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________________ ९० ) छक्खंडागमे संतकम्मं च पुव्विल्लचदुवीस पयडीसु पक्खित्तेसु पणुवीसट्ठाणमुल्लंघिय छटवीसपय डिट्ठानमुप्पज्जदि । तं कस्स ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स । तं केवचिरं ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । तस्सेव आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स छब्बीसपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते सत्तावीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि । विगलिदियाणं सामण्णेण एक्कवीस-छव्वीस अट्ठावीस - एगूणतीस-तीस - एक्कत्ती सं ति छउदीरणट्ठाणाणि । उज्जोवउदयविरहिदविगलिदियाणं पंच उदीरणट्ठाणाणि, एक्कत्तीसउदीरणट्ठाणाभावादो । उज्जोवुदयसंजुत्तविगिलिदियस्स वि पंचेवुदीरणट्ठाणाणि, परघादुज्जोव-अप्पसत्थविहायगदीणमक्कमपवेसेण अट्ठावीस ट्ठाणाणुप्पत्तीदो । उज्जोवुदयविरहिदबेइं दियस्स ताव उच्चदे । तं जहा - तिरिक्खगइ - बेइंदियजादि तेजा -कम्मइयसरीर वण्ण-गंध-रस - फास - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी - अगुरुअलहुअ-तसबादर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिर -- र- सुभासुभ- दूभग- अणादेज्ज जस-अजसगित्तीमेक्कदरं णिमिणणामं च एदासिमेक्कवीसपयडीणमेगं ट्ठाणं । तं कस्स ? बेइंदियस्स विग्गहगदी वट्टमाणस्स । तं केवचिरं ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । एदासु एक्कवीस पयडी आणुपुव्वीमवणेवण गहिदसरीरपढमसमए ओरालियसरीर किसी एकके मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक स्थानका उल्लंघन करके छब्बीस प्रकृतियोंका स्थान उत्पन्न होता है । वह किसके होता है ? वह शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवके होता है । वह कितने काल तक रहता है ? वह जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । आनप्राणपर्याप्त पर्याप्त हुए उक्त जीवकी छब्बीस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासके मिला देनेपर सत्ताईस प्रकृतियों का उदीरणास्थान होता है । विकलेन्द्रिय जीवोंके सामान्यसे इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, और इकतीस प्रकृति रूप ये छह उदीरणास्थान होते हैं । परन्तु उद्योतके उदयसे रहित विकलेन्द्रिय जीवोंके पांच उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि, उनके इकतीस प्रकृति रूप उदीरणास्थान नहीं होता। उद्योतके उदयसे संयुक्त विकलेन्द्रियके भी पांच ही उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि, उनके परघात, उद्योत और अप्रशस्त विहायोगति इन तीन प्रकृतियोंका युगपत् प्रवेश होने से अट्ठाईस प्रकृतियोंका स्थान उत्पन्न नहीं होता । उद्योतके उदयसे रहित द्वीन्द्रिय जीवके उदीरणास्थानोंका कथन करते हैं । यथा - ( तिर्यगति ) द्वीन्द्रियजाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त व अपर्याप्त में से एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय; यशकीर्ति और अयशकीर्ति में से एक तथा निर्माण नामकर्म; इन इक्कीस प्रकृतियोंका एक स्थान होता है । वह किसके होता है ? वह विग्रहगति में वर्तमान द्वीन्द्रिय जीवके होता है । वह कितने काल तक रहता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय रहता है । इन इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वीको कम करके शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समय में औदारिकशरीर, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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