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________________ २७४ ) काले साधेण यव्वं । तो णाणाजीवेहिभंगविचओ कालो अंतरं च भाणियत्वं । एत्तो अप्पाबहुअंमदिआवरणस्स अवट्ठिदउदीरया थोवा । असंखेज्जभागवड्ढि उदीरया असंखेज्जगुणा । असंखे० भागहाणिउदीरया विसेसाहिया । संखे० भागवड्ढिउ० संखे० गुणा । संखे० भागहाणिउ० विसेसा० । संखे० गुणवड्ढि उ० संखे० गुणा । संखेज्जगुणहाणिउदी० विसे० । असंखे० गुणवड्ढिउ० असंखे० गुणा । असंखे० गुणहाणिउदीरया विसेसाहिया । एवं सव्वकम्माणं कायव्वं । छक्खंडागमे संतकम्मं जेसि कम्माणं अवत्तव्वया अणंता तेस अप्पाबहुअं । तं जहा - अवट्ठिदउदीरया थोवा । असंखेज्जभागवड्ढिउदीरया असंखे० गुणा । असंखेज्जभागहाणिउदीरया विमेाहिया । संखेज्जभागवड्ढिउ० संखेज्जगुणा । संखेज्जभागहाणिउ० विसेसा० । संखेज्जगुणवड्ढि उदीरया संखेज्जगुणा । संखेज्जगुणहाणिउ० विसेसा० । अवत्तव्व० असंखे ० ० गुणा । असंखेज्जगुणवड्ढि उ० असंखे० गुणा । असंखेज्जगुणहाणिउ ० विसेसा० । परित्तजीवियाणं कम्माणं जिया * अत्थि तेसि एसो चेव अप्पाबहुगालावो कायव्वो । जाणि कम्माणि अनंतजीवियाणि परित्ता जेसि अवत्तव्वया तेसिं है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरको कालसे सिद्ध करके ले जाना चाहिये । } यहां नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरका कथन करना चाहिये यहां अल्पबहुत्व - मतिज्ञानावरणके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं । असंख्यातमाग वृद्धिउदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात भागहानिउदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यात भागवृद्धि उदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यात भागहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यातगुणवृद्धि उदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । असंख्यातगुणवृद्धि उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सब कर्मों के सम्बन्ध में अल्पबहुत्व करना चाहिये । जिन कर्मोंके अवक्तव्य उदीरक अनन्त हैं उनका अल्पबहुत्व कहा जाता है । वह इस प्रकार है- उनके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं । असंख्यात भागवृद्धि उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात भागहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यात भागवृद्धि उदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यात भागहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । संख्यातगुणवृद्धिउदीरक संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात - गुणवृद्धि उदीरक असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातगुणहानि उदीरक विशेष अधिक हैं । जिन कर्मोंके उदीरक परीत संख्यावाले जीव हैं उनके यही अल्पबहुत्व आलाप करना चाहिये। जिन कर्मों के उदीरक अनन्त हैं, उनमें भी जिनका अवक्तव्य पद परीतसंख्याक जीवोंके होता है, उन ताप्रती ' भाणियव्को' इति पाठः । * अप्रतौ 'उदीरणा' इति पाठः । * मप्र तिपाठोऽयम् । अ-काप्रतिषु ' जेया ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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