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________________ २८० ) छक्खंडागमे संतकम्म विसेसा० । तिरिक्खाउअस्स विसेसा० । अणंताणुबंधीणं विसेसा० । मिच्छत्तस्स विसेसा० । सेसाणं कम्माणमुवसामया तुल्ला विसेसाहिया । एत्थ भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी च णत्यि । पयडिट्टाणुवसामणा- णाणावरण-दसणावरण-वेयणीय-अंतराइयाणमेक्कं चेव टाणं । गोदाउआणं दोण्णि द्वाणाणि । मोहणीयस्स अत्थि अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीसपणुवीस-चउवीस-एक्कवीसपयडिउवसामणटाणाणि । एदेसि ढाणाणं एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुरं भुजगारपदणिक्खेववड्ढिउवसामणाओ कायव्वाओ। णामस्स तिउत्तरसदं विउत्तरसदं छण्णवुदिपंचाणउदि-तिणउदि-चउरासीदि-वासीदि ति सत्तण्णं द्वाणाणमुवसामणा अत्थि, सेसाणं णत्थि । एवं पयडिउवसामणा समत्ता। ठिदिउवसामणा दुविहा मूलपयडिदिदिउवसामणा उत्तरपयडिदिदिउवसामणा चेदि । तत्थ मुलपयडिट्रिदिउवसामणाए ताव अद्धाच्छेदो वच्चदे। तं जहा- णाणावरणस्स उक्कस्सटिदिउवसामणा तीससागरोवमकोडाकोडीओ दोहि आवलियाहि ऊणाओ। जट्टिदिउवसामणा तीससागरोवमकोडाकोडीओ आवलियाए ऊणाओ। एवं दसणावरणीय-वेयणीय-अंतराइयाणं । मोहणीयस्स सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ दोहि उपशामक विशेष अधिक हैं । अनन्तानुबन्धी कषायोंके उपशामक विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वके उपशामक विशेष अधिक हैं । शेष कर्मोंके उपशामक तुल्य व विशेष अधिक हैं । यहां भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि की सम्भावना नहीं है। प्रकृतिस्थान उपशामना- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका एक ही उपशामनास्थान है । गोत्र व आयुके दो उपशामनास्थान हैं। मोहनीयके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतियोंके उपशामनास्थान हैं । एक जीवकी अपेक्षा इन स्थानोंके स्वामित्व, काल व अंतर एवं नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल व अन्तर तथा अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप व वृद्धि उपशामनाको करना चाहिये । नामकर्म सम्बन्धी एक सौ तीन, एक सौ दो, छयानवे, पंचानवै, तेरानवै चौरासी और ब्यासी प्रकृतियों रूप इन सात स्थानोंकी उपशामना है । शेष स्थानोंकी उपशामना नहीं है। इस प्रकार प्रकृतिउपशामना समाप्त हुई। स्थितिउपशामना दो प्रकार है- मूलप्रकृतिस्थितिउपशामना और उत्तरप्रकृतिस्थितिउपशामना। उनमें पहिले मलप्रकृतिस्थितिउपशामनाके अद्धाछेदकी प्ररूपणा की जाती वह इस प्रकार है- ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिउपशामना दो आवलियोंसे कम तीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र काल तक होती है । उसकी जस्थितिउपशामना एक आवलीसे कम तीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र काल तक होती है। इसी प्रकार दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थितिउपशामना तथा जस्थि उपशामनाका कथन करना चाहिये। मोह नीयकी उत्कष्ट स्थितिउपशामना दो आवलियोंसे कम सत्तर कोडाकोडि सागरोपम मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ने जाती है।
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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