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________________ २९६ ) छक्खंडागमे संतकम्म तिण्णिवेद-लोहसंजलण-पंचअंतराइणं जहण्णओ अणुभागउदओ कस्स ? जो एदेसि कम्माणं जहण्णअणुभागउदी ओ होदूण तदो आवलियाए अदिक्कंताए सो चेव जहण्णा. णुभागवेदओ होदि । एवं जहण्णाणुभागुदीरणासामित्तादो जहण्णाणुभागउदयस्स सामित्तस्स णाणत्तं । एयजीवेण कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवो वढि त्ति एदेहि अणुयोगद्दारेहि अणुभागउदीरणादो अणुभागउदयस्स णाणत्ताभावादो जहा एदेदि अणियोगद्दारेहि अणुभागउदीरणा परूविदा तहा अणुभागउदओ परूवेयव्वो। एवमणुभागउदओ समत्तो। एत्तो पदेसउदओ दुविहो मूलपयडिपदेस उदओ उत्तरपयडिपदेसउदओ चेदि । तत्थ मूलपयडिपदेसउदओ सव्वाणुओणदारेहि जाणिऊण परवेयव्वो। उत्तरपयडिउदए पयदं । सामित्तं जाणावणठें इमाओ एत्य दस गुणसेडीओ परूवेदव्वाओ । तं जहा-- सम्मत्तुप्पत्तीए सावय विरदे अणंतकम्म्मसे। दसणमोहवखवए कसायउवसामए य उवसंते ॥ १ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा । तव्विवरीओ कालो संखेज्जगुणाए सेडीए ॥ २ ॥ एदाहि दोहि गाहाहि दसण्णं गुणसेडीणं परूवणं णिक्खेवं च परूवेदूण तदो लोभ और पांच अन्तराय, इनका जघन्य अनुभागउदय किसके होता है ? जो जीव इन कर्मोका जघन्य अनुभागउदीरक होकर तत्पश्चात् एक आवलीको बिताता है वही उक्त आवलीके वीतनेपर उनके जघन्य अनुभागका वेदक होता है। इस प्रकार जघन्य अनुभागउदीरणाके स्वामीकी अपेक्षा जघन्य अनुभागउदयके स्वामीमें विशेषता है । एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि; इन अनुयोगद्वारोंमें अनुभागउदीरणाकी अषेक्षा चूंकि अनुभागउदयमें कोई भेद नहीं है, अत एव इन अनुयोगद्वारोंके द्वारा जैसे अनुभागउदीरणाकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही अनुभागउदयकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार अनुभागउदय समाप्त हुआ। यहां प्रदेशउदय दो प्रकारका है-मूलप्रकृतिप्रदेश उदय और उत्तरप्रकृतिप्रदेश उदय । उनमें मूलप्रकृतिप्रदेशउदयकी प्ररूपणा सब अनुयोगद्वारोंके द्वारा जानकर करना चाहिये । उत्तरप्रकृतिउदय प्रकृत है । स्वामित्वके ज्ञापनार्थ यहां इन दस गुणश्रणिर्योंकी प्ररूपणा की जाती हैं। यथा सम्यक्त्वोत्पत्ति, श्रावक, विरत (संयत), अनन्तकांश ( अन्तानुबन्धिविसंयोजक ), दर्शनमोहक्षपक, कषायोपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षोणमाह और जिन; इनके क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । किन्तु इस निर्जराका काल संख्यातगुणित श्रेणि रूपसे विपरीत है। जैसे-जिन भगवानकी गणश्रेणिनिर्जराका जितना काल है उससे क्षीणकषाककी गुणश्रेणिनिर्जराका काल संख्यातगुणा है, इत्यादि ।। १-२ ।। इन दो गाथाओंके द्वारा दस गुणश्रेणियोंकी प्ररूपणा और निक्षेपकी प्ररूपणा करके तत्पश्चात् जो O ष. ख. पु. १२ पृ. ७८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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