि । कुदो ? पुव्वुत्तकारणत्तादो । पुणो देवगदिउवसामया संखेज्जगुणा । पृ० २७९. कुदो? पंचिदियपज्जत्तजीवाणं देवगदिबंधेण सत्तुप्पाययपाओग्गाणं गहणादो किममुव्वेल्लंतरिदजीवा एत्तो असंखेज्जगुणा ण गहिदा ? ण, विवक्खावसत्तादो; अण्णहा असंखेज्जगुणा चेव होत - 1 ४ पुणो णिरयगदीए उव- |२ सामगा विसेसाहिया । पृ० २७९. प २२ | हिया । कुदो ? अपुण्वबंध दिजीवमेत्तेण हिय उब्वेलणकालेणुव्वेल्लंतजीवमेत्तेण वा । पुणो वेगुव्वियसरीरणामाए उवसामगा विसेसाहिया । पृ० २७९. कुदो ? अपुव्वदेवग दिबंधगजीवमेत्तेण । उवरिमपदाणि सुगमाणि । ( पृ० २८२ ) पुणो विपरिणामाणुवक्कमो सुगमो । एवमुवक्कमो गदो । उदयानुयोगद्दारं ( पृ० २८५ ) पुणो उदयाणुयोगद्दारे पर्याडिउदीरयो ( उदयो ) सुगमो । णवरि उत्तरपयडीसु पवाइज्जंतोव - एसेणहस्स - रदिउदी रहितो सादवेदगा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जजीवमेत्तेणेति । पृ० २८८. एदं सुगमं । अणेण उवदेसेण सादवेदगेहिंतो हस्स-रदिवेदगा विसेसाहिया असंखेज्जभागमेत्तेण । पृ० २८८. एदं पि सुगमं, आइरियाणमुवदेसत्तादो । जुत्तीए वा - ण केवलं उवदेसेण विसेसा Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया हित्तं, किंतु जुत्तीए विसेसाहियत्तं असंखेज्जभागाहियत्तं णव्वदे जाणाविज्जदे | तं जहा - सव्वो आउगवेदगो इदि उत्ते जीवा दुविहा घादाउवा आघादाउआ चेदि । तत्थ घादाउगाणं पमाणं सव्वाउगपरिणामट्टाणेण भजिदसव्वजीवरासी सव्वपरिणामट्ठाणाणमसंखेज्जभागमेत्तघादपरिणामद्वाणेहिं गुणिदमेत्तं होदि । तं चेत्तिया | सेसा आघादा उवा । ते चेत्तिया । १३ = २ 1 पुणो घादकारण- = २ माउट्टिदि ( दिं ) भगदि - १३ = २ णियमा असादवेदगो इदि । पृ० २८८. एदस्सत्थो उच्चदे - आघादाउओ णिच्चएण असादवेदगो चेव होदिति । कुदो ? असादेण विणा घादा उगस्स घादाभावादो । किमसादं णाम ? दुक्खं । तं च दुविहं सरीरगदं परिणामगदं चेव । तत्थ सरीरगदं बादरजीवाणं पाओग्गाणं सत्यग्गि-जलसणिआदीहि सरीरपिंडेणुप्पण्णदुक्खं । परिणामगदं बादर-सुहुमजीवाणं उवघादादिकम्माणं तिव्वाणुभागोदन - सहाएणुप्पण्णसंकिलेसपरिणामाणं परिणामगद ( दं दुक्खं । तदो दुविहअसादेण घादो संभवदित्ति उत्तं होदि । ( ७५ पुणो हस्स रदी भज्जं । पृ० २८८. १३ एदस्सत्थो - आउवघादकाले हस्स- रदीणं उदयो भयणिज्जो होदित्ति । कुदो? काउलेस्सियजीवाणं केह मरणम्मि मरणकंखा, एवं हस्स - रदीणमुदयमुवलंभादो । तदो घादाउगजीवसंखं विय हस्स -रदि- अरदि-सोगाणं वेदगद्धासमूहेण भजिय सग-सगपक्खेवेण गुणिदे दुविहरासी समुवलब्भदे । ते चेदाणि १८४ । पुणो अद्धासंखेज्जगुण विवक्खादो अघादाउगरासिं सादासादेसु विभज्जि - २५ = २५ | देसु तत्थ जेत्तिया सादवेदगा तेत्तिया हम्स-रदिवेदगा होंति । पुणो तत्थ जेत्तिया असादवेदगा तत्तिया अरदि-सोगवेदगा होंति । ते सादवेदगे तो हस्स - रदिवेदगा असंखेज्जदिभागेण विसेसाहिया जादा । पृ० २८८. तत्थ सादवेदया संदिट्टियाए एत्तिया | १३ = २ || हस्स-रदिवेदया एत्तिया | १३ = २ / १३ = २५ = २५ = २५ ( पृ० २८९ ) 1 1 पुणो द्विदिउदीरयो उदयो) वि सुगमो । णवरि जहण्णद्विदिवेदयकालम्मि णामगोदवेदणिज्जाणं जहणट्ठिदिवेदया केवचिरं कालादो होंति ) ? जहण्णुक्कस्मेणंतोमुत्तं । वरि वेदणीयस्स जहण्णेणेगसमयो, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसुणा ( पृ०२९१ ) इदि उत्ते एत्थ एगसमयं णाम पमत्तो चेव असंखेज्जट्ठिदिवेदगो अप्पमत्तो होदूण एगट्ठिदिवेदगो जादो, जादबिदियसमए देवो जादो । एवं एगसमय लद्धो । ण सेसेसु हेट्ठिमगुणद्वाणेहिंतो पडवण्णो एगसमयो होदि । पडवण्णो एगसमयो होदि । * मूलग्रन्थे ' आउअघादओ ' इति पाठोऽस्ति । 10 मूलग्रन्थे 'हस्य-रदिवेदया असंखेज्जा भागा विसेसा० । इति पाठांऽस्ति । For & Personal अणुभागोदपवणा ( पृ० २९५ ) सुगमा । पुणो पदे सुदयसामित्तपरूवणा ( पृ० २९६ ) सुगमा । णवरि उक्कस्ससा मित्तम्हि पंच संहा Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ) परिशिष्ट उक्कस्सपदेसोदयो कस्स ? संजमासंजम-संजम-अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढीयो तिणि वि एगट कादूण टिदिसंजदस्स जाहे पुव्वुत्तगुणसेढिसीसयाणि तिणि वि उदयमागदाणि ताहे पंचण्हं संहडणाणं उक्कस्सो पदेसोदयो इदि भणिदं । पृ० ३०१. एदेण पंचण्हं संहडणाणमुदइल्लाणं जीवाणं दंसण मोहवखवणसत्ती णत्थि त्ति भणिदं होदि । पुणो वज्जणारायणकायणाणमुदइल्लाणं (? | पि उवसमसेढिचडणसंभवं णत्थि ति जाणाविदं । जदि एवं । तो पुवावरविरोही (हो) किं ण भत्रे ? ण वा भवे, गंथांतरमाइरियाणमभिप्पायाणं सूचयत्तादो । तं कथं ? अभिप्पायं उच्चदे-एदेसिमुदयो पोग्गलविवाग करेदि । ते पोग्गला जीवाणं राग-दोसाणमप्पायणणिमित्तिसत्तिमापादयंति । जहा बाहि पोग्गलाण सत्ते विपप्पो तहा उवसमसेढोए राग-दो मुप्पाएदं ण सक्किनदि त्ति । तदो तप्फलाभ(भा) वावेक्खाए उदयो उवसमसेढीए णत्थि त्ति सूचिदं । इदरगंथेसु पदेसणिज्जरामेत्त विवक्खिय भणिदं । अहवा, उवसमसेढिचडणसत्ती एदेसि णत्थि त्ति एदमभिप्पायमिदि भ (भा) णि दव्वं । ( पृ० ३०२, ३०९ ) पुणो जहण्णसामित्त-कालंतर-भंगविचय-णाणाजीवकालंतर-सप्णियासाणि सुगमाणि । पुणो अप्पाबहुगमिदि उक्कस्सपदेसुदयदंडयो उच्चदे । तं जहा-- मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदयो थोवा (वो) । पृ० ३०९. कुदो ? उदारिज्जमाणुक्कस्सदव्वेणब्भहियगुणिदकम्मंसिय उक्कस्सजहाणिसेगगोउच्छेण संजुद- (त्त) संजदमासंजम-संजमगुगसे ढिसीसयाणं दोण्हं एगीभूदं होदूण उदयमागदाणं गहणादो। तस्स ट्ठवणा | स ३२१६६४ ।। किमठटं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं गुणसेढिसीसयाणं आगमणट्ट तिगुणं ण | ७ख १७ओप८५ । सक्किज्जदे ? ण, तेसिं गुणसेढीणं एदस्स असंखेज्जदिभागमेत्तस्म एत्थ सादिरेयकयत्तादो। पुणो सम्मामिच्छत्तुक्क्कस्सं दिसेसाहियं पृ० ३०९. कुदो ? दुविहसंजमगुणसेढिसीसएहिं उक्कम्सगुणिदकम्मंसियजहाणिसेगगोउच्छाहियदोण्हं कम्माणं समाणे संते पुणो मिच्छत्तुदीरणदव्वादो सम्मामिच्छत्तुदीरणदव्वं परिणामवसेण असंखेज्जगुणं जादमिदि विसेसाहियं जादं कुदो सेसदव्वाणं सरिसत्तं ? सम्मामिच्छत्तगुणसे ढिसीसयदव्वाणं जहा-गोउच्छाणं एत्थ थिउक्कस्संकमेणागदत्तादो। तस्स संदिट्टी | स ३२१६६४ ।। पुणो पयलापयलाए संखेज्जगुणं । पृ० ३०९. ७ख १७ओ २५ कुदो ? पुव्वल्लदुविहगुणसे ढिसीसयाणि उक्कस्सगुणिदकम्मंसिया जहाणिसेयसहिदपमतेणुदीरिज्जमाणदव्वसंजुदाणि होदूण सेसचउण्णं णिहाणं गुणसेढिसीसयदव्वाणं समूहस्स पंचमभागं त्थि उक्कस्संकमेण संकंतं पलि (डि च्छियूण उदयमागददव्वं घेत्तूणुक्कस्सुदयं जादत्तादो। तस्स ढवणा- | स ३२१२६४ ।। को गुणगारो ? बेपंचभागेण सादिरेयतिण्णिरूवाणि । णिहा- ७ ख५ओ प२५ णिद्दाए विसेसाहिया (यो) । पृ० ३०९. कुदो? पुरविल्लेण सव्वहा (? पयारेण समाणे संते वि पुव्विल्लस्सुदीरिज्जमाणदव्वादो एदस्सुदीरिज्जमाणदव्वं बहुवं, तदो विसेसाहियं जादं । तं कुदो ? पयडिविसेसादो विसोहिविसेसदव्वस्स हीणत्तादो । तत्थ पयडिविसेसो णाम दव्वायित्तं । पुणो पपलापयलाए मंदाणु Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया भागेपणणिद्दा अप्पा, तदो तत्थतणविसोहीदो णिद्दाणिद्दाए तिव्वाणुभागेणुष्पण्णणिद्दम्मि विसोही अप्पं होदि । तदो पुब्बिल्लादो उदीरिददव्वादो एदम्हादो उदीरिज्जमाणदव्वं विसेसहीणं होदि । तो विपर्या डिविसेसेण भहियत्तादो उदीरिददव्वादो हीणपमाणं थोवमिदि तमेत्थ पहाणं जादं । पुण थी गिद्धीए विमेसाहियं । पृ० ३०९. कुदो ? पुव्वत्तकारणेण विसेसाहियत्तं एत्थ विसंभवादो । पुणो अनंताणुबंधिचउक्काणं अण्णदरं विसेसाहियं । पृ० ३०९. कुदो ? एत्थ पुव्विल्लदुविहगुण से ढिसीसयाहि गुणिदकम्मं सिएसुक्कस्स जहाणिसेगगोउच्छेण उदीरिज्जमाणदव्वेण ण अहिय होदूण अण्णदरसे साणंताणुबंधिकसायतिगाणं दव्वा णत्थि उक्कस्सं कमेण ( दव्वाण थिउक्कसंकमेण ) संक (कं) ताणं मेलावणट्ठे च गुणिदमेत्तत्तादो । तं चेदं | स ३२१२६४४ | केत्तियमेत्तेण विसेसाहियं ? बेत्तिभागब्भहियपंचरूवेण खंडिदेयखंड ७ ख १७ओ १५ मत्तेण । पुणो एत्थ चउण्णं कसायाणं वेदिज्जमाणदव्वाणं सरिसत्तेण जाणिज्जदि चउण्णं कसायाणं ओदिवम्मि असंखेज्जलोगपडिभागं घेत्तूणेगट्ठ करिय वेदिज्जमाणकसासु उदीरिज्जदिति । पुणो पच्च ( अपच्च) क्खाणावरणच उक्काणं अण्णदरउदी० असंखेज्जगुणा । पृ३०९. कुदो? गुणिदकम्मंसियम्स विसंजोइदअनंताणुबंधिच उक्कदव्वस्स बारसमभागं पडिच्छिदअण्णदर कसायस्स उवसमसेढि चढिय से काले अंतरं काहिदि त्ति मदो देवो होदूण तस्संतोमुहुत्तुप्पण्णस्सुद सामगगुणसेढिसीसएहिं सहगददुविहसंजम गुण से ढिसी सयदव्वं गुणिदकम्मंसियणिसेय उदीरिददव्वं च एगट्ठे कदे अण्णदरवेदिज्ज माणकसायदव्वं सेसण्णदर तिन्हं कसायाणं थिउक्कस्संकमेण दव्व मेलावणट्ठे चउग्गुणकदमेत्तमुक्कस्सुदयदळ होदि ति । तस्स संदिट्ठी स ३२१२६४४ ७ ख १२ ओ २८५ d ( ७७ पच्चक्खाणावरणं विसेसाहियं पृ० ३०९. कुदो ? मूलदव्त्रविसेसाहियत्तादो । गुणसेढिसीसयदव्वाणि समाणं होण जहाणिसेय - गोउच्छादो उदीरिददव्वाणि एदस्स अहियाणि होदिति विसेसाहियं जादं । पुणो पलाए असंखेज्जगुणं । पृ० ३०९. कुदो? उवरि उवसंतकसायस्स पढमगुणसे ढिसीसएहि सहागदपुव्वत्तदु विहगुण सेढिसीसयदव्वं सेसचउण्णं णिद्दाणं थिउवकस्संकमदव्वसमूहस्स पंचमकालं ( ? ) पलि डि ) च्छिय सगवेणुदीरित्रेण सहिदमेत्तमुदयमागदत्तादो । तं चेदं स ३२१२६४ 1 ७५५ आ २८५ २२ पुणो णिद्दाए० विसेसाहिया । कुदो ? पुव्वं व पयडिविसेसेण । सम्मत्ते असंखेज्जगुणं । पृ० ३०९. प० ३०९. कथमेदं घडदे ? उवसंत कसायगुणसेढिदव्वादो दंसणमोहक्खवणगुण सेढिदव्वस्स असंखेज्ज - गुणं । तं कुंदो? एक्कारसगुणसेढीणं परूवयगाहाए सह विरोहप्पसंगादो | ण सव्वदव्वाणमसंखेज्जभाग मोकड्डिय णिम्मिदेक्का रसगुणसेढीणं चेव एसा गाहा उत्ता, ण पुण सव्वदव्वेण निम्मद केसि पि गुणसेढींणं चरिमणिसेयम्मि उत्ता; तहा सदि संतप्पाबहुअस माणमेदेसिम - बहुगं पावेदि । एत्थ पुर्ण सव्वदव्वाणमसंखेज्जदिभाग मोकड्डिऊण णिम्मियगुणसेढि - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ) परिशिष्ट दव्वादो सव्वदव्वं घेत्तूण णिम्मिदगुणसेढीए चरिमणिसेयल्स असंखेज्जगुणत्तं विचारिज्जमाणे णयसिद्धं सुघडमिदि उत्तं । तं चेदं | स ३२१३६४ || को गुणगारो ? असंखेज्जगुणमेतोक्कड्डुक्कड्डणभागहारो| ओ २५ ।। |७ ख १७८५ केवलणाणावरणं संखेज्जगुणं । पृ० ३०९. कुदो ? खीणकसाएण केवलणाणावरणसव्वदव्यं घेतण कयगणसे ढिसीसयचरिमणिसेगगहणादो। को गुणगारो ? बेपंचभागब्भहियतिण्णि रूवाणि । ते चेत्तिया | स ३२१२६४ । केवलणाणावरणणिसेयस्स च उब्भागमेत्तं ओधिणाणीणं ओधिणाणावरणणि सेगे- ७५५८५ । हितो आगच्छमाणं पलिच्छियाहियगुणगारं किं ण उत्तं ? ण, तहा सदि (ए) णि रयगदीसु अपच्चक्खाणावरणस्सुवरि केवलदसणावरणं विसेसाहियं पावदि। ण चेद । तदो एद स एत्थ वयाणुसारी आयो त्ति गेण्णिदव्वं । ___ केवलदसणावरणं विसेसाहियाणं । पृ० ३०९. कुदो? अणियट्टिगुणट्ठाणम्मि थीणगिद्धितिगस्स' च उब्भागं सव्वसंक्रमेणागच्छमाणं पलिच्छिय खीणकसायचरिमसमए णिहा-पयलाणं चरिमणिसेयच उन्भागं पडिच्छिदसगचरिमगुणसेढिसीसयपमाणत्तादो। केत्तियमेतेण विसेसाहियं ? चउब्भागमेत्तेण । स ३२१२६४ ।। । ७ ख ४८५ देवाउगमणंतगुणं । पृ० ३०९. कुदो ? सगिपंचिदियपज्जत्तएण उक्स्सबंधगद्धाए उम्साबाहं कादूण दसवस्ससहस्सटिदिदेवाउगं बंधिय णिसेयरयणं कदपढ मणिसेयगहणादो अघादित्तादो अणंतगुणं जादं । तस्स ट्ठवणा | स ३२२७७१६ ।। | ८२७७७१६९ । पुणो णिरयाउगं विसेसाहियं । पृ० ३०९. कुदो देवाउगेण समाणसामित्ते संते वि एदम्साहियभंतरे देवाउगस्स आबाहअंतरसंकिलेसवारेण जायमाणोवलंभणादो अहियसंकिलेसवारेण बहुवमोवलंभणं जादमिदि । पुणो मणुस्साउगं संखेज्जगुणं । पृ० ३०९. कुदो ? सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स तप्पाओग्गुक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सबंधगद्धाए जहण्णाबाह करिय तिपलिदोवमाउगं बंधिय कमेण तत्थुप्पज्जिय सव्वलहुमाउगं सवजहण्णपाओग्गजीव (वि) दव्वं मोत्तण घादिय तत्थ कदलीघादस पढमणिसेयोदयदव्वगहणादो। तं कुदो? भोगभूमीए कदलीघादमत्थि त्ति अभिप्पाएण । तं चेदं । स ३२२७७१६ । । पुणो भोगभूमीए आउगस्स घादं णत्थि त्ति भणंताइरियाणं अभिप्पाएण। ८२७७७१६ । पुव्वं बद्ध जलचराउओ जलचरेसुप्पज्जिय जलचराउवं पुव्वं व घादिय तत्य कदलीघादस्स पढमगोउच्छदव्वं गहेदव्वं । तिरिक्खाउगं विसेसाहियं । प ० ३०९. कुदो ? एत्थ पुव्वं व दुविहपयारेणुक्कस्सदव्वं होदि त्ति वत्तव्वं । किंतु परिणामविसेसे अप्पणो (व) लंभबहुत्ते विसेसाहियं जादं । पुणो एत्थ सूचिदस्स आदावस्सुक्कस्सोदयदव्वं संखेज्जगुणं । कुदो? णामस्स गुणिदकम्मंसियो बीइंदिएसुप्पज्जिय सगढिदिसंतसमाणेण ट्ठिदि लहुं घादिदूण टुविय एइंदियसुप्पज्जिय तत्थ वि द्विदीयो घादिय पुढविकाइए सुपज्जिय अंतोमुहुत्ते गदे संते आदाउदयमागच्छदि, तस्स पढमसमयमुदय मागददव्वपमाणत्तादो । एदस्स पमाणं एगसमयबद्धस्स सत्तभागस्स चउव्वीस Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ७९ भागमेत्त तं ) बंधण-संघादेण सह छब्बीसभागमेत्तं वा होदि । तेसि ट्ठवणा | स३२| स३२ ।। आहारसरीरमसंखेज्जगुणं । पृ० ३१०. ७२४ । ७२४ गणिदकम्मंसियजहाणिसेयसहिदसंजमगुणसेढिसीसयस्स णामकम्मणि बंधस्स तेवीसभागस्स वा पंचवीसभागम्स वा तिभागत्तादो | स३२१२६४ स३२१२६४ ।। पूणो एदेण सूचिदतब्बंधण-संघादाणं दोण्हमेवं चेव वत्तव्यं ७२३३ ओ२५ / ७२५३ओ २८५ ।। णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहिया होति । पुणो वि सूचिदआहारसरीरंगोवंग संखे० गुणं । कुदो ? एत्थ वि विभंजणं पुव्वं व होदि । णवरि तिभागं णत्थि । तदो चेव कारणादो संखेज्जगुणं जादं । पुणो सूचिद उज्जोवणामाए उक्क० विसेसाहिया। कुदो ? उत्तरविगुश्विदपमत्तसंजदम्मि उज्जोवदए जादे संते पच्छा अप्पमत्तभावं गदम्मि संजमगुणसे ढिसीसे दव्वस्स णामसंबंधियस्स छब्बीसभागस्स वा अठ्ठावीसभागस्स वा पमाणत्तादो। पुणो पच्छय ( ? ) विसेसेण विसेसाहियं । पुणो सूचिदसाधारणसरीरं विसेसाहियं संखेज्जदिभागेण । कुदो ? दोण्हं संजमगुणसेढिपीसयाणं णामसंबंधीणं बावीसभागस्स वा चउवीसभागस्स वा होति त्ति | स३२१२९४ । स ३२१२६४ ।। पूणो केत्तियमेत्तेणधिया? साद्धपंचरूवेण वा छरूवेहि! | ७२२ ओ२८५, ७२४ ओ२८५ । खंडिदेगखंडमेत्तेण । पुणो एइंदियादिचत्तारिजादि-थावर-सुहुम-पज्जत्तमिदि सत्त पयडीओ विसेसाहियाओ संखेज्जदिभागेण । कुदो ? पुव्वुत्तणामस्स दुविहगुणसेढिसीसयस्स एत्थ वि वीसं बावीसभागं वा होदि त्ति । णवरि एत्थ चत्तारि जादीयो एक्केकेण सरिसाओ होति । तदो सेसाणि विसेसाहियाणि त्ति जाणिय वत्तव्वं । तेसि ढवणा । स ३२१२६४ । स ३२१२६४ || पुणो वि अंतिमपंचसंहडणाणि असंखेज्ज- । ७२० ओ २८५ / ७२२२२८५ गुणाणि । कुदो ? दुविहसंजमगुणसे ढिसीसएणब्भहियमणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढिसीसयाणि त्ति तिण्णि वि एगळं काऊण णामकम्मसंबंधीणं अट्ठावीसेण वा तीसेण वा भजिदमेत्तं होदि त्ति । ट्ठवणा | स३२२१२६४ | स३२२१६४ ।। किमळं दंसणमोहक्खवणगुणसेढी ण घेप्पदे ? ण, त खवण- | ७२८ ओ २८५। ७३० ओ २८५! (तक्खत्रण-) सत्ती एदेसि संघडणाणं उदयसहिदजीवाणं णत्थि त्ति अभिप्पायादो। बिदिय-तदियमिदि दोण्हं संघडणाणं उवसंतकसायगुणसेढी किं ण गहिदा ? ण, दंसणमोहक्खवणासत्तिविरहिदाणं उवसमसे ढिचडणसत्तीणं संभवविरोहो होदि त्ति अभिप्पाएण। जदि एवं (तो)अणंतरादिक्कतउदीरणट्ठाणपरूवणाए ण मियूणेण ( ? )च विरोहो कि ण भवे ? होदि विरोहो, गंथंतराभिप्पाएण दोण्हं पि गहणं कायव्वं इदि पुवं चेव परिहारं दिण्णत्तादो। एत्थ सूचिदाओ सत्तारस पयडीओ होति । १७ ।। पुणो णिरयगदिणामाए० असंखेज्जगुणा । पृ० ३१०. कुदो? संजमाजम-संजमगुणसेढीयो कमेण करिय मिच्छत्तं गंतूण णिरयाउगं बंधिय पुणो वि सम्मत्तं लहुं घेत्तूण दंसणमोहं खविय तिण्णि वि गुणसेढिसीसयमेगळं करिय णिरएसु विग्गहं कादूणुप्पण्णपढमसमए उदिण्णणामकम्मं सव्वदव्वस्स वीसदिभागस्स बावीसदिमभागस्स पमाणं होदि त्ति । तेसिमंकाणि | स३२१२६४ । स३२१२६४ ।। कथं मिच्छत्तेणच्छणं णिरयाउगबंधणं सम्मत्तेणच्छणं अणंताणु- | ७२० ख २८५ | १२२ ओ २८५। बंधिविसंजोयणं सणमोहक्खवणमिदि पंचण्णं अद्धाणं समूहादो दोण्हं गुणसेढिअद्धाणप्पाबहुगमि दि णव्वदे? सामित्तपरूवणादो। पुणो सूचिदणिरयगदिपाओग्गाणुपुष्वी विसेसाहिया । कुदो ? सब्वपयारेण पुग्विल्लेण समाणं होदूण पयडिविसेसेण बहुगं जादत्तादो। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ) परिशिष्ट पुणो तिरिक्खगदिणामाए विसेसाहिया । पृ० ३१०. कुदो ? पुव्वपयडीए समाणसामित्ते संते वि णिरयगदिसंतादो एदस्स संतमसंखेज्जगुणं । जेण तदो तत्तो ओक्कड्डिय उदीरिज्जमाणमसंखेज्जगुणं जादमिदि विसेसाहिथं जादं । सूचिदतिरिख ( गदि पाओग्गाणुपुव्वी विसेसाहिया पयडिविसेसेण । पुणो वि सूचिददूभग अणादेज्जाणि कमेण विसेसाहियाणि होंति । कुदो ? एदेसि तिविहगुणसे 'ढमीसयादिदव्वेहिं समाणे संते वि पयडिविसेसेण विसेसाहियं जादं । एत्थ सूचिदतिष्णिपयडीयो होंति । , अजसगित्ती विसेसाहिया । पृ० ३१०. कुदो ? पयडिविसेसेण सेससव्वपयारेण समाणत्तादो । णीचागोदस्स संखेज्जगुणं । पृ० ३१०. कुदो ? गोदकम्मस्स तिविहगुण से ढिसीसयदव्वाणं सादिरेयजहाणिसेय गोउच्छेण हियाणं दो | | ३२१२६४ । को गुणगारो ? वीसरूवाणि बावा सरुवाणि वा होंति । ७ओ २८५ पुणो वेगुव्वियसरीरणामाए असंखेज्जगुणा । पृ० ३१०. कुदो? उवसंतकसायस्स पढमगुणसेढिसीसयं सादिरेयमेत्तं देवेण वेगुव्वियसरीररूवेण वेदिज्ज माणप माणत्तादो । तं च केत्तिया ? उवसंतकसाएण णामकम्मस्स कयगुणसेढिसी सयव्वस्स तेवीसभागस्स वा पंचवीसभागस्स वा तिभागत्तादो । तं चेदं स ३२१२६४ | स३२१२६४ सूचितबंध संघादाणं दो वि कमेण विसेसा- ७२३३ओ२८५ / ७२५३२८५ हियाणि पयडिविसेसेण । वेगुव्त्रियंगोवंग संखेज्जगुणं । कुदो ? एदस्स दव्वपमाणे पुव्विल्लेण समाणे संतेवि एत्थ तिभागाभावादो संखेज्जगुणं जादं । पुणो वि सूचिददेवगदिणामाए विसेसाहियं । कुदो ? वीसदिमभागत्तादो। देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी विसेसाहिया पयडिविसेसेण । दुगंछाए असंखेज्जगुणं । भयं तत्तियं चेव । पृ० ३१०. कथमेदं घडदे, उवसंत कसाय गुण सेढिदव्व । दो अणियट्टिउवसामयस्स से काले अंतरं काहिदि ति कालं काढूण देवेसुप्पण्णस्स जहण्णस्स-रदिवेदगकालं बोलेदूण उदिण्ण गुण सेदिसीसयदव्वस्स असंखेज्जगुणत्तविरोहादो ? सच्चं विरोहो चेव, किंतु तं घेप्पमाणे देवगदीए एदेहितो असंखेज्जगुणं होदि । तदो तं सामित्तं मोत्तूण बिदियपयारसामित्तमस्सिय एदमप्पाबहुगं उत्तमिदि तं घडदे । तं जदा - अपुव्वखवगस्स चरिमसमए उदयमागददव्वगणादो तं सात्तिमस्सियू एदमप्पाबहुगं परूविदमिदि णव्वदे | किमट्ठे दुप्पयारसामित्तमण्णोण्णविरोधं परूविदं ? अभिप्पायंतरपयासणट्ठे परूविदत्तादो । तं जहा - उदिण्णपरमाणुणा उप्पण्णभय-दुगुंछपरिणामफलं अवेक्खिय पड (ढ) मिल्लं उत्तं । बिदियाहिप्पायं पुण परमाणुणिज्जरमेत्तमवेविखय उत्तं । एदेण पुण राग-दोस- मोहुप्पाययकम्माणमुदयो खवगुवसमसेढीसु णिज्जरमेत्ताणिदट्ठाणं तेसिं फलमवेक्खिय उत्तमिदि घेत्तव्वं । तत्थ दुगुंछादवमाणं भयगुण से ढिसीसयदव्वं दुगुणं सादिरेयमेत्तं होदि । भयं तेत्तियं चेवेत्ति उत्ते दो वि अण्णोष्णम्म थिउक्कस्संकमेण संकमिदत्तादो । किमठ्ठे पयडिविसेसेण विसेसाहियं ण जादं ? , दोणमोक्कडिदददाणं असंखेज्जलोगपय डिबद्ध मे गठ्ठे करिय उदयावलियन्तरे संछुहिदत्तादो समाणं जादमिदि उत्तं । एवं अण्णेसु वि पयडीसु संभवं जाणिय वत्तव्वं । तस्स ट्ठवणा * मूलग्रन्थे ' देवगइणामाए संखे० गुणो ' इत्येतद्वाक्यं तदङ्गभूतमेव समुपलभ्यते । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ८१ स ३२१२६४२|| ७१० ओ २८५ २२२२ हस्स-सोग० विसेसाहिया । पृ० ३१०. केत्तियमेत्तेण? दुभागमेत्तेण। कुदो? हस्सस्सुवरि सोगं सोगस्सुवरि हस्सं थिउक्कस्संकमेण संकमिदि, पुणो तम्मि भय-दुगुंछा दो वि थिउक्केण संकमिदे जादत्तादो । सेसं पुवं व । तं चेदं | स ३२१२६४२|| ७१०ओ२८५ अरदि-रदी विसेसाहिया। पृ० ३१० २२२२ कुदो? रदीए उवरि अरदी, अरदीए उवरि रदीयो थिउक्कसंकमेण संकमिय तम्मि भय-दुगुंछा वि अक्कमेण संकमिय उदीरियदव्वेण सहिदे कदे जं दव्वं तं पयडिविसेसेण विसेसाहियं जादं । इत्थिवेदे असंखेज्जगुणं । पृ० ३१०. कुदो ? इत्थिवेदचरिमसमयअणियट्टिगुणसेडिगोउच्छादीणं गहणादो। णउसयवेदो विसेसाहिओ। पृ० ३१०. कुदो ? पयडिविसेसेण । को पयडिविसेसो णाम ? उच्चदे- इच्छिदिच्छिदपयडीयो ओकड्डिय गुणसेढिसरूवेण वा इदरसरूवेण इदि दुविहपयारेण संछुहमाणो जहाणिसेगगोउच्छेण तत्थ जं जं थोवं तं तं बहुगम्मि सोहिदे सेसं तदुदयदव्वादो बहुवं वा थोवं वा होदि, तं पयडिविसेसं णाम। एत्थ पुण इत्थिवेदगदव्वादो णउंसकवेददव्वं संखेज्जगुणं संतदव्वेण जादे वि ओकड्डिदूण गुणसेढिकददव्वं दोण्हं सरिसं संते वि गोउच्छविसेसेणहियं जादं, इदर (धा) दुविहपयारउदीरणाभावादो। एदमत्यमुवरि वि सव्वत्थ संभवं जाणिय वत्तव्वं । पुरिसवेद० असंखेज्जगुणं । पृ० ३१०. एत्तो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण उप्पण्णअणियट्टिगुणसेढिगोउच्छादो। कोधसंजलणाए० असंखेज्जगुणं। माणसंजलणाए असंखेज्जगुणं । मायासंजलण० असंखेज्जगुणं । पृ० ३१०. सुगमं । णवरि संतदव्वस्स थोवबहुत्तं अणवेविखय ओकड्डियूण करेंतगुणसेढिपरिणामविसेसमवेक्खिय पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ पुण सूचिदपयडीसु दुस्सरमादी० असंखेज्जगुणा । कुदो? वचिजोगणिरोहकारयचरिमसमयसजोगीहि वेदिज्जमाणदव्वगहणादो। तस्स पमाणं णामकम्मस्स गुणसेढिदव्वस्स अट्ठावीसभागं वा तीसभागं वा होदि त्ति । सुस्सर० विसेसाहिया पयडिविसेसेण । उस्सास. असंखेज्जगुणा । कुदो ? अंतोमुत्तमुवरि गंतूणुम्सासणिरोहादो। एत्थ वेदिज्जमाणपयडिसंखाविसेसो जाणिदव्वो। एत्थ सूचिदाओ तिण्णि । पूणो ओरालियसरीर० असंखेज्जगुणा । पृ० ३१०. कुदो ? सजोगिकेवलिस्स चरिमसमयम्मि उदयाणमकम्मगुणसेढिस्स बिगू (गु णचालीसभागस्स वा इगिदालीसभागस्स वा तिभागत्तादो। तं कथं ? अणियट्टिगुणट्ठाणम्मि तिरिक्खगदिसंबंधितेरसपयडीओ खविदाणि, ताणि सव्वसंकमेण जसगित्तीए उवरि संकमिदं । तेणेत्थ वि संभवंतट्ठावीसपयडीसु तिण्णिसरीरं जसगित्तिं च अवणिय पुणो सेसपयडिम्हि सरीरणिमित्तमेगं जसगित्तिणिमित्तचोद्दसं च पक्खेवं कायव्वं । कदे उत्तपढमभागहारं Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ) परिशिष्ट होदि। तम्हि बंधण-संघादं पविखत्ते इदरभागहारपमाणं होदि ? कथं तमेत्थ पलिच्छिदपयडिमेत्तभागं लहदि त्ति णव्वदे ? ण, तेत्तियमेत्त तेसिं संजोगेण तस्स माहप्प उप्पण्णत्तादो। तेजइगसरीरं विसेसाहियं । कम्मइगं विसेसाहियं । पृ० ३१०. एदाणि सुगमाणि पयडिविसेसावेक्खाणि । पुणो सूचिद तेसिं बंधण-संघादाणं छप्पयडीणं सग-सगट्टाणेसु कमेण विसेसाहियाणि होति । तेसि कारणं सुगमं । ६ ।। पुणो वि सूचिदछसंठाणाणि ओरालियांगोनंग-वज्जरिसहसंघडण-पंचवण्ण-दोगंध-पंचरस-अट्टफास-अगुरुगलहुगउवघाद-पग्घाद-दोविहायगदि-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-णिमिणणामाणि संखेज्जगुणाणि होदूण एदाणि कमेण विसेसाहियाणि होति । णवरि वण्ण-गंध-रस-फासभेदे अस्सियण भण्णमाणे वण्ण-गंध-रस-फासभागाणि अस्सियूण एगणचालीसभागस्स वा इगिदालीसभागस्स वा भागपडिबद्धगुणसे ढिदव्वाणि टुविय सग सगभेदेहिं भाग हिदे सग-सगपयडीणमुदयदवाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि होति, जहा तहा विभंजिदत्तादो। पुणो एदाणि अप्पाबहुगपंतीए आणिज्जमाणाए उस्सासणामादो पढमफासमसंखेज्जगुणं । तत्तो उवरि सग-सगट्टाणे कमेण विसेसाहियाणि । तत्तो पढमवण्णं संखेज्जभागुत्तरं, (उवरिम- )पयडीयो पयडिविसे सेण विसेसाहियाओ। एवं रसं पि कमेण विसेसाहियं । तत्तो ओरालियसरीरं संखेज्जभागुत्तरं। पुणो तेजइगं विसेसाहियं । (कम्मइगं विसेसाहियं । ) तेसि बांधण-संघादछक्काणि विसेसाहियकमेण बोलिय तत्तो पढमगंध संखेज्जभागुत्तरं, इदरगंधं पयडिविसेसेण अहियं होदि त्ति वत्तव्यं । एत्थ सूचिदसव्वपयडीयो एगूण चालीसाओ । ३९ । । पुणो मणुसगदी असंखेज्जगुणा । पृ० ३१०. कुदो ? अजोगिचरिमसमयसीसयस्स बावीसभागत्तादो। तं पि कुदो ? मणुसगदिआदिअट्ट पयडीओ एगेगभागं लहंति, जसगित्ती चोद्दसभागं लहंति त्ति । ते सव्वे पक्खवे मेलिदे बावीसं होदि, तेहिं भजिदगुणसे ढिदव्वत्तादो। पुणो एदेण सूचिदपंचिंदियजादि-तस-बादरपज्जत्त-सुभगादेज्ज-तित्थयराणमिदि सत्त पयडीओ कमेण विसेसाहियाओ होति । णवरि तित्थयरं मणुसगदीदो संखेज्जभागहीणं होदि । कुदो ? तेवीसभागत्तादो। दाणंतराइयं संखेज्जगुणं । पृ० ३१०. कुदो ? सव्वुक्कस्ससंचयस्स किंचूणकयपमाणत्तादो। तं चेदं । स ३२:२२ ।। को गुणगारो ? बे पंचभागेणब्भहियचत्तारि रूवाणि । ७५२ लाभांतराइगं विसेसाहियं । भोगांतराइगं विसेसाहियं । परिभोगांतराइग विसेसाहियं । वीरियंतराइगं विसेसाहियं । पृ० ३१०. कुदो ? पडिविसेसेण विसेसाहियत्तादो। ओहिणाणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३१०. कुदो ? खयोवसमविरहिदखीणकसायम्मि सव्वुक्कस्ससंचयं किंचूणमेत्तमुदिण्णत्तादो। तस्स दवणा । स ३२१२२।। केत्तियमेत्तेणहियं ? चउब्भागमेत्तेण ।। ७४२ । मणपज्जवणाणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३९० कुदो? ओधिणाणावरणगुणसे ढिदव्वं उदयावलियं पविस्समाणं जहाणिसेगगोउच्छपमाणं ४ मूलग्रन्थे ' तु असंखे० गुणो' इति पाठोऽस्ति । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ मत्तू सेसा संखेज्जा भागा तिविहदेसघादिणाणवरणणेसु संकमंति त्ति, एत्थ पुण तिभागाहियं जादं । तं चेदं ओहिकुदो ७ 1 - स ३२१२५ | दंसणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३१०. पयडिविसेसेण । ७३२ संतकम्मपंजिया सुदणाणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३१०. दो ? अधिणाणावरणखओवसमें संते तस्सुदयावलियं पविस्समाणगुण से ढिदव्वस्स असंखेज्जभागं पडिसेढि, सेसा संखेज्जा भागा मदि सुद-मणपज्जवणाणावरणेसु थिउक्कसंकमेण संक्रमदित्ति दोहं पि अंकविण्णासेण समाणं होण एदं पयडिविसेसेण विसेसाहियं जादं । किम केवलणाणावरणे ण संकमदि ? ण, तत्थ वि संकमदि । किंतु तं तत्थ अनंतिमभागत्तादो अप्पहाणमिदि उत्तं । तं कुदो णव्वदे ? हेट्ठिल्लाणमप्पा बहुगाणं उत्तकमाण अण्णा विघडणादो । ठवणा | स ३२१२५ २ मदिणाणा । ७३ २ वरणं विसेसाहियं । पृ० ३१०. कुदो ? पयडिविसेसेण । अचक्खुदंसणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३१०. कुदो ? ओहिदंसणावरणखओवसमे संते तस्स गुणसेडिदव्वं उदयावलियं पविस्समाणं पुव्वं व संखेज्जा भागा अचक्खुदंसणेसु संक्रमदि, सेसेगभागं पविसदित्ति । पुणो एत्थ संखेज्ज - भागुत्तर जाद | स ३२१२ ख 1 पुणो ७२३ चक्खुदंसणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३१०. कुदो ? पयडिविसेसेण । जसगित्तिणामाए विसेसा० । पृ० ३१०. कुदो ? णामकम्मुक्कसगुण सेढिदव्वस्स बावीसभागस्स चोद्दसगुण किंचूणमेत्तपमाणत्तदो । तेत्तियमे ( त्तं ) गहिया ? बेत्तिभागे गब्भहियतिरूवेण खंडिदेगखंडमेत्तेण । तस्स ट्ठवणा स ३२१२१४५ ! ७२२ २ उच्चागोद० विसेसाहिया । पृ० ३१०. केत्तियमेत्तेण ? तिण्णिच उन्भागेणब्भ हिय एग रूवेण | १ | खंडिदेगखंडमेत्तेण स३२१२२|| लोभसंजल विसेसाहियं पयडिविसेसेण । ३ ७२ * पृ० ३१०. सादासादाणि सरिसाणि विसेसाहियाणि । पृ० ३१०. कुदो ? पयडिविसेसेण । एवमोघुक्कस्सापाबहुगं गदं । पुणो णिरयगदीए उक्कस्सप्पाबहुगं उच्चदे उक्कस्सपदेसोदयो सम्मामिच्छत्तेण ( सम्मामिच्छत्ते ) थोवो । पृ० ३१०. कुदो ? गुणिदकम्मंसियणरइयो अंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय पच्छा सम्मामिच्छत्तं गंतूणावलियमेत्तकालं गदस्स उदिष्णिगुणिदकम्मंसियस्स उक्कस्सणि सेयगोउच्छपमाणत्तादो । तं चेदं | स ३२ ७ ख ७७ पयला० संखेज्जगुणा । पृ० ३१०. मूलग्रन्थे तु 'सादासादाणं किसे० ' इत्येवंविधः पाठोऽस्ति । 1 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ) परिशिष्ट कुदो ? सो चेब गुणिदकम्मंसियो णिहोदयगोउच्छाए उरि सेसणिद्दाचउक्काणं उदयगोउच्छाणं पंचमभागं पलिच्छणपयडिअणुसारेण विसेसाहियेण स्थि उक्कसंकतेण (संकमेण ) संकमदि त्ति पक्खिते एत्तियं जादत्तादो | स ३२ | सेसणिद्दाचउक्काणं अणंतिमभागं सव्वघादीसु संकमदि । सेसबहुभागं देसवादीसु। ७ ग्व - संकमदि त्ति वयणेण विरोहो कथं ण भवे? ण भवे । कुदो? देसघादीणमेस संकमणियमुवलंभादो, ण सव्वघादीणमेस णियमो। जदि एवं तो पक्ख (क्क) मम्मि किमळं ण उत्तं ? ण, बंधोदयाणमेगसहवत्ताभावादो। णिद्दाए० विसेसाहिया। पृ० ३११. कुदो? पयडिविसेसेण । मिच्छत्तस्स असंखे० गुणं । पृ० ३११. कुदो? उदीरणदव्वेण सादिरेयतप्पाओग्गुक्कस्सणिसेगेण अभिहियदुविहांजमगुणसेढिदव्वस्स अपज्जत्तकाले उदीरणदव्वस्स गहणादो । तं चेदं । स ३२१२६४ ।। अणंताणुबंधीणं संखेज्जगुणं । पृ० ३११. ० ख १७ओ २८५/ ____ कुदो? सादिरेयदुविहसंजमणसेढिसीसयदव्वं सगेगकसायपडिबद्धं दुविय सगसेसतिविहकसाय-दुविहगुणसेढिदव्वं मेलावणटुं चउहिं गुणिदमपज्जत्तकाले उदिण्णदबगहणादो। तस्स ३२१२६४४ । | ७ख १७ ओ 2८५ । केवलणाणावरणं असंखेज्जगुणं । पृ० ३११. कुदो ? सादिरेयदुविहसंजमगुणसेडिसीसयदव्वेणपहियदसणमोहक्खवणगुणसेढिदव्वाणं अपज्जत्तकाले उदिण्णाणं गहणादो । तं चेदं | स ३२१२६४ ।। केवलदसणावरणं विमेसाहियं । । ७ ख ओ २८५] प० ३११. केत्तियमेत्तेण ? चउब्भागमेत्तेण ? कुदो ? पुव्वुत्तसादिरेयमेततिविहगुणसेढिसीसयपमाणकेवलदसणावरणस्सुवरि पंचण्हं णिहाणं तिविहगुणसेढिसीसयदव्वाणं समूहस्स चउभाग थिउक्कसंकमणसंकमिदत्तादो। तं चेदं | स ३२१२६४ अपच्चक्खाणावरणं विसेसा- | ७ ख ओ प ८५४ ११. केत्तियमेत्तेण? संखेज्ज भागमेत्तण । कुदो ? असंजदसम्मादिढिम्मि अणंताणुबंधिविसंजोयणाए अणंताणुबंधिचउक्कदव्वस्स बारसमभागं पलिच्छिदकसायदव्वस्स दंसणमोहं खविदस्स पुव्वुत्तविविहगुणसेढिसीसयदव्वं सगसेसकसायतिविहगुणसेढिसीसयदव्वागमणटुं चउरूवगुणिदमेत्तपमाणत्तादो। कथं ( ? ) अणंताणुबंधीण मणंतिमभागं सव्वघादीसु, बहुभागं देसघादीसु संकमदि त्ति वयणेण विरोहो कि ण भवे ? ण, तब्बंधदव्वपडिबद्धा णियम संतदव्वं होणं संभवदि त्ति उत्तुत्तरत्तादो। एदेण अप्पाबहुगेण ओहिदसणावरणखओवसमजीवो तस्स दव्वं केवलदसणावरणे थिउक्कसंकमेण थोवं संकमदि त्ति जाणाविदं, अण्णहा अप्पाबहुगं (ग-) विवज्जासं होज्ज । तस्स ट्ठवणा | स ३२१२४६४ ।। पच्चक्खाणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३११. 1७ ख १७३ औ २८५ । कुदो ? एत्थ पुबुत्तकमो सम्बो चेव संभवदि, किंतु पडिविसेसेण विसेसाहियं जादं। सम्मत्त० असंखेज्जगुणा। पृ० ३११. २२ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया ( ८५ कुदो ? दंसणमोहणीयसव्वदव्वेण कदकरणिज्जचरिमगुणसेढिसीसगोउच्छगहणादो | स ३२१.६४ ।। | ७ ख १७३ ओ २८५५ । णिरयाउगमणंतगुणं पृ० ३११. कुदो ? ओघम्मि उत्तकमेणप्पण्णउदयगोउच्छस्स समयपबद्धं संखज्जदिभागमेत्तस्स अघादिकम्मदव्वगहणादो। तं चेदं । स ३२ ।। ओहिणाणावरणं संखेज्ज- । ८७ गुणं । पृ० ३११. कुदो ? संपुण्णसगसमयपबद्धपमाणत्तादो । किमढें गुणसेढिगोउच्छा ण घेप्पदे ? ण, ओहिणाणावरणखओवसमजुत्तजीवेसु खओवसमगदीसुप्पज्जणाहिमुहेसु च उदयायं(उदयं)पविस्समाणसादिरेयगुणसेढिगोउच्छाए जहाणिसेगगोउच्छा चेव पविस्सदि, सेसगुणसे ढिगोउच्छा पुण सजादीए उवरि थिउक्कसंकमेण विभंजिय संकमंति त्ति ण गहिदा । कथं एस णियमो ? ण, एदस्स कम्मस्स खओवसमो परमाणोदयबहुत्तमणुभागोदयबहुत्तं च ण सहदि त्ति, सेसाणं कम्माणं खओवसम (मा)अणुभागबहुत्तं चेव ण सहति त्ति सहावगुणो चेवे त्ति आइरियोवएसादो। एवं समसंकममिदि किण्ण उत्तं? ण, एगगोउच्छसंकमणियमाए थिउक्कसंक्रमववएसादो । तं चेदं | स ३२|| | ७४/ ओहिदसणावरणं विसेसाहियं । प० ३११. कुदो? एदस्त वि तिणिणियमे संते वि पयडिविसेसेण संखेज्जदिभागेणहियं जादत्तादो 18] । पुणो सूचिदपरघादं असंखेज्जगुणं । कुदो ? अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढिगहणादो। तेसिं दुप्पायरेण विभंजणेसुप्पण्णंकाणं एसा टुवणा | स ३२१२६४ | स ३२१२६४ ।। पुणो उस्सास-दुस्सराणि वि एवं चेव वत्तव्वं । णवरि पयडि- ७२७ ओ २८५, ७२९ ओ २८५ विसेसेण विसेसाहियाणि होति । वेगुव्यियसरीरमसंखेज्जगुणं । पृ० ३११. कुदो? पुव्वुत्ततिप्पयारगुणसेढि सीसयदव्वस्स पुव्वं व दुप्पायारेण विभंजिदस्स णिरएसुप्पज्जिय सरीरगहिदस्स तेवीस-पंचवीसमभागस्स त्ति भागत्तादो। तं चेदं| स ३२१२६४ । स ३२१२६४ । । |७२७ ओ २८५ ७२५३ओ२८५] २ | २२ | २२ पुणो सूचिदतब्बंधण-संघादाणं पि एवं चेव विभंजणं। णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहिया। तेजइगं विसेसाहियं । पृ० ३११. केत्तियमेत्तण? संखेज्जदिभागमेतेण । कुदो? विग्गहं करिय णिरएसुप्पण्णस्स तिविहगुण सेढिसीसयदव्वस्स वीस-बावीसभागस्स दुभागपमाणत्तादो तस्स दवणा । स ३२१२६४ ।। ७२०२ ओ २८५ | स ३२१२६४ ७२२२ ओ २८५ / कम्मइगं विसेसाहियं । पृ० ३११. २२ कुदो ? पयडिविसेसेण । पुणो सूचिदतेसिं बंधण-संघादाणं चउण्णं पि एवं चेव वत्तव्वं । णवरि पयडिविसेसेण २२ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ८६ ) परिशिष्ट विसेसाहिया होति । पुणो सूचिदहुंडसंठाण-वेगुब्वियसरीरंगोवंग-उवघाद-पत्तेयसरीराणं कम्मइगादो संखेज्जगुणं अहोदूण विसेसाहियाणि होति । णिरयगदी संखेज्जगुणं । पृ० ३११. कुदो ? पुविल्लेण समाण सामित्ते संते वि एत्थ दुभागाभावादो। पुबिल्लसूचिदपयडीहितो विसेसाहियं । पुणो सूचिदपंचिदियजादि-वष्णचउक्क-अगुरुलहुग-णिरयगदिपाओग्गाणुपुन्वीतस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुभासुभ-दूभगणादेज्जाणं उक्कस्सपदसुदयो कमेण विसेसायिा होति । पुणो वण्ण-गंध-रस-फासाणं भेदवियप्पं जाणिय वत्तव्वं । अप्पाबहुगाणि य पुणो टुवेयव्वं । अजसगित्ती विसेसाहिया । पृ० ३११. कुदो एदस्स पुविल्लेण समाणसामित्ते संते त्रि पयडिविसेसेण विसेसायिं जादं । तत्थंकट्टवणा | स ३२१२६४ । स ३२१२६४ ।। एत्थ सूचिदणिमिणं विसेसाहियं पयडिवि- ७२० ओ २८५ / ७२२ ओ २८५ | सेसेण । २२ णउंसक० संखेज्जगुणं। पृ० ३११. कूदो ? तिण्णं वेदाणं गुणसेढिसीसयदव्वस्स एगलै कादूण | स ३२१.६४ ।। गहणादो कथं दोरूवस्स संखेज्जगुणत्तं ? ण, एवं मोहणीयपडिबद्ध- । ७१० ओ २८५ २२ दव्वत्तादो सादिरेयदुगुणं होदि त्ति उत्तं ।। दाणंतराइयायं विसेसाहियं । पृ० ३११. ___ कुदो ? अंतराइयमूलपय डिदव्वादो मोहणीयमूलपयडि (दव्वं) विसे साहियमिदि एवं विसेसाहियं जादं । अण्णहा संखेज्जगुणं दिस्समाणं होज्ज । तं चेदं स ३२१२६४ || अहवा एव वा वत्तव्वं । तं जहा- मोहणीयस्स देसघादिसंबंधिएगगुणसे ढि- ७५ ओ २८५/ गोउच्छं कसाय-णोकसाएसु विभंजिय पुणो वि णोकसायदव्यं पंचणोकसा- २२ । एसु विभजिदे तत्थ पढमं बहुभागं, तं चेदं दव्वं होदि । पुणो अंतराइयसंबंधिएगगुणसेढिगोउच्छं पुव्विल्लादो विसेसहीणं पंचतराइगेसु विभाजिदे तत्थतिमं सव्वत्थोवं दाणांतराइयद (राइय) दवं होदि । तदो तं पुव्विल्लवेदभागं एदम्मि सोधिदे एदं जादे त्ति विसेसाहियं जादं । तेसिं ट्ठवणा । स ३२१२६४८८ | स ३२१२६४८८ | स ३२१२६४८ | स ३२१२६४ ७७२८५९२९५ |७ओ २८५९२९९/७ओ २८५९५ |७ओ २८५९९९९९ २२ । २२ । २२ । २२ लाहंतराइयं विसेसाहियं । भोगंतराइयं विसेसाहियं । परिमोगांतराइयं विसेसाहियं । वीरियांत० विसेसाहियं । प्र० ३११. ___ एदाणि पयडिविसेसावेक्खाणि । भय दुगुंछाणि विसेसाहियाणि पृ० ३११. कुदो? भय-दुगुंछाणं अण्णोण्णस्सुवरि अण्णोण्णथि उक्कसंकमेण संकांते उक्कस्सदव्वं जादत्तादो । दुगुंछादो भयं पडिविसेसेण विसेसाहियं दिस्समाणं कथं सरीरसत्थं (सरिसत्तं) ? ण, भएणुदीरिज्जमाणदव्वम्हि दुगुंछस्स ओकड्डियदव्वम्हि दुगुंछाउदीरिज्जमाणदव्वमेत्तं घेत्तूण पक्खिविय भयं उदीरिदे एवं दुगुंछाउदींरिददव्वपमाणं परूवेदव्वं । तदो दोण्हं उदीरणदव्वं सरिसं चेव होदि त्ति सिद्धं । एवं सग-सगजादिपडिबद्धकसायचउक्काणं सरीरसत्तं (सरिसत्तं) वत्तव्वं । एवं संते हस्सादो सोगं, सोगादो रदी, रदीदो अरदीणं विसेसाहियं । तं कथं घडदे? ण, उत्तेदाणं Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ संतकम्मपंजिया ( ८७ चेव एरिसणियमो, ण सेसाणं । कथमेदं णव्वदे ? एदम्हादो चेवारिसादो। तेसि ढवणा । स ३२१२६४२। । वीरिपंतराइएण समाणं दिस्समाणस्सेदाणं कथं विसेसाहियत्तं ? ण, |७१० ओ२८५ | मोहभागत्तादो। ___ हस्स० विसेसाहिया। पृ० ३११. कुदो ? ओघम्मि उत्तकारणत्तादो । सुगममेदं । तस्स ट्ठवणा | स३२१२६४२ || सोगं विसेसाहियं । पृ० ३११. ७१० ओ२८५ २२ कुदो ? पयडिविसेसेण । रदीए विसेसाहियं । अरदीए विसेसाहियं । पृ० ३११. एदाणि पुव्विल्लसंकेतबलेण सुगमाणि होति । मणपज्जवणाणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३११. कुदो ? पुवुत्तकमेण ओहिणाणावरणगुणसेढि सीसयदव्वस्स तिभागं पलिच्छिदत्तादो । तेसि ढवणा | स३२१२६४ ।। ७३ओ २८५ २२ सुदणाणावरणं विसेसाहियं । मदिणाणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३११. एदाणि सुगमाणि । कुदो ? ओहिदसणावरणसीसयदव्वस्स दुभागं पुव्वुत्तकमेण पलिच्छदत्तादो। तं चेदं | स३२१२६४ || चक्खदंसण | ७२ओ८५ | विमेसाहियं । पृ० ३११. सुगममेदं । संजलणकसायं, अण्णदरं विसेसाहियं । पृ० ३११. कुदो ? विवक्खिदकसायस्स तिविहगुणसेढिसीसयदव्वं चउहि गुगिएणुप्पण्णरासिसमाणत्तादो। किंतु मोहणीयदव्वमिदि विसेसाहियं जादं । म णीचागोदं विसेसाहियं । पृ० ३११. ७८ ओ २८५ कुदो ? गोदुक्कस्सगुणसे ढिसीसयदव्वपमाण- | २२ तादो मोहदुभागत्तादो विसेसाहियं जादं | स ३२१२६४ ।। सादं । ७ओ २८५ | विसेसाहियं । पृ० ३११. | २२ कुदो? पयडिविसेसेण । असादं विसेसाहियं । पृ० ३११. पयडिविसेसेण, णिरयगदीए असादं बहुगं उदीरिदे त्ति वा । एवं गिरयगदीए उक्कास्सापाबहुगं गदं । ( पृ० ३११) पुणो तिरिक्खगदीए अप्पाबहुगपरूवणा सुगमा । णवरि सम्मामिच्छत्त-पयला-णिद्दापयलापयला-णिद्दाणिद्दा-थीणगिद्धिपयडीणं तिरिक्खसंजदासंजदसंजमासंजमगुणसेढी गेण्हिदव्वा । मिच्छत्ताणताणुबंधीणं दुविहसंजमगुणसेढी गहेयव्वं । केवलणाणावरण-केवलदसणावरण--अपच्चक्खाणावरण--पच्चक्खाणावरण--सम्मत्तस्स च दंसणमोहक्खवणगुणसेढीयो २२ * मूलग्रन्थ पाठस्त्वेवंविधोऽस्ति- मदिणाणावरण. विसे० । अचक्खु० विसे० । संजलणकसाय० । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ) परिशिष्ट घेत्तवाओ। तिरिक्खा उअस्स पुव्वं व तदुविहपयारेणुप्पण्णसमयपबद्धस्स संखज्जदिभागं वत्तव्वं । वेगुब्वियसरीरस्स विगुव्वणमुट्ठाविदसंजदासंजदतिरिक्खस्स संजमासंजमगुणसेढिं भाणिदव्वं । अजसगित्ति-इत्थि-ण सयवेद-उच्चागोदाणं अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढिं गहिदूण वत्तव्यं । __ कथं तिरिक्खेसु उच्चागोदस्स संभवो? ण, पग्गहेण पग्गहिदस्स होदि त्ति पुव्वमेव परूविदत्तादो। __ ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-तिरिक्खगदि-जसगित्ति-पुरिसवेदाणं ( दाण- )लाभ-- भोग-परिभोग-वीरियंतराइय-भय-दुगुंछ-हस्स-सोग-रदि-अरदि-ओहिणाणावरण--मणपज्जवणाणावरण-ओहिदसणावरण-सुदणाणावरण-मदिणाणावरण-चक्खु-अचक्खुदंसणावरण-संजलणo-णीचागोद०-सादासादांणं दुविहसंजमगुणसे ढि-कदकरणिज्जगुणसेढीए सह तिण्णिगुणसेढीयो होति त्ति वत्तव्वं । णवरि ओहिणाणावरण ०-मणपज्जवणाण-ओहिदंसणा० सुदणाणावरण इदि तत्थ ताव एदेसिं चउण्णं पयडीणं विभंजणकमो उच्चदे-- दसणावरणस्स देसघादिउदयगोउच्छं पुव्वुत्ततिविहगुणसेढिपमाणं तिण्णं देसघादिपयडीणं यथासंभवं विभंजिदे तत्थंतिम ओहिदसणावरणदव्वं होदि । पुणो ओहिणाणावरणखओवसमजुत्तजीवस्स णाणावरणदेसघादिउदयं करेंतपुव्वुत्ततिविहगुणसे ढिगोउच्छं समयपबद्धपरिहीणं मदि-सुद-मणपज्जवणाणावरणेसु जहाकम विभंजिदे तत्थंतिमं मणपज्जवणाणावरणं (ण-) भागं होदि । तदा ओहिणाणावरणादो चउण्णं पयडीणं विभंजणेसुप्पण्णभेदो मणपज्जवणाणावरणं विसेसाहियं जादं। तत्तो ओहिदसणादरणं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण? समयपबद्धस्स तिभागमेत्तेण । तत्तो सुदणाणावरणं विसेसाहिपं पयडिविसेसेण । सुगमाणि । __णवरि एत्थ तिरिक्खाणं सादासादाणं दोण्हं सरिसत्तणं अपज्जत्तकाले सुह-दुक्खाणि तिरिक्वगदीए साधारणा त्ति कारणं वत्तव्वं । अहवा भय-दुगुंछाणं वत्तव्यं । पुणो सूचिदपयडीणं णामस्स तेसि दुष्पयारभागहारसरूवं वा जाणिय वत्तव्वं । (पृ० ३१२ ) पुणो तिरिक्खजोगिणीए एवं चेव वत्तव्वं । णवरि सम्मामिच्छत्तप्पहडि जाव थीणगिद्धि त्ति तिरिक्खीण कदमंजमासंजमगुणसेढीयो, मिच्छत्ताणताणुबंधीणं दुविहसंजमगुणसेढीयो। पुणो सम्मामिच्छत्तप्पहुडि जाव सादासादे त्ति पयडीणं अणंताणुबंधीणं विसंजोजणगुणसेढीयो होदि त्ति वत्तव्वं । णवरि वेगुवियसरीर-संजमासंजमगुणसेढी होदि त्ति भाणिदव्वं । ( पृ० ३१३ ) पुणो मणुसगदोए संभवंतपयडीणं ओघभंगो चेव । णवरि मिच्छत्तप्पहुडि जाव अणंताणबंधिचउक्के त्ति दुविहसंजमगुणसेढिसीसयं, अपच्चक्खाणावर० पच्चक्खाणावर० दुविहसंजमगुणसेढि-दसणमोहक्खवणगुणसेढि त्ति तिण्णं गुणसेढीणं, पयला-णिद्दाणं उवसंतगुणसेढीणं, केवलणाणावरणाणं केवलदसणावरणाणं खीणकसायगुणसेढीणं, पुणो अघादीणं मणुस्सा उगस्स पूव्वं व दुविहपयारे उप्पण्णगोउच्छं, बेगुव्यिय-आहारसरीराणं मंजमगुणसेढीणं , अजसगित्तिणीचागोदाणं दसणमोहक्खवणगुणसेढिसहिददुविहसंजमगुणसेढीणं, छण्णोकसायाणं अपुव्वखवगस्स चरिमसमयम्मि उदयगदगुणसेढीणं, इत्थि-णउंसय-पुरिसवेद-कोध-माण-मायासंजलणाण अणियट्टिगुणसेढीणं उदिण्णाणमुवरुवरि ट्ठिदाणं, ओरालियसरीरप्पहुडि जाव सादासादे त्ति पयडीणमोघपरूविदगुणसेढीणं च गहणं कायव्वं । एत्थ सूचिदपयडीणं सव्वाणं कारणं पुळां व जाणिय वत्तव्वं । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (८९) (पृ०३१४) पुणो देवगदीए अप्पाबहुगपरूवणा सुगमा । णवरि सम्मामिच्छत्त-पयला-णिदाणं गुणिदकम्मंसियगोउच्छा, मिच्छत्ताणताणुबंधीणं दुविहसंजमगुणसेढिगाउच्छं, अपञ्चक्खाण-पच्चक्खाणावरण(-वरणाणं) अंतरकरणदुचरिमसमयअणियट्टिम्मि कदगुणसे ढिसीसयगोउच्छं, केवलणाणाबरण-केवलदंसणावरण उवसंतकसायस्स उक्करसगुणसेढिगोउच्छं, सम्मत्त-देवाउग-ओहिणाणावरण-ओहिदसणाविरणाणं ओघकारणसिद्धगोउच्छाणं, अजसगित्ति-इत्थिवेदाणं अणंताणुबंधिविसंजोजणगुणसेढिगोउच्छं, छगोकसायागमंतरकरणदुचरिमसमयअणियट्टीणं कदगुणसेढीणं, पुणो पुरिसवेद० जाव सादासादे त्ति ताव पयडीणं कमेण अणियट्टिसुहुमसांपराइय-उवसंतकसायाणं कदगुणसेढिगोउच्छाणं संभवं जाणिय वत्तव्वं । वरि देवगदीए असादादो सादं विसेसाहियं त्ति भाण(भणि)दस्सेदस्स कारणं देवगदीए सुहपडिबद्धसादोदयं विसेसाहिए[-ण] अहियं होदि त्ति वत्तव्वं । पुणो सूचिदणामपयडीणं तेसिं भागहारसरूवेण दुप्पयारेण पवेसिज्जमाणपयडीणं च जाणिय वत्तव्वं । (पृ० ३१५) ___ असण्णीसु अप्पाबहुगपरूवणं सुगमं । णवरि पंचविहणिद्दाणं गुणिदकम्मंसियस्स एगगोउच्छमुवरिमपयडीणं दुविहसंजमगुणसेढिगोउच्छाणं गहणं कायव्वं । णवरि उवचारोदयणिबंधणं णिरय-मणुस-देवगदीणं णिरय-मणुस-देवाऊणं उच्चागोदाणं च उदयगोउच्छपमार्ण उच्चदे। तं जहा-तिण्णं गदीणं पुह पुह संखेज्जावलियमेत्तसमयपबद्धाणं बंधगद्धावसेण देव-मणुस-णिरयगदीणं कमेण संखेजगुणाणं दिवगुणहाणीए खंडिदेगखंडमेत्ताणि होति । पुणो तिण्णमाउगाणं असण्णिसंबंधीणं आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तबंधगद्धेण गुणिदसमयपबद्धाणं सग-सगजहण्णाउगेण खंडिदेयखंडमेत्ताणं सादिरेयाणं, उच्चागोदम्स संखेजावलियमेत्तसमयपबद्धाणं अंतोमुहुत्तुव्वेलणकालेणुप्पण्णंतोमुहुत्तचरिमफालीए खंडिदेयखंडमेत्तपमाणं होदि त्ति वत्त व्वं । कथमेदं णव्वदे ? एदमेव अत्थं गंथपरूवणाए सिद्धत्तादो णव्वदे। एत्थ सूचिदपयडीणं पि जाणिय वत्तव्वं । एवमुक्कस्सप्पाबहुगपरूवणा गदा । (पृ० ३१८) एत्तो जहण्णपदेसुदयप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहाजहण्णुदयो मिच्छत्ते थोवो । पृ० ३१८. कुदो ? उवसमसम्मादिहितप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलेसेण मिच्छत्तं गदपढमसमए ओकडि. यूण असंखेजलोगपडिभागियदव्वं घेत्तणुदयसमयप्पहुडि आवलियमेत्तकालं विसेसेसहीणं(ण) कमेण रचिय तदुवरिमणिसेगे असंखेजगुणं पक्खिविय तदुवरि विसेसहीणं(ण)कमेण संच्छुहिय आवलियं गदस्स उदिण्णदव्वगहणादो। तं पि कुदो ? तत्थतणगोउच्छविसेसादो समयं पडि अणंतगुणसंकिलेसेणुदीरिजमाणदव्वमसंखेजगुणहीणं होदि त्ति उवदेसमुवलंभिय उत्तत्तादो । तस्स संदिट्ठी| स ३२३ | ७ ख ओ 2४ | सम्मामिच्छत्ते असंखेजगुणं । पृ० ३१८. कुदो ? एत्थ पुव्वं व सव्वकिरियसंभवादो। कथं ? मिच्छत्तदव्वादो असंखेजगुणहीणमेत्तसम्मामिच्छत्तदव्वेहिंतो उदीरिजमाणदव्वमसंखेजगुणं होदि। उवसमसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छत्तं गेण्हमाणसमये मिच्छत्तपडिवजमाणसंकिलेसादो अणंतगुणहीणेण तप्पाओग्गसंकिलेसेण दंसगमोहगीयमोकडुमाणा मिच्छत्तोकडणभागहारादो असंखेजगुणहीणेगोकहिदू णुदयावलिय Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) परिशिष्ट बाहिरे छविय पुणो असंखेजलोगपडिभागियमुदयावलियम्भंतरे रचिदे त्ति । केत्तियो भागहारम्स गुणहीणपमाणो ? गुणसंकमणभागहारादो असंखेजगुणो। अहवा, तिविहदसणमोहणीयमोकड़िय उदयावलियबाहिरे सग-सगसरूवेण रचिय पुणो वि तिविहदसणमोहणीयदवाणमसंखेन्जलोगलोग(मसंखेज़लोग)पडिभागीणं गहियमेगटुं करिय सम्मामिच्छत्तसरूवेण उदयावलियभंतरे चिदो त्ति वत्तव्वं । कथमेवं रचिदो त्ति णव्वदे? अपञ्चक्खाण-पञ्चक्खाण-संजलणकोह-माण-माया लोहाणं पुह पुह सग सगवउकाणं सरिसत्तण्णहाणुववत्तीदो णव्वदे । तस्स संदिट्ठी| स 2१२ . |७ ख गु० ओ:23 सम्मचे असंखेजगुणं । पृ० ३१८. 2 कुदो ? पुव्वुत्तदुविहकारणमेत्थ वि संभवादो । किंतु पुठिवल्लं संकिलेसं एसा विसोहि त्ति दव्वमसंखेजगुणं ओकाइदि त्ति वत्तव्वं । तं चेदं | २१२ अपच्चक्खाणाणं अण्णदरमसंखेजगुणं । | ओ ख गु= पृ० ३१८. 22 कुदो ? खविदकम्मंसियो उवसंतकसायो देवलोगं गदी संतो तत्तो ओकड़िय उदयावलियबाहिरे रचिय पुणो तत्थ असंखेजलोगपडिभागियगहिददव्वं उदयावलियन्भंतरे रचियूणावलियं गदस्स जहण्णोदयं जादत्तादो । एदेण चउण्गकसायाणं सरिसत्तणं भण्णमाणेण णव्वदि' चउण्णं कसायाणं असंखेजलोगपडिभागिगं एगटुं कादूण रचेदि त्ति । पचक्खाणावर विसेसाहियं । पृ० ३१८. कुदो ? एस्थ वि पुवुत्तासेसकारणे संते वि पयडिविसेसेण विसेसाहियं जादं। एदेण खवगुवसमसेढिपरिणामाणं व सेसपरिणामाणि दवविसेसमणवेक्खियूणीकडदि त्ति वत्तव्वं । पुणो अणंताणुबंधीणं अण्णदरं असंखेजगुणं । पृ० ३१८. कुदो ? खविदकम्मंसिया(यो) सम्मत्तं पडिवन्जिय अणंनाणुबंधिचक्कं विसंजोर पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं घेत्तण बेच्छाट्ठिसागरोवमं सम्मत्तमणुपालिय मिच्छ पडिवज्जिय आवलियं गदस्स जहण्णोदयणिसेयं जादत्तादो । तं चेदं | स 2 पयलापयला० असंखेजगुणा । पृ० ३१८. ७ ख १७ उ अ ६६२ २७१२७ - को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? खविदकम्मंसियस पश्चिमदेवेहिंतो एइंदिसुप्पजिय सरीरपज्जत्तिं समाणिदस्स पचलापचलस्स उदयमागच्छमाणसमाणगोउच्छाए उवरि सेसअसंखेजदिभागं विभंजणभागहारमिदि विवक्खाभिप्पाएण विभंजिदमिदि जादसमाणपुंजेसु पक्खित्तेसु सेसस्स असंखेजभागाणि अस्थि, ताणि कमेण थीणगिद्धि-णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-णिद्दा-पयला-चक्खु-वचक्खु-ओहि केवलदसणावरणे त्ति असंखेजगुणहीणाणि होति । तत्थ सेसणिद्दाचउक्केसु पक्खित्तदव्वाणं असंखेजभागाणि पक्खिविय तम्मि पंचण्णं गुणसंकमेण गदव्वमवणिदे सेसमुदयगदणिसेगपमाणं होदि त्ति । तस्स ढवणा | स २ ।। णिद्दाणिद्दा० विसेसाहिया । पृ० ३१८. णिहाणिहाये विभंजगम्हि उप्पणसमाणधणम्मि सेसणिद्दाच उक्काणं तस्संबंधिसमाण हस्तलिखितप्रतौ 'भण्णमाणे ण णम्वदि? इत्येवंविधोऽत्र पाठः प्राप्यते । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ख ।। सतकम्मपाजया धंणाणं पंचमभागं पक्खिविय ताणं पक्खित्तचउण्णं पक्खेवाणं असंखेजभागा च पक्खित्ते पुग्विल्लेहि पक्खित्तदव्वादो विसेसाहियं होदि । तम्मि पंचणिहाणं गुणसंक्रमण गददव्वं परिहीणे कदे उदयगदगोउच्छपमाणं जादत्तादो। ते केत्तियेणहियं ? पयडिविसेसमेत्तेण । तस्स एवणा [७ ख ५/ थीणगिद्धी विसेसाहिया । पृ० ३१८. एत्थ वि पुव्वं व विसेसाहियत्तं वत्तव्वं । केवलणाणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३१८. कुदो ? पक्कमम्मि पुग्विल्लाहिप्पारण विभंजिदम्मि केवलणाणावरणसमाणधणादो थीणगिद्धीए समाणधणमेगरूवचउभागब्भहियदुरूवेण खंडिदेयखंडपरिहीणं होदि । सेसणिद्दाचउक्काणं समाणधणाणं पंचमभागं पक्खित्ते केवलणाणावरणस्स समाणधणेण सरिसं जादं। पुणो केवलणाणावरणस्स समाणधणम्मि पक्खित्तपगडिविसेसादो थीणगिद्धिम्मि पक्खित्तपयडिविसेसं सेसणिद्दाचउक्कम्मि पक्खि त्त]पगडिविसेसाणं असंख्नेजभागसहिदं असंखेज्जं होदि । कुदो ? विभंजणकमेण तहोवलंभादो । पुणो तम्मि पंचण्णं गुणसंकमेण गददव्वमवणिदे जं सेसं तं केवलणाणावरणसमाणधणम्मि पक्खित्तविसेसादो अप्पमिदि केवलणाणावरणं विसेसाहियं जादं । पयला विसेसाहिया । पृ० ३१८. कुदो ? खविदकम्मंसियो वेमाणियदेवेसुप्पन्जिय पजत्तीयो समाणिय उक्कस्सहिदीसु उक्कडिय आवलियं गदरस सेसणिददाचउक्काणं सादिरेयपंचमभागं पलि(डि)च्छिदसगेगणिसेगत्तादो। कथं पक्कमम्मि(पयलम्मि) थीणगिद्धीदो विसेसहीणं (?) विसेसाहियकेवलणाणावरणादो विसेसाहियं जादं ? ण, पयलस्स समाणधणम्मि पव्वं व सेसणिाचउक्काणं समाणधणाणं पंचमभागं पक्खित्ते केवल गाणावरणसमाणधणेणसरिसं जादं । पुणो केवलणाणावरणम्मि पक्खित्तविसेसादो पयलम्मि पक्खित्तविसेसं सेसणिद्दाचउक्काणं पक्खेवाणं असंखेजभागसहिदं थीणगिद्धिपक्खेवसमाणं जादत्तादो असंखेजगुणणं) जादं ति तम्मि पंचणं गुणसंकमेण गदं दव्वं सोहिय पुण थीणगिद्धितियादो आगदगणसंकमव्वस्स संखेजभागं पक्खित्ते केवलणाणावरणादो विसेसाहियं जादं । णिद्दा विसेसाहिया । १० ३१८. कुदो ? पुल्लिकिरियादो जोइजमाणे पयडिविसेसेण अहियं जादत्तादो । केवलदंसणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३१८. कुदो ? पव्विल्लम्हि पाओग्गकिरियं णिहाए केवलदसणावरणाए कदे तत्थ केवलदसणावरणं थोवं जादं । जादे पंचविहणिद्दाहिंतो आगदगुणसंकमदव्वं पक्खित्ते विसेसाहियं पच्छा जादं । तं चेइंदिएसुप्पज्जिय सरीरगहिदस्स णिहा-पयलाणं एक्कदरेण सह वेदिजमाणे होदि त्ति वत्तव्वं । दुगुंछा अणंतगुणं । पृ० ३१८. ___ कुदो ? उवसंतकसायो देवेसुप्पन्जियूणावलियकालं गदरस असंखेजलोगपडिभागियणिसेयगोउच्छगहणादो । एदं पुण देसघादित्तादो अणंतगुणं जादं । तं चेदं | स 2१२१६ ७१० ओ:2४१६ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) परिशिष्ट भयं विसेसाहियं । इस्सं विसेसाहियं । रदि० विसेसाहियं । पुरिसवेदं विसेसाहियं । पृ० ३१८. दाणि मुगमाणि, पर्याडत्रि से साहियत्तादी | संजलणाए विसेसाहिया । पृ० ३१८. केत्तियमेत्तंण ? चभागमेत्तंण । तं चेदं । स २१२१६ ओहिणाणावरणं असंम्खेखगुणं । पृ० | ७८ अ = २४१६ ३१८. को गुणगारी ? असंखेज्ञा लोगा | कुट्टो ? स्वविदकम्मसियो वैमाणियदेवेमुपनिय उस्सट्ठिदिं बंधिय तम्मि उक्कड़िय आवलियं गदस्म जहणणगो उच्छं होदि ति । नम्मं प्रमाणं भोकड्डुक्कडुवसेण परपर्याडिसकमवसेण उक्कामद्विदिबंधम्मि उकरमणिमेयादो अबेलगुणहीणं हो ओािणावरणखओवसमजुत्त जीवस्स उदयावलियं पवेसिय उदयसमत्रेण द्विदणिसेयपमाणं होदि । तस्स संदिट्टी | स 2 ओहिदंसणावरण ७४६३०० 2 ९ विसेसाहियं । पृ० ३१८. " केत्तियमेत्ते ? संखेज्जदिभागमेत्तेण । तं चेदं | स 2 ७३६३००२ णिरया उगमसंखेजगुणं । पृ० ३१८. ९ कुदो ? सत्तमढविणेरइयाणं असादोदय सहगदाणं चरिमसमयगो उच्छगणादी | स 2२७ ।। | ८६३०२ | देवाउगं विसे साहियं । पृ० ३१९. कुदो ? सुहपयडित्तादो । सादबहुलाणं ओलंबणबहुत्तादो । तिरिक्खाउगं असंखेज्जगुणं । पृ० ३१९. कुदो ? तिपलिदीवमस्स चरिमगो उच्छगहणादो को गुणगारो ? तिपलिदोवमादो उवरिमतेत्तीस सागरोवमणाणागुणहाणिसला गाणं अण्णांन्भत्थरासी । तं चेदं | स 22२६ सागं विसेसाहियं । पृ० ३१९. ८६३००९ कुदो ? ओलंदरस अप्पत्तादो । ओरालिय सरीरं असंखेजगुणं । पृ० ३१९. कुदो ? खविदकमंसियों एइंदियों सणिपंचिदिसुम्पज्जिय छप्पजतीहि पज्जत्तयदो होणे कत्तीसं वेदयमाणो उक्करसट्टिदि वंधिय तत्थुक्कडिय आवलियं गद्स्स जहष्णदव्यं जादत्तादो । तं चेदं | स 2 1 तेज गं १२५२ विसेसाहियं । कम्मइगं विसेसाहियं । पृ० ३१९. वत्तव्वं । कुदो ? पर्याडविसेसेण । पुणो सूचिदतब्बंधण संघादा अप्पा बहुगकमं जाणियूण doaसरीरं विसेसाहियं । पृ० ३१९. कुदो ? खविदकम्मंसियो एइंदियो सष्णिपंचिदिएसुप्पज्जिय पज्जत्तीयो समाणिय उज्जोवोदणुत्तर सरीरं विगुब्विय उक्करसट्ठिदिं बंधिय तम्मि उक्कडिदस्स जहण्णं होदिति । स | ३ || केत्तिएण विसेसाहियं ? संखेज्जभागेण । पुणो स्थ सूचितव्बंधण संघादापि | ७२८३ जाणिय वत्तव्वं । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (९३) आहारसरीरं विसेसाहियं' संखेजदिभा० । एत्थ विभंजणकमं दुप्पयारं वत्तव्यं । एदस्सत्थविभंजणकमं जाणिय वत्तव्वं । पुणो सूचिदतब्बंधण-संघादाणं पि जाणिय विसेसाहियकमेण वत्तव्वं । तं चेदं | स 2 || |७२७३/ तिरिक्खगदी संखेजगुणं । पृ० ३१९. कुदो ? खविदकमंसियसण्णिस्स इगितीसोदयस्स उकस्सहिदीए उक्कट्टिय आवलियकालं गदस्स जहण्णं जादत्तादो | स 2 || को गुणगारो ? सादिरेयदोरूवाणि । ७२८३ | पुणो सूचिदविगलिंदिय-पंचिंदियजादीणं छरसंठाणाणं ओगलियंगोवंग-छस्संघडण-वणचउक्क-अगुरुगलहुगचउक्कं-दोविहाय[ गइ-]-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर - थिराथिर-सुभासुभसुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज-अणादेजाणं एवं चेव वत्तव्वं । णवरि कमेण विसेसाहियपयडीणं सरिसपयडीणं च जाणिय वत्तव्वं । तत्थेक्कस्स ट्ठवणा] स 21 कुदो सरिसत्तं ? ण, भयदुगुंछाणं व सरिसंतो (सत्तो)वलंभादो । पयडिविसेसेण ७२६/ पुणो विसेसाहियं जादं | स 2|| |७२६ जसगित्ति-अजसगित्ती दो वि समाणा विसेसाहिया पयडिविसेसेण । पृ० ३१९. पुणो एदेण सूचिदणिमिणं विसेसाहियं । देवगदी विसेसाहिया । पृ० ३१९. केत्तियमेत्तेग ? संखेजदिभागमेत्तेण। कुदो ? खविदकम्मसियो देवलोए उप्पन्जिय उक्करसहिदिबंधस्सुवरि परपयडीसु उक्कड्डिय आवलियकालं गदं तस्स समए उज्जोवेण सह विगुश्विदुत्तरसरीरस्स जहण्णं जादत्तादो । तं चेदं | स 2 | सृचिदवेगुम्वियंगोवंग विसेसाहिया। पुणो मणुसगदी विसेसाहिया । पृ० ७२८॥ ३१९. कुदो ? खविदकम्मंसियो मणुम्सेसुप्पज्जिय पज्जत्तिं समाणिय उक्करसहिदीए उक्कड्डिदस्स जहण्णं होदि त्ति । तं चेदं | स 2|कथं विसेसाहियत्तं ? ण, देवगदिम्मि तिरिक्खगदि-थावरसंजुत्तट्ठिदिबंधसंकिलेसादो! ७२८ मणुसगदिसंजुत्तपण्णारससागरोवमकोडाकोडिट्ठिदिबंधसंकिलेस. मणंतगुणहीणत्तादो उक्कड्डिदपयडिविसेससंतादो देवगदीए संघडणादो आगच्छमाणदव्वं पक्खिविय उज्जोवादो मणुसगदीए आगच्छमाणदव्वं विसेसाहियं ति च विसेसाहियं जादं । णिरयगदी विसेसाहिया । पृ० ३१९. केत्तियमेत्तेण ? संखेजदिभागमत्तेण | स 2 || पुणो सूचिदेइंदियादाव थावर-साधारणाणं विसेसाहियं | स 2|| सुहुमं तत्तो विसे । ७२७] साहियं | स 2 || अपज्जत्त विसेसाहिया । आणुपुवी- | ७२५ | चउक्काणि सरिसाणि विसेसाहियाणि । ७२४ | स 2|| एत्थ किंचि संभवंतं विसेसाहियं जाणिय वत्तव्यं । सूचिदं गदं । ___ पुणो सोगो संखेजगुणो। पृ० ३१९. कुदो ? खविदकम्मंसियो देवलोगे उप्पन्जिय उक्कस्सट्ठि दिबंधम्मि उक्कड्डियावलियं गंतूण पलि(डि)च्छिदहस्सस्स थि उक्कगोउच्छसहगदसगेगगोउच्छपमाणत्तादो। तस्स संदिट्ठी स 2|| ७२० वाक्यमिदं नोपलभ्यते मूलग्रन्थे । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० (९४) परिशिष्ट अरदी विसेसाहिया । पृ० ३१९. कुदो ? सरिससामित्त संते वि पर्याडविसेसेण विसेसाहिया जादा । इत्थिवेदं विसे० । पृ० ३१९. कुदो ? खविदकम्मसियो पंचिंदियो देवेसुप्पन्जिय पच्छा पगारससागरोवमकोडाकोडिहिदि(दि) बंघिय उक्कट्टिदस्स मंदसंकिलेसादो पडिविसेसादोच विसेसाहियं । तं चेदं | स 21 एदं तिवेदोदयगोच्छपमाणं होदि। णउंसयवेदं विसेसा० । पृ० ३१९. कुदो ? खरिदकम्मंसियो देवो एइंदिएसुप्पन्जिय पढमसमए जादे जहण्णोदयगहणादो । पयडिविसेसेण विसेसाहियं जादं । स 2|| दाणंतराइयं विसे० । ।७१० पृ० ३१९. कथं संदिट्ठीए संखेजगुणं दिस्समाणं विसेसाहियं जादं ? ण मोहणीयभागादो अंतराइयभागस्स तहाविहणियमे विरोहाभावादो | स 2|| लाभांतराइगं विसेसा० । ! ७५ | भोगांतराइगं विसेसाहियं । परिभोगांतराइगं विसेसा० । वीरियंतराइगं विसेसा० । पृ० ३१९. सुगममेदाणि पयडिविसेसकारणावेक्खाणि । मणपजवणाणावरणं विसे० । पृ० ३१९. कुदो ? समाणसामित्ते संते विभज्जमाणभागहारविसेसत्तादो | स 2|| सुदणाणावरणं विसे० । मदिणाणावरणं विसे० । पृ० । ७४ | ३१९. कुदो ? पयडिविसेसेण । अचक्खुदंसणावरणं विसे० । पृ० ३१९. केत्तियमेत्तेण ? संखेजदिभागमेत्तेण | स 2।। चक्खुदंसणाणावरणं विसे० । । ७३| पृ० ३१९. कुदो ? पडिविसेसेग। उच्चागोदं विसेसा० । पृ० ३१९. कथं संखेजगुणं दिम्समाणं विसेसाहियं होज ? सच्चमेवं चेव, किंतु खविदकम्मंसियो चरिमेइंदियवारपरिभमणकालस्मि तेउ-वाउकाइएसुप्पन्जिय उच्चागोदं एदेण गंथेण उत्तसरूवे. गंतोमहत्तणुव्वेल्लिय सण्णीसुप्पन्जिय मणुसम्मि संजममणुपालिय मिच्छत्तं गंतूण देवेसुप्पजिय उक्कस्सहिदीए उक्कड्डिदम्मि उच्चागोदस्स ऐगसमयपबद्धस्स असंखेजदिभागमेत्तेसु णिसेगेसु | 2८ बंधगद्धाणुसारी णीचागोदरस णिसेगस्स समयपबद्धस्स अद्धं सादिरेगमेत्तं संकम(मि)द७ अ १५ त्तादो। तं चेदं। स २९ । कथमेदं णव्वदे ? मिच्छादिहिस्स विसोधिअद्धादो | २७ । संकिलेसद्धस्स | ७१७ | सादिरेयमिदि एत्थ परूविदत्तादो। तेसिमद्धाणं स २८ संदिट्ठी | २२९ | ७अ१७ | २७८ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (९५) णीचागोदस्स विसेसा० पयडिविसेसेण | स । २९ ।। पृ० ३१९. सादासादं विसेसाहियं । पृ० ३१९.] स २८ एदाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि । पुणो वि एत्थ सूचिदतित्थयरमसंखेजगुणं, खविदकम्मंसियसजोगिपढमसमयउदय- णिसेगगणादो । तं चेदं स २१२ ।। एवं [ओघ ] जहण्णप्पा-| - बहुगं गदं । ७ ओ प२५ (पृ० ३२०) णिरयगदीए जहण्णपदेसुदयस्सप्पाबहुअं भगमाणे मिच्छत्तप्पहुडि जाव अणंताणुबंधिकसायो त्ति ताव परूवणो सुगमो। कुदो ? ओघम्मि उत्तकारणाणं एत्थ वि संभवादो। णवरि अणंताणुबंधीणं च वयाणुसारी आयो त्ति भणंताणमभिप्पाएण बेछावट्ठिसागरोवमं सम्मत्तसम्म(म्मा)मिच्छत्तं च अणुपालिय मिच्छत्तं गंतूण णिरएसुप्पण्णाणं सगचउक्कगोउच्छसमूहम्मि वत्तव्वं । तस्स ढवणा | स २४ ।। अण्णहा खविदकम्मंसियो णिरएसुप्पन्जिय तेत्तीससागरोवमं किंचूणं | ७ खओ अ६६२/ सम्मत्तमणुपालिय मिच्छत्तं गदस्स जहण्णउदयो होदि त्ति वत्तव्वं । | २७२७ तत्तो केवलणाणावरणं असंखेजगुणं । पृ० ३२०. सुगममेदं | स। ख ५ केवलदसणावरणं विसे० । पृ० ३२०. कुदो ? रिजुगदीए णिरएसुप्पण्णपढमसमए णिहा-पयलाणं उदये अस्थि त्ति भणंताणमभिप्पाएण पढमसमए वत्तव्वं । अथवा सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स होदि त्ति वत्तव्वं । तस्स ढवणा | स 2|| कुदो विसेसाहि [य]त्तं ? ण, दोण्णं च परूवणाए विचारिजमाणासु तहोवलंभादो। ७ख ५ पयला विसेसा० । पृ० ३२०. कथं ओघम्मि णिहोदएहिंतो विसेसाहियत्तादो (विसेसाहियं) केवलदसणावरणं णिद्देहितो विसेसहीणपचलादो एत्थुइसे विसेसहोणं जादं ? उच्चदे--खविदकम्मंसियो चरिमवारमुवसमसेढि(ढिं) चडिय हेट्ठा ओदरिय मिच्छत्तं गंतूण देवसुप्पन्जिय पुणो एइंदियं गंतूण तत्थ पाओग्गकालं भमिय तसेसुप्पजिय णिरयाउगबंधपाओग्गकालादो हेहिमसंकिलेस-विसोहिजादोक्कड्ड(डडु)कड्डणपरपयडिसंकमवसेण विवक्खिदणिसेयमप्पं करिय गिरएसुप्पण्णाणं पढमसमए णिहा-पयलाणं एक्कदरउदीरयं होदि त्ति वा। अहवा पज्जत्तिं समाणिय उक्कस्सहिदिं बंधिय तम्मि उक्कड़िय आवलियं गदम्मि पचलाए उदयमागच्छमाणगोउच्छम्मि पुव्वं व सेसणिहाचउक्काणं धणाणं पंचमभागं तेसिं पक्खेवाणं पुह पुह संखेजभागा च पक्खित्तमेत्तं जहण्णुदयणिसेयत्तादो । केवलदसणावरणस्स पुणो एवं चेव । णवरि पक्खेवाणं असंखेजे भागे पक्खिविय सेसेगं पक्खित्तमिदि। किमट्ठ मेवं उवसमसेढिमचडिदस्स सामित्तं " उत्तं ? ण विवक्खिदोदयणिद्दागोउच्छाए थिउकसंकमवसेण उवसमसेढिचडिदाणं समाणगोउच्छं दिस्सदि, किंतु चडिदाणं ओकडणवसेण हीणमागच्छदि त्ति एवं चेव गहेदव्वं । छ. प. १३ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) परिशिष्ट (पृ० ३२०) पुणो अपन्चकवाणावरणप्पडि भयोदय त्ति ताव परुवणा सुगमा, ओघकारणात्तादो। तत्तो सोगं विसे । हस्सं विसेसा० । पृ० ३२०. कथं हस्सादो पयडिविसेसेणभहियं सोगो एत्थ तत्ती हीणं जादं ? ण, सोगमुप्पण्गपढमसमए हस्सस्स थिउक्क संकमदव्वं पलि(डि)च्छिय जहणं जादं, हस्सं पुणी तत्ती अंतोमुहुत्तं गंतूण णवकबंधगोउच्छं खविदकम्मंसियणिसेयविसेसादी असंखेजगुणत्तेण सहगदसोग(ग) थिउक्क संकमेण परिणामविसेसेणु दारिददव्वेण सह जहण्णं जादत्तादो विसेसाहियं जादं । कुदो ? विसेसेण जादहियवादी एदेण सरूवेहियदत्वमसंखे० गुणमिदि । अरदी विसेसा० । रदी विसेसा० । पृ० ३२०. एत्थ वि कारणं पुत्वं व वत्तव्वं । पुणो एत्थो उवरि (एत्थोवरि) णqसयवेदगप्पहुडि जाव असादवेदणिय त्ति ताव सुगमं । तत्तो सादावेदणीयं विसेसा० । पृ० ३२०. कथं असादत्तादो संखेजगुणहीणसंतस्स सादावेदणीयस्स विसेसाहियत्तं ? ण, एत्थ वि तत्तु(त्थुप्पण्णंतोमुहुत्तकालेण सादावेदणीयमुदयं होदि त्ति हस्स-सोगाणं व पर्याडविसेसाहियदव्वादो बंधगोउच्छदव्वं असंखेज गुणमिदि कारणसंभवादो। पुणो सूचिदपयडीगमप्पाबहुगं जाणिय वत्तव्वं । (पृ० ३२०) पुणो तिरिक्खगदीए जहण्णपदेसुदयस्सप्पाबहुगं भण्गमाणे मिच्छत्तप्पटुडि जाव केवलणाणावरणे त्ति ताव सुगमं । कुदो ? ओघकारणाणमेत्त (त्थ) वि संभवादो । गरि अर्णताणुबंधीणं दुप्पयारं(र)परूवणाए तत्थ आयाणुसारी वयो ण होदि त्ति अभिप्पापण तिपलिदोवमआउगतिरिक्खस्स सम्मत्तं पडिवण्णस्स अंते अंतोमुहुत्तकालसेस(से)मिच्छत्तं गदस्स जहणं होदि त्ति वत्तव्वं । पुणो पचला विसेसा० । णिद्दा विसेसा० । पचलापचला विसेसा० । णिहाणिहा विसेसा० । थीणगिद्धी विसेसाहिया। पृ० ३२१. सुगममेदाणि । कुदो ? वुच्चदे- ओम्मि णिद्दा-पयलाणं अपुवकरणम्मि थोणगिद्धितियादो आगदगुणसंकमदव्वस्स भागहारं पगदिविसेसागमणिमित्तभूद(दं) पलिदोवमस्स असंखे. जदिभागादो हीणमेत्ताहिप्पारण उत्तं । प्रस्थ पुण पयडिविसेसभागहारादो असंखेजगुणाभिप्पाएण विवक्खिदमिदि पयडिविसेसेण अहियं होदि त्ति । केवलदसणावरणं विसेसाहियं । पृ. ३२१. कुदो ? सुहुमसांपराइयम्मि एदस्सुवरि आगदगुणसंकमदव्वस्स भागहारादो पगदिविसेसागमणणिमित्तभूदपलिदोवमस्स असंखेजभागमसंखेजमिदि भागहारगदविसेसावेक्वाए विसेसाहियं होदि त्ति । पुणो सेससव्व किरियं पुव्वं व वत्तव्वं । पुणो एत्तो उवरि जाव सादासादे त्ति ताव सुगमं । कुदो ? किंचिविसेसाणुविद्धकारणाणि पुव्वुत्तकारणेहि समाणत्तादो । पुणो सूचिदपयडीणं पि जाणिय वत्तव्वं । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (पृ० ३२२) पुणो मणुसगदीए जहण गपदेसुदए भण्णमाणे मिच्छत्तप्पहुडि जाव तित्थयरे ति ताव सुगमं । कुदो ? केसि केसिमोघम्मि उत्तकारणं संभदि, केसि पि तिरिक्खगदीए उत्त कारणं संभवदि, केसि केसि पि किंचिविसेसाणु विद्धमत्थवसेण जाणिजदि त्ति वा । सूचिदपयडीणं पि जाणिय वत्तव्वं । (पृ० ३२३) पुणो देवगदीए जहण्णपदेसुदयो मिच्छत्तप्पहुडि जाव पचले त्ति ताव सुगमं । तत्तो णिद्दा विसेसाहिया । केवलदंसणावरणं विसेसाहियं । पृ० ३२३. एत्थ कारणं पुव्विल्लं चेव गिरवसेसं चिंतिय वत्तव्वं । एत्थ उवरि जाणिय वत्तव्वं सादासादे त्ति । णवरि सादासादाणं सरिसत्तस्स कारणं उच्चदे-दोण्हं पि वेदणीयाणं अण्णोण्णम्सुवरि अण्णोण्णस्स थिउक्कसंकमेण दोण्हं पि सरिसं होदूण पुणो सादोदए असादोदए संते वि दोसुवि उक्कस्सत(त्त)प्पाओग्गसंकिलेसाणं समाणत्तादो उदीरणदव्वं, पुणो दोण्हं पयडीणमोकडिददव्वम्हि असंखेजलोगपडिभागियदव्वं, घेत्तणेगटुं करिय उदीरणेण पक्खित्तपमाणत्तादो । कथं सादासादोदयकालसंकिलेसाणं समाणत्तं ? ण, पमत्तसंजदाणं सादासादोदयसंकिलेसाणं समाणत्तं; अप्पमत्तसंजदाणं सादासांदी[द]याणं विसोहीणं सरिसत्तदसणादो छम्मासकालसादोदयसहिददेवाणं संकिलेसदसणादो तेत्तीससागरोवमअसादोदयणेरइयम्मि विसोहिदसणादो। तदो सादासादोदयपडिबद्धाणि विसोहि-संकिलेसाणि होति त्ति दोण्हमुदयकालभंतरे पाओग्गसंकिलेसा सरिसा लभं(ब्भ)ति त्ति । सूचिदपयडीणं पि जाणिय वत्तव्वं । (पृ० ३२३) पुणो असण्णीसु जहण्णपदेसुदयस्सप्पाबहुगं भण्णमाणेमिच्छत्तस्स जहण्णपदेसुदयो सव्वत्थोवो । पृ० ३२३. कुदो ? खविदकम्मंसियो सम्मत्तं घेत्तण बेच्छावट्ठिसागरोवमाणि भमिय पच्छा मिच्छत्तं गंतूण असण्णिस्स आउगं बंधिय तम्मि उप्पण्णपढमसमए जहण्णोदयं जादे त्ति । तस्स ट्ठवगा स 2 अणंताणुबंधीसु७ ख १७ उ ६६२/ अण्णदरस्स जह० असंखे०गुणा । पृ० ३२३. कुदो ? खविदकम्मंसिओ सम्मत्तं पडिवज्जिय अणंताणुबंधिं विसंजोजिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुत्तमच्छिय आउगं बंधिय असण्णीसुप्पण्णस्स जहण्णं होदि त्ति । एदमायाणुसारी वयो ण होदि त्ति अभिप्पाएण उत्तं, अण्णहा अप्पाबहुगं(ग-) विवज्जासदासं(विवज्जासं) होज्ज । तस्स ट्ठवणास 2 ७ख १७ अ ७ख५ केवलणाणावरणमसंखेजगुणं । पृ० ३२३. कुदो ? अधापवत्तभागहाराभावादो | स 2 || पुणो एत्तो उवरि जाव पञ्चक्खाणे त्ति ताव सुगमं । पुणो तत्तो उवरि उवचारणिबंधणणिरयाउगं अणंतगुणं । पृ० ३२४. कुदो ? जहण्णबंधगद्धाए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तणिरयाउवहिदि बंधिय णिरएसुप्पन्जिय तिण्णि वि संकिलेसबहुलेणाउगं गमियस्स तस्स चरिमगोउच्छस्स गहणादो। तस्स | Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) हवणा | स 2२७ ८६३०० देवाउगं विसे० । पृ० ३२४. दो ? एत्थ विपुव्वत्तकारणे संते वि परिणामवसेण ओलंबणदव्वं एत्थपत्तादो, रिया उगहिदिबंधादो देवाउ ट्ठदिबंधं विसेसहीणं होदित्ति वा । पुणो तिरिक्खा उगं संखेजगुणं' । पृ० ३२४. कुदो ? पुवं व जहण्णजोग - जहण्णबंधगद्धाहिं पुव्वकोडिमेन्ततिरिक्खा उगादि बंधिय तिरिक्खेसुप्पण्णस्स चरिमगोउच्छगहणादो । तं चेदं | स 2२७१६ | एवमुवरि वि जाणिय वक्तव्वं जाव | ८५२७ तत्तो उवरि उवचारियमणुसगदी विसेसा० । पृ० ३२४. जसाजसगिन्ति त्ति । कुदो ? मणुसगदिस्स उदयगोच्छम्मि सेसणामकम्माणं तत्थ संभवंताणं थिउक्कसंक्रमेणागदजहणदव्वेण सह गहणादो । तं चेदं । स 2 || पुणो वारिदेवदीए [ ७२८ ] उदयो विसेसाहियो । पृ० ३२४. परिशिष्ट कुदो ? खविदकम्मसियो असण्णा देवरादि बंधता संखेज्जावलियमेत्तसमयपबद्धस्स संचयं करिय देवेसुपज्जिय पज्जन्ति समाणिय पुणा उज्जोवेण सह विगुब्विय उक्करसट्ठिदि बंधिय तम्मि उडदवस तस्स जहणं होदि ति । तस्म वा स 2 | कथं पुव्विल्लेण संदिट्ठीए समाणस्सा (९) विसेसाहियत्तं ? ण, परिणामविसेसेण ७८ उदीरिज्माणदव्वविसेस दो बंधगच्छवि से सादो थिउक्कसंकमेणागच्छमाणपर्या डिवि से सादो होदि त्ति पुव्वमेव परुविदत्तादो । पुणो सूचिदपयडी पि जाणिय वक्तव्वं । पदेसुदयप्पा बहुगपरूवणा गदा | (g०३२४ ) पुणो भुजगारपदेसुदयपरूवणासादिया उगमा । णवरि एगजीव परूवणाहियारम्मि मदिणाणावरणस्स भुजगारोदय कालादो [होदि] ? जहणेणेगसमयमिदि उत्तं । पृ० ३२५. तं सुगमं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो इदि उत्तं । पृ० ३२५. तरसत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा- एइंदियस्स गुणिदकम्मंसियरस हृदसमुप्पत्तियं करेंतस्स अस्सिय उत्तकालं संभवदि । एवमप्पदरस्स वि बत्तव्वं । णवरि सुहुमेइंदियहदसमुप्प - त्तियखविदकम्मंसियं पडुच्च वत्तव्वं । कुदो ? संतस्स थोवविवक्खावसेण अहवा पंचिदिए सत्थाणेण भुजगार पदर कालो पलिदोवमस्स असंखेजदभागो होदि (त्ति) वत्तव्यं । तं जहा - तत्थ ताव भुजगारं उच्चदे -- जहाणिसेयं ओकड्डुक्कड्डणणिसेयं बंधणिसेयाणं समूह सरूव वेदिज्ज्ञमाणअगुणसेढिगोउच्छादो तद्नंतर वेदिज्जमाणअगुण से ढिगोउच्छाए ओक्कडुणगोउच्छं बंधगो उच्छमिदि दुविहमाया (य) दव्वं होदि पुणो उक्कड़णगो उच्छरस संतगो उच्छवि से समिदि दुविहं वयदव्वं होदि । पुणो तत्थ विसोहिकाले उक्कड्डूणगोउच्छादो ओक्कड्डुणगोउच्छा चउब्विहदाहोति : किलेसकाले पुणो तत्थ वि[व]ज्जासो होदि । पुणा देवळ च्छादो तद्नंतर वेदिज्जमा गबंध गोउच्छा चउग्विहवडीए वडिदा हो। कुदो 1 १ मूलग्रन्थे तु 'असंखे० गुणो' इति पाठोऽस्ति । . Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (९९) गोउच्छगुणगारभूदजोगादो संपहियगोउच्छजोगगुणगारो चउव्विहवडीए हाणीए विदो, तेहितो बंधदव्वस्स एत्थ वडिदंसणादो। किंतु संतगोउच्छविसेसादो एत्तियमेत्तादो| साएदं बंधगोउच्छं चउव्विहवडीए हाणीए वा ट्ठिदं होदि । पुणो तत्थ विसोहिकाले २६ । भुजगारोदयो चेव होदि । कुदो ? तत्थतणोकडणेण जादणिसेयम्मि उक्कड्डणणिसेयं सोहिदे तत्थ जादविसेसादो चउव्विवडि-हाणीए जादजोगणिबंधणसमयपबद्धणिसेयस्स सहिदादो। पुणो सत्त(संत)गोउच्छविसेसं थोवमिदि संकिलेसकाले वि भुजगारं संभवदि । कथं ? मंदसंकिलेसम्स एदस्स जादोक्कडणम्मि णिसेयं (-डुणणिसेयं) उक्कड्डुणणिसेयम्मि सोहिदे तत्थ विसेसादो संतगोउच्छविसेससहिदादो पुव्वं व जोगविसेसेण जादबंधणिसेयमहियगोउच्छसेसं जादमिदि । एवंविहाणेण संसारे केइ-केइजीवाणं भुजगारकालाणसंधाणं पलिदोवमस्सासंखेजदिभागमेत्तं होदि ति उत्तं होदि । जहा सासणसम्म्मादिहिस्स उक्कस्सकालाणुसंधाणं पुणो तव्विवरीदकमेणणुसंधाणेण अप्पदरवेदयकालं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागं होदि त्ति वत्तव्वं । __ अहवा खविदकम्मंसिओ वा तप्पाओग्गखविद-गुणिदघोलमाणो वा एइंदिये आगंतूण णिरएसुप्पन्जिय तस्सुदयणिसेयजोगगुणगारादो तसाणं उववादजोगं मोत्तूण सेसजोगा एत्थ परिणामिजमामा णा असंखे० गुणा होति । एदेहितो बंधदव्वेणागदणिसेगेहिंतो उदयगोउच्छविसेसा असंखेजगुणहीणं होति त्ति । तदो पहुडि भुजगाराणि चेव होदूग गच्छंति त्ति ताव (जाव)पल्लस्स असंखे० भागकालो नि । तत्तो अहियकालं किं , लब्भदे ? ण, खविद-गुणिदघोलमाणाणं दोण्ह पि सेसेणुव्वरिददव्वादो बंधगोउच्छदव्वं एत्तियमेत्तकालब्भहियं होदि त्तिगुरूवदेसत्तादो। बंधदव्वविवक्खाए एत्तियं चेव कालं होदि मणुसअपज्जत्ताणं व । एवमप्पदरम्म वि वत्तव्वं । णवरि गुणिदकम्मंसियो वा तप्पाओग्गखविद-गुणिदघोलमाणो वा णेरडएसुप्पण्णम उदाणसेयजोगगुणगारो जीवजवमज्झादो हेहिमाणंतरम्मि हिदएगजीवगुणहाणिअभंतरम्हि दिजोगेसु अण्णदरेगजोगपमाणं होदि त्ति विवक्खिय पुणो तत्तो हेट्ठिमजोगणेमु परावत्तिय बंधमाणस्स गुणिद-खविदघोलमाणओक्कड डुक्कडणाण विसेसिददव्वाणं पुव्वं व अप्पहाणादो अप्पदरकालं पलिदोवमस्स असंखे० भागं लब्भदि ति वत्तव्वं । पुणो अवडिदवेदया० जहण्णेणेयसमय, उक्कस्सेण संखेजसमया । पृ० ३२५. कुदो ? ओक्कडणगोउच्छं संतगोउच्छविसेससहिदं पुणो ओक्कडणगोउच्छेण बंधगोउच्छसहिदेण सरिसं होदूण वेदजमाणकालं संखेजसमयं होदि त्ति गुरूवदेसादो। ___ एवं सुद-ओहि-मणपजव-केवलणाणावरण-चक्खु-अचक्खु-ओहि-केवलदसणावरणाणं वत्तव्वं ! पुणो णिहाए भुजगारंवेदयकालो अप्पदरंवेदयकालो जहण्णेणेगसमयं, उकस्सेशंतोमुहुत्तकालं । कुदो ? वेदिज्जमाणगोउच्छादो अणंतरवेदिजमाणाणं गोउच्छाणं विचारणं पुव्वं व । तदो भुजगारप्पदरकालपमाणं णिद्दावेदयकालपमाणं चेव होदि त्ति पुव्वं व वत्तव्वं । पुणो अवढिदवेदयं जहण्णेणेगसमयं, उक्कस्सेण संखेजसमयं । पृ० ३२५. एदस्सत्थं पुव्वं व वत्तव्वं । एवं सेसणिद्दाचउक्काणं सोलसकसायाणं हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं भय-दुगुंछाणं वत्तव्वं (पृ०३२६)। किमह हम्स-रदि-अरदि-सोगाणं कमेण उम्मासं, पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तकालं ण लब्भदे ? ण लब्भदे, एदेसि वेदयकालभंतरे भय-दुगुंछाणं अवेदगो होदूण ट्ठिदो Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) परिशिष्ट संतो जदि ताणि पुणो वेदयदि तो तेसिं वेदयपढमसमए अप्पदरं अधस्सं(अवस्स) वेदयदि । पुणो एदेसिं वेदयकाले भय-दुगुंछाणं वेदगो संतो जदि पच्छा अवेदगो होदि तो अवेदगपढमसमए अधस्स (अवस्स) भुजगारं होदि । तदो भय-दुगुंछागं वेदगावेदगकालभंतरे भुजगारप्पदरकालणुसंधाणकिरियं पुत्वं व वत्तव्वं । सादासादाणं भुजगारप्पदरवेदयकालसाहणपरूवणं पुव्वं परूवेदव्वं । पुणो सम्मामिच्छत्तस्स वि तिप्पयाराणं कालपरूवणं जाणिय परूवेदव्वं, सुगमत्तादो । सम्मत्तस्स भुजगारवेदयकालं जहण्णेणेगसमयं । पृ० ३२६. कुदो ? मिच्छत्तस्स णवगबंधगोउच्छमस्सियूण लब्भदि त्ति । उक्कस्समंतोमुहुत्तं । पृ. ३२६. कुदो ? अणंताणुबंधि विसंजदो ण किरियादिविसोहीए तदुवलंभादो (?) । अप्पदरवेदयकालो जहण्णेणेगसमयो । पृ० ३२६. कुदो ? मिच्छत्तस्स णवगबंधस्सियूण । पुणो उक्कस्सपरूवणा सुगमा । मिच्छत्तस्स भुजगारप्पदरवेदयकालं जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमिदि (पृ० ३२६) उत्तस्सेदस्सत्थो उच्चदे णवगबंधणिसेयमस्सियूण जहणकालो वत्तव्वो। अ(उ कस्सं पुणो विसोहिकालस्स ओक्कड् डुक्कड्डणाणं विससिददव्वदो संकिलेसकालस्स ओकडिदुक्कड्डिदाणं विसेसिददव्वादो च बंधगोउच्छ-संतगोउच्छविसेसाणि च अवस्सं जोइजमाणे थोवं होदि त्ति णियममवर्गमिय (गम्मिय) उत्तं । तं कथं ? ओक्कड्डक्कड् डणभागहारस्स असंखे० भागवडिभागहारो उक्कस्सेण ओकड्डुक्कडडणभागहारादो थोवो होदूण असंखे० गुणहीणो होदि त्ति अभिप्पाएण उत्तं । तस्स ढवणा | ओ ओ ।। तदो विसोहिकालमत्तं भुजगारं संकिलेसकालमत्तं अप्पदरं होदि त्ति उक्कस्सकाल-12 2 | मंतोमुहत्तमिदि पविदं। पुणो बंधगोउच्छ-संतगोउच्छविसेसं च भुजगारप्पदराणं उवयारकारणाणि होति त्ति परूविदं । एदं मिच्छत्तपरूवणमुवलक्खणं कादूण एदेणभिप्पाएण सेसकम्माणं परूविदमिदि जाणाविदं। पुणो मिच्छत्तस्स पलिदोवमस्स असंखे० भागकालं पुबिल्लाभिप्पाएण लन्भदि कुदो ? तत्तो(त्थो)क्कडक्कडणभागहारस्स असंखे० भागवद्भिणिमित्तभागहारो मज्झिमपडिवत्तीए ओक्कड डुक्कडुणभागहारेण गुणहाणिं खंडिदेगखंडं रूऊण गुणिदमेत्तं लभदि त्ति । तस्स ट्ठवणा | ओ । एदं ओक्कड डुक्कड्डणभागहारम्मि पक्खित्ते एत्तियं होदि । एदमादि कादणुगु ओ, वरि वि असंखे० भागवड्रिविसयो वत्तव्यो । गु ओ ओ ओ । | ओ (पृ० ३२६) पुणो तिण्हं वेदाणं परूवणा सुगमा । णिरय-देवाउआणं परूवणं पि (पृ० ३२६ ) सुगमं । मणुम्साउगस्स भुजगारवेदयो जहण्णेणेगसमयो । पृ० ३२६. कुदो ? कदलीघादपढमगोउच्छाए उदिण्णे होदि त्ति । उक्कस्संतोमुहुत्तं, विसेसाहियगोउच्छरयणाए उक्कस्सियाए वि अंतोमुहुत्तदीह १ मूलग्रन्थे तु 'विसेसाहिओ गोवुच्छरयणाए' (अ), 'विसे. गोवुच्छरयणाय'(का), 'विसेसाहिया, गोवुच्छरयणाए' (ता.) च पाठोऽस्ति । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (१०१) तादो। एदस्सत्थो उच्चदे । तं जहा- मणुस्साउगं घादयमाणो जहण्णेण एगसमएण घादयदि, पुणो अजहण्णेण बिसमएण, तिसमएण एवं समयुत्तरकमेणेकस्संतोमुहुन्त कालमाउवघादसंकिलेसपरिणामेण परिणमिय पदेसमोकडिडयण आउअजहाणिसेयगोउच्छांवसेसादो अब्भाहयगोउच्छदयमावलियबाहिरगोउच्छाए संतुहिय तत्तो उवरि विसेसहीणकमेण संहदि जावमावलियं ण पत्तो त्ति । एवं समयं पडि समयं पडि संछुहंतो गच्छदि जावुक्कासेणुक्क [स्स]घादपरिणदंतोमुहुत्तकाले त्ति । पुणो तत्तियमेत्तकालं भुजगारसरूवेण वेदिय पच्छा एगसमएण कदलीघादं करेदि त्ति उत्तं होदि। एवं तिरिक्खाउगस्स वि वत्तव्वं । पुणो एस कमो णिरय-देवाउआणं णस्थि । कुदो ? • तत्थ आउगघादपरिणामाणमसंभवादो। ओकड्डियूण विसेसाहियगोउच्छरयणा णत्थि ति उत्तं होदि । पुणो अवढिदवेदयकालो जहण्णण एगसमयं, उक्कस्समट्ठसमयं । पृ० ३२६. कुदो ? आउगघादपरिणामकालभंतरे अवविदोदयणिबंधणपरिणामाणं एगसमयं कादणुक्कस्सेणट्ठसमयपडिद्धाणं उवलंभादो। पुणो अप्पदरवेदयकालो जहण्णण एगसमयो । पृ० ३२६. कुदो ? घादपरिणामकालभंतरे एगलमयमुवलंभादो । उक्कस्सेण तिणिपलिदोवम(मं)समयूणं । पृ० ३२७. सुगममेदं । पणो एत्तो उवरि णिरयगदिप्पहुडि जाव साधारणपयडि त्ति परूवणा सुगमा। कदो विवेगबद्धीणं पुव्विल्लसंकेदबलेण अवगमुवलंभादो। एसो णागहत्थिखवणाणं उवदेसो । अण्णेण उबदेसेण मदिआवरणस्स भुजगारवदयकालो तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । पृ० ३२७. कुदो ? सव्वट्ठसिद्धिम्मि तेत्तीससागरोवमाउम्मि उपजिय पज्जत्तिं समाणस्स पुव्वं व बंधेहि ओक्कड्डुक्कडणणिसेगेहि गोउच्छविसेसे हिं च अहवा जोगपरावत्तीहिं णिसेगविसेसे हिं पुव्वं व किरिएसु अणुसंधारणकालरस कदे देसूणतेत्तीससागरोवममेत्तकालं होदि त्ति अभिप्पायादो। पुणो अप्पदरवेदयकालो तेत्तीससागरोवमाणि संखेजवस्सब्भहियाणि । पृ० ३२८. कुदो ? गुणिकम्मंसियो सण्णी मिच्छाइट्ठी सत्तमपुढवीसु आउगं बंधिय पुणो तत्तो प्पहुडि पुव्वं व भुजगारकिरियं कालाणुसंधाणं करतसत्तमपुढविणेरइएसुप्पन्जिय पजत्तापज्जत्तेसु तत्थ वि कालाणुसंधाणं तेत्तीसं सागरोवमं कादूण णिस्सरियस्स तदुवलंभादो। __ एवं सुद-मणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरणाणं चउण्हं दसणावरणाणं च वत्तव्वं । असादस्स भुजगारवेदयकालो तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । पृ० ३२८. कुदो ? सत्तमपुढविणेरइयस्स मिच्छाइट्ठिस्स पुव्विल्लकिरिएण पुव्वं व अणुसंधाणं कदे तेत्तियमेत्तकालुवलंभादो । अप्पदरं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। पृ० ३२८. कुदो ? सत्तमपुढविणेरइसम्माइट्ठिस्स मज्झिमविसोहि-संकिलेसस्स खविदकम्मंसियस पुत्वं व अणुसंधाणे कदे तत्तियमेत्तकालुवलंभादो । णिरयगदिणामाए भुजगारवेदगो अप्पदरवेदगो [वा] तेत्तीससागरोवमाणि Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) देणाणि । पृ० ३२८. कुदो ? धरि पूव्वं व अणुसंधाणं कदे तेत्तियमेत्तकालुवलं भादो । पुणो अप्परकालसाहण उत्तरगंथमाह दुस्सरणाम कम्मोदयमा गदकालादो परिशिष्ट गिरयगदिणामाए अप्पदरकालसाहणं उच्चदे । तं पि जहा ( तं जहा ) णिसेयगुणहाहाणंतरं थोवमिदि । पृ० ३२८. तं कथं ? कम्मणिसेयस्स गुणहाणिट्ठाणंतरं पलिदोवमस्स असंखे भागपमाणत्तादो थोवं जाएं । किममेदं उच्चदे ? कम्मणिसेयस्स विसेसागमणङ्कं एदम्हादो दुगुणं णिसेगभागहारं होदि । तदो तेण वेदिज्जमाणगोउच्छं भागे हिदे तदणंतरवेदिज्जमानगो उच्छस्स हाणिया(हाणी आ) गच्छदित्ति जाणावणङ्कं । एदस्स वि जाणावणे किं पयोजणं ? भुजगारपदरकालसाहणणिमित्तं पुत्रं व परूविदं एदमवलंचिय परुविदमिदि जाणाविय एवं (दं) विहाणं सत्थस्स उवरि जत्थ जत्थ संभवो तत्थ तत्थ सव्वत्थ परूवेदव्वमिदि जाणावणे पओजणत्तादो । जीवगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं' । पृ० ३२८. कालपरिणती ससागरोवमाणि कुदो ? सेढीए असंखेज भागमेत्तपढमजोगगुणहाणिट्टणम्स असंखे भागपमाणत्तादो । एदस्स परूवणा एत्थ कमट्ठे उच्चदे ? ण, अणेयपयारोदयगोउछेसु विवक्खिदु दर्याणसेयगोउच्छस्स गुणगारभूद जोगेहिंतो तत्तो हेट्ठा एगजीवगुणहाणिअद्वाणादो असंखे० गुणजोगट्ठाणाणि विवक्खिद जोगट्ठाण पक्खेव भागहारस्स चउभागमेत्ताणि ओदरियूणदिजोगेहि परिणमिय जोगस्स व्हिडि-हाणीहिं बंधमाणस्स अप्पदरं होदि, तत्तो उवरिम जगहाणेहिं चउव्हिडि-हाणिजोगेहिं परिणमिय बंधमाणस्स भुजगारं च होदित्ति जागावणङ्कं । एवं बद्धव्यं काढूण भणिय पुणो पण ओकड् डुक्कडुणदव्वविसेसं पि अस्सिऊण परूवेदव्वमिद सूचदमिदि पुल्लिपरूवणं पि गंथसिद्धं इदि वत्तव्वं । पुणो ममदि० पहुडवे गुव्वियसरीरे ति एक्कार सवय हीण मवबंधो 'मबंधो) दगूणतीस पयडीणं, परघादुस्सास पहुडितेरससुहपयडीणं, उज्जोवप्पहूडि णीचागोदे त्ति चत्तारिपयडीणं च परूवणा सुगमत्तादो (सुगमा, तदो) तप्परूवणं चिंतिय वत्तव्वं । पुणो एगजीवरसंतर-णाणाजीवकालंतर-सण्णियासाणं च परूत्रणा सुगमत्तादो (सुगमा, तदो ) ण किंचि वत्तव्वं । एत्तो अप्पा बहुगं भणिस्साम । तं जहा मदिणाणावरणस्स अवदिवेदया थोवा । पृ० ३२९. कुदो ? जहण्णएइंदियपरे सुदयद्वाणं तत्तप्पा ओग्गुक से इंदियपदेसुदट्ठाणम्मि सोहिय सेसम्म रूपक्खित्तमेत्त पदे सोद या गवियप्पेण तप्पा ओग्गएगसमयपबद्धमेत्तेण तप्पा ओग्गमिच्छादिट्ठिरासिं भागे हिदे लद्धमेत्तपमाणत्तादो | अहवां भुजगारपदर कालणु संघाणं अनंतकालं गंतूण अवद्विदं होदि ति तेसिं समूहेण मिच्छादिट्ठिरासिं भागे हिदे आगच्छदि त्ति वक्तव्यं । तस्स ट्ठवणा | १३) । ओकडडुकड्ड परिणामेहि जोगवसेहिं च अवद्विदोदयं भदि ति असंखेज लोग स2 भागहारं कि परुविद ? ण, उवरि अण्णेण उवदेसेण अप्पा बहुगं भण्णमाणम्मि एदमत्थं भणिज्जमाणत्तादो । १ मूलग्रन्थे 'हाणिद्वाणंतराणि श्रसंखेजगुणागि' इति पाठोस्ति । . Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (१०३) अप्पदरवेदया अणंतगुणा । पृ० ३२९. कुदो ? खविद-गुणिदघोलमाणेइंदियलद्धि-णियत्तिअपज्जत्ताणं उदयगोउच्छादो अणंतरवेदिजमाणगोउच्छाणं हीणपमाणादो णवगबंधेणु दयं पविस्समाणगोउच्छं असंखेजगुणहीणं होदि त्ति अप्पदरोदयं अपजत्तीवे होदि त्ति । लद्धि-णि व्वत्तिअपज्जत्ताणं पुण पजत्ताणं उदयणिसेगजोगादो हेट्ठिमांगेसु पुव्वं व वठ्ठ(ट)माणजीवाणं च गहणादो । तस्स ट्ठवणा १३४४।। ओकडडुक्कडणविसेसमस्सिदूण भुजगारप्पदरं किण्ण परूविदं ? ण, खविद-गुणिदघोलमाण-५५५ जीवाणं ओकड्डुक्कडणविसेसगोउच्छादो थोवा होदि त्ति पुणो बंधगोउच्छादो अधिय-१२, ओकडडुक्कडणविसेसा ते अईव थोवादो ण परूविदं । अहवा एदमत्थमुवरिमभिखा-| (क्खा )एण उचिजमाणे ण परूविदं । भुजगारवेदया संखेजगुणा । पृ० ३२९. कुदो ? ग्वविद-गुणिदघोलमाणणिव्वत्तिअपज्जत्तजीवाणं उदयगदगोउच्छादो उवरिमजोगहाणेसु चउविवडि-हाणीए अच्छणकालादो भुजगारकारणादो तत्तो हेट्ठिमजोगट्टाणेसु चउव्यिहवङ्किहाणीए अच्छणकालो संखेजगुणहीणो त्ति तदो णिव्वत्तिपजत्तरासीए संखेज्जा भागा भुजगाररासी होदि त्ति गहिदत्तादो । तस्स हवणा १३४४४।। एवं चउणाणावरण-च उदंसणावरणाणं वत्तव्वं । एवं चेव पंचण्हं णिहाणं सादासादसोलसकसायाणं छण्णोकसायाणं । णवरि अवट्ठिदपदादो उवरि अवत्तव्वपदमणंतगुणे त्ति भणिय तत्तो अप्पदरं असंखे० गुणं, भुजगारं संखेजगुणं । ताणि पुव्वं व जाणिय वत्तवाणि' । एवं मिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं । णवरि अवत्तव्वं हेढिल्लपदं कायव्वं । सम्मत्तस्स अवडिदवेदया थोवा । पृ० ३३०. कुदो ? अणंतिमभाग-पलि(डि)भागाणुसारिपमाणत्तादो । भुजगारवेदया असंखेजगुणा । पृ० ३३०. कुदो ? अणंताणुबंधि विसंजोजयंतस्स दंसणमोहणीयं खतरस एयंताणुवड्रिपरिणदसंजदासंजद-पमत्तापमत्तसंजदस्स सस्थाणविसुद्धविसोहिपरिणदअसंजदसम्मादिहि-देस-सयलसंजदाणं च गहणादो। अवत्तव्ववेदया असंखेजगुणा । पृ० ३३०. कुदो ? मिच्छत्तस्स सम्मामिच्छत्त-उवसमसम्मत्तपच्छायदवेदगसम्मत्तपडिवण्यपढमसमयजीवाणं गहणादो। अप्परदरवेदया असं०गुणा । पृ० ३३०. कुदो ? सयलवेदयसम्माइट्ठीणं पुव्वुत्तेहिं बहिरिलायं गहणादो । तेसिं टुवणा | 2|प | प प । | ३३ | ३३ | ३३३ ३३३३ | एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं । णवरि सम्मत्त-संजदासंजद-संजदएयंताणुवडिगुणसेढिसहिदाणं सत्थागविसुद्धपरिणामेहि कदगुणसे ढिसहगदाणं मिच्छाइट्ठीणं च सम्मामिच्छत्तं पडिजोवे सत्थागविसुद्धसम्मामिच्छत्तजीवे च अस्सिय बत्तव्यं । .... का. मलग्रन्यभागः2 गा' इति पाटोऽम्ति । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुदो ? देवे-४६५८११०६ 20या असगुणा। प. (१०४) परिशिष्ट णउंसयवेदस्स मिच्छस्स(त्त)भंगो। पृ० ३३०. तस्स 8वणा| १३४४४|| इत्थि- । ५५५ पुरिसवेदाणं अवढिदवेदया थोवा । पृ० ३३०. कुदो ? अणं- १३४४ तिमभागाणुसारिपडिभागियत्तादो थोवं जादं । अवत्तव्व- १३ वेदया असं० गुणा । पृ० ३३०. कुदो ? उव-| स 2 कमणकाल-पडिभागियत्तादो। अप्पदर- = ...... | वेदया असं०गुणा । पृ० ३३०. ०११00 हितों एइंदिएसुप्पज्जिय तत्थ प्पा(तप्पा)ओग्गकालसंचिदजीवेहिंतो लहुं णिस्सरिय असण्णिस्थि-पुरिसवेदेसुप्पण्णाणं पुव्वकोडिकालसंचिदाणं अप्पदरं चैव होदि । कुदो ? तत्थ उदयणिसेगस्स गुणगारभूदविवक्खिदजीवजवमज्झादो जोगट्ठाणादीणं हेढदो असण्णिस्स उक्कस्सजोगसंभवादो = । पुणो असण्णिपंचिंदियइत्थिपुरिसवेदयजीवा इत्थि-पुरिसवेददेवेसुप्पन्जिय | ४६५२२४० 2 तत्थ गुणहाणिमेत्तअसंखेजवस्साउगदेवेहिंतो तत्थ सेसाउगम्मि देवि-देवाणं| १० । विवक्खिदजीवजवमझादीणं हेट्ठिमअप्पदरणिबंधणजोगविदजीवहिंतो उवरिमभुजगारणिबंधणजोगहाणद्विदजीवा विसेसाहिया होंति, तत्थप्पदरणिबंधणजीवाणं पुव्विल्लजीवेहि सहगदाणं गहणादो । । ४६५५३५३२४१०° प ८ ।। अहवा तेसिं जीवरासिं कृविय अप्पदरणिबंधणजोगपरावत्तण 2 १७ | कालादो भुजगारणिबंधणजोगपरावत्तणकालो विसेसाहिओ त्ति तेसिं कालाणं पक्खेवसंखेवेण भजिय सग-सगपक्खेवेण गुणिदरासिं पुव्विल्लरासिम्हि पक्खिविय पुणो सण्णिपच्छादएण (पच्छायदेण ) संचिदइत्थि-पुरिसवेदरासीणं अप्पदरम्मि पक्खित्तमेत्तत्तादो। पुणो ? भुजगारवेदया विसे० । पृ० ३३०. कुदो ? एइंदिएहिंतो असण्णि-सण्णि-इत्थि-पुरिसवेदेसुप्पन्जिय संचिदाणं पुणो एदेहितो देवेसुप्पन्जिय पुव्वुत्तगुणहाणिमेत्तअसंखेज्जवस्साउगसंचिदाणं पुणो तदुवरिमपवेसपुव्वुत्तभुजगारजीवाणं सण्णिपच्छ(च्छा)यदसण्णिदाणं भुजगाराणं एगट्ठकदमेत्तत्तादो। तेसिं हवणा एक्कस्स | = ३२ ९।। देव-णेरइयाउआणं परूवणा सुगमा । ४६५ ३३ १७] = ३२८ मणुस्साउगस्स अवहिदवेदया थोवा । पृ० ३३०. ४६ ५३३ १७ कुदो ? घादिपरिणामपरिणमणकालब्भंतरे अणंतपडि = ३२ ० भागाणुसारियवट्ठिदजीवाणं उवलंभादो। अव-४९ | ४६ ५८११० ३३ २८ | त्तव्ववेदया असं० गुणा । पृ० ३३०. = ३२ कुदो । ४६५ = ३३ 22 | उवक्कमणकालभजियसगरासिपमाणं सत्थाणेणुप्पण्णरासिमवणयणटं किंचूणकयमेत्तत्तादो। भुजगारवेदया असं० गुणा । पृ० ३३०. कुदो ? घादपरिणामपारंभप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालभंतरे संचिदत्तादो। अप्पदरवेदया असं० गुणा' । पृ० ३३०. , मूलमन्थे 'संखे० गुणा' इति पाठोक्ति। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (१०५) कुदो ? घादपरिणामट्ठिद जीवादो घादाबादा अपरिणामट्ठिदजीवाणं असं गुणतं णायसिद्धसादो। पुणो भुजागारकालादो अपदर कालो संखेनगुणो त्ति विवक्वाए संम्वेजगुणं होदि त्ति वत्तव्वं । किंतु तमेत्यविवक्खिदं । तेसिं 8वगा| - | |220 2 १ || तिरिक्खाउअस्स परूवणापवंचो सुगमो। ।१३० १३०७ | १ ३ १ ३ 21 णिरयगदीए अवविदवेदया थोवा । पृ० ३३०. सुगममेदं । कुदो ? पुवुत्तकारणसंभवादो । अप्पदरवेदया असं०गुणा । पृ० ३३०. [कुदो ? ] सण्णिपंचिंदिएहितो णिरएसुप्पजिय तत्थ अपजत्तकाले संचिदजीवाणं च गहणादो। अवत्तव्ववेदया असं० गुणा । पृ० ३३०. कुदो ? असण्णि-सगिपच्छायदपढमसमयष्टिदजीवरासिगणादो । भुजगारवेदया असंखे० गुणा । पृ० ३३० कुदो ? असण्णिपच्छायदबिदियादिसमए णेरइयाणं संखेजवरसा उगसंचिदाणं गहणादो। तेसिं 8वणा || २।।। | क्खगदिपवणा सुगमा । 12 ७ । | मणुसगदीए अवट्ठिदवेदया थोवा । पृ०३३०. सुगम प 2 | मेदं । अव-- 2 | त्तव्यवेदया असंखे० गुणा । पृ० ३३१. कुदो |३३३ ।? उवक्क्रमणकालेण खंडिदेयखंडपमाणत्तादो । अप्पदरवेदया विसे०' । पृ० ३३१. कुदो ? मणुस्सेसुप्पण्णजीवाणं पलिदोवमस्स असं० भागेण खंडिदेसु तत्थ बहुभागा एइंदिय-विगलिंदिय-असण्णिपंचिंदिएहितो आगदाणि होति, एगभागो सणिणपंचिंदिएहितो आगदो । तत्थ सणीहिंतो आगदा ते अप्पदरं करेंति त्ति तेसिमंतोमुहुत्त कालसंचयमाणिय दृविय12 ७ पुणो सेसजीवहिंतो आगदजीवाणं असंखे० भागं रिजुगदीए उप्पज्जति १३२७ प प । १३ 2७ प पुणो ते भुजगारं करेंति त्ति तत्थ जे बहुगा ते एग-बेविग्गहं काऊण 22 4 उप्पजति । ते च सरीरगहिदसमए अप्पदरं करेंति । तदो तेसिं बेसमयसंचिदम्मि एत्तियमेत्तम्मि| १३७७पपप१५१२ पुग्विल्लट्टविदरासिं आणिय पक्खित्तमेत्तपमाणत्तादो । ते चेत्तिया । 22_||१३| देवगदीए अवट्ठिदवेदया थोवा । पृ० ३३१. सुगममेदं, बहुसो उत्तत्तादो। अवत्तव्ववेदया असंखेजगुणा । पृ० ३३१. कुदो ? वाणवेंतरदेवाणं सगुवक्कमणकालेण खंडिदेगखंडं सादिरेयपमाणत्तादो। अप्पदरवेदया असं० गुणा । पृ० ३३१. कुदो ? खबिद-गुणिरोलमाणाणं उदयणिसेयगोउच्छाणं जोगगुणगारजीवजवमज्जोगं १ मूलमन्येऽस्मात्पदादने 'भुजगार, असंखे. गुणा' इत्येतदपि पदमुपलभ्यते । १ IN Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) परिशिष्ट तस्समं वा अप्पदरं वा जोगमिदिविवक्खिदं, तदो जीवजवमझादो हेट्ठिमजीवाणं अपदरवेदयाणं गहणादो। भुजगारवेदया विसे० । पृ० ३३१. कुदो ? जीवजवमज्झविवक्खिदा उदयजोगादो उवरिमजोगजीवाणं गहणादो । [ ४६५%322 | ४६५८१० 2 ७७ | ४६५ = १७ | ४६५ = १७ | एइंदियजादीए | १० |तिरिक्खगदिभंगो । विगलिंदिय-पंचिंदियजादीणं मणुसगदिभंगी। ओरालियसरीर-तब्बंधण-संघाद-हुंडसंठाण-परघादुजोवुस्सास-बादर-सुहुम-साहारणजसगित्ति-अजसगित्तिबारसपयडीणं अवद्विदवेदया थोवा । पृ० ३३१. सुगममेदं । णवरि किंचि जीवरासिगदसंखविसेसं जाणिय वत्तव्वं । अवत्तव्ववेदया अणंतगुणा । पृ० ३३१. कुदो ? अंतोमुहुत्तभजिदसगवेदगजीवरासिपमाणत्तादो।। अप्पदरवेदया असं० गुणा । भुजगारवेदया संखेजगुणा । पृ० ३३१. एदाणि दो वि पदाणि सुगमाणि । कुदो ? मदिणाणावरणभंगत्तादो। तत्थेक्कोरालियस्स ट्ठवणा | १३२७४४ ।। वेगुब्वियसरीर-तब्बंधण-संघाद-समचउरसरीरसंठाणाणं परूवणा सुगमा। तत्थेक्कस्स ढवणा | - ९।। | १३२७४ तेजा-कम्मइगादीए ४६५१७ | उणतीसपयडीणं उव(धुव-)बंधोदयाणं परूवणा सुगमा । १३२७४ असंपत्तसेवट्टस- | ४६५१७ | रीरसंहडण. अवडिदवेदया थोवा । पृ०३३१ २७५।२७४ |४६५८११०२७ १३२७४ ४६५ 22 १७५ स २१ | सुगममे । - अप्पदरवेदया असं० गुणा । पृ० ३३१. कुदो ? देवेहिंतो एइंदिएसुप्पन्जिय तत्थ तप्पाओग्गसंकिलेसेण सूचिदं तत्तो लहुं हिस्सरिय विगल-सगलिंदिएसुप्पण्णाणं जीवाणं सादिरेयाणं अप्पदरं करेंताणं गहणादो। अवत्तव्ववेदया असं० गुणा । पृ० ३३१. कुदो ? एइंदिएहिंतो सेससंहडणोदयजीवेहितो विग्गहम्मि विदअसंघडणजीवेहिंतो च आगंतूण असंपत्तसंघडणोदयसंजुत्तजीवेसुप्पण्णेगसमयजीवगहणादो । भुजगारवेदया असं० गुणा । पृ० ३३१. कुदो ? एइंदिएहिंतो आगंतूण तसअपज्जत्तेसुप्पण्णाणं भुजगारं चेव होदि । णवरि सण्णीहिंतो एइंदिएसुष्पन्जियसंचिदजीवहिंतो उप्पण्णे मोत्तूण पुणो तम्मि पजत्तेसु भुजगारं करेंतरासिं पक्खविय गेण्हिदत्तादो । तेसिं हवणा | 2१ || पुणो चउसंठाण-पंचसंहडणाणं | 2 | अवहिदवेदया थोवा । ० ३३१. २७५ . Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 संवकम्मपंजिया (१०७) कुदो ? सग-सगपयडिवेदय- =820 | सण्गिपंचिंदियणिव्यत्तिपज्जत्तयाणं अणंतिमभागाणुसारिपडिभागियत्तादो। अवत्तव्ववेदया असं०गुणा । = ४६५८११:२७ पृ०.३३१. =४ 22. कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खअप- 1 2 | जत्तएसु सग-पगपयडिवेदएसुप्पण्णपढमसमयजीवाणं गहणादो। तेसिं पडिभागो उवक्कमणकालो। अप्पदरवेदया असं० गुणा' । पृ० ३३१. कुदो ? एदाओ असण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु बहुवा संभवति । पुणो तत्थ जीवजवमझ णत्थि, तदो सव्वजोगट्ठाणेसु जीवा सरिसअच्छणं लभंति त्ति । तदो एस्थ विवक्खिदमझिमोदयणिसेगगोउच्छजोगगुणगारादो हेट्ठिमट्ठाणाणं एस्थतणसव्वजोगट्ठाणाणं संखेजदिभागमत्ताणं पुणो तेसि ट्ठाणेसु हिदजीवाणं संखे० भागमेत्ताणि होति, तम्मि सरिसं होदूण ट्ठिदजीवाणं गहणादो। णिरयाणुपुव्वीए अवडिदवेदया थोवा । पृ० ३३१. सुगममेदं। अप्पदरवेदया असं० गुणा । पृ० ३३१. कुदो ? असण्णिपंचिंदियपजत्तयगुणिदघोलमाणजोगट्ठाणेसु मज्झि[म]जोगमेत्तुदयणिसेगस्स गुणगारमिदि विवक्खिदत्तादो, तदो हेट्ठिमजोगट्ठाणेसु सव्वेसु सरिसं होदूण द्विदअसण्णिजीवेहिंतो सण्णीणं पुण जीवजवमझहेटिमजीवेहिंतो च आगदजीवाणं गहणादो। भुजगारवेदया विसे० । पृ० ३३१. कुदो ? असंण्णिपंचिंदियघोलमाणजोगट्ठाणेसु पुश्वविवक्खिदजोगादो उवरिमजोगेहितो जवमास्सुवरिमजोगेहिंतो आगदजीवाणं च बिदियविग्गहे ट्ठिद गहणादो। अवत्तव्ववेदगा विसेसाहिया । पृ० ३३१. कुदो ? एगसमयेणुप्पण्णसव्वजीवरासिगहणादो। मणुसगदि-देवगदिपाओग्गाणुपुव्वीणं अवट्ठिदवेदया थोवा । पृ० ३३१. सुगममेदं। भुजगारवेदया असं० गुणा । पृ० ३३१. कुदो ? खविद-गुणिदघोलमाणजीवाणं उदयगोउच्छाणेयपयारा लभंति, तत्थ ववक्खिदुदयगोउच्छस्स जोगगुणगारादो हेटिमजोगट्ठाणेहिंतो असगिपंचिंदियजोगट्ठाणस्स संबंधीदो उवरिमजोगट्ठाणाणि किंचूणमिदि विवक्खिदं, तदो तत्थट्टिदजीवेहिंतो आगदजीवाणं पुणो सण्णिपंचिंदियाणं जीवजवमझविवक्खिदत्तादो तत्तो उवरिमजोगजीवेहिंतो च आगदजीवसहिदाणं दोसमयसंचिदाणं गहणादो। अवत्तव्ववेदया विसे० । पृ० ३३१. कुदो ? विग्गहं करिय एगसमएणुप्पण्णजीवाणं गहणादो। अप्पदरवेदया विसे० । पृ० ३३१. १ मूलग्रन्थेऽस्मात्पदादग्रे 'भुजगार० संखे० गुणा' इत्येतदपि पदमुवलभ्यते । २ मूलग्रन्थे देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीप्ररूपणा नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्ध्या समाना दर्शिता । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विग्गह-१३20 (१०८) परिशिष्ट कुदो ? पुवुत्तदुपयारजीवाणं उदयणिसे यस्स जोगगुणगारादो हेहिमजोगट्ठाणविदजीवे. हिंतो आगदाणं दोसमयसंचयगहणादो । एवंविहविवक्खा होदि ति कुदो णव्वदे ? तिगिविग्गहे अस्सिऊण भण्णमाणेण इमेण आरिसादो। पुणो दोगिविगहे अस्सियूण गिरयदिभंगो होदि । पुणो णिरयगदीए तिण्णिविग्गहे विवक्खिदे एदं चेव तत्थ वि वत्तव्वं । एत्थ मणुस्साणुपुवीए ट्ठवणा -२ ।। | १३९७१७ | पणो तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपु०वीए एवं चेव वत्तव्वं, तस्थ वि तिष्णि संभवादो। -१२।८ १३2०१७ | णवरि भुजगारवेदया अणंत होति त्ति वत्तव्वं । पृ० ३३१. ३३१ | १३262 आदावमप्पसत्थविहायगदि-दुस्सराणमवद्विदवेदया थोवा । पृ० कुदो ? अणंतिमभागपडिभागियत्तादो दुल्लहं होदि त्ति। अवत्तव्ववेदया असं०गुणा । पृ० ३३१. कुदो ? उवक्कमणकालभजिदसगरासिपमाणत्तादो । अप्पद० वेदया असं० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? बादरपुढविपज्जत्तविगलिंदिय-असण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणं संभवजोगट्ठाणाणं मझे विवक्खिदोदयणिसेगस्स जोगगुणगारादो हेटिमसंखेजदिमभागट्ठाणेसु सरिसं होदूण विदजीवाणं गहणादो। भुजगारवेदया संखे० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? उवरिमसंखेजभागजोगट्ठाणेसु ह्रिदजीवाणं गहणादो । थावर-दूभग-अणादेज-णीचागोदाणं परूवणा तिरिक्खगदिभंगो । पृ० ३३२. सुगममेदं । अपज्जत्तणामकम्माए अवढिदवेदया थोवा । पृ० ३३२. कुदो ? तत्थुप्पण्णाणं पज्जत्तजीवाणं तत्थतणजहण्णाउवकालभंतरे संचिदाणं अणंतिमभागगहणादो। अवत्तव्ववेदया अणंत० । पृ० ३३२. कुदो ? अंतोमुहुत्तभजिदसगरासिपमाणमेत्तपज्जत्तरासीदो आगदत्तादो। भुजगारवेदया असं० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? पज्जत्तजीवे भुजगारोदयणिबंधणसमयपबद्धाणि बंधिय अपजत्तेसुप्पज्जिय आबाधमेत्तकालभंतरे भुजगारं करेंतजीवाणं सगपरिणामजोगट्ठाणेसु भुजगारं करेंतजीवाणं च गहिदत्तादो। अप्पदरवेदया संखे० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? पुव्वुत्तजीवे सेससव्वअपजत्तजीवगहणादो । सुस्सरणामाए अवढिदवेदया थोवा । पृ० ३३२. सुगममेदं। अवत्तब्ववेदया असं० गुणा । पृ० ३३२. . Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया कुदो ? उवक्कमणकालभजिद सगरासिपमाणत्तादो । अप्पदरवेदया असं० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? सण्णीणं जीवजवमज्झादो हेट्ठा संखेज्जजीवगुणहाणीए ओदरिय द्विदजोगमुदयगोउच्छस्स गुणगारं गुणिदघोलमाणं विवक्खिदत्तादो तत्तो हेट्ठिमजीवाणं गहणं । तं पि असण सुसरं स्थिति । भुजगारवेदया सं० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? तत्तो उवरिमजीवाणं गहणादो । पत्तणामकम्माए अवद्विदवेदया थोवा । पृ० ३३२. कुदो ? निव्वित्तिपज्जत्ताणं अनंतिमभागत्तादो। १३४४ || अवतव्ववेदया अनंतगुणा । पृ० ३३२. ५५स2 कुदो ? सगरासिमंतोमुहुत्तेण खंडिदेगखंडपमाणं अपज्जत्तेहिंतो आगदत्तादो | १३४ || भुजगारवेदया असं० गुणा । पृ० ३३२. ५२७ कुदो ? खविद - गुणिदघोलमाणजीवाणं विवक्खिदोदयणिसेयरस गुणगार भूद जोगादो माणावरट्ठाणाणि संखे गुगहीणाणि होदित्ति पुणो तत्थ सव्वत्थ सरिस होदूण दिसव्वजीवाणं गहणादो | १३४ || अप्पदरवेदया ५५ संखे० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? तत्थ विवक्खिद् जोगादो हेट्ठिमपरिणामजोगट्ठाणेसु एयंताणुवढिजोगट्ठाणं अवदिजीवाणं च गहणादो । पुणो एत्थ जोगट्ठाणे अण्णदरमज्झिमजोगट्ठाणाणं विवक्खाए अवलंबणं काढूणेदमप्पाबहुगं भणिदं । कथमेदं (वं ) विहविवक्खा जोगट्ठाणेसु होदि त्ति ? ण, उक्करसदव्वपरूवण (णे) उक्कस्सजोग-तस्संबंधिजीवाणं, जहण्णदव्वपरूवणे जहण्ण जोगं (ग) तस्संबंधिजीवाणं च जहा विवक्खा, ण तहा अजहण्णाणुक करसदव्वाणं परूवणे दुप्पयारं (र) घोलमाणजीवपडि बद्धाणेयपयारा लब्भदि ति अभिप्पारण अणेयपयारजोगट्ठाणाणि तत्थ पडिबद्धजीवादि (दी) परुविदा, तदो णव्वदे | ( १०९ ) पुणो द्विदिबंधेण ओक्कड्डुक्कडणेण च पदेसवड्डि-हाणी होदि ति एदेण हेदुणा पदेसुदयभुजगारे अण्णारिसमप्पा बहुगं भवदि इदि । पृ० ३३२. दस्त्थो सुगमो । कुदो ? ट्ठिदिबंधउडीए णिसेयस्स सुहुमहिदिबंधहाणीए णिसेयस्स थूलत्तं । पुणो विसोहीए ओक्कडुणबहुत्त ( त्तं ) उक्कड्डणाए थोवत्तं, संकिलेसेण पुणो उक्कणा बहुतं ओक्कडुणाए थोवत्तं च होदि त्ति जाणाविदं । तं जहा णिरयगइणामाए अवट्ठिदवेदया थोवा । पृ० ३३२. कुदो ? खविद-गुणिदघोलमाणाणं ओक्कड्डुक्कडुणपरिणामवसेण बंधवसेण च असं० लोगपडिभागिय तप्पा ओग्गभागहारो होदिति । अवत्तव्यवेदया असं० गुणा । पृ० ३३२. कुदो ? उप्पण्णपढम समयसयल जीवाणं गहणादो । अप्पदरवेदया असं० गुणा । पृ० ३३२. Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट __ कुदो ? गुणिदकम्मंसियमिच्छादिट्ठीणं विसोहिकालादो संकिलेसकालो संखे० गुणो, पुणो खविदकम्मंसियाणं तं विवज्जासो ( तम्विवज्जासो) होदि; ताणि दुल्लहाणि । पुणो सुलहाणं खविद-गुणिदघोलमाणाणं दुक्खाभिभूदाणं विसोहिकालादो संकिलेसकालं संखे० गुणहीणं होदि त्ति, तत्थ संजदजीवाणं गहणादो। भुजगारवेदया संखे० गुणो (णा')। प० ३३२. कुदो ? पुवजम्मम्मि कयअण्ण(णु)ट्ठाणेण दयेण ? जिंदग-गरहणादिसुप्पण्गमझिमविसोहिकालम्मि संचिदबहूणं जीवाणं गहणादो। पुणो पुठिवल्लप्पाबहुगम्मि अवट्ठिदं थोवं, अप्पदरमसं गुणं, अवत्तव्वं संखे० गुणं, भुजगारं संखे गुणमिदि भणिदं । तदो तत्तो एदस्स भेदो जाणियम्वो।। एदेण अणुमाणेण अणुमाणेऊण सव्वकम्माणं णेदव्वं । पृ० ३३२. एदस्सत्थो उच्चदे सूचिदसरूवेण । तं जहा- मदिणाणावरणस्स अवढिदा थोवा । कुदो ? असंखे लोगपडिभागियत्तादो । अप्पदरवेदया असं गुणा । कुदो ? खविद-गुणिदघोलमाणाणं संकिलेसेण संचिदत्तादो । भुजगारवेदया संखे गुणा । कुदो ? तेसिं विसाहिकालेण संचिदत्तादो। एवं सव्वकम्माणमप्पाबहुगं अ(त)प्पाओग्गसरूवेण जाणिय वत्तव्वं । एदं पुणो हेदुणा अप्पाबहुगं ण पवाइज्जदि ।' पृ० ३३२. एदस्सत्थो सुगमो। एवं पदेसभुजगारो गदो । पृ० ३३२. " (पृ० ३३२) पदणिक्खेवपरूवणपबंधो सुगमो । णवरि जहण्यपदणिक्खेवम्मि जहणिया वड्डी हाणी अवद्वाणं च सव्वकम्माण मेगपदेसो"। णवरि देव-णिरयाउग-तित्थयरणामकम्माणि मोत्तण वत्तव्यमिदि । पृ० ३३४. एत्थेदस्सत्थविवरणं कस्सामो। तं जहा- विवकिम्बदवट्टमाणोदयगुणसेढिगोउच्छादो तदणंतरसमए वेदिज्जमाणगो उच्छरचण(णा-) कमेण एगविसेसं ण ( -विसेसेण ) हीणं होदि । तम्हि ण पमाणं बंधदव्वस्स पढमगो उच्छाए पडिपूरिदं होदि, पडिपूरिदे समाणं होदि । एवं सरिसत्ते संभवे संते पुणो तम्मि ओक्कड्डुक्कडणवसेण एगपरमाणुवङ्कि-हाणिअवट्ठाणं(ण)संभवे विरोहो णत्थि त्ति आइरियाणं सम्मदत्तादो एगपरमाणूणं ववि-हाणि-अवठ्ठाणाणं सव्वकम्माणं वत्तव्वमिदि उत्तं । णवरि देव-णिरयाउआणं समयपबद्धं संखे० भागहाणी चरिच-(म-)दुचरिमगोउच्छविसेसम्मि गहेदव्वं । तित्थयग्स्स पुण हाणीए (हाणी) एगगोउच्छविसेसो वडी पुण बिदियसमयकेवलिस्स गुणसेढिगोउच्छं होदि त्ति एदाणि मोत्तण तदो सेसाणं वत्तवमिदि उत्तं । पुणो के वि एगपदेसे इदि उत्ते जोगवसेण जहण्णेण वडिदव्यमेगपक्खेवमत्तं एगपदेसमिदि भणिय एवं वटि-हाणि-अवट्ठाणाणं जहण्णं होदि त्ति भवे यस्सियूण भणंति । तं पि जाणिय वत्तव्यं । मूलग्रन्थे 'असंखे गुणा' इति पाठोऽस्ति । २ मूलग्रन्थेऽस्य स्थाने 'मग्गिदण' इति पाठोऽस्ति । ३ मूलग्रन्थे 'पाविज्जदि' इति पाठः । ४ मूलग्रन्थे 'गदो' इत्येतस्य स्थाने 'समत्तो' इति पाठः ५ मुलग्रन्थेऽतो ग्रे 'अण्णदरस्स भवे' इत्येतावानधिकः पाठः प्राप्यते । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्मपंजिया (१११) पुणो अप्पाबहुगमिदि किचियत्थं भणिस्सामो । तं जहापंचणाणावरण-चउदंसणावरण-पंचंतराइयाणं उक्कस्सं अवट्ठाणं थोवं । पृ० ३३५. कुदो ? अप्पमत्तसंजदस्स सस्थागट्ठि दस्स तप्पाओग्गमंदविसोहिणा ओक्कडियूण गुणसेढिं करेंतेण पुचिल्लगुणसे ढिसीसयादो असं० गुणं करिय पुणो वि तदणंतरसमए पुश्विल्लओकडणदव्वादो असं० भागभहियदव्वोक्कडणणिबंधणपरिणामेणोकड्यूिण पुठिवल्लगुणसेढिसीसएण समाणगुणसेढिसीसयं करिय अथवा बंधदव्ववसेण गोउच्छविसेसेणहिएण कदेण समाणं होदि । पुणो वि अंतोमुहुत्तकाल(लं) तप्पाओग्गसंचयं करिय पुणो ताणि कमेण वेदिज्जमाणे वडिपुत्वमवट्ठाणं असं० समयपबद्धमेत्ताणि होदि त्ति ताणि गहिदत्तादो । तत्येकस्स मदिणाणावरणस्स ढवणा | स ३२१२६४५ ।। |७४ओप ८५२ | 22 उक्कस्सिया हाणी असं० गुणा । पृ० ३३५. कुदो ? उवसंतकसाएण अगदरसमयट्ठिएण गुणसेढिं करिय देवेसुम्पन्जिय तत्थंतोमुहुत्त. कालं गंतूण गुणसेढिसीसयं वेददि, तत्तो तम्मि तदणंतरजहाणिसेयगोउच्छमवणिदे तत्थ सेसमेत्तं गहिदत्तादो। तदेक्कस्स ढवणा | स ३२१२६४ ।। ७४ ओ प८५ 2 2 उक्कस्सवही असं० गुणा । पृ० ३३५. कुदो ? खीणकसायचरिमगुणसेढिसीसयदव्वं किंचूगमेत्तं गहिदत्तादो। तस्सेक्कस्स ट्रवणा| स ३२१२६४।। णिद्दा-पयलाणं उक्कस्समवट्ठाणं थोवं । पृ० ३३५. कुदो ? पुव्वं व अप्पमत्तसंजदेण कदगुणसेढिगोउच्छं वडिपुब्वमवट्ठाणं जादमिदि तग्गहणादो। तत्थेक्कस्स ढवणा । स ३२१२६४ ।। | ७ ख ५ ओप८५ ७४८५ 2 2 उक्कस्सिया हाणी असं० गुणा । पृ० ३३५. कुदो ? उवसंतकसाएण कदचरिमगुणसेडिसीसयं सुहुमसांपराइयम्मि वेदिजमाणीमु वेदिदम्मि तम्मि तदणंतर उवरिमगोउच्छमणिदे तत्थ बेसम[य]पमाणत्तादो। तत्येक्कस्स ट्ठवणा । स ३२१२६४२ ७ख ५ आप८५२ 22 उक्कस्सिया वड्डी असं० गुणा । पृ० ३३५. कुदो ? खीणकसायतिचरिमगुणसे दिगोउच्छं दुचरिमगुणसेटिगो उच्छम्मि सोहिदे सुद्धसेसपाणत्तादो । तत्थेक्कस्स हवणा | स ३२१२६४ ।। | ७ ख ९८५ पुणो तत्थ पुवुत्तक्करससामित्तविववाए अप्पाबगं भण्णमाणे अहिदं थोवं । सु [गममेदं । वड्डी असं० गुणा । कुदा ? पढमसमए उवसंतकसारण कदगुणसाढसीसयं उवसंत छ.प. १५ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 2 (११२) परिशिष्ट कसायम्मि उदिण्गम्मि तम्मि तम्स इंटिमगोउच्छमवणिदे तत्थ सेसपमाणत्तादो। हाणी विसे । कुदो ? उवसंतकसायरस चरिमगुणसेढिसीसयं सुहुमसांपराइयम्मि उदिण्णम्मि तम्मि तदणंतरगोउच्छमवणिद सेसपमाणत्तादो। तेसिं हवणा स ३२१२६४ । स ३२१२६४२ । । स ३२१२६४२ ।। ७ख ५ ओ प८५ | ७ ख ५ ओप८५ | ७ ख ५ ओ प ८५2 222 णिद्दाणिदा-पयलापयला-थीणगिद्धि-मिच्छत्ताणताणुबंधिचउक्काणं उक्कस्सं अवहाणं थोवं । पृ० ३३५. ___कुदा ? अप्पमत्तसंजदेण पुव्वं व कदगुणसे ढिणा सह पमत्तगुणं पडिवण्णे थीणगिद्धितियाणं, पुणा तेण पमत्तसंजमं पडिवण्गेण मिच्छत्तं पडिवण्णे मिच्छत्ताणताणुबंधिचउक्काणं च अवहितं हादि त्ति । पूणां तेसिं तिप्पयाराणं एसा ट्रवणा| स ३२१२६४१ । स ३२१२६४४ । स ३२१२६४४ । ७ ख ५ ओ 2८५ | ७ ख १ ओ 2 ८५ |७ ख १७ ओ2 ८५ 2 उक्कस्सबड्डी असंखे० गुणा । पृ० ३३५. कुदो ? अप्पमत्तसंजदेग तप्पाओग्गमंदविसोहि विदेण पुघिल्लवट्ठाणकारणविसोहीदो अणंतगुणसस्थाणुक्कस्सविसोहिपरिणदेण कदगुणसेढिसीसयं पुव्वं व पुव्वुत्तगुणट्ठाणम्हि उदयमागदम्मि तम्मि तस्स हेडिमणिसेयं सोहिदे तत्थ सेसपमाणत्तादो । तेसिं ठ्ठवणा। म ३२१२६४ । स ३२१२६४ । स ३२१२६४४ ।। ७ ख ५ ओ2८५ | ७ ख १७ ओ2 ८५ ७ ख १७ ओ 2 ८५ 22 22 उक्कस्सिया हाणी विसे० । पृ० ३३५. कुदो ? पुबुत्तचरिमगुगसेढिगोउच्छम्मि तदुवरिमजहाणिसेयगोउच्छं सोहिदे तत्थ सेसपमाणत्तादो । तेसिं ढवणा पुव्वं व । अट्ठण्णं कसायाणं उक्कस्समवट्ठाणं थोवं । पृ० ३३५. कुदो ? पुवं व अप्पमत्तसंजदेण कदगुणसेढिसीसएण सह संजदासंजद-असंजदसम्मादिहिगुणाणि कमेण पडिवण्णे पञ्चक्खाणापञ्चक्खागकसायाणमवट्ठिदं होदि त्ति । तेसिं ट्ठवगा | स ३२१२६४६ । सं ३२१२६४१६ ।। ७ ख १७ ओ 2८५] ७५१७ ओ 2८५ 22 वड्डी असंखेज्जगुणा । पृ० ३३५. कुदो ? अणियट्टिउवसामगो अंतरकरणमकरेंतचरिमसमए मदो देवो जादो, पुणो तत्तो अंतोमुहुत्त कालं गंतूण गुणसेढिसीसए उदिण्णे तम्मि दुचरिमगुणसे ढिगोउच्छं सोहिदे तत्थ सेसपमाणत्तादो । तस्स ट्ठवगा | स ३२१२ । १८ । ४४ | स ३२१२४८ । ४४ || | ७ ख १७ ओ 2 ८५ | ७ ख १७ ओ ८५३ 22 पुणो हाणी विसेसाहिया । पृ० ३३५. 22 22 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ कुदो ? अनंतर उत्तचरिमगुणसेढिसीसयदव्वेसु वेदिदम्मि तदणंतरवेदिज्ज माणजहाणिसे गोउच्छं सोहिदे तत्थ सेसपमाणत्तादो । संतकम्मपंजिया सम्मत्त - णवणोकसाय चदुसंजलणाणं णाणावरणभंगो । पृ० ३३५. सुगममेदं । कुदो ? अप्पा बहुगुच्छा (च्चा ) रणाए समाणत्तादो, णवरि दव्वविसेसो अत्थितं वत्तइस्साम । तं जहा सम्मत्तस्स अवद्विददव्वं पुव्वं व । उक्कस्सहाणि (णी) अणंताणुबंधिविसंजोजणचरिमगुणसे ढिसीसयदव्वम्मि तदणंतरजहागिसेगगोउच्छं सोहिदे तत्थुवरिददव्वमेत्तं होदि । उवकरसवड्ढी पुण दंसणमोहक्ख वगगुण सेढिसी सयचरिमणिसेयम्मि दुचरिमगुणसेढिगोउच्छं सोहिदे तत्थ सेसपमाणं होदि । पुणो वणोकसाय-चदुसंजलणाणं अवद्विददव्वं पुव्वं व । हाणिदव्वं पुणो अणियट्टिकरणउवसामगस्स अंतरकरणं अकरेंताणं चरिमसमए मदो देवेसुप्पण्णाणं अंतोमुहुत्तकालचरिमसमए पुव्वं व वत्तव्वं । णवरि तिण्णिवेद- चउसंजलणाण सग-सगवेदा उगउवरिमसमयउवसामगो देवेसुपण आवलियकालं गदम्मि वत्तव्वं । उक्कस्सवड्ढिदव्वं पुण खवगसेढीए जाणिय वत्तव्वं । एदमप्पाबहुगं दव्वणिज्जर मेत्तमवेक्खिय उत्तं । पुणो पढ ( द ) मवेक्खिअवट्ठिदपरूवणं पुव्वं व थोवं होदि । वड्ढी असं० गुणा । हाणी विसे० । एदाणि दो वि पदाणि उव (सम ) - ढदो सु (देवेसु) पण्णस्स होदि त्ति जाणिय वत्तव्वं । सम्मामिच्छत्तस्स मिच्छत्तभंगो । पृ० ३३५ देव- णिरयाउगाणं परूवणा सुगमा, जोइज्जमाणे सुबोहत्तादो । मस-तिरिक्खा उगाणं उक्कस्समवद्वाणं थोवं । पृ० ३३५. कुदो? पुव्वकोडाउगं कदलीघादं करेंत एण्णिद ओकड्डियूण उदयावलियबाहिरे गोउच्छाए आउगगोउच्छविसेसादो असं० भागं संछुहिय उवरि विसेसहीणकमेण संछुहृदि जाव चरिमगोउच्छं आवलियमेत्तकालं ण पावदिति । एवमं तो मुहुत्तमुक्कस्सघादपरिणाममेत्तकालं करेंतेण asooदं करेदिति । तस्स दुवणा | स३२२७ | | ओ ८ घ उक्क सहाणी असंखे० गुणा । पृ० ३३५. कुदो ? तिपलिदोवमा उगस्स कदली घादकदचरिमगोउच्छम्मि तदुवरिमतिपलिदोवमस्स पढमगोउच्छमण्णभवसंबंधि सोहिदे सेसपमाणत्तादो । उक्कसवड्ढी विसेसा० । पृ० ३३५. कुदो ? तिपलिदोवमस्स कदलीघादेणुप्पण्णपढमगोउच्छम्मि तदनंतरहेट्टिमगोउच्छं एगसमयं कदलीघाद संपरिणाम संबंधियमवणिदे तत्थ सेसपमाणत्तादो । एवं ( एदं ) भोगभूमीसु घादा उगमत्थि त्ति अभिप्पाएण उत्तं । पुणो तत्थ तण्णत्थि त्ति अभिप्पाएण पुव्वकोडाउवघादं चेस्सिय एवं चेव हाणि वड्ढीयो वत्तव्वाओ । तो गदियादिउवरिमपयडीणं अवट्ठिदादिपदाणं अप्पाबहुगं सुगमत्तादो अत्थो ण उच्चदे । कुदो ? अप्पमत्तसंजदगुणसेढीयो उवसामग उवसंतगुणसेढीयो अजो गिगुणसेढीयो सजोगिस्स सत्थाणसमुग्धादगुणसेढीयो दंसणमोहक्खवणगुण सेढि -- अणताणुबंधिविसंजोजणगुणसेढीयो च जं जं जस्स पयडीणं संभवदि तं तं जोइय भण्णमाणे सुबोहत्तादो । णवरि आदावस्स भण्णमाणे Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ) परिशिष्ट बादरपुढविकाइयणिव्वत्तिअपज्जत्तद्वाणादो अप्पमत्तसंजद-संजदासंजदाणं कदगुणसेढिअद्धाणाणि मिच्छत्तं गंतूण आउगं बंधिय विस्समिदसेसकालं बहुगमिदि अहिप्पाएण वत्तव्वं, अण्णहा एदस्स वड्ढी थोवा । कुदो? खविदकम्मंसियो आदाओदएण सहिदो सगपाओग्गुक्कस्सजोगेण ब्रधिददव्वस्स पढमणिसेयं किंचूणयपमाणत्तादो | स २ | हाणि अवद्वाणं असंखेज्जगुणं । कुदो ? गुणिक मंसियस्स छव्विस्सोदयसहिद - ७२४१२ | पुढविकायस्स सत्तावीसोदए जादे हाणिदंसणादो । तदनंतरमवद्वाणं पिबंधवसेण संभवदिति । स २२ ७२४२५ ॥ एवमुदयाणुओगद्दारं गदं ।। ॥ समाप्तोऽयमुद्ग्रंथः ॥ श्रीमन्माघनंदिसिद्धान्तदेवर्गे सत्कर्मदपंजियं श्रीमदुदयादित्यं वरेदं । मंगलमहः । ॥ श्री ॥ अस्यांत्यप्रशस्ति ॥ कन्नडकंदपद्यं ॥ जिनपदकमलमधुव्रत- । मनुपमसत्पात्रदाननिरतं सम्यक्- ॥ त्वनिदानं कित्ते वधू मनसिजनेने शांतिनाथनेसेदं धरेयोल पुनजिदनुपमं चारुचारित्रनादु । न्नुतधैर्य सादिपर्यंतर दियनेनिसि पेंपि गुणानीकदि सद्भक्तियादि सत्कर्मदापंजियं विस्तरदि श्री माघनंदिव्रतिगे बरेसिदं रागदिं शांतिनाथं ॥ कदं पद्य ॥ उदविदमुददि सत्कर्मदपंजिय ननुपमान निर्वाणसुख । प्रदमं बरेइसि शांतं मदरहितं माघनंदियतिपतित्तिं ॥ ॥ इति शं ॥ ॥ चिरं जयतु जिन शासनम् ॥ *** *** Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________