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________________ २७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म उत्तरपयडिउवसामणा वुच्चदे । तं जहा-सामित्तं तेणेव पायदकरणेण पुवपरूविदेण परवेयध्वं । तं जहा--सव्वकम्माणमुवसामओ को होदि ? अण्णदरो। एयजीवेण कालो । तं जहा--सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्क० बे-छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणुस-तिरिक्खाउआणं जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं सादिरेय। उक्कस्सेण मणुस्साउअस्स तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, तिरिक्खाउअस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । देव-णिरयाउआणं जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । णिरय-मणुसदेवगइ-तदाणुपुवी-वेउव्विय-आहारसरीर-वेउव्विय-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघादतित्थयर-उच्चागोदाणं जहा* संतकम्मियस्स कालो परूविदो तहा परूवेयव्वो। सेसाणं सव्वकम्माणं उवसामयकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो वा । जो* सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । एयजीवेण अंतरं-जेसि कम्माणं अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो वा उवसंतकालो तेसि कम्माणमुवसामयंतरं जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । जेसि उत्तरप्रकृति उपशामनाकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-स्वामित्वकी प्ररूपणा पूर्वप्ररूपित उसी प्रकृत करणके अनुसार करना चाहिये । यथा-सब कर्मोंका उपशामक कौन होता है ? सब कर्मोंका उपशामक अन्यतर जीव होता है। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है । यया-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उपशामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। मनुष्यायु और तिर्यगायुका उक्त काल जघन्यसे साधिक क्षुद्रभवग्रहण मात्र है। उत्कर्षसे वह मनुष्यायुका पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पत्योपम और तिर्यगायुका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । उक्त काल देवायु और नारकायुका जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। नरकगति, मनुष्यगति, देवगन, वे तीनों आनुपूर्वी प्रकृतियां, वैक्रियिक व आहारकशरीर, वैक्रियिक व आहारक शरीरांगोपांग, उनके बन्धन व संघात, तीर्थकर तथा उच्चगोत्र; इनके कालकी प्ररूपणा जैसे सत्कमिकके कालकी की गयी है वैसे करना चाहिये । शेष सब कर्मोंका उपशामककाल अनादि-अपर्यवसित, अनादिसपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित है। जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर-जिन कर्मोंका उपशान्तकाल अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित है उन कर्मोंके उपशामकका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे * मप्रतिपाठोऽयम । अ-का-ता- 'जहाकमेण ' इति पाठः । * ताप्रतौ 'वा। उवसंरकालो तेपि कम्माणं जो' इति पाठः । Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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