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उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा
( २७३ हाणी थोवा । वड्ढी अवठ्ठाणं च दोण्णि वि तुल्लाणि असंखे०गुणाणि । तित्थयरणामाए हाणि-अवट्ठाणाणि णत्थि, वड्ढी एक्का चेव ।
एत्तो वढिउदीरणा० । तत्थ समुक्कित्तणा- मदिआवरणस्स अत्थि असंखे० भागवड्ढी संखे० भागवड्ढी संखे० गुणवड्ढी असंखे० गुणवड्ढी असंखेज्जभागहाणी संखे० भागहाणी संखे० गुणहाणी असंखे० गुणहाणी अवट्ठाणं चेदि । एवं सव्वकम्माणं । णवरि केसिंचि सादादीणं अवत्तव्वेण सह दस होति । तित्थयरणामाए असंखे० गुणवड्ढी अवट्टिदमवत्तव्वं च तिण्णि चेव होति। समुक्कित्तणा गदा।
___ सामित्तं वुच्चदे । तं जहा- चउविहाए वड्ढीए चउन्विहाए हाणीए अवट्ठाणस्स य को सामी? अण्णदरो । एवं सव्वकम्माणं वत्तन्वं । एयजीवेण कालो- तिण्णिवड्ढि-तिण्णिहाणीणं जह० एगसमओ, उक्क आवलि० असंखे० भागो। असंखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्जगुणहाणोणं जह० * एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं। जाणि कम्माणि उवसामगो उदीरेदि तेसि कम्माणमवट्ठाणस्स उक्कस्सकालो अंतोमहत्तं । जाणि केवली उदीरेदि तेसिमवट्ठियस्स उक्कस्सकालो पुव्वकोडी देसूणा। एयजीवेण अंतरं
विशेष इतना है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व असंख्यातगुणे हैं। तीर्थंकर नामकर्मकी हानि व अवस्थान सम्भव नहीं है। उसकी एक मात्र वृद्धि ही होती है।
यहां वृद्धिउदीरणाकी प्ररूपणा करते हैं। उसमें समुत्कीर्तना- मतिज्ञानावरणके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवस्थान भी होता है। इसी प्रकार सब कर्मोंके सम्बन्धमें कहना चाहिये। विशेष इतना है कि किन्हीं सातावेदनीय आदि विशेष कर्मोके अवक्तव्यके साथ वे दस पद होते हैं। तीर्थंकर नामकर्मके असंख्यातगुणवृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन ही पद होते हैं। समुत्कीर्तना समाप्त हुई ।
स्वामित्वका कथन करते हैं । यथा- मतिज्ञानावरणकी चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थानका स्वामी कौन है ? उनका स्वामी अन्यतर जीव है। इसी प्रकार सब कर्मोंके कहना चाहिये।
एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं- तीन वृद्धियों और तीन हानियोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलिके असंख्यातवें भाग मात्र है। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। जिन कर्मोंकी उपशामक उदीरणा करता है उन कर्मों के अवस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। जिन कर्मोकी केवली उदीरणा करते हैं उनक अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि मात्र
ताप्रती ' वड्डिउदीरणा' इति पाठः । * अप्रतौ 'हाणीणं जहण्णीणं' इति पाठः ।
* अ-काप्रत्योः 'उवसमगो' इति पाठ:।। Jain Education International
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