SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१६ ) छक्खंडागमे संतकम्म विसे। णिद्दाणिद्दाए विसे० । थोणगिद्धीए विसेसा० । मिच्छत्ते असंखे० गुणो । केवलणाण० विसे० । केवलदंसण० विसे० । अपच्चवखाण० विसे० । पच्चक्खाण० विसे। अणंताणुबंधि० विसे० । णिरयगई० अणंतगुणो । देवगई विसे०। मणुसगई० विसे० । देवाउ० असंखे० गुणो। णिरयाउ० विसे० । मणुसाउ० संखे० गुणो । उच्चागोद० असंखे० गुणो। तिरिक्खाउ० संखे० गुणो । णिरय-देव-मणुसगईण देव-णिरय-मणुस्साउआणमुच्चागोदस्स य कधमसण्णीसुदओ ? ण, असण्णिपच्छायदाणं णेरइयादीण मुवयारेण असण्णित्तब्भुवगमादो । मणुसगइपदेसोदयादो देवाउआदीणं पदेसोदयस्स कुदो असंखेज्जगुणत्तं ? ण, विलिदिए मोत्तूण पयदअसण्णिपंचिदिएसु चेव संचिददव्वग्गहणे तदविरोहादो । मणुस्साउअउक्कस्सोदयादो उच्चागोद-तिरिक्खाउआणमुक्कस्सोदयस्स कुदो असंखेज्जगुणत्तं ? ण, बंधगद्धाए असंखेज्जगुणत्तेण च आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स अंतोमुहुत्तत्तमसिद्धं, एदम्हादो चेव सुत्तादो तस्स तब्भावसिद्धीदो। प्रचलाका विशेष अधिक है । निद्रानिद्राका विशेष अधिक है । स्त्यानगुद्धिका विशेष अधिक है । मिथ्यात्वका असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानावरणका विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणका विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है। अनन्तानुबंधिचतुष्कमें अन्यतरका विशेष अधिक है। नरकगतिका अनन्तगुणा है । देवगतिका विशेष अधिक है। मनुष्यगतिका विशेष अधिक है। देवायुका असंख्यातगुणा है । नारकायुका अिशेष अधिक है । मनुष्यायुका संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रका असंख्यातगुणा है । तिर्यगायुका संख्यातगुणा है । शंका- नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, देवायु, नारकायु, मनुष्यायु और उच्चगोत्रका उदय असंज्ञी जीवोंमें कैसे सम्भव है ? समाधान- नही, क्योंकि, असंज्ञी जीवोंमेंसे पीछे आये हुए नारकी आदिकोंको उपचारसे असंज्ञी स्वीकार किया गया है। ___ शंका- मनुष्यगतिके प्रदेशोदयकी अपेक्षा देवायु आदिकोंका प्रदेशोदय असंख्यातगुणा कसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, विकलेन्द्रियोंको छोडकर प्रकृत असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें ही संचित द्रव्यका ग्रहण करनेपर उसमें कोई विरोध नहीं है। शंका- मनुष्यायुके उत्कृष्ट प्रदेशोदयसे उच्चगोत्र और तिर्यंचआयुका उत्कृष्ट प्रदेशोदय असंख्यातगुणा कैसे है ? __ समाधान- नहीं, बन्धककालके असंख्यातगुणे होनेसे भी आवलीके असंख्यातवें भागके अन्तर्मुहूर्तता असिद्ध है, इसी सूत्रसे ही उसके असंख्यातगुणत्व सिद्ध है। ० अप्रतौ ‘णिरयगई०' इति पाठः। * अप्रतौ ‘णेरयदीण', काप्रती 'णिरयादीण'. ताप्रती 'णेरयादीण' इति पाठः। *ताप्रती 'असंखेज्जगुणतं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy