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________________ उवकमाणुयोगद्दारे उवसामणाउवक्कमो ( २८१ आवलियाहि ऊणाओ। आउअस्स पुवकोडितिभागेण सादिरेयतेत्तीसंसागरोवमाणि दोआवलिऊणाणि । जद्विदी आवलिऊणा। णामा-गोदाणं वीससागरोवमकोडाकोडीओ दोहि आवलियाहि ऊणाओ। जहण्णअद्धाच्छेदो--णाणावरण-दंसणावरण-वेयणीय-अंतराइयाणं जहण्णट्ठिदिउवसामणा सागरोवमस्स तिण्णि-सत्तभागा पलिदो० असंखे० भागेण ऊणया ।मोहणी. यस्स सागरोवमं पलिदो० असंखे० भागेण ऊणयं । णामा-गोदाणं सागरोवमस्स बे-सत्तभागा पलिदो० असंखे० भागेण ऊणया। आउअस्स खुद्दाभवग्गहणसंखेज्जदिभागो । एवमद्धाछेदो समत्तो। सामित्तं। तं जहा- सव्वकम्माणं जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए सामित्तं कदं तहा एत्थ वि कायव्वं । जहा अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णट्टिदिउदीरणासामित्तं कदं तहा द्विदिउवसामणासामित्तं ओघजहण्णम्मि कायव्वं । एयजीवेण कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरंसण्णियासो अप्पाबहुअंचेदि एदाणि अणुयोगद्दाराणि जहा अभवसिद्धियपाओग्गदिदिउदीरणाए कदाणि तहा एत्थ कायव्वाणि । भुजगारो* पदणिक्खेवो वड्ढी च जहा ट्ठिदिउदीरणाए कदा तहा टिदिउवसामणाए वि कायव्वा। उत्तरपयडि काल तक होती है। आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति उपशामना दो आवलियोंसे कम और पूर्वकोटित्रिभागसे साधिक तेतीस सागरोपम काल तक होती है। उसकी जस्थिति उपशामना एक आवलीसे कम उतनी मात्र होती है। नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिउपशामना दो आवलियोंसे कम बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र होती है । __ जघन्य अद्धाच्छेद- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकी जघन्य स्थितिउपशामना एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन तीन भाग प्रमाण होती है। वह मोहनीयकी पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम मात्र काल तक होती है। नाम व गोत्र कर्मकी एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन दो भाग मात्र होती है। आयुकी जघन्य स्थितिउपशामना क्षुद्रभवग्रहणके संख्यातवें भाग मात्र होती है। इस प्रकार अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणामें सब कर्मोका स्वामित्व किया गया है वैसे ही उसे यहां भी करना चाहिये। जिस प्रकारसे अभव्य सिद्धिक प्रायोग्य जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामित्व किया गया है उसी प्रकारसे ओघ जघन्यमें स्थितिउपशामनास्वामित्वको करना चाहिये। एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व ; इन अनुयोगद्वारोंको जैसे अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य स्थितिउदीरणामें किया गया है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिय। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा जसे स्थितिउदीरणामें की गयी है वैसे स्थितिउपशामनामें भी करना ० मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'आवलिऊणाणि' इति पाठः । * अप्रतौ ‘तहा कायव्वाणि एत्थ भुजगारो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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