SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२) छक्खंडागमे संतकम्म मिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो दंसणमोहणीयउवसामगो समयाहियावलियचरिमसमयमिच्छाइट्ठी । सम्मत्तस्स जहण्णटिदिउदीरगो को होदि ? जो समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणिज्जो । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिउदीरगो को होदि ? जो अट्ठावीससंतकभिमओ मिच्छाइट्ठी एइंदिय गंतूण तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय तदो तसेसु उववण्णो, तत्थ अंतोमुत्तमच्छिय पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणसागरोवमटिदिसंतकम्मेण सह सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो तस्स चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स जहणिया ठुिदिउदीरणा । तसेसु चेव उव्वेल्लाविय सम्मामिच्छत्तं किण्ण णीदो? ण, एइंदिएसु उव्वेल्लिदसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्सेव पलिदोवमस्स असंखेज्जदि मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो जीव दर्शनमोहनीयका उपशामक है उसके मिथ्यादृष्टि रहने के अन्तिम समयमें एक समय अधिक आवली मात्र शेष रहनेपर मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जिसके दर्शनमोहनीयके क्षीण होने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रहा है वह उसकी जघन्य स्थिति का उदीरक होता है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला मिथ्यादृष्टि जीव एकेन्द्रियोंमें जाकर वहां पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र कालके द्वारा सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके पश्चात् त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम प्रमाण स्थितिसत्त्वके साथ सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है; उस अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उसकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। शंका-- त्रस जीवोंमें ही उद्वेलना कराकर सम्यग्मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, जिसने एकेन्द्रियों में सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वकी उद्वेलना की है उसके ही पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम मात्र स्थितिसत्त्वके शेष रहनेपर मिच्छत्तस्स जहणिया द्विदिउदीरणा कस्स? अण्णदरस्स मिच्छाइदिस्स उवसमसम्मताहिमहस्स समयाहियावलियण्ढमट्ठिदिउदीरगस्स तस्स जहणिया ट्ठिदिउदीणा । सम्मत्तस्स जहणिया ठिदिउदीरणा कस्स? अण्णदरस्स सणमोक्खवयस्स समयाहियानलियउदीरगस्स। जयध. अ. प. ७९४. समयहिगालिगाए पढमरिईए उ सेसवेलाए । मिच्छत्ते वेएसु य संजलणासु वि य सम्मत्ते (तं)॥ क. प्र. ४,३९. सम्मामिच्छत्तजहणिया ठिदिउदीरणा कस्स ? अण्णदरो जो मिच्छाइट्ठी वेदगपाओग्गजहण्णट्रिदिसंतकम्मिओ सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो अंतोमुहुत्तं विगट्ठ सम्मामिच्छत्तद्धमणुपालिय चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्रिस्स तस्स जहणिया दिदिउदीरणा। जयध. अ प.७९४. पल्लासंखियभागू णुदही एगिदिया गहे मिस्से । क प्र. ४, ४०. पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनं यदेकं सागरोपमं तावन्मात्रसम्पमिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुद्धत्य संज्ञिपंचेन्द्रियमध्ये समायातः । तस्य यतः समयादारभ्यान्तर्मुहुर्तानन्तरं सम्पग्मिथ्यात्वस्योदीरणापगमिष्यति तस्मिन समये सम्यग्मिथ्यात्वप्रतिपन्नस्य चरमसमये सम्यग्मिथ्यात्वस्य जघन्या स्थित्युदीरणा। एकेन्द्रियसत्कजघन्य स्थितिमत्कर्मणश्च सकाशादधो वर्तमान सम्पग्मिथ्यात्वमुदीरणायोग्यं न भवति, तावन्मात्रस्थितिके तस्मिन्नवश्यं Jan Education मिथ्यात्वादयसम्भवतस्तदुद्वलनसम्भवात् (मलय.) Dect उभयोरेव प्रत्योः 'वेउव्वेल्लाविय' इति पाठः ।
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy