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________________ उव+माणियोगद्दारे उवसामणा उक्कमो ( २७९ कम्माणं सादियसंतकम्मिओ जीवो तेसि कम्माणमुवसामयंतरं जह० एगसमओ, उक्क० जं जिस्से पयडीए संतकम्मस्स अंतरं उक्कस्सेण परूविदं तं परूवेयव्वं । णवरि देवाउअवज्जाणमाउआणं जह० अंतोमुहुत्तं । पाणाजीवेहि भंगविचओ--मदिआवरणस्स सिया सव्वे जीवा उवसामया' सिया उवसामया च अणुवसामओ च, सिया उवसामया च अणुसामया च । जहा मदिआवरणस्स तिणि भंगा परुविदा तहा सव्वपयडीणं पि तिष्णि तिष्णि भंगा परूवेयव्वा । णरि जासि पयडिसंतं सजोगिम्मि अत्थि तासिमुवसामया अणुवसामया च णियमा अत्थि । कालो -- णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । अंतरं-- णाणाजीवे * पडुच्च णत्थि अंतरं । अप्पा बहुअं । तं जहा -- सवन्त्योवा आहारसरीरणामाए उवसामया । सम्मत्तस्स उवसामया असंखे० गुणा । सम्मामिच्छत्तस्स उव० विसेसाहिया । मणुमाउअस्स असंखेज्जगुणा । णिरयाउअस्स असंखे० गुणा । देवाउअस्स असंखे० गुणा । देवगइणामाए संखे० गुणा । णिरयगइणामाए विसेसा० । वेउव्वियसरीरणामाए त्रिसेसा० वेउब्वियछक्कमुव्वेल्लिऊण पुव्वं देवदुगबंधगेप डुच्चा उच्चागोदस्स अनंतगुणा । मणुसगइणामाए अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। जिन कर्मोंका उपशामक सादिसत्कर्मिक जीव है उन कर्मों के उपशामकका अन्तर जवन्यसे एक समय और उत्कर्ष से जिस प्रकृति के सत्कर्मका जो अन्तर उत्कर्ष से बतलाया गया है उसको कहना चाहिये । विशेष इतना है कि देवायुको छोड़कर शेष आयु कर्मोंके उपशामकका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- मतिज्ञानावरणके कदाचित् सब जीव उपशामक होते हैं, कदाचित् बहुत उपशामक व एक अनुपशामक, तथा कदाचित् बहुत उपशामक व बहुत अनुपशामक होते हैं । जिस प्रकार ये मतिज्ञानावरणके तीन भंग कहे गये हैं उसी प्रकार सब ही प्रकृतियोंके तीन भंग कहना चाहिये । विशेष इतना है कि जिनका प्रकृतिसत्त्व सयोगकेवली में है उनके बहुत उपशामक व बहुत अनुपशामक नियमसे होते हैं । काल - नाना जीवों की अपेक्षा उपशामकोंका काल सर्वकाल है । अन्तर- नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर सम्भव नहीं है । अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - आहारशरीर नामकर्मके उपशामक सबमें स्तोक हैं । सम्यक्त्वके उपशामक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के उपशामक विशेष अधिक हैं । मनुष्यायुके उपशामक असंख्यातगुणे हैं । नारकायके उपशामक असंख्यातगुणे हैं | देवायुके उपशामक असंख्यातगुणे हैं । देवगति नामकर्मके संख्यातगुणे हैं । नरकगति नामकर्मके उपशामक विशेष अधिक हैं । वैक्रियिकशरीर नामकर्मके उपशामक विशेष अधिक हैं । इसका कारण यह है कि वैक्रियिकषट्ककी उद्वेलना करके पहिले देवद्विकके बन्धकोंकी अपेक्षा यह अल्पबहुत्व कहा है । उच्चगोत्र के उपशामक अनन्तगुणे हैं । मनुष्यगति नामकर्मके उपशामक विशेष अधिक हैं । तिर्यगायके उपशामक Jain Education International प्रतिषु 'नागाजीवेण ' इति पाठ: । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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