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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २५१ ल्हुक्ख-कक्खड-गरुअ-मउअ-लहुआणं च मदिणाणावरणभंगो। अपज्जत्तणामाए उक्क० वड्ढी थोवा । हाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि।। जहण्णपदणिक्खेवे अप्पाबहुअं। तं जहा- आभिणि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणावरणीय-चक्खु-अचक्खु-ओहिदसणावरणीयाणं जह० वड्ढी जह० हाणी जहण्णमवट्ठाणं च तिणि वि तुल्लाणि, तेणेत्थ अप्पाबहुअं णत्थि । केवलणाण-केवलदंसणावरणाणं जहणिया हाणी थोवा। अवट्ठाणमणंतगुणं । वड्ढी अणंतगुणा। पंचदंसणावरण-सादासादाणं जहण्णवड्ढि-हाणि-अवढाणाणि तुल्लाणि, तेणेत्थ अप्पाबहुअंणत्थि । मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-कक्खड-मउअ-लहुआणं जहणिया हाणी थोवा। वढि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि। बारसकसायाणं मिच्छत्तभंगो। चदुसंजलणतिण्णिवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं जह० हाणी थोवा । वड्ढी अणंतगुणा। अवट्ठाणमणंतगुणं । चदुण्णमाउआणं चदुण्णं गदीणं पंचण्णं जादीणं सादभंगो। ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जह० वड्ढी थोवा। हाणी अणंतगुणा। अवट्ठाणमणंतगुणं । वेउवियआहारसरीर-वेउव्विय-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघा-- दाणं जह० वड्ढी थोवा। हाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि। छसंठाणछसंघडण-उवघाद-पत्तेय-साहारणसरीराणं ओरालियसरीरभंगो। तेजाकम्मइयसरीर पसत्थ-वण्ण-गंध-रस-फासआणुपुव्वीचउक्क-अगुरुवलहुअ-उस्सास-पसत्थापसत्थअल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अपर्याप्त नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। उसकी हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। जघन्य-पद-निक्षेपके विषयमें अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- आभिनिबोधिक ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरणकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं; इसीलिये उनमें अल्पबहुत्व सम्भव नहीं है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणकी जघन्य हानि स्तोक है। उनका जघन्य अवस्थान उससे अनन्तगुणा है । वृद्धि अनन्तगुणी है । पांच दर्शनावरण तथा साता व असाता वेदनीयकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं; इसलिये इनमें अल्पबहुत्व नहीं है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, कर्कश, मृदु और लघु; इन प्रकृतियोंकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे हैं। बारह कषायोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है। चार संज्वलन, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी जघन्य हानि स्तोक है । वृद्धि अनन्तगुणी है। अवस्थान अनन्तगुणा है। चार आयु कर्मों, चार गतियों और पांच जातियोंकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन व औदारिकसंघातकी जघन्य वृद्धि स्तोक है। हानि अनन्तगुणी है। अवस्थान अनन्तगुणा है । वैक्रियिक व आहारक शरीर, वैक्रियिक व आहारक शरीरांगोपांग तथा उनके बन्धन और संघातकी जघन्य वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे हैं। छह संस्थान, छह संहनन, उपघात, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीरकी प्ररूपणा औदारिकशरीरके समान है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, चार For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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