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________________ २६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं विरोहादो । तदो णिरहेउओ विणासो । वृत्तं च भास्ते० - जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न च ध्वस्तो नश्येत् पश्चात् स केन : १ ।। ६ ।। araaणो च ण कज्जमुपज्जदि, उप्पण्णुप्पज्जमाणेहिंतो कज्जुप्पत्तिविरोहादो । तदो ण कज्जमुप्पज्जदि त्ति ? ण, उप्पत्तीए विणा खणखइत्तविरोहादो । ण चाणुप्पण्णं विणस्सदि, गद्दहसिंगस्स वि विणासप्पसंगादो । ण च खणक्खइवत्थू अत्थि, पमाणपमेयाणमभावप्यसंगादो । वृत्तं च क्षणिकान्तपक्षेsपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ।। ७ ।। तदो उप्पाद-ट्ठिदि-भंगलक्खणं सव्वं दव्वं ति इच्छेयव्वं । उत्तं च अभावोंका दूसरोंसे उत्पन्न होने का विरोध है । इसीलिये विनाश निर्हेतुक है। कहा भी है भाष्य मेंपदार्थोंके विनाश में जाति ( उत्पत्ति ) को ही कारण माना जाता है । परन्तु जो उत्पन्न होकर भी नष्ट नहीं होता है वह फिर पीछे आपके यहां किसके द्वारा नाशको प्राप्त होगा ? नहीं हो सकेगा ।। ६ ।। दूसरे, क्षणक्षयी कारणसे कार्य उत्पन्न भी नहीं हो सकता है, क्योंकि उत्पन्न अथवा उत्पद्यमान कारणों से कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है । इस कारण कार्य उत्पन्न नहीं होता । समाधान - ऐसा जो बौद्धका कहना है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उत्पत्ति के विना क्षणक्षयित्वका विरोध है । पदार्थ उत्पन्न हुए विना नष्ट नहीं हो सकता; क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर गधेके सींगके भी विनाशका प्रसंग आता है । दूसरे क्षणक्षयी वस्तुका अस्तित्व ही सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रमाण और प्रमेय दोनोंके अभावका प्रसंग आता है । कहा भी है क्षणिक एकान्त पक्ष में भी प्रत्यभिज्ञान आदिका अभाव होनेसे कार्यका आरम्भ नहीं हो सकता, और जब कार्यका आरम्भ नहीं हो सकता है तब उसके अभाव में भला पुण्य एवं पाप रूप फलकी सम्भावना कहांसे की जा सकती है ? तथा पुण्य व पापका अभाव होनेपर जन्मान्तर रूप प्रेत्यभाव एवं बन्ध - मोक्षादिका भी सद्भाव नहीं रह सकता ।। ७ ।। विशेषार्थ - सब पदार्थ क्षणक्षयी हैं, ऐसा एकान्त स्वीकार करनेपर स्मृति व प्रत्यभिज्ञान आदिकीं सम्भावना नहीं की जा सकती है। कारण कि स्मृति पूर्वमें अनुभव किये गये पदार्थ के विषय में ही होती है । परन्तु जिसका वर्तमान में अनुभव किया गया है वह तो उसी क्षण में उत्पन्न होने के साथ ही नष्ट हो चुका। इस प्रकार विषयका अभाव होनेसे स्मरण ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता । स्मरणके अभाव में प्रत्यभिज्ञान भी असम्भव है, क्योंकि, प्रत्यक्ष व स्मरण के काप्रती 'भाष्ये', ताव्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । * काप्रती 'विणासपसंगादो विइति । ति पाठ: । उद्धतेयं कारिका कसा पाहुडे १, आ. मी. ४१. Jain Education Internal hal२२७. www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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