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________________ उवमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए सत्थाणसंगियासो ( ७९ रणदीरओ | सेसं रदिभंगो । सोगमुदीरेंतो अरदीए णियमा उदीरओ । सेसमरभिंगो । भयमुदीरेंतो सेससत्तावीसमोहणीयपयडीणं सिया उदीरओ । एवं दुगुंछाए । णिरयाउअमुदीरेंतो सेसआउआणं णियमा अणुदीरओ। एवं सेसआउआणं वत्तव्वं । गिरयगइमुदीरेंतो णियमा सेसगईणमणुदीरओ । एवं सेसतिण्णं गईणं वत्तव्वं । एदियजादिमुदीरेंतो सेसजादीणं णियमा अनुदीरओ । एवं चटुण्णं जादीणं वत्तव्वं । ओरालियसरीरमुदीरेंतो वेउव्वियसरीर आहारसरीराणं णियमा अणुदीरओ, तेजाकम्मइय-सरीराणं णियमा उदीरओ । वेउव्वियसरीरमुदीरेंतो ओरालिय-आहारसरीराणं णियमा अणुदीरओ, तेजा कम्मइयसरीराणं णियमा उदीरओ । आहासरीरमुदीरेंतो ओरालियवे उब्वियसरीराणं णियमा अणुदीरओ, तेजा क्रम्मइयसरीराणं णियमा उदीरओ । अण्णदरसंठाणमुदीरेंतो सेससंठाणाणं णियमा अणुदीरओ । एवं छष्णं संघडणाणं वत्तव्वं । एवं चेवाणुपुव्वी - तस - थावर - बादर - सुहुमपज्जतापज्जत्त--पसत्थापसत्थाविहायगइ - - सुभग- दुभंग-सुस्सर -- दुस्सर-आदेज्ज-अगादेज्ज - जसगित्ति- अजसगित्तीणं वत्तव्वं । तिण्णमंगोवंगाणं तिसरीरभंगो । वण्ण---गंध-रस -- फासाणं सेसाणं सिया सगभेदेसु अण्णदरमुदीरेंतो रतिका अनुदीरक होता है। शेष कथन रतिके समान है । शोककी उदीरणा करनेवाला अरतिका नियमसे उदीरक होता है । शेष कथन अरतिके समान है । भयकी उदीरणा करनेवाला शेष सत्ताईस मोहनीय प्रकृतियोंका कदाचित् उदीरक होता है । इसी प्रकार जुगुप्सा के आश्रयसे प्ररूपणा करना चाहिये । नारक आयुकी उदीरणा करनेवाला शेष आयु कर्मोंका नियमसे अनुदीरक होता है । इसी प्रकार शेष आयु कर्मोंका आश्रय कर प्ररूपणा करना चाहिये । नरकगतिकी उदीरणा करनेवाला नियमसे शेष गतियोंका अनुदीरक होता है । इसी प्रकार शेष तीन गतियोंका आश्रय कर प्ररूपणा करना चाहिये । एकेन्द्रिय जातिकी उदीरणा करनेवाला शेष जतियोंका नियमसे अनुउदीरक होता है । इसी प्रकार शेष चार जातियों का आश्रय करके प्ररूपणा करना चाहिये । औदारिकशरीरकी उदीरणा करनेवाला वैक्रियिकशरीर और आहारक शरीरका नियमसे अनुदीरक तथा तेजस और कार्मण शरीरोंका नियमसे उदीरक होता है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा करनेवाला औदारिक और आहारक शरीरोंका नियमसे अनुदीरक तथा तैजस व कार्मण शरीरोंका नियमसे उदीरक होता है । आहारकशरीरकी उदीरणा करनेवाला औदारिक और वैक्रिय शरीरोंका नियमसे अनुदीरक तथा तैजस व कार्मण शरीरोंका नियमसे उदीरक होता है । अन्यतर संस्थानकी उदीरणा करनेवाला शेष संस्थानोंका नियमसे अनुदीरक होता है । इसी प्रकार छह संहननोंके आश्रयसे कथन करना चाहिये । इसी प्रकारसे ही आनुपूर्वी, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्ति के आश्रय से प्ररूपणा करना चाहिये । तीन अंगोपांगों की प्ररूपणा तीन शरीरोंके समान है । वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्शके अपने भेदों में से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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