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________________ ( ४ ) स्थापना निबन्धन, द्रव्यनिबन्धन, क्षेत्रनिबन्धन, कालनिबन्धन और भावनिबन्धन । इन सबके स्वरूपका विवरण करते हुए यहाँ नाम और स्थापना निबन्धनोंको छोडकर शेष ४ निबन्धनोंको प्रकृत बतलाया है । साथ में यहाँ यह भी निर्देश किया गया है कि यद्यपि इस निबन्धन अनुयोगद्वार में छहों द्रव्योंके निबन्धनको प्ररूपणा की जाती है फिर भी अध्यात्मविद्याका अधिकार होनेसे यहाँ उन सबको छोड़कर केवल कर्म - निबन्धन की ही प्ररूपणा यहाँ की गयी है । सर्वप्रथम यहाँ निबन्धन अनुयोगद्वारकी आवश्यकता प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा कर्मों और उनके मिथ्यात्वप्रभृति प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की जा चुकी है। साथ ही कर्मरूप होने की योग्यता रखनेवाले पुद्गलोंका भी विवेचन किया ही जा चुका है । किन्तु उन कर्मोंकी प्रकृति कहाँ किस प्रकार होती है, यह नहीं बतलाया गया है । इसीलिये कर्मोंके इस व्यापारको प्ररूपणा के लिये प्रकृत निबन्धन अनुयोगद्वारका अवतार हुआ है । नोआगमकर्मनिबन्धन के दो भेद हैं- मूलकमंनिबन्धन और उत्तरकर्मनिबन्धन । इनमें से मूलकर्मनिबन्धनमें ज्ञानावरणादि ८ मूल प्रकृतियोंके तथा उत्तरकर्मप्रकृतिनिबन्धनमें इन्हीं के उत्तर भेदोंके निबन्धनकी प्ररूपणा की गयी है । ८ प्रक्रम- यहाँ निक्षेपयोजना करते हुए प्रक्रमके ये ६ भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- नामप्रक्रम, स्थापनाप्रक्रम, द्रव्यप्रक्रम, क्षेत्रत्रक्रम, कालप्रक्रम और भावप्रक्रम । इनके कुछ और उत्तर भेदोंका उल्लेख करते हुए यहाँ कर्मप्रक्रमको अधिकार प्राप्त बतलाया है तथा ' प्रक्रामतीति प्रक्रमः इस निरुfare अनुसार प्रक्रमसे कार्मण पुद्गलप्रचयका अभिप्राय बतलाया है । ' यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि जिस प्रकार कुंभार एक मिट्टी के पिण्डसे अनेक घटादिकों को उत्पन्न करता है उसी प्रकार यह संसारी प्राणी एक प्रकारके कर्मको बांधकर फिर उससे आठ प्रकारके कर्मोको उत्पन्न करता है, क्योंकि, अन्यथा अकर्म पर्याय से कर्मपर्यायका उत्पन्न होना सम्भव नहीं है । इसके उत्तमें कहा गया है कि जब अकर्म से कर्मकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है तब जिस एक कर्मसे आठ प्रकार के कर्मों की उत्पत्ति स्वीकार की जाती है वह एक कर्म भी कैसे उत्पन्न हो सकेगा? यदि उसे भी कर्म से ही उत्पन्न माना जावेगा तो ऐसी अवस्था में अनवस्थाजनित अव्यवस्था दुर्निवार होगी । इसलिये उसे अकर्म से ही उत्पन्न मानना पडेगा । दूसरे कार्य सर्वथा कारणके ही अनुरूप होना चाहिये, ऐसा एकान्त नियम नहीं बन सकता; अन्यथा मृत्तिकापिण्डसे घट-घटी आदि उत्पन्न न होकर मृत्तिकापिण्डके ही उत्पन्न होने का प्रसंग अनिवार्य होगा । परन्तु चूंकि ऐसा होता नहीं है, अत एव कार्य कथंचित् ( द्रव्यकी अपेक्षा ) कारणके अनुरूप और कथंचित् ( पर्यायकी अपेक्षा ) उससे भिन्न ही उत्पन्न होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । प्रसंग पाकर यहाँ सांख्याभिमत सत्कार्यवादका उल्लेख करके उसका निराकरण करते हुए 'नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि ' इत्यादि आप्तमीमांसाकी अनेक कारिकाओं को उद्धृत करके तदनुसार नित्यत्वैकान्त और सर्वथा सत्कार्यवादका भी खण्डन किया गया है। इसके अतिरिक्त परस्पर निरपेक्ष अवस्थामें उभय ( सत्-असत् ) रूपता भी उत्पद्यमान कार्य में नहीं बनती, इसका उल्लेख करते हुए स्याद्वादसम्मत सप्तभंगी की भी योजना की गयी है । इसी सिलसिले में बौद्धाभिमत क्षणक्षयित्वका उल्लेख कर उसका निराकरण करते हुए द्रव्यकी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यस्वरूपताको सिद्ध किया गया है । पूर्वोक्त कारिकाओंके अभिप्रायानुसार पदार्थोंको सर्वथा सत् स्वीकार करनेवाले सांख्यों के यहाँ प्रागभावादिके असम्भव हो जानेसे जिस प्रकार अनादिता, अनन्तता, सर्वात्मकता और नि.स्वरूपताका XX इसकी प्ररूपणा संतकम्मपंजिया ( परिशिष्ट पृ. १-३ ) में देखिये । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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