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________________ २५० ) छक्खंडागमे संतकम्म हाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । सुद-मणपज्जव-केवलणाणावरणकेवलदसणावरण-चक्खुदंसणावरण-णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-णिद्दा-पयलासादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसायाणं णवणोकसाय-णिरय-तिरिक्ख-मणुस-देवाउणिरयगइ-तिरिक्ख-मणुस-देवगइ-पंचजादि-ओरालिय--वेउव्विय--आहारसरीर ओरालिय-वेउव्विय-आहार-सरीरअंगोवंग-तिण्णिबंधण-संघाद-छसंठाण--छसंघडणचत्तारिआणुपुवी-उवघाद-परघाद-आदावुज्जोव-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तसथावर-बादर-सुहम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय?-साहारणसरीर-अथिर-असुह-अजसगित्तिदुभग-सुस्सर-दुस्सर--अणादेज्ज-णीचागोदाणं उक्कस्सपदणिक्खेवप्पाबहुअस्स मदिणाणावरणभंगो । ओहिणाणावरण-ओहिदसणावरणाणं उक्क० वड्ढी थोवा । अवट्ठाणं विसेसाहियं । हाणी विसेसाहिया। अचक्खुदंसणावरणस्स सव्वत्थोवमुक्कस्समवट्ठाणं *। हाणी अणंतगुणा । वड्ढी अणंतगुणा । पंचण्णमंतराइयागं अचक्खुदंसणावरणभंगो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्सहाणि-अवट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि थोवाणि । उक्क० वड्ढी अणंतगुणा । तेजा-कम्मइयसरीर-पसत्थवग्ण-गंध-रस-णिधुण्हअगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-जसगित्ति-सुभग-आदेज्ज-उच्चगोदाणं उक्कस्सिया हाणी थोवा । अवट्ठाणमणंतगुणं । उक्क० वड्ढी अणंतगुणा । अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-सीदउत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उसकी हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। श्रुतज्ञानावरण, मनःपर्यज्ञायनावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, चक्षुदर्शनावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पांच जातियां, औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीर औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीरांगोपांग; तीन बन्धन और संघात, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वियां, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस स्थावर, बादर, सूक्ष्म. पर्याप्त व अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, अयशकीर्ति, दुर्भग सुस्वर, दुस्वर अनादेय और नीचगोत्र; इनके उत्कृष्ट-पद-निक्षेपविषयक अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। अवस्थान उससे विशेष अधिक है । हानि विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है । हानि अनन्तगुणी है । वृद्धि अनन्तगुणी है। पांच अन्तरायोंकी प्ररूपणा अचक्षदर्शनावरणके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कष्ट हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । तैजस व कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस, स्निग्ध, उष्ण, अगरुलघ, स्थिर, शभ, यशकीर्ति सभग, आदेय और उच्चगोत्रकी उत्कष्ट हानि स्तोक है। उनका उत्कष्ट अवस्थान अनन्तगणा है। उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है। अप्रशस्त वर्ण, गन्ध व रस, शीत, रूक्ष, कर्कश, गुरु, मृदु और लघु; इनके उक्त ० अप्रतौ 'देवाउ वि णिरयगइ' इति पाठः। * ताप्रती ‘दुस्सर-पुस्सर-' इति पाठः । 8 अ-काप्रत्योः 'पज्जत्तापत्तेय' इति पाठः । * अप्रतौ —-मुवाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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