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पक्कमाणुयोगद्दारे दव्वस्स उप्पादादिसरूवत्तं
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घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। ८ ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ९ ॥
साथ
निमित्तसे 'यह वही देवदत्त है, गायके सदृश गवय होता है ' इस प्रकार जो एकत्व व सादृश्य आदि विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। पदार्थके सर्वथा क्षणिक होनेपर पूर्वोत्तर अवस्थाओंमें रहनेवाले एकत्व आदि धर्मोके असम्भव होनेसे उक्त लक्षणवाले प्रत्यभिज्ञानकी भी सम्भावना नहीं की जा सकती है। इस प्रकार स्मरण व प्रत्यभिज्ञान आदिके
तर अवस्थाओं में अवस्थित एक प्रमाता आत्माके भी न रह सकनेसे कार्यका आरम्भ नहीं हो सकता । कार्यके अभावमें उसके फल स्वरूप पुण्य-पाप एवं बन्ध-मोक्ष आदि भी नहीं बन सकते। अतएव वह क्षणिक एकान्त पक्ष ग्राह्य नहीं है।
इसलिये सब द्रव्यको उत्पाद, स्थिति ( ध्रौव्य ) व भंग ( व्यय ) स्वरूप स्वीकार करना चाहिये । कहा भी है--
घट, मुकुट और सुवर्णसामान्यका अभिलाषी यह मनुष्य क्रमशः घटके नाश, मुकुटके उत्पाद और सुवर्णसामान्यकी स्थिति में शोक, प्रमोद एवं माध्यस्थ्य भावको प्राप्त होता है । यह सहेतुक है, अकारण नहीं है ।। ८ ॥
विशेषार्थ- यहां वस्तुको उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप सिद्ध करनेके लिये निम्न प्रकार लौकिक दृण्टान्त दिया गया है-कल्पना कीजिये कि तीन मनुष्य क्रमसे सुवर्णघट, सुवर्णका मुकुट एवं सुवर्णसामान्यकी अभिलाषासे किसी विशेष दूकानपर जाते हैं । इसी समय दुकानदारके द्वारा सुवर्णघटको नष्ट करके मुकुटका निर्माण करानेपर उनमेंसे सुवर्णघटका अभिलाषी दुखी, मुकुटका अभिलाषी हर्षित और सुवर्णसामान्यका ग्राहक हर्ष-विषाद दोनोंसे ही रहित होकर मध्यस्थ रहता है। अब यदि कार्यका विनाश न होता तो घटके नष्ट होनेपर तदभिलाषी व्यक्तिको दुखी न होना चाहिये था । इसी प्रकार यदि कार्यका उत्पाद न होता तो मुकुटाभिलाषी व्यक्तिका हर्षित होना असंगत था। निरन्वय विनाशके होनेपर ( ध्रौव्यके अभावमें ) सुवर्णसामान्यके ग्राहककी उदासीनता भी स्थिर नहीं रह सकती थी। परन्तु चूंकि व्यवहारमें वैसा देखा जाता है, अतएव द्रव्यको उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप मानना ही चाहिये।
'मैं केवल दूधको ग्रहण करूंगा' ऐसा नियम लेनेवाला व्यक्ति दहीको नहीं खाता है, 'मैं केवल दही खाऊंगा' ऐसा नियम रखनेवाला व्यक्ति दधको नहीं लेता है. तथा ।
या में गोरससे भिन्न पदार्थको ग्रहण करूंगा ' ऐसा व्रत लेनेवाला व्यक्ति दूध व दही दोनोंको ही नहीं खाता है। इसीलिये वस्तुतत्त्व उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य इन तीनों स्वरूप है ॥ ९॥
विशेषार्थ- पर्याय स्वरूपसे होनेवाले उत्पाद व व्ययमें न सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद ही है, किन्तु वे कथंचित् भेदाभेदको प्राप्त हैं । कारण कि दूधके अपने स्वरूपको छोड़कर दही रूपमें परिणत होनेपर भी यदि उनमें सर्वथा अभेद ही स्वीकार किया जाय तो दूधका
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