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उदीरणा - उदयावलीबाह्य स्थितिको आदि लेकर आगेकी स्थितियोंके बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशपिण्डका पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रतिभागसे या असंख्यात लोक प्रतिभागसे अपकर्षण करके उसको उदयावली में देना, इसे उदीरणा कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि उदयावलिको छोड़कर आगेकी स्थितियोंमेंसे प्रदेशपिण्डको खींचकर उसे उदयावली में प्रक्षिप्त करनेको उदीरणा कहते हैं । वह दो प्रकारकी है- एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा । एक-एक प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा में प्रथमतः उसके स्वामियों का विवेचन किया गया है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों की उदीरणा स्वामीका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इन कर्मोंकी उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होती है । विशेषता इतनी है कि क्षीणकषायके कालमें एक समय अधिक आवलीमात्र शेष रहनेपर उनकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है ।
तत्पश्चात् एक-एकप्रकृतिउदीरणाविषयक एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । नाना जीवोंकी अपेक्षा उसके अन्तर की सम्भावना ही नहीं है । एक एक प्रकृतिका अधिकार होने से यहां भुजा - कार पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणाकी भी सम्भावना नहीं है ।
प्रकृतिस्थान उदीरणाकी प्ररूपणा में स्थानसमुत्कीर्तना करते हुए मूल प्रकृतियों के आधार से ये पांच प्रकृतिस्थान बतलाये गये हैं- आठों प्रकृतियोंकी उरदीणारूप पहिला आयुके विना शेष सात प्रकृतियोंरूप दूसरा; आयु और वेदनीयके विना शेष छह प्रकृतियोंरूप तीसरा मोहनीय आयु और वेदनीयके विना शेष प्रकृतियोंरूप चौथा; तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय. मोहनीय, आयु और अन्तरायके विना शेष दो प्रकृतियोंरूप पांचवां |
स्वामित्वप्ररूपणामें उक्त स्थानोंके स्वामियोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इनमेंसे प्रथम स्थान, जिसका आयु कर्म उदयावली में प्रविष्ट नहीं है ऐसे प्रमत्त ( मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त संयत तक प्रमाद युक्त) जीवके होता है। द्वितीय स्थान भी उक्त जीवके ही होता है । विशेषता केवल इतनी है कि उसका आयु कर्म उदयावलीमें प्रविष्ट होना चाहिये । तीसरा स्थान सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक होता है । चौथे स्थानका स्वामी छद्मस्थ वीतराग ( उपशान्तकषाय और क्षीणमोह ) जीव होता है । विशेष इतना हैं कि वह क्षीणमोहके काल में आवलीमात्र काल शेष रह जानेके पहिले पहिले ही हो होता है, उसके पश्चात् नहीं । पाँचवे [नाम व गोत्र प्रकृतिरूप ] स्थानके स्वामी चरम आवली कालवर्ती क्षीणकषाय तथा सयोगकेवली हैं |
तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान उदीरणाकी ही प्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । भुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणामें अर्थपदका कथन करते हुए बतलाया है कि अनन्तर अतिक्रान्त समय में थोडी प्रकृतियोंकी उदीरणा करके इस समय उनसे अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करना इसे भुजाकार ( भूयस्कार ) उदीरणा कहते हैं । अनन्तर अतिक्रान्त समय में अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करके इस समय उनसे कम प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेका नाम अल्पतरउदीरणा है । अनन्तर अतिक्रान्त समयमें जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा कर रहा था इस समय भी उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणा करनाउनसे होन या अधिककी उदीरणा न करना- इसे अवस्थितउदीरणा कहा जाता है। अनन्तर अतिक्रान्त समयमें अनुदीरक होकर इस समय में की जानेवाली उदीरणाका नाम अवक्तव्य उदीरणा है ।
स्वामित्वरूपण में यह बतलाया गया है कि भुजाकारउदीरणा, अल्पतरउदीरणा और अवस्थित
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