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________________ २७२) छक्खंडागमे संतकम्म अरदि-सोगाणं सव्वत्थोवमवट्ठाणं । हाणी असंखे०गुणा । वड्ढी असंखेज्जगुणा। आउआणं वड्ढी थोवा। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । तिण्णं गईणं चदुण्णं जादोणं च उक्कस्सिया वड्ढी थोवा। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसा० । मणुसगइणामाए उक्क० हाणी थोवा। अवट्ठाणमसंखे० गुणं । वड्ढी असंखे० गुणा । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघाद-पंचसंठाण-वज्जरिसहसंघडण-परघाद--उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-दुस्सर-दुस्सराणं उक्कस्सिया हाणी थोवा । अवट्ठाणमसंखे०गुणं । वड्ढी असंखे० गुणा । वेउन्वियआहारसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघाद-आदावुज्जोव-थावर-सुहम-अपज्जत्त- साहारणाणं उक्क० वड्ढी थोवा । हाणी अवढाणं च विसेसाहियं । चदुण्णमाणुपुवीणमुक्क० हाणी अवट्ठाणं च थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । उवसमसेढिम्हि उदयसंभवसंघडणाणं वड्ढी अवट्ठाणं थोवं । हाणी विसे० । सेसाणं संघडणाणं वड्ढी थोवा । हाणी अवट्ठाणं च विसे० । अजसगित्ति-दूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं उक्क० हाणी अवट्ठाणं च थोवे । वड्ढी असंखेज्जगुणा । एवमुक्कस्सप्पाबहु समत्तं । पदेसउदीरणाए मदिआवरणस्स जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि तिणि वि तुल्लाणि । जधा मदिआवरणस्स तधा सव्वकम्माणं पि अप्पाबहुअं अत्थि*, सव्वकम्मजहण्णवड्ढ-हाणि-अवट्ठाणाणं तुल्लत्तुवलंभादो। णवरि सम्मत्त-सम्माच्छित्ताणं जहणिया अरति व शोकका अवस्थान सबमें स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । आयु कर्मोंकी वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनोंही तुल्य व विशेष अधिक हैं। तीन गतियों व चार जातियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक है । मनुष्यजाति नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। अवस्थान असंख्यातगुणा है । वृद्धि असंख्यातगुणी है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात, पांच संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, सुस्वर और दुस्वर; इनकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । अवस्थान असंख्यातगुणा है । वृद्धि असंख्यातगुणी है। वैक्रियिक व आहारक शरीर तथा उनके अंगोपांग, बन्धन व संघात; आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारणकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान विशेष अधिक हैं। चार आनुपूर्वियोंका उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों स्तोक हैं। वृद्धि असंख्यातगुणी है। उपशमश्रेणिमें जिनका उदय सम्भव है उन संहननोंकी वृद्धि और अवस्थान दोनों स्तोक हैं । हानि विशेष अधिक है । शेष संहननोंकी वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान विशेष अधिक हैं। अयशकीति, दुभंग, अनादेय और नीचगोत्रकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान दोनों स्तोक हैं । वृद्धि असंख्यातगुणी है । इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। प्रदेशउदीरणामें मतिज्ञानावरणकी जघन्य द्धि, हानि व अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं । जैसे मतिज्ञानावरणके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की है वैसे ही सभी कर्मों के अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, सब कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानमें तुल्यता पायी जाती है । का-ताप्रत्योः 'पुधअसंभव' इति पाः। * अ-काप्रत्योः ‘णत्यि', तापतौ ‘ण(अ) त्थि' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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