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________________ ५४) छक्खंडागमे संतकम्म ___सेसासु गदीसु वड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि तिण्णि वि तुल्लाणि । एवं पदणिक्खेवो समत्तो। एतो वढिउदीरणा- संखेज्जभागवड्ढी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी अवट्टिदउदीरणा चेदि एत्थ चत्तारि चेव पदाणि होति । सेसं जाणिऊण वत्तव्वं । एवं मूलपडिउदीरणा समत्ता।। उत्तरपयडिउदीरणा दुविहा- एगेगपयडिउदीरणा पयडिट्ठाणउदीरणा चेदि । एगेगपयडिउदीरणाए सामित्तं उच्चदे- पंचण्णं णाणावरणीयाणं को उदीरगो ? अण्णदरो छदुमत्थो । आवलियचरिमसमयछदुमत्थो णवरि अणुदीरओ। एवमुवरिमसव्वे छदुमत्था अणुदीरया जाव चरिमसमयछदुमत्थो त्ति । एवं चत्तारिदसणावरणीय-पंचंतराइय-णिद्दा-पयलागं वत्तव्वं, विसेसाभावादो। णिद्दाणिद्दा-पयला मनुष्यगतिके सिवा शेष गतियोंमें वृद्धि, हानि व अवस्थान तीनों ही समान हैं। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। ___ आगे वृद्धिउदीरणाका कथन करते हैं- संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थितउदीरणा, ये चार ही पद यहां होते हैं। शेष कथन जानकर करना चाहिये। विशेषार्थ-- पहले पदनिक्षेपका कथन कर आये हैं। वहां उत्कृष्ट हानिका निर्देश करते समय पांचकी उदीरणा करनेवालेके दोकी उदीरणा करनेपर उत्कृष्ट हानि सम्भव है, उत्कृष्ट हानिके इस विकल्पका भी निर्देश किया है। अब यदि इस विकल्पकी विवक्षा की जाती है तो संख्यातगुणहानिके साथ चार पद सम्भव हैं और यदि इसकी विवक्षा नहीं की जाती है तो संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित ये तीन पद ही सम्भव है । __ इस प्रकार मूलप्रकृतिउदीरणा समाप्त हुई। उत्तरप्रकृतिउदीरणा दो प्रकारकी है- एक-एकप्रतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा। इनमें से एक-एकप्रकृतिउदीरणाके स्वामित्वका कथन करते हैं-- • पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंका उदीरक कौन होता है ? उनका उदीरक अन्यतर छद्मस्थ होता है। विशेष इतना है कि छद्मस्थकालके अन्तमें जिसके आवली मात्र काल शेष रहा है ऐसा छद्मस्थ जीव उनका उदीरक नहीं होता । इसी प्रकार छद्मस्थकी अन्तिम आवलीके प्रारम्भसे लेकर अन्तिम समय तकके आगेके सब छद्मस्थ जीव अनुदीरक हैं । इसी प्रकारसे चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, निद्रा और प्रचलाके विषयमें कथन करना चाहिये, क्योंकि, उनमें इनसे कोई विशेषता नहीं है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और - साना मोत्तण खीणरागं इंदियपज्जत्तगा उदीरेंति । णिहा-पयला सायासायाई जे पमत्त ति॥ पं. सं. ४, १९. इह कर्मस्तवकारादयः क्षग्क-क्षीणमोहयोरपि निद्राद्विकस्योदयमिच्छन्ति, उदये च सत्यवश्यमुदीरणा । ततस्तन्मतेनोक्तं क्षीणरागमन्तावलिकामात्रकाल माविनं मुक्त्वेति । ये पुनः सत्कर्माभिध ग्रन्थकारादयस्ते क्षपक-खीणमोहान् व्यतिरिच्य शेषाणामेव निद्राद्विकस्योदयमिच्छन्ति । तथा च तद्ग्रन्थः- 'णिद्दागुदस्स उदओ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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