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विचार किया गया है। परस्थान अल्पबहुत्वको प्ररूपणामें समस्त कर्मप्रकृतियों के उदीरकोंकी हीनाधिकताका विचार सामान्य स्वरूपसे किया जाना चाहिये था। परन्तु उसका भी विवेचन यहाँ सम्भवतः उपदेश के अभावसे ही नहीं किया जा सका है। इतना ही नहीं, बल्कि स्वस्थान अल्पबहत्वकी प्ररूपणामें भी केवलज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय इन तीन ही कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे उपर्युक्त अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जा सकी है, शेष मोहनीय आदि कर्मोंके आश्रयसे वह भी नहीं की गयी है। यहाँ उसके सम्बन्धमें इतनी मात्र सूचना की गयी है 'उपरि उपदेसं लहिय वत्तव्वं । परत्थाणप्पाबहुगं जाणिय वत्तव्यं ' अर्थात् आगे मोहनीय आदि शेष कर्मों के सम्बन्धमें प्रकृत स्वस्थान अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा उपदेश पाकर करना चाहिये । परस्थान अल्पबहुत्वका कथन जानकर करना चाहिये ।
यहाँ एक-एक प्रकृतिकी विवक्षा होनेसे भुजाकर, पदनिक्षेप और वृद्धि प्ररूपणाओंकी असम्भावना प्रगट की गयी है।
प्रकृतिस्थान उदीरणा- यहाँ ज्ञानावरण आदि एक-एक कर्मकी अलग-अलग उत्तर प्रकृतियोंका आश्रय करके जितने उदीरणास्थान सम्भव हों उनके आधार से स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर तथा अल्पबहुत्व का विचार किया गया है । उदाहरण स्वरूप मोहनीय कर्मकी स्थान उदीरणामें एक, दो, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और दस प्रकृति रूप नौ स्थानोंकी सम्भावना है। उनमें एक प्रकृति रूप उदीरणास्थानके चार भंग है- संज्वलन क्रोधके उदयसे प्रथम भंग, मानसंज्वलनके उदयसे दूसरा भंग, मायासंज्वलनके उदयसे तीसरा भंग, और लोभसंज्वलनके उदयसे चौथा भंग। इन भंगोंका कारण यह है कि इन चारों प्रकृतियों में से विवक्षित समय में किसी एककी ही उदीरणा हो सकती है। दो प्रकृतिरूप स्थानके उदीरकके बारह भंग होते हैं-- इसका कारण यह है कि विवक्षित समयमें तीन वेदोंमें से किसी एक ही वेदकी उदीरणा हो सकेगी तथा उसके साथ उक्त चार संज्वलन कषायोंमें से किसी एक संज्वलन कषायकी भी उदीरणा होगी। इस प्रकार दो प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणामें बारह ( ४४३ = १२ ) भंग प्राप्त होते हैं। चार प्रकृतिरूप स्थानकी उदीरणामें चौबीस भंग होते हैं। वे इस प्रकारसे- तीन वेदोंमें से कोई एक वेद प्रकृति, चार संज्वलन कषायोंमें से कोई एक, तथा इनके साथ हास्य-रति या अरति-शोक इन दो युगलों में से कोई एक युगल रहेगा। इस प्रकार चार प्रकृतिरूप स्थानके चौबीस ( ३४४४२ = २४ ) प्राप्त होते हैं। इस चार प्रकृति
स्थानमें भय, जगप्सा, सम्यक्त्व' प्रकृति अथवा प्रत्याख्यानावरणादि चारमें से किसी एक प्रत्याख्यानावरण कषायके सम्मिलित होने पर पाँच प्रकृतिरूप स्थानके चार चौबीस ( २४४४ = ९६ ) भंग होते हैं । इसी प्रकारसे आगे भी छह प्रकृतिरूप स्थानके सात चौबीस ( २४४७ = १६८ ), सात प्रकृतिरूप स्थानके दस चौबीस ( २४४१० - २४० ), आठ प्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह चौबीस ( २४४११ = २६४ ), नौ प्रकृतिरूप स्थानके छह चौबीस ( २४४६ = १४४ ), तथा दस प्रकृतिरूप स्थानके एक चौबीस ( २४४१ = २४ ) भंग होते हैं। इस प्रकार मोहनीय कर्मकी स्थान उदीरणामें प्रथमतः स्थान समुत्कीर्तना करके तत्पश्चात् स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारोंके द्वारा उसकी ही प्ररूपणा की गई है।
इसी प्रकारसे ज्ञानावरणादि अन्य कर्मोके भी विषयमें पूर्वोक्त स्वामित्व आदि अधिकारोंके
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