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________________ ३०० ) तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण णिरयाउअं बंधिय सम्मत्तं घेत्तुण पुणो दंसणमोहणीयं खइय अंतोमुहुत्तस्सुवरि संजमासंजम - संजम - दंसणमोहणीयक्खवणगुणसेडीसु उदयमागच्छमाणासु णेरइएसु उववण्णो, तस्स णिरयगइणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ । तिरिक्खगदिणामाए णिरयगदिभंगो । मणुसगदिणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धियस्स । देवर्गादिणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? उवसंतकसायस्स पढमगुणसेडिसीसयस्स से काले उदओ होहिदि त्ति मदस्स देवेसुप्पज्जिय पढमसमयदेवस्स उक्कस्सओ पदेसुदओ । छक्खंडागमे संतकम्मं वेव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग- बंधण-संघादाणं देवगइभंगो । आहारसरीर - आहारसरीरअंगोवंग बंधण-संघादाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स? पमत्तसंजदस्स उट्ठाविदआहारसरीरस्स तप्पा ओग्गविसुद्धस्स जाधे गुणसेडिसीसयं उदयं असंपत्तं तातेसि उक्कस्सओ पदेसउदओ, णत्थि अण्णा गुणसेडी | ओरालिय- तेजा - कम्मइयसरीर ओरालिय सरीर अंगोवंग-ओरालिय- तेजा - कम्मइय- सरीरबंधण-संघाद - छठाण - पढमसंघडण -- वण्ण-गंध-रस - फास अगुरुअलहुअ- करने के लिए प्रवृत्त हुआ है, वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो नारकायुको बांधकर व सम्यक्त्वको ग्रहण कर पुनः दर्शनमोहका क्षय करके अन्तर्मुहूर्तके ऊपर संयमासंयम, संयम और दर्शन मोहक्षपक गुणश्रेणियोंसे उदय में आनेपर नारकियों में उत्पन्न हुआ है उसके नरकगतिनामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । तिर्यग्गति नामकर्मके उत्कृष्ट प्रदेश उदयकी प्ररूपणा नरकगति नामकर्मके समान है। मनुष्यगति नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके होता है । देवगतिनामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? अन्यतर कालमें जिसके प्रथम गुणश्रेणिशीर्षकका उदय होगा, इस स्थितिमें वर्तमान जो उपशान्तकषाय मरणको प्राप्त होकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उस प्रथम समयवर्ती देवके देवगति नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग एवं उसके बन्धन और संघातकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग एवं उसके बन्धन व संघातका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? जिसने आहारकशरीरको उत्पादित किया है तथा जो तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे संयुक्त है ऐसे प्रमत्तसंयत जीवके जब गुणश्रेणिशीर्षक उदयको प्राप्त नहीं होता तब उसके उनका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है, अन्य गुणश्रेणि नहीं होती । औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, औदारिकशरी रांगोपांग, औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरबन्धन एवं संघात, छहसंस्थान, प्रथम संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, ॐ उवसंतपढमगुणसेढीए निद्दादुगस्स तस्सेव । पावइ सीसगमुदयं ति जाय देवस्स सुरनवगे ॥ क. प्र. ५, १२. x×× तथा तस्यैवोपशान्तकषायस्यात्मीयप्रथमगुणश्रेणीशीर्षकोदयमनन्तरसमये प्राप्स्यतीति तस्मिन् पाश्चात्ये समये जाते देवस्य ततः प्रथमगुणश्रेणी शिरसि वर्तमानस्य सुरनवकस्य वैक्रियिकसप्तक- देवद्विकरूपस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयः । मलय. XXX आहारग उज्जोयाणुत्तरतण अप्पमत्तस्स । क. प्र. ५, १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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