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________________ ( ३२९ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा भंगो। णीचागोदस्स भुजगारो अप्पदरो च तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एदम्हि उवदेसे जाणि कम्माणि ण भणिदाणि तेसि कम्माणं णत्थि दो उवदेसा, पढमेण चेव उवदेसेण ताणि यव्वाणि । एयजीवेण अंतरंज पवाइज्जतेण उवएसेण वत्तइस्सामो। तं जहा- णाणावरणस्स भुजगारवेदयंतरं अप्पदरवेदयंतरं वा जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवट्ठिदवेदयंतरं जह० एयसमओ, उक्क० अणंतकालं। चदुण्णं दसणावरणीयाणं णाणावरणभंगो। सव्वकम्माणमवट्टियवेदयंतरस्स वि णाणावरणभंगो । सेसाणं कम्माणं भुजगार-अप्पदरवेदयंतरं पगदिउदयादो भुजगारकालादो च साधेदूण भाणियव्वं । णाणाजीवेहि कालो अंतरं सण्णियासो च एत्थ कायव्वो। एत्तो अप्पाबह। तं जहा- मदिआवरणस्स अवढिदवेदया थोवा। अप्पदरवेदया अणंतगुणा । भुजगारवेदया संखेज्जगुणा । सुद- मणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरणाणं चक्खु-अचक्खु-ओहि-केवलदसणावरणाणं च मदिआवरणभंगो। णिहाए अवट्टिदवेदया थोवा। अवत्तव्ववेदया अणंतगुणा। अप्पदरवेदया असंखे० गुणा । भुजगारवेदया संखे० है। उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। नीचगोत्रका भुजाकार और अल्पतर उदय कुछ कम तेतीस सागरोपम काल मात्र रहता है। इस उपदेशम जिन कर्मोंका कथन नहीं किया गया है उन कर्मोंके विषयमें दो उपदेश नहीं हैं, उनको प्रथम ही उपदेशके अनुसार ले जाना चाहिये ।। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा प्रवाहस्वरूपसे आये हुए उपदेशके अनुसार की जाती है। वह इस प्रकार है-- ज्ञानावरणके भाजकारवेदक और अल्पतरवेदका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है। उसके अवस्थितवेदकका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण होता है। चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके अन्तरकालकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । सब कर्मोके अवस्थितवेदकके अन्तरकालकी भी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। शेषकर्मोंके भुजाकार व अल्पतर वेदकोंके अन्तरकालका कथन प्रकृति उदय और भुजाकारकालसे सिद्ध करके करना चाहिये। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, अन्तर और संनिकर्षका भी कथन यहांपर करना चाहिये । यहां अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-- मतिज्ञानावरणके अवस्थितवेदक स्तोक हैं। अल्पतरवेदक अनन्तगुणे हैं। भुजाकारवेदक संख्यातगुणे हैं। श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्राके अवस्थितवेदक स्तोक हैं । अवक्तव्यवेदक अनन्तगुणे हैं। अल्पतरवेदक असंख्यातगुणे हैं । ४ ताप्रती 'चेव ( दो) उवदेसेण ' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'अंतरे ' इति पाठः । * प्रतिष 'कालो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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