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________________ ३३२८ ) 'छक्खंडागमे संतकम्म अण्णण उवएसेण मदिआवरणस्स भुजगारउदओ तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि सव्वळे*। अप्पदरवेदओ तेत्तीसं सागरोवमाणि संखेज्जवस्सब्भहियाणि णेरइयस्स संकिलेसेण। सुद मणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरणाणं चदुण्णं दसणावरणाणं च मदिआवरणभंगो। असादस्स भुजगारवेदओ तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । अप्पदर० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। णिरयगइणामाए भुजगारवेदओ अप्पदरवेदओ वा तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। णिरयगइणामाए अप्पदरवेदयकालस्स साहणं वुच्चदे। • तं जहा- णिसेयगुणहाणिट्ठाणाणंतरं थोवं। जोगट्ठाणेसु जीवगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । मणुसगइणामाए तिरिक्खगइणामाए च भुजगारो अप्पदरो* च तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि। देवगइणामाए भुजगारो अप्पदरो च तेत्तीसं सागरो० देसू। णाणि। ओरालियसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघादाणं पढमसंघडणस्स मणुसगइभंगो। वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं देवगइभंगो। सव्वासि धुवबंधपयडीणं परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभसुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तीणं च देवगइभंगो। अप्पसत्थविहायगइ--अथिरअसुभ--दुभग---दुस्सर--अणादेज्ज---जसकित्तीणं णिरयगइभंगो । उज्जोव---- णामाए ओरालियसरीरभंगो । उच्चागोद----पंचंतराइयाणं णाणावरण-- ___ अन्य उपदेशके अनुसार मतिज्ञानावरणके भुजाकार वेदकका काल सर्वार्थसिद्धि में कुछ कम । तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उसके अल्पतर वेदकका काल नारकीके संक्लेशके कारण संख्यात वर्ष अधिक तेतीस सागरोपम मात्र है ।श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण और चार दर्शनावरण प्रकृतियोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। असाता: वेदनीयके भुजाकार वेदकका काल कुछ कम तेतीस सागरोपम मात्र है। उसके अल्पतर वेदकका काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। नरकगति नामकर्मके भुजाकारवेदक व अल्पतर वेदकका काल कुछ कम तेतीस सागरोपम मात्र है। नरकगति नामकर्मके अल्पतर वेदकके कालका साधन कहा जाता है। वह इस प्रकार है- निषेकगुणहानिस्थानोंका अन्तर स्तोक है। योगस्थानोंमें जीव• गुणहानिस्थानोंके अंतर असंख्यातगुणे है। मनुष्यगति नामकर्म और तिर्यचगति नामकर्मका भुजाकार और अल्पतर उदय कुछ कम तीन पल्योपम काल मात्र रहता है। देवगति नामकर्मका भुजाकार और अल्पतर उदय कुछ कम तेतीस सागरोपम काल मात्र रहता है। औदारिकशरीर व उसके अंगोपांग, बन्धन और संघातका तथा प्रथम संहननकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरअंगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। सब ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंकी तथा परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, वस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिकी प्ररूपणा भी देवगतिके समान है। अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीतिको प्ररूपणा नरकगतिके समान है। उद्योत नामकर्मकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान OP अप्रतौ 'अणेण' इति पाठः। *ताप्रती 'देसूणाणि। सम्वट्ठे' इति पाठः । ४ताप्रती 'वस्सब्भहियाणि रइयस्स' इति पाठः। मप्रतौ 'साहणं' इति पाठः। * अ-कापत्योः 'भजगारअप्पदरो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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