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________________ विषयपरिचय अग्रायणीय पूर्वके १४ अधिकारोंमें पांचवा चयनलब्धि नामका अधिकार है । उसमें २० प्राभृत हैं । इनमें चतुर्थ प्राभूत कर्मप्रकृतिप्राभृत है । उसमें निम्न २४ अधिकार हैं - १ कृति, २ वेदना, ३ स्पर्श, ४ कर्म, ५ प्रकृति, ६ बन्धन, ७ निबन्धन, ८ प्रक्रम, ९ उपक्रम, १० उदय, ११ मोक्ष, १२ संक्रम, १३ लेश्या, १४ लेश्याकर्म, १५ लेश्यापरिणाम, १६ सातासात, १७ दीर्घ--हस्व, १८ भवधारणीय १९ पुद्गलात्त (पुद्गलात्म), २० निधित्त-अनिधत्त, २१ निकाचित-अनिकाचित, २२ कर्म स्थिति, २३ पश्चिमस्कंध और अल्पबहुत्व । इन २४ अधिकारों से प्रस्तुत षट्खंडागम (मूलसूत्र) के वेदना नामक चतुर्थ खण्डमें कृति (पु. ९) और वेदनाकी (पु. १०-१२) तथा वर्गणा नामक पांचवे खंड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति ( पु. १३ ) अधिकारोंकी प्ररूपणा की गयी है। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान इन ४ अवान्तर अनुयोगद्वारोंमें विभक्त है। इनमें से बन्ध और बन्धनीय अधिकारोंकी भी प्ररूपणा वर्गणाखण्ड ( पु. १४) में की गयी है । बन्धक अधिकारकी प्ररूपणा खुद्दाबन्ध नामक द्वितीय खण्डमें तथा बन्धविधान नामक अवान्तर अधिकारकी प्ररूपणा महाबन्धन नामक छठे खण्डमें की गयी है । इस प्रकार मूल षट्खंडागममें पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारोंमेंसे प्रथम ६ अनुयोगद्वारोंके ही विषयका विवरण किया गया है। शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंको प्ररूपणा यद्यपि मूल षट्खंडागममें नहीं की गयी है फिर भी वर्गणाखण्डके अन्तिम सूत्रको देशामर्शक मानकर उनकी प्ररूपणा अपनी धवला टीका ( पु. १५-१६) में वीरसेनाचार्य ने प्राप्त उपदेशके अनुसार संक्षेपमें कर दी है। इसका नाम सत्कर्म प्रतीत होता है । उन शेष १८ अनुयोगद्वारों में से निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय ये ४ (७-१०) अनुयोगद्वार पुस्तक १५ में प्रकाशित हो रहे हैं। तथा शेष १४ (११-२४) अनुयोगद्वार पुस्तक १६ में प्रकाशित किये जायेंगे। इनका विषयपरिचय संक्षेप में इस प्रकार है। ७ निबंधन- 'निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम् ' इस निरुक्तिके अनुसार जो द्रव्य जिसमें निबद्ध है उसे निबन्धन कहा जाता है । निक्षेपयोजनामें इसके ये ६ भेद किये गये हैं- नामनिबन्धन, 0 इसके ५ भाग भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं और शेष २ भाग भी उक्त संस्थाके द्वारा शीघ्र प्रकाशित होनेवाले हैं। भदबलिभडारएण जेणेदं सुतं देसामासिय मावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसअट्ठारसअणियोगद्दाराणं किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो। पु. १५, पृ. १. * महाकम्मपय डि ........ सब्वाणि परूविदाणि । संतकम्मपंजियाकी उत्थानिका (पु. १५, परिशिष्ट पृ. १. ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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