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________________ ( ८) पदनिक्षेपप्ररूपणामें भुजाकार उदीरणाकी उत्कृष्ट वृद्धि आदि किसके होती है, इसका कुछ विवेचन करते हुए प्रकृत हानि-वृद्धि आदिके अल्पबहुत्वका निर्देश मात्र किया गया है। वृद्धिउदीरणाप्ररूपणामें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित उदीरणा इन चार पदोंके अस्तित्वका उल्लेखमात्र करके शेष प्ररूपणा जानकर करना चाहिये ( सेस जाणिऊण वत्तव्वं ) इतना मात्र निर्देश करते हुए मूलप्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा समाप्त की गयी है। मूलप्रकृतिउदीरणाके समान उत्तर प्रकृति उदीरणा भी दो प्रकारकी है-- एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा। इनमें प्रथमतः एक-एक प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर इन अधिकारों के द्वारा की गयी है। आठ कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंमेंसे किस-किस प्रकृतिके कौन-कौनसे जीव उदीरक होते हैं, इसका विवेचन स्वामित्वमें किया गया है। एक जीवकी अपेक्षा कालके कथन में यह बतलाया है कि अमुक अमुक प्रकृतिकी उदीरणा एक जीवके आश्रयसे निरन्तर जघन्यत इतने काल और उत्कर्षत: इतने काल तक होती है। एक जीवकी अपेक्षा विवक्षित प्रकृतिकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे कितना और उत्कर्षसे कितना होता है, इसका विचार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरके निरूपणमें किया गया है। मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियोंकी उदीरणामें नाना जीवोंकी अपेक्षा कितने भंग सम्भव हो सकते हैं, इसका विचार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयमें किया गया है। उदाहरणके रूपमें पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंके उदीरक कदाचित् सब जीव हो सकते हैं, कदाचित् बहुत उदीरक और एक अनुदीरक होता है तथा कदाचित् बहुत जीव उदीरक और बहुत जीव अनुदीरक भी होते हैं। इस प्रकार यहाँ तीन भंग संभव हैं। नाना जीव यदि विवक्षित प्रकृतिकी उदीरणा करें तो कमसे कम कितने काल और अधिकसे अधिक कितने काल करेंगे, इसका विचार 'नाना जीवोंकी अपेक्षा काल' में किया गया है। इसी प्रकार नाना जीव विवक्षित प्रकृतिको छोडकर अन्य प्रकृतिकी उदी रणा करते हुए यदि फिरसे उक्त प्रकृतिकी उदीरणा प्रारम्भ करते हैं तो कमसे कम कितने काल में और अधिकसे अधिक कितने कालमें करते हैं, इसका विवेचन नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरमें किया गया है। संनिकर्ष- एक-एक प्रकृति उदीरणाकी ही प्ररूपणाको चालू रखते हुए संनिकर्षका भी यहाँ कथन किया गया है। यह संनिकर्ष स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका निर्दिष्ट किया गया है। स्वस्थान संनिकर्षके विवेचनमें ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में किसी एक कर्मकी उत्तर प्रकृतियों में से विवक्षित प्रकृतिको उदीरणा करनेवाला जीव उसकी ही अन्य शेष प्रकृतियोंका उदीरक होता है या अनुदीरक, इसका विचार किया गया है। जैसे- मतिज्ञानावरणकी उदीरणा करनेवाला शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियोंका भी नियमसे उदीरक होता है। चक्षुदर्शनावरणकी उदीरणा करनेवाला अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन तीन दर्शनावरण प्रकृतियोंका नियमसे उदीरक तथा शेष पाँच दर्शनावरण प्रकृतियोंका वह कदाचित् उदीरक होता है । परस्थानसंनिकर्षमें आठों कर्मोकी समस्त उत्तर प्रकृतियोंमेंसे किसी एककी विवक्षा कर शेष सभी प्रकृतियों की उदीरणा अनुदीरणाका विचार किया जाना चाहिये था। परन्तु सम्भवतः उपदेशके अभाव में वह यहाँ नहीं किया जा सका है, उसके सम्बन्धमें यहाँ केवल इतनी मात्र सूचना की गयी है कि 'परत्थागसगियासो जाणियूण वत्तव्यो' अर्थात् परस्थान संनिकर्षका कथन जानकर करना चाहिये । अल्पबहुत्व- यह अल्पबहुत्व भी स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है। इनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वमें ज्ञानावरणादि एक-एक कर्मकी पृथक्-पृथक् उत्तर प्रकृतियोंके उदीरकोंकी हीनाधिताका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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