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________________ (५५ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए सामित्तं पयला-थी गिद्धीणं च उदीरओ को होदि ? अण्णदरो इंदियपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तो । एदमादि काढूण एदासिमुदीरणाए ताव पाओग्गो होदि जाव पमत्तसंजदो त्ति णवरि पमत्तसंजदस्स उत्तरसरीरविउव्वणाभिमुहस्स चरिमावलियप्पहुडि उवरि जाव आहारसरीरमुट्ठविय मूलसरीरं पविसदि ताव अणुदीरगो । थोणगिद्वितियस्स अप्पमत्तसंजदा च देव णेरइया च आहारसरोरया च उत्तरसरीरं विउव्विदतिरिक्ख मणुस्सा च असंखेज्जवासाउआ च अणुदीरया । सादासादाणमुदीरणाए मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्ताहिमुहचरिमसमयपमत्तो त्ति पाओग्गो * । मिच्छत्तस्स मिच्छाइट्ठी चेव उदीरगो जाव सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठि ति । वरि उवसमसम्मत्तं पडिवज्जमाणमिच्छाइट्ठिस्स मिच्छत्तपढमद्विदीए आवलियसेसाए णत्थि उदीरणा । सम्मामिच्छत्तस्स सम्मामिच्छाइट्ठी जाव चरिमसमओ त्ति ताव उदीरगो । सम्मत्तस्स असंजदसम्माइद्विप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो ति तावउदीरया । णवरि सम्मत्तं खवेंतुवसामेंताणं सम्मत्तट्ठिदीए उदयावलियपविट्ठाए णत्थि स्त्यानगृद्धि, इनका उदीरक कौन होता है ? इन्द्रिय पर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके द्वितीय समय में रहनेवाला अन्यतर जीव उनका उदीरक होता है । इसको आदि लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक कोई भी जीव इन प्रकृतियोंकी उदीरणाके योग्य होता है । विशेषता इतनी है कि उत्तर शरीरकी विक्रिया अभिमुख हुए प्रमत्तसंयतकी अन्तिम आवलीसे लेकर आगे जब तक आहा शरीर उत्थित हो करके मूल शरीर में प्रविष्ट नहीं होता तब तक वह इनका अनुदीरक है । अप्रमत्तसंयत, देव, नारकी, आहारकशरीरी, उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त तिर्यञ्च व मनुष्य, तथा असंख्यातवर्षायुष्क ये सब उक्त स्त्यानगृद्धि आदि तीन प्रकृतियोंके अनुदीरक हैं । मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती प्रमत्तसंयत तक साता व असातावेदनीयकी उदीरणाके योग्य होता है । सम्यक्त्व अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि तक मिथ्यादृष्टि जीव ही मिथ्यात्व प्रकृतिका उदीरक होता है। विशेष इतना है कि उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व की प्रथम स्थितिमें एक आवलीके शेष रहनेपर उदीरणा नहीं होती । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपने अन्तिम समय तक सम्यग्मिथ्यात्वका उदीरक होता है । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सम्यक्त्व प्रकृतिके उदीरक होते हैं । विशेष इतना है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय अथवा उपशम करनेवाले जीवोंके सम्यक्त्वकी स्थिति के उदयावली में प्रविष्ट होनेपर उसकी उदीरणा सम्भव नहीं है । खवगे परिच्चज्ज | ' तन्मतेनोदीरणापि निद्राद्विकस्य क्षपक-क्षीणमोहान् व्यतिरिच्य शेषाणामेव वेदितव्या । तथा चोक्तं कर्म प्रकृतौ - इंदियपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तगाए पाउग्गा । णिद्दा पयलाणं खीणराग-खवगे परिचचज्ज ।। ( ४-१८ ) ( मलयगिरि टीका ) । निद्दानिद्दाईण वि असंखवासा य मणुय तिरिया य । वेउव्वाहारतणू वज्जित्ता अध्यमते य ॥ क. प्र. वेयणियाण पमत्ता xxx ॥ क. प्र. ताप्रती 'मुदीरया ( णा ) ए इति पाठः । काप्रती 'खइयेंतुवसामंताणं' इति पाठः । ४, १९ ४, २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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