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________________ पफमाणुयोगद्दारे संतकज्जवादो सव्वप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो । जदि एयंतेण ण कारणाणुसारि चेव कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदव्वादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेयणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ती पावेज्ज । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हाळ कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि । एत्थ परिहारो वुच्चदे-- होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारितं, ण सव्वप्पणा; उप्पाद-वय-ट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्वाणं सगवइसेसियगुणाविणाभाविसयलगुणाणमपरिच्चाएण पज्जायंतरगमणदसणादो। ण च कम्मइयवग्गणादो कम्माणि एयंतेण पुधभूदाणि, णिच्चेयणत्तेण मुत्तभावेण पोग्गलत्तेण च ताणमेयत्तुवलंभादो। ण च एयंतेण अपुधभूदाणि चेव, णाणावरणादिपयडिभेदेण दिदिभेदेण अणुभागभेदेण च जीवपदेसेहि अण्णोण्णाणुगयत्तेण च भेदुवलंभादो। तदो सिया कज्जं कारणाणुसारि सिया णाणुसारि त्ति सिद्धं । असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शवतस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।। १ ॥ जाती है। इसके अतिरिक्त, जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि, कार्य सर्वात्मना कारण रूप ही रहेगा इसलिए उसकी उत्पत्तिका विरोध है । शंका-- यदि सर्वथा कारणका अनुसरण करनेवाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्यसे अमूर्त आकाशकी उत्पत्ति हो जानी चाहिये, इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्यसे सचेतन जीव द्रव्यकी भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिये । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। इसीलिये कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिये ? समाधान-- यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूपसे कार्य कारणानुसारी भले ही हो, परन्तु वह सर्वात्म स्वरूपसे वैसा सम्भव नहीं है; क्योंकि, उत्पाद व्यय व ध्रौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गणोंके अविनाभावी समस्त गुणोंका परित्याग न करके अन्य पर्यायको प्राप्त होते हुए देख जाते हैं। दूसरे, कर्म कार्मण बर्गणासे सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि, उनमें अचेतनत्व, मूर्तत्व और पौद्गलिकत्व स्वरूपसे कार्मण वर्गणाके साथ समानता पायी जाती है। इसी प्रकार वे उससे सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि, ज्ञानावरणादि रूप प्रकृतिभेद, स्थितिभेद व अनुभागभेदसे तथा जीवप्रदेशोंके साथ परस्पर अनुगत स्वरूपसे उनमें कार्मण वर्गणासे भेद पाया जाता है। इसलिये कार्य कथंचित् कारणानुसारी है और कथंचित् वह तदनुसारी नहीं भी है, यह सिद्ध है। शंका-- चूंकि असत् कार्य किया नहीं जा सकता है, उपादानोंके साथ कार्यका सम्बन्ध रहता है, किसी एक कारणसे सभी कार्योंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, समर्थ कारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, तथा कार्य कारणस्वरूप ही है-- उससे भिन्न सम्भव नहीं है; अतएव इन हेतुओंके द्वारा कारणव्यापारसे पूर्व भी कार्य सत् ही है, यह सिद्ध है ॥ १ ॥ ४ काप्रतो 'तं जहा ' इति पाठ।। * सांख्यकारिका ९. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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