SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६ ) उदीरणा - उदयावलीबाह्य स्थितिको आदि लेकर आगेकी स्थितियोंके बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशपिण्डका पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रतिभागसे या असंख्यात लोक प्रतिभागसे अपकर्षण करके उसको उदयावली में देना, इसे उदीरणा कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि उदयावलिको छोड़कर आगेकी स्थितियोंमेंसे प्रदेशपिण्डको खींचकर उसे उदयावली में प्रक्षिप्त करनेको उदीरणा कहते हैं । वह दो प्रकारकी है- एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा । एक-एक प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा में प्रथमतः उसके स्वामियों का विवेचन किया गया है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों की उदीरणा स्वामीका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इन कर्मोंकी उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होती है । विशेषता इतनी है कि क्षीणकषायके कालमें एक समय अधिक आवलीमात्र शेष रहनेपर उनकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है । तत्पश्चात् एक-एकप्रकृतिउदीरणाविषयक एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । नाना जीवोंकी अपेक्षा उसके अन्तर की सम्भावना ही नहीं है । एक एक प्रकृतिका अधिकार होने से यहां भुजा - कार पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणाकी भी सम्भावना नहीं है । प्रकृतिस्थान उदीरणाकी प्ररूपणा में स्थानसमुत्कीर्तना करते हुए मूल प्रकृतियों के आधार से ये पांच प्रकृतिस्थान बतलाये गये हैं- आठों प्रकृतियोंकी उरदीणारूप पहिला आयुके विना शेष सात प्रकृतियोंरूप दूसरा; आयु और वेदनीयके विना शेष छह प्रकृतियोंरूप तीसरा मोहनीय आयु और वेदनीयके विना शेष प्रकृतियोंरूप चौथा; तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय. मोहनीय, आयु और अन्तरायके विना शेष दो प्रकृतियोंरूप पांचवां | स्वामित्वप्ररूपणामें उक्त स्थानोंके स्वामियोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इनमेंसे प्रथम स्थान, जिसका आयु कर्म उदयावली में प्रविष्ट नहीं है ऐसे प्रमत्त ( मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त संयत तक प्रमाद युक्त) जीवके होता है। द्वितीय स्थान भी उक्त जीवके ही होता है । विशेषता केवल इतनी है कि उसका आयु कर्म उदयावलीमें प्रविष्ट होना चाहिये । तीसरा स्थान सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक होता है । चौथे स्थानका स्वामी छद्मस्थ वीतराग ( उपशान्तकषाय और क्षीणमोह ) जीव होता है । विशेष इतना हैं कि वह क्षीणमोहके काल में आवलीमात्र काल शेष रह जानेके पहिले पहिले ही हो होता है, उसके पश्चात् नहीं । पाँचवे [नाम व गोत्र प्रकृतिरूप ] स्थानके स्वामी चरम आवली कालवर्ती क्षीणकषाय तथा सयोगकेवली हैं | तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान उदीरणाकी ही प्ररूपणा में एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । भुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणामें अर्थपदका कथन करते हुए बतलाया है कि अनन्तर अतिक्रान्त समय में थोडी प्रकृतियोंकी उदीरणा करके इस समय उनसे अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करना इसे भुजाकार ( भूयस्कार ) उदीरणा कहते हैं । अनन्तर अतिक्रान्त समय में अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करके इस समय उनसे कम प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेका नाम अल्पतरउदीरणा है । अनन्तर अतिक्रान्त समयमें जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा कर रहा था इस समय भी उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणा करनाउनसे होन या अधिककी उदीरणा न करना- इसे अवस्थितउदीरणा कहा जाता है। अनन्तर अतिक्रान्त समयमें अनुदीरक होकर इस समय में की जानेवाली उदीरणाका नाम अवक्तव्य उदीरणा है । स्वामित्वरूपण में यह बतलाया गया है कि भुजाकारउदीरणा, अल्पतरउदीरणा और अवस्थित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org. Jain Education International
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy