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________________ ११० ) छक्खंडागमे संतकम्म थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसगित्तीणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो उक्कस्सटिदि बंधिदूण पडिभग्गो होदूण बंधावलियादिक्कतं पडिच्छिय संकमणावलियादीदमुदयावलियबाहिरमोकड्डियूण उदए देदि सो उक्कस्सट्ठिदिउदीरओ। अथिर-असुहदूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्तीणं जहा धुवउदीरयाणं तहा कायव्वं । णवरि सुस्सरदुस्सराणमपज्जत्तकाले पत्थि उदीरणा। तित्थयरस्स उक्कस्सट्ठिदि उदीरगो को होदि? जो पढमसमयकेवली तप्पाओग्गुक्कस्सटिदिसंतकम्मिओ। उच्चागोदस्स उक्कस्सटिदिउदीरगो को होदि ? जो णीचागोदस्स उक्कस्सट्टिदि बंधियूण पडिभग्गो संतो? उच्चागोदस्सेव वेदओ तस्स उक्कस्सद्विदिउदीरणा । एवं उवकस्ससामित्तं । एत्तो जहण्णसामित्तं उच्चदे। तं जहा-पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं जहण्णढिदिउदीरगो को होदि? जो समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थोखीणकसायम्मिणिद्दा-पयलाणमुदीरणा पत्थि त्ति भणंताणमभिप्पाएण णिहाणिद्दा-पयलापयला-थोणगिद्धीहि * सह जहण्गसामित्तं वत्तव्वं *। तिण्णं दंसणावरणीयाणं जहण्ण स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर व उससे प्रतिभग्न होकर बन्धावलीसे अतिक्रान्त स्थितिको संक्रान्त कर संक्रमणावालीके बाद उदयावलीसे बाह्य स्थितिका अपकर्षण कर उदयमें देता है वह उनकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, और अयशकीति ; इनकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाका कथन ध्रुवउदीरणावाली प्रकृतियोंके समान करना चाहिये । विशेष इतना है कि सुस्वर और दुस्वरकी उदीरणा अपर्याप्तकालमें नहीं होती। तीर्थकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्त्ववाला प्रथय समयवर्ती केवली तीर्थंकर प्रकृतिका उदीरक होता है। उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो उच्चगोत्रका ही वेदक नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर उससे प्रतिभग्न हआ है उसके उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। यहां जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती हैं। वह इस प्रकार है-पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष रही है ऐसा छद्मस्थ जीव उपर्यक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है । क्षीणकषाय गुणस्थानमें निद्रा और प्रचलाकी उदीरणा नहीं है, ऐसा कहनेवाले आचार्यों के अभिप्रायसे उनकी उदीरणाके जघन्य स्वामित्वका कथन निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि प्रकृतियोंके साथ करना चाहिये। तीन * तित्थयरस्स य पल्लासंखिज्जइमे xxx ॥ क. प्र. ४, ३४ इह पूर्व तीर्थकरनाम्नः स्थिति शुभैरध्यवसायरपवल्पवयं पल्योपमासंख्येयभागमात्रा शेषीकृता। ततोऽनन्तरसमये उत्पन्नकेवलज्ञानःसन तामदीरयति । उदीरयतश्च प्रयमममये उत्कृष्टोदीरणा। सर्वदैव चेयन्मात्रैव स्थितिरुत्कृष्टा तीर्थकरनाम्त उदीरणाप्रायोग्या प्राप्यते, नाधिकेति । (मलय.) 8ताप्रती 'प डेभागे संते ' इति पाठः । छउमत्थखीणरागे चउदस समयाहिगालिगदिईए । क. प्र. ४, ४२. * काप्रतौ '-मभिप्पारण गिद्धीहि', ताप्रती 'मभिपाएण ( थीण-) गिद्धीहि' इति पाठः। * इंदियाज्जतीए दुसमयपज्जत्तगाए (उ) पाउग्गा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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