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________________ उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३१७ सव्वमेदं होदु णाम, ण उच्चागोदादो तिरिक्खाउअस्स संखेज्जगुणत्तं; संखेज्जावलियमेत्तुच्चागोदसमयपबद्धेसु दिवड्ढगुणहाणीए छिण्णेसु एगसमयपबद्धस्स असंखे० भागुवलंभादो संखेज्जावलियछिण्णतिरिक्खाउअम्हि समयपबद्धस्स संखेज्जदिभागत्तुवलंभादो। ण च उव्वेलणाचरिमफालिदवे वि गहिदे संखेज्जगुणत्तं जुज्जदे, तिस्से पलिदोवमस्स असंखे० भागपमाणत्तादो। जदि असण्णीसु उच्चागोदस्स उक्कस्ससंचयं करिय वाउक्काइएसुप्पज्जिय अंतोमुहत्तुवेल्लणाए संखेज्जावलियमेत्तट्टिदि ठविय असण्णीसुप्पज्जिय उच्चागोदोदइल्लेसुपप्पज्जदि तो एदं घडदे। ण च उव्वेल्लणकालो जहण्णओ वि अंतोमुत्तमेत्तो अत्थि, एइंदिएहि आढत्तद्विदिखंडयाणमायामस्स पलिदोवमस्स असंखे० भागणियमुवलंभादो त्ति ? ण, सयलसुदविसयावगमे पयडिजीवभेदेण णाणाभेदभिण्णे असंते एदं ण होदि ति वोत्तुमसक्कियत्तादो। तम्हा सुत्ताणुसारिणा सुत्ताविरुद्धं वक्खाणमवलंबेयव्वं ।। __ ओरालिय० संखे० गुणो । तेजा० विसे० । कम्मइय० विसे० । तिरिक्खगइ० संखे० गुणो। जसकित्ति-अजसकित्ति० विसेसा० । अण्णदरवेदे विसे० । दाणंतराइय० विसे । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे० । परिभोगंतरा० विसे० । वरि० शंका-- यह सब वैसा हो, किन्तु उच्चगोत्रकी अपेक्षा तिर्यंच आयके संख्यातगणत्व सम्भव नहीं है; क्योंकि, संख्यात आवलियों मात्र उच्चगोत्रके समयप्रबद्धोंमें डेढ गुणहानिका भाग देनेपर एक समय प्रबद्धका असंख्यातवां भाग पाया जाता है, तथा संख्यात आवलियोंसे भाजित तिर्यच आयुमें समयप्रबद्धका संख्यातवां भाग पाया जाता है। यदि कहा जाय कि उद्वेलनाकी अन्तिम फालिके द्रव्यको ग्रहण करनेपर तिर्यंच आयुके संख्यातगुणत्व बन सकता है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि, वह ( फालि ) पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यदि असंज्ञी जीवोंमें उच्चगोत्रके उत्कृष्ट संचयको करके फिर वायकायिक जीवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहुर्त उद्वेलना द्वारा संख्यात आवली मात्र स्थितिको स्थापित कर असंज्ञियोंमें उत्पन्न होकर उच्चगात्रके उदय युक्त जीवों में उत्पन्न होता है तो यह घटित हो सकता है, परन्तु उद्वेलनाका काल जघन्य भी अन्तर्मुहुर्त मात्र नहीं है; क्योंकि, एकेन्द्रियों के द्वारा प्रारम्भ किये गये स्थितिकाण्डकोंके आयामके पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होनेका नियम पाया जाता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, प्रकृतियों और जीवोंके भेदसे नाना भेदोंको प्राप्त हुए समस्त श्रुतविषयक ज्ञानके न होने पर यह नहीं हो सकता' ऐसा कहना शक्य नहीं है। इस कारण सूत्रका अनुसरण करनेवाले प्राणीको सूत्रसे अविरुद्ध व्याख्यानका अवलम्बन करना चाहिये। __ तिर्यंच आयके उत्कृष्ट प्रदेशोदयकी अपेक्षा औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशोदय संख्यातगुणा है। उससे तैजसशरीरका विशेष अधिक है। कार्मणशरीरका विशेष अधिक है। तिर्यचगतिका संख्यातगुणा है। यशकीर्ति व अयशकीर्तिका विशेष अधिक है। अन्यतर देवका विशेष अधिक है। दानान्तरायका विशेष अधिक है। लाभान्तरायका विशेष अधिक है। 0 अ-काप्रत्योः 'उच्चागोदइल्लेसु-' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः ‘आदत्त' इति पाठः । का-ताप्रत्योर्नोग्लभ्यते वाक्यमिदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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