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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २१३ णिरयगइणामाए उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो हुंडसंठाण-अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फाससीद-ल्हुक्ख-उवधाद-अप्पसत्थविहायगदि-अथिर-असुभ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजत - गित्तीणमुक्कस्साणुभागस्स सिया उदीरओ सिया अगुदीरओ। जदि अणुक्कस्समुदीरेदि तो तस्स छट्ठाणपदिदस्स उदीरओ। एवं सेसणामपयडीणं पि जाणियूण वत्तव्वं । दाणतरइयस्स उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो लाभ-भोग-परिभोग-वीरियंतराइयाणमकस्साणभागस्स सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ । जदि अणुवकस्समुदीरेदि तो णियमा छट्ठा णपदिदमुदीरेदि। जहा सादासादाणं तहा गोदाउआणं । एवं सत्थाणसण्णियासो समत्तो। एत्तो परत्थाणसण्णियासो वुच्चदे । तं जहा--आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो चउणाणावरणीय-ओहि-केवलदसणावरणीय-असाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-तिण्णिवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछ-णिरयाउ-णिरयगइ-तिरिक्खगइ-पंचसंठाणचत्तारिसंघडण-णीचागोदाणमण्णेसि च जेसिमसुभाणमुदीरओ तेसिमुक्कस्साणुभागस्स सिया उदीरओ सिया अणुउदीरओजदि अणुक्कस्समुदीरेदि तो छट्ठाणपदिद।अभिणि बारह कषाय और नव नोकषायका कदाचित् उदीरक है तथा कदाचित् अनुदीरक है। यदि वह उदीरक होता है तो नियमसे अनन्तगुणाहीन, ऐसे अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भी कहना चाहिए। नरकगति नामकर्मके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला हुण्डकसंस्थान, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व शीत-रूक्ष स्पर्श, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागका कदाचित् उदीरक और कदाचित अनदीरक होता है। यदि अनत्कष्ट अन भागकी उदीरणा करता है तो वह उसके षटस्थानपतितका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे शेष नामकर्मकी प्रकृतियोंके सम्बन्धमें भी जानकर कथन करना चाहिये। दानान्तरायके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला लाभान्तराय, भोगान्तरायः परिभोगान्तराय और वीर्यान्त रायके उत्कृष्ट अनुभागका कदाचित् उदीरक व कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि अनुत्कृष्टकी उदीरणा करता है तो वह नियमसे षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है। जैसे साता व असाता वेदनीयके संनिकर्षकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही दोनों गोत्रों और चारों आयुकर्मोके संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार स्वस्थानसंनिकर्ष समाप्त हुआ। यहां परस्थान संनिकर्षकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- आभिनिबोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला शेष चार ज्ञानावरणीय, अवधि व केवल. दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेद, अरति. शोक, भय, जुगुप्सा, नारकायु, नरकगति, तिर्यग्गति, पांच संस्थान, चार संहनन और नीच गोत्र; इनका तथा अन्य भी जिन अशुभ प्रकृतियोंका उदीरक होता है उनके उत्कृष्ट अनुभागका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता हैं। यदि उनके अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है तो षट्स्थानपतितकी उदीरणा करता है । आभिनिबोधिकज्ञानाररणके अनुत्कृष्ट अनुभागकी * प्रतिष 'अणुक्कस्स मुदीरेंतो' इति पाठ: Livate & Personal use Only Jain Educatiot प्रतिष 'अणुक्कस्स मुदीरेंतो' इति प www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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