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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १११ द्विदिउदीरओ को होदि? जो पज्जत्तो हदसमुप्पत्तियकम्मेण सव्वचिरं कालं जहण्णद्विदिसंतकम्मस्स हेट्ठा बंधिदूण तदो तं चेव जहण्णसंतकम्मं बंधिय पुणो तत्तो उवरिल्लट्ठिदि बंधमाणस्स आवलियमेत्ते काले गदे तिण्णं दंसणावरणीयाणं जहण्णदिदिउदीरणा । सादस्स जहण्णट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो बादरएइंदिओ हदसमुप्पत्तिएण कम्मेण सव्वचिरं जहण्णढिदिसंतादो हेट्ठा बंधिदूण से काले उरि बंधिहिदि त्ति तदो मदो सण्णीसु उववण्णो, तत्थ असादं सव्वचिरं बंधियण सादस्स बंधगो जादो, तस्स सादं बंधमाणस्स गमिदावलियकालस्स सादस्स जहणिया द्विदिउदीरणा। एवमसादस्स वि वत्तव्वं । णवरि सण्णीसुप्पण्णो संतो सादं बंधावेयव्वो, तदो सादबंधगद्धाए उक्कस्सियाए गदाए असादं बद्धं, तदो आवलियमधिच्छिदूण जहण्णट्ठिदिमसादस्स उदीरेदि त्ति वत्तव्वं । दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो पर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ सर्वचिरकाल ( दीर्घ अन्तर्मुहुर्त काल ) तक जघन्य स्थितिसत्त्वसे कम बांधकर, पुनः उसी जघन्य स्थितिसत्कर्मको बांधकर, तत्पश्चात् ऊपरकी स्थितिको बांधता हुआ जब आवली मात्र काल बिताता है तब उसके तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है । सातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो बादर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ सर्वचिरकाल जघन्य स्थितिसत्त्वसे कम बांधकर, अनन्तर कालमें अधिक स्थितिको बांधेगा कि इसी बीचमें मरकर संज्ञी जीवोंमें उत्पन्न हुआ, फिर उनमें सर्वचिरकाल तक असाता वेदनीयको बांधकर साता वेदनीयका बन्धक हुआ है, उसके साताको बांधते हुए आवली मात्र कालके बीतनेपर साता वेदनीयकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। इसी प्रकार असाता वेदनीयके विषयमें भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि संज्ञियोंमें उत्पन्न होते हुए उसे साता वेदनीयका बन्ध कराना चाहिये, तत्पश्चात् उत्कृष्ट साताबन्धककालके बीतनेपर जो असाताका बन्धक हुआ है वह आवली मात्र कालको बिताकर असाता वेदनीय सम्बन्धी जघन्य स्थितिकी उदीरणा करता है, ऐसा कहना चाहिये ? णिहा-पयलाणं खीणराग-खवगे परिच्चज्ज ।। क प्र.४, १८. दिय त्ति- इन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्ताः सन्तो द्वितीयसमयादारभ्येन्द्रियपर्याप्त्यनन्तरसमयादारभ्येत्यर्थः; निद्रा-प्रचलयोरुदीरणाप्रायोग्या भवन्ति । कि सर्वेऽपि? नेत्याह-क्षीणरागान् क्षपकांश्च परित्यज्य । उदीरणा हि उदये सति भवति, नान्यथा । न च क्षीणराग-क्षपकयोनिदाप्रचलोदयः सम्मवति, “णिहादुगस्स उदओ खीणग-खवगे परिच्चज्ज" इति वचनप्रापाण्यात् । ततस्तान् वजयित्वा शंषा निद्रा-प्रचलयोरुदीरका वेदतव्याः। (मलय. टीका ). ४ थावरजहन्नसंतेण समं अह ( ही ) गं व बंधनो ॥ गंतूणावलिमित्तं कसायबारसग-भय-दुर्ग (गुं)छाणं । णिद्दाय (इ) पंचगस्स य आयावुज्जोयणामस्स ॥ क प्र. ४, ३४-३५. . * भावना त्वियम्- एकेन्द्रियो जघन्यस्थितिसत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुद्धृत्य पर्याप्त-संज्ञिपंचेंद्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः, उत्पत्तिप्रथमसमयादारभ्य च सातावेदनीयमनभवन् असातावेदनीयं बृहत्तरमन्तर्मुहूर्तकालं यावद् बध्नाति । ततः पुनरपि सातां बदधुमारभते । ततो बन्धावलिकायाश्चरमसमये पूर्वबद्धस्य सातावेदनीयस्य जघन्यां स्थित्युदोरणां करोति । एवमसागवेदनीयस्यापि द्रष्टव्यम। केवलं सातावेदनीयस्थानेऽसातावेदनीय मच्चारणीयम्, असातावेदनीयस्थाने सातवेदनीयमिति । क. प्र (मलय.)४,३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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