SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७) उदीरणाका स्वामी कोई भी मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव हो सकता है। अवक्तव्यउदीरणाका स्वामी सम्भव नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणामें भुजाकार उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र बतलाया है जो इस प्रकारसे सम्भव है- कोई उपशान्तकषाय जीव वहाँसे च्युत होकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती हुआ। वहाँ वह पाँचसे छह प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेके कारण भुजाकारउदीरक हो गया । इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। पुनः वही द्वितीय समयमें मृत्यको प्राप्त होकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें वह छह प्रकृतियोंसे आठका उदीरक होकर भुजाकार उदीरक ही रहा । यहाँ भुजाकार उदीरणाका द्वितीय समय प्राप्त हुआ। इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय मात्र प्राप्त होता है। अल्पतर उदीरणाका भी काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र है। वह इस मत्तसंयतके अन्तिम समयमें आयकर्मके उदयावलीमें प्रविष्ट हो जानेपर वह आठसे सात प्रकृतियोंकी उदीरणा करता हुआ अल्पतर उदीरक हो गया। इस प्रकार अल्पतर उदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् द्वितीय समयमें अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होनेपर वह वेदनीय कर्मके विना छह प्रकृतियोंकी उदीरणा करता हुआ अल्पतर उदीरक ही रहा। इस प्रकार अल्पतर उदीरणाका काल भी उत्कर्षसे दो समय मात्र ही पाया जाता है। अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय अधिक एक आवलीसे हीन तेतीस सागरोपमप्रमाण है। देवोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें पाँच, छह या सातसे आठका उदीरक होकर भुजाकार उदीरक हुआ। पुनः द्वितीय समयसे लेकर मरणावली प्राप्त होने तक अवस्थितरूपसे आठका ही उदीरक रहा। इस प्रकार अवस्थित उदीरणाका उत्कृष्ट काल प्रथम समय और अन्तिम आवलीको छोडकर पूर्ण देव पर्यायप्रमाण तेतीस सागरोपम मात्र प्राप्त हो जाता है । अन्तरप्ररूपणामें भुजाकार उदीरणाके अन्तरपर विचार करते हुए उसका जघन्य अन्तर एक या दो समय मात्र बतलाया है । यथा-- पांच प्रकृतियोंका उदीरक कोई उपशान्तकषाय नीचे गिरता हुआ सूक्ष्मसाम्परायिक होकर छहका उदीरक हुआ। तत्पश्चात् द्वितीय समयमें भी वह छहका ही उदीरक रहा । इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका अवस्थित उदीरणासे अन्तर हुआ। पुनः तृतीय समयमें मरकर वह देवोंमें उत्पन्न हो आठका उदीरक होकर भुजाकार उदीरणा करने लगा। इस प्रकार भुजाकार उदीरणाका एक समय मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त हो जाता है। उसका उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। वह इस प्रकारसे- कोई जीव तेतीस सागरोपम आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर उत्पन्न होने के प्रथम समयमें भुजाकार उदीरक हुआ और द्वितीय समयसे लेकर मरणावली प्राप्त होने के पूर्व समय तक वह अवस्थित उदीरक रहा। इस प्रकार उसका इतना अन्तर अवस्थित उदीरणासे हुआ। तत्पश्चात् मरणावलीके प्रथम समयमें वह आयुके विना सात प्रकृतियोंकी उदीरणा करता हुआ अल्पतर उदीरक हो मरणावली कालके अन्तिम समय तक अवस्थित उदीरक रहा। तत्पश्चात मरणको प्राप्त होकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें पुन: भुजाकार उदीरक हुआ। इस प्रकार भुजाकार उदीरणा का अवस्थित और अल्पतर उदीरणाओंसे एक समय कम पूरे तेतीस सागरोपम काल तक अन्तर रहा । आगे चलकर इसी भुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणामें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयकी अतिसंक्षेपमें प्ररूपणा करते हुए भागाभग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और भाव; इन सबकी जानकर प्ररूपणा करनेका निर्देशमात्र किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy